इतिहास का वह सबसे महान विदूषक (उपन्यास) : प्रकाश मनु

Itihaas Ka Vah Sabse Mahaan Vidushak (Hindi Novel) : Prakash Manu

1

अच्छा, तू माँ से भी मजाक करेगा?

कोई छह सौ वर्ष पुरानी बात है। विजयनगर का साम्राज्य सारी दुनिया में प्रसिद्ध था। उन दिनों भारत पर विदेशी आक्रमणों के कारण प्रजा बड़ी मुश्किलों में थी। हर जगह लोगों के दिलों में दुख-चिंता और गहरी उधेड़-बुन थी। पर विजयनगर के प्रतापी राजा कृष्णदेव राय की कुशल शासन-व्यवस्था, न्याय-प्रियता और प्रजा-वत्सलता के कारण वहाँ प्रजा बहुत खुश थी। राजा कृष्णदेव राय ने प्रजा में मेहनत और सद्गुणों के साथ-साथ अपनी संस्कृति के लिए स्वाभिमान का भाव पैदा कर दिया था, इसलिए विजयनगर की ओर देखने की हिम्मत किसी विदेशी आक्रांता की नहीं थी। विदेशी आक्रमणों की आँधी के आगे विजयनगर एक मजबूत चट्टान की तरह खड़ा था। साथ ही वहाँ लोग साहित्य और कलाओं से पे्रम करने वाले तथा परिहास-प्रिय थे।

उन्हीं दिनों की बात है, विजयनगर के तेनाली गाँव में एक बड़ा बुद्धिमान और प्रतिभासंपन्न किशोर था। उसका नाम था रामलिंगम। वह बहुत हँसोड़ और हाजिरजवाब था। उसकी हास्यपूर्ण बातें और मजाक तेनाली गाँव के लोगों को खूब आनंदित करते थे। रामलिंगम खुद ज्यादा हँसता नहीं था, पर धीरे से कोई ऐसी चतुराई की बात कहता कि सुनने वाले हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। उसकी बातों में छिपा हुआ व्यंग्य और बड़ी सूझ-बूझ होती। इसलिए वह जिसका मजाक उड़ाता, वह शख्स भी द्वेष भूलकर औरों के साथ खिलखिलाकर हँसने लगता था। यहाँ तक कि अकसर राह चलते लोग भी रामलिंगम की कोई चतुराई की बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।

अब तो गाँव के लोग कहने लगे थे, "बड़ा अद्भुत है यह बालक। हमें तो लगता है कि यह रोते हुए लोगों को भी हँसा सकता है।"

रामलिंगम कहता, "पता नहीं, रोते हुए लोगों को हँसा सकता हूँ कि नहीं, पर सोते हुए लोगों को जगा जरूर सकता हूँ।" सुनकर आसपास खड़े लोग ठठाकर हँसने लगते।

यहाँ तक कि तेनाली गाँव में जो लोग बाहर से आते, उन्हें भी गाँव के लोग रामलिंगम के अजब-गजब किस्से और कारनामे सुनाया करते थे। सुनकर वे भी खिलखिलाकर हँसने लगते थे और कहते, "तब तो यह रामलिंगम सचमुच अद्भुत है। हमें तो लगता है कि यह पत्थरों को भी हँसा सकता है!"

गाँव के एक बुजुर्ग ने कहा, "भाई, हमें तो लगता है कि यह घूमने के लिए पास के जंगल में जाता है, तो वहाँ के पेड़-पौधे और फूल-पत्ते भी इसे देखकर जरूर हँस पड़ते होंगे।"

एक बार की बात है, रामलिंगम जंगल में घूमता हुआ माँ दुर्गा के एक प्राचीन मंदिर में गया। उस मंदिर की बड़ी मान्यता थी और दूर-दूर से लोग वहाँ माँ दुर्गा का दर्शन करने आया करते थे।

रामलिंगम भीतर गया तो माँ दुर्गा की अद्भुत मूर्ति देखकर मुग्ध रह गया। माँ के मुख-मंडल से प्रकाश फूट रहा था। रामलिंगम की मानो समाधि लग गई। फिर उसने दुर्गा माता को प्रणाम किया और चलने लगा। तभी अचानक उसके मन में एक बात अटक गई। माँ दुर्गा के चार मुख थे, आठ भुजाएँ थीं। इसी पर उसका ध्यान गया और अगले ही पल उसकी बड़े जोर की हँसी छूट गई।

देखकर माँ दुर्गा को बड़ा कौतुक हुआ। वे उसी समय मूर्ति से बाहर निकलकर आईं और रामलिंगम के आगे प्रकट हो गईं। बोलीं, "बालक, तू हँसता क्यों है?"

रामलिंगम माँ दुर्गा को साक्षात सामने देखकर एक पल के लिए तो सहम गया। पर फिर हँसते हुए बोला, "क्षमा करें माँ, एक बात याद आ गई, इसीलिए हँस रहा हूँ।"

"कौन-सी बात? बता तो भला!" माँ दुर्गा ने पूछा।

इस पर रामलिंगम ने हँसते-हँसते जवाब दिया, "माँ, मेरी तो सिर्फ एक ही नाक है पर जब जुकाम हो जाता है तो मुझे बड़ी मुसीबत आती है। आपके तो चार-चार मुख हैं और भुजाएँ भी आठ हैं। तो जब जुकाम हो जाता होगा, तो आपको और भी ज्यादा मुसीबत...!"

रामलिंगम की बात पूरी होने से पहले ही माँ दुर्गा खिलखिलाकर हँस पड़ीं। बोलीं, "हट पगले, तू माँ से भी मजाक करता है!"

फिर हँसते हुए उन्होंने कहा, "पर आज मैं समझ गई हूँ कि तुझमें हास्य की बड़ी अनोखी सिद्धि है। अपनी इसी सूझ-बूझ और हास्य के बल पर तू नाम कमाएगा और बड़े-बड़े काम करेगा। पर एक बात याद रख, अपनी इस हास्य-वृत्ति का किसी को दुख देने के लिए प्रयोग मत करना। सबको हँसाना और दूसरों की भलाई के काम करना। जा, तू राजा कृष्णदेव राय के दरबार में जा। वही तेेरी प्रतिभा का पूरा सम्मान करेंगे।"

उस दिन रामलिंगम दुर्गा माँ के प्राचीन मंदिर से लौटा, तो उसका मन बड़ा हलका-फुलका था। लौटकर उसने माँ को यह अनोखा प्रसंग बताया। सुनकर माँ चकित रह गईं।

और फिर होते-होते पूरे तेनाली गाँव में यह बात फैल गई कि रामलिंगम को दुर्गा माँ ने बड़ा अद्भुत वरदान दिया है। यह बड़ा नाम कमाएगा और बड़े-बड़े काम करेगा। उसके साथ ही साथ तेनाली गाँव का नाम भी ऊँचा होगा।

2

राजपुरोहित ताताचार्य का किस्सा

धीरे-धीरे समय बीता। रामलिंगम अब युवक हो गया था। उसे लोगों की बातचीत से पता चला कि विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय विद्वानों और गुणी लोगों का बहुत सम्मान करते हैं। उसे पूरा विश्वास था कि एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में पहुँच जाने पर, वह अपनी सूझ-बूझ, लगन और कर्तव्यपरायणता से उन्हें प्रभावित कर लेगा। पर भला विजयनगर के राजदरबार में पहुँचा कैसे जाए? किसी राजदरबारी से भी उसका परिचय नहीं था, जिसके माध्यम से वह राजा कृष्णदेव राय तक पहुँच सके।

कुछ दिन बाद रामलिंगम को पता चला कि राजपुरोहित ताताचार्य पास के मंगलगिरि पर्वत पर आकर विश्राम कर रहे हैं।

मंगलगिरि बड़ा सुंदर, हरा-भरा पहाड़ी स्थल था। तेनाली गाँव से वह ज्यादा दूर नहीं था। गाँव के लोगों ने कहा कि जाकर राजपुरोहित से मिलते क्यों नहीं हो? वे सुना है कि बड़े प्रभावशाली हैं। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उनका बड़ा रुतबा है। राजा भी उनका कहना नहीं टालते।

रामलिंगम उसी समय मंगलगिरि की ओर चल पड़ा। राजपुरोहित ताताचार्य का वह विश्राम का समय था, इसलिए वह बाहर बैठा रहा। शाम के समय राजपुरोहित बाहर आकर बगीचे में टहलने लगे। वे बगीचे में रंग-रंग के फूलों की सुंदरता को मुग्ध होकर निहार रहे थे। उसी समय रामलिंगम उनके पास गया। कहा, "सचमुच रमणीक है यह पर्वत यहाँ इतने सुंदर, सुगंधित पुष्प खिले हैं। फिर आपका आना तो और भी सुखद है। मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे विद्वान का निकट से दर्शन कर पाया। आपने तो कई ग्रंथ लिखे हैं। दूर-दूर तक आपका नाम है। अगर आप मुझे अपनी सेवा का अवसर दें तो यह मेरे लिए खुशी की बात होगी।"

राजपुरोहित को रामलिंगम की बातें अच्छी लगीं। वे समझ गए कि वह बड़ा सूझ-बूझ वाला, प्रखर और मेधावी युवक है। अगर यह साथ रहे तो मंगलगिरि पर उनका समय आनंद से बीतेगा। लिहाजा राजपुरोहित ने रामलिंगम को साथ रहने की इजाजत दे दी।

अब रामलिंगम रात-दिन राजपुरोहित की सेवा करता। उनके भोजन, नित्यप्रति की जरूरतों और सुख-सुविधाओं का ध्यान रखता। साथ ही अपनी मीठी-मीठी चतुराई भरी बातों से उन्हें हँसाया करता था। राजपुरोहित समझ गए थे कि रामलिंगम की बातों में बड़ी गहरी सूझ होती है। इसलिए वे भी उसकी बातों में बड़ा रस लेते थे।

मंगलगिरि पर आनंद से कुछ दिन व्यतीत करने के बाद राजपुरोहित चलने लगे, तो उन्होंने रामलिंगम से कहा, "तुम्हारी बातों ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैं तुम्हें कभी भूलूँगा नहीं।"

तभी रामलिंगम ने निवेदन किया, "क्षमा करें आचार्य, मेरी एक प्रार्थना है। आप राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में बहुत प्रमुख पद पर हैं। अगर कभी आप उन्हें मेरे बारे में बताएँ और मुझे राजदरबार में जगह मिल सके, तब तो मैं हर समय आपके निकट ही रहूँगा। तब आपकी अच्छी तरह सेवा करने का मुझे अवसर मिलेगा।"

इस पर राजपुरोहित ताताचार्य हँसते हुए बोले, "ठीक है। मैं जाकर राजा कृष्णदेव राय से कहूँगा। तुम्हारे जैसे तेज बुद्धि वाले व्यक्ति को तो राजदरबार में होना ही चाहिए।

अब तो रामलिंगम को आशा बँध गई कि राजपुरोहित उसे जल्दी ही विजयनगर के राजदरबार में बुला लेंगे। उसने लौटकर माँ से यह कहा। माँ से गाँव वालों को भी पता चल गया। सभी आपस में चर्चा करने लगे, "तेनाली गाँव का रामलिंगम अब जल्दी ही राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में जाने वाला है। अहा, अब तो गाँव का भाग्य बदल जाएगा!"

लेकिन राजपुरोहित ताताचार्य थोड़े दंभी और संशयालु थे। वे समझ गए कि रामलिंगम चतुर और बुद्धिमान है। कहीं इसके होते हुए उनका अपना प्रभाव कम न हो जाए। यह सोचकर उन्होंने रामलिंगम को विजयनगर के राजदरबार में बुलाने की चर्चा ही नहीं चलाई।

इधर गाँव वाले बार-बार रामलिंगम से पूछते, "भई, सुना है कि तुम विजयनगर के राजदरबार में जा रहे हो। क्या बुलावा आ गया?"

रामलिंगम हँसते हुए कहता, "प्रतीक्षा कीजिए।"

लेकिन यह प्रतीक्षा जब लंबी हो गई तो गाँव वालों की बातों में व्यंग्य झलकने लगा। वे रामलिंगम से कहते, "अरे रामलिंगम, कब जा रहे हो तुम राजदरबार में? हाँ-हाँ, भई, राजा कृष्णदेव राय का राजदरबार तुम्हारे बूते ही तो चलेगा।"

सुनकर रामलिंगम को भीतर ही भीतर गहरी चोट लगती, पर ऊपर से हँसता रहता।

इस बीच उसका विवाह भी हो गया था। घर के खर्च भी बढ़ गए थे और हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी। ऊपर से गाँव वालों के व्यंग्य-बाण! वह मर्माहत हो उठता। कई बार आँखें भीग जातीं। पहली बार उसने जीवन का यह कड़वा यथार्थ देखा था। आखिर एक दिन उसने खुद ही फैसला किया और बिना राजपुरोहित के बुलावे की प्रतीक्षा किए विजयनगर जाने के लिए तैयार हो गया।

रामलिंगम ने अपना घर, खेत तथा जरूरी चीजें बेचीं और घर का जरूरी सामान बैलगाड़ी पर लादकर पत्नी और माँ के साथ चल पड़ा।

रास्ते में गाँव वालों ने चकित होकर पूछा, "क्यों भई, राजा कृष्णदेव राय का बुलावा आ गया?"

"हाँ-हाँ, आ गया।" रामलिंगम ने हँसते हुए कहा और सीधे विजयनगर की राह ली।

पर तेनाली गाँव से विजयनगर खासा दूर था। रास्ते में बड़ी बाधाएँ भी आईं। बीच-बीच में ठहरने का स्थान खोजने की परेशानी भी आती। पर रास्ते में जो भी मिलता, उससे रामलिंगम यही कहता, "हाँ, मैं राजपुरोहित ताताचार्य का शिष्य हूँ। उन्होंने मुझे विजयनगर के राजदरबार में बुलवाया है।" सुनकर रामलिंगम की मुश्किलें हल हो जातीं। हर कोई राजपुरोहित का शिष्य समझकर उसका आदर करता और उसके ठहरने और भोजन का प्रबंध आराम से हो जाता।

रामलिंगम हँसता हुआ माँ से बोला, "देखो माँ, राजपुरोहित चाहे जैसे भी हों, लेकिन नाम तो बड़ा है। उनका नाम लेने से ही रास्ते के कितने सारे संकट खत्म हो गए। लोग कहते हैं, नाम में क्या रखा है? पर माँ, नाम से भी बड़ा फर्क पड़ता है।"

माँ हँसते हुए बोलीं, "मैं क्या जानूँ बेटा? पर तू कह रहा है तो ठीक ही कह रहा होगा।"

"माँ, मैं सोचता हूँ मैं अपना नाम भी बदल लूँ। रामलिंगम के बजाय अगर मैं रामकृष्ण हो जाऊँ तो मेरे नाम के साथ राजा कृष्णदेव राय का नाम भी जुड़ जाएगा। फिर रामकृष्ण नाम सुंदर भी लगता है। तो माँ, मैं रामलिंगम से रामकृष्ण हो जाऊँ तो यह अच्छा ही रहेगा न!"

माँ हँसकर बोलीं, "ठीक है बेटा, तुझे रामकृष्ण अच्छा लगता है तो रामकृष्ण हो जा। पर मैं तो तुझे पहले भी राम कहकर बुलाती थी, अब भी यही कहकर बुलाऊँगी।"

उस दिन से रामलिंगम रामकृष्ण बना। वह तेनाली गाँव का था, इसलिए लोग उसे कहते 'तेनाली गाँव का राम'। रामकृष्ण को लगा, 'अरे, यह नाम तो कुछ बुरा नहीं है! क्यों न मैं तेनाली गाँव का राम, यानी तेनालीरामन नाम ही रख लूँ?'

अपना यह नया नाम उसे इतना अच्छा लगा कि वह दौड़ता हुआ फिर से माँ के पास गया। बोला, "माँ, माँ, मैं रामकृष्ण तो हूँ ही हूँ, पर साथ ही आज से तेनालीरामन भी हूँ। यानी तेनाली गाँव का राम। बताओ माँ, कैसा है यह मेरा नया नाम? तेनालीरामन नाम अच्छा है न!"

सुनकर माँ को हँसी आ गई। बोलीं, "बता दिया न बेटा, तू चाहे जो भी नाम रख ले, मेरे लिए तो तू राम ही है और मैं राम कहकर ही तुझे बुलाती रहूँगी। तू चाहे रामकृष्ण हो या तेनालीरामन, क्या फर्क पड़ता है?"

पर रामकृष्ण अब मन ही मन अपना नया नाम तेनालीराम या तेनालीरामन रख चुका था।

फिर विजयनगर की ओर उसकी यात्रा आगे बढ़ी। रास्ते में एक जगह क्रोडवीड स्थान पर नगरप्रमुख से वह मिला। क्रोडवीड का नगरप्रमुख बड़ा भला शख्स था। तेनालीराम की सूझ-बूझ और मधुर स्वभाव से वह बहुत प्रभावित हुआ। उसने कहा, "तुम माँ और पत्नी के साथ कहाँ-कहाँ जाओगे? मैं उनके लिए यहीं सम्मानपूर्वक रहने की व्यवस्था करता हूँ। तुम जाओ, जाकर राजपुरोहित से मिल लो। शायद उन्हें अपना वादा याद हो। फिर तो तुम्हारे आगे कोई मुश्किल ही नहीं आएगी।

और तेनालीराम माँ और पत्नी को क्रोडवीड में ही छोड़कर राजपुरोहित के निवास की ओर चल पड़ा।

जब वह राजपुरोहित के घर पहुँचा, तो पता चला कि वहाँ पूजा का आयोजन है। राजपुरोहित ने काफी सम्मानित अतिथियों को अपने घर बुलाया है।

तेनालीराम राजपुरोहित के घर के बाहर बैठ गया, ताकि उन्हें फुर्सत मिले तो वह उनसे अपने मन की बात कह सके।

कुछ समय बाद जब पूजा समाप्त हुई और अतिथि तथा अन्य प्रमुख लोग चले गए, तब तेनालीराम राजपुरोहित के द्वार पर पहुँचा। दरबान से कहा, "कृपया राजपुरोहित जी से कहें, मैं उनसे मिलना चाहता हूँ।"

तेनालीराम के साधारण वस्त्र और विपन्न हालत देखकर दरबान ने उसे बाहर से ही टाल देना चाहा। बोला, "राजपुरोहित व्यस्त हैं, तुम और किसी दिन आना। वैसे भी वे हर किसी से नहीं मिलते।"

तेनालीराम बोला, "तुम एक बार अंदर जाकर बताओ तो सही। उनसे कहना, तेनाली गाँव का वही युवक आया है, जिसने मंगलगिरि में उनकी सेवा की थी। वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं। आशा है, वे मुझे जरूर बुला लेंगे।"

दरबान ने अंदर जाकर राजपुरोहित को बताया कि तेनाली गाँव का कोई युवक आया है जो कह रहा है कि वह आपका परिचित है। सुनकर राजपुरोहित झल्ला उठे। बोले, "मैं तो नहीं जानता तेनाली गाँव के किसी आदमी को। जाने कौन-कौन मिलने चला आता है। उसे कहो कि मेरे पास उससे मिलने का समय नहीं है।"

तेनालीराम बाहर खड़ा था, पर राजपुरोहित की आवाज उसके कानों में पिघले सीसे की तरह उतर आई। वह सोचने लगा, 'राजपुरोहित कितनी जल्दी बदल गए। अरे, यह दुनिया कैसी है?'

तेनालीराम जब वहाँ से चलने लगा तो उसके चेहरे पर दुख की छाया थी। पर इसके बाद भी वह हँस रहा था। मानो हँसकर वह अपने-आप से कह रहा हो, 'तेनालीराम, तुम्हें यहाँ आकर अपनी फजीहत कराने की क्या जरूरत थी! तुम्हें राजा कृष्णदेव राय के दरबार में जाना है तो सीधे क्यों नहीं चले जाते? सुना है कि वे गुणी लोगों का सम्मान करते हैं। तो फिर तुम्हारी प्रतिभा को भला क्यों नहीं पहचानेंगे? तुम्हें भला राजपुरोहित का सहारा लेने की क्या जरूरत है?'

तेनालीराम राजपुरोहित के यहाँ से लौटा तो उसके चेहरे पर सुख-दुख की अजीब-सी आँख-मिचौनी वाला भाव था। पर दुख की छाया को तीव्र बिजली की कौंध की तरह चीरती उसकी मुसकान कह रही थी, 'मुझे हारना नहीं है, मैं अपनी हार को जीत में बदल दूँगा। तब राजपुरोहित ताताचार्य भी समझ जाएँगे कि तेनालीराम क्या है और किस मिट्टी का बना है!'

3

राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में

तेनालीराम की एक बड़ी खासियत यह थी कि बड़ी से बड़ी परेशानी के समय भी उसके चेहरे पर हमेशा हँसी खेलती रहती। राजपुरोहित के यहाँ से लौटकर भी उसकी यही हालत थी।

सच तो यह है कि तेनालीराम राजपुरोहित द्वारा किए गए अपमान को भूला नहीं था। रात-भर उसके भीतर दुख की गहरी आँधी चलती रही। उसे अफसोस इस बात का था कि राजपुरोहित को उसने कितना ऊँचा समझा था और कितना आदर-मान दिया था। पर उन्होंने तो एकदम स्वार्थी व्यक्ति की तरह आँखें फेर लीं। तेनालीराम का विश्वास जैसे टूट-सा गया था।

वह रात भर सोचता रहा कि राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में जाने पर कैसी परिस्थिति आएगी? इतने बड़े-बड़े विद्वानों और सभासदों के बीच कैसे वह अपना परिचय देगा? कहीं वहाँ भी उसके लिए कोई मुसीबत तो नहीं आ जाएगी?

रात भर तेनालीराम इसी उधेड़-बुन में रहा। लेकिन सुबह उठा तो उसका मन तरोताजा था। उसने सोचा, 'मुझे इतना अधिक सोच-विचार करने की क्या जरूरत है? जैसी परिस्थिति होगी, वैसे ही बोलूँगा। राजा कृष्णदेव राय अवश्य मेरी सूझ-बूझ की दाद देंगे।'

अगले दिन सुबह-सुबह तेनालीराम राजा कृष्णदेव राय के दरबार की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचा तो पता चला, दरबार में बड़े-बड़े विद्वान आए हुए हैं और गहरा चिंतन चल रहा है। यह संसार क्या है? इसे लेकर सभी विद्वान अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

जब सभी लोग बोल चुके तो एक त्रिपुंडधारी विद्वान खड़ा हुआ। बोला, "महाराज, मैं काशी से आया हूँ। मुझे सभी लोग पंडिताचार्य कहकर बुलाते हैं। शायद इसलिए कि काशी तो क्या, दूर-दूर तक मुझसे बड़ा विद्वान कोई और नहीं है। मैंने यहाँ आए हुए विद्वानों की बातें सुनीं, लेकिन मेरा तो यह मानना है कि इस संसार को ज्यादातर लोग समझ ही नहीं पाए। यह संसार असल में एक सपना है। हम न चलते हैं, न बोलते हैं, न खाते-पीते हैं, न देखते और सुनते हैं। हमारा चलना-फिरना, बोलना, देखना-सुनना ऐसा ही है जैसे कोई सपने में ये काम कर रहा हो। असल में तो कोई न चलता है, न बोलता है, न खाता-पीता है। यह सब उसी तरह मिथ्या हैं, जैसे सपना! यह दुनिया सपने के सिवा कुछ नहीं है।"

काशी से आए पंडिताचार्य आखिरी विद्वान थे, जिनके प्रवचन के बाद सभा विसर्जित होनी थी। तब तक राजसेवकों ने शुद्ध घी में बने मोतीचूर के लड्डू, स्वादिष्ट मालपूए और एक से एक बढ़िया व्यंजन वहाँ लाकर रखने शुरू कर दिए थे, ताकि उन्हें सभी लोगों में बाँटा जा सके।

राजदरबार में स्वादिष्ट पकवानों की गंध फैली हुई थी। राजा कृष्णदेव राय ने हँसते हुए कहा, "अब जल्दी ही हम लोग स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेंगे। इस बीच अगर आप में से किसी को उपस्थित विद्वानों के विचारों को लेकर कोई जिज्ञासा हो, तो पूछ लें।"

उसी समय तेनालीराम उठ खड़ा हुआ। बोला, "महाराज, मैं तेनाली गाँव से आया रामकृष्ण हूँ। लोग मुझे तेनालीराम कहकर पुकारते हैं। अगर इजाजत दें तो मैं पंडिताचार्य जी के महान विद्वतापूर्ण व्याख्यान को लेकर सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा।"

राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बोलने की इजाजत दे दी। इस पर तेनालीराम ने चेहरे पर बड़े गंभीर हाव-भाव लाकर कहा, "महाराज, काशी के पंडिताचार्य जी का व्याख्यान वाकई बड़ा अद्भुत था। उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इसलिए मैं दूर से ही उन्हें प्रणाम कर लेता हूँ। पर महाराज, इसके साथ ही मेरा एक निवेदन और भी है। उसे कहते हुए थोड़ा संकोच हो रहा है। अगर आप आज्ञा दें तो मैं कहूँ।"

राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के बात कहने के ढंग से बड़े प्रभावित हुए। बोले, "हाँ, हाँ, कहो तेनालीराम। तुम क्या कहना चाहते हो? बिल्कुल निस्संकोच होकर कहो।"

तेनालीराम ने मुसकराते हुए बड़ी कौतुकपूर्ण मुद्रा में कहा, "महाराज, मेरा निवेदन है कि अभी-अभी जो बढ़िया लड्डू, मालपूए और स्वादिष्ट व्यंजन हम सभी को मिलने वाले हैं, वे काशी से आए हमारे आदरणीय पंडिताचार्य जी को न दिए जाएँ।"

"क्यों, क्यों...ऐसा क्यों?" राजा कृष्णदेव राय चौंके।

"महाराज, यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ," तेनालीराम बोला, "क्योंकि पंडिताचार्य जी के हिसाब से तो इन स्वादिष्ट व्यंजनों को खाना ऐसा ही मिथ्या है, जैसे कोई सपने में खा रहा हो। लिहाजा हम लोग तो इन स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लेंगे और पंडिताचार्य जी बैठे-बैठे कल्पना कर लें कि वे सपने में उन्हें खा रहे हैं!"

बात की चोट गहरी थी। सुनकर राजा कृष्णदेव राय, दरबारी और सभा में आए विद्वान एक पल के लिए चौंके, फिर सब एक साथ ठठाकर हँस पड़े। देर तक वह हँसी राजदरबार में गूँजती रही। सब हैरान थे, राजदरबार में आए इस अजनबी युवक ने कितना गहरा व्यंग्य किया था और उसकी बात में कितनी चतुराई थी।

राजा कृष्णदेव राय ने उसी समय तेनालीराम को पास बुलाकर कहा, "मैं तुम्हें अपने राजदरबार में रखना चाहता हूँ, ताकि तुम्हारी बातों की सूझ-बूझ और चतुराई का आनंद सभी लें।"

तेनालीराम सिर झुकाकर बोला, "महाराज, मैं तो तेनाली गाँव से यही सपना लेकर कई दिन, कई रातों से चलता हुआ यहाँ आया हूँ। आपने मुझे इतना मान-सम्मान ही नहीं, आश्रय भी दिया, यह बात कभी भूलूँगा नहीं।"

इस पर सभी ने तालियाँ बजाकर और वाह-वाह करते हुए राजा कृष्णदेव राय के निर्णय की प्रशंसा की। तेनालीराम ने देखा कि वाह-वाह करने वालों में राजपुरोहित ताताचार्य भी थे। देखकर उसके चेहरे पर अजीब-सी व्यंग्यपूर्ण मुसकान आ गई।

इस बीच, बेचारे पंडिताचार्य शर्मिंदा होकर न जाने कब वहाँ से प्रस्थान कर चुके थे।

4

रात को सपने में दिखाई दी वह मूरत

राजा कृष्णदेव राय ने विजयनगर में बहुत-से भव्य मंदिर बनवाए। कई पुराने जीर्ण-शीर्ण मंदिरों का भी उद्धार किया। जब भी उन्हें किसी प्राचीन मंदिर का पता चलता, वे स्वयं वहाँ पहुँचकर उसके जीर्णोद्धार का काम करवाते। फिर पूजा करके देवताओं का आशीर्वाद भी ग्रहण करते।

एक बार की बात, विजयनगर में खुदाई के समय राजा कृष्णदेव राय को एक प्राचीन मंदिर का पता चला। पता चला कि कई पीढ़ी पहले उनके पूर्वजों ने इसे बनवाया था। मंदिर काफी जीर्ण हालत में था। राजा ने उस मंदिर की जगह नया भव्य मंदिर बनवाने का आदेश दिया।

एक से एक मशहूर कारीगरों को बुलाकर यह जिम्मा सौंपा गया। लंबे समय तक निर्माण-कार्य चलता रहा। जब मंदिर बनकर तैयार हुआ, तो सवाल उठा कि मंदिर के लिए मूर्ति कहाँ से लाई जाए?

राजा ने दरबारियों से चर्चा की। सबने अपने-अपने सुझाव दिए। किसी ने कहा, मथुरा से मूर्तिकारों को बुलाकर मूर्ति बनवाई जाए, तो किसी ने काशी के संगतराशों को बुलवाने का सुझाव दिया। राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, "महाराज, अपने राज्य में भी कुशल मूर्तिकार हैं। आप कहें, तो मैं उनसे बेजोड़ मूर्ति बनवाकर ले आऊँ?"

एक पुराने दरबारी रंगाचार्य को अपने गाँव के एक शिल्पकार की याद आई। बोले, "आप कहें तो उससे पूछकर बताऊँ। वह वाकई सुघुड़ मूर्तिकार है।"

पर राजा को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने तेनालीराम से पूछा, "तुम बताओ, मूर्ति कहाँ से लाई जाए?"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, कल रात मुझ सपने में वह मूर्ति दिखाई दी। मुझे लगा कि वह मूर्ति कह रही है, मैं मंत्री जी के घर आ गई हूँ। मुझे वहाँ से लाकर मंदिर में प्रतिष्ठा करवाओ। फिर देखते ही देखते वह मंत्री जी के घर-आँगन में जमीन के अंदर चली गई! वह मूर्ति बड़ी भव्य और अद्भुत है महाराज! मैंने तो आज तक कार्तिकेय की ऐसी सुंदर मूर्ति कोई और देखी नहीं। उसका मुखमंडल ऐसा था, जैसे प्रकाश निकल रहा हो। अगर खुदाई करवाई जाए तो..."

राजा ने उत्सुकता से कहा, "पर ठीक-ठीक जगह कैसे पता चले?"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, यह तो मंत्री जी ही बता सकते हैं।"

सुनकर मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उसने बता दिया कि आँगन में कहाँ मूर्ति गड़ी है। उसी समय कुछ सैनिक और राज कर्मचारी मंत्री जी के घर गए। जमीन में दबी मूर्ति ले आए। वह कार्तिकेय की अष्ट धातु की रत्नजड़ित मूर्ति थी। देखकर राजा समेत सभी चकित थे।

ठीक समय पर मंदिर में मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। कुछ अरसे बाद राजा कृष्णदेव राय ने पूछा, "तेनालीराम तुम्हें मूर्ति का पता कैसे चला?"

तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा, "महाराज, आँख-कान खुले रखकर! फिर उसने बताया, "मुझे तो पहले ही दिन पता चल गया था कि मंदिर के साथ एक मूर्ति भी निकली है। पर मंत्री जी ने उसे अपने घर ले जाकर दबा दिया। खुदाई करने वाले मजदूरों ने मुझे आकर यह बात बता दी। मैंने सोचा, समय पर ही आपको बताऊँगा। जिन मजदूरों ने मंत्री जी के घर उस मूरत को दबाया था, उन्होंने भी आकर मुझे सब कुछ सच-सच बता दिया था। वह मूर्ति तो बाहर आनी ही थी। बस, यों समझिए कि मैं सही समय का इंतजार कर रहा था...!"

खुश होकर राजा ने मंदिर की देखभाल का जिम्मा भी तेनालीराम को ही सौंप दिया।

5

आया बीच में पहाड़

विजयनगर सम्राट राजा कृष्णदेव राय बड़े वीर और प्रतापी राजा थे। उनकी वीरता का डंका दूर-दूर तक बजता था। कहा जाता है कि उनके धनुष की टंकार से दिशाएँ काँपती थीं। पर पड़ोसी देश फिर भी निर्लज्जता से कुछ न कुछ उत्पात करते रहते थे। वे राजा कृष्णदेव राय की की कीर्ति और यश को सहन नहीं कर पाते थे। इसलिए मन ही मन उनसे ईर्ष्या करते थे और जब-तब उन्हें परेशान करने का कोई न कोई मौका खोज ही लेते थे। राजा कृष्णदेव राय इससे चिंतित रहते थे।

एक बार की बात है, सीमा पर शत्रु राजा की गतिविधियाँ तेज हो गईं। वैसे तो पड़ोसी देश नीलपट्टनम के दबे-छिपे षड्यंत्र चलते ही रहते। पर इस बार वहाँ का शासक राजकीर्ति बार-बार बीहड़ जंगलों और चोर रास्तों से अपनी सेनाएँ भेजकर विजयनगर की सेना और प्रजा को अशांत किए हुए था। शत्रु सैनिक कभी भी आक्रमण कर देते और फिर बहुत-से दुश्मन के जासूस विजयनगर में घुसपैठ करने में कामयाब हो जाते। वे यहाँ आकर प्रजा को विद्रोह के लिए भड़काते और जगह-जगह लूटपट और तोड़-फोड़ करते। इसी कारण चोरी-डकैती और अपराध की घटनाएँ भी बढ़ गईं।

नीलपट्टनम की सेना के आकस्मिक आक्रमण और चोरी-छिपे घुसपैठ के जवाब में जब विजयनगर की सेना जवाब देने के लिए आगे आती, तो शत्रु सैनिक एकाएक भाग खड़े होते। कुछ पीछे हटकर सुरक्षित स्थान पर खड़े हो जाते। विजयनगर की सेना वापस लौट आती। पर कुछ समय बाद फिर से शत्रु की नापाक गतिविधियाँ शुरू हो जातीं। कुत्ते की टेढ़ी पूँछ की तरह शत्रु भी टेढ़ा था। कभी दुम दबाकर भागता, कभी फिर तनकर आ जाता। इस बात से राजा कृष्णदेव राय बहुत परेशान थे।

उन्होंने दरबारियों से पूछा, "शत्रु सीधे-सीधे लड़ना भी नहीं चाहता और हमें शांति से बैठने भी नहीं दे रहा। उसका एकमात्र उद्देश्य हमें परेशान करता है, ताकि हमारी प्रजा सुख की साँस न ले सके। अब आप लोग बताइए, इन परिस्थितियों में क्या उपाय करना चाहिए?"

राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर चिंता का भाव था। लंबे समय से चली आ रही पेशानी का अब वे स्थायी हल खोजना चाहते थे। इसीलिए दरबारियों के साथ बैठकर वे इस समस्या पर विचार कर रहे थे।

सभी दरबारी अपनी-अपनी सलाह दे रहे थे। राजपुरोहित ताताचार्य ने तो यहाँ तक कहा कि "महाराज, शत्रु देश की गतिविधियाँ समाप्त करने का बस एक ही तरीका है कि उसका अंत कर दिया जाए। जब हम उसे जीत लेंगे, तभी ये दुष्टता भरे षड्यंत्र खत्म होंगे।"

राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री की ओर देखा तो उसने भी कहा, "महाराज, लगता है, अब तो युद्ध जरूरी हो गया है।"

सेनापति ने जोश में आकर कहा, "आप हमें आज्ञा दें महाराज, हमारी सेना शत्रुओं को गाजर-मूली की तरह काट डालेगी।"

राजा कृष्णदेव एक क्षण चुप रहे। फिर उन्होंने कहा, "मंत्री जी और सेनापति जी, मुझे आप लोगों की बात पर भरोसा है। युद्ध लड़कर मैं इस दुष्ट राजा को छठी का दूध याद दिला सकता हूँ। पर मेरा विचार है कि युद्ध तो किसी भी प्रजा-वत्सल राजा का आखिरी हथियार होना चाहिए। अगर मैं युद्ध में ही अपनी सारी शक्ति झोंक दूँगा तो प्रजा की भलाई के काम कब होंगे? इस तरह रक्तपात उचित नहीं है। प्रजा तो अमन चाहती है, सुख-शांति चाहती है। और ऐसे ही राज्य में कला और संस्कृति रह सकती है, जिसमें अमन और शांति हो।"

"तब तो महाराज, ये रोज-रोज की परेशानियाँ हमें झेलनी ही होंगी।" मंत्री ने कहा, "हम इतने लंबे समय से देख रहे हैं कि शत्रु के घुसपैठिए हमारे देश में उपद्रव करने से बाज नहीं आ रहे। हमने उन्हें सही पाठ नहीं पढ़ाया तो वे काबू में नहीं आएँगे।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय गंभीर हो गए। बोले, "हाँ, समस्या गंभीर है, इसका हल तो खोजना ही होगा। मैं चाहता हूँ कि बिना लड़े ही समस्या का हल हो जाए। और अगर लड़ना ही जरूरी हो, तो इस बार ऐसा युद्ध हो कि दुश्मन फिर आगे कभी सिर न उठा पाए।"

कहते-कहते राजा गंभीर हो गए। कुछ सोचकर उन्होंने कहा, "कल इस समस्या पर हम लोग आगे विचार करेंगे। फिर जो भी हल समझ में आएगा, वैसा करेंगे। आप सब लोग इस बारे में अच्छी तरह सोच-विचार करके आइए।"

अगले दिन दरबार में फिर से इस समस्या पर विचार शुरू हुआ। सबने अपनी-अपनी राय दी। बहुत-से सभासद तुरंत युद्ध छेड़ने की बात कर रहे थे। पर तेनालीराम की राय अलग थी। उसने कहा, "महाराज, हमारी समस्या शत्रु सैनिकों की घुसपैठ है। पर इसका तो बड़ा आसान इलाज है कि सीमा पर काँटेदार तारों के साथ एक ऊँची दीवार खींच दी जाए।"

"पर क्या इससे शत्रु की घुसपैठ वाकई रुक पाएगी?" राजा कृष्णदेव राय ने पूछा।

"महाराज, उस दीवार के इस ओर बीच-बीच में हमारे सैनिक भी तो होंगे। दीवार खिंच जाने पर वे शत्रु सेना के घुसपैठिओं को आसानी से काबू कर सकते हैं। हमारी मुश्किल बस यही तो है कि शत्रु सेना आक्रमण की ढाल के सहारे अपने सैनिकों की घुसपैठ करा देती है। शत्रु के जासूस हमारे देश में जगह उपद्रव और उत्पात करते हैं। अपराध की घटनाएँ होती हैं। सीमा पर दीवार खिंच जाने से यह सब कुछ शांत हो जाएगा।"

राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न होकर बोले, "तेनालीराम की बात में दम है।"

आखिर तय हुआ कि सीमा पर दीवार खड़ी कर दी जाए, जिससे शत्रु सैनिक राज्य में घुसकर उपद्रव न कर पाएँ। सीमा पर दीवार खिंचवाने का काम तेनालीराम को सौंपा गया।

अगले दिन से ही तेनालीराम ने राजकोष से धन लेकर अपना काम शुरू कर दिया। सुबह से लेकर शाम तक वह अपनी निगरानी में दीवार बनवाता। फिर सैनिकों को पहरे पर बैठाकर घर चला जाता। अगले दिन फिर काम शुरू हो जाता। उसकी व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी।

कुछ दिन बाद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम को बुलाकर पूछा, "अभी कितना काम हुआ? कितनी दीवार बन गई, कितनी और बननी है?"

तेनालीराम बोला, "महाराज, अभी देर है। काम पूरा होने में अभी समय लगेगा।"

पर राजा के मन में गहरी व्यग्रता थी। कुछ दिन बाद उन्होंने फिर तेनालीराम को बुलाकर पूछा, "तेनालीराम, काम पूरा हुआ या नहीं?"

तेनालीराम गंभीर था। बोला, "महाराज, अभी देर है।"

"क्या बात है तेनालीराम?" राजा कृष्णदेव राय को गुस्सा आ गया। बोले, "कब तक दीवार पूरी होगी? यह जरा सी दीवार तुमसे पूरी नहीं हो पाई। खजाने से पैसा तो काफी निकाला गया था, क्या वह कम पड़ गया? या तुम्हें अभी तक कारीगर नहीं मिले? बताओ, बात क्या है?"

सुनकर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, "महाराज, दीवार तो कब की बन जाती, लेकिन बीच में पहाड़ आ गया। यही मुश्किल है।"

"पहाड़!...मगर वहाँ पहाड़ तो कोई नहीं है। तुम क्या कह रहे हो तेनालीराम? होश में तो हो!" राजा चकरा गए।

"चलिए महाराज, अभी दिखा देता हूँ वह पहाड़।" तेनालीराम ने शांत स्वर में कहा।

राजा कृष्णदेव राय उसी समय तेनालीराम, मंत्री, सेनापति और कुछ प्रमुख दरबारियों को लेकर सीमा पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि दीवार आधी बनी है, पर उसका आगे और ऊपर का काफी हिस्सा गिरा दिया गया है।

उन्होंने इधर-उधर देखा और पूछा, "तेनालीराम, पहाड़ कहाँ है? मुझे तो नहीं दिखाई पड़ रहा।"

"अभी दिखाई पड़ेगा, महाराज!" कहकर तेनालीराम ने इशारा किया। तुरंत सैनिक गए और पास ही बनी एक कोठरी से आठ-दस लोगों को पकड़कर ले आए। सबके हाथों में हथकड़ियाँ थीं। तेनालीराम बोला, "देखिए महाराज, यह रहा पहाड़।"

"पर पहाड़...! कैसे?" राजा ने हैरान होकर पूछा।

"महाराज, ये शत्रु देश के जासूस हैं, पर हमारी दीवार के लिए ये पहाड़ इसलिए बन गए कि हम दीवार बनाते हैं तो ये हर बार गिरा जाते हैं। और जब-जब इन्हें पकड़ा जाता है, ये फिर छूट जाते हैं।"

"फिर छूट जाते हैं, कैसे?" राजा ने अचंभे से भरकर पूछा।

"यह तो महाराज मंत्री जी से पूछिए। क्योंकि उन्हीं के आदेश से ये हर बार जेल से छूटते हैं। आप चाहें तो कारागार निरीक्षक को बुलवाकर पूछ लें कि इन्हें कौन कहाँ जाकर छुड़वा देता है!...सच्ची बात तो यह है महाराज, कि हमारे देश में भी इन घुसपैठियों के बहुत-से शुभचिंतक और हितैषी हैं और वे दुर्भाग्य से, मंत्री जी के भी मित्र हैं।"

सुनकर राजा ने मंत्री की ओर देखा। मंत्री के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने सिर झुकाकर कहा, "माफ कीजिए, महाराज मुझसे भूल हुई।"

पता चला कि मंत्री की बहुत-से षड्यंत्रकारियों से मित्रता थी और इसका लाभ शत्रु को हो रहा था। पर मंत्री अपने फायदे के आगे राज्य के हित को भूल गया था।

"मंत्री जी, राजधर्म निभाइए, वरना आपको भी वहीं भेज दिया जाएगा, जो देश के दुश्मनों की सही जगह है।" राजा ने क्रोध में आकर कहा।

सुनकर मंत्री थर-थर काँपते हुए राजा कृष्णदेव राय के पैरों पर गिर पड़ा। बोला, "क्षमा करें महाराज! अब यह भूल कभी नहीं होगी...कभी नहीं।"

उस दिन के बाद दीवार तो बड़ी तेजी से पूरी हुई ही, शत्रु की गतिविधियाँ भी खत्म हो गईं। साथ ही घुसपैठियों का साथ देने वाले लोगों को भी देशद्रोह की सजा मिल गई। पहाड़ अब राई हो चुका था, इसलिए कि अंदर के दुश्मन का भेद मिल गया था।

विजयनगर में जिसने भी यह किस्सा सुना, तेनालीराम की जी भरकर प्रशंसा की। सब ओर उसकी वाहवाही होने लगी। साथ ही राजदरबार में भी उसका सिक्का जम गया था।

6

कौन है असली, कौन है नकली?

राजा कृष्णदेव राय बहुत बुद्धिमान और कलाप्रिय राजा थे। उन्होंने खुद भी बड़े उत्तम कोटि के ग्रंथों की रचना की थी। इसलिए वे लेखकों, कलाकारों और विद्वानों का हृदय से सम्मान करते थे। इसलिए विजयनगर ही नहीं, दूर-दूर के राज्यों के प्रसिद्ध विद्वान और कलावंत भी राजा कृष्णदेव राय के दरबार में आकर खुद को धन्य मानते थे। यहाँ तक कि देश-विदेश के ऐसे कवि, लेखक और कलाकार भी, जिन्हें दुख था कि उनकी प्रतिभा को किसी ने समझा-परखा नहीं, बड़ी आशा लेकर विजयनगर आते थे और राजा कृष्णदेव राय का व्यवहार देखकर गद्गद हो उठते थे।

गुणों का सम्मान करने वाले राजा कृष्णदेव राय उनका कवित्त सुनकर या उनकी कला की मात्र एक झलक देखकर ही पहचान जाते थे कि उनकी प्रतिभा किस कोटि की है। फिर वे प्रसन्नचित्त होकर रत्न और अशर्फियाँ उपहार में देकर सभी का उचित सम्मान करते थे। विजयनगर के दरबार से कभी कोई कवि, विद्वान या कलाकार निराश या खाली हाथ नहीं लौटा।

इतना ही नहीं, स्वयं राजा कृष्णदेव राय के दरबार में भी सभी अलग-अलग विद्याओं के एक से एक प्रकांड पंडित, विद्वान और श्रेष्ठ कलावंत थे। राजा हमेशा उन्हें प्रोत्साहित करते थे, ताकि अपने-अपने क्षेत्र में वे खूब उन्नति करें और नाम कमाएँ। इससे राजा कृष्णदेव राय और विजयनगर की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई थी। उन्हें लोग कवियों जैसे हृदय वाला वीर और प्रतापी राजा कहा करते थे, जिसके धनुष की टंकार से दिशाएँ काँपती थीं। पर वे उतने ही सहृदय और भावुक भी थे।

एक बार की बात, राजदरबार में शाही चित्रकार विजयलिंगम ने कहा, "महाराज, मैंने गाँव-कूचे की साधारण बस्तियों में रहने वाले लोगों के कुछ सुंदर चित्र बनाए हैं। बच्चों, बड़ों, स्त्री और पुरुषों के साथ-साथ वहाँ की प्रकृति, पेड़-पौधों और फूलों के भी एकदम नए ढंग के चित्र है। देखकर आप दंग रह जाएँगे। मेरी इच्छा है, राजसी चित्रशाला में उन चित्रों की प्रदर्शनी हो। उद्घाटन आप करें।"

राजा कृष्णदेव राय ने तुरंत हामी भर ली। बोली, "विजयलिंगम जी, मैं इसके लिए सहर्ष प्रस्तुत हूँ। राज-काज के कामों की निरंतर व्यस्तता में कला, संगीत और विद्वत्ता के साहचर्य में कुछ आनंद-विनोद के पल मिल जाएँ, तो मेरे जैसे कवि-हृदय व्यक्ति को लगता है, जैसे मन की मुरझाई हुई बगिया खिल उठी हो। मैं अवश्य ही आपके नए चित्रों की कला-प्रदर्शनी में आऊँगा और आप कहेंगे तो उद्घाटन भी कर दूँगा। आप आयोजन की पूरी व्यवस्था कर लें। जिस भी वस्तु का आवश्यकता हो, उसके लिए मंत्री जी से कहें। प्रबंध हो जाएगा। आयोजन भव्य होना चाहिए और उसके लिए राजधानी के ही नहीं, दूर-दूर के कलाप्रेमियों को भी निमंत्रण भिजवाइए। आयोजन से एक दिन पहले मुझे बता दें, ताकि उसी के अनुकूल अपना सारा कार्यक्रम बना लूँ।"

कुछ दिनों बाद शाही चित्रशाला में राज कलाकार विजयलिंगम के चित्रों की प्रदर्शनी हुई। चित्र देखकर राजा कृष्णदेव राय हैरान रह गए। चकित होकर बोले, "ये तो अद्भुत चित्र हैं, एकदम अद्भुत!...अरे भाई विजयलिंगम जी, राजधानी में रहते हुए आपने गाँव वालों के ऐसे सुंदर और सजीव चित्र बनाए हैं, जिनमें जीवन धड़कता है। कमाल है! इस तरह के आपके चित्र तो कभी देखे ही नहीं। ये तो बिल्कुल अलग तरह की कलाशैली के चित्र हैं। एकदम अपूर्व! मुग्ध कर देने वाले! रंग-योजना और शैली भी एकदम अनूठी है। और कल्पना भी कितनी कौतुक भरी! आपने ये चित्र अभी तक कहाँ छिपाकर रखे थे? हमें तो दिखाए नहीं।"

"महाराज, मैंने सोचा था, एक साथ इतने चित्र दिखाकर आपको चकित कर दूँगा। इसीलिए बना-बनाकर इकट्ठे करता जा रहा था।" शाही चित्रकार विजयलिंगम ने तनिक झेंपते हुए कहा।

राजा कृष्णदेव राय ने कला-प्रदर्शनी में शाही कलाकार विजयलिंगम के चित्रों का खूब तारीफ की। बोले, "आज इन चित्रों को देखकर लग रहा है, मैं एक नई ही दुनिया में आ पहुँचा हूँ। यह ऐसी दुनिया है, जिसमें वास्तविक दुनिया के रंग-आकार हैं, धरती के जीते-जागते लोग हैं, पर कला की दुनिया में आकर वे कुछ और हो जाते हैं। सचमुच ही कुछ और...! वे रोज-रोज के हमारे जाने-पहचाने चेहरे इस कला की दुनिया में आकर एक अनूठी सुंदरता से भर जाते हैं। प्रकाशवान हो उठते हैं!"

फिर एक चित्र को गौर से देखते हुए उन्होंने कहा, "अब आप लोग देखिए, यह सामने वाले चित्र में जो एक बुढ़िया का चेहरा है, वह चेहरा नहीं, मुझसे पूछिए तो, झुर्रियों की झोली जैसा है। फिर भी कितना अद्भुत, कितना विलक्षण! जैसे यह बूढ़ी स्त्री हम सबकी माँ हो, हमारी प्यारी धरती माँ हों।...कहाँ से आया इसमें ऐसा सौंदर्य? मेरा मन कहता है, जीवन के रोजमर्रा के सुख-दुख झेलते हुए ही ऐसा तेज आ गया इसमें।...और यही बात दूसरे चित्रों के बारे में भी है। सभी में जीवन की सच्चाई खिली-खिली सी सामने आती है तो साथ ही कल्पना की मुक्त उड़ान भी है। मेरे कलाप्रेमी मित्रो, यही तो इस धरती पर सबसे बड़ी कला है...जीवन की कला!"

कहते हुए राजा कृष्णदेव राय ने बेशकीमती रत्नों से जड़ा हार पहनाकर और रेशमी दुशाला ओढ़ाकर कलाकार विजयलिंगम का सम्मान किया।

लौटते समय भी राजा कृष्णदेव राय का आनंद भीतर समा नहीं रहा था। उन्होंने दरबारियों से कहा, "वाह-वाह, कितने सजीव लग रहे थे विजयलिंगम के वे चित्र! सचमुच यही तो कला है!"

तभी एकाएक तेनालीराम बोला, "किंतु महाराज, मुझे भी इस बारे में कुछ कहना है।"

"हाँ-हाँ, कहो, कहो तेनालीराम!" राजा कृष्णदेव राय उत्साहित होकर बोले।

"महाराज, चित्र वाकई अच्छे हैं, पर इस कला का दूसरा चेहरा और है।" तेनालीराम बोला, "वह इससे भी आश्चर्यजनक और अवर्णनीय है। उसे तो आपने देखा ही नहीं!"

"कला का दूसरा चेहरा! आश्चर्यजनक और अवर्णनीय...! यह क्या कह रहे हो तुम?" राजा ने हैरानी से कहा।

"हाँ महाराज, मैं ठीक कह रहा हूँ। ये चित्र वाकई आश्चर्यजनक और अवर्णनीय हैं और इनकी प्रशंसा के लिए आपको ऐसे ही शब्द भी ढूँढ़ने पड़े, जैसे शब्द केवल आप जैसा कलापारखी राजा ही कह सकता है। पर महाराज, मेरा विश्वास है कि इस कला का जो दूसरा चेहरा मैं आपको दिखाने ले जा रहा हूँ, उसे देखकर तो आप बिल्कुल गूँगे ही हो जाएँगे और बहुत चाहकर भी आपको अपने मन के भाव कह पाने के लिए शब्द तक नहीं मिलेंगे।...आप एकदम अवाक रह जाएँगे महाराज, अवाक...!"

"तुम क्या कह रहे हो तेनालीराम? मुझे तो तुम्हारी कोई बात समझ में नहीं आ रही।" राजा कृष्णदेव राज ने कुछ परेशान होकर कहा।

"तो चलिए महाराज, आप स्वयं देख लीजिए। कला का वह दूसरा चेहरा जो इससे भी अधिक आश्चर्यजनक और अवर्णनीय है! अभी कुछ ही क्षणों में वह आपकी आँखों के सामने होगा।"

तेनालीराम के आग्रह पर राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ चल पड़े। कुछ ही आगे गए थे कि सड़क के किनारे एक पागल सा युवक दिखाई दिया। कपड़े अस्त-व्यस्त. सारे शरीर पर धूल ही धूल। सामने एक चित्र था। चुटकी भरकर उस पर धूल डालता और फिर खुद पर। साथ ही बड़बड़ाता भी जा रहा था, "तू इसी लायक है, इसी लायक...बस, इसी लायक।...थू है तुझ पर, थू!"

राजा कृष्णदेव राय चौंके। सोचने लगे, 'यह चित्र तो शाही प्रदर्शनी के चित्रों से एकदम मिलता-जुलता है। इस युवक के पास कहाँ से आया? और यह उस पर धूल क्यों डाल रहा है?...इस तरह दुखी मन से बड़बड़ा क्यों रहा है? यह तो बड़ी अजीब सी बात है।'

उन्होंने पास आकर उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा, "क्या कर रहे हो भाई?"

सुनते ही वह युवक खड़ा हो गया। बोला, "मेरा नाम भास्करन है, महाराज। मिट्टी पर मिट्टी डाल रहा हूँ।"

"मिट्टी? लेकिन यह तो चित्र है!" राजा ने हैरान होकर कहा।

"चित्र कहाँ महाराज? चित्र तो वे हैं जिनका आप अभी-अभी उद्घाटन करके आ रहे हैं। ये तो मिट्टी हैं। इन्हें बनाने वाला मैं भी मिट्टी हूँ। जीवन भर चित्र बनाए, सोचता था, आपको दिखाऊँगा। लेकिन वे शाही चित्रकार ने हड़प लिए और अब मैं जीवन भर ऐसे ही भटकता रहूँगा, ऐसे ही...!" भास्करन के स्वर में गहरा दुख और उदासी थी।

"क्या...! शाही चित्रकार विजयलिंगम ने तुम्हारे चित्र हड़प लिए? यही कह रहे हो न तुम! यह तो बहुत बड़ा आरोप है। क्या तुम विजयलिंगम के आगे कहोगे यह बात...?" राजा ने कहा।

"सत्य किसी से नहीं डरता महाराज!...ईश्वर से भी!" कहते हुए भास्करन अजीब ढंग से हँसा।

राजा कृष्णदेवराय ने तुरंत शाही चित्रकार विजयलिंगम को वहाँ बुलवाया। उसने दूर से ही भास्करन को देख लिया था। आते ही कंधे उचकाकर बोला, "महाराज, यह युवक तो चोर-उचक्का है। आप इसकी बात का यकीन मत कीजिए।"

भास्करन फिर उसी तरह विद्रूप हँसी हँसता हुआ बोला, "महाराज, बिल्कुल ठीक कह रहे हैं विजयलिंगम...इसलिए कि चोरों को सब नजर आते हैं चोर!"

तभी तेनालीराम मुसकराते हुए बोला, "महाराज, दोनों को ऐसा ही चित्र बनाने के लिए कहिए। अभी पता चल जाएगा, कौन चित्रकार है और कौन चोर...?"

सुनते ही शाही चित्रकार विजयलिंगम पसीने-पसीने। उसने बहुत चित्र बनाए थे, पर इस तरह की कलाशैली के चित्र बनाना उसके बस की बात नहीं थी। राजा कृष्णदेव राय और सभासद एकटक उसकी ओर देख रहे थे। मारे घबराहट के उसके चेहरे का रंग उड़ गया, हाथ-पैर काँप रहे थे। उसने मान लिया कि चित्र उसके नहीं, भास्करन के हैं।

राजा कृष्णदेव राय ने भास्करन के पास जाकर बड़े प्यार से पूछा, "लेकिन युवक, इतने योग्य चित्रकार होने पर भी तुम राजदरबार में क्यों नहीं आए?"

"महाराज, कोशिश तो की थी। लेकिन मैं गाँव का सीधा-सादा युवक। मुझे किसी ने भीतर ही नहीं आने दिया। शाही चित्रकार ने दरबानों को पैसा देकर खरीद लिया था। वे मुझे आपसे मिलने ही नहीं दे रहे थे। सभी ने कहा कि तुम ये चित्र शाही चित्रकार विजयलिंगम को दिखाओ। उनकी अनुमति होगी, तभी तुम अंदर जा सकते हो। मैंने चित्र शाही चित्रकार को देखने के लिए दिए थे, पर उन्होंने तो हड़प ही लिए।...यों मैं तो अपने जीवन भर की कमाई ही गँवा बैठा, महाराज!" भास्करन बोला।

"तो फिर तुम तेनालीराम से मिले, यही न!" कहकर राजा हँस पड़े।

भास्करन ने सिर हिलाकर कहा, "महाराज, हम जैसे गरीबों का तो एक ही आसरा है, तेनालीराम!...जिसे कहीं से न्याय नहीं मिलता, उसके लिए आपके दरबार का यह दुबला-पतला बूढ़ा जरूर खड़ा हो जाता है। तेनालीराम मदद न करता महाराज, तो आपके सामने सच्चाई का असली पहलू कैसे आता?...दुनिया चमकीली चीज को ही सच मानती है। भला गरीब कलाकार का दर्द कौन समझ सकता था?"

उसी समय राजा कृष्णदेव राय ने शाही चित्रकार विजयलिंगम को बर्खास्त कर दिया। कहा, "आज से भास्करन शाही चित्रकार होगा।"

भास्करन ने दोनों हाथ जोड़कर राजा कृष्णदेव राय को धन्यवाद दिया। बोला, "महाराज, आप कला-प्रेमी हैं, यह तो जानता था, पर आप एक गरीब कलाकार की कला की इतनी ऊँची कीमत लगाएँगे, मैं सपने में भी इसकी कल्पना नहीं कर सकता था।"

राजा कृष्णदेव राय हँसे। बोले, "धन्यवाद तो हमें तेनालीराम को देना चाहिए। इसकी कला शायद सबसे ऊँची है, जो सच्चाई का असली चेहरा दिखाकर मुझ जैसे सम्राट की भी आँखें खोल देती है!"

तेनालीराम दूर खड़ा मुसकरा रहा था।

7

जब मंत्री ने खुदवाए जादू वाले कुएँ

एक बार की बात, मौसम सुहावना था। न ज्यादा सर्दी न गरमी। सर्दियों का मौसम तो चला गया था, पर गरमी अभी तेज नहीं हुई थीं। बीच-बीच में दो-एक बार बारिश भी हो चुकी थी। आसमान में हलके ऊदिया बादल थे और मन को खुश कर देने वाली ठंडी हवा चल रही थी। राजा कृष्णदेव राय बोले, "आज को दिन कुछ अलग सा है। इसे कुछ अलग ढंग से बिताना चाहिए।"

मंत्री ने कहा, "महाराज, बढ़िया मौसम की खुशी में आज एक बढ़िया दावत हो जाए, तो सबको अच्छा लगेगा।"

सेनापति गजेंद्रपति ने कहा, "और महाराज, बढ़िया दावत के बाद बढ़िया उपहार भी मिल जाए, तो क्या कहने!"

राज पुरोहित ताताचार्य का पेटूपन जगजाहिर था। उसे लगा, "मंत्री ने बिल्कुल मेरे मन की बात कह दी है। बोला, हाँ, महाराज, दावत जरा अच्छी हो, ताकि बाद में भी उसे याद करें। हाँ, उसमें खीर और कलाकंद तो जरूर हो।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हँसी आ गई। वे कुछ कहते, इससे पहले ही तेनालीराम बोला, "महाराज, इस दिलखुश मौसम में तो जंगल हरियाली और फल-फूलों से लद जाता है। क्यों न आज राजधानी के साथ वाले जंगल में घूमने जाया जाए? यह वनविहार आपके साथ-साथ हमें भी ताजगी से भर देगा। वैसे इसी बहाने आप अपनी प्रजा की खुशहाली भी देख लेंगे। आप प्रजा के लिए इतनी योजनाएँ बनाते हैं और राज खजाने ससे इतना धन खर्च होता है, तो जरूर प्रजा की हालत भी बदली होगी।"

बात राजा कृष्णदेव राय को पसंद आ गई। उन्होंने मंत्री, सेनापति, राज पुरोहित और अपने कुछ प्रिय दरबारियों के साथ जंगल में सैर करने का कार्यक्रम बनाया।

राजा कृष्णदेव राय का आदेश मिलते ही आनन-फानन में तैयारियाँ होने लगीं। राजा के लिए विशेष रथ तैयार किया गया। बाकी सब अपने-अपने घोड़ों पर सवार थे। यह शाही काफिला महल से निकला और धूल उड़ाते हुए जंगल की ओर चल दिया। कोई दो-ढाई घंटे बाद राजा कृष्णदेव राय अपने दरबारियों के साथ राजधानी से काफी दूर घने जंगल में पहुँच गए।

साथ में खासा लाव-लश्कर था। खाने-पीने का सामान भी। दोपहर का समय था। एक बरगद के पेड़ के नीचे वे विश्राम के लिए ठहरे। अब तक सूरज खासा तपने लगा था। हवा भी गरम हो गई थी। फिर इतनी लंबी यात्रा की थकान। राजा कृष्णदेव राय को बड़े जोर की प्यास लग आई। उनके संकेत पर एक दरबारी चाँदी की सुराही में से पानी निकालकर देने लगा। पास ही सुगंधित केवड़े से भरा पात्र भी था। राजा कृष्णदेव राय जब भी पानी पीते तो उसमें सुगंधित केवड़ा जरूर डाला जाता।

राजा कृष्णदेव राय पानी पीना चाहते थे, पर एकाएक ठिठक गए। उन्हें तेनालीराम की बात याद आई कि इस वनभ्रमण के बहाने वे अपनी प्रजा की हालत भी देख लेंगे। राजा ने कहा, "यह पानी तो हम अपने महल में रोज पीते हैं। आज बाहर निकले हैं, तो हमारे राज्य की जनता जो पानी पीती है, आज हम वही पिएँगे। सामने पेड़ के पास एक कुआँ नजर आ रहा है। वहाँ से लाओ पानी।"

दरबारी गया। जल्दी से पानी लेकर आ गया। पानी कुछ गँदला था। देखकर राजा का मन कुछ खिन्न हो गया। उन्होंने पूछा, "क्या यही पानी पीते हैं यहाँ के लोग?"

तब तक पास के बिज्जन गाँव के लोग भी आ गए थे। साथ में गाँव का प्रधान रामरमैया भी था। राजा कृष्णदेव राय के पूछने पर उसने बताया, "महाराज, यह स्थान ऊँचाई पर है। थोड़े से कुएँ हैं। उनमें भी गरमियों में पानी कम हो जाता है। कुओं की सफाई न होने से गँदला पानी पीना पड़ता है। पर क्या करें महाराज, हम गरीब लोग हैं। किससे कहें, क्या कहें! हमारी तो कोई सुनवाई ही नहीं।"

राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री से कहा, "मुझे नहीं पता था कि हमारे राज्य में गरीबों की हालत इतनी खराब है। जनता की भलाई के लिए इतनी योजनाएँ बनती हैं। शाही खजाने से इतना पैसा निकलता है, वह जाता कहाँ है?"

सुनकर मंत्री कुछ सकपकाया। राजा कृष्णदेव राय कुछ रोष के साथ बोले, "मंत्री जी, तुरंत कुओं की सफाई कराई जाए। नए कुएँ भी खुदवाइए। एक महीने में सारा काम हो जाना चाहिए।"

मंत्री ने कहा, "यह इलाका असल में जंगल के नजदीक है, इसलिए छूट गया। पर अब जल्दी ही इसका विकास होगा। लोगों की सब परेशानियाँ दूर हो जाएँगी।"

एक महीने पूरा होते ही मंत्री ने दरबार में बताया, "महाराज, सारा काम हो गया। सौ नए कुएँ खोदे गए हैं। पुराने कुओं की सफाई भी करवा दी है। अब गाँवों में पानी की समस्या खत्म हो गई है। सभी लोग खुश हैं और आपका गुणगान कर रहे हैं।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई। मन ही मन बोले, "जरूर बिज्जन गाँव के गरीब लोगों ने मुझे दुआएँ दी होंगी। यह भी समझ लिया होगा कि मेरे शासन में गरीब और अमीर में कोई भेदभाव नहीं किया जाता।"

इसके कुछ दिनों बाद की बात है। गरमी का मौसम शुरू होते ही खासी तपिश हो गई। राजा कृष्णदेव राय राजदरबार में बैठे थे। तभी अचानक उनका ध्यान राजदरबार के बाहर चिलचिलाती धूप की ओर गया। उन्होंने कहा, "इस साल गरमी बहुत पड़ रही है। लगता है, धरती तंदूर की तरह तप रही है। अभी तो जल्दी बारिशों के भी आसार नजर नहीं आते।"

मंत्री बोला, "महाराज, गरमी तो वाकई बहुत पड़ रही है। लेकिन आपके राज्य की जनता को क्या चिंता? सबको पीने का साफ, ठंडा पानी मिल रहा है। पहली बार एक साथ इतने कुएँ खोदे गए। साथ ही पुराने कुओं की सफाई...!"

राजा कृष्णदेव राय ने खुश होकर कहा, "बहुत अच्छा! अब गाँव के लोगों को गँदला पानी नहीं पीना पड़ेगा।"

सभी दरबारी मंत्री की हाँ में हाँ मिलाने लगे। लेकिन तेनालीराम चुप बैठा था। राजा ने कहा, "क्यों तेनालीराम, कुएँ खोदने वाली बात क्या तुम्हें पसंद नहीं आई? किसी दिन तुम भी उन कुओं का पानी पीकर बताओ, मीठा है या नहीं?"

तेनालीराम बोला, "महाराज, बहुत मीठा है उन कुओं का पानी! मैंने पिया है। ऐसा मीठा पानी तो मैंने कहीं और पिया ही नहीं। सचमुच मंत्री जी ने कमाल कर दिया। अभी तक लोग जमीन में कुएँ खोदते थे। पर मंत्री जी ने तो कागज के कुएँ बनवाकर दिखा दिए। और उनमें पानी भी ऐसा कमाल का कि क्या कहें!"

"कागज के कुएँ! हमने तो कभी देखे नहीं! उनमें पानी कैसे ठहरेगा?" राजा कृष्णदेव राय ने हैरानी से कहा।

"महाराज, आप खुद चलकर देख लीजिए मंत्री जी का जादू! और सचमुच उन कुओं का पानी भी एकदम मिसरी जैसा मीठा है। लगता है, मंत्री जी ने उन कागज के कुओं में शक्कर की बोरी भी डलवाई है।" तेनालीराम मुसकराते हुए बोला।

मंत्री के आगे-पीछे घूमने वाला नया दरबारी देवकुट्टनम बोला, "महाराज, तेनालीराम सनक गया है। हमेशा उलटी-सीधी बातें ही करता है। आप इसकी बातों पर ध्यान मत दीजिए। भला कागज के कुएँ भी होते हैं...?"

पर राजा कृष्णदेव राय की उत्सुकता बहुत बढ़ गई थी। उन्होंने तुरंत तैयारी करने के लिए कहा। मंत्री, सेनापति, राज पुरोहित ताताचार्य और कुछ प्रमुख दरबारियों को साथ ले, राजा चलने के लिए तैयार हो गए। तेनालीराम भी साथ में था। तभी मंत्री घबराया हुआ राजा के पास आया। गिड़गिड़ाकर बोला, "क्षमा कर दीजिए, महाराज! भूल हो गई।"

"क्या बात है मंत्री जी? आप परेशान क्यों हैं?" राजा ने पूछा, तो मंत्री ने डरते-डरते बताया, "तेनालीराम ठीक कह रहा है महाराज। पुराने कुओं की सफाई तो हो गई। लेकिन...लेकिन अ...असल बात यह है कि नए कुएँ जितने कागज पर दिखाए गए हैं, उससे चौथाई भी नहीं बने। अधिकारी सारा पैसा हड़प गए!...क्षमा कीजिए महाराज!" कहते हुए मंत्री बुरी तरह हकलाने लगा।

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय सारी बात समझ गए। मंत्री को फटकारते हुए कहा, "जिन अधिकारियों ने पैसा डकारा है, उन्हें फौरन बुलाकर आदेश दीजिए, जल्दी से सारा काम पूरा हो जाए। नहीं तो सबको दंड मिलेगा। तेनालीराम की निगरानी में होगा सारा काम! हमें बस उसी पर पूरा विश्वास है। आज भी अगर उसने न चेताया होता तो असलियत कभी सामने न आती।"

सुनकर शर्म और लज्जा के मारे मंत्री की गरदन झुक गई। 'हाँ-छाप' दरबारियों की भी बुरी हालत थी। तेनालीराम दूर खड़ा मुसकरा रहा था।

8

दिखाया तीतर ने कमाल

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में बड़े-बड़े विद्वानों के साथ ही अनेक विद्याओं के जानकार और कलावंत लोग भी आया करते थे। राजा उनका सम्मान करते थे और उन्हें कीमती पुरस्कार देकर विदा करते थे। इसी तरह वे तरह-तरह के घोड़ों और पशु-पक्षियों के भी बड़े शौकीन थे। अच्छी नस्ल के घोड़ों और तरह के पशु-पक्षियों की उन्हें बहुत अच्छी जानकारी थी। अगर कोई सुंदर पशु-पक्षी लेकर दरबार में आता तो राजा खुश हो जाते थे। लाने वाले को उचित मूल्य देकर वे उन पशु-पक्षियों को अपने दरबार में रख लेते थे। फुर्सत के क्षणों में इनसे वे मनबहलाव करते थे। साथ ही दरबारियों को भी बड़ी रुचि से उनकी विशेषताओं के बारे में बताते थे।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में नील पर्वत के घने जंगल में रहने वाला एक चिड़ीमार मुत्तू आया। वह आदिवासी था और उसकी वेशभूषा भी निराली थी। उसने पक्षियों के परों का रंग-बिरंगा मुकुट पहना हुआ था। वस्त्र भी कुछ अलग ढंग के। साथ में तीर-कमान भी था। उसके पास बहुत-से छोटे-छोटे तीतर थे। चिड़ीमार मुत्तू ने कहा, "महाराज, तीतरों की लड़ाई मशहूर है। सिखाए जाएँ तो ये तीतर बड़े लड़ाकू बन सकते हैं।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हँसी आ गई। बोले, "वाह मुत्तू, यह तो तुमने अच्छी बात कही। अगर ये सचमुच लड़ाकू हो जाएँ, तब तो इन्हें सीमा पर दुश्मन से लड़ने भी भेजा जा सकता है!"

सुनकर दरबारी हँसने लगे, मुत्तू भी।

राजा कृष्णदेव राय ने मुत्तू से वे सभी तीतर खरीद लिए और उसे ढेर सारा पुरस्कार देकर विदा किया।

दरबार में उस दिन काम कुछ कम था, इसलिए तीतरों की बात छिड़ी तो लंबी चलती गई। अचानक राजा कृष्णदेव राय को चुहल सूझी। उन्होंने एक-एक तीतर दरबारियों को दिया। कहा, "आप अपने-अपने तीतर को लड़ना सिखाइए। देखें, किसका तीतर जीतता है?"

इस पर सारे दरबारी अचकचाए। सोच रहे थे, "यह कैसी मुसीबत गले पड़ी?" फिर एक मुश्किल यह थी कि अकेला तीतर भला कैसे लड़ना सीखेगा? पर यह बात भला राजा से कौन कहे?

राजा कृष्णदेव राय भी मंद-मंद मुसकराते हुए दरबारियों की ओर देख रहे थे। अचानक उन्होंने सेनापति गजेंद्रपति की ओर इशारा करते हुए कहा, "आपका तीतर तो सबसे लड़ाकू साबित होना चाहिए सेनापति जी। आप कोशिश कीजिए कि यह सारे दाँव-पेच सीख जाए। हमें बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा है उस घड़ी की, जब हम आप सबके तीतरों का कमाल देख पाएँगे।"

इस पर सेनापति ने कुछ हैरान-परेशान होकर कहा, "महाराज, अकेला तीतर कैसे लड़ना सीखेगा?" बाकी दरबारियों ने भी अपने-अपने ढंग से यही कहा।

राजा कृष्णदेव राय बोले, "यही तो देखना है। आपमें से कोई अपना तीतर किसी दूसरे को नहीं देगा। और मैं यह भी चाहता हूँ कि आप खुद अपने तीतर को लड़ना सिखाइए किसी और की मदद मत लीजिए। मैं तीतर के जरिए आपकी होशियारी और युद्ध-कला देखना चाहता हूँ।"

दरबारी भला क्या कहते! वे मुँह लटकाए हुए अपना-अपना तीतर घर ले आए। सबकी हालत बुरी थी। दिमाग कुछ काम नहीं कर रहा था। घर के लोगों ने पूछा, तो सबने अपने-अपने ढंग से एक ही बात कही, "पता नहीं, हमारे राजा कृष्णदेव राय को कभी-कभी क्या हो जाता है? कब कौन सी मुसीबत खड़ी कर दें, कुछ पता ही नहीं चलता।"

कुछ दिन बीते। अचानक एक दिन राजा कृष्णदेव राय को तीतरों की बात याद आ गई। पूछा, "क्या आप लोगों ने तीतरों को लड़ना सिखा दिया? मैं समझता हूँ, तीतरों को लड़ाई के दाँव-पेच सिखाने के लिए इतना समय काफी है।"

सुनकर सभी दरबारी चुप। मंत्री ने धीरे से कहा, "महाराज, बहुत कोशिश की। लेकिन अकेला तीतर लड़ना सीख ही नहीं सकता।"

दूसरे दरबारियों के चेहरे भी लटके हुए थे। सभी ने मंत्री की हाँ में हाँ मिलाई। एक नया दरबारी देव कुंडलम बोला, "महाराज, मैंने इस बीच अपने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है। कहीं भी अकेले तीतर को लड़ना सिखाने की विधि नहीं लिखी। तो बताइए, मैं उससे कैसे सिखाता?"

राज पुरोहित ताताचार्य ने भी कहा, "हाँ महाराज, देव कुंडलम ठीक कह रहा है। किसी भी शास्त्र में ऐसी कोई विधि नहीं लिखी।"

राजा कृष्णदेव राय कुछ देर सोचते रहे। फिर उन्होंने तेनालीराम से पूछा। तेनालीराम ने कहा, "महाराज, किस शास्त्र में क्या लिखा है, यह तो मैं नहीं बता सकता। पर हाँ, मेरा तीतर तो लड़ाई के कितने ही दाँव-पेच सीख चुका है।"

सुनकर सारे दरबारियों ने एक साथ कहा, "ऐसा हो ही नहीं सकता महाराज! ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता। तेनालीराम सरासर झूठ बोल रहा है।"

राजा कृष्णदेव राय बोले, "ठीक है, कल तेनालीराम अपना तीतर लाएगा, दूसरे दरबारी भी। तेनालीराम का तीतर बाकी सभी तीतरों से एक-एक कर लड़ेगा। हार गया, तो तेनालीराम को सजा मिलेगी। जीता तो तेनालीराम को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ इनाम में मिलेगा।"

सुनकर दरबारी मन ही मन खुश हुए। सोचने लगे, "अब होगी तेनालीराम की किरकिरी!"

सेनापति ने कहा, "एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तो बेचारे को कभी सपने में भी नहीं मिली होंगी। चलो, इसी बहाने रात में एक अच्छा सपना तो देख लेगा! भले ही नींद खुलने के साथ वह हवा हो जाए।"

मंत्री ने दरबारियों को चेताते हुए कहा, "तेनालीराम जरूर कोई चालाकी करेगा। तुम लोग सतर्क रहना। तुरंत इस बारे में राजा को बताना, ताकि उसकी खूब बेइज्जती हो।"

अगले दिन शाम के समय राजा के बगीचे में सभी दरबारी तीतर लेकर पहुँचे। तेनालीराम भी अपना तीतर लेकर आया।

लड़ाई शुरू हुई। लेकिन यह क्या! देखते ही देखते तेनालीराम का तीतर दूसरे तीतरों पर बिजली की तरह झपटा। उसमें कमाल की तेजी और बाँकपना था। गरदन एकदम सीधी तनी हुई। चुस्ती-फुर्ती भी गजब की!...थोड़ी ही देर में उसने एक-एक कर सभी को पछाड़ दिया। देखकर सभी दरबारियों के चेहरे फक पड़ गए। किसी के मुँह से आवाज तक नहीं निकली। सब सोच रहे थे, "कहीं तेनालीराम ने इस तीतर पर जादू तो नहीं कर दिया। वरना अकेला तीतर भला कैसे लड़ सकता था?"

राजा कृष्णदेव राय भी हैरान थे। बोले, "कमाल है तेनालीराम! पर तुमने ऐसा कैसे कर दिखाया? खुद मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ।"

तेनालीराम मंद-मंद हँसी के साथ बोला, "महाराज, ऐसी कोई ज्यादा मुश्किल तो नहीं आई। असल में सुबह-शाम मैं तीतर को आईने के आगे छोड़ देता था। तीतर अपनी परछाईं को दूसरा तीतर समझ झपटता। जल्दी ही इसने लड़ाई के दावँ-पेच सीख लिए।...और फिर उसका कमाल तो आपने देख लिया!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। दरबारियों की ओर देखकर बोले, "देखा आपने, इसीलिए तो हमें तेनालीराम की जरूरत है।"

उन्होंने एक लाख स्वर्णमुद्राओं से भरी थैली तेनालीराम को इनाम में दी। इस पर तेनालीराम तो ठठाकर हँस रहा था, मगर बाकी दरबारियों की जो हालत थी, उसकी कल्पना आप खुद कर लीजिए!

9

नन्हे दीयों की खिलखिलाहट

राजा कृष्णदेव राय के दरबार में दीवाली का उत्सव बड़ी धूम-धाम के साथ मनाया जाता था। दीवाली पर राजमहल ही नहीं, पूरे विजयनगर में ऐसी भव्य सजावट और ऐसी अद्भुत जगर-मगर होती के लोग पूरे साल भर उसे याद करते और सराहते। राजधानी में जगह-जगह कदली पत्रों से तोरण-द्वार बनते। रंग-बिरंगी झंडियों से बंदनवार सजाए जाते। कभी-कभी राजा कृष्णदेव राय पड़ोसी राज्यों के भूपतियों को भी इस भव्य आयोजन में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते। ऐसे अवसरों पर तो विजयनगर का दीवाली उत्सव सचमुच दर्शनीय हो जाता। अतिथि राजा भी राजा कृष्णदेव राय की महिमा, उदारता और आतिथ्य की भूरि-भूरि सराहना करते हुए घर जाते।

इस बार भी दीवाली नजदीक थी और प्रजा की निगाहों में बेहद उत्सुकता थी कि इस बार राजा कृष्णदेव राय पूरे विजयनगर में दीवाली पर कैसी जगर-मगर करते हैं। हर बार दीपोत्सव में कुछ न कुछ नई बात देखने को मिलती थी। पता नहीं, इस बार विजयनगर की प्रजा को दीवाली की कौन सी नई और मनोरम झाँकी देखने का आनंद मिलने वाला था?

खुद राजा कृष्णदेव राय भी यही सोच रहे थे। दीवाली का उत्सव नजदीक था और वे कुछ तय नहीं कर पाए थे कि इस बार उसे कैसा रूप दिया जाए, जिससे दीपोत्सव का हर्षोल्लास कुछ और बढ़ जाए।

आखिर कुछ सोचकर उन्होंने राजदरबार में कहा, "मेरा मन है कि इस बार दीवाली कुछ अलग तरह से मनाई जाए। आप लोग बताइए कि ऐसा क्या हो सकता है, जिससे हमारी प्रजा को आनंद मिले और दीवाली का उत्सव यादगार बन जाए?"

इस पर दरबारियों में उत्साह की तरंग सी छा गई। सबने तरह-तरह को सुझाव दिए। मंत्री बोला, "महाराज, यह तो सभी जानते हैं कि दीपावली लक्ष्मी-पूजन का पर्व है। तो क्यों न इस दीवाली पर हम सचमुच लक्ष्मी जी को प्रसन्न करें? इसके लिए उचित होगा कि दीपावली पर राजकोष के दुर्लभ हीरे-मोतियों की प्रदर्शनी लगाकर हम भी अपनी राजलक्ष्मी का प्रदर्शन करें। इससे लक्ष्मी जी तो प्रसन्न होंगी ही, साथ ही प्रजा के मन में विजयनगर राज्य के लिए गर्व की भावना उत्पन्न होगी।"

राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, "महाराज, जिस तरह बाहर दीवाली की जगर-मगर होती है, ऐसे ही हमारे दिलों में भी दीपों का पवित्र उजाला फैलता है। जिनके मन प्रकाशित होते हैं, ऐसे विद्वान दूर-दूर तक उजाला फैलाते हैं। इसलिए मेरा विचार है कि दीपावली पर दूर-दूर से अपने राज्य के बड़े विद्वानों को बुलाकर उनका सम्मान किया जाए। आखिर उन्हीं के कारण तो पूरे विश्व में विजयनगर की कीर्ति का उजाला फैल रहा है।"

सेनापति गजेंद्रसिंह ने कहा, "महाराज, मेरा तो सुझाव यह है कि इस अवसर पर अपने पड़ोस के राजाओं को बुलाकर उनके सम्मान में कोई विशेष आयोजन हो। इससे हमारी शक्ति बढ़ेगी और दबदबा भी। सारी दुनिया हमारी धाक मानेगी।"

बड़ी भारी तोंद वाले एक भोजनभट्ट दरबारी पुंगीदास ने हँसते हुए कहा, "महाराज, बहुत दिनों से राज्य की ओर से दावत नहीं दी गई। इस दीपावली पर छत्तीस व्यंजनों की ऐसी बढ़िया दावत हो कि लोग कभी भूल न पाएँ!"

पुंगीदास ने बात इस तरह आनंद में लीन होकर कही थी कि सुनकर सब जोर से हँस पड़े। राजा कृष्णदेव राय भी मुसकराए, पर उनकी मुख-मुद्रा अब भी गंभीर थी।

वे कुछ देर सोचते-विचारते रहे। पर उन्हें कोई सुझाव नहीं जँचा। बोले, "ऐसा तो पहले भी हो चुका है। हम चाहते हैं कि इस बार कुछ अलग-सा कार्यक्रम हो। कुछ नयापन हो, जिससे हमारी प्रजा आनंदित हो, साथ ही दीवाली का संदेश दूर-दूर तक जाए।"

तेनालीराम मुसकराता हुआ बोला, "फिर तो महाराज एक ही बात हो सकती है। वह यह कि हर बार तो दीवाली पर रात में दीए जलते हैं, पर इस बार दिन में ही सब ओर दीयों का उजाला किया जाए।"

सुनकर सब दरबारी हँसने लगे। मंत्री बोला, "महाराज, तेनालीराम तो बिल्कुल ही सनक गया है। लगता है, बूढ़ा होने के कारण इसकी अक्ल भी बूढ़ी हो गई है। इसीलिए बहकी-बहकी बातें कर रहा है। भला दिन में उजाला कैसे हो सकता है?"

"हो सकता है, महाराज।" तेनालीराम बोला, "मेरा सुझाव है कि इस बार आप राजधानी के बच्चों के साथ दीपावली मनाएँ। हँसते-खिलखिलाते बच्चों के बीच आप दीपावली का उत्सव मनाएँगे, तो लगेगा कि दिन में ही चारों ओर दीयों का प्रकाश फैल गया है। इसके लिए राजउद्यान में बच्चों का एक अनोखा मेला लगाया जाए। उसमें बच्चे अपने ढंग से मंच की सजावट करके मनचाहे कार्यक्रम पेश करें। मेरा यह भी सुझाव है कि उसमें किसी बड़े का दखल न हो। तब वाकई लगेगा कि बच्चों की एक हँसती-खिलखिलाती दुनिया बस गई है। उन बच्चों के साथ हँसते और बातें करते हुए आप भी कुछ देर के लिए बच्चे बन जाएँगे।...और तब आप खुद अपनी आँखों से देखेंगे कि दिन में दीए कैसे जलते हैं!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकरा उठे। बोले, "ठीक है तेनालीराम, तो इस अनोखे मेले की देखभाल का जिम्मा तुम्हारा रहा। देखना है कि इस बार तुम क्या जादू करते हो?"

तेनालीराम हँसकर बोला, "महाराज, मैं तो बुड्ढा हूँ। पर कहते हैं, बूढ़ों की बच्चों की बच्चों से दोस्ती बड़ी अच्छी हो जाती है। इसलिए मुझे यकीन है कि मैं सब सँभाल लूँगा। यह उत्सव अनोखा और यादगार होगा।"

उसी दिन पूरे विजयनगर में घोषणा की गई कि राजा कृष्णदेव राय इस बार बच्चों के साथ मिलकर दीपावली मनाना चाहते हैं। दीवाली वाले दिन राजउद्यान में बच्चों का अनोखा मेला लगेगा, जिसमें वे अपने-अपने मन के कार्यक्रम पेश कर सकते हैं। कार्यक्रम की तैयारी के लिए बच्चे तीन दिन पहले ही राजउद्यान में आ जाएँ। वहीं उनके ठहरने और खाने-पीने का इंतजाम किया गया है। कार्यक्रम की तैयारी के लिए एक अलग से सतरंगा शिविर भी बनाया गया है, जहाँ सभी तरह की सुविधाएँ हैं।

सुनते ही बच्चों में उत्साह की लहर-सी छा गई। दीवाली से तीन दिन पहले राजउद्यान बच्चों से पूरी तरह भर गया। जैसे बच्चों की एक अलग दुनिया बस गई हो। सब उसी दिन से खूब तैयारी करने लगे। किसी ने दीपों पर कविता बनाई तो किसी ने मजेदार कहानी सुनाने की तैयारी कर ली। मंच पर नाटक और मनोहर नृत्य पेश करने वाले बच्चे भी थे। कुछ बच्चों ने प्रदर्शन के लिए रंगों और तूलिका से बड़े ही सुंदर चित्र और कलाकृतियाँ भी तैयार कीं।

दीवाली पर बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। सुबह से ही बच्चे अच्छे और रंगारंग कपड़े पहनकर राजउद्यान पहुँचने लगे। सब अपने-अपने कार्यक्रमों की तैयारी में लगे थे। कुछ बच्चे मिलकर मंच की सजावट में लग गए। कार्यक्रम पेश करने का जिम्मा भी एक बच्चे ने ही सँभाला।

राजा कृष्णदेव राय के कुतूहल की भी सीमा न थी। वे भी जल्दी से तैयार होकर मंत्री, राजपुरोहित ताताचार्य, सेनापति गजेंद्रसिंह और प्रमुख दरबारियों के साथ वहाँ आए तो कुछ बच्चों ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। पहले उन्होंने मेले में घूमकर बच्चों के चित्रों और कलाकृतियों की अद्भुत नुमाइश देखी। कई जगह उनके पाँव जैसे ठिठक-से गए। फिर वह अपने आसन पर आकर बैठे तो बच्चों का कार्यक्रम शुरू हो गया। पहले एक बच्चे ने बड़े मधुर स्वर में राजा कृष्णदेव राय के लिए स्वागत-गान गाया, 'आइए सम्मान्यवर, पधारिए सम्मान्यवर!' फिर एक छोटी-सी बच्ची ने 'आ गई दीपावली...खिल गई कली-कली!' गीत गाया। उसके बाद एक से एक सुंदर कार्यक्रम मंच पर पेश किए जाने लगे।

बच्चों को पहली बार अपने मन से सब कुछ करने का मौका मिला था। तेनालीराम ने तो बस इशारा भर किया था। कार्यक्रम खुद बच्चों ने ही मिलकर तैयार किए थे। वे खूब मस्ती से भरकर अपनी अनूठी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। इतने में अचानक दीपनृत्य की घोषणा हुई। कैसा दीपनृत्य होने जा रहा था, किसी को इसकी कल्पना नहीं थी। पर जब एक साथ इक्कीस बच्चों ने बच्चों ने दीपों जैसी पोशाक पहनकर अनूठा दीप-नृत्य किया तो राजा कृष्णदेव राय विभोर हो उठे। मंत्री, सेनापति गजेंद्रसिंह और राजपुरोहित ताताचार्य भी आनंदमग्न होकर वाह-वाह कर रहे थे।

फिर सब बच्चों ने मिलकर 'आँधी और नन्हा दीया' नाटक पेश किया। नाटक में काली रात की आँधी में जलते हुए एक नन्हे दीए की कहानी दर्शाई गई थी। एक छोटा बच्चा दीया बना था जो सबको खुशियाँ बाँटना चाहता था। एक खूब बड़ा-सा काला राक्षस आँधी बनकर उसे डराता था, जिसके बड़े विशालकाय और डरावने सींग थे। पर बच्चा डरा नहीं। आखिर में बहुत-से नन्हे-नन्हे बच्चे उसके साथ आकर खड़े हो गए और नन्हे दीए की लंबी कतार बन गई। सब ओर उजले दीयों की लड़ियाँ नजर आने लगीं। एक दीया बुझता तो दस दीए और जल जाते।

नाटक खत्म होते ही राजा कृष्णदेव राय इतने रोमांचित हो उठे कि बिल्कुल एक बच्चे की तरह जोर-जोर से तालियाँ बजाने लगे।

आखिर में एक छोटे बच्चे ने कहा, "अब जरा ध्यान से सुनिए। कार्यक्रम के अंत में हम चाहते हैं कि विजयनगर राज्य का सबसे बड़ा बच्चा मंच पर आकर एक बढ़िया-सी कहानी सुनाए।"

सुनकर सब हैरान थे। भला कौन है विजयनगर का सबसे बड़ा बच्चा और वह कौन सी रोमांचक कहानी सुनाने वाला है? राजा कृष्णदेव राय भी बड़ी उत्सुकता से इधर-उधर देख रहे थे।

इतने में एक छोटा-सी बच्ची राजा कृष्णदेव राय के पास आकर बोली, "आप कहाँ देख रहे हैं? आपको तो मंच पर बुलाया जा रहा है। चलिए, चलकर सबको अपनी कहानी सुनाइए।"

राजा चौंके, "मैं? पर बुलाया तो किसी बच्चे को है ना...!"

"हाँ महाराज, आप ही तो हैं वह, जिनका दिल बच्चों जैसा निर्मल है।" राजा के पास बैठा तेनालीराम हँसता हुआ बोला, "तभी तो आप अभी कुछ देर पहले एक छोटे बच्चे की तरह उमंग से भरकर तालियाँ बजा रहे थे। अब जल्दी से चलिए, मंच पर आपका इंतजार हो रहा है।...वरना क्या पता, बच्चे नाराज होकर आपको कोई कठोर दंड दे दें। आखिर आज तो सारी कमान बच्चों के हाथ में है। आपकी भी...!"

इस पर राजा कृष्णदेव राय हँसते हुए मंच पर आए और बचपन की शरारत का एक किस्सा सुनाने लगे। उन दिनों उनके दूर के रिश्ते के मामा जी घर आए, जिनकी दाढ़ी-मूँछें बहुत बड़ी-बड़ी थीं। बचपन में कृष्णदेव राय को उन्हें देखकर कुछ अजीब लगता और वे चुपके से उनकी दाढ़ी खींचकर भाग जाते थे। बाद में मामा जी ने उन्हें खूब सारा कलाकंद खिलाकर और अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाकर मोह लिया। तब कहीं वे अपनी दाढ़ी बचा पाए! ...राजा कृष्णदेव राय ने इतने मजेदार ढंग से बचपन का यह किस्सा सुनाया कि बच्चे हों या बड़े, हँसते-हँसते सब लोटपोट हो गए।

बाद में बच्चों ने राजा कृष्णदेव राय से बड़े मजेदार सवाल पूछे, राजा ने हँसते हुए उनका जवाब दिया। सुनकर बच्चों ने खूब तालियाँ बजाईं।

आखिर में बच्चों को पुरस्कार देना था। तेनालीराम बोला, "यह काम भी मेरे खयाल से राज्य के सबसे बड़े बच्चे को ही करना चाहिए।"

राजा कृष्णदेव राय हँसते हुए अपने आसन से उठे और बच्चों को पुरस्कार के रूप में एक से एक सुंदर और बेशकीमती उपहार दिए। बच्चों की खुशी का ठिकाना न था।

तब तक शाम उतरने लगी थी। हलका अँधेरा छाने लगा था। राजा ने सब बच्चों की मदद से खुद तेल-बाती डालकर दीए जलाए। फिर सबने मिलकर ढेर सारे मेवों वाली स्वादिष्ट खीर और एक से एक बढ़िया मिठाइयाँ खाईं। बच्चे राजा कृष्णदेव राय को अपने बिल्कुल पास देखकर रोमांचित थे और उनसे खूब खुलकर बातें कर रहे थे। हर बच्चे का चेहरा खुशी से इस तरह दमक रहा था, कि लगता, वह भी एक नन्हा सा दीया है।

एकाएक राजा को तेनालीराम की बात याद आ कि इस बार दीपावली पर दिन में दीए जलाए जाएँ। उन्होंने देखा तेनालीराम दूर खड़ा मंद-मंद मुसकरा रहा है। राजा ने इशारे से उसे पास बुलाकर कहा, "सचमुच तेनालीराम, तुम्हारी बात ठीक थी। आज मैंने वाकई देख लिया कि दिन की रोशनी में भी कैसे दीए जलते हैं!"

राजा कृष्णदेव राय इतने प्रसन्न थे कि कार्यक्रम खत्म होते ही तेनालीराम से बोले, "तुमने बड़ी अनोखी बात सुझाई तेनालीराम। दीपावली पर इतना आनंद पहले कभी नहीं आया था। बच्चों के बीच बैठकर मैं भी अपने बचपन में पहुँच गया। पहली बार बच्चों के बीच बैठकर ही मैंने जाना कि दीयों की निर्मल उजास क्या होती है!"

उसी दिन राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा की कि अब वे हमेशा बच्चों के साथ ही दीवाली मनाया करेंगे। ताकि दीपावली पर रात में ही नहीं, दिन में भी खुशियों के दीए जलें। हाँ, उन्होंने इतना और जोड़ दिया कि आगे से इस बाल मेले का आनंद लेने के लिए विजयनगर की प्रजा को भी आमंत्रित किया जाएगा, ताकि वे भी इन नन्हे दीयों की जगर-मगर देकर आनंदित हों।

10

पोलूराम की खुली पोल

राजा कृष्णदेव राय का न्याय ऐसा था कि दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता था। कोई कितना ही होशियार, छल-बल वाला या तिकड़मी क्यों न हो, दरबार में राजा कृष्णदेव राय के तर्क और बुद्धिमत्तापूर्ण न्याय के आगे उसकी बोलती बंद हो जाती थी। जो सच्चे और ईमानदार होते, उनके चेहरे खिल उठते। थोड़ी ही देर में सभी के मुँह से निकलता—"सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुँह काला!" यों अकसर नेक और भले लोग राजा के दरबार में परेशान होकर आते, मगर हँसते हुए जाते थे।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। किसी समस्या पर गंभीर विचार-विमर्श चल रहा था। तभी उन्हें जोर की गुहार सुनाई दी, "दुहाई है, महाराज! न्याय कीजिए, न्याय कीजिए!"

राजा कृष्णदेव राय चौंक उठे। परेशान होकर उन्होंने सामने गलियारे में देखा, जहाँ कुछ ज्यादा ही हलचल थी। इसी के साथ लड़ते-झगड़ते तीन लोग भीतर आए। इनमें एक शहर का मशहूर हलवाई बालचंद्रन था तथा दो अन्य लोग थे। पूछने पर उनमें से एक ने अपना नाम पोलूराम बताया, दूसरे ने ढोलूराम। रुपयों की एक थैली को लेकर पोलूराम और ढोलूराम का हलवाई बालचंद्रन से झगड़ा हो रहा था।

हलवाई बालचंद्रन कह रहा था, "बचाइए, महाराज! ये दोनों ठग मुझसे थैली छीनना चाहते हैं। बड़े ही बदमाश हैं ये लोग। कई दिनों से मेरी दुकान पर नजर रखे हुए थे। पता नहीं, कैसे चोर-उचक्के हैं। थैली छीनने की कोशिश की। मैंने नहीं छीनने दी, तो मुझे मारा-पीटा और धमकाया भी है! महाराज, इन गुंडों से मुझे बचाइए। साथ ही इन्हें कड़ी से कड़ी सजा दीजिए।"

राजा ने बालचंद्रन के साथ आए लोगों पोलूराम और ढोलूराम से पूछा। उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा, "महाराज, आप इस बेईमान आदमी की बातों में मत आ जाइए। हम तो गाँव के सीधे-सादे लोग हैं। इसी दुष्ट हलवाई ने मौका ताड़कर हमारी थैली हड़प ली। थैली हमारी है। हम दुकान पर बैठकर मिठाई खा रहे थे, तो इसने चुपके से उठा ली और अब देने से इनकार कर रहा है।"

राजा कृष्णदेव राय ने बालचंद्रन से सारी बात पूछी तो उसने बताया, "महाराज, दुकान बंद करने से पहले मैंने रुपए गिने। उन्हें थैली में डाल, घर चलने को हुआ, तो ये दोनों ठग आ धमके। थैली छीनने लगे, फिर मारपीट पर भी उतारू हो गए। देखिए, मेरे माथे पर यह चोट का निशान...!"

"नहीं महाराज, रुपए हमारे हैं। आप गिन लीजिए। पूरे पाँच सौ रुपए हैं।...हमें चोर साबित करने के लिए माथे पर चोट का निशान तो इसने खुद ही लगा लिया।" पोलूराम और ढोलूराम ने कहा।

हलवाई बालचंद्रन बोला, "महाराज, यह ठीक है कि थैली में पूरे पाँच सौ रुपए हैं। जब मैं गिन रहा था, इन्होंने चुपके से सुन लिया। मुझे ठगना चाहते हैं।...इतनी बुरी तरह पीटा और अब झूठ बोलकर मुझी को दोषी बता रहे हैं। क्या कोई अपने माथे पर खुद ही चोट का निशान लगा सकता है?"

राजा कृष्णदेव राय उलझन में पड़ गए। उनके पास बहुत मामले आए थे, पर ऐसा मामला तो पहली बार आया था। धीरे से बुदबुदाकर बोले, "अजीब मामला है!"

तभी अचानक उन्हें तेनालीराम का खयाल आया। उन्होंने देखा, तेनालीराम सामने बैठा सिर खुजा रहा है। राजा ने तेनालीराम से कहा, "मुझे पता है, तुमने इतनी देर में काफी कुछ सोच लिया है। अब जल्दी से असलियत का पता लगाओ।"

तेनालीराम ने हलवाई और उन दो आदमियों से फिर बात की। उसे लग रहा था, बालचंद्रन राज्य का पुराना और नामी हलवाई है, वह बेईमानी नहीं कर सकता। पर फैसला कैसे हो? घटना का कोई गवाह भी तो नहीं है, जिससे पूछ-ताछ करके मामले की तह तक पहुँचा जाए। अचानक उसे कुछ सूझा। उसने सेवकों से कहा, "एक बड़े बरतन में गरम पानी भरकर लाओ।"

वैसा ही हुआ। सब दरबारियों की निगाहें तेनालीराम पर जमी थीं। सभी हैरान, भला गरम पानी से क्या होगा? सब एक-दसरे की ओर देखते हुए तेनालीराम की बेवकूफी पर व्यंग्यपूर्वक हँस रहे थे।

पर तेनालीराम तो अपने काम में डूबा था। उसने थैली खोली। उसमें से एक सिक्का निकाला, उसे धीरे से गरम पानी में डाल दिया और गौर से देखने लगा। फिर एक और सिक्का निकालकर पानी में डाला। और फिर सिक्कों से भरी पूरी थैली ही पानी में उलट दी।

थोड़ी ही देर में पानी के ऊपर काफी चिकनाई तैरने लगी। तेनालीराम के चेहरे पर मुसकराहट आ गई।

उसने राजा कृष्णदेव राय से कहा, "मिल गया गवाह महाराज, मिल गया!"

राजा कृष्णदेव राय हैरान। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि तेनालीराम क्या कह रहा है? यहाँ आसपास तो कोई गवाह नजर नहीं आ रहा। तो फिर तेनालीराम कहना क्या चाहता है?

राजा ने तेनालीराम की ओर देखा तो उससे बाँकी मुसकान के साथ कहा, "महाराज, न सिर्फ गवाह मिला, बल्कि उसने सब कुछ सच-सच बता भी दिया है।"

"क्या मतलब...?" राजा कृष्णदेव राय को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि तेनालीराम कह क्या रहा है?

इस पर तेनालीराम ने बताया, "महाराज, रुपए हलवाई बालचंद्रन के ही हैं। हलवाई के हाथ चिकने रहते हैं, इसीलिए सिक्कों पर भी चिकनाई आ गई। देखिए, पानी पर तैरती यह चिकनाई ही तो गवाह है!"

अब तो सारा भेद खुल चुका था। हलवाई के साथ आए दोनों ठगों पोलूराम और ढोलूराम ने भागने की कोशिश की, पर सैनिकों ने पकड़ लिया। बाद में पता चला, वे ठग ही थे। राजधानी में और भी कई लोगों को इसी तरह ठग चुके थे। इसीलिए उनकी हिम्मत बढ़ती जा रही थी। राजा ने उन्हें कारागार में डलवा दिया।

हलवाई बालचंद्रन ने राजा कृष्णदेव राय का गुणगान करते हुए कहा, "महाराज, आपके न्याय की बहुत प्रशंसा सुनी थी। आज खुद अपनी आँखों से देख लिया कि किस तरह आपके दरबार में दूध का दूध और पानी का पानी होता है। इसीलिए प्रजा आपके गुण गाते नहीं थकती।"

राजा कृष्णदेव राय बोले, "तेनालीराम जैसा चतुर और बुद्धिमान दरबारी हो, तो ऐसा बिल्कुल मुश्किल नहीं।" फिर तेनालीराम को प्यार से गले से लगाकर कहा, "सच तेनालीराम, तुमने ऐसा न्याय किया कि यह हलवाई बालचंद्रन ही नहीं, विजयनगर की सारी प्रजा तुम्हें प्यार से याद रखेगी।"

कहते-कहते राजा कृष्णदेव राय ने अपनी कीमती हार उतारकर तेनालीराम को पहना दिया। सारे दरबारी अचंभित होकर यह देख रहे थे और मन ही मन तेनालीराम की बुद्धिमत्ता की तारीफ कर रहे थे।

11

उड़ाइए महाराज, अब इन्हें भी उड़ाइए

एक बार की बात है, विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस निकट था। इसलिए पूरे राज्य में आनंद और उत्साह का वातावरण था। प्रजा मन ही मन अनुमान लगा रही थी, "देखें भला इस बार राजा कृष्णदेव राय किस रूप में इसे मनाते हैं? जरूर इस बार भी कोई न कोई अपूर्व और यादगार कार्यक्रम होगा।"

राजा कृष्णदेव राय ने प्रमुख दरबारियों की एक सभा बुलाई। कहा, "आप लोगों को पता ही है, विजयनगर का स्थापना दिवस हम हर वर्ष धूमधाम से मनाते हैं। इस अवसर पर ऐसे कार्यक्रम होते हैं, जिन्हें प्रजा बड़े चाव से देखती है और वर्ष भर बड़ी पुलक और आनंद के साथ याद करती है। हम चाहते हैं कि इस बार भी यह आयोजन यादगार हो। आप लोग बताइए, इसके लिए क्या-क्या तैयारियाँ की जाएँ?"

इस पर सभी ने अपना-अपना दिमाग लगाया। मंत्री ने राजधानी में अनोखी सजावट करने का सुझाव दिया। बोला, "अहा महाराज, कितना सुंदर दृश्य होगा, अगर इस अवसर पर विजयनगर के हर घर में दीयों की जगर-मगर और सजावट करके दीवावली मनाई जाए। साथ ही हर घर में रंगीन झंडियाँ लगाई जाएँ। प्रमुख राजमार्गों पर फूलों और आम्रपत्तों से तोरणद्वार बनें। वहाँ भी रोशनी की झिलमिल सजावट हो। इससे देश-विदेश से आए अतिथि बहुत प्रभावित होंगे। कहेंगे, विजयनगर में दो-दो दीवाली मनाई जाती हैं। एक जब श्रीरामचंद्र जी वन से लौटे थे और दूसरी तब जब विजयनगर की स्थापना की वर्षगाँठ मनाई जाती है।"

राजपुरोहित ताताचार्य ने इस अवसर पर विजयनगर के विद्वानों, कलाकारों और गणमान्य नागरिकों को शानदार भोज देने की बात कही। मुसकराते हुए बोले, "और महाराज, इस बढ़िया भोज के बाद विजयनगर के गुणवंत लोगों, विद्वानों, लेखकों, कलाकारों और खास-खास लोगों को आप जैसा परम सहृदय सम्राट अपने हाथों से राज्य के सम्मान सहित अंगवस्त्रम भेंट करे, तब तो यह सोने में सुहागा हो जाएगा। एकदम अपूर्व...विलक्षण!"

सेनापति ने इस अवसर पर प्रजा के बीच विजयनगर के वीर, रणबाँकुरे सैनिकों के युद्ध-कौशल के प्रदर्शन की चर्चा चलाई। बोला, "महाराज, इससे एक पंथ दो काज हो जाएँगे। हमारे शस्त्रों और युद्धकौशल के प्रदर्शन से विजयनगर की प्रजा उत्साहित और गौरवान्वित होगी तो दूसरी ओर हमें तंग करने वाले शत्रुओं के कलेजे दहलेंगे और वे सपने में भी हमारी ओर टेढ़ी आँख करना भूल जाएँगे।"

राजा कृष्णदेव राय खुद मौन रहकर सब कुछ सुन रहे थे। सभासदों ने भी अपने-अपने ढंग से बात कही। बहुत-से सुझाव आए। कुछ तो एकदम अजीबोगरीब थे। राजधानी में अपने ढंग की अनोखी रथ-दौड़ कराने से लेकर घुड़सवारी और नई-नई कला-प्रतियोगिताओं का भी सुझाव आया। पर ये सभी काम पहले हो चुके थे। राजा कृष्णदेव राय ने कहा, "ये सभी सुझाव अच्छे हैं। पर हम चाहते हैं, इस बार कुछ नया हो। आप लोग यह बताइए कि इस बार नया क्या हो सकता है?"

सुनकर सारे दरबारी चुप। बिल्कुल नया क्या हो सकता है? किसी की समझ में नहीं आया।

तभी राजा के एक मुँहलगे सभासद राजलिंगम ने कहा, "महाराज, पक्षियों के साथ कुदरत की लीला जुड़ी हुई है। पक्षियों की मुक्ति का अर्थ है, स्वतंत्रता। विजयनगर का स्थापना दिवस भी तो हमारी प्रजा के लिए एक नूतन स्वतंत्रता लेकर आया था। तो क्यों न इस बार आकाश में पक्षियों को उड़ाकर विजयनगर का स्थापना दिवस अनोखे ढंग से मनाया जाए?"

और फिर उसने पूरी योजना बता दी। बोला, "बहेलियों को हम पहले से ही कह देंगे। वे परिंदों के एक हजार एक सौ एक पिंजरे लेकर आएँगे। सारे पिंजरों के मुँह एक ही सुनहरे रंग की रेशमी डोरी से बँधे होंगे। जैसे ही आप उस सुनहरी डोरी को खींचेंगे, सभी पिंजरों के पक्षी एक साथ आजाद हो जाएँगे और मुक्त आकाश में उड़ान भरेंगे। सब ओर उड़ते हुए परिंदे ही परिंदे। सचमुच कितना अद्भुत और विहंगम दृश्य होगा!"

सुनकर दरबारियों के चेहरों पर मुसकान छा गई। राजा कृष्णदेव राय भी खुश थे। तेनालीराम ने विरोध करना चाहा, पर बात हँसी-कहकहों में दब गई।

अगले दिन से धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं। राजधानी में खूब जगर-मगर हुई। फूलों के बंदनवार सजाए गए। पक्षियों को पकड़ने का काम कुछ बहेलियों को सौंप दिया गया।

मुख्य आयोजन वाले दिन जैसे ही राजा कृष्णदेव राय मंच पर आए, उन्होंने एक सुनहरी डोर को खींचा। खींचते ही एक साथ सभी पिंजरों के मुँह खुल गए। एक हजार एक सौ एक पिंजरे थे। उनके खुलते ही असंख्य रंग-बिरंगे पक्षी 'चीं-चीं' करते आसमान में उड़ने लगे। फिर गीत-नृत्य के कार्यक्रम हुए। अचानक राजा कृष्णदेव राय को तेनालीराम का ध्यान आया। बोले, "तेनालीराम अभी तक नहीं आया।"

मंत्री बड़े कटाक्ष के साथ बोला, "महाराज, इस बुढ़ापे में उसे ये सब बातें कहाँ अच्छी लगेंगी?" सुनकर वहाँ खड़े दरबारी हँसने लगे। राजपुरोहित ताताचार्य भी मुसकरा रहे थे।

तभी तेनालीराम आता दिखाई पड़ा। हाथ में सफेद कपड़े से ढकी टोकरी लिए। पास आया तो राजा कृष्णदेवराय ने कहा, "यह क्या तेनालीराम?"

"महाराज, आपके लिए अमूल्य उपहार!" कहकर तेनालीराम ने टोकरी का मुँह खोल दिया।

राजा कृष्णदेवराय चौंके, टोकरी में कुछ घायल परिंदे थे। किसी का पंख कटा हुआ था, तो किसी का पंजा। एक-दो परिंदों की आँखों पर तीर लगे थे और आसपास खून जम गया था। सभी परिंदे बुरी तरह डरे और सहमे हुए थे। उनकी आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे वे रो रहे हों और रोते-रोते मदद की गुहार कर रहे हों।

राजा कृष्णदेव राय को कुछ समय में नहीं आया कि भला तेनालीराम यहाँ उन्हें क्यों लाया है। उन्होंने सवालिया निगाहों से तेनालीराम की ओर देखा। तेनालीराम बोला, "महाराज, अब इन्हें भी उड़ाइए!...उड़ाइए महाराज, खूब उड़ाइए!"

"मगर ये तो घायल हैं।" राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर परेशानी झलक उठी। तुरंत उन्हें कुछ ध्यान आया। बोले, "किसने इनकी दुर्दशा की? हम उसे सजा देंगे।"

तेनालीराम बोला, "क्षमा करें महाराज, परिंदों को पकड़ने का आदेश तो आपने ही दिया था, ताकि सभा में सबके सामने इन्हें छोड़ा जाए। सचमुच सभा में इतने बड़े-बड़े सम्मानित लोगों के सामने इन्हें हवा में छोड़ते हुए आपको बहुत आनंद मिला होगा। पर आप शायद भूल गए कि बहेलियों ने जंगल में हाँका किया, जाल बिछाए, तीर भी चलाए, तब ये पकड़े गए। बहुत-से परिंदे घायल हुए, मर भी गए। आपने रँगारंग उत्सव मनाया, और इसकी कीमत इन बेजान परिंदों को चुकानी पड़ी। ये अपनी व्यथा कह नहीं पाते। पर इनकी आँखें इनके दर्द की सारी करुण कहानी कह रही हैं। उसे पढ़ना इतना कठिन नहीं है महाराज! हम चाहें तो उसे साफ पढ़ सकते हैं...!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय चुप। कहा, "तेनालीराम, तुमने हमारी आँखें खोल दीं। आज से ये परिंदे मुक्त हैं, मुक्त रहेंगे। घायल परिंदों का इलाज कराके, इन्हें भी छोड़ दिया जाएगा।"

एक पल रुककर राजा कृष्णदेव राय ने कुछ सोचा। फिर तेनालीराम के पास आकर उसका कंधा थपथपाते हुए कहा, "तुम्हारा दुख मैं समझ रहा हूँ तेनालीराम। और आज मुझे याद आ रहा है, जब हमने राज्य की स्थापना दिवस पर परिंदों को उड़ाने का कार्यक्रम बनाया तो तुमने इसका विरोध किया था। तब मैं समझा नहीं था। अब समझ में आ रहा है कि तुम क्या कहना चाहते थे। वाकई ये परिंदे तो कुदरत की आनंद लीला हैं। अपने आनंद के लिए पहले बहेलियों से इन्हें पकड़वाना और फिर छुड़ाने का नाटक तो भारी क्रूरता है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज के बाज कभी मेरे शासन में विजयनगर में ऐसा नहीं होगा।"

सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर संतोष झलकने लगा। वे चापलूस दरबारी जो थोड़ी देर पहले तक तेनालीराम की खिल्ली उड़ा रहे थे, अब शर्म से पसीने-पसीने थे।

राजा कृष्णदेव राय ने न सिर्फ परिंदों का इलाज करवाकर उन्हें मुक्त उड़ान के लिए छोड़ दिया, बल्कि साथ ही घायल परिंदों के इलाज के लिए उन्होंने एक अस्पताल भी खुलवाया। वहाँ पक्षियों की सेवा का जिम्मा तेनालीराम को मिला।

विजयनगर की प्रजा ने तेनालीराम की उदारता का यह किस्सा सुना, तो खूब वाहवाही की।

12

खाओ-खाओ, लो तुम भी खाओ

राजा कृष्णदेव राय बड़े विद्वान थे, कलाप्रेमी थे, पर साथ ही वे परिहास-प्रिय भी थे। राजदरबार की अतिशय व्यस्तता में भी विनोद और हास-परिहास के मौके ढूँढ़ लेते। दरबारियों की चुटीली बातों पर वे खुलकर हँसते थे और कभी-कभी तो ठहाके भी लगाते थे। इससे दरबार का वातावरण सरस बना रहता था। दरबारियों को भी सारा तनाव भूलकर खुलकर हँसने और ठिठोली करने का मौका मिल जाता। इससे समय का कुछ पता ही नहीं चलता था। रोज ही राजदरबार में कोई न कोई ऐसी बात होती कि सब दरबारियों के चेहरे पर हँसी छलछलाने लगती। फुर्सत के इन क्षणों में दरबारी राजकाज की व्यस्तता और सारी थकान भूल जाते। फिर से हलके-फुलके और तरोताजा हो जाते।

एक बार की बात, पड़ोसी राजा देवधर ने राजा कृष्णदेव राय के दरबार में अपने शाही बाग के सुगंधित आम भिजवाए। खूब बढ़िया, मीठे आम। राजा देवधर बढ़िया और स्वादिष्ट आमों को शौकीन थे। इसलिए उन्होंने राजधानी में आम का एक अलग बगीचा लगवाया था। इस बार वे ही बढ़िया सुगंधित आम उन्होंने राजा कृष्णदेव राय के लिए भी भिजवाए। आमों की सुगंध से दरबार महकने लगा। सभी दरबारियों के चेहरे पर आनंदपूर्ण हँसी छलक पड़ी।

राजदरबार में कोई गंभीर चर्चा चल रही थी। पर तेनालीराम का ध्यान आम के टोकरों की ओर था। बार-बार वह उधर ही देखने लगता और धीरे से सिर हिलाकर हँस देता। मंत्री ने इशारे से यह बात राजा कृष्णदेव राय को बता दी। राजा ने हँसकर कहा, "तेनालीराम, आमों का ध्यान बाद में कर लेना। अभी कुछ और जरूरी काम निबटाने हैं।"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, पेट में कुछ जाए, तो दिमाग भी काम करेगा।...आप तो जानते ही हैं और फिर मेरे दादा के दादा के दादा के लकड़दादा के जमाने से चलती आई पुरानी कहावत भी है कि पेट खाली तो दिमाग खाली।...फिर भला राजदरबार के कामों में मन लगे भी तो कैसे? यह तो मुझ जैसे आमों के रसिक के लिए बड़ी भारी परीक्षा हो गई महाराज!"

राजपुरोहित ताताचार्य भी खाने-पीने के बड़े शौकीन थे। आम उन्हें इतने प्रिय थे कि रास्ता चलते आसपास के किसी बाग से आई आमों की सुगंध नासिका-रंध्रों में पहुँच जाए तो उनके कदम वहीं थम जाते थे। जब तक वहीं खड़े-खड़े दो-चार आम न चूस लें, पैर आगे बढ़ते ही न थे। फिर यह तो खास मौका था। वे जानते थे, राजा देवधर के शाही बाग में बड़े खास तरह के सिंदूरी आम होते हैं, जिनकी सुगंध और स्वाद लाजवाब है। ऐसे आमों के टोकरे बिल्कुल पास रखे हों तो भला दिल-दिमाग में हलचल क्यों न होगी?

राजपुरोहित ने देखा कि राजा कृष्णदेव राय का मूड बढ़िया है और उनके चेहरे पर प्रसन्नता व्यप्त है तो उन्होंने भी एक मीठी फुरफुरी छोड़ दी। मंद-मंद मुसकराहट के साथ कहा, "तेनालीराम ठीक कह रहा है महाराज। मेरा सुझाव है, कुछ समय के लिए दरबार का कामकाज रोककर, राज उद्यान में बैठ, आमों का स्वाद लिया जाए! ऐसे क्षणों में प्रतीक्षा सहन नहीं होती।...आखिर हम सभी प्रकृति-प्रेमी लोग हैं महाराज। ऐसे बढ़िया और सुस्वादु आमों का स्वागत न करें, तो प्रकृति-देवी भला हमसे कैसे प्रसन्न रह सकती हैं?"

"ओहो, अब समझा मैं आपके प्रकृति-प्रेम का आशय! तब तो आपके अनुसार, हमें प्रकृति देवी को मनाने के लिए जल्दी से जल्दी इन आमों का सेवन करना ही चाहिए।" राजा कृष्णदेव राय हँसे। बोले, "तेनालीराम ने जो कुछ कहा और राजपुरोहित ताताचार्य जी की बातों से जो सार निकला, उसका भली भाँति स्वागत करते हुए, राजदरबार की कार्यवाही थोड़े समय के लिए स्थगित की जाती है। आमों का भरपूर आनंद लेने के बाद ही हम आगे राजदरबार के जरूरी काम करेंगे।"

सुनकर हास्य की फुरफुरी के साथ मंत्री की भी मूँछें फड़कने लगीं। उसने मूँछों में हँसते हुए कहा, "महाराज, मेरा भी एक सुझाव है। आम का ऊपर का हिस्सा हम लोग खाएँगे, बीच का हिस्सा तेनालीराम का रहेगा।"

इस पर राजा कृष्णदेव राय हँसकर बोले, "ठीक है। लेकिन क्या तेनालीराम को भी मंजूर है यह बात?"

तेनालीराम मंद-मंद हँसी के साथ बोला, "मुझे मंजूर है महाराज! भला मंत्री जी की बात अनसुनी करके क्या मुझे मरना है?...पर मेरी शर्त यह है कि राजदरबार में जो भी भेंट-सामग्री आए, उसका भीतर का हिस्सा मुझे मिले, ऊपर का हिस्सा दरबारियों को। अगर दरबारियों को यह शर्त मंजूर हो, तो फिर मेरी भी हाँ समझिए।"

दरबारियों ने खुशी-खुशी यह बात मान ली। मंत्री ने भी झटपट कहा, "ठीक है, ठीक है, आज तो तेनालीराम को बीच का हिस्सा मिले ही। फिर आगे भी यह प्रथा चालू रहे तो हमें क्या परेशानी है...? आगे का आगे देखा जाएगा। तेनालीराम ने हमें बहुत छकाया है, कम से कम आज तो हम उससे बदला ले ही लेंगे।...हाँ, पर महाराज, तेनालीराम को कहिए, एक बार फिर से सोच-विचार कर ले, कहीं बाद में खिसियाकर हाय-हाय न करे।"

"न महाराज, हाय-हाय क्यों करूँगा?" तेनालीराम बोला, "हाय-हाय करें रे दुश्मन! अलबत्ता मंत्री जी की शर्त मुझे मंजूर है।"

थोड़ी देर में राज उद्यान में सभी दरबारी पहुँचे। वहीं आमों का एक बड़ा सा टोकरा ले जाया गया। कुछ देर तक ठंडे, स्वच्छ पानी की एक नाँद में डालकर आमों को रखा गया। आम खूब ठंडे हो गए तो सबने खूब स्वाद ले-लेकर आम खाए। गुठलियाँ एक टोकरी में डाल दी गईं। मंत्री खिलखिलाकर हँसते हुए बोला, "यह रहा तेनालीराम का हिस्सा!"

सुनकर सारे दरबारी भी ठहाका लगाकर हँसे। राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखकर कहा, "तेनालीराम, तुम्हारे हिस्से के आम तो गए। लगता है, मंत्री जी ने आज तो तुम्हें छका दिया।"

तेनालीराम कुछ बोला नहीं। चपुचाप मुसकराता रहा।

कुछ दिन बाद नगर सेठ लक्खूमल ने उपहार के रूप में दरबार में बादाम तथा अखरोटों के टोकरे भेजे। साथ ही सोने की थाली में स्वच्छ वस्त्र से ढका राजभोग भी। राजा कृष्णदेवराय ने सभी उपहार दरबारियों में बाँटने का आदेश दिया।

तेनालीराम बोला, "महाराज, शर्त के मुताबिक दरबारियों को बादाम और अखरोट के छिलके दे दिए जाएँ, भीतर का हिस्सा मेरा। इसी तरह राजभोग के ऊपर ढका वस्त्र दरबारियों को मिले, राजभोग मेरे हिस्से आएगा।"

सुनते ही दरबारियों के चेहरे उतर गए। मंत्री अब बुरी तरह पछता रहा था। मगर भला कहे क्या? बाकी दरबारी भी हक्के-बक्के थे। समझ गए, उस समय ज्यादा आम खाने के जोश में उन्होंने कुछ और सोचा ही नहीं। मगर यही रहा तो आगे तो लेने के देने पड़ जाएँगे। हर चीज पर तेनालीराम का ही हक होगा।

इस बीच मंत्री ने राजपुरोहित की ओर एक छिपा हुआ इशारा किया। राजपुरोहित ताताचार्य खुद भी लज्जित थे। बोले, "महाराज, हम शर्त वापस लेते हैं।...मंत्री जी भी यही चाहते हैं।"

राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा। पूछा, "क्यों तेनालीराम, तुम्हारी इस बारे में क्या राय है?"

तेनालीराम मुसकराकर बोला, "ठीक है महाराज! मगर इस बार तो सभी चीजें शर्त के हिसाब से ही बँटनी चाहिए। मंत्री जी और राजपुरोहित ताताचार्य शर्त खत्म करना चाहते हैं, तो बढ़िया आमों से भरा एक टोकरा मुझे मँगवाकर दें।"

"तेनालीराम की बात तो ठीक है।" कहते हुए राजा कृष्णदेव राय जोरों से हँस पड़े।

उसी समय टोकरा भरकर, खूब मीठे, पके आम मँगवाए गए। तेनालीराम ने स्वाद ले-लेकर खाए। बादाम, अखरोटों की गिरियाँ और स्वादिष्ट राजभोग भी तेनालीराम के ही हिस्से आया।

सभी दरबारी मुँह ताकते रह गए। अकेले तेनालीराम ने सबको छका दिया था। राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की यह चतुराई देखी तो हँसते हुए बोले, "वाह तेनालीराम, तुमने एक बार फिर साबित कर दिया कि तुम अकेले ही सब दरबारियों पर भारी हो!"

सुनकर मंत्री, राजपुरोहित और सारे दरबारियों के चेहरे शर्म से पानी-पानी हो गए।

13

जब तेनालीराम को मिला देशनिकाला

राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम को जी-जान से चाहते थे। पर कई बार बड़ी अटपटी स्थितियाँ हो जाती थीं। असल में राजा कृष्णदेव राय के दरबार में चापलूसी करने वाले और चुगलखोर दरबारियों की भी कोई कमी नहीं थी। उन्हें मंत्री और राजपुरोहित ताताचार्य की भी शह मिल जाती। राजा ऐसे चुगलखोर दरबारियों को पसंद नहीं करते थे, पर कभी-कभी उनके प्रभाव में भी आ जाते थे।

एक बार ऐसा ही कुछ अजीब किस्सा हुआ, जिसमें तेनालीराम को बिना बात राजा का कोपभाजन बनना पड़ा। हुआ यह कि तेनालीराम के गाँव में एक गरीब युवक रहता था पुंडल। एक बार तेनालीराम गाँव गया तो पुंडल की बूढ़ी माँ लाठी टेकते हुए उससे मिलने आई। बोली, "बेटा तेनालीराम, तुम तो राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हो। वे तो बड़े प्रतापी राजा हैं। सुनते हैं, राजा इंद्र से बढ़कर उनका यश और कार्ति हैं। फिर तुम्हें तो वे मानते भी बहुत हैं। गाँव में सब कह रहे हैं कि राजा कृष्णदेव राय तुम्हारा कहना हरगिज नहीं टालते। बेटा तेनालीराम, मैं इसीलिए इस उम्र में खुद चलकर तुमसे मिलने और कुछ याचना करने आई हूँ। तुम तो जानते ही हो, मेरा एक ही बेटा है, पुंडल। बड़ी लगन से पढ़ाया-लिखाया, पर अभी तक उसे ढंग का कोई काम नहीं मिला। अगर तुम राजा कृष्णदेव राय से कह दोगे तो जरूर उसे वहाँ काम मिल जाएगा। इससे मुझ दीन-हीन बुढ़िया का भी कुछ सहारा हो जाएगा।"

तेनालीराम बोला, "ठीक है, अम्माँ! तुम पुंडल को मेरे पास भेजना। उससे बात करके ही मैं कुछ कह पाऊँगा कि राजा कृष्णदेव राय के दरबार में उसकी नियुक्ति हो सकती है या नहीं?"

पुंडल आया तो तेनालीराम के चरणों में गिरकर बोला, "अब आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं। मेरी बूढ़ी माँ की आशा भरी नजरें मेरी ओर लगी हुई हैं, पर मुझे पढ़-लिखकर भी कोई ढंग का काम अभी तक मिला नहीं। अगर आप कुछ कृपा कर दें तो मेरे जीवन में तो आशा पैदा होगी ही, मेरी माँ को बुढ़ापे में बड़ी शांति मिलेगी।"

तेनालीराम ने पुंडल से बात करके उसकी शिक्षा और योग्यता के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी हासिल कर ली। फिर बोला, "चिंता न करो पुंडल, मैं कुछ न कुछ करूँगा। मैं यह आश्वासन तो नहीं देता कि राजा कृष्णदेव राय के दरबार में तुम्हें अवश्य काम मिल जाएगा, पर जो कुछ मुझसे हो सकेगा, मैं करूँगा जरूर।"

पुंडल बोला, "आपने इतना कह दिया तेनालीराम जी, तो मुझे ठंडक पड़ गई। इतने से ही लग रहा है, जैसे मुझे नया जीवन मिल गया। मुझे विश्वास हो गया कि मेरे जीवन की निराशा और अंधकार अब समाप्त हो जाएगा।"

तेनालीराम ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, "धीरज रखो भाई, कुछ न कुछ तो होगा। मैं अपनी ओर से कोई कोर-कसर न छोड़ूँगा।"

सुनकर पंडल ने फिर से हाथ जोड़े। काँपते हुए स्वर में बोला, "मैं आपका जीवन भर आभारी रहूँगा तेनालीराम जी।"

तेनालीराम छुट्टियाँ खत्म होने के बाद दरबार में आया तो पुंडल की बात उसे याद थी। उसने राजा कृष्णदेव राय से निवेदन किया, "महाराज, मेरे गाँव का ही पुंडल बड़ा पढ़ा-लिखा और समझदार युवक है, पर बेचारे का भाग्य अभी जागा नहीं। इसकी वृद्धा माँ बहुत परेशान है। आप कृपा करके इसे राजदरबार में कुछ काम दे दीजिए तो मुझ पर आपका बड़ा उपकार होगा। नहीं तो अगली बार गाँव जाने पर पुंडल की वृद्धा माँ की आँखों का सामना करना मेरे लिए तो बहुत कठिन हो जाएगा।"

इस पर राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर बोले, "तुम निश्चिंत रहो तेनालीराम। तुमने बिना कहे काफी कुछ कह दिया। बस समझो, पुंडल की नियुक्ति के लिए इतना आधार काफी है।"

कुछ दिन बाद ही राजा कृष्णदेव राय ने तरस खाकर पुंडल को दरबार में कुछ काम सौंप दिया। कहा, "तेनालीराम ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है। अगर तुमने मेहनत और लगन से अपना काम किया तो जल्दी ही मैं कोई महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी तुम्हें दूँगा।"

पुंडल बोला, "महाराज, आपको मुझसे कभी कोई शिकायत न होगी।"

पर पुंडल बाहर से कुछ और था, अंदर से कुछ और। राजदरबार में आते ही उसने अपना असली रूप दिखाया। वह था चुगलखोर। हर वक्त किसी न किसी की बुराई करता रहता। राजा कृष्णदेव राय भी उसकी चापलूसी भरी बातों में आ गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने उसे अपना प्रमुख दरबारी बना लिया।

मुँहलगा दरबारी अब राजा कृष्णदेव राय के और अधिक निकट आ गया। तेनालीराम की जगह हथियाने की कोशिश करने लगा। हर वक्त राजा कृष्णदेव राय के कान भरता, "तेनालीराम बूढ़ा हो गया है महाराज! अब उससे कुछ होता नहीं। जब देखो, राजदरबार में ऊँघता रहता है।"

एक बार तो उसने यह भी कहा, "महाराज, आप तेनालीराम की चतुराई की बहुत बात करते हैं, पर मुझे तो उसमें ऐसी कोई खासियत नहीं लगती। इसके बजाय मुझे तो वह बड़ा बूदम लगता है, खासा झक्की और सनकी! राजदरबार में बात कैसे शिष्टता से करनी चाहिए, उसको तो यह समझ और विवेक ही नहीं है।"

तेनालीराम के कानों तक यह बात पहुँची, पर वह चुप रहा।

एक दिन राजदरबार में किसी गंभीर विषय पर चर्चा हो रही थी। दोपहर का समय था। तेनालीराम को एक पल के लिए हलकी सी झपकी आ गई। चुगलखोर दरबारी पुंडल ने हाथ के इशारे से राजा को बता दिया। उसने इस ढंग से इशारा किया कि और सभासद भी हँस पड़े।

तेनालीराम को सोते देख, राजा कृष्णदेव राय का पारा चढ़ गया। क्रोध में आकर बोले, "तेनालीराम, तुम आज ही राज्य छोड़कर चले जाओ। हम तुमसे तंग आ चुके हैं।"

सुनकर तेनालीराम हक्का-बक्का रह गया। पर पुंडल को मुसकराते देख, सब समझ गया। वह हाथ जोड़कर विनम्रता से बोला, "महाराज, आपकी आज्ञा सिर माथे। पर मेरी एक इच्छा है। मैंने लंबे समय तक आपकी सेवा की है। उम्मीद है, मेरी आखिरी इच्छा तो आप पूरी करेंगे ही।"

"हाँ-हाँ, कहो। क्या इच्छा है तुम्हारी?" राजा कृष्णदेव राय ने अपने गुस्से को काबू करके, कुछ नरमी से पूछा।

"महाराज, मैं विजयनगर छोड़कर जाने को तैयार हूँ। बस मेरे साथ पुंडल को भेज दीजिए।"

"क्यों?" राजा कृष्णदेव राय ने हैरान होकर पूछा, "भला पुंडल को क्यों...?"

"महाराज, विजयनगर में इतने लंबे समय तक मैं आपकी कृपा का पात्र रहा। लिहाजा इसे छोड़कर जाते हुए मन तो दुखी होगा ही। अकेले ऊब जाऊँगा। दिल में रह-रहकर हूक उठेगी।...पर साथ में एक चुगलखोर होगा तो समय आनंद से कटेगा। दोनों मिलकर आपकी चुगली करेंगे। पुंडल मेरे सारे उपकारों को भूलकर मेरे पीछे मेरी बुराई कर सकता है, तो भला आपके पीछे आपकी चुगली करने से क्यों चूकेगा?"

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर मुसकराहट आ गई। बोले, "तेनालीराम, तुमने हमारी आँखें खोल दीं। तुम यहीं रहोगे। तुम्हें यह राज्य छोड़कर जाने की जरूरत नहीं है। अब मैं समझ गया हूँ कि कौन सा दरबारी हमारे राजदरबार में रहने के योग्य नहीं है!...ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है, मेरी आँखें खुल तो गईं, हालाँकि अफसोस! थोड़ी देर से खुलीं।"

चुगलखोर दरबारी पुंडल को उसी दिन राजदरबार से निकाल दिया गया।

बाद में राजा को पता चला कि मंत्री, सेनापति और राजपुरोहित ताताचार्य तीनों ने उकसाया था पुंडल को। उन्हीं के कहने पर वह तेनालीराम की तौहीन कर रहा था। राजा ने फटकारा तो उन्होंने अपनी गलती मान ली।

राजदरबार में तेनालीराम का मान-सम्मान अब और बढ़ गया था। उसने जिस शिष्टता और बाँकपन से चंद शब्दों में ही सारी बात राजा कृष्णदेव राय को समझा दी, उससे लोग हैरान और अचंभित थे। खुद राजा कृष्णदेव राय भी मुसकराते हुए कहते, "भई, ऐसे मौकों पर ही तो खरे सोने की परख होती है!"

पूरे विजयनगर में चुगलखोर पुंडल वाला किस्सा इतना मशहूर हुआ कि लोग रस ले-लेकर इसका वर्णन करते। फिर ठठाकर हँसते हुए कहते, "ऐसे एक नहीं लाख पुंडल भी क्यों न आ जाएँ, पर तेनालीराम का बाल बाँका नहीं कर सकते!"

14

पाताल लोक की रहस्यपूर्ण मूर्ति

राजा कृष्णदेव राय साधुओं और विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे। इसलिए दूर-दूर से साधु-महात्मा उनसे मिलने आते थे। राजा कृष्णदेव राय उनसे बात करके खुद को धन्य महसूस करते। एक जिज्ञासु की तरह आत्मा, परमात्मा, जीव-जगत और सृष्टि के विविध रूपों के संबंध में तरह-तरह के प्रश्न पूछते और उनका निदान हो जाने पर बड़ी प्रसन्नता महसूस करते थे। इतना ही नहीं, वे विजयनगर की प्रजा को भी साधु-महात्माओं के सत्संग-लाभ के लिए उत्साहित करते। राजा कृष्णदेव राय शाही अतिथिशाला में उनके आतिथ्य की बड़ी सुंदर व्यवस्था करते और उसका प्रबंध स्वयं देखा करते थे। इस तरह वे साधु-संतों का पर्याप्त सम्मान करते थे और सबको प्रसन्न करके भेजते थे।

एक बार की बात, शाम का समय था। राजा कृष्णदेव राय राजदरबार में बैठे, दरबारियों से कुछ अनौपचारिक बातें कर रहे थे। पूरे दिन दरबार में कामकाज की व्यस्तता के कारण काफी थकान हो गई थी। इसलिए दरबारियों से हलकी-फुलकी बातें करते हुए वे मन बहला रहे थे। साथ ही उनके घर-परिवार और विजयनगर की प्रजा के बारे में भी जानकारी हासिल कर रहे थे। इतने में ही एक दरबारी ने उन्हें एक विचित्र तांत्रिक भभूतनाथ के बारे में बताया। बोला, "महाराज, विजयनगर में एक विलक्षण तांत्रिक आया है। सुना है, बड़ा चमत्कारी है।"

"अच्छा...!" राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता प्रकट की।

"हाँ महाराज, वह तो बड़ा पहुँचा हुआ योगी है, एकदम सिद्धपुरुष।" दूसरे दरबारी ने कहा, "उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। सुना है कि वह हवा में चलकर ऊपर आसमान में पहुँच सकता है। बात की बात में चाँद-तारों तक पहुँच जाता है। साथ ही वह जल के ऊपर बड़े आराम से चल सकता है, जैसे बिल्कुल ठोस जमीन पर चल रहा हो। इतना ही नहीं, वह जल पर चलता हुआ एकाएक अदृश्य हो जाता है और पाताल लोक में जा पहुँचता है और फिर वहाँ का हालचाल लेकर आ जाता है। उसकी मायावी शक्तियाँ तो किसी किस्से-कहानी से भी बढ़कर हैं महाराज।"

"क्या सचमुच...? विश्वास नहीं होता!" राजा कृष्णदेव राय ने हैरानी से कहा।

मंत्री बोला, "वह सचमुच ऐसा ही है महाराज। उसके पास पाताल लोक की बोलने वाली एक चमत्कारी मूर्ति भी है, जो भविष्यवाणी भी करती थी। कहते हैं, एक बार इसी तरह पाताल लोक की यात्रा करते हुए उसे मिली और तब से उसके साथ ही है। वह ऐसी मायावी मूर्ति है, जो हर व्यक्ति के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में सब कुछ सच-सच बता सकती है।"

"अरे, यह तो बड़ी आश्चर्यजनक बात है।" राजा कृष्णदेव राय बोले, "ऐसा सिद्ध योगी...! आप लोगों ने पहले कभी नहीं बताया। हो सकता है, वह सीधे हिमालय से उतरकर हमारे राज्य में आ पहुँचा हो। यह तो हम सबका ही सौभाग्य है। आज के समय में ऐसे महान योगियों के दर्शन तो दुर्लभ हैं। बड़े पुण्यों से उनका दर्शन-लाभ मिलता है।"

सेनापति ने कहा, "हाँ महाराज, वह सचमुच ऐसा ही दिव्य योगी है। नाम है तांत्रिक भभूतनाथ। उसकी भविष्यवाणी एकदम सच निकलती है। राज्य के बहुत-से सम्मानित लोगों ने उसकी चर्चा की है। बहुत-से लागों को तो इस कारण अपने ही घर में छिपा गुप्त खजाना मिल गया।"

राजपुरोहित ने भी हाँ में हाँ मिलाई। बोले, "सुना है महाराज, कि वह थोड़ा अक्खड़ है। किसी से कुछ नहीं लेता, पर सबकी भलाई की बात कहता है। इसलिए तो पूरी राजधानी में उसकी चर्चा है।"

राजा कृष्णदेव राय ने आदेश दिया, "तांत्रिक को कल ही प्रातःकाल महल में बुलवाया जाए।"

मंत्री बोला, "पर महाराज, मैंने तो सुना है कि वह राजमहल में नहीं जाता। अपनी मस्ती में मस्त रहता है। कहता है, हम शाह मस्तराम हैं। कलंदरों के कलंदर। हमारे लिए राजा और रंक एक बराबर हैं।...तो महाराज, क्यों न कल हम वहीं चलें?"

"ठीक है, ऐसा ही करते हैं।" राजा कृष्णदेव राय बोले, "ऐसे सिद्ध योगियों से मिलना तो आनंद की बात है। अपने ही आनंद में लीन रहने वाले तांत्रिक भभूतनाथ के पास जाने में मुझे कोई संकोच नहीं है।"

अगले दिन सुबह राजा कृष्णदेव राय अपने प्रमुख सभासदों को लेकर तांत्रिक भभूतनाथ के पास पहुँचे। उन्हें देखकर तांत्रिक ने आँखें बंद करके कुछ सोचा। फिर बोला, "अच्छा है महाराज, आप आ गए। वरना बड़ा अनर्थ हो जाता!"

इसके बाद कुछ देर तक वह 'हूँ-हूँ...हूँ-हूँ' करता हुआ जमीन पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचता रहा। फिर एकाएक बड़े जोर से हुंकारते हुए बोला, "लेकिन महाराज, दुर्भाग्य की काली छाया अभी पूरी तरह हटी नहीं है। राज्य के भीतर भीषण विद्रोह पनपने का खतरा है।"

"इससे बचने का कोई उपाय?" राजा कृष्णदेव राय चिंतित हो उठे। उनका चेहरा एकदम मुरझा गया।

तांत्रिक भभूतनाथ ने एक क्षण के लिए फिर से आँखें बंद कीं। खोलीं। फिर बंद कीं। फिर ऊँची आवाज में कहा, "महाराज, आपका एक विश्वासपात्र व्यक्ति ही आपके खिलाफ लोगों को भड़का रहा है। उसे फौरन राज्य से बाहर निकाल दें।"

"कौन सा व्यक्ति? क्या वह यहाँ मौजूद है?" राजा कृष्णदेव राय ने पूछा तो तांत्रिक बोला, "महाराज, इस बारे में तो पाताल से निकली चमत्कारी मूर्ति ही बता सकती है।" फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर चिल्लाया, "बोल मूर्ति!"

तुरंत उस तांत्रिक के सामने रखी मूर्ति में से आवाज आई, "महाराज, आप स्वयं समझ जाएँ। वह बूढ़ा व्यक्ति है। सिर पर पगड़ी बाँधता है, और हमेशा बेढंगे नाटक करता रहता है।"

राजपुरोहित ताताचार्य ने झट से कहा, "अरे, राम-राम...! वह व्यक्ति तो तेनालीराम ही हो सकता है।"

तेनालीराम एक क्षण के लिए अचकचाया। फिर बोला, "महाराज, मूर्ति तो सचमुच चमत्कारी लगती है। एकदम दिव्य, एकदम भव्य। जरूर यह पाताल से ही आई होगी, वरना भला ऐसे कैसे बोलने लग जाती? मैंने तो महाराज, आज तक ऐसी दिव्य और अलौकिक मूर्ति नहीं देखी, जो एक साथ इतनी बातें बता दे। आप कहें तो जरा इसकी परिक्रमा कर लूँ?"

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं! क्यों नहीं...?" राजा कृष्णदेव राय ने कहा, तो तांत्रिक को भी कहना पड़ा।

उस रहस्यमय मूर्ति की परिक्रमा करते-करते तेनालीराम एक जगह रुक गया। बोला, "महाराज, लग रहा है, आसपास कोई प्रेत छिपा है। इस मूर्ति पर उसी प्रेत की छाया है। इस कारण मूर्ति बोल तो रही है, पर एकदम सच्ची बात नहीं बता पा रही। कहिए तो ढूँढ़ निकालूँ उसे!"

फिर उसने सेवकों से कहा, "अभी दौड़कर जाओ, दस बाल्टी पानी लाओ। एकदम गरम, उबलता हुआ।...पर हाँ, लाना जरा जल्दी।"

तेनालीराम के कहने पर कई बालटी गरम, उबलता हुआ पानी मँगवाया गया। मूर्ति से कुछ दूर जमीन में एक छेद था। तेनालीराम ने उसमें गरम पानी डालना शुरू किया। कुछ ही देर में जमीन के भीतर से किसी आदमी की चीख सुनाई दी, "अरे बचाओ, बचाओ रे, मरा...मर गया...!"

राजा कृष्णदेव राय चौंके। बोले, "यह क्या तेनालीराम?"

तेनालीराम मुसकराया, "आप देखते रहिए महाराज। मैं प्रेत-बाधा दूर कर रहा हूँ। जो सच इस मूर्ति ने नहीं बताया, वह अब सामने आ जाएगा।"

अगले ही पल तेनालीराम का इशारा होने पर तांत्रिक भभूतनाथ को सैनिकों ने पकड़ लिया। जमीन के अंदर छिपे उसके साथी को भी निकाल लिया गया। पूछने पर उसने सच-सच बता दिया, "महाराज, आपके दरबार के कुछ सभासदों ने ही पैसा देकर मुझे यह नाटक करने के लिए कहा था।...उनमें से एक ने यह भी कहा कि मंत्री और राजपुरोहित ने हमें इसके लिए धन दिया है।"

राजा ने मंत्री और राजपुरोहित को फटकारा। जिन दरबारियों ने भभूतनाथ से मिलकर यह नाटक करने के लिए कहा था, उन्हें भी फटकार पड़ी। दरबार में तेनालीराम का रुतबा और बढ़ गया।

अब विजयनगर की प्रजा हँसकर कहती, "भई, तेनालीराम के पास तो तांत्रिकों से भी बड़ी ताकत है। बड़े-बड़े भभूतनाथ इसके आगे पानी माँग जाते हैं।"

15

होली की रंगों भरी ठिठोली

राजा कृष्णदेव राय होली पर पूरी तरह आनंदविभोर होकर फाग के रंगों में रँग जाते। लिहाजा विजयनगर में होली के अवसर पर धूमधाम देखते ही बनती थी। कई दिन पहले से फाग की तैयारियाँ शुरू हो जातीं। तरह-तरह की मिठाइयाँ और पकवान बनते। राजदरबार में आकर होली मनाने वाले खास मेहमानों के लिए मिठाई के साथ-साथ केवड़ा मिली खुशबूदार ठंडाई का इंतजाम होता।

फागुन की बहार आते ही पूरा शहर रंग-बिरंगी झंडियों से सज जाता। दूर-दूर के गाँवों से लोकगायक और लोकनर्तक राजधानी आकर अपने रंग-रँगीले कार्यक्रम पेश करते। इस अवसर पर विदूषकों की मंडली अपने करतबों से हास्य-विनोद की अलग फुहार छोड़ती। कुछ कलाकार तरह-तरह के रंगीन मुखौटे लगाकर लोगों का मनोरंजन करते। राजा कृष्णदेव राय होली वाले दिन सबको इनाम देते। सब प्रसन्न होकर राजा कृष्णदेव राय का यशगान करते हुए अपने-अपने घर जाते।

ऐसे रस-रंगपूर्ण माहौल में राजा कृष्णदेव राय दरबारियों और राज्य के प्रमुख लोगों के साथ खुलकर होली खेलते। जमकर रंगों की वर्षा होती, फिर होली गीत गाए जाते। सब ओर आनंद की फुहारें छूटने लगतीं। लगता, विजयनगर की हवाओं में भी फागुन की मस्ती भरी रस-गंध आकर बस गई है। कभी-कभी तो राजा कृष्णदेव राय प्रजा के बीच भी पहुँच जाते थे। ऐसे क्षणों में लोग अपने प्यारे राजा को गुलाल-अबीर लगाकर आनंदित होते थे। पूरा विजयनगर मस्ती के रंगों में सराबोर हो उठता था। राजा कृष्णदेव राय सभी को कुछ न कुछ उपहार भी देते थे।

एक बार की बात, विजयनगर में हमेशा की तरह होली का उत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा था। लोग एक-दूसरे पर प्यार के रंग छिटकर जोर से 'होली है, होली है' की धूम मचाते, तो सब और आनंद ही आनंद बरस उठता। कुछ लोग गले में बड़े-बड़े ढोल लटकाकर मस्ती की धुनें बिखेर रहे थे। हजारों लोग एक साथ ढोल की थाप पर नाच और गा भी रहे थे।

राजा कृष्णदेव राय के महल में और बाहर हर ओर रंग और गुलाल की बहार थी। चारों ओर से जैसे रंगों की बरसात हो रही थी। फूलों की खुशबू फैली थी। दरबारी एक-दूसरे को रंग से भिगो रहे थे। राजा को भी सबने गुलाल लगाया। राजा कृष्णदेव राय भी आनंदित थे और हँस-हँसकर सबको लाल, पीले, हरे रंगों से रँग रहे थे।

फिर राजा ने सेवकों को इशारा किया। जल्दी ही मिठाइयों और नमकीन से भरे चाँदी के बड़े-बड़े थाल लेकर वे आ गए। साथ ही बड़ी सी नाँद में ठंडाई तैयार थी। सब लोग स्वादिष्ट मिठाइयों और केवड़ा पड़ी सुगंधित ठंडाई का आनंद ले रहे थे और उनके स्वाद की जी भरकर प्रशंसा कर रहे थे।

सभी दरबारियों ने जी भरकर मिठाई, नमकीन और स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद लिया। पर राजपुरोहित ताताचार्य के चेहरे पर सबसे अधिक चमक थी। आज होली पर उनकी भूख खुल गई थी। मिठाइयाँ उन्हें सबसे ज्यादा प्रिय थीं। लिहाजा उन्होंने खूब डटकर मिठाई खाई। फिर ढेर सारी ठंडाई पी। ठंडाई पीने के बाद फिर एक-एक कर पचास लड्डू खा लिए।

राजा कृष्णदेव राय और सब दरबारी हैरान होकर उन्हें देखे जा रहे थे। कुछ देर बाद राजा ने कहा, "हमें मालूम नहीं था, पुरोहित जी पर होली का ऐसा रंग और खुमार चढ़ेगा कि भूल जाएँगे, पेट भरा है कि नहीं। इतनी मिठाइयाँ खाने और ठंडाई पीने के बाद भी पूरे पचास लड्डू खा लेंगे।"

इस पर सब दरबारी हँसने लगे। सबको हैरानी हो रही थी कि राजपुरोहित ताताचार्य पर आज कैसा खुमार चढ़ा है।

पर राजपुरोहित ताताचार्य सचमुच होली की तरंग में थे। अपनी विशाल तोंद पर हाथ फिराते हुए हँसकर बोले, "महाराज, खिलाने वाला आप जैसा खुशदिल और उदार राजा हो, विजयनगर के कुशल हलवाइयों की बनी एक से एक नायाब और स्वाद भरी मिठाइयाँ हों, और ऊपर से फागुन का मस्ती वाला मौसम हो, तो खाने में भी अपार सुख मिलता है।...ऐसे में मैंने खूब सारी मिठाई खाने के बाद ऊपर से पचास लड्डू और खा लिए, तो इसमें हैरानी की क्या बात है!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय समेत वहाँ हर कोई अचंभित था। राजा बोले, "पर पुरोहित जी, आपने इस होली पर सचमुच कमाल का रंग जमा दिया। मैं तो नहीं समझता कि हमारे दरबार में कोई और एक साथ पचास लड्डू खा सकता है।...आपको इस बार होली पर जरूर कोई खास पुरस्कार मिलना चाहिए।"

मंत्री बोला, "हाँ महाराज, इस होली पर जरूर राजपुरोहित को पुरस्कार मिलना चाहिए। वैसे भी सारे पुरस्कार तो हर बार तेनालीराम ही हड़प जाता है। कम से कम एक पुरस्कार तो हमारे राजपुरोहित जी को...!"

मंत्री की बात पूरी होती, इससे पहले ही तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा, "महाराज, पुरोहित जी ने पचास लड्डू खाए हैं, तो इसमें कौन सी बड़ी बात है! मैं तो मन भर लड्डू खा सकता हूँ।"

"अरे, क्या सचमुच!" राजा ने हैरानी से उसके दुबले-पतले शरीर को देखते हुए कहा। उन्हें तेनालीराम की बात पर बिल्कुल यकीन नहीं हो रहा था।

मंत्री और दरबारी भी हक्के-बक्के थे।

मंत्री हँसकर बोला, "महाराज, जरूर तेनालीराम पर होली का कुछ ज्यादा रंग चढ़ गया है। वरना ऐसी अटपटी बात क्यों करना!...जरा इसका शरीर तो देखिए। इसमें मन भर लड्डू समाएँगे कहाँ?"

मंत्री की बात सुनकर राजपुरोहित ताताचार्य और दरबारी ठहाका मारकर हँस पड़े। राजा कृष्णदेव राय भी अपनी हँसी नहीं रोक पाए।

पर तेनालीराम गंभीर था। बोला, "महाराज, मैं आपको मन भर लड्डू खाकर दिखा दूँगा। जरा आप मँगाकर तो देखिए।" उसने तिरछी आँखों से राजपुरोहित ताताचार्य की विकट तोंद की ओर निहारते हुए जवाब दिया।

अब तो राजा कृष्णदेव राय के मन में भी कौतुक हुआ। बोले, "ठीक है, खाकर दिखाओ। शायद इसी अनूठी प्रतियोगिता की वजह से इस बार की होली यादगार बन जाए। हाँ, याद रखना, यहाँ सारे दरबारी तुम्हारी यह कला देखने के लिए मौजूद हैं, इसलिए तुम्हारी कोई चालाकी चल नहीं पाएगी।...अगर तुमने अपनी बात साबित कर दी तो तुम्हें एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ इनाम के रूप में दी जाएँगी। पर अगर तुम अपनी बात साबित नहीं कर पाए तो तुम्हें शर्त हारने पर दंड के रूप में राजपुरोहित ताताचार्य जी को एक मन लड्डू के पैसे देने होंगे।"

सुनते ही सब अपनी-अपनी जगह चौकन्ने होकर बैठ गए। तेनालीराम एक ओर बैठा मंद-मंद मुसकरा रहा था।

राजा कृष्णदेव राय के संकेत पर एक सेवक दौड़ा-दौड़ा गया, एक विशाल परात में मन भर लड्डू रखकर ले आया। राजा ने चाँदी की एक बड़ी सी चौकी मँगवाई। उसे दुबले-पतले, सींकिया तेनालीराम के आगे रखवाया। फिर उस चौकी पर मन भर लड्डुओं से भरी विशाल परात रख दी गई।

सारे दरबारी अचरज से भरकर पहले एक नजर दुबले-पतले तेनालीराम पर डालते और दूसरी नजर लड्डुओं से भरी उस विशालकाय परात पर...! उनके लिए अपनी हँसी को रोकना मुश्किल हो रहा था।

राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर बोले, "हाँ तो तेनालीराम, अब खाना शुरू करो। पर ध्यान रखना यहाँ तुम्हारी कोई चालाकी नहीं चलेगी। इतने लोगों की चौकन्नी निगाहें तुम पर हैं।"

"हाँ महाराज, जानता हूँ। बेचारे मंत्री और राजपुरोहित जी की तो जान सूख जाएगी, अगर मैंने अपनी बात साबित कर दी। पर अफसोस, इन्हें नहीं पता कि तेनालीराम जो कहता है, उसे साबित करके दिखाना भी जानता है।"

कहते-कहते तेनालीराम ने मुसकराते हुए उस विशाल परात में से दो लड्डू उठाकर खा लिए। फिर एक लड्डू और खाया। हिम्मत करके फिर चौथा लड्डू भी उठा लिया। उसके बाद हाथ जोड़कर बोला, "बस महाराज, अब मन नहीं है।"

"महाराज, तेनालीराम शर्त हार गया! अब इसे मन भर लड्डू के पैसे देने के लिए कहिए।" राजपुरोहित ताताचार्य ने व्यंग्यपूर्वक कहा। वे उत्तेजना से भरकर एकाएक अपनी जगह खड़े हुए, तो उनकी भद-भद तोद विचित्र नजारा पेश कर रही थी।

मंत्री और दरबारियों ने भी हँसते और ठिठोली करते हुए कहा, "हमें तो पहले ही पता था कि तेनालीराम की मन भर लड्डू खाने की बात केवल नाटक है।...अच्छा है न, अब हार का मुँह देखना पड़ा।"

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा। बोले, "तेनालीराम, तुम तो शर्त हार गए।"

वह मंद-मंद मुसकरा रहा था। बोला, "महाराज, मैं शर्त कहाँ हारा! मैंने यही तो कहा था कि मन भर लड्डू खा सकता हूँ। इसलिए जितना मन था, उतने खाए, मन भर गया तो छोड़ दिए। इसमें गलत क्या है?"

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। उन्होंने उसी समय खजानची को कहकर एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ मँगवाईं। तेनालीराम को एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के साथ सोने से बनी वनदेवता की विशाल मूर्ति भी भेंट की गई। राजा ने शाही हाथी पर बैठाकर उसे घर भिजवाने का इंतजाम किया। साथ ही चलते-चलते उसे अपने हाथों से फिर गुलाल के रंगों से रँगा। बोले, "यह होली तुम्हारे इस मनोरंजक कारनामे की वजह से हमेशा याद रहेगी तेनालीराम!"

सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर अनोखी चमक आ गई। फागुन के रंगों में रँगा तेनालीराम आज और भी बाँका लग रहा था।

उधर राजपुरोहित ताताचार्य की हालत देखने लायक थी। वे तो सोच रहे थे, आज राजा कृष्णदेव राय को प्रभावित करके मैंने बाजी जीत ली। अपनी खुराक और खूब पली हुई तोंद पर उन्हें भरोसा था। सो होली पर खास पुरस्कार मिलने का सपना देखते हुए मन ही मन गद्गद थे। पर तेनालीराम ने अच्छी किरकिरी की!

मंत्री और चाटुकार दरबारी तो इतने लज्जित थे कि मुँह भी नहीं उठा पा रहे थे। इस होली पर उन सबका रंग उतर गया, पर तेनालीराम की कीर्ति पर कुछ और नए रंग चढ़ गए थे।

16

आप कहें तो पूरी नाँद पी जाऊँ!

फिर ऐसा ही एक मौका और भी आ गया। असल में, विजयनगर साम्राज्य का स्थापना दिवस पास ही था। इसलिए बहुत दिनों से बड़े जोर-शोर से तैयारियाँ चल रही थीं। राजा कृष्णदेव राय का मन था कि इस बार स्थापना दिवस पर मित्र देशों के राजाओं को भी आमंत्रित किया जाए। साथ ही देश-विदेश के विद्वानों और कलावंतों को बलाकर उनका सम्मान किया जाए, जिससे दूर-दूर तक विजयनगर साम्राज्य की कीर्ति की गूँज पहुँच जाए। लोग यहाँ आकर विजयनगर की सुंदरता, कला और स्थापत्य देखें और अपने-अपने राज्यों में जाकर दूसरों को बताएँ। इस तरह पूरी दुनिया विजयनगर की महान संस्कृति, कला और वैभव को जान लेगी।

विजयनगर के मंत्री, दरबारी और सारी प्रजा उत्साहित थी। आमंत्रित अतिथियों के स्वागत के लिए राजधानी में जगह-जगह सुंदर तोरण-द्वार और बंदनवार सजाए गए। हजारों लोग रात-दिन तैयारियों में लगे हुए थे, जिससे दूर देशों से आए राजा, विद्वान और कलावंत भी यहाँ की अनुपम सुंदरता को निहारकर मुग्ध हों। विजयनगर की प्रजा के व्यवहार, प्रेमपूर्ण आतिथ्य और यहाँ की कला-संस्कृति की मुक्त कंठ से सराहना करें।

आखिर स्थापना दिवस से एक दिन पहले ही राजधानी में दूर-दूर के राजा, विद्वान और कलावंत पधार गए। उन सभी के रहने, भोजन और मनोरंजन की सुंदर व्यवस्था की गई। खूब भव्य आयोजन हुआ, जिसमें विजयनगर की कला और संस्कृति की झाँकियों के साथ-साथ सैनिकों के युद्ध-कौशल और अस्त्र-शस्त्रों की भी बड़ी अद्भुत प्रदर्शनी लगाई गई। देखकर सभी हैरान थे और वाह-वाह कर रहे थे। इससे सचमुच विजयनगर की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। लोग राजा कृष्णदेव राय का गुणगान करते थकते नहीं थे।

विजयनगर के दरबारी और प्रजा इस बात से गद्गद थी कि दूर-दूर से आए इतने प्रतापी सम्राट भी हमारे राजा कृष्णदेव राय के प्रति कितना सम्मान भाव रखते हैं। इस भव्य कार्यक्रम की सफलता से पूरे विजयनगर में मानो हर्ष और उल्लास की लहर दौड़ गई। कुछ दिनों बाद विजयनगर के विद्वानों और पंडितों ने एक भव्य समारोह में राजा कृष्णदेव राय को 'राजशिरोमणि' की उपाधि दी तो प्रजा भाव-विभोर हो उठी। धरती से आकाश तक 'राजा कृष्णदेव राय की जय!' का तुमुल नाद गूँज उठा।

राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न थे। एक दिन इसी खुशी में उन्होंने अपने महल में प्रमुख दरबारियों को दावत दी। सभी सभासद मौजूद थे। सभी सुंदर पोशाक पहनकर सज-धजकर आए थे, ताकि उनका प्रभाव पड़े। किसी-किसी ने तो बढ़िया इत्र भी लगा रखा था। मंत्री और राजपुरोहित के साथ तेनालीराम भी वहाँ था। हँसी-मजाक और एक से एक रोचक किस्से चल रहे थे।

दूर देशों से आए विद्वानों, लेखकों और कलाकारों की भी चर्चा चली। सबकी अलग-अलग आदतों के बारे में लोग बड़ी कौतुक भरी और रुचिपूर्ण बातें कर रहे थे। साथ ही सभी अपनी-अपनी खासियत भी बता रहे थे, जो दूसरों में न हो। किसी ने अपनी पान खाने की विचित्र आदत के बारे में बताया तो किसी का कहना था कि उसे केसर मिली हुई ठंडाई बहुत पसंद है। न मिले तो जी छटपटाने लगता है! मंत्री जी रबड़ी के शौकीन निकले। बोले, "भाई, मुझे तो बढ़िया रबड़ी का ऐसा शौक है कि रात सोने से पहले रबड़ी खाने को न मिले, तो पूरी रात नींद ही नहीं आती।"

सेनापति ने मुसकराते हुए कहा, "अरे भई, मुझे तो चाँदनी रात में घूमना पसंद है। बिल्कुल चाँदी जैसी धवल चाँदनी खिली हो, तो आधी रात में उठकर जब तक पूरी राजधानी का चक्कार न लगा लूँ, मुझे चैन नहीं पड़ता।"

तभी एक सेवक पानी लेकर आया। सभी ने थोड़ा-थोड़ा पानी पिया, लेकिन राजपुरोहित को जाने क्या सूझी, वे एक के बाद एक पूरे चार लोटे पानी पी गए। फिर आँख बंद करके मजे में सिर हिलाकर बोले, "अहा-अहा…!" सेवक ने मुसकराकर पूछा, "क्या और पानी लाऊँ पुरोहित जी?"

राजपुरोहित जोर से हँसकर बोले, "लाओ भाई, थक गए क्या? अभी तो चार लोटे मैं और पिऊँगा।"

"ऐं, सच्ची?" सेवक ने आँखें फाड़कर पूछा।

"अरे भई, इतने हैरान क्यों हो रहे हो? जरा चार लोटे पानी के और लेकर तो आओ।" राजपुरोहित ने मजे से तोंद पर हाथ फेरते हुए कहा। सिर पर उनकी शिखा अलग नर्तन कर रही थी। देख-देखकर सब आनंद ले रहे थे।

थोड़ी देर में सेवक पानी लाया तो वाकई राजपुरोहित एक के बाद एक चार लोटे पानी और पी गए। फिर उसी तरह मजे में सिर हिलाकर बोले, "अहा-अहा...!"

देखकर राजा, दरबारी सभी हैरान। राजपुरोहित ताताचार्य ने सोचा, राजा कृष्णदेव राय की निगाह में चढ़ने का यह बढ़िया मौका है। उन्होंने बड़े गर्व के साथ अपनी गर्दन चारों ओर घुमाई। फिर डींग हाँकते हुए बोले, "महाराज, देखा अपने? राजदरबारियों में कोई भी मेरे बराबर पानी नहीं पी सकता।"

महाराज कृष्णदेव राय ने सब दरबारियों की ओर निगाह दौड़ाई। मुसकराते हुए पूछा, "क्या राजपुरोहित जी ठीक कह रहे हैं? आपमें से कोई इनका मुकाबला नहीं कर सकता!'

सब ओर चुप्पी! किसी ने राजा कृष्णदेव राय की बात का जवाब नहीं दिया। अब तो राजपुरोहित की अकड़ और बढ़ गई। उन्होंने घमंड से भरकर कहा, "महाराज, अगर कोई इतना पानी पीकर दिखा दे, तो मैं सौ मुद्राएँ हार जाऊँगा। नहीं पी सके, तो वह सौ मुद्राएँ दे।"

यह अटपटी सी शर्त सुनकर सभी झिझक रहे थे। पर तेनालीराम के चेहरे पर बड़ी भेद भरी हँसी दिखाई दी। बोला, "महाराज, चार लोटे की तो बात ही क्या, आप कहें तो मैं पूरी नाँद पी जाऊँ!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय बुरी तरह चौंक पड़े। बोले, "अरे, ऐसा!" दरबारियों को भी तेनालीराम की बात पर यकीन नहीं आया। सब उसके दुबले-पतले शरीर को बड़े अचरज से नीचे से ऊपर, ऊपर से नीचे देख रहे थे।

राजपुरोहित मन ही मन खुश थे। सोचा, 'अच्छा मौका है। अब तेनालीराम फँस गया।' राजा की ओर देखकर बोले, "महाराज, तेनालीराम का दावा सही नहीं है। मुझे तो लगता है, वे जरूर अपनी बात से फिर जाएँगे। नहीं तो वे नाँद भर पानी पीकर दिखाएँ!...शर्त पूरी करें।"

तेनालीराम ने चुनौती स्वीकार कर ली। कहा, "लेकिन महाराज, मेरी भी एक शर्त है। जब तक मैं सारा पानी न पी लूँ, पुरोहित जी तब तक वहीं खड़े रहें। न खाना खाएँगे, न पानी पिएँगे। और न अपनी जगह से जरा भी हिलेंगे-डुलेंगे।"

राजपुरोहित खुशी-खुशी इस बात के लिए राजी हो गए। बोले, "मुझे मंजूर है। जब तक तेनालीराम पूरी नाँद का पानी नहीं पी लेता, मैं यों ही खड़ा रहूँगा।"

अब तो सबकी उत्सुकता और बढ़ गई। मामला हर क्षण रोचक होता जा रहा था। राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से कहा, "चलो तेनालीराम, अब तुम नाँद भर पानी पीकर दिखाओ!"

तेनालीराम धीरे से उठा और चलकर नाँद के पास गया। उसने नाँद में से एक लोटा पिया, फिर एक और। और फिर आराम से अपनी जगह आकर बैठ गया।

"और बाकी पानी...?" राजा ने कौतूहल से पूछा। समझ गए, इसमें भी तेनालीराम की कोई चाल है।

"महाराज, वह भी पी ही लूँगा।" तेनालीराम निश्चिंतता से बोला, "दो लोटे कल पिऊँगा, दो परसों, दो अगले दिन! इस तरह छह महीने में पूरी नाँद पी जाऊँगा। आप सिर्फ इतना करें, यह नाँद आज ही मेरे घर भिजवा दें। साथ ही पुरोहित जी को आदेश दें कि नाँद खाली होने तक वह न कुछ खाएँ, न पिएँ। बस, अपनी जगह अडोल खड़े रहें...!"

"नहीं, नहीं, अभी यहीं पूरी नाँद पीकर दिखाओ! शर्त याद है न?" राजपुरोहित ने अकड़कर कहा।

"लेकिन शर्त में यह कहाँ कहा गया था कि मैं अभी पूरी नाँद पानी पीकर दिखाऊँ?" तेनालीराम ने मुसकराते हुए कहा। सुनकर राजा कृष्णदेव राय जोर से हँस पड़े। दूसरे दरबारी भी हँस रहे थे।

तेनालीराम बोला, "महाराज, अब या तो राजपुरोहित सौ मुद्राएँ दें, या फिर छह महीने तक भूखे-प्यासे इसी जगह अडोल खड़े रहें। क्योंकि छह महीने से पहले तो मैं यह नाँद का पूरा पानी पीने से रहा!"

अब राजपुरोहित बेचारे क्या कहते! वे एकदम हक्के-बक्के थे। तेनालीराम को हराने निकले थे, पर तेनालीराम ने तो उलटा उन्हें ही छका दिया। आखिर राजपुरोहित ताताचार्य को सौ मुद्राएँ देनी पड़ीं। उस समय उनकी शक्ल देखने लायक थी।

मंत्री जी और उनके मुँहलगे दरबारी लोग जो सोच रहे थे कि आज तेनालीराम की खूब किरकिरी होगी, अब बेचारे एक-दूसरे से नजरें चुराते हुए दाएँ-बाएँ देख रहे थे। और तेनालीराम...! वह एक ओर खड़ा बड़े मजे में मुसकरा रहा था।

17

सबसे सुंदर दीए किस के?

राजा कृष्णदेव राय दीवाली का पर्व बड़े आनंद-उल्लास के साथ मनाते थे। इस अवसर पर विजयनगर की प्रजा का उत्साह भी देखते ही बनता था। घर-घर मंगल दीप जलते। नगर में जगह-जगह फूल-पत्तों और रंग-बिरंगी झंडियों से बंदनवार सजाए जाते। राजधानी के प्रमुख राजमार्गों और चौराहों को भी रंग-बिरंगी अल्पनाओं और दीपमालिकाओं से सुशोभित किया जाता। मृदंगम लिए गायकों की टोलियाँ हर तरफ घूमती हुई रामकथा के साथ-साथ विजयनगर के गौरवपूर्ण इतिहास को भी मोहक गीत-संगीत में ढालकर प्रस्तुत करतीं तो सुननेवालों की भीड़ लग जाती।

हर बार दीवाली पर विजयनगर की एक अलग छटा नजर आती। कभी आस-पड़ोस के गणमान्य राजाओं को आमंत्रित किया जाता तो कभी देश-विदेश के विद्वानों के सान्निध्य में राजा कृष्णदेव राय दीवाली का त्योहार मनाते। कभी नाटक और संगीत की प्रतियोगिताएँ होतीं तो कभी अस्त्र-शस्त्र और कुश्ती के रोमांचक मुकाबले। प्रजा इन आयोजनों में बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। पूरी राजधानी लोगों से अँट जाती। राजा कृष्णदेव राय भी तरह-तरह के उपहार देकर सभी को प्रसन्न कर देते। इससे दीवाली का आनंद दुगना हो जाता था।

इस बार भी दीवाली को कुछ ही दिन बाकी थे, पर विजयनगर में खूब उत्साह और चहलपहल थी। हर कोई जानना चाहता था, देखें, इस बार राजा कृष्णदेव राय दीवाली को कैसी भव्यता और अनूठेपन के साथ मनाते हैं। सब अपने-अपने कयास भी लगा रहे थे। किसी का कहना था, "इस बार दीवाली पर राजा कृष्णदेव राय जरूर विजयनगर की सैन्यकला का ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन करेंगे कि विजयनगर के शत्रुओं के शत्रुओं के दिल भी दहल जाएँ।" तो किसी और का मत था, "नहीं-नहीं, देखना, इस बार राजा कृष्णदेव राय विजयनगर की समृद्धि की अपूर्व झाँकी प्रस्तुत करेंगे, जिससे दुनिया समझ जाए कि विजयनगर जैसा संपन्न राज्य धरती पर कोई और नहीं है।"

कुछ लोगों का कहना था, "राजा कृष्णदेव राय कवियों और विद्वानों का बहुत सम्मान करते हैं। इस बार वे अवश्य देश-दुनिया के जाने-माने कवियों और विद्वानों को सम्मानित करेंगे, जिससे राज्य की कीर्ति सब और फैले।"

जहाँ भी चार लोग मिलते, यही चर्चा शुरू हो जाती और फिर इसका कोई ओर-छोर ही न रहता। लोग कहते, "देखना, ढंग चाहे भी हो, पर राजा कृष्णदेव राय कुछ न कुछ ऐसा आयोजन जरूर करेंगे कि इस बार भी दीवाली यादगार बन जाए।"

उधर राजा राजा कृष्णदेव राय भी विचारमग्न थे। उन्होंने दरबार में कहा, "मैं चाहता हूँ, इस बार दीवाली कुछ अलग ढंग से मनाई जाए। आप लोग सुझाव दें कि क्या किया जाए?"

इस पर मंत्री माधवन ने कहा, "महाराज, दीवाली समृद्धि का पर्व है। विजयनगर की समृद्धि की पताका भी इस समय सारी दुनिया में लहरा रही है। इसलिए इस दीवाली पर राजधानी के जाने-माने कलाकारों, विद्वानों तथा विशिष्ट और गणमान्य लोगों को बुलाकर उनका सम्मान किया जाए, तो हर कोई आपके गुण गाएगा। इससे विजयनगर राज्य पर लक्ष्मीजी भी अवश्य प्रसन्न होंगी।"

राजपुरोहित ताताचार्य ने हँसते हुए कहा, "महाराज, बहुत समय से विजयनगर में अच्छी दावत नहीं हुई। दीवाली हँसी-खुशी का पर्व है। इसलिए इस दीवाली पर खूब मिठाइयाँ बनें और ऐसी शानदार दावत का इंतजाम किया जाए कि लोग हमेशा याद रखें।"

सेनापति गजेंद्रपति गंभीर थे। उन्होंने इस अवसर पर विजयनगर की युद्धकला का प्रदर्शन करने का सुझाव दिया। बोले, "महाराज, हमारे पड़ोसी राजाओं में कुछ ने उपद्रव करना शुरू कर दिया है। युद्धकला का प्रदर्शन करके हम उन्हें बता देंगे कि विजयनगर के योद्धाओं की तलवारों की चमक कैसी मारक है!" कुछ दरबारियों ने विजयनगर के पुरात्त्व और प्राचीन इतिहास की भव्य प्रदर्शनी लगाने का सुझाव दिया।

तेनालीराम चुपचाप एक ओर खड़ा था। राजा कृष्णदेव राय का ध्यान उसकी ओर गया तो हँसकर बोले, "क्यों तेनालीराम, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? तुम आज कुछ बोल नहीं रहे हो।"

मंत्री माधवन ने हँसकर कहा, "महाराज, तेनालीराम अब बूढ़ा हो गया है। मैंने सुना है, बूढ़े लोगों की बुद्धि बीच-बीच में कहीं बाहर टहलने चली जाती है। लगता है, हमारे तेनालीराम जी की बुद्धि भी आज इसीलिए काम नहीं कर रही।"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, सब लोग बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। मैं तो उन सबकी बातें ध्यान से सुन रहा था। वैसे दीवाली तो दीयों का त्योहार है। अचरज है महाराज, सबने धरती से आसमान तक की दौड़ लगाई, पर किसी ने दीए की तो बात नहीं की।"

"हाँ-हाँ, दीवाली तो दीयों का त्योहार है।" राजा कृष्णदेव राय उत्साहित होकर बोले, "दीवाली पर दीयों की जगर-मगर तो होगी ही। पर इसके साथ ही तुम कोई ऐसा सुझाव दो कि इस बार दीवाली पर्व को हम कैसे यादगार बनाएँ?"

सुनकर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, "महाराज, सबने बड़ी-बड़ी बातें कहीं। पर मैं तो एक छोटी सी बात कहूँगा। इस बार राज्य में सभी लोग बड़े उत्साह से दीए जलाएँ। जिसके दीए सबसे सुंदर हों, अनोखे हों, उसे पुरस्कार दिया जाए तो त्योहार मनाने की खुशी और बढ़ जाएगी। लोग अपने घर और आसपास की जगह को स्वच्छ-सुंदर बनाकर, आनंद से दिए जलाएँगे, तो पूरा विजयनगर आलोकित हो उठेगा। सच में तो यही राज्य की समृद्धि है।"

बात राजा कृष्णदेव राय को जँच गई। उन्होंने मंत्री और दरबारियों से कहा, "मुझे लगता है, तेनालीराम ने जो बात कही है, उससे प्रजा में उत्साह की लहर पैदा होगी। दीवाली भी कुछ नई-नई होगी। आज भी यह घोषणा करवा दी जाए, कि इस बार जिसके दीए सबसे सुंदर होंगे, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार दिया जाएगा। सौ लोगों को एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के प्रोत्साहन पुरस्कार भी मिलेंगे।"

उसी समय विजयनगर में घोषणा कर दी गई, "विजयनगर की प्रजा ध्यान से सुने! इस बार राजा कृष्णदेव राय दीवाली अनूठे ढंग से मनाएँगे। हर बार प्रजा राजमहल की भव्य सजावट देखने आती थी। पर इस बार दीवाली की रात को राजा कृष्णदेव राय स्वयं प्रजा के बीच पहुँचेंगे। वे विजयनगर में जगह-जगह घूमेंगे। हर घर की सजावट देखेंगे। जिसके दीए सबसे सुंदर होंगे, उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ पुरस्कार के रूप में दी जाएँगी। एक-एक हजार स्वर्ण मुद्राओं के सौ प्रोसाहन पुरस्कार भी दिए जाएँगे।"

सुनकर लोगों का जोश और उत्साह बढ़ गया। उसी समय सबने जोर-शोर से घरों की सफाई शुरू कर दी। दीवारों पर सफेदी के साथ-साथ घरों को फूलों, पत्तों और हाथ की बनी तरह-तरह की कलाकृतियों और चित्रों से सजाया जाने लगा। अंदर कमरों के साथ-साथ बाहर द्वार पर भी सजावट हुई। घरों के आगे सुंदर अल्पनाएँ बनाने की होड़ लग गई। एक से एक सुंदर रंग-बिरंगे कंदील बनाए जा रहे थे। सभी यह सोच रहे थे कि उन्हें घर में सबसे ऊपर टाँगा जाए तो उनमें जलने वाले दीए के झिलमिल प्रकाश को देख, जरूर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो जाएँगे।

दीवाली वाले दिन सुबह-सुबह लोगों ने घरों के सामने सुंदर और आकर्षक रँगोली बनाई। द्वार को फूल-पत्तों और रंग-बिरंगी झंडियों से सजाया। आसमान को छूने वाले ऊँचे-ऊँचे कंदील टाँगे। घर-आँगन की खूब अच्छी तरह सफाई की और फिर दीवाली की धूमधाम शुरू हो गई।

शाम को राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ घूमने निकले, तो सभी घरों में दीयों की अपूर्व जगमग देखकर प्रसन्न हो उठे। घरों की छत पर ध्रुव तारे की तरह चमकते ऊँचे कंदील दूर से ध्यान खींचते थे। उनमें दीए भी झिलमिल कर रहे थे। घरों और गलियों के आगे केले के पत्तों से बने द्वार और बंदनवार मन मोह रहे थे। राजा कृष्णदेव राय मुग्ध होकर देखते जा रहे थे।

राजमार्ग पर एक बड़े सेठ लखमीमल की सतखंडी हवेली थी। बड़ी ही आलीशान। दूर से अपनी भव्यता का बखान करती हुई। वहाँ सोने के दीपों की जगर-मगर देख, मंत्री ने कहा, "महाराज, लगता है, यह पूरी हवेली ही दीपों के उज्ज्वल प्रकाश से नहा रही हो। इससे सुंदर दीप भला और कौन जलाएगा? मुझे तो लगता है महाराज, सुंदर दीयों का पहला पुरस्कार इसी को मिलना चाहिए।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। कुछ बोले नहीं।

कुछ आगे चलकर एक और धनी व्यापारी सोनामल का ऊँचा भवन नजर आया, जिसमें जहाँ तक नजर जाए, दीए ही दीए नजर आते थे। कुछ सीधी कतारों में, कुछ ऊपर से नीचे। हवा चलती तो लगता था, जैसे प्रकाश की लहरें तेजी से ऊपर-नीचे दाएँ-बाएँ दौड़ रही हों। कुछ लोगों ने अपने घरों के द्वार पर दीए ऐसे सजाए थे कि दूर से देखने पर वह घर किसी सुंदर कलाकृति जैसा लगता था। राजा कृष्णदेव राय पसोपेश में थे। सोच रहे थे, पहला इनाम किसे दिया जाए? फिर सौ प्रोत्साहन पुरस्कार भी तो दिए जाने थे। भला उनका निर्णय कैसे हो?

उन्होंने तेनालीराम की ओर देखा। तेनालाराम मुसकराया। बोला, "महाराज, वाकई दीवाली की ऐसी जगर-मगर तो पहले कभी देखी नहीं थी। हर बार ही विजयनगर की प्रजा दीवाली पर सुंदर सजावट करती है। पर इस बार पुरस्कारों की घोषणा से सबका उत्साह बढ़ गया। चलिए, थोड़ा और आगे चलें, शायद कुछ और भी सुंदर दीए नजर आ जाएँ।"

राजा कृष्णदेव राय आगे चल पड़े। राजधानी की सीमा से बाहर निकले तो दीवाली वाले दिन भी अँधेरा नजर आया। वहाँ रास्ते भी ठीक नहीं थे। ऊबड़-खाबड़, गड्ढों भरे। ऊपर से घुप अँधेरा। बस, कहीं-कहीं टूटे-फूटे घरों में इक्का-दुक्का दीए चल रहे थे। कुछ जगहों पर तो बिल्कुल सन्नाटा था। राजा कृष्णदेव राय को हैरानी हुई, "अरे, दीवाली पर भी इतना अँधेरा? फिर यहाँ रास्ते भी कितने खराब हैं। किसी ने ध्यान ही नहीं दिया।...क्यों मंत्री जी, यह सब क्या है?"

मंत्री अचकचाकर बोला, "महाराज, चलिए, अब लौट चलें। मैं तो आपको पहले ही कहने वाला था। यहाँ अँधेरे के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ शायद लोग रहते ही नहीं।...पता नहीं, तेनालीराम आपको यहाँ क्यों ले आया?"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, लोग तो यहाँ भी हैं और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं से कहीं ज्यादा हैं। पर वे मेहनतकश लोग हैं। किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके गुजारा करते हैं। सोने के दीए तो क्या, मिट्टी के दीए जलाना भी जिनके लिए मुश्किल है। शायद मंत्री जी इन्हें इनसान नहीं मानते, पर लोग तो ये भी हैं जो विजयनगर की समृद्धि के लिए रात-दिन पसीना बहा रहे हैं।"

तभी अचानक राजा का ध्यान एक झोंपड़ी की ओर गया। उसमें सिर्फ एक मिट्टी का दीया जल रहा था। झोंपड़ी के आगे लाल-पीले फूलों वाली जंगली झाड़ियों से घिरा एक कच्चा तालाब था। तालाब के किनारे बरगद, आम और जामुन के कुछ पेड़। एक छोटा सा बच्चा तालाब और पेड़ों के पास मिट्टी के दीए जला-जलाकर रखता जा रहा था। इससे घुप अँधेरे में भी वह तालाब और पेड़ झलमल कर रहे थे।

देखकर राजा कृष्णदेव राय को बहुत अच्छा लगा। उन्होंने उस बच्चे को बुलाकर पूछा तो उसने कहा, "महाराज, मेरा नाम सुंदरम है। मैं अकेला ही रहता हूँ। पिछले साल माता-पिता दोनों ही गुजर गए। मेरे पिता कुम्हार थे। उन्होंने मुझे दीए बनाना सिखा दिया था। मिट्टी के दीए बेचकर कुछ पैसे मिले, उनसे मैं तेल और रुई ले आया। थोड़े से दीए अपने लिए बचा लिए थे। वही यहाँ जला रहा हूँ। एक झोंपड़ी के आगे जलाया, बाकी यहाँ। देखिए, महाराज, दीयों की रोशनी में तालाब का पानी कैसा झिलमिल कर रहा है!"

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय की आँखें भीग गईं। ममता से भरकर बोले, "सुंदरम, मैंने तुम जैसा कोई बच्चा नहीं देखा, जिसे अपनी झोंपड़ी से ज्यादा पास के तालाब और पेड़ों की चिंता है। तुम्हारे दीए तो सुंदर हैं ही, तुम खुद भी किसी जगमग दीए से कम नहीं हो। विजयनगर में तुम्हारे जैसे बच्चे हैं, मुझे इस पर गर्व है।"

कुछ रुककर उन्होंने कहा, "तुम्हें इतनी छोटी सी उम्र में काम करने की जरूरत नहीं है। तुम पढ़ने जाओगे।"

सुंदरम के मुँह से निकला, "पर महाराज, मेरी फीस...?"

राजा मुसकराकर बोले, "उसका भी इंतजाम हो जाएगा।"

उसी समय राजा कृष्णदेव राय ने घोषणा करवा दी, "पूरे विजयनगर में सबसे सुंदर दीए सुंदरम के हैं और उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राओं का इनाम दिया जाएगा।" साथ ही उन्होंने घोषणा की कि राज्य में गरीब और अनाथ बच्चों की शिक्षा और भोजन का प्रबंध राज्य की ओर से होगा।

अगले दिन हाथी पर बैठाकर सुंदरम को पूरे विजयनगर में घुमाया गया। बाकी के सौ प्रोत्साहन पुरस्कार भी उन लोगों को मिले, जिन्होंने अपने घरों के साथ-साथ आसपास की जगहों को भी साफ-सुथरा करके दीए जलाए थे। इसका निर्णय करने का जिम्मा तेनालीराम को मिला। इससे विजयनगर की प्रजा इतनी खुश थी कि जगह-जगह राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम की प्रशंसा में भी गीत गाए जा रहे थी।

यह देखकर बेचारे मंत्री जी और उनके चापलूस दरबारी दुखी थे, पर तेनालीराम के चेहरे पर बाँकी मुसकान थी।

18

होलिका दरबार हास्य नाट्यम

राजा कृष्णदेव राय हर साल होली का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते थे। और यह उत्सव एक दिन नहीं, कई दिन चलता था। इस अवसर पर गाने-बजाने और नृत्यों के साथ हास्य रस के भी एक से एक मजेदार कार्यक्रम होते थे। हास्यगीत, गीतिकाओं और मनोरंजक नाटकों का जोर रहता था। गाँव वाले रास-रंग से भरपूर लोकनृत्य पेश करते तो समा बँध जाता। उधर पहलवानों के अखाड़ों की धूम अलग। नट, बाजीगर और तमाशे वाले भी कोई न कोई नया रंग, नया करतब लेकर आते। पूरे विजयनगर में आनंद और उल्लास का वातावरण छा जाता था।

इस अवसर पर विजयनगर के कोने-कोने से आए विशेष अतिथि, कवि और कलाकार यह विशेष आनंद उत्सव देखकर अभिभूत हो उठते थे। वे आश्चर्य चकित होकर कहते, "अहा, फागुन के दिनों में तो राजमहल और राजधानी की फिजा ही बदल जाती है!"

विजयनगर का यह नया रंग पड़ोसी देशों को भी आकर्षित करता। इसलिए होली पर आसपास के मित्र राज्यों से बड़ी संख्या में विशिष्ट अतिथि हर साल आया करते थे। वे बड़ी उत्सुकता से देखते थे कि इस साल विजयनगर के होली उत्सव में नया क्या है? और हर बार कोई न कोई ऐसी नई झाँकी देखने को मिलती कि इस अवसर पर खास तौर से आने वाले अतिथि अपने साथ नई और रंगारंग यादें लेकर जाते थे।

इस बार भी होली आ रही थी। अपने साथ रंगों का पूरा जोम और उछाह लेकर आ रही थी। उसकी शरारती हँसी और उन्मुक्त खिलखिलाहट हवाओं में घुलने लगी थी। फागुनी हवाओं ने अपनी सुरीली दस्तक दे दी थी। धरती पर हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों की चादर-सी बिछ गई थी। पेड़ों-पौधों और फूल-पत्तों की हँसी में भी एक नशा-सा था। राजा कृष्णदेव राय सोच रहे थे, "इस बार भी कुछ न कुछ तो नया होना चाहिए। दूर-दूर से आए लोगों का कुछ तो मनोरंजन हो।"

उन्होंने दरबारियों से इस बारे में अपनी राय देने के लिए कहा, तो सबने अपने-अपने सुझाव दिए। कुछ ने इसे सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाने पर जोर दिया तो कुछ दरबारी हास्य कार्यक्रम आयोजित करने के लिए सुझाव दे रहे थे। पर राजा कृष्णदेव राय को कुछ ज्यादा मजा नहीं आया।

उन्होंने कहा कुछ नहीं, पर उनका मुखमंडल देखकर लगता था, वे अधिक संतुष्ट नहीं हैं। शायद उनके भीतर कुछ और ही चल रहा था।

तभी उन्होंने दरबार में एक ओर बैठे तेनालीराम की ओर देखा। तेनालीराम चुप बैठा था। अभी तक उसने एक शब्द भी नहीं कहा था। पर अभी-अभी उसे जाने क्या खुराफात सूझी थी कि अचानक उसके होंठों पर मंद-मंद मुसकान नाचने लगी और उसकी मूँछें फुरफुराने लगीं।

राजा कृष्णदेव राय बोले, "तेनालीराम, तुम तो होली पर हमेशा अपनी कोई न कोई आँकी-बाँकी शरारत करके, विजयनगर की होली को यादगार बना देते हो। इस बार भी तुमने जरूर कुछ न कुछ तो सोचा होगा। जरा बताओ तो, इस होली पर ऐसा क्या मनोरंजक कार्यक्रम हो सकता है कि लोगों को लगे, इस बार की विजयनगर की होली तो एकदम निराली थी?"

तेनालीराम हँसकर बोला, "महाराज, होली की शरारतें कोई कार्यक्रम बनाकर थोड़े ही की जाती हैं! होली का रंग तो तब जमता है, जब बात की बात में कोई बढ़िया-सी खुराफात सूझे और फिर खट से उसका रंग भी लोगों के दिलों पर चढ़ जाए। होली आएगी तो ऐसी कोई बढ़िया खुराफात मैं जरूर करूँगा कि लोग याद करें।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय कुछ आश्वस्त हुए। पर राजपुरोहित, मंत्री और सेनापति का दिल किसी आशंका से रह-रहकर उछल रहा था। पिछली बार सबने मिलकर तेनालीराम को छकाने की कोशिश की थी। इस बार कहीं ऐसा न हो कि तेनालीराम सबकी छुट्टी कर दे।

राजपुरोहित बोले, "महाराज, पिछली बार तेनालीराम ने जाने क्या जादू चलाया कि अचानक आसमान से रंग बरसने लगा था। सबके सब पल भर में रँग गए। मगर फिर इसी ने कुछ ऐसा कमाल किया कि देखते ही देखते सारा रंग एकाएक गायब भी हो गया। उनसे कहें, अब की ऐसी खुराफात न करें। आप तो जानते ही हैं, मेरा दिल जरा कमजोर है। ऐसे खेल-तमाशे देखकर जी धक से रह जाता है।"

मंत्री बोला, "महाराज, पिछली होली पर मैंने तेनालीराम को धोखे से भाँग वाली बरफी खिला दी थी। तब से यह मेरे पीछे पड़ा है कि जरा खबरदार रहना, होली पर मैं भी तुम्हें खूब छकाऊँगा।...इनसे कहें, मेरे साथ ज्यादा होली की छेड़छाड़ न करें। वैसे भी इन दिनों मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं रहती।"

तेनालीराम हँसकर बोला, "महाराज, अभी तो मैंने रंग डाला ही नहीं, और ये लोग पहले से ही बिदकने लगे। इनसे कहें महाराज, कि ये लोग ज्यादा घबराएँ नहीं। भले ही इन्होंने मेरे साथ कुछ भी किया हो, पर मैं तो इनके साथ बस होली ही खेलूँगा। होली होगी और खूब मजेदार होगी। पर वह ठिठोली ही होगी, ब्रज की लट्ठमार होली नहीं!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ठहाका मारकर हँसने लगे। उनके साथ-साथ सारे दरबारी भी हँसने लगे।

राजा कृष्णदेव राय अब यह समझ गए थे कि तेनालीराम के मन में कोई न कोई मजेदार खुराफात जरूर आ गई है और होली आते ही उसके रंग का फव्वारा छूटने लगेगा।

असल में बात यह थी कि तेनालीराम को राजा कृष्णदेव राय ने कुछ समय पहले एक खासुलखास जिम्मा दिया था। ढम-ढम-ढम मुनादी वाला। राजा चाहते थे कि राजदरबार में जनता की भलाई के जो भी काम होते हैं, प्रजा के बीच उनकी बढ़िया ढंग से मुनादी करवा दी जाए। जिससे प्रजा जान ले कि विजयनगर में लोगों की भलाई के लिए कौन-कौन सी नई योजनाएँ बन रही हैं? राजदरबार में सभी का कहना था कि तेनालीराम को बात कहने की कला आती है। उसकी भाषा में दम है, विलक्षणता है। लिहाजा उससे बढ़िया ढंग से यह काम कोई और नहीं कर सकता। राजा ने तेनालीराम से पूछा तो वह मान गया।

बस, तभी से राजा कृष्णदेव राय ने कुछ राज कर्मचारी तेनालीराम को मुनादी के लिए सौंप दिए। तेनालीराम बड़े प्रभावशाली अंदाज में उन्हें राजदरबार में बनने वाली योजनाओं की खबरें लिखकर देता था। फिर मुनादी वाले राज कर्मचारी ढम-ढम ढोल बजाते हुए, जनता के बीच जाकर बताया करते थे—

"सुनो-सुनो-सुनो, राजा कृष्णदेव राय ने प्रजा की भलाई के लिए एक नई योजना बनाई है कि अगर किसी की फसल को नुकसान पहुँचा है तो वह राजदरबार में आकर बताए। उसे बहुत जल्दी उपयुक्त मुआवजा मिलेगा...! ढम-ढम-ढम...!! अगर किसी गरीब के घर विवाह है, तो राजदरबार से उसे विशेष मदद दी जाएगी! गरीब घरों की बेटियों के कन्यादान के लिए हमारे दानी राजा कृष्णदेव राय सहर्ष एक सहस्र मुद्राएँ देंगे।...ढम-ढम-ढम!!"

ऐसी ढम-ढमाढम में तेनालीराम की कलम इतने बढ़िया ढंग से चलती थी कि प्रजा सीधे-सादे लफ्जों में सारी बात जानकर बहुत खुश होती थी। सबको पता था, इस सबके पीछे तेनालीराम का दिमाग है। इसलिए पूरे विजयनगर में तेनालीराम की ढम-ढमाढम मशहूर होती जा रही थी।

पर जब होली पास आई, तो तेनालीराम को लगा, अब जरा कुछ अलग ढंग की ढम-ढमाढम भी होनी चाहिए। थोड़ी मजेदार, थोड़ी चटपटी, थोड़ी रंग-बिरंगी। और फौरन उसकी आँखों में शरारत झलकी। उसकी चपल दृष्टि राजदरबार में इधर-उधर घूमने लगीं।

उसने देखा, राजा कृष्णदेव राय इस बार की होली को यादगार बनाने के लिए कुछ बातों की ओर ध्यान दिला रहे हैं, पर राजपुरोहित जी का ध्यान शायद कहीं और है। इसलिए उनकी गरदन बिना बात हिल रही है और गर्दन के साथ-साथ सिर की चोटी भी नर्तन कर रही है। यहाँ तक कि उनका गोल-गोल पेट भी कुम्हार के चाक पर रखे घड़े की तरह चकरी काट रहा है।

देखकर तेनालीराम के लिए अपनी हँसी पर जज्ब करना मुश्किल था। उसने फौरन कलम निकाली और कागज पर राजपुरोहित जी की यह अदा दर्ज कर ली।

फिर तेनालीराम की निगाह मंत्री जी की ओर गई। वे राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, हर बार बेध्यानी में 'जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ महाराज, जी हाँ...!' कह देते। तेनालीराम ने गिना। उसके देखते-देखते मंत्री जी ने पूरे बत्तीस बार 'जी हाँ, जी हाँ' का पहाड़ा पढ़ा।

"वाह, कैसी मजेदार बात है! यह हुई न होली की खबर!" और तेनालीराम ने फट से मुनादी के लिए एक नई खबर भी तैयार कर ली। इसमें मंत्री जी के शब्दों के साथ-साथ उनके हाव-भाव का भी मजेदार वर्णन था।

आँख मूँदकर 'जी हाँ, जी हाँ' कहने में सेनापति भी कम नहीं थे। मगर एक फर्क था। मंत्री जी तो खाली 'जी हाँ, जी हाँ' करते थे, पर सेनापति जी जब 'जी हाँ' वाला पहाड़ा पढ़ते थे, तो साथ ही साथ उनकी दाईं हथेली भी पीपल के पत्ते की तरह तेजी से हिलती थी और खूब बढ़िया दृश्य बन जाता था। ऐसा कि देखने वालों को मजा आ जाए। तो फिर होली की ढम-ढम में भला जनता को यह मजेदार खबर क्यों न दी जाए?

तेनालीराम ने फौरन कागज निकाला और नई खबर दर्ज की।

फिर उनका ध्यान एक बूढ़े राजदरबारी बालकुट्टी की ओर गया। उन्हें राजा कृष्णदेव राय की बातों में इतना आनंद आया कि वे बड़े मजे से सो गए। पर जैसे ही उन्होंने खर्राटे लेना शुरू किया, पास बैठे मंत्री जी ने चिकोटी काटकर जगा दिया। तेनालीराम ने फौरन यह मजेदार होलिका खबर दर्ज कर ली। इस खबर में अपनी उर्वर कल्पना से उसने बहुत कुछ और भी जोड़ दिया, जिससे खबर अनारदाने के चूरन की तरह थोड़ी चटपटी और जायकेदार हो जाए।

यह खबर लिखते-लिखते तेनालीराम की बाँकी निगाह एक नए दरबारी सोम नृत्यगोपालम पर पड़ी। वह राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, अपनी जगह से उचक-उचककर उनकी ओर देखने लगता था। फिर वह उसी तरह उचक-उचककर दूसरों की ओर देखता। तेनालीराम को उसका उचकना इतना मजेदार लगा कि उसने सोचा, क्यों न इसका नाम उचकू उचकना रख दिया जाए? उसने झट से खबर बनाई कि एक नए दरबारी ने इतनी बार ऊँट की तरह गर्दन उचकाई कि उसका नाम उचकू उचकना रखने पर विचार किया जा रहा है।

कुछ राज कर्मचारी देर से दरबार में आए। राजा कृष्णदेव राय की निगाह से बचने के लिए वे किस तरह छुपने का प्रयास कर रहे थे, यह भी तेनालीराम से छिपा न रहा। और उसने उनकी भी खबर ली।

कुछ समय बद तेनालीराम ने मुनादी करने वाले राजकर्मचारियों को बुलाया। राजधानी की गली-गली में मुनादी के लिए जाने से पहले तेनालीराम ने उन्हें विस्तार से सारी खबरें लिखकर दे दीं। राजा कृष्णदेव राय ने होली का आनंद-उत्सव मनाने के लिए जो-जो मजेदार कार्यक्रम तय किए हैं, उनकी खबरें देने के साथ-साथ उसने दरबार की रोचक खबरें भी अपनी ओर से जोड़ दीं। उनमें इस बात की भी खबर थी कि आज राजपुरोहित जी बहुत देर तक दरबार में बैठे-बैठे ऊँघते रहे। फिर अचानक उनकी गर्दन और सिर की लंबी चोटी दोनों ने एक साथ नर्तन शुरू किया। हालाँकि इस दृश्य में असली आनंद तब आया, जब गर्दन और शिखा के साथ ही उनका पेट भी कुम्हार के चाक पर रखे मटके की तरह गोल-गोल, गोल-गोल घूमने लगा और बड़ा ही मनोहर दृश्य उपस्थित हो गया...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...!!

इसके बाद मंत्री और सेनापति के 'जी...जी...जी हाँ, जी हाँ' वाला पहाड़ा पढ़ने की खबर थी। उतनी ही मजेदारी के साथ—

"सुनो...सुनो...सुनो...! आज दरबार में मंत्री जी की छटा वास्तव में दर्शनीय थी। वे राजा कृष्णदेव राय की बात सुनते ही, हर बार बेध्यानी में 'जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ महाराज, जी हाँ...!' कह रहे थे। उन्होंने तीस जमा दो, यानी पूरे बत्तीस बार 'जी हाँ, जी हाँ' का पहाड़ा पढ़ा। उस समय उनके चेहरे पर एकदम नारद मुनि जी वाला दिव्य भाव था, जिसे देखकर हर कोई आनंदित हो रहा था।...वैसे तो हमारे सेनापति जी भी कुछ कम नहीं हैं। आँख मूँदकर 'जी हाँ, जी हाँ' कहने में उनका भी जवाब नहीं। मगर एक फर्क था। मंत्री जी तो खाली 'जी हाँ, जी हाँ' करते थे, पर सेनापति जी जब 'जी हाँ' वाला पहाड़ा पढ़ते थे, तो साथ ही साथ उनकी दाईं हथेली भी हवा में हिलते पीपल के पत्ते की तरह तेजी से थिरकती थी और खूब बढ़िया दृश्य बन जाता था। देखने वालों को कैसा मजा आया होगा, इसकी आप खुद ही कल्पना कर लें।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढमाढम ढम...!!"

फिर "सुनो, सुनो, सुनो!" की घोषणा के साथ बूढ़े राजदरबारी बालकुट्टी की पूरी खबर थी—

"सुनो, सुनो, सुनो!...हमारे पुराने दरबारी बालकुट्टी को राजा कृष्णदेव राय की बातों में इतना रस-आनंद आया कि वे बड़े मजे से सो गए। पर जैसे ही उन्होंने खर्राटे लेना शुरू किया, पास बैठे मंत्री जी ने चिकोटी काटकर जगा दिया। बाद में बालकुट्टी ने तेनालीराम को एकांत में ले जाकर एक रहस्य की बात बताई कि उस समय वे स्वप्न में परीलोक में थे। परीरानी उन्हें खूब बड़ा-सा स्वादिष्ट लड्डू खिला रही थी, पर वे खा पाते, इससे पहले ही मंत्री जी ने चिकोटी काटकर उन्हें जगा दिया। इसलिए अब श्री बालकुट्टी होली के रंग में रँगकर मंत्री जी के खिलाफ अमानत में खयानत का मुकदमा दर्ज करने की सोच रहे हैं।...ढम-ढम-ढम, ढम-ढम-ढम ढमढमढम...!!"

उसके बाद उचकू उचकना की यह मजेदार खबर थी—

"सुनो सुनो सुनो...! राजा कृष्णदेव राय के दरबार में आज एक नया दरबारी बार-बार अपनी जगह से उचक-उचककर इधर-उधर देखने लगता था। उसका उचकना सबको इतना मजेदार लगा कि कुछ दरबारियों ने सोचा, क्यों न इसका नाम 'उचकू उचकना' रख दिया जाए? बार-बार ऊँट की तरह गर्दन उचकाने वाले इस दरबारी का नाम 'उचकू उचकना' रखने पर विचार किया जा रहा है। पर इसकी आधिकारिक घोषणा अभी कुछ समय बाद की जाएगी। लिहाजा इस समय उन्हें 'उचकू उचकना' कहकर तो न बुलाएँ, हाँ, मन ही मन 'उचकू उचकना' कहकर मजा लें और ही-ही-ही करके हँसें, इसमें कोई बुराई नहीं है।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...ढम-ढम-ढम...!!"

आखिर में राजदरबार में देर से आए एक चौथाई दरबारियों ने राजा की निगाहों से छिपने के लिए जो-जो मजेदार करतब किए, उनका दिलचस्प वर्णन था—

"सुनो, सुनो, सुनो...! आज भी राजदरबार में बहुत से दरबारी देर से आए। उनमें से एक दरबारी ने तो मंत्री जी के पीछे बैठकर, पहले दाएँ फिर बाएँ घूमकर छिपने की इतनी बार कोशिश की कि राजा कृष्णदेव राय ताड़ गए। वे भी उसी तरह गर्दन लचकाते हुए, पहले दाएँ से बाएँ और फिर बाएँ से दाएँ उझककर देखने लगते। हारकर राजकर्मचारी को खड़े होकर माफी माँगनी पड़ी, 'ज..ज..जी महाराज, आज देर हो गई, क्षमा करें!' इस पर राजा कृष्णदेव राय ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया, 'अ..अ...अच्छा दरबारी जी, आज तो आपको क्षमा मिल गई, पर आगे ख्याल रखें!' सुनते ही राजदरबार में जैसे हँसी का पटाखा छूटा। हँसते-हँसते सब इस कदर लोटपोट हुए कि देर से आया वह कर्मचारी भी खिलखिलाकर हँसे बगैर न रहा।...ढम-ढम-ढम...ढम-ढमाढम...!"

इस हास्यपूर्ण वर्णन के साथ मुनादी वाले ने इतने जोर की ढम-ढमाढम, ढम-ढमाढम की कि लोगों ने खुश होकर तालियाँ बजा जदीं। तेनालीराम ने इतने मजेदार ढंग से ये खबरें लिखी थीं कि जो भी सुनता, हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता। सब तेनालीराम की खूब वाहवाही कर रहे थे।

पर ये सूचनाएँ मंत्री, सेनापति और दरबारियों के कानों में भी पड़ीं। जब वे राजदरबार से घऱ लौटते तो प्रजा में बड़ी अजीब-सी की खुस-फुस सुनाई पड़ती। फिर जल्दी ही मुनादी वाली खबर भी उन्हें पता चल गई। उसे सुनकर लोगों में कैसी खुस-फुस हो रही है, यह भी पता चला।

सुनकर वे घबराए। परेशान होकर सबने राजा कृष्णदेव राय के पास जाकर कहा, "महाराज, तेनालीराम जनता को हमारे खिलाफ भड़का रहा है। जाने क्या-क्या बातें लिख दीं उसने, बेसिरपैर की!"

उनकी बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने भी छिपकर प्रजा के बीच की जा रही मुनादी को सुना। सुनकर उनकी भी हँसी छूट गई। बोले, "इन खबरों में सच तो है, मगर शायद यह कुछ ज्यादा हो गया। आधी हकीकत, आधा अफसाना...! और तेनालीराम तो इस कला में उस्ताद है ही। वाकई उसकी कलम में दम है। पर...तुम लोगों की परेशानी मैं समझ गया। तेनालीराम को भी समझा दूँगा।"

उसके बाद राजा ने तेनालीराम को बुलाया। हँसकर कहा, "तेनालीराम, होली पास आई तो लगता है, तुम बहक गए। ऐसी किस्म-किस्म की रंगारंग खबरें तो तुम्हीं लिख सकते थे! अब ऐसा करो, अपनी रोचक खबरों को एक नाटक की शक्ल दो। तुम्हारा यह नाटक होली वाले दिन शाम को राज उद्यान में खेला जाएगा, ताकि राज कर्मचारियों का मनोरंजन हो और उन्हें सीख भी मिले।"

सुनकर तेनालीराम के चेहरे पर मंद-मंद मुसकान खेलने लगी। हँसकर बोला, "महाराज, ये लोग पूरे बरस मुझ पर जाने कैसे-कैसे छींटे डालते रहते हैं। तो इस बार होली पर मुझे भी कुछ रंगों के छींटे तो डालने ही थे। वरना वो तेनालीराम को याद कैसे करेंगे?"

राजा कृष्णदेव राय हँसकर बोले, "पर तुमने रंग के छींटे भी ऐसे डाले कि आनंद आ गया। खैर, अब नाटक की तैयारी करो।"

तेनालीराम बोला, "ठीक है महाराज, मैं एक नया नाटक लिखूँगा जिसका नाम होगा, 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम'। इतने दिन दरबार की खबरें लिखते हुए जो सीखा है, उसी कला का प्रदर्शन होगा इस नाटक में। और हाँ, मंत्री जी और राजपुरोहित से कह दें कि आगे से दरबार में बोलते समय सतर्क रहें, नहीं तो इनका नया किस्सा भी आ जाएगा 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम' में!"

अब तो मंत्री और दरबारियों के चेहरे देखने लायक थे। बेचारे क्या कहते?

पर तेनालीराम का असली रंग तो अभी सामने आना बाकी था। और वह 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम' की शक्ल में ढल चुका था।

जब होली का दिन आया, तो पूरे विजयनगर में तेनालीराम के 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम' की धूम थी। मुनादी वाले राज कर्मचारी सुबह से ही गली-गली में ढोलक की ढम-ढमाढम के साथ मुनादी कर रहे थे—

"सुनो...सुनो...सुनो! आज राज उद्यान में तेनालीराम का लिखा हुआ बड़ा ही मजेदार और चुलबुला नाटक खेला जाएगा, 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम'।....ऐसा मजेदार नाटक कि आप पेट पकड़कर हँसने लगेंगे। विजयनगर की प्रजा और बाहर से आए अतिथियों को होली के उत्सव का असली आनंद लेना है तो तेनालीराम का यह अनोखा हास्य नाटक देखना न भूलें।...ढमढमढम...ढम-ढम-ढम!!"

होली वाले दिन सुबह-सवेरे ही राजा कृष्णदेव राय के साथ तेनालीराम भी राज उद्यान में मौजूद था। बड़ी-बड़ी नाँदों में टेसू का रंग घोल दिया गया था। राजा कृष्णदेव राय के साथ रंग खेलने आए लोग साथ ही साथ तेनालीराम को भी रंगों से नहला रहे थे। विजयनगर की प्रजा के साथ-साथ बाहर से आए अतिथियों के चेहरे पर भी गहरी उत्सुकता थी। हर कोई जान लेना चाहता था, "जरा बताओ तो तेनालीराम, आज के होलिका दरबार हास्य नाट्यम में क्या दिखाया जाएगा?"

तेनालीराम हँसकर कहता, "मैंने पहले ही सब बता दिया तो नाटक में मजा क्या आएगा?...शाम तक इंतजार करो। फिर देखकर बताना, मैंने क्या दिखाया और क्या इशारों-इशारों में कह दिया, चुटकी भर गुलाल के टीके के साथ!"

सुनकर सब हँसने लगते और तेनालीराम की भेद भरी मुसकान और गहरी हो जाती।

कुछ समय बाद राजपुरोहित, मंत्री और सेनापति आए, अपने कुछ चाटुकार दरबारियों के साथ। मंत्री ने राजा को गुलाल लगाने के बाद तेनालीराम को गुलाल लगाते हुए कहा, "अरे तेनालीराम, तुम्हारे नाटक की हर जगह धूम है। पर देखो, कहीं तुम्हारी कलम होली के नशे में ज्यादा बहक तो नहीं गई?"

तेनालीराम हँसकर बोला, "मंत्री जी, होली आई और मन बहका नहीं, तो यह होली भी क्या होली है? वैसे तो अगर मैं बहक भी गया, तो इसके लिए आप ही जिम्मेदार हैं। पिछली होली में आपने मुझे धोखे से भाँग वाली बरफी खिला दी थी। उसका नशा तब तो नहीं चढा, पर लगता है, इस होली पर वह कुछ ज्यादा ही चढ़ गया है। तो कुछ न कुछ तो मेरी कलम बहकेगी ही। पर चिंता न करें मंत्री जी, मैंने सिर्फ चुटकी भर गुलाल ही लगाया है, आपको सिर से पैर तक पूरा रँगा नहीं है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय समेत सभी हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय हँसते-हँसते बोले, "भई, आज तो हर कोई तेनालीराम को ही पूछ रहा है। लगता है, आज का दूल्हा तो तेनालीराम ही है।"

और शाम को जब तेनालीराम का नाटक 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम' खेला गया, तो दर्शक इतने आनंदित हुए कि सभाकक्ष में हँसी की लहर पर लहर उठती, जो कभी-कभी तो तेज ठहाकों में बदल जाती। सभी लोग मानो हँसते-हँसते पागल हो रहे थे। राजपुरोहित का मटके जैसा पेट, मंत्री का 'जी-जी...जी हाँ' वाला नाटक, सेनापति की दाईं हथेली का पीपल के पत्ते की तरह विचित्र ढंग से हिलना, पुराने दरबारी के खर्राटे, नए दरबारी की उचकू उचकना वाली एक्टिंग...और सबसे बढ़कर देर से आने वाले दरबारियों का यहाँ-वहाँ छिपने के बाद 'ज..ज...जी..जी...!' कहकर क्षमा माँगने का अंदाज, सबने ऐसा समा बाँधा कि लगा, तेनालीराम ने होली पर रंगों के फव्वारे छोड़कर खूब ठिठोली की है।

पूरे विजयनगर में तेनालीराम के 'होलिका दरबार हास्य नाट्यम' की धूम मच गई। खासकर होली के आनंद उत्सव का रंग देखने आए अतिथियों के आनंद की तो सीमा न थी। सब उसे याद करते और हँसते। हँसते और याद करते। और होली के हुलियारों का कहना था, "विजयनगर का होली उत्सव सचमुच अनोखा होता है। पर इस बार तेनालीराम के 'होलिका दरबार नाट्यम' ने तो होली की ठिठोली का ऐसा रंग चढ़ाया कि वह कभी उतरेगा ही नहीं!"

19

दूर देश से आया निशानेबाज

राजा कृष्णदेव राय कलाकारों और हुनरमंदों की बहुत इज्जत करते थे। इसलिए दूर-दूर से सैकड़ों कलावंत विजयनगर के राजदरबार में अपनी कला और कौशल का प्रदर्शन करने के लिए आते थे। राजा कृष्णदेव राय दरबारियों के साथ बैठकर उनकी अनोखी कला और हस्तलाघव का आनंद लेते। साथ ही खूब इनाम भी देते थे। जो भी कलाकार और हुनरमंद अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए विजयनगर आता, वह राजा कृष्णदेव राय की उदारता से गद्गद होकर जाता। दूर-दूर तक विजयनगर के महान राजा की कलाप्रियता का गुणगान करता।

एक दिन की बात, राजा के दरबार में एक लंबा-सा आदमी आया। एकदम काला रंग। माथे पर कुंडली मारे सर्प का चिह्न। कानों में बड़े-बड़े कुंडल। उसने विचित्र-सा रंग-बिरंगा चोगा पहना हुआ था। उस पर शेर, भालू, हिरन, हाथी तथा कुछ और जंगली जंगली जानवरों की आकृतियाँ बनी हुई थीं। सिर पर पक्षियों के रंग-बिरंगे पंखों का मुकुट। उसके पास बाँस का बना बहुत बड़ा धनुष और कुछ तीर भी थे। उसकी विचित्र वेशभूषा देखकर राजा कृष्णदेव राय मुसकराने लगे। दरबारी भी बड़े कौतुक से उसे देख रहे थे।

आते ही विचित्र वेशभूषा वाला वह आदमी घुटनों तक झुककर राजा कृष्णदेव राय को प्रणाम करके बोला, "महाराज, मेरा नाम बेगू बाँका है। मैं पड़ोसी देश मेखलपुट्टी से आया हूँ। वहीं के जंगली कबीले का हूँ और बचपन से वहीं जंगलों में तीर चलाने का अभ्यास कर रहा हूँ। तीर-कमान में मेरा कोई सानी नहीं है। मेरा निशाना आज तक कभी चूका नहीं। लोग कहते हैं, मेरा तीर चलता बाद में है, अपने निशाने को भेदता पहले है। सुना है, महाराज, आप कलाओं के कद्रदान हैं। महा प्रतापी राजा हैं। राजाओं के भी राजा! आप कहें तो आपके आगे मैं अपनी अद्भुत कला का प्रदर्शन करूँ? आप जरूर उसे देखकर मुग्ध हो उठेंगे।"

बेगू बाँका की बात सुनकर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो गए। बोले, "तुम विजयनगर की कीर्ति सुनकर किसी आशा से यहाँ आए हो। तुम्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। अभी शाही अतिथिशाला में विश्राम करो। कल शाम को हम तुम्हारी धनुर्विद्या का कमाल देखेंगे। एक से एक बढ़िया निशानेबाज विजयनगर में भी है। हम देखना चाहेंगे, बेगू बाँका उनसे अलग क्या कमाल कर दिखाता है?"

इस पर बेगू बाँका बोला, "नहीं, महाराज! क्षमा करें, मैं शाही अतिथिशाला में नहीं रुकूँगा। राजधानी के बाहर अपने साथियों के साथ मैंने तंबू डाल लिया है। वहाँ काफी खुली जगह है। मैं उसी तंबू में रहकर निरंतर अभ्यास करूँगा, ताकि आपके सामने अपनी तीरंदाजी का कमाल दिखा सकूँ। मेरे साथ कबीले के और लोग भी हैं, जो इस अभ्यास में मदद करेंगे। मैं आज वहाँ जाते ही अपना अभ्यास शुरू कर दूँगा, ताकि मेरा प्रदर्शन आपको और विजयनगर की प्रजा को आनंदित कर सके। आपसे बस एक ही प्रार्थना है महाराज, कि कोई मेरे उस एकांत अभ्यास में बाधा न पहुँचाए।"

"ठीक है, जैसा तुम चाहते हो, वैसा प्रबंध हो जाएगा!" राजा कृष्णदेव राय ने कहा। फिर तेनालीराम की ओर इशारा करते हुए कहा, "तेनालीराम तुम्हारे इस अभ्यास के लिए पूरी व्यवस्था कर देगा। तुम्हें कोई कठिनाई हो, तो उससे कह सकते हो।"

फिर राजा ने तेनालीराम से कहा, "बेगू बाँका शाही अतिथि है। इसके तीरंदाजी के अभ्यास में कोई मुश्किल न हो, इसका जिम्मा तुम्हारा है।"

तेनालीराम मुसकराया। बोला, "ठीक है महाराज। हमारे बाँके धनुर्धर अतिथि के लिए अनुकूल व्यवस्था हो जाएगी।"

फिर राजा कृष्णदेव राय ने बेगू बाँका की तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए भी पूरी तैयारियाँ करने के लिए कहा। यह तय हुआ कि अगले दिन शाम को राजमहल के सामने वाले खेल के विशाल मैदान में, बेगू बाँका अपनी अनोखी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करेगा।

"विजयनगर की प्रजा तीरंदाजी के हुनर की कद्रदान है। खासकर बच्चे और युवा लोग तीरंदाजी का कमाल देखने के शौकीन हैं।" राजा कृष्णदेव राय ने कुछ सोचते हुए कहा, "इसलिए हो सकता है, हजारों की संख्या में प्रजा बेगू बाँका का कौतुक देखने के लिए उपस्थित हो जाए। सबके बैठने का उचित प्रबंध हो, यह भी देखना होगा। साथ ही प्रजा कुछ दूरी पर रहे, ताकि बेगू बाँका के शर-संधान में कोई बाधा न आए।"

"आप चिंता न करें महाराज। बेगू बाँका का तीरंदाजी का प्रदर्शन अगर कमाल का होगा तो इसकी तैयारियाँ भी कमाल की होंगी।" तेनालीराम मुसकराया।

अगले दिन शाम के समय विशाल मैदान में शामियाना लगाकर राजा कृष्णदेव राय और दरबारियों के बैठने का इंतजाम किया गया। सामने एक पेड़ पर सफेद रंग के चाँदी के बने सात सुंदर, चमकीले पत्ते लटकाए गए। वे दूर से चम-चम करते तारों जैसे नजर आते थे। उनमें से हर पत्ते के बीच में अँगूठी से भी छोटा काले रंग का एक-एक गोला था। धुनर्धारी बाँका को उन गोलों पर ही निशाना लगाना था।

राजधानी में चारों ओर बेगू बाँका और उसके तीर-कमान की ही चर्चा थी। लोग कहते, "हमने तीर चलाने वाले तो बहुत देखे। पर लगता है, यह बाँका तो एकदम बाँका ही है!" लिहाजा दूर-दूर से लोग उसका कमाल देखने के लिए टूट पड़े। आसपास के गाँवों से भी स्त्री-पुरुष और बच्चों के झंड के झुंड आ रहे थे।

पूरे विजयनगर में बड़े ही उत्साह, उत्सुकता और आनंद का माहौल था।

ठीक समय पर बेगू बाँका मैदान के उत्तरी किनारे पर बने एक छोटे-से मंच पर आकर खड़ा हो गया। उसने अच्छी तरह हाथों में तीर और धनुष को पकड़कर, निशाना साधते हुए तीर चलाया। निशाना एकदम सही लगा। चाँदी का पत्ता अपनी जगह पर था, पर उसमें बने काले गोले वाला हिस्सा उड़ता हुआ गायब हो गया।

इसी तरह बेगू बाँका ने दूसरा निशाना लगाया। फिर तीसरा, फिर चौथा। यों एक-एक कर छह पत्ते उसने बड़ी होशियारी से छेद दिए। लग रहा था, उसके तीरों में कोई जादू है। बेगू का एक भी तीर निशाने से भटका नहीं था और न तिल भर इधर से उधर हुआ था। प्रजा साँस रोककर देख रही थी कि अब बेगू बाँका का तीर सातवें पत्ते को भी बिल्कुल सही जगह भेद पाता है या नहीं?

बेगू बाँका ने बात की बात में धनुष पर तीर चढ़ाया और निशाना साधने लगा। लोगों को ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे। सभी इंतजार कर रहे थे कि तीर छूटेगा और वह चाँदी के आखिरी पत्ते को भी छेदता हुआ निकल जाएगा। कुछ लोग उत्तेजना में आकर शर्त बद रहे थे कि बेगू इस बार भी कामयाब होगा कि नहीं!

पर यह क्या? बेगू बाँका तो अचानक बिजली की-सी तेजी से पलटा और उसका पैना तीर दिशा बदलकर, राजा कृष्णदेव राय की ओर मुड़ गया।

अरे, यह क्या...? निशाना ठीक राजा की ओर!

सब भौचक्के! 'अरे-अरे, यह क्या अनर्थ हो रहा है? कहीं हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय के प्राणों पर संकट तो नहीं...!'

पर तीर छूटता, इससे पहले ही अचानक उतनी ही तेजी और फुर्ती से, किसी का जोर का झन्नाटेदार हाथ पड़ा। सबके देखते-देखते बेगू बाँका झटके से जमीन पर आ गिरा और फिरकनी की तरह लुढ़कने लगा। उसका तीर-कमान भी दूर जा पड़ा था।

बाँका ने उठकर भागने की कोशिश की। तभी "पकड़ो, पकड़ो...!" की आवाजें आई। चारों ओर से आकर विजयनगर के सैनिकों ने उसे पकड़कर बाँध दिया। उसके साथियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।

पता चला, बाँका शत्रु राज्य नीलपट्टनम का जासूस था। शुरू के छह तीरों में तो उसने अपनी कला के प्रदर्शन का नाटक किया। अब सातवें तीर में वह होशियारी से राजा कृष्णदेव राय पर ही निशाना साधना चाहता था, पर सफल नहीं हो सका।

राजा कृष्णदेव राय भी हक्के-बक्के थे। एकदम अवाक्। जब बेगू का असली रंग और उसकी यह नापाक हरकत देखी तो उन्होंने दौड़कर तेनालीराम को गले से लगा लिया। बोले, "सच तेनालीराम, आज तुम न होते तो...!"

"कैसे न होता, महाराज?" तेनालीराम हँसकर बोला, "जहाँ आप, वहाँ आपका दास! वैसे मैंने कल ही इसकी चाल जान ली थी। अपने साथियों को यह खुस-फुस करके बता रहा था, तभी तंबू के बाहर घूमते हुए मैंने सुन लिया और पूरा इंतजाम कर लिया।...इसने सोचा होगा कि इस एकांत में कौन उसकी बातें सुनेगा। पर इसे पता नहीं कि तंबू के भी कान होते हैं। हमारे गुप्तचर चप्पे-चप्पे पर मौजूद थे। इसीलिए शैतान बाँका का भाँडा फूट गया।"

सेनापति ने मुसकराते हुए कहा, "खुशी की बात है महाराज, कि इस दुष्ट बाँका के झूठे निशाने तो लगे, पर असली निशाना नहीं लग पाया। हमारे तेनालीराम का निशाना इससे कहीं अधिक जोरदार साबित हुआ।"

"हाँ महाराज, हमारा तेनालीराम बूढ़ा भले ही हो, पर लगता है, इसका हाथ बड़ा झन्नाटेदार पड़ा होगा बाँका पर। अभी तक बेचारा लमलेट है!" मंत्री ने कहा।

इस पर सब हँसने लगे। मंत्री और राजपुरोहित भी आज खुलकर तेनालीराम की प्रशंसा कर रहे थे। नील सुंदरम ने तो तेनालीराम को उठाया और वहीं दरबार में सात चक्कर लगाए।

राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए अपनी हीरे की अँगूठी उतारकर तेनालीराम को पहना दी। फिर कहा, "आज मैं समझ गया, तुम्हारे होते हुए क्यों मैं इतना बेफिक्र रहता हूँ।"

20

बूढ़े किसान की गन्ने जैसी मीठी बात

एक बार की बात है, राजा कृष्णदेव राय के राजदरबार में गरीब किसानों की समस्याओं की चर्चा हो रही थी। तेनालीराम ने गाँव के गरीब लोगों के दुख और किसानों की मुश्किलों का ऐसा चित्र खींचा कि राजा एकाएक गंभीर हो गए। कुछ देर तक वे चुप रहे। फिर कहा, "ठीक है, मैं अब हर महीने कम से कम एक बार गाँवों में जाकर अपनी प्रजा से मिलूँगा। खुद उनका हालचाल पता करूँगा। इससे जनता का असली सुख-दुख पता चलेगा।"

सुनकर मंत्री और उसके चाटुकार दरबारियों का रंग उड़ गया। पर वे कुछ कहते, इससे पहले ही तेनालीराम ने कहा, "हाँ महाराज, कई बार राज्य के अधिकारी और कारिंदे सही बात नहीं बताते। जनता की बहुत-सी समस्याएँ अनसुनी रह जाती हैं। आप खुद प्रजा के बीच जाएँ, इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता।"

पर मंत्री और चाटुकार दरबारी इस बात से चिंतित थे कि कहीं उनका झूठा प्रपंच और पोल न खुल जाए। कई बार जनता की भलाई के नाम पर खजाने से पैसे निकाले जाते थे और भला किसी और का होता था। तेनालीराम का चौकन्नापन बार-बार इस झूठ को पकड़ लेता था। पर अब तो राजा खुद प्रजा के बीच जा रहे थे। हाय-हाय, अब क्या होगा?

उधर तेनालीराम खुश था, तो प्रजा में भी राजा कृष्णदेव राय की इस नई घोषणा से उम्मीद जाग गई थी। यों भी तेनालीराम तो हर वक्त जनता की बात कहता ही था। उसकी चतुराई, उसकी बुद्धिमत्ता, उसका बाँकपन और हाजिरजवाबी और सबसे बढ़कर अपनी बात कहने का उसका नाटकीय अंदाज, सभी इसके मुरीद थे। बिगड़ी बात में से बात बनाने वाली तेनालीराम की सूझ-बूझ की एक से एक अनोखी कहानियाँ अब तो घर-घर पहुँच गई थीं।

खासकर विजयनगर की प्रजा तो उस पर जान छिड़कती थी। सबको लगता था, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक तेनालीराम ही है, जो बार-बार उनके दुख-दर्द और समस्याओं की ओर राजा कृष्णदेव राय को ध्यान खींचता है। बाकी दरबारी खाली अपनी उन्नति की बात सोचते थे, पर तेनालीराम राजा किसी न किसी तरह कृष्णदेव राय को राज्य की भलाई के कामों की याद दिलाता रहता था। इसलिए कृष्णदेव राय उसे अपना सच्चा हितैषी मानते थे और विजयनगर की प्रजा तो गर्व से कहती थी, "तेनालीराम राजा कृष्णदेव राय के मुकुट का सबसे कीमती हीरा है।"

यहाँ तक कि दूर देशों से आए शाही मेहमान भी दरबार में आकर बड़ी भेद भरी मुसकराहट के साथ राजा कृष्णदेव राय से कहते थे, "महाराज, आपके दरबार में एक अनोखा दरबारी है तेनालीराम। उसकी सूझबूझ और चतुराई की कहानियाँ हमने बहुत सुनी हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि उस जैसा चतुर आदमी पूरे संसार में कोई दूसरा नहीं है। आप एक बार हमें तेनालीराम से जरूर मिलवा दीजिए।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय का चेहरा खिल जाता। कहते, "हाँ, विजयनगर का वह सबसे कीमती हीरा है, जिसकी चमक निरंतर बढ़ती ही जाती है!"

राजा कृष्णदेव राय खुद भी तेनालीराम को जी-जान से चाहते थे। अगर किसी दिन वह दरबार में न आए तो उनका मन नहीं लगता था।...पर उनके दरबार में बहुत-से दरबारी तेनालीराम से जलते थे। तेनालीराम को बार-बार पुरस्कार मिलता, तो उनकी छाती पर साँप लोट जाता था। वे बार-बार कहा करते थे, "महाराज, हममें क्या कमी है, जो आप हमारी बजाय उसे इतना महत्त्व दे रहे हैं?"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसकर रह जाते। वे जानते थे कि मंत्री और सेनापति ही उन्हें तेनालीराम की निंदा को उकसाते हैं। पर यह बात सीधे-सीधे कैसे कहें? हाँ, मुसकराते हुए वे इतना तो कह ही देते थे कि "तेनालीराम में कुछ खास बात तो जरूर है। वह बात आप अपने में पैदा कर लें, तो आपको भी वैसा ही महत्त्व मिलने लगेगा।"

दरबारी अपने-अपने ढंग से राजा कृष्णदेव राय की बात का मतलब लगाते थे। उनकी निगाहों में उठने की कोशिश भी करते थे। पर कामयाब नहीं हो पाते थे।

एक दिन की बात, तेनालीराम छुट्टी पर था। राजा कृष्णदेव राय मंत्री, सेनापति और कुछ प्रमुख दरबारियों के साथ घूमने निकले। दरबार से निकलने से पहले राजा ने अपना वेश बदल लिया। किसानों जैसी ही मोटी धोती और पुराना-सा कुरता। उनके इशारे पर मंत्री, सेनापति और बाकी दरबारियों ने भी अपना वेश बदलकर, साधारण आदमियों जैसे कपड़े पहन लिए।

मंत्री सोच रहा था, "आज तेनालीराम नहीं है। बस बात बन गई। राजा को लगता है कि तेनालीराम के बिना कोई बिगड़ी बात नहीं सँवार सकता। इसीलिए वह ऊपर उठता जा रहा है। पर क्या दुनिया में सारी अक्ल का ठेका तेनालीराम ने ही ले लिया है? आज हम भी राजा कृष्णदेव राय पर अपनी बुद्धिमत्ता की गहरी छाप छोड़ेंगे। आखिर हम भी तो देखें कि ऐसा क्या है, जो तेनालीराम में ही है और हममें नहीं है?"

उधर राजा कृष्णदेव राय कुछ सोचते-विचारते हुए आगे बढ़ रहे थे। आसपास कोई नई बात या नया दृश्य दिखाई पड़ता तो वे मंत्री और सेनापति से इसकी चर्चा करते। दोनों बड़े जोर-शोर से उनकी हाँ में हाँ मिला देते।

मंत्री उन्हें खुश करने के लिए कहता, "हाँ महाराज, बड़ा आश्चर्य है! आप कितना सोचते हैं अपनी प्रजा के लिए? सच, विजयनगर की प्रजा बड़ी सौभाग्यशाली है कि उसे आप जैसा उदारहृदय राजा मिला।"

सेनापति कहता, "आपने विजयनगर में स्वर्ग को धरती पर उतार दिया। आहा, महाराज, ऐसा तो पहले कभी न हुआ था!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय मंद स्मिति से आगे बढ़ जाते। वे प्रजा की हालत देखकर खुश थे और कभी-कभी धीरे से कह उठते थे, "शायद हमारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ प्रजा तक पहुँच रहा है। इसीलिए विजयनगर की प्रजा खुशहाल है।"

चलते-चलते वे राजधानी से कुछ दूर एक गाँव में पहुँचे। राजा ने देखा, एक जगह कुछ किसान बैठे आपस में बात कर रहे थे। उन्होंने पास जाकर पूछा, "भाई, हम लोग परदेसी हैं। दूर देश से घूमने आए हैं। हम जानना चाहते हैं, विजयनगर की प्रजा सुख से है या नहीं? आप लोगों को कोई परेशानी तो नहीं है? क्या राजा आप लोगों की ठीक से परवाह करते हैं?"

इस पर सबने राजा कृष्णदेव राय की खूब प्रशंसा की। कहा, उन जैसे उदार राजा के होते हुए हमें भला क्या परेशानी? फिर राजा ने एक बूढ़े किसान से यही सवाल पूछा। सुनकर वह चुप रहा, कुछ बोला नहीं। फिर एकाएक अपनी जगह से उठा और चला गया। राजा अचंभे में थे। थोड़ी देर में वह बूढ़ा लौटा, तो उसके हाथ में एक गन्ना था। आते ही उसने उस गन्ने को दोनों हाथों से तोड़कर कहा, "भाई, हमारे राजा तो ऐसे हैं!"

राजा कृष्णदेव राय को माजरा कुछ समझ में नहीं आया। उन्होंने मंत्री की ओर देखा, तो उसने कहा, "महाराज, इस गाँव में सभी किसानों ने आपकी तारीफ की। पर यह बूढ़ा बड़ा असभ्य है। यह आपका सरासर अपमान कर रहा है। इसका कहना है कि हमारे राजा इतने कमजोर है कि कोई भी उन्हें आसानी से पछाड़ सकता है।...यह तो अक्षम्य अपराध है, महाराज।"

राजा को बड़ा अजीब लगा। उन्होंने सेनापति से पूछा, तो उसने भी यही बाद दोहरा दी। बोला, "महाराज, हर गाँव में एकाध सनकी आपको ऐसा जरूर मिलेगा। ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, ताकि हमारी प्रजा अनुशासन में ररहना सीख ले।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय क्रोध में आ गए। कुछ सोचते हुए बोले, "हूँ...!"

वे आगे कुछ कहने वाले थे, तभी पीछे से एक पग्गड़धारी आदमी उठा। बोला, "नाराज न होइए, दयानिधान! मैंने आपको पहचान लिया है। आप हमारे महाराज कृष्णदेव राय हैं, जिनका प्यार विजयनगर की सारी प्रजा को मिलता है। सारी दुनिया में आपके न्याय और कृपालुता का डंका बज रहा है। फिर भला हम आपका अपमान कैसे कर सकते हैं?"

राजा चौंके, "यह किसकी आवाज! भला इस धुर गाँव में कौन इतना बुद्धिमान है, जो बड़ी सुंदर भाषा में अपनी बात कह रहा है?"

अभी वे सोच ही रहे थे, कि तभी वह बूढ़ा ग्रामीण आदमी फिर बोला, "असल में महाराज, अभी-अभी जिस बूढ़े ने गन्ना तोड़कर दिखाया था, वह इस गाँव का सबसे खऱा और समझदार आदमी है। उसका तो सिर्फ यही कहना था कि हमारे महाराज गन्ने की तरह ऊपर से सख्त, लेकिन भीतर से मीठे हैं।...महाराज, उसने अपनी बात अपने ठेठ किसानी अंदाज में कही है। इसका सही अर्थ समझें तो वह आपको गन्ने जैसी मीठी ही लगेगी।"

सुनकर राजा की आँखों में चमक आ गई। उन्होंने हैरानी और प्रशंसा भरी नजरों से उस पग्गड़धारी की ओर देखा। पूछा, "आप तो इस गाँव के नहीं लगते। क्या मैं जान सकता हूँ कि आप कौन हैं...?"

"महाराज, आपने भले ही मुझे न पहचाना हो, पर मैं तो आपको देखते ही पहचान गया था। अब शायद आप भी अपने इस सेवक को पहचान लें।" कहते-कहते उस बूढ़े ने अपना भारी पग्गड़ और नकली दाढ़ी उतारी। सामने तेनालीराम खड़ा था।

देखकर राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। उन्होंने तेनालीराम को गले से लगाकर कहा, "इसी लिए तो तुम मुझे इतने प्रिय हो, तेनालीराम। आड़े वक्त में तुमसे सही सलाह मिल जाती है, वरना तो...!"

तभी राजा कृष्णदेव राय का ध्यान इस बात पर गया कि भला तेनालीराम आज इस गाँव में कैसे? उन्होंने पूछा तो तेनालीराम बोला, "महाराज, वह बूढ़ा किसान मेरा पुराना परिचित है। बड़ा ही बुद्धिमान और बिना लाग-लपेट के खरी-खरी कहने वाला है। उससे मिलने कभी-कभी आ जाता हूँ। उससे गाँव वालों के साथ-साथ आसपास के गाँवों के समाचार भी जब-तब मिलते रहते हैं। और हमारे मंत्री जी, राज्य अधिकारी और कारिंदे जो कुछ करते हैं या नहीं करते, उसकी असलियत भी पता चल जाती है। इसलिए यहाँ आकर बड़ा अच्छा लगता है। मैं सरकारी आदमी का चश्मा उतारकर जनता का आदमी बन जाता हूँ।"

"तब तो मुझे भी आज जनता का आदमी बनकर सब कुछ देखना और समझ लेना चाहिए।" राजा हँसकर बोले।

उनके आग्रह पर सारे गाँव वालों को बुलाया गया। उन्हें बिना डरे सारी असलियत बताने के लिए कहा गया तो बड़ी-बड़ी सरकारी योजनाओं की पोलें खुलती चली गईं। पता चला, यह इलाका नीचाई पर है, इसलिए हर साल रेवती नदी की बाढ़ से फसलें बरबाद हो जाती हैं। नदी की गाद निकालने के लिए हर साल हजारों रुपए सरकारी खजाने से निकाले जाते हैं, पर गाद निकालने का काम सिर्फ कागजों पर होता है। पीने के पानी के लिए खोदे जाने वाले ज्यादातर कुएँ भी सिर्फ कागजी हैं। गरीबों को राहत के लिए जाड़े में बँटे जाने वाले कंबल भी, गरीब आदमी नहीं, अमीरों की हवेलियों में पहुँच जाते हैं। और भी बहुत कुछ है, जिसे कहना-सुनना मुश्किल है। जहाँ हाथ लगाओ, वहीं पोल...!

राजा ने मंत्री की ओर देखा, तो उसके चेहरे का रंग उड़ गया। बोला, "महाराज, वैसे तो हर तरह से देख-भालकर ही प्रजा की भलाई के सारे काम होते हैं। सरकारी सुविधा हर जगह पहुँचाने की कोशिश होती है। पर शायद कुछ गाँव छूट गए होंगे, मैं स्वयं इसकी जाँच करूँगा...!"

"जाँच जल्दी होनी चाहिए, मंत्री जी!" राजा कृष्णदेव राय कुछ रोष में आकर बोले, "एक सप्ताह में आप असलियत हमें बताएँ। हम आपकी जाँच के लिए मजबूर हों, इससे पहले ही हर तरह के भ्रष्टाचार और हेराफेरी की सही-सही जाँच करके अपराधियों को पकड़िए। ऐसे लोगों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। राज्य और जनता के धन की बर्बादी हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।"

"जी...जी...जी...!" कहते हुए मंत्री डर और घबराहट के मारे हकला रहा था।

राजपुरोहित, सेनापति और चाटुकार दरबारियों के चेहरे लटक गए थे। उन्हें अपनी भूल पता चल गई थी। वे समझ गए कि अनोखी सूझ-बूझ वाले चतुर और बुद्धिमान तेनालीराम को हराना उनके बस की बात नहीं है।

राजा ने देखा, तेनालीराम एक ओर खड़ा मंद-मंद मुसकरा रहा था। दरबार में उसका रुतबा और बढ़ गया था।

21

मेरे पास है अमर होने का नुस्खा!

राजा कृष्णदेव राय साधु-महात्माओं की बड़ी इज्जत करते थे। इसलिए अकसर पहुँचे हुए साधु और महात्मा भी उनके दरबार में आकर, उन्हें आशीर्वाद देते थे और प्रजा के कल्याण के लिए मंगल कामना करते थे। इससे राजा ही नहीं, प्रजा भी प्रभावित होती थी। कभी-कभी राजा धार्मिक रीतियों से यज्ञ भी करते थे, जिसमें प्रजा भी उत्साहपूर्वक शामिल होती थी। इससे दूर-दूर तक विजयनगर की कीर्ति एक सांस्कृतिक नगरी के रूप में थी।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक तांत्रिक आया। वह देखने में बड़ा भव्य और आकर्षक लगता था। खूब ऊँचा कद, चौड़े माथे पर त्रिपुंड। लहराती हुई दाढ़ी। काले रंग का लंबा चोला, जिस पर रुंड-मंडों की कुछ विचित्र आकृतियाँ बनी थीं। गले में रुद्राक्ष की बड़ी-बड़ी मालाएँ। आँखों से जैसे ज्वाला निकल रही हों।

आते ही उस तांत्रिक ने हाथ उठाकर राजा कृष्णदेव राय को आशीर्वाद दिया। फिर कुछ ऊँची, लरजती आवाज में बोला, "महाराज, मेरा नाम वज्रगिरि परमसिद्ध योगी योगीश्वर है। मैं हिमालय पर पिछले साठ बरसों से सिद्धि योग कर रहा था। इस काल में मैंने दिव्य अनुभूतियाँ कीं। सब तरह की दुर्लभ सिद्धियाँ हासिल कीं, जिनके लिए बड़े-बड़े तपस्वी और राजा-महाराजा तक तरसते हैं। आपका बहुत नाम सुना। तीनों लोकों में आपकी कीर्ति-पताका लहरा रही है। विजयनगर की प्रजा आपको जी-जान से चाहती है और हर क्षण आपके चिर स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करती है। यही देखकर मैं आपके दरबार में आया हूँ।"

राजा कृष्णदेव राय मुग्ध होकर, बड़े ध्यान से तांत्रिक की बात सुन रहे थे। तांत्रिक के चेहरे पर बड़ा अजब भाव था। आवाज में कड़क। कुछ रुककर वह बोला, "आपके लिए मैं ऐसा अनोखा रसायन लाया हूँ महाराज, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। इसे पीते ही आपकी उम्र दोगुनी हो जाएगी। कोई बड़े से बड़ा शक्तिशाली भी आपका अनिष्ट न कर सकेगा। साथ ही आपके राज्य का विस्तार दूर-दूर तक हो जाएगा।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर संतोष का भाव झलका। उन्होंने उत्सुक होकर कहा, "तो क्या वज्रगिरि जी, ऐसा रसायन सचमुच प्राप्त कर लिया गया है? मुझसे बहुत पहले हिमालय से आए योगी धौलाचार्य ने कहा था कि वे ऐसी सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। और उसे प्राप्त करते ही वे सीधे विजयनगर आएँगे, ताकि विजयनगर की प्रजा का कुछ कल्याण हो सके?"

"ठीक कहा महाराज, आपने बिल्कुल ठीक कहा!" वज्रगिरि ने बड़े आनंद भाव से हँसते हुए कहा, "असल में महा तपस्वी धौलाचार्य जी ने ही तो मुझे आपके पास भेजा है। वे मेरे गुरु हैं। महायोगी हैं और लंबे समय से वे इसी साधना में लगे हुए हैं। उन्होंने ही मुझे यह सिद्धि प्राप्त करने का सच्चा मार्ग बताया। बाद में जराजीर्ण होने के कारण उन्हें यह कठिन साधना बीच में रोक देनी पड़ी। पर उनके आशीर्वाद से मैंने यह अति दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर ली। जब मैं श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके उन्हें बताने गया तो उन्होंने मुझसे कहा कि सुनो वज्रगिरि, अब तुम जरा भी विलंब किए बिना सीधे विजयनगर जाओ। वहाँ राजा कृष्णदेव राय अपनी प्रजा के लिए रात-दिन चिंता करते रहते हैं। जाकर उन्हीं को अमरता का यह रसायन देना, ताकि विजयनगर और उसकी प्रजा को आनंद मिले…!"

"अच्छा...! यह तो मेरे लिए गौरव की बात है। आपकी बात सुनकर मैं धन्य हो गया, योगीश्वर!" राजा कृष्णदेव राय ने कृतज्ञ भाव से कहा।

उनकी आँखों में आनंद भरी चमक थी। सुख की मृदु छाया पूरे चेहरे पर नजर आने लगी थी। गद्गद होकर बोले, "यह तो बहुत अच्छा है कि जो काम मैं कर रहा हूँ, उसके महत्त्व को दूर-दूर तक लोग जान रहे हैं। मुझे अपने लिए कोई लालसा नहीं। पर अगर मेरी प्रजा का सुख-आनंद इसमें है और बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि भी अपने आशीर्वाद के साथ मुझे अमरता का रसायन पीने की आज्ञा दे रहे हैं, तो मैं इसे अवश्य पीना चाहूँगा।"

फिर जैसे वर्तमान में आकर बोले, "हाँ, तो वज्रगिरि जी, कहाँ है वह रसायन? आप लाए नहीं!"

इस पर वज्रगिरि ने हँसकर कहा, "महाराज, वह रसायन तो मैं ले आया हूँ। वह है ही ऐसी दुर्लभ वस्तु कि आप पीने के बाद उम्र भर मुझे याद रखेंगे। पर वह दिव्य रसायन ऐसे नहीं दिया जा सकता। आपके महल में ही तीन दिनों तक निरंतर चलने वाली, शक्ति की देवी काली की विशेष पूजा-अर्चना करूँगा। इस पूजा के बाद ही वह रसायन पीने से आपका भला होगा।"

राजा कृष्णदेव राय ने खुशी-खुशी इसकी इजाजत दे दी। बोले, "वज्रगिरि जी, जैसा आपको उचित लगे, आप करें। आपको किसी चीज की जरूरत हो तो बताएँ। मेरे सेवक हर क्षण आपकी सेवा में तत्पर रहेंगे। फिर भी कोई कठिनाई हो तो आप सीधे मेरे पास संदेश भिजवा दें। आपको पूजा के लिए जो भी सामग्री चाहिए, उसका तत्काल प्रबंध हो जाएगा।"

फिर उन्होंने मंत्री से कहा, "मंत्री जी, वज्रगिरि महान योगी हैं। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं। इन्हें अपनी साधना में कोई कष्ट न हो, इसका जिम्मा आपका है। जैसा ये कहें, वैसी ही व्यवस्था कर दी जाए।"

"ठीक है, महाराज! ऐसे दिव्य योगियों का आना तो विजयनगर के लिए वरदान है। योगी जी यहाँ से संतुष्ट होकर जाएँ, मैं इसका पूरा ख्याल रखूँगा।" मंत्री ने कहा।

अगले दिन से वज्रगिरि ने राजा कृष्णदेव राय के महल के ही एक कक्ष में शक्ति की विशेष पूजा शुरू कर दी। वहाँ निरंतर सुगंधित धूप जलता रहता। स्वाहा के साथ-साथ ह्रीं-क्लीं-फट् और जोर-जोर से मंत्रोच्चारण की ध्वनियाँ सुनाई देतीं। बीच-बीच में अस्फुट स्वर में सुनाई देता, "मर अमर... मर मर अमर....मर हे हे रे भुर् भंगुर अमर, फट्-फट् हे हे रे अति व्यति मति मदंति, हे रे रे अमरामर...अजर-अमर...ह्रीं-क्लीं-फट्...!"

मंत्री ने साथ वाले कक्ष से सुना तो राजा कृष्णदेव राय के पास जाकर कहा, "योगी योगीश्वर तो बहुत पहुँचे हुए तांत्रिक हैं, महाराज! बड़ी ही कठिन और दुष्कर साधना में लीन हैं। मैंने साथ वाले कक्ष में बैठकर सुना। उसका रात-दिन निरंतर पाठ जारी है। अहा, सुनते हुए मन किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता है!"

"हमारा सौभाग्य...!" राजा कृष्णदेव राय ने मृदु हास्य के साथ कहा और अर्धोन्मीलित नेत्रों से विजयनगर के उज्ज्वल भविष्य के सपने देखने लगे।

तीन दिनों के बाद वज्रगिरि उस साधना कक्ष से बाहर निकलकर आया। सारे शरीर पर धूनी रमाए हुए। आँखों में प्रचंड ज्वाला। उसने गुरु गंभीर स्वर में राजा कृष्णदेव राय से कहा, "महाराज, अब सभी को बाहर जाने के लिए कहें। एकांत में ही आपको इस रसायन का सेवन करना होगा।"

सबके जाने के बाद वज्रगिरि ने ताम्रपात्र हाथ में लिया और तेज स्वर में मंत्रोच्चारण करना शुरू कर दिया।

राजा कृष्णदेव राय विनत भाव से काली की मूर्ति के सामने रखे हुए एक श्वेत आसन पर बैठ गए और माँ काली को हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

"महाराज, माँ काली ने इस अनोखे रसायन के रूप में आपको आशीर्वाद दे दिया है। अब आपकी सारी चिंताएँ खत्म हो जाएँगी।" कहकर तांत्रिक वज्रगिरि विचित्र ढंग से हँसा।

फिर उसने ताम्रपात्र को सात बार काली की मूर्ति के सामने गोल-गोल घुमाया और जोर-जोर से मंत्र पढ़ने लगा, "ह्रीं क्लीं फट्...! ह्रीं क्लीं फट्...! ह्रीं क्लीं फट्...!" उसका स्वर निरंतर तेज और उग्र होता जा रहा था। एकाएक वह रुका और पात्र राजा के आगे रखकर कहा, "लीजिए महाराज, अब जल्दी से यह अमरता का रसायन पी जाइए...! बड़ा ही शुभ मुहूर्त है।"

पर राजा कृष्णदेव राय उसे उठाते, इससे पहले ही बड़ी गंभीर आवाज आई, "रुकिए महाराज, रुक जाइए...!"

और इसके साथ ही काली की विशाल मूर्ति के पीछे से, खूब लंबी सफेद दाढ़ी वाला एक बूढ़ा साधु निकला। श्वेत वस्त्र। घुटनों तक लटके लंबे केश। माथे पर बड़ा-सा चंदन का तिलक और होंठों पर रहस्यपूर्ण मुसकराहट।

हवा में दोनों हाथ लहराता वह तेजस्वी साधु राजा कृष्णदेव राय के पास आकर आशीर्वाद देता हुआ बोला, "आयुष्मान हो राजन! आपका कल्याण हो, विजयनगर की प्रजा का कल्याण हो। मैं हूँ माँ काली का विशिष्ट दूत। मुझे माँ काली ने ही आपके पास भेजा है। वे आपसे बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिए उन्होंने मुझे तत्काल आपके पास जाकर यह विशेष संदेश देने के लिए कहा है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय अवाक्। काँपते स्वर में बोले, "क्या सचमुच माँ काली ने मेरे पास विशेष संदेश भिजवाया है?"

"हाँ, महाराज!" श्वेत आभा वाले उस रहस्यपूर्ण साधु ने एक गहरी मुसकान के साथ कहा, "मैं अपनी साधना में लीन था। पर तभी अचानक माँ काली प्रकट हुईं।...अभी-अभी उन्होंने मुझे दर्शन देकर बताया है कि इस रसायन का प्रभाव तभी होगा, जब आपसे पहले वज्रगिरि इसका सेवन करेगा। वज्रगिरि से कहें कि वह सामने पड़े ताम्र-पात्र से अंजुलि भर रसायन लेकर, पहले खुद पिए, नहीं तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा महाराज!"

सुनते ही तांत्रिक वज्रगिरि की हालत खराब हो गई। चेहरे का रंग उड़ गया। टाँगें थर-थर काँपने लगीं। उसने भागने की कोशिश की, पर पकड़ा गया।

विजयनगर के चौकन्ने सैनिकों ने उसे पकड़कर रस्सियों से बाँध दिया। तलाशी ली गई तो उसके पास एक विषबुझी कटार मिल गई। साथ ही विजयनगर के महल, किले तथा सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील कई अन्य स्थलों के नक्शे मिले। राजा कृष्णदेव राय के अलावा मंत्री, सेनापति, तेनालीराम तथा कुछ और लोगों के नामों की सूची भी उसके पास थी, जिन्हें वह मारना चाहता था।

देखकर राजा कृष्णदेव राय हक्के-बक्के थे। हकबकाकर बोले, "अरे, ऐसा...?"

पर वे कुछ समझ पाएँ, इससे पहले ही श्वेत दाढ़ी वाले बूढ़े साधु ने अपने लंबे केश और दाढ़ी उतार दी। सामने तेनालीराम खड़ा था। उसे देखते ही राजा के चेहरे पर मुसकान आ गई।

तेनालीराम बोला, "महाराज, पड़ोसी देश नीलपट्टनम के इस चालाक तांत्रिक ने आपका राज्य हड़पने के लिए सारी चाल चली थी। रसायन में बहुत तेज विष मिला था। उसे पता था, आप साधु-संतों, योगियों और सिद्ध पुरुषों का बड़ा सम्मान करते हैं। इसी का उसने फायदा उठाया और राजमहल में घुस आया। वह आपके साथ-साथ बहुतों को एक साथ खत्म करना चाहता था।...बेचारे वज्रगिरि ने चाल तो खूब चली, पर अंत में आकर उसका दाँव उलट गया।"

राजा कृष्णदेव राय ने आगे बढ़कर तेनालीराम को गले से लगा लिया। बड़े स्नेह के साथ बोले, "इसीलिए तो तुम मुझे इतने प्रिय हो, तेनालीराम!"

उन्होंने तेनालीराम को एक हजार अशर्फियाँ भेंट कीं। साथ ही अपने गले का बेशकीमती हार उतारकर उसे तेनालीराम को पहना दिया।

अगले दिन विजयनगर में जिस-जिस ने भी इस घटना को सुना, सबने तेनालीराम के खूब गुण गाए। आखिर उसी ने तो अपनी तेज बुद्धि और तत्परता से विजयनगर के प्यारे सम्राट की रक्षा की थी।

राजा कृष्णदेव राय के सकुशल बच जाने पर पूरे विजयनगर में यज्ञ और हवन हुए। लोककवि डुंगा मारा ने तेनालीराम की प्रशस्ति में अनोखा गीत 'तेनालीरामन प्रशस्तिपद' लिखा। उसका भाव यह था, "जिस तेनालीराम ने हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय को बचा लिया, उसे सलाम! बार-बार सलाम!! आखिर उस पर देवी माँ दुर्गा की कृपा जो है। इसलिए कोई उसका अनिष्ट नहीं कर सकता और न हमारे प्यारे राजा कृष्णदेव राय का!"

22

इत्रफरोशों की पहचान तो तुम्हीं को है!

राजा कृष्णदेव राय वीर योद्धा थे, प्रजावत्सल थे, राजनय और कूटनीति के मर्मज्ञ भी। पर इसके साथ ही वह सौंदर्य-प्रेमी भी थे। उन्हें अच्छे और रुचिकर परिधान पहनने का शौक था। देश-देश के सुंदर वस्त्रों और कलात्मक आभूषणों की उन्हें बहुत अच्छी परख थी, तो साथ ही साथ वे इत्र-फुलेल के भी शौकीन थे। वे दूर से ही सूँघकर बता देते थे कि यह इत्र कहाँ का बना हुआ है और कितना कीमती है। अजमेर के इत्र के तो वे बहुत प्रशंसक थे। अगर राज्य का कोई सभासद या व्यापारी उस दिशा में घूमने जाता, तो वे उससे अजमेर का इत्र जरूर मँगवाते थे। इसी तरह कन्नौज के इत्र की वे बहुत प्रशंसा करते थे।

एक बार राजदरबार में इत्र की चर्चा हो रही थी। राजा कृष्णदेव राय ने इतनी बारीकी से अच्छे इत्र के गुणों की चर्चा की कि सभी चकित रह गए। मंत्री ने पूछा, "महाराज, इत्र बेचने वाले तो विजयनगर में कभी-कभार ही आते हैं। फिर आपको अच्छे इत्र की इतनी गहरी पहचान कैसे हो गई?"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। हँसते-हँसते उन्होंने बचपन का एक प्रसंग सुना दिया। बोले, "बचपन में एक बार कन्नौज का इत्र बेचने वाला आया था। उससे इत्र की कुछ शीशियाँ मैंने खरीदी थीं। वह इत्र लगाने से मुझे लगता, तन तो तन, मन भी महका-महका सा हवा में उड़ रहा है। जब तक वह इत्र था, मैं लगाता रहा। बाद में भी बहुत दिनों तक उन शीशियों को सँभालकर रखा। उन्हें सूँघते ही लगता, जैसे मैं कल्पना की किसी और दुनिया में पहुँच गया हूँ।"

सुनकर दरबारियों को भी आनंद आ रहा था। जैसे वे भी किसी और दुनिया में पहुँच गए हों।

फिर कुछ रुककर राजा कृष्णदेव राया ने बताया, "तब से कन्नौज के इत्र का मैं मुरीद बन गया। पर दुर्भाग्य से बाद में जो वहाँ का इत्र बेचने आए, उनके इत्र में वह बात नहीं थी। मैंने उनसे इत्र लिया। थोड़े दिन लगाया, फिर रख दिया। मन बचपन की उन्हीं खाली शीशियों को खोजता रहा। अहा, उस इत्र में क्या बात थी!"

मंत्री ने फौरन दिमाग दौड़ाया। कहा, "महाराज, कन्नौज कौन सा दूर है? आप कहें तो वहाँ से इत्र की सौ शीशियाँ मँगवा ली जाएँ।...या फिर आप कहें, तो वहाँ के इत्रफरोशों को बुलवा लिया जाए। वे यहीं आकर अपना इत्र तैयार करके हमें दे सकते हैं। बस, आप एक बार हाँ कह दीजिए।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। बोले, "हाँ तो कह दूँ, पर डरता हूँ! वह इत्र अगर बचपन के उस इत्र के मुकाबले का न हुआ तो मेरा मन और दुखी हो जाएगा। इसलिए अच्छा है कि बचपन की उस मीठी स्मृति को जस का तस सहेजकर रखे रहूँ। आखिर इसका भी अपना आनंद है।"

इस पर एक पुराना दरबारी नील माधव बोला, "महाराज, इत्र लगाने वाले तो बहुत देखे। पर इत्र का जैसा पारखी मैंने आपको पाया, वैसा तो शायद ही कोई हो। पता नहीं क्यों, आपके इस गुण की अभी तक किसी ने विस्तार से चर्चा नहीं की।"

मंत्री और दरबारियों ने भी हाँ में हाँ मिलाई। कहा, "महाराज, लगता है, आपका बस एक ही रूप हमने देखा है। आपके बहुत-से रूप और कलाएँ तो हमारे आगे कभी आईं ही नहीं!"

मंत्री बोला, "महाराज, आप कला-प्रेमी हैं, यह तो विजयनगर में हर कोई जानता है। दूर-दूर तक इसकी खयाति भी है। पर आप ऐसे सौदर्य-प्रेमी हैं, इसकी तो कल्पना भी न थी।"

राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। फिर ठिठोली करते हुए बोले, "बहुत दिनों से कन्नौज का कोई अच्छा इत्र वाला आया नहीं। कभी आएगा तो मैं आपको भी उसके इत्र का ऐसा ही पारखी बना दूँगा कि आप आप फिर से जवान हो जाएँगे।!"

सुनकर सभी दरबारी खिलखिलाकर हँसने लगे। इसी आनंद-प्रमोद के बीच दरबार की कार्यवाही पूरी हुई।

इसके कुछ दिन बाद की बात है। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रंग-बिरंगी पगड़ी पहने, काली दाढ़ी वाले दो लोग आए। लंबा कद, भरा-पूरा सेहतमंद शरीर। दोनों ने पीले रंग का चोगा पहना हुआ था, जिस पर जगह-जगह छोटी-छोटी रंग-बिरंगी इत्र की शीशियाँ खुसी हुई थीं। उनके आसपास खुशबुओं का ऐसा घेरा था कि दूर से लगता था, इत्रफरोश ही होंगे।

उन्होंने आते ही राजा कृष्णदेव राय को झुककर प्रणाम किया। फिर उनमें से बड़ी आयु वाला शख्स बोला, "महाराज, हम लोग इत्रफरोश हैं। मेरा नाम लक्खीलाल है, साथ में मेरा छोटा भाई चुन्नीलाल है। हम अजमेर से आए हैं। वहाँ का इत्र सारी दुनिया में मशहूर है। आपके लिए भी कुछ नायाब बानगियाँ लाए हैं। आप लगाकर देखिए, खुश हो जाएँगे!"

अजमेर के इत्र की बात सुनते ही राजा उत्सुक हो उठे। उन्होंने तुरंत इत्र दिखाने को कहा। थोड़ा-सा सूँघा, तो उनका मन वाकई खुश हो गया। बोले, "सचमुच बड़ी नायाब चीज लाए हो तुम लोग। बचपन में एक बार कोई अजमेर का इत्र दे गया था। उसकी याद अब भी मुझे है। मुझे वह इतना अच्छा लगा था कि बड़े दिनों तक मैंने इत्र की खाली शीशियाँ सँभालकर रखी थीं। कुछ दिन पहले मैंने दरबारियों से उसकी चर्चा भी की थी। आज तुम्हारे इत्र ने फिर से बचपन के उस लाजवाब इत्र की याद दिला दी।"

इस पर छोटा इत्रफरोश चुन्नीलाल बोला, "महाराज, आप इत्र लगाकर देखें। बचपन में आपने जो इत्र लगाया था, उसे भूल जाएँगे। फिर यह तो बस एक नमूना ही है। हमारे पास इतने किस्म का इत्र है कि आप अचंभित हो जाएँगे। थोड़ी फुर्सत में आप आजमाकर देखें, तो हमें भी अच्छा लगेगा।"

मंत्री और दरबारियों ने भी इत्र की जमकर तारीफ की। राजा ने इत्र की कई शीशियाँ लीं। कहा, "अब तो मैं बस यही इत्र लगाया करूँगा। देश-विदेश से राजा-महाराजा दुर्लभ उपहार लेकर आते हैं। उन्हें भी उपहार में क्यों न इत्र की ये शीशियाँ दी जाएँ? वे कभी भूल न पाएँगे।"

"हाँ महाराज, इससे दुर्लभ उपहार भला और क्या होगा?" दरबारियों ने भी तरंग में आकर कहा।

इत्र बेचने वाले अपने इत्र की तारीफ और बिक्री से बड़े खुश थे। बड़ा भाई लक्खीलाल बोला, "महाराज, आपकी पसंद नायाब है। हमने आपके गुणों की बहुत चर्चा सुनी थी। इसीलिए बड़ी उम्मीद से यहाँ आए थे। अब आपके गुण गाते हुए जाएँगे और हर जगह आपके गुणों का बखान करेंगे।"

सुनकर राजा आनंदित हो उठे। वे कुछ कहते, इससे पहले ही छोटे भाई चुन्नीलाल ने कहा, "महाराज, हो सकता है, आपको बाद में फिर से ऐसे इत्र की दरकार हो। पर हमारा दावा है, ऐसा इत्र दुनिया में कहीं और नहीं होगा। हाँ, आप चाहें तो विजयनगर में भी इसे तैयार करवा सकते हैं। फिर तो विजयनगर की प्रजा भी इस इत्र की अनोखी खुशबू का आनंद ले सकती है।"

"हाँ, यह तो अच्छा सुझाव है।" राजा कृष्णदेव राय कुछ सोचते हुए बोले।

मंत्री और दरबारियों ने भी कहा, "महाराज, ऐसा बढ़िया इत्र विजयनगर में ही आसानी से उपलब्ध हो जाए, इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता।"

इस पर राजा ने खुशी-खुशी अतिथिशाला में दोनों इत्रफरोशों के ठहरने की व्यवस्था कर दी। उनके लिए जरूरत की सभी चीजें भी मँगवा दीं।

एक-एक कर दस दिन बीते। राजा ने उत्सुकता से इत्रफरोशों को बुलवाकर पूछा, "इत्र कब तक तैयार हो जाएगा?...आपको कोई मुश्किल तो नहीं आ रही? किसी चीज की जरूरत हो तो बताएँ।"

इत्रफरोशों ने विनम्रता से जवाब दिया, "महाराज, बस थोड़ा समय और इंतजार करें। कल तक ऐसा नायाब इत्र तैयार हो जाएगा कि आप उम्र भर याद करेंगे।...पर महाराज, आपसे विनती है, जब इत्र तैयार हो जाए, तो पहले खुद आप आकर देखें कि इत्र कैसा है! आप इत्र के गुणों के सच्चे पारखी हैं। आपका मन प्रसन्न होगा तो राजदरबार में भी उसकी खूब रौनक रहेगी।"

सुनकर राजा मुसकराने लगे।

अगले दिन दोनों इत्रफरोशों ने राजदरबार में आकर कहा, "महाराज, वह अनोखा इत्र तैयार है। आप आएँ, आकर खुद देख लें कि इत्र कैसा है! फिर हम राजदरबार में भी उसका प्रदर्शन करेंगे, ताकि सभी उसका आनंद उठाएँ।"

"ठीक है!" कहकर राजा मुसकराते हुए साथ चल दिए।

अतिथिशाला में जाकर इत्र-फुलेल बेचने वालों ने एक बड़ी-सी लाल रंग की पेटी खोली। उसमें एक और सुंदर पेटी थी। उसे खोलने पर अंदर से फिर एक चाँदी की पेटी निकली। उसमें एक नीले काँच की गोल डिब्बी थी। उस डिब्बी के अंदर छोटी-सी काँच की एक शीशी थी। उसे निकालकर राजा को देते हुए बड़ा इत्रफरोश लक्खीलाल बोला, "महाराज, इसी में है वह बेशकीमती इत्र। जरा आप सूँघिए तो! आपको आनंद आ जाएगा।"

राजा कृष्णदेव राय आगे बढ़ें, इससे पहले ही बड़े जोर की कड़क आवाज सुनाई दी, "ठहरिए, महाराज! अभी रुकिए। मेरे पास इससे भी अच्छा इत्र है। एकदम नायाब और पुरअसर। पहले जरा वह इन्हें सूँघने दीजिए।"

और उसके साथ ही विजयनगर के सैनिक धप-धप करके कूद पड़े। उन्होंने झट दोनों इत्रफरोशों को पकड़कर बेड़ियों में जकड़ दिया।

राजा कृष्णदेव राय अचंभे में थे। तभी तेनालीराम सामने आया। बोला, "महाराज, इत्र वाकई नायाब है। जरा आप खुद इनके अनोखे इत्र का कमाल देखें।"

जैसे ही उन इत्रफरोशों को उस छोटी शीशी का इत्र सुँघाया गया, दोनों बेहोश होकर गिर पड़े।

देखकर राजा कृष्णदेव राय हक्के-बक्के रह गए।

उनके पूछने पर तेनालीराम हँसकर बोला, "महाराज, मुझे कल ही शक हो गया था, जब इन दोनों ने आपको अलग से बुलाकर इत्र को आजमाने के लिए कहा था। तब इन्होंने एक-दूसरे की ओर देखकर आँखों में इशारा किया था। वह मैंने देख लिया। इसी लिए आपके पीछे-पीछे मैं भी आ गया, ताकि आप किसी संकट में न पड़ जाएँ।"

राजा ने तेनालीराम को गले से लगा लिया। फिर हँसकर बोले, "तेनालीराम हमें खुद पर बड़ा गर्व था कि हमें इत्र की अच्छी पहचान है। भले ही इत्र की पहचान हमें ज्यादा हो, पर इत्रफरोशों की पहचान तो तुम्हीं को है। इसीलिए तो यह हादसा टल गया।"

सुनकर तेनालीराम भी हँस पड़ा।

अब तो पूरे विजयनगर में तेनालीराम की खूब वाहवाही हो रही थी। राजदरबार में भी मंत्री, राजपुरोहित और सेनापति ने तेनालीराम की तारीफ करते हुए कहा, "हमें तेनालीराम पर गर्व है। इस जैसा चतुर और चौकन्ना शख्स विजयनगर में शायद ही कोई और हो!"

23

यह हँसता गुलाब यहीं खिलेगा, महाराज

एक बार राजा कृष्णदेव राय दरबार में आए, तो कुछ गंभीर दिखाई दिए। हमेशा की तरह दरबारियों ने हँसकर अभिवादन किया, पर राजा पहले की तरह न हँसे, न मुसकराए। किसी को लगा, राजा कृष्णदेव राय कुछ चिंतित हैं। किसी को लगा, राजा मन ही मन किसी गहन विचार-विमर्श में लीन हैं। किसी-किसी को यह भी लगा कि वे किसी अधिकारी या दरबारी से नाखुश हैं और जल्दी ही उसकी शामत आने वाली है।

पर असल में बात क्या है, किसी को पता न चली। और राजा कृष्णदेव राय इतने गंभीर थे, तो भला उनसे पूछने का साहस कौन करे?

राजा की देखादेखी सब दरबारी भी शांत और गंभीर हो गए। वैसे तो राजा कृष्णदेव राय के दरबार में हमेशा हास्य-विनोद की फुलझड़ियाँ छूटती रहती थीं, हास-परिहास और विनोद भाव के बीच दरबार का बहुत-सा गंभीर काम भी कैसे निबट गया, किसी को पता न चलता था। पर आज अलग हालत थी। सब ओर चुप्पी। सन्नाटा। समय जैसे आगे खिसक ही न रहा हो।

सब दरबारी जैसे-तैसे राजदरबार की कार्यवाही में अपना मन लगा रहे थे। पर अंदर-अंदर तो हालत यह थी कि राजा कृष्णदेव राय जितने गंभीर थे, दरबारी उससे ज्यादा गंभीर हो गए। लग रहा था, दरबार में हर कोई हँसना भूल गया है। और हँसना भूलते ही, सबका मुँह जैसे बिना बात गुब्बारे की तरह फूल गया था। कुछ बूढ़े दरबारी तो बड़ी मुश्किल से खुद को नींद और उबासियों से बचाए हुए थे।

सुबह से शाम तक इसी तरह दरबार का काम चलता रहा। उस दिन किसी बड़ी समस्या पर विचार होना था। कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जाने थे। सभी सोच-विचार कर रहे थे और बड़ी जिम्मेदारी से अपनी राय दे रहे थे। बोलते समय सबको लग रहा था, उनके मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल जाए कि वे राजा के कोपभाजन बन जाएँ। इसलिए सब तोल-मोल के बोल रहे थे।

शाम के समय जब काम पूरा हुआ तो राजा कृष्णदेव राय के चेहरे का भाव बदला। उन्होंने हौले-हौले माथे को हथेली से थपथपाया। फिर किंचित मुसकराते हुए पूछा, "आप सभी ने खासी मेहनत की। अब आपकी कोई इच्छा हो तो बताइए।"

इस पर सब चुप। कौन भला कुछ बोलकर आफत मोल ले? पर तेनालीराम तो इसी क्षण की प्रतीक्षा में था। वह झट खड़ा हो गया। बोला, "हाँ महाराज, मेरी एक इच्छा है।"

राजा ने मुसकराते हुए पूछा, "बताओ...बताओ, तेनालीराम, तुम्हारी क्या इच्छा है? उसे जरूर पूरा किया जाएगा।"

राजा को थोड़ा सहज और प्रसन्न देखा तो मंत्री ने भी माहौल को कुछ हलका-फुलका करने की गरज से कहा, "महाराज, तेनालीराम की भला और क्या इच्छा होगी? यह तो सदा से पुरस्कार का लोभी है। तो बस यही कहेगा कि महाराज, मैंने आज राजदरबार के काम में सुबह से शाम तक बड़ी मेहनत की, मुझे जरा अशर्फियों की थैली दे दी जाए।...मेहनत हम सबने की, पुरस्कार यही अकेला लेकर खिसक जाएगा।"

सेनापति ने कहा, "महाराज, मेरे दिमाग में अभी-अभी एक बड़ा अच्छा विचार आया है।"

"हाँ-हाँ, बताओ...बताओ!" राजा ने उत्सुकता से कहा।

"महाराज, मुझे लगता है कि हमें एक जासूस इस बात के लिए लगाना चाहिए, जो यह पता करे कि तेनालीराम पुरस्कार में मिली इतनी मुद्राओं का करता क्या है? जरूर इसने जमीन में बहुत बड़ा गड्ढा खोद रखा होगा। उसी में अशर्फियाँ भर-भरकर ऊपर पत्थर रख देता होगा। कभी कोई चोर-डाकू आ गया तो यह सारा खजाना एक साथ ही चला जाएगा।"

सुनकर सब हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय के चेहरे पर भी हास-परिहास की थोड़ी मृदुलता नजर आने लगी थी।

तभी अचानक राजा का ध्यान फिर से तेनालीराम की ओर गया। उन्होंने कहा, "तेनालीराम, तुमने बताया नही कि तुम्हारी क्या इच्छा है?"

इस पर तेनालीराम बोला, "महाराज, आपने देश-देश के गुलाब मँगवाकर गुलाबों का अनोखा बगीचा बनवाया था। बहुत दिनों से उसे देखा ही नहीं। इस मौसम में तो वहाँ गुलाब के फूलों की खूब बहार होगी। जाड़े के इस खुशनुमा मौसम में आपके साथ हम सभी उस बगीचे की सैर करें, मेरी यह इच्छा है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराकर कहा, "ठीक है तेनालीराम!"

अगले दिन राजा कृष्णदेव राय के साथ सभी दरबारी बेशकीमती गुलाबों का वह अनोखा बगीचा देखने गए। वहाँ गुलाबों की एक से एक नई किस्में थीं। रंग-रंग के गुलाब! सर्दियों के गुनगुने मौसम में सारे गुलाब हँसते नजर आते थे। देखकर राजा और दरबारी सभी खुश हो गए।

तेनालीराम बोला, "महाराज, सर्दियों के इस गुलाब-उत्सव की शोभा तो तब होगी, जब दरबारियों में से हर कोई कुछ न कुछ गाकर सुनाए। शुरुआत मैं करता हूँ।"

उसी समय तेनालीराम ने खुद अपनी बनाई एक हास्य कविता सुना दी। उसमें एक पेटूमल का मजेदार किस्सा था। उसे दावत में एक लोटा भरकर खीर, अस्सी पूरी, सौ कचौड़ियाँ, पाँच सेर लड्डू और इतनी ही रबड़ी खाने को दी गई। उसने सब कुछ खाया और मजे-मजे में पेट पर हाथ फेरने लगा। तभी किसी ने उससे पूछा, "क्यों जी पेटूमल, अब तो तृप्ति हो गई?" इस पर उसका जवाब था, "अभी कहाँ...? अभी पापड़ तो मैंने खाया ही नहीं। तो अभी तो जरा भूख बाकी है...!"

यह मजेदार हास्य कविता सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। दरबारियों ने भी खूब मजा लिया।

मंत्री ने पूछा, "क्यों तेनालीराम, तुमने कहीं हमारे राज पुरोहित जी पर तो नहीं लिखी यह कविता?"

इस पर राजपुरोहित समेत सभी हँसे। राजा कृष्णदेव राय भी परम आनंदित हो, खूब खिलखिलाकर हँस रहे थे।

और दरबारियों ने भी अपने-अपने अंदाज में कार्यक्रम पेश किए। पुरोहित जी ने मिठाईलाल की हास्य-कथा सुनाई। मिठाईलाल मिठाइयों के इतने शौकीन थे कि बातें करते-करते अगर कोई किसी मिठाई का नाम ले देता, तो झट से उसे खाने के लिए हलवाई की दुकान की ओर दौड़ लगा देते। एक बार भागकर हलवाई की दुकान पर जल्दी पहुँचने की उतावली में, बेचारे रात के अँधेरे में एक बड़े-से गड्ढे में गिरकर हाथ-पाँव तुड़वा बैठे। फिर उस गड्ढे में बैठे-बैठे उनकी रात कैसे कटी, इसका बड़ा मजेदार वर्णन था। राज पुरोहित जी का सुनाने का ढंग ऐसा लाजवाब था कि सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।

खुद राजा कृष्णदेव राय इतने रंग में आए कि उन्होंने बचपन में दादी माँ से सुनी एक मजेदार कविता सुना दी। उस कविता में एक जादूगर तोते और तोती का वर्णन था, जो सारी दुनिया को खुशियों से भर देने के लिए निकल पड़े थे। उन्हें बड़े अजब-गजब अनुभव हुए। खासकर बात-बात पर 'ऐं...ऐं!' करने वाली बूढ़ी नानी सरस्वती का किस्सा सुनाते हुए खुद राजा कृष्णदेव राय की हँसी छूट गई। सब दरबारी भी हँसने लगे।

शाम ढलने पर सभी चलने लगे, तो राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए कहा, "आज बहुत आनंद आया। गुलाबों की हँसी के साथ रहकर लगता है, हमें भी अपनी हँसी वापस मिल गई।"

तेनालीराम हँसा। बोला, "महाराज, इसलिए तो मैंने गुलाब वाटिका में घूमने की इच्छा प्रकट की थी। मेरी उस इच्छा में आपकी इच्छा भी शामिल थी। कल आप दरबार में आए, तो आपके चेहरे पर हमेशा रहने वाली हँसी नहीं थी। तभी मुझे लगा, रोज के कामों की ऊब को खत्म करने के लिए जरा गुलाबों के बीच जाएँ! और सचमुच आज गुलाबों के बीच आकर आपका चेहरा भी गुलाब की तरह खिल गया है। लगता है, मंत्री और पुरोहित जी ने भी आज की गुलाब गोष्ठी का पूरा आनंद लिया है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हँसी आ गई। उन्होंने हँसते हुए सुर्ख गुलाब का एक फूल तोड़कर तेनालीराम के कुरते पर लगा दिया। बोले, "यह हँसता गुलाब यहीं खिलेगा!"

24

चिक-चिक बोले काठ की चिड़िया

विजयनगर में हर साल राजा कृष्णदेव राय का जन्मदिन खूब धूमधाम से मनाया जाता था। इस बार भी राजा का जन्मदिन आया, तो हर तरफ चहल-पहल थी। जगह-जगह सुंदर बंदनवार लगाए गए। घरों, गलियों और बाजारों में केले के पत्तों, रंग-बिरंगी झंडियों और दीपमालाओं से सजावट की गई। राजधानी में जगह-जगह फूलों के द्वार बनाए गए, जिन पर फूलों की पंखुड़ियों से ही राजा का प्रशस्तिगान करते हुए, शुभकामनाएँ दी गई थीं। बीच में बड़े-बड़े सुनहरे अक्षरों में लिखा था, "विजयनगर को स्वर्ग के समान सुंदर और खुशहाल बनाने वाले, राजाओं के राजा कृष्णदेव राय चिरजीवी हों!"

विजयनगर के हर घर-द्वार पर फूलों की ऐसी सजावट थी कि राजा कृष्णदेव राय की यह सुंदर राजधानी फूलों की नगरी में बदल गई थी।

प्रजा के उत्साह का ठिकाना न था। अपने प्रिय राजा की खुशी के लिए सब अपने-अपने जतन कर रहे थे। यहाँ तक कि हाथों में रंग-बिरंगे फूलों के गुलदस्ते लिए छोटे-छोटे बच्चों ने भी सुबह-सुबह प्रभातफेरी निकालकर विजयनगर की हवाओं में आनंद और उल्लास की लहर घोल दी थी। जब बच्चों का यह जुलूस राजमहल में पहुँचा, तो राजा कृष्णदेव राय तेजी से चलते हुए खुद बाहर आए और बच्चों से फूलों के गुलदस्ते लेकर, सबको अपनी ओर से स्वादिष्ट मिठाई और सुंदर उपहारों से लाद दिया।

देखकर बच्चों की आँखों में चमक आ गई। वे ऐसा ही खिला-खिला मुँह लेकर घर पहुँचे और राजा कृष्णदेव राय की तारीफों के पुल बाँध दिए। देखकर छोटे-बड़े सभी निहाल।

शाम को मुख्य कार्यक्रम था। राज उद्यान में लगे विशाल रेशमी पंडाल में शाही समारोह का आयोजन हुआ। नगर के जाने-माने लोग, व्यापारी, लेखक, कलाकार, संगीतकार सभी उसमें शामिल हुए। विदेशों से आए राजा कृष्णदेव राय के मित्र, विद्वान और राजनयिक भी। सभी एक से एक सुंदर उपहार लेकर आए। दरबारियों में भी बेशकीमती उपहार देने की होड़ थी। सब ओर रंगों और खूबसूरती का आलम। पर...पर तेनालीराम कहाँ था?

राजपुरोहित ताताचार्य ने मंत्री की ओर इशारा किया, मंत्री ने सेनापति की ओर। सेनापति की निगाहें बारीकी से चारों ओर तलाशने लगीं, पर तेनालीराम किसी को नजर न आया।

तेनालीराम गायब था। कैसी विचित्र बात...? यह तो फायदा उठाने का स्वर्णिम अवसर था।

मंत्री कैसे चूकता? वह फौरन उठकर राजा कृष्णदेव राय के पास पहुँचा। उनके कानों में फुस-फुस करके बोला, "महाराज, सभी लोग आ गए। यहाँ तक कि विदेश से आए अपने विशिष्ट अतिथि, विद्वान और राजनयिक भी। पर तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा!"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय को हैरानी हुई। बोले, "ऐसा कैसे हो सकता है? वह मनमौजी है, आसपास कहीं घूम रहा होगा। जरा किसी को बोलो कि वह खोज लाए हमारे मौजी बाबा को।" कहते-कहते उनके होंठों पर हँसी आ गई।

"सब जगह दिखवा लिया, महाराज। तेनालीराम कहीं नहीं है।" मंत्री ने आँखें चमकाईं।

तब तक सेनापति और राजपुरोहित ताताचार्य भी वहाँ आ गए थे। मंत्री की बात सुनकर सेनापति ने थोड़ी तेज धार लगा दी, "महाराज, असल बात तो यह है कि तेनालीराम सदा का कंजूस है। चमड़ी चली जाए पर दमड़ी न जाए। सोचा होगा, इस मौके पर कौन उपहार लेकर जाए? आराम से घर बैठो। इतने बड़े कार्यक्रम में महाराज को कहाँ पता चलेगा कि कौन आया, कौन नहीं!"

राजपुरोहित ताताचार्य ने ठिठोली की, "सही है महाराज, एकदम सही।...तेनालीराम सदा से ऐसा ही है। आपके लिए उपहार लाने की बात सुनकर बेचारे की नानी मर गई होगी!"

अभी राजपुरोहित ताताचार्य की बात पूरी हुई भी न थी कि तभी बड़ी विचित्र सी 'डुग-डुग' की आवाज सुनकर सब चौंके। सामने देखा तो खूब बड़ा सा हरा पग्गड़ पहने तेनालीराम एक खिलौना-गाड़ी को डोरी से खींचता चला आ रहा था। उसी खिलौना गाड़ी से डुग-डुग, डुग-डुग की यह विचित्र आ रही थी, जिससे पूरा पंडाल गूँज उठा था।

देखकर राजा कृष्णदेव राय समेत सब हँसने लगे।

मंत्री ने शिकायती लहजे में कहा, "देखिए महाराज, तेनालीराम ने यह क्या तमाशा किया। इतने भव्य कार्यक्रम की भद पीट दी!"

पर तेनालीराम के चेहरे पर ऐसी संतुष्टि और आनंद का भाव था कि राजा कृष्णदेव राय समझ गए, कि कोई न कोई तो ऐसी बात है, जो सिर्फ तेनालीराम ही बता सकता है।

मगर तेनालीराम वहाँ होकर भी कहाँ था? वह तो अपनी उस डुग-डुग गाड़ी में ही खोया हुआ था।...

पंडाल में आते ही उसने काठ की गाड़ी को एक तरफ खड़ा किया। उसमें से सुनहरे रंग का एक सुंदर डिब्बा निकाला। आगे बढ़कर विनम्रता से उसे राजा को भेंट किया। उत्सुकता से राजा ने उसे खोला तो अंदर से काठ की एक छोटी सी, लाल चिड़िया निकली।

मंत्री ने हँसकर कहा, "महाराज तेनालीराम को आपके जन्मदिन पर भेंट करने के लिए यही एक नायाब तोहफा मिला!"

पर मंत्री की बात खत्म होते ही चिड़िया मीठी 'चिक-चिक' की आवाज करते हुए उड़ी। उड़ते हुए सारे पंडाल में घूमने लगी। घूमते-घूमते बोली, "जन्मदिन मुबारक हो महाराज... जन्मदिन मुबारक! आप चिरजीवी हों महाराज, और प्रजा को आनंदित करते हुए, खुद भी आनंद से जिएँ।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय और दरबारी हैरान थे।

कुछ देर बाद तेनालीराम की हिलती हुई उँगली थमी, तो लाल चिड़िया उछलकर उसकी हथेली पर आ गई। उसे राजा को भेंट करते हुए तेनालीराम बोला, "महाराज, बचपन में मैंने पार्वती अम्माँ को देखा था। हमारे गाँव की वह बूढ़ी स्त्री अनोखी कलाकार थी और ऐसी उड़ने वाली काठ की रंग-बिरंगी चिड़ियाँ बनाती थी। ये चिड़ियाँ एक पतली सी डोरी के सहारे उड़ती थीं, जो आँख को नजर नहीं आती थीं। पार्वती अम्माँ तो अब रहीं नहीं। पर पिछले दिनों गाँव गया, तो उनकी बनाई हुई यह चिड़िया उनकी बेटी कावेरी ने मुझे भेंट की। पार्वती अम्माँ की यह अनोखी कला बची रहे, इसलिए यह अद्भुत खिलौना आपको भेंट कर रहा हूँ!"

"पर तेनालीराम इस चिड़िया ने तो मुझे जन्मदिन की शुभ कामनाएँ भी दीं। तो क्या यह चिड़िया बोलती भी है...?" राजा कृष्णदेव राय ने हैरानी से कहा।

"महाराज, यह काम पार्वती अम्माँ की बेटी कावेरी का है। उसने चिड़िया के पंखों के साथ रेशम की एक बहुत पतली सी डोर बाँध दी है। चिड़िया के पंखों के कंपन से ये शब्द पैदा होते हैं। कावेरी का कहना है कि वह जल्दी ही बोलने वाली चिड़ियाँ बनाया करेगी, जिससे विजयनगर की कलाओं की दूर-दूर तक धूम मचेगी।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने गद्गद होकर कहा, "यह अनोखा उपहार हमेशा मेरे साथ रहेगा। इसमें बचपन की खुशियाँ जो हैं!"

फिर उन्होंने मुसकराते हुए बताया, "मुझे याद है, बचपन में माँ ने मुझे भी ऐसी ही एक सुंदर चिड़िया उपहार में थी। शायद वह भी पार्वती अम्माँ की ही बनाई हुई हो। मैं दिन भर उससे खेलता और बातें करता था। आज तेनालीराम ने मेरा वही बचपन मुझे लौटा दिया।"

राजा कृष्णदेव राय ने उसी दिन इनाम के रूप में एक सहस्र मुद्राएँ पार्वती अम्माँ की बेटी के पास भिजवा दीं। साथ ही एक छोटा सा पत्र भी था। उसमें राजा ने लिखा था, "प्रिय कावेरी बहन, मेरा बचपन पार्वती अम्माँ के बनाए खिलौनों के साथ बीता है। आज वह बचपन फिर याद आ गया। पार्वती अम्माँ को याद करते हुए एक सहस्र मुद्राएँ भिजवा रहा हूँ। इन्हें स्वीकार करें। कभी किसी सहायता की जरूरत हो, तो अपना भाई समझकर, बिना किसी हिचक के बताएँ।"

विजयनगर में जिसने भी यह बात सुनी, तेनालीराम की खूब प्रशंसा की, क्योंकि उसी ने तो विपत्ति में पड़ी कावेरी की तरफ राजा का ध्यान खींचा था।

25

लेकिन इतने भिखारी आए कहाँ से?

राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। राज्य की समस्याओं पर गंभीरता से विचार हो रहा था। दरबारी प्रजा की परेशानियों और उन्हें दूर करने के उपायों की चर्चा कर रहे थे। कभी-कभी आपस में तर्क-वितर्क भी होने लगता। राजा कृष्णदेव राय मुसकराकर इसका आनंद लेते। वे चाहते थे कि सभी दरबारी खुलकर अपनी बात कहें, ताकि सही निर्णय हो सके।

शाम होने को थी। राजा कृष्णदेव राय दरबार खत्म करना चाहते थे, पर कुछ सोचकर बोले, "अभी थोडा समय है। अगर आप लोग किसी और समस्या की चर्चा करना चाहें, तो उसका स्वागत है।"

कहकर राजा ने सभी दरबारियों की ओर देखा। पर अब तक सब लोग थक गए थे। सोच रहे थे, कब दरबार खत्म हो और वे घर जाएँ। तभी एक दरबारी ने कहा, "महाराज, एक विचित्र समस्या है। आप कहें तो सामने रखूँ?"

"हाँ-हाँ क्यों नहीं?" राजा कृष्णदेव राय ने उत्सुकता से कहा।

दरबारी ने कहा, "महाराज, इधर मैं देख रहा हूँ कि राजधानी में भिखारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आप प्रजा की भलाई के लिए इतना कुछ करते हैं। फिर भी राज्य में भिखारी बढ़ रहे हैं, यह तो हैरानी की बात है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय चिंतित हो गए। उन्हें भी लग रहा था कि इधर भिखारियों की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है। पर इसका कारण उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।

सब दरबारी भी यही बात सोच रहे थे। एक नए दरबारी ने कहा, "महाराज, एक बात मेरी समझ में नहीं आती। अगर ये लोग काम करना चाहें, तो क्या इन्हें काम नहीं मिल सकता?"

"ऐसी तो कोई बात नहीं है।" राजा बोले, "विजयनगर में काम करने वाला आदमी भूखा तो नहीं मर सकता और न उसे भीख माँगने की जरूरत है। पर फिर भी, भिखारी इतने बढ़ गए हैं तो कोई न कोई बात तो है...!"

मंत्री ने कहा, "आप चिंता न करें महाराज। मैं नगर कोतवाल से कहता हूँ कि वह भिखारियों से पूछकर असल बात का पता लगाएँ।...जल्दी ही समस्या का हल निकल आएगा।"

"हाँ, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।" राजा कृष्णदेव राय ने गंभीर होकर कहा, "कहाँ तो विजयनगर साम्राज्य की समृद्धि की चर्चा सारी दुनिया में होती है, और कहाँ भिखारियों का यह रेला...? कितनी विचित्र बात है।"

राजा कृष्णदेव राय के कहने पर सभी दरबारी इस समस्या पर अपनी राय प्रकट कर रहे थे। पर तेनालीराम चुप था। राजा ने उसकी ओर देखकर कहा, "तेनालीराम, तुमने इस बारे में कुछ नहीं कहा। क्या तुम्हें नहीं लगता कि इधर भिखारियों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है? हम प्रजा की भलाई के लिए इतनी योजनाएँ बनाते हैं। क्या उनका लाभ प्रजा को नहीं मिल रहा?...या फिर कोई और बात है?"

"यही तो रहस्य है, महाराज।" तेनालीराम मुसकराया, "मैं इतनी देर से माथा खुजा रहा हूँ, पर रहस्य की डोर है कि उलझती ही जाती है। उसका दूसरा छोर नहीं मिल रहा।"

राजा कृष्णदेव राय कुछ कहते, इससे पहले राजगुरु ताताचार्य बोले, "महाराज, तेनालीराम को तो यों ही पहेलियाँ बुझाने की आदत है। पता नहीं, बात को कहाँ से कहाँ ले जाता है। छोड़िए इसे, समस्या का हल तो नगर कोतवाल ही कर पाएगा। मंत्री जी नगर कोतवाल को बुलाकर थोड़ी सख्ती करने को कहें, तो आपको राजधानी में भिखारी नजर न आएँगे।"

आखिर राजा कृष्णदेव राय ने मंत्री को समस्या हल करने का जिम्मा सौंप दिया।

कुछ दिन बीते, पर भिखारियों की संख्या कम होने के बजाय उलटे बढ़ गई। पहले मंदिरों के सामने भिखारियों की लंबी-लंबी पाँतें नजर आती थीं। अब वे बाजार और मुख्य सड़कों पर भी नजर आने लगे। नगर के लोग भीख माँगने पर उन्हें कुछ न कुछ दे दिया करते थे। इससे सड़कों पर खासी भीड़भाड़ होने लगी। कुछ चोर-लुटेरे भी भिखारियों के वेश में बैठे रहते। किसी को अकेला देखकर लूटपाट करते। सिपाहियों के आने पर वे इधर-उधर छिप जाते, फिर कहीं और दिखाई देने लगते। राजा के पास शिकायतें पहुँचतीं।

आखिर परेशान होकर राजा ने तेनालीराम से कहा, "तुम पता लगाओ, हमारे राज्य में इतने भिखारी आए कहाँ से?"

तेनलीराम मुसकराया। बोला, "महाराज, यही तो मैंने आपसे कहा था। समस्या की डोर उलझी हुई है, और उसका दूसर सिरा कहाँ है, यह नजर नहीं आता।...पर अब हे दयानिधान, वह दूसरा छोर भी मिलेगा, जरूर मिलेगा।"

उसी दिन से तेनालीराम ने वेश बदलकर राजधानी में घूमना शुरू किया। न वह घर जाता, न राजदरबार में ही दिखाई देता। राजा चिंतित थे, भला तेनालीराम कहाँ चला गया?

कुछ दरबारियों ने कहा, "महाराज, हमने तो उसे फुटपाट पर फटे-पुराने चीथड़े पहने देखा है।" कुछ ने कहा, "इतना ही नहीं महाराज, वह तो अजीब पागलपन वाली हरकतें कर रहा था। देखकर हमें डर लगा।"

एक दरबारी ने कहा, "महाराज, तेनालीराम शायद किसी दुर्घटना में घायल हो गया है। मैंने उसे सड़क किनारे बैठे देखा है। उसके सारे शरीर पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। पैरों से खून निकल रहा था।"

राजा कुछ कहते, इससे पहले ही मंत्री बोला, "महाराज, ये लोग सही कह रहे हैं। कहने में लज्जा आती है, पर मैंने तो उसे हाथ में कटोरा लिए भीख माँगते देखा है। और भिखारियों की तरह वह भी सड़क किनारे बैठा सूखे टुक्कड़ चबा रहा था।...अगर वह दुर्घटना में घायल हो भी गया, तो महाराज, उसे दर-दर भीख माँगने के बजाय सीधा आपके पास आना चाहिए था।"

राजपुरोहित ताताचार्य बोले, "महाराज, बहुत हुआ तेनालीराम का नाटक। अब उसे कान पकड़कर राजदरबार से बाहर कर दिया जाए। ओछे आदमी की यही सजा होती है।"

सुनकर राजा कृष्ण सोच में पड़ गए। बोले, "तेनालीराम ऐसा करेगा, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। पता नहीं, इसे हुआ क्या है?"

इसके बाद एक दिन गुजरा, दूसरा दिन गुजरा। तीसरे दिन राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा ही था कि तेनालीराम तेज-तेज चलता हुआ आया। बोला, "महाराज, सबसे बड़े भिखारी का पता चल गया। उसको पकड़ लें, तो सारी बात पता चल जाएगी।"

"पर...वह है कहाँ?" राजा कृष्णदेव राय ने हैरान होकर कहा।

"महाराज, इसकी जानकारी तो मंत्री जी ही दे सकते हैं।" तेनालीराम बोला, "क्योंकि वह मंत्री जी के गाँव से आया उनका दूर का रिश्तेदार पुंतैया है। मंत्री जी के घर रहता है और उनकी शह पर ही यह धंधा कर रहा है। लोगों से भीख मँगवाता है, फिर उसमें आधा हिस्सा खुद हड़प लेता है।..."

"महाराज, तेनालीराम की झूठी बातों में न आएँ। इसे तो अनाप-शनाप बोलने की आदत है।" मंत्री ने बुरी तरह चिढ़कर कहा।

तेनालीराम बोला, "महाराज, आप पता कर लें, पिछले सात दिन मैं न घर में था, न दरबार में। भिखारियों के बीच भिखारी बनकर रहा। उन्हीं के साथ सड़कों पर सोया, खाया-पिया, बातें कीं। सब कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा है। पर मैं बताऊँ, इससे पहले मंत्री जी के घर पर तलाशी ली जाए। मुझसे पुंतैया जो सिक्के ले गया है, उन पर मैंने लाल रंग से निशान लगा दिए हैं।"

राजा ने सैनिकों को भेजकर पुंतैया को मंत्री के घर से पकड़वाया। उसके पास तेनालीराम के दिए सिक्के भी मिल गए।

तेनालीराम मुसकराकर बोला, "महाराज, भिखारियों से पैसे लेकर धंधा करने वाला, सबसे बड़ा भिखारी पकड़ा गया। अब आप देखिएगा, कुछ दिनों में बाकी भिखारी भी नजर न आएँगे।"

और सचमुच अगले दिन से ज्यादातर भिखारियों ने भीख माँगना छोड़, मेहनत-मजदूरी का काम अपना लिया। राजा कृष्णदेव राय ने उनके ठहरने के लिए अलग निवास बनवाए। उन्हें कंबल और वस्त्र बाँटे गए। साथ ही सबके लिए सस्ते और अच्छे भोजन का प्रबंध किया गया।

कल तक जो भीख माँगते थे, वे सब अब निश्चिंत होकर काम करते और राजा कृष्णदेव राय को दुआएँ देते थे। पूरे विजयनगर में अब कोई भिखारी नजर नहीं आता था।

26

शिव की नगरी से प्रसाद लाया हूँ

राजा कृष्णदेव राय साधु-संतों की बहुत इज्जत करते थे। इसलिए दूर-दूर से साधु-महात्मा विजयनगर में आते। राजा कृष्णदेव राय उनकी खूब सेवा-सत्कार करते थे। इसलिए सभी वहाँ से प्रसन्न होकर लौटते थे।

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में लंबी, सफेद दाढ़ी वाले एक साधु बाबा आए। वे बहुत बूढ़े और कृशकाय थे, पर चेहरे पर दिव्य तेज। आते ही उन्होंने दोनों आँखें बंद कर, कुछ देर 'ओम नमः शिवाय' का पाठ किया। फिर आँखें खोलकर प्रसन्न भाव से बोले, "महाराज, शिव आप पर प्रसन्न हैं। उनकी कृपा से आपके राज्य में प्रजा हमेशा सुखी रहेगी। कभी किसी चीज का संकट न होगा और दूर-दूर तक आपका यश फैलेगा।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने बड़े आदर से सिर झुकाकर, बूढे साधु बाबा को प्रणाम किया। फिर विनम्र भाव से बोले, "मैं अपनी और विजयनगर की समस्त प्रजा की ओर से आपका स्वागत करता हूँ। कृपया आप आसन ग्रहण करें।"

साधु महाराज के लिए सुंदर मृगछाला का आसन बिछाया गया। उस पर विराजमान होकर उन्होंने कहा, "महाराज, मैं इस बार दक्षिण की परिक्रमा पर निकला तो बड़ा मन था कि एक बार विजयनगर अवश्य जाऊँ। राह में जो भी मिला, उसने यही कहा कि प्रजावत्सल राजा कृष्णदेव राय रात-दिन प्रजा की चिंता करते हैं। तो उत्सुकता और बढ़ गई। सोचा, आपको आशीर्वाद देकर ही मैं आगे जाऊँगा।...आज यहाँ आकर मन शीतल हो गया।"

कुछ देर तक साधु बाबा प्रेमपूर्वक राजा कृष्णदेव राय से बात करते रहे। विजयनगर की प्रजा के बारे में भी पूछा। फिर उन्हें कुछ याद आया। बोले, "महाराज, मैं शिव की पवित्र नगरी हरिद्वार से प्रसाद लाया हूँ। लीजिए, अपने सभी सभासदों में बँटवा दीजिए।"

कहकर साधु ने अपने झोले में हाथ डाला और दो बताशे निकालकर राजा कृष्णदेव राय के हाथ में रख दिए।

सुनकर राजा कृष्णदेव राय प्रसन्न हो उठे। बोले, "शिव की नगरी हरिद्वार से आया प्रसाद तो अमृत से बढ़कर है।" पर तभी उन्हें खयाल आया कि इन दो बताशों को सभी सभासदों में कैसे बँटवाया जाए?

उन्होंने तुरंत राजपुरोहित ताताचार्य से कहा, "आप इन बताशों को सभी में बँटवा दें।"

सुनकर राजपुरोहित भी अचकचाए। फिर मुसकराते हुए कहा, "महाराज, यह चमत्कार तो हमारे यहाँ सिर्फ तेनालीराम ही कर सकते हैं। वे चाहें तो इन्हें सभी दरबारियों में बँटवा सकते हैं।" इस पर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की ओर देखा।

तेनालीराम ने उठकर बड़ी विनय से साधु बाबा को प्रणाम किया, और राजा कृष्णदेव राय से वे दोनों बताशे लिए। फिर एक सेवक को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा। सेवक दौड़ा-दौड़ा गया। ठंडे पानी से भरा एक घड़ा ले आया। साथ में चीनी और गुलाब का गाढ़ा सुगंधित शर्बत।

पानी में चीनी घोलकर गुलाब का शर्बत मिलाया गया। इसी बीच तेनालीराम ने चुपके से अपने हाथ से दोनों बताशे तोड़कर उसमें डाले और अच्छी तरह घोल लिया। राजा कृष्णदेव राय, साधु बाबा और सभी दरबारी बड़े कौतुक से देख रहे थे कि तेनालीराम को अचानक यह शर्बत बनाने की क्या सूझी?

तेनालीराम की हर बात नई होती थी, जो सबको चकरा देती थी। इस बार भी दरबारी हैरान थे, तेनालीराम कर क्या रहा है? कहाँ तो प्रसाद बँटवाने की बात थी, और कहाँ यह आयोजन...? कुछ दरबारियों ने संकेत में राजा कृष्णदेव राय से कहा कि वे तेनालीराम से पूछें, वह किस चक्कर में उलझ गया? पर वह निश्चिंत होकर अपने काम में जुटा था।

कुछ देर बाद उसने फिर सेवक के कान में कुछ कहा। उसके इशारे पर कई सेवक एक साथ दौड़े। झट बहुत सारे साफ-सुथरे कुल्हड़ ले आए।

तेनालीराम ने घड़े में रखे शर्बत को खुद अपने हाथ से साफ-सुथरे कुल्हड़ में डालकर सबसे पहले राजा कृष्णदेव राय को दिया। कहा, "लीजिए महाराज, गुलाब का यह ठंडा सुगंधित शर्बत पीजिए।"

"पर प्रसाद...? तेनालीराम, तुम तो साधु बाबा का प्रसाद सबको बँटवाने वाले थे न!" राजा कृष्णदेव राय ने चौंककर कहा।

"हाँ महाराज, वही तो है यह!" कहकर तेनालीराम ने बताशे तोड़कर शर्बत में मिलने की बात बताई, तो राजा कृष्णदेव राय और सभी सभासद चकित हुए।

इसके बाद वही शर्बत साफ-सुथरे कुल्हड़ों में डालकर मंत्री, पुरोहित और सभी सभासदों में बँटवाया गया। साधु बाबा को भी एक कुल्हड़ भरकर सुगंधित शर्बत दिया गया। सभी ने खुश होकर गुलाब का सुगंधित शर्बत पिया और तारीफ की।

तेनालीराम हँसकर बोला, "महाराज, इस शर्बत के साथ-साथ सभी को बराबर प्रसाद भी मिल गया।"

साधु बाबा के चेहरे पर भी आनंद का भाव था। उन्होंने तेनालीराम की बुद्धिमत्ता की खूब तारीफ करते हुए, उसे आशीर्वाद दिया। फिर हँसकर बोले, "महाराज, एक रहस्य की बात आपको बताऊँ। मेरे यहाँ आने का उद्देश्य आपको आशीर्वाद देने के साथ-साथ तेनालीराम से मिलना भी था। काशी नरेश ने एक बार मुझसे कहा था कि बाबा, एक बार आप विजयनगर जरूर जाएँ। वहाँ एक बड़ा चमत्कारी पुरुष है तेनालीराम, जो हर असंभव को संभव कर देता है। काशी नरेश की यह बात सुनकर मुझे बड़ी जिज्ञासा थी कि आखिर कौन है यह तेनालीराम? आज उसे आँखों से देख लिया और उसकी चतुराई भी। अब मैं खुशी-खुशी यहाँ से जा रहा हूँ।"

सुनकर तेनालीराम का चेहरा खिल गया। राजा कृष्णदेव राय और दरबारी भी खुलकर उसकी खूब प्रशंसा कर रहे थे।

27

यह है मेरे परदादा का हाथी

राजा कृष्णदेव राय के समय में विजयनगर की कार्ति-पताका दूर-दूर तक लहराने लगी थी। विजयनगर राज्य की कलाओं और धन-धान्य का कोई जवाब न था। इसलिए लोग 'धरती की अमरावती' कही जाने वाली विजयनगर की राजधानी को एक बार अपनी आँखों से देखने के लिए तरसते थे।

राजा कृष्णदेव राय भी चाहते थे कि लोग विजयनगर की समृद्धि और कलाओं के बारे में जानें। इसलिए हर साल विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। इस अवसर पर पूरे विजयनगर में भव्य समारोह मनाया जाता था, जिसमें कलाकार अपनी सुंदर कलाओं का प्रदर्शन करते थे। एक से एक सुंदर प्रदर्शनियाँ लगती थीं, जिनसे राज्य की समृद्धि का पता चलता था। देश-विदेश से आने वाले अतिथियों को इसका इंतजार रहता था। दूसरे राज्यों से बड़े-बड़े विद्वान और कलावंत इस अवसर पर राजधानी की अनुपम शोभा देखने आते, तो हर ओर इतनी चहल-पहल बढ़ जाती थी कि विजयनगर का रूप ही बदल जाता था।

राजा कृष्णदेव राय भव्य समारोह में कलाकारों को अपने हाथ से एक से एक सुंदर उपहार देते थे। फिर अपनी प्रजा का उद्बोधन करते हुए कहते थे, "मुझे इस बात का गर्व है कि विजयनगर कलाओं का स्वर्ग है और धरती पर सबसे समृद्ध राज्य है। मैं तो चाहता हूँ कि दूसरे राज्य भी इससे सीखें। हर राज्य विजयनगर की तरह खुशहाल हो। इसीलिए दूर-दूर से लोग यहाँ आते हैं तो उनका स्वागत कीजिए।"

विजयनगर की प्रजा भी इस अवसर पर दिल खोल देती। दूर-दूर से आए अतिथियों का आतिथ्य करने के लिए हर कोई उत्सुक था। सभी चाहते थे कि लोग राजा कृष्णदेव राय और विजयनगर राज्य के बारे में अच्छी छवि मन में लेकर जाएँ। इस बात से भी राज्य में बाहर से आने वाले अतिथि बहुत प्रभावित होते थे।

हमेशा की तरह इस बार भी विजयनगर राज्य का स्थापना दिवस समारोह मनाने की योजना बनी, तो पूरे विजयनगर में उल्लास छा गया। सब ओर सुंदर फूलों के तोरण-द्वार बनाए गए। उन्हें रंग-बिरंगी झंडियों और केले के पत्तों से सजाया गया। साथ ही उन पर चाँदी के छोटे-छोटे नक्काशीदार कलश सजाकर रखे गए, जिनमें सुगंधित द्रव भरा हुआ था। विजयनगर में हर ओर उत्साह और उमंग नजर आती थी। प्रजा ने राजा कृष्णदेव राय के सम्मान में अपने-अपने घरों में सुंदर दीप-मालाएँ सजाईं।

राज उद्यान में शाम के समय मुख्य समारोह हुआ। पहले बच्चों ने राजा कृष्णदेव राय के सुंदर राज-काज की छवि प्रस्तुत करने के लिए, 'नई सुबह का गीत नया' नृत्य-नाटिका प्रस्तुत की। उसमें नई सुबह, नए विहान का दृश्य था। पक्षियों की चहचहाहट और नदियों का कल-कल संगीत भी। ऐसा लगता था मानो प्रातःकाल आकाश से उतरी सूर्य की किरणों राजा कृष्णदेव राय का वंदन कर रही हों।

फिर सितार, मृदंगम और दूसरे वाद्यों के साथ गीत-संगीत का बड़ा मनोहारी कार्यक्रम हुआ। इसमें बच्चों ने भी बाँसुरी की धुनें बजाकर सबका मन मोह लिया। आखिर में पीला अंगवस्त्र पहने एक छोटे से बच्चे ने, बड़े आत्मविश्वास के साथ विजयनगर का मंगलगान गाया—

विजयनगर की गाथा है यह, विजय नगर की गाथा!

फूलों जैसी खिली-खिली यह विजयनगर की गाथा,

अंबर से भी हिली-मिली यह विजयनगर की गाथा,

सबका ही है मन महकाती, विजयनगर की गाथा,

धरती को है स्वर्ग बनाती विजयनगर की गाथा।

सुनकर सबके चेहरे पर आनंद का भाव था। राजा कृष्णदेव राय भी प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने बच्चे को पास बुलाकर उसकी पीठ थपथपाई। फिर उसे अपने हाथों से सुच्चे मोतियों की लड़ी भेंट की।

इसके बाद राज्य के कलाकारों की बारी आई। सबने अपनी एक से एक उत्कृष्ट कलाकृतियाँ राजा कृष्णदेव राय को भेंट कीं। कुछ ने सुंदर चित्र भेंट किए, किसी ने काले पत्थर और कीमती धातु की मूर्तियाँ। राजा हर कलाकृति को खुद निरखते, फिर सभी आगंतुकों के सामने प्रदर्शन के लिए रख दिया जाता। कलाकारों को एक से एक सुंदर और बेशकीमती उपहार दिए जा रहे थे।

इसके बाद नगर के गणमान्य लोगों ने राजा को अपने उपहार भेंट किए। किसी कवि ने राजा कृष्णदेव राय की प्रशस्ति में पूरा ग्रंथ रच दिया था। उसने वह ग्रंथ भेंट करते हुए, राजा की प्रशंसा में रचे गए कुछ छंद पढ़े तो जोरदार तालियाँ बजने लगीं। राजा ने विनम्रता के साथ सिर झुकाकर सुकवि का अभिवादन किया।

दरबारी भी इस अवसर पर एक से एक कीमती उपहार लेकर आए थे। वे एक-एक कर राजा कृष्णदेव राय के पास जाते और अपना उपहार भेंट करते।

कार्यक्रम समाप्त होने पर था, तभी राजा का ध्यान गया। बोले, "तेनालीराम कहीं नजर नहीं आ रहा। जरा देखो तो, वह कहाँ अटक गया...?"

मंत्री को तो इसी अवसर की प्रतीक्षा थी। बोला, "महाराज, आप तो जानते ही हैं, तेनालीराम को तो बस लेने की आदत है, देने की नहीं। उपहार न देना पड़े, इसलिए आज वह आया ही नहीं।"

एक मुँहलगे दरबारी ने कहा, "रहने दीजिए महाराज। उस विदूषक के बिना क्या हमारे महान राज्य का महान स्थापना दिवस समारोह पूर्ण न होगा? वह अपने घर ही बैठा रहे तो अच्छा है। वैसे भी वह करता ही क्या है? दो-चार उलटी-सीधी बातें कहकर सबको मूर्ख बना देता है। आप इतनी तारीफ करते हैं, इसी से उसका दिमाग अब ठिकाने नहीं है...!"

पर उस मुँहलगे दरबारी की बात अभी पूरी भी न हुई थी कि सबका ध्यान प्रवेश-द्वार की ओर चला गया। वहाँ अजब दृश्य था। सिर पर लाल रंग की बड़ी सी पोटली लादे, तेनालीराम तेजी से चला आ रहा था। उसे देखकर दरबारी हँसने लगे। राजा कृष्णदेव राय की भी हँसी छूट गई। बड़ी कौतुक भरी नजरों से वे तेनालीराम की ओर देखने लगे।

विदेशों से आए सम्मानित अतिथि, विद्वान और कलावंत भी हैरान थे, "क्या यही वह तेनालीराम है, जिसकी बुद्धिमत्ता की प्रशंसा करते लोग नहीं थकते? पर यह तो पूरा औघड़ है। लगता ही नहीं कि...!"

पर तेनालीराम का ध्यान तो कहीं और था। उसने पास आकर राजा कृष्णदेव राय को प्रणाम किया और आराम से बैठकर पोटली खोलने लगा। बड़ी सी लाल रंग की पोटली। भला उसमें से कौन सा जादू का पिटारा निकलने वाला था? राजा समेत सभी उत्सुकता से देख रहे थे कि तेनालीराम अब कौन सा कमाल दिखाने वाला है? पोटली खोलते ही उसमें से काले रंग का एक खूबसूरत हाथी दिखाई दिया। सूँड़ उठाए लकड़ी का वह हाथी इतना सुंदर था कि राजा समेत सभी उसकी प्रशंसा करने लगे।

"ठहरिए महाराज, अभी प्रशंसा बाद में कीजिए।" कहकर तेनालीराम ने हाथी के पैरों के पास कुछ फूल रख दिए। फिर कहा, "भई हाथीराम, हमारे दयानिधान राजा कृष्णदेव राय का अभिवादन करो।"

सुनते ही हाथी ने अपनी सूँड़ हिलाई और नीचे रखा एक फूल उठाया। फिर सूँड़ उठाकर उसे राजा कृष्णदेव राय की ओर उछाल दिया।

देखते ही पूरा सभामंडप तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। राजा कृष्णदेव राय भी प्रफुल्ल थे। उन्होंने पूछा, "यह इतना सुंदर हाथी तुम्हें मिला कहाँ से तेनालीराम?"

तेनालीराम बोला, "महाराज, मेरे परदादा बहुत अच्छे काष्ठ शिल्पकार थे। उनकी बनाई हुई यह दुर्लभ कलाकृति है। जन्मदिन पर आपको भेंट देने के लिए मैं गाँव गया और बरसों से सँभालकर रखी हुई कलाकृति ले आया। इसमें मेरे परदादा की यादें भी बसी हैं। इसलिए सोचा, आपको भेंट देने के लिए इससे ज्यादा कीमती वस्तु मेरे पास कोई और नहीं है।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय की आँखें खुशी से चमक उठीं। बोले, "आज का सबसे अच्छा उपहार यही है। तेनालीराम का यह बेशकीमती उपहार महल के मेरे निजी कक्ष में रखा जाए, जिससे मैं रोज इसे देख सकूँ। क्योंकि इसे देखकर लगता है, हमारे राज्य में गाँवों में भी कितनी ऊँची कला है। मैं चाहता हूँ, हमारे कलाकारों की नौजवान पीढ़ी इस कला को आगे बढ़ाए, ताकि दूर-दूर तक लोग हमारी कला और कलाकृतियों की प्रशंसा करें!"

राजा एक क्षण के लिए रुके। फिर प्यार से तेनालीराम की ओर देखकर बोले, "और हाँ, सभा में उपस्थित सज्जनो! तेनालीराम की बुद्धिमत्ता का नमूना तो आपने देख ही लिया, जिसने बिना कुछ कहे, कितनी अच्छी बात सुझा दी।...अब आप समझ गए होंगे, तेनालीराम मुझे इतना अधिक क्यों प्रिय है।"

कहते-कहते राजा कृष्णदेव राय ने अपने गले से मोतियों का हार उतारकर तेनालीराम को पहना दिया।

यह देख, खूब सज-धजकर आए चाटुकार दरबारियों के चेहरों का रंग उड़ गया। बेचारे समझ नहीं पा रहे थे कि हर बार वे नया जाल बुनते हैं, पर तेनालीराम उसमें फँसने के बजाय उलटा उन्हें पटकनी कैसे दे देता है!

समारोह से लौटते हुए विजयनगर की प्रजा ही नहीं, बाहर से आए अतिथियों के मुख पर भी बस, तेनालीराम के अनोखे उपहार की ही चर्चा थी।

28

हमारे राजा तो बहुत अच्छे हैं पर...!

राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों में तेनालीराम को राजा जितना चाहते थे, प्रजा भी उतना ही पसंद करती थी। बाकी दरबारी तो अपनी शान-शौकत और कद बढ़ाना चाहते थे, पर तेनालीराम हमेशा प्रजा की भलाई की बात सोचता था। इसलिए प्रजा उसे जी-जान से चाहती और प्यार करती थी। लेकिन इसी कारण वह दूसरे दरबारियों की आँख की किरकिरी भी बन गया था। कई बार तो बड़ी अजीबोगरीब घटनाएँ हो जातीं। यहाँ तक कि तेनालीराम को अपमान का घूँट भी पीना पड़ता। पर फिर भी वह अपनी चतुराई से कोई न कोई राह निकाल ही लेता था।

एक बार की बात है, राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। पर उस दिन तेनालीराम छुट्टी पर था। दरबार में विजयनगर की प्रजा की हालत को लेकर बात हो रही थी। तभी अचानक मंत्री ने कहा, "महाराज, विजयनगर की प्रजा काफी खुशहाल है। अगर हम थोड़ा कर और बढ़ा दें, तो प्रजा पर ज्यादा भार नहीं पड़ेगा। पर इससे राजकोष बहुत बढ़ जाएगा। तब हम विजयनगर के विकास के लिए और भी बहुत-से काम कर पाएँगे।"

राजा ने दरबारियों से पूछा, तो सभी ने मंत्री की हाँ में हाँ मिलाई। सब दरबारी जानते थे कि तेनालीराम के सामने उनकी चल नहीं पाएगी। इसलिए वे चाहते थे कि उसके पीछे ही फैसला हो जाए।

राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, "महाराज, विजयनगर की प्रजा अच्छी तरह जानती है कि आप तो रात-दिन उसकी भलाई की ही बात सोचते हैं। पर बिना धन के तो कोई भी काम नहीं होता। यह प्रजा भी जानती है। इसलिए अगर आप थोड़ा सा कर बढ़ाएँगे, तो वह विजयनगर की प्रगति के लिए खुशी-खुशी कर देगी, और विजयनगर की तरक्की देखकर आपका प्रशस्ति गान भी गाएगी।"

पर राजा कृष्णदेव राय संकोच में थे। सोच रहे थे, "क्या सचमुच लोग बढ़ा हुआ कर दे पाने की स्थिति में हैं? कहीं हमारी प्रजा में ही कुछ लोग ऐतराज तो न करेंगे?"

उन्होंने अपनी शंका दरबारियों के आगे रखी। इस पर एक मुँहलगे दररबारी ने कहा, "महाराज, इक्का-दुक्का लोग तो ऐतराज करेंगे ही। पर उनकी क्यों चिंता की जाए? अगर ज्यादातर लोग खुश हैं तो गिनती के दो-चार लोग कुछ भी बोलते रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर थोड़े से लोगों के लिए राज्य का विकास रोका तो नहीं जा सकता न!"

राजा कृष्णदेव राय अब भी पसोपेश में थे। उन्होंने कहा, "कुछ दिन बाद तेनालीराम आ जाएगा। हम उसकी भी राय जान लें। तभी कोई निर्णय ठीक रहेगा।"

इस पर मंत्री ने कहा, "महाराज, आप तो उसकी आदत जानते ही हैं। उसकी वही बाबा आदम के जमाने की पुरानी-धुरानी सोच है, इसलिए वह हर काम में अड़ंगा लगाता है। जरूर इसमें भी वह तीन-पाँच करेगा। मगर महाराज, विजयनगर की तरक्की का सवाल है, जिसे देखने देश-विदेश से हर साल इतने लोग आते हैं। विजयनगर में कोई नयापन न होगा, तो उन्हें कैसा लगेगा? इसलिए महाराज, मैं तो कहता हूँ, बढ़े हुए करों की घोषणा तत्काल कर दी जाए, तो अच्छा रहेगा।"

आखिर राजा कृष्णदेव राय को भी यह बात माननी पड़ी। उसी दिन मुनादी करवा दी गई कि अब विजयनगर की प्रजा को बढ़ा हुआ कर देना होगा।

कुछ दिनों बाद तेनालीराम राजदरबार में आया तो राजा ने कहा, "तेनालीराम, पिछले दिनों हमने प्रजा पर थोड़ा सा कर बढ़ाया है। जरा पता करके बताओ, इस बारे में प्रजा का क्या सोचना है?"

इस पर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, "महाराज, मैंने तो पता कर लिया। जिस समय कर बढ़ाने की घोषणा की गई थी, मैं गाँव में ही था। वाकई विजयनगर की प्रजा इतनी खुशहाल है कि आपकी प्रशंसा करते नहीं थकती। आप चाहें तो खुद चलकर अपनी आँखों से देख लें।"

राजा ने खुश होकर कहा, "अच्छा, तब तो कल ही मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।"

तेनालीराम बोला, "महाराज, अच्छा हो अगर आप दरबारियों को साथ न लें, बगैर लाव-लश्कर के चलें। तब आप प्रजा के हृदय की बात सुन पाएँगे।"

राजा कृष्णदेव राय को बात जँच गई। बोले, "ठीक है तेनालीराम। कल जरूर चलेंगे। और हमारी यात्रा भी गोपन ही रहेगी।"

अगले दिन राजा कृष्णदेव राय और तेनालीराम वेश बदलकर निकले। दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार। तेजी से घोड़ा दौड़ाते हुए राजा आसपास हर जगह नजर डाल रहे थे। पर गाँवों में वैसी खुशहाली तो कहीं भी न थी, जिसकी बात तेनालीराम ने कही थी। तो क्या तेनालीराम ने सच नहीं कहा था?

एक जगह गाँव के किसान-मजदूर बैठे बात कर रहे थे। तेनालीराम ने इशारा किया तो राजा कृष्णदेव राय भी घोड़े से उतर पड़े। दोनों दीवार की ओट में खड़े होकर बातें सुनने लगे। मैले और फटे-पुराने कपड़े पहने एक आदमी ने कहा, "इस बार कर बढ़ाकर राजा ने अच्छा नहीं किया। लगता है, कर देते-देते कमर टूट जाएगी।"

दूसरे ने कुछ सोचते हुए कहा, "हमारे राजा तो बहुत अच्छे हैं, पर लगता है, किसी चाटुकार दरबारी ने उन्हें गलत सलाह दे दी है। अकसर दरबारों में ऐसे चाटुकार दरबारी ही जनता की मुसीबत बढ़ा देते हैं।"

तीसरे ने कहा, "जो भी कहो भैया, मुसीबत अब सिर पर आ गई, तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा। पहले साल में दो जोड़ी कपड़े खरीदते थे। अब एक ही ले पाएँगे। थिगलियाँ लगाकर उसी में गुजारा कर लेंगे।" कहते-कहते उसकी आवाज रोने जैसी हो गई।

चौथे ने दुखी होकर कहा, "बस भाई, क्या कहें? पहले कभी-कभार घी-दूध के दर्शन हो जाते थे। अब सूखी पर ही गुजारा करेंगे।"

पाँचवें ने एक आह भरते हुए अपनी मजबूरी बताई, "बेटी का विवाह सिर पर है और महँगाई अभी से बढ़ गई। पता नहीं क्या होगा? अब तो भगवान का ही सहारा है।"

उनमें एक बूढ़ा आदमी भी था। बोला, "देखो भाई, मैं राजा कृष्णदेव राय से बस एक ही बार मिला हूँ, जब वे फागुनी मेले के समय इस गाँव में आए थे। तब उन्होंने थोड़ी देर मुझसे बात की थी और गाँव के हालचाल पूछे थे। उसी से मैं समझ गया कि वे दिल के बहुत अच्छे हैं। इसलिए सच्ची पूछो तो भाई, मुझे अब भी लगता है, हमारे दयानिधान राजा कृष्णदेव राय फिर से सोचेंगे। वे प्रजा का दुख देख ही नहीं सकते।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय द्रवित हो गए। उन्होंने तेनालीराम को इशारा किया। दोनों वापस राजदरबार में लौट आए। राजा ने तुरंत बढ़ा हुआ कर वापस लेने की घोषणा करवा दी।

मंत्री और चाटुकार दरबारी हैरान थे कि एकाएक उनकी सारी मेहनत कैसे बेकार हो गई। वे चाहते थे, जनता परेशान होकर उनके पास आए और नाक रगड़े। तब मदद के नाम पर वे उनसे और पैसा झटकें। साथ ही राजा से कहकर अपना वेतन और भत्ते भी बढ़वा लें।...पर आखिर सब गुड़ गोबर हो गया। जरूर तेनालीराम ने ही कोई उलटा मंत्र पढ़ा होगा।

उधर जनता भी बिन कहे समझ रही थी कि यह तेनालीराम का ही करिश्मा है। तभी तो अचानक राजा का मन बदल गया और उन्होंने प्रजा का खयाल करके, बढ़ा हुआ कर वापस ले लिया। घर-घर राजा कृष्णदेव राय और तेनालीराम की प्रशंसा में गीत गाए जा रहे थे।

29

लेकिन कौन संन्यास ले रहा है?

राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम को नीचा दिखाने की कोशिश करते थे, पर तेनालीराम की चतुराई के कारण हर बार उन्हें मुँह की खानी पड़ती। आखिर हारकर उन्होंने महारानी के कान भरे।

एक पुराने दरबारी रंगाचार्य का गाँव की रिश्तेदारी के नाते महारानी से कुछ परिचय था। बस, उसे तेनालीराम से अपनी खुंदक निकालने का अच्छा मौका मिल गया। देर तक वह महारानी से तेनालीराम को लेकर बहुत कुछ उलटा-सीधा कहता रहा। फिर बोला, "महारानी जी, तेनालीराम अपने सामने किसी को नहीं गिनता। कह रहा था, राजा तो मुझे इतना चाहते हैं कि महारानी की बात भले ही टाल दें, मेरी बात कभी नहीं टालते।"

सुनकर महारानी को बहुत क्रोध आया। बोलीं, "अच्छा, ऐसा कहा तेनालीराम ने? उसकी इतनी हिम्मत...?"

"अरे महारानी जी, उसकी हिम्मत की बात न पूछो। वह एक नहीं, बीसियों से यह बात कह चुका है। और कहे भी क्यों न, राजा का मुँहलगा जो है। राजा कृष्णदेव राय ने तारीफ कर-करके उसका दिमाग खराब कर दिया है। अब वह किसी को अपने आगे कुछ समझता ही नहीं।"

"हूँ...! ठीक है, तुम जाओ। मैं देखती हूँ, कब तक उसका दिमाग सही नहीं होता।" महारानी ने अपने गुस्से पर किसी तरह काबू पाकर कहा।

उसी समय महारानी ने तय कर लिया कि चाहे जो हो, तेनालीराम को राजदरबार से निकालना ही होगा।

अब राजा कृष्णदेव राय जब महल में आते, महारानी किसी न किसी तरह तेनालीराम की बुराई करके, उसे राजदरबार से निकालने के लिए कहतीं। राजा ने उन्हें बहुत समझाया, "देखो महारानी, तेनालीराम बुरा नहीं है। वह खरी बात कहता है और हमेशा प्रजा के हित की बात कहता है, इसलिए बहुत से दरबारी उससे चिढ़ते हैं। पर वह मेरा दाहिना हाथ है।"

पर महारानी पर कोई असर नहीं पड़ा। उनकी जिद खत्म होने में ही नहीं आती थी। बार-बार एक ही बात कहतीं, "आप तेनालीराम को राजदरबार से निकाल बाहर कीजिए। बस, मैं आपसे कुछ और नहीं माँगती।"

राजा कृष्णदेव राय काफी परेशान हो गए। आखिर वे बिना बात तेनालीराम को राजदरबार से कैसे बाहर निकाल दें, जबकि उनका सबसे ज्यादा उसी पर भरोसा था? पर महारानी की जिद बरकरार रही।

एक दिन राजा महल से दरबार जा रहे थे। तभी महारानी पास आकर बोलीं, "क्या आप मेरी यह छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकते?"

राजा ने परेशान होकर कहा, "पर उसकी जगह कौन लेगा? उस जैसा बुद्धिमान हमारे राज्य में कोई और नहीं है।"

सुनकर महारानी एक क्षण चुप रहीं। फिर कहा, "अच्छा, उससे आप कहें कि वह मुझे बुलाकर दरबार में ले आए। अगर वह इसमें कामयाब हो गया, तो मैं उसे चतुर मान लूँगी।"

राजा ने चुपचाप 'हाँ' में सिर हिलाया और दरबार की ओर चल दिए।

दरबार में आकर राजा ने तेनालीराम से कहा, "तुम अभी राजमहल में चले जाओ। जाकर महारानी को दरबार में बुला लाओ।"

तेनालीराम को लगा कि राजा मजाक कर रहे हैं, पर उनकी गंभीर मुखमुद्रा देखकर वह परेशान हो गया।

"पर...पर महाराज, महारानी जी दरबार में क्या करेंगी?" तेनालीराम भौचक्का होकर बोला, "वे तो कभी दरबार में आती नहीं हैं।"

"तुमने सुन लिया न, कि मैंने क्या कहा है?" राजा कृष्णदेव राय किंचित रोष में आकर बोले। फिर उन्होंने दोहराया, "तुम अभी राजमहल में चले जाओ और महारानी को दरबार में बुलाकर ले आओ।"

सुनकर तेनालीराम चकराया, आज महाराज ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? वह समझ गया कि जरूर इसके पीछे दरबारियों की कोई नई चाल है। पर अब कुछ न कुछ तो करना होगा।

तेनालीराम उसी समय राजमहल की ओर चल दिया। वह रास्ते में यही सोचता जा रहा था कि क्या महारानी दरबार में आने को राजी होंगी? उन्हें क्या कहकर दरबार में आने के लिए राजी किया जाए?

आखिर तेनालीराम महल में पहुँचा। महारानी को देखते ही रोनी सूरत बनाकर बोला, "महारानी जी...महारानी जी, सब कुछ खत्म हो गया। अब तो आप ही कुछ कर सकती हैं। अगर आप बचा सकतीं हैं तो बचा लें। नहीं तो...?"

"क्या? क्या खत्म हो गया तेनालीराम?...मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा।" तेनालीराम की बात सुनते ही महारानी का दिमाग चकरा गया। बोलीं, "बात क्या है तेनालीराम? तुम बताते क्यों नहीं हो? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा!"

तेनालीराम उसी तरह करुण स्वर में बोला, "महारानी जी, राजा संन्यास ले रहे हैं। उन्होंने अभी थोड़ी देर पहले हम सबसे कहा है कि अब संसार में मेरा मन नहीं लगता। यहाँ हर आदमी केवल अपने स्वार्थ की बात करता है। कोई सच्चा नहीं है, इसलिए मैं संन्यास ले रहा हूँ। अब तो जंगल में जाकर तपस्या करूँगा।"

महारानी ने अधीरता से कहा, "ऐसी क्या बात हो गई? शायद सुबह मैंने जो बात कह दी थी, वह उन्हें चुभ गई। पर...पर इसका मतलब यह तो नहीं कि वे राजपाट छोड़कर संन्यास ले लें। यह तो कोई बात नहीं हुई।"

फिर एकाएक हड़बड़ी में बोलीं, "नहीं...नहीं, मैं उन्हें संन्यास नहीं लेने दूँगी। जरा रुको तेनालीराम। मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ, राजा को समझाऊँगी। शायद वे मेरी बात मान लें।"

तेनालीराम अकुलाकर बोला, "जल्दी करें महारानी जी, कहीं ऐसा न हो कि वे जंगल की ओर निकल जाएँ। फिर तो...!"

महारानी झटपट तैयार होकर तेनालीराम के साथ चल दीं। उनके मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे।

पर जैसे ही वे दरबार में पहुँचीं, चौंक उठीं। राजा कृष्णदेव राय तो बिल्कुल ठीक-ठाक और प्रसन्न बैठे थे। दरबारियों से बातचीत कर रहे थे।

महारानी वहाँ जाकर बोलीं, "महाराज, आप कृपया संन्यास न लें। अगर आपको मेरी जिद बुरी लगती है तो मैं तेनालीराम को निकालने की बात नहीं कहूँगी। आगे से राजकाज में मैं बिल्कुल दखल नहीं दूँगी। लेकिन आप संन्यास लेने की बात मन से निकाल दें। मैं आपको संन्यास नहीं लेने दूँगी।" कहते-कहते उनका स्वर दुख से पसीज गया।

"कैसा संन्यास!...कौन संन्यास ले रहा है?" राजा कृष्णदेव राय चौंके। बोले, "मैंने तो संन्यास लेने की बात नहीं कही, महारानी जी।"

तभी अचानक उन्हें समझ में आया कि तेनालीराम आखिर क्या कहकर महारानी को दरबार में लाया होगा।

बस, अब कुछ भी समझना बाकी नहीं था। तेनालीराम की चतुराई ने उन्हें मुग्ध कर दिया। राजा हँसकर बोले, "महारानी जी, मैं कोई संन्यास नहीं ले रहा। पर तेनालीराम आपको दरबार में ले ही आया। अब तो आपको जिद छोड़ देनी होगी।"

सुनकर महारानी पसीने-पसीने हो गईं। फिर हँसकर बोलीं, "वाकई तेनालीराम, तुम्हारा जवाब नहीं। तुम जीते, मैं हारी। अब मैं कभी दूसरे दरबारियों के कहने में आकर तुम्हें दरबार से निकालने की बात नहीं कहूँगी।"

सुनकर मंत्री और रंगाचार्य समेत सभी चापलूस दरबारियों के चेहरे उतर गए। बेचारे इधर-उधर मुँह छिपा रहे थे। दूर खड़ा तेनालीराम चुप-चुप मुसकरा रहा था। उसने एक बार फिर अपनी चतुराई से चापलूस दरबारियों को मात दे दी थी।

अगले दिन महारानी के दरबार में आने की बात देखते ही देखते पूरे विजयनगर की प्रजा में फैल गई। सबके होंठों पर यही सवाल था कि भला महारानी को दरबार में आने की क्या जरूरत थी? पर जब लोगों को पता चला कि इसके लिए तेनालीराम को कैसा विचित्र नाटक करना पड़ा, तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।

30

और चिड़ियों ने जी भरकर खाया

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में ज्यादा काम नहीं था। फुर्सत के क्षणों में राजा कृष्णदेव राय दरबारियों से गपशप कर रहे थे। दरबारी भी बीच-बीच में किसी बहाने से अपनी काबलियत और स्वामिभक्ति का बखान कर रहे थे। कुछ ने चाटुकारिता भी शुरू कर दी थी, पर तेनालीराम चुप बैठा था। उसे भला अपने बारे में कहने की क्या जरूरत थी?

मंत्री तथा कुछ और दरबारियों ने तेनालीराम की ओर देखकर छींटाकशी की कोशिश की। पर तेनालीराम तब भी कुछ नहीं बोला। वहीं बैठा चुप-चुप मुसकराता रहा।

इस पर खुद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की जमकर तारीफ की। साथ ही यह भी कहा, "तेनालीराम हमारे दरबार का सबसे कीमती हीरा है जिसका मोल अब सारी दुनिया समझ गई है। इशारों-इशारों में बड़ी बात कह देना कोई चाहे तो तेनालीराम से सीख सकता है।"

पर तेनालीराम की इतनी प्रशंसा सुनकर मंत्री और राजपुरोहित दोनों कुढ़ रहे थे। मंत्री ने कहा, "महाराज, तेनालीराम चतुर तो है, पर कंजूस और स्वार्थी भी कम नहीं है।"

राजा चौंके। बोले, "अरे ऐसा! मुझे तो पता नहीं था।"

मंत्री बोला, "महाराज, पुरोहित जी से पूछिए। उन्होंने मुझे तेनालीराम का एक बड़ा अजीब किस्सा सुनाया था।"

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने राजपुरोहित की ओर देखा। राजपुरोहित ताताचार्य बोले, "महाराज, एक बार मैं तेनालीराम के साथ भ्रमण के लिए गया था। मौसम अच्छा था। हमने तय किया था कि दिन भर घूमेंगे। कुशा नदी के जल में स्नान करेंगे। बाद में कहीं स्वयं भोजन तैयार करेंगे। फिर खा-पीकर टहलते हुए लौटेंगे। उस दिन तेनालीराम ने मुझे भूखा मार दिया। जो भी भोजन था, अकेले डकार गया।"

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, "क्यों तेनालीराम, क्या पुरोहित जी ठीक कह रहे हैं?"

तेनालीराम हँसा। बोला, "कुछ ठीक, कुछ बे-ठीक!"

राजा ने झल्लाकर कहा, "भई, पहेलियाँ न बुझाओ। ठीक-ठीक बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो?"

तेनालीराम बोला, "महाराज, यह ठीक है कि मैं और पुरोहित जी साथ-साथ घूमने निकले थे। नदी में स्नान करने के बाद मैंने कहा कि चलिए, अब मिलकर भोजन तैयार करें। पर पुरोहित जी ने कहा कि तेनालीराम, न मुझे खाना बनाना आता है, न चूल्हा जलाना आता है। मुझे कुछ भी नहीं आता! इतना कहने के बाद पुरोहित जी मजे में एक पेड़ के नीचे सो गए।"

"फिर क्या हुआ?" राजा ने उत्सुकता से भरकर पूछा।

तेनालीराम बोला, "महाराज, मैंने चूल्हा जलाकर रोटियाँ सेकीं, खूब स्वादिष्ट खीर बनाई, पर पुरोहित जी सोते ही रहे। लिहाजा मैंने आधा खाना एक टोकरी में रखा, बाकी आधा खुद खा लिया। इसके बाद मैं पुरोहित जी को जगाने की सोच ही रहा था कि तभी चीं-चीं-चीं करती बहुत सी चिड़ियाँ और कौए वहाँ आ गए। अचानक मुझे ध्यान आया कि पुरोहित जी ने कहा था कि उन्हें चूल्हा जलाना, खाना बनाना, कुछ भी नहीं आता, तो शायद उन्हें खाना खाना भी न आता हो! केवल हवा पीकर ही रहते हों। फिर वे तो इतने उदार भी हैं कि उनके बजाय अगर मैं चिड़ियों को खिला दूँ तो उन्हें ज्यादा खुशी होगी! लिहाजा सारा खाना मैंने चिड़ियों और कौओं को खिला दिया। बताइए, इसमें मेरी क्या गलती है?"

सुनते ही राजपुरोहित की ओर देख, राजा कृष्णदेव राय और सब सभासद हँसने लगे।

तेनालीराम बोला, "जब पुरोहित जी उठे तो मैंने उन्हें सब कुछ ठीक-ठीक बता दिया। मैंने सोचा था कि चिड़ियों और कौओं को खिलाने की बात सुनकर वे खुश होंगे, पर वे तो उलटे लाठी लेकर मेरे पीछे दौड़े। बड़ी मुश्किल से जान बचाकर मैं दरबार तक आ पाया!"

अब तो राजपुरोहित जी की हालत और भी खराब थी। तेनालीराम की किरकिरी करने चले थे, पर खुद अपनी ही बेइज्जती करा बैठे।

दरबार में सभी तेनालीराम की हाजिरजवाबी की तारीफ कर रहे थे।

राजा कृष्णदेव राय ने हँसते हुए कहा, "यही तो मैं भी कह रहा था कि इशारों-इशारों में बड़ी बात कह देना हमारे दरबार में सिर्फ तेनालीराम को आता है। दूसरे भी चाहें तो उससे सीख सकते हैं।"

सुनकर चाटुकार दरबारियों के चेहरे उतर गए। तेनालीराम मंद-मंद मुसकरा रहा था।

31

लाभचंद ने क्यों सिलवाई थैली?

राजा कृष्णदेव राय जितने उदार हृदय के थे, उतने ही न्यायप्रिय भी। गरीब प्रजा को न्याय दिलाने के लिए कई बार उन्हें कठोर निर्णय लेने पड़ते थे। इसलिए प्रजा उनका जय-जयकार करती थी। अकसर राजा खुद सारे मामलों की सुनवाई करते थे, पर कभी कोई ज्यादा पेचीदा मामला आ जाता तो वे तेनालीराम की मदद लेते थे। तेनालीराम की चौकन्नी निगाहों से कोई अपराधी बच नहीं पाता था। वह न्याय करने बैठता तो दूध का दूध, पानी का पानी कर देता। इस कारण प्रजा तो उसे चाहती ही थी, दरबारियों की निगाह में भी उसका कद ऊँचा उठता जा रहा था।

एक दिन की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक अजीब सा मामला आया। गंगाराम नाम के एक आदमी ने आकर कहा, "महाराज, व्यापारी लाभचंद ने मेरे साथ ठगी की। मेरे सोने के सिक्के लेकर बदले में मुझे लोहे के नकली सिक्के पकड़ा दिए।"

राजा कृष्णदेव राय के पूछने पर उसने सारी बात बताई, "महाराज, मैंने बड़ी मुश्किल में बुढ़ापे के लिए धन जमा किया था। कुछ समय पहले मैं तीर्थ-यात्रा करने निकला, तो मैंने लाभचंद से कहा कि वह मेरे रुपयों की थैली रख ले। लौटकर मैंने थैली ली और खुशी-खुशी घर लौट आया। पर घर आकर देखा, तो उसमें लोहे के सिक्के भरे हुए थे। मैंने तुरंत वापस जाकर व्यापारी से कहा, तो उसने उलटे मुझे फटकारा। इसीलिए अब दरबार में आकर कहना पड़ रहा है।"

गंगाराम रोंआसा होकर बता रहा था। बताते हुए उसकी आँखें भी छलछला आईं।

सुनकर राजा एकदम गंभीर हो गए। उन्होंने कुछ देर सोचा, फिर तेनालीराम को सचाई का पता लगाने के लिए कहा।

तेनालीराम ने गंगाराम के हाथ से नकली सिक्कों की थैली ली। उसे गौर से उलट-पुलटकर देखा। थैली में उसे कोई जोड़ या अलग से सिलाई नजर नहीं आई। उसने गंगाराम से पूछा, "जब थैली तुम्हें मिली, तो वह किस हालत में थी? क्या उसे खोला गया था?"

इस पर गंगाराम ने कहा, "थैली तो वैसी ही थी, जैसी मैंने दी थी। पर सिक्के बदले हुए थे।"

सुनकर तेनालीराम सोच में पड़ गया। उसने सिक्के निकालकर थैली अलग की। फिर शहर के सब दर्जियों को बुलाकर सबको वैसी ही थैली सीकर लाने के लिए कहा।

अगले दिन तक सबने अपनी-अपनी थैली सीकर दी। सबमें कुछ न कुछ फर्क था, पर एक ठीक वैसी ही थी, जैसी गंगाराम की थी। उसे सिया था सुम्मा दर्जी ने। तेनालीराम ने सुम्मा दर्जी को अलग बुलाकर पूछा, "क्या तुमने पहले भी ऐसी कोई थैली सी है?"

सुम्मा बोला, "हाँ, कुछ रोज पहले व्यापारी लाभचंद के कहने पर मैंने ठीक ऐसी ही एक थैली सीकर दी थी। सेठ जी रात के समय मेरे पास वह थैली सिलवाने के लिए आए थे। उन्होंने उस थैली को सीने के मुझे दोगुने पैसे दिए थे और कहा था कि देखो सुम्मा, यह बात किसी को बताना मत!"

उसी समय तेनालीराम ने लाभचंद को बुलाया। सुम्मा दर्जी को सामने बैठाकर पूछा, "इन्होंने आपके लिए हू-ब-हू वैसी ही थैली सीकर दी थी, जैसी गंगाराम की थी। आप जरा बताइए तो, आपको वैसी ही दूसरी थैली की क्यों जरूरत पड़ गई? और आपने चोरी-चोरी, रात के अँधेरे में यह थैली क्यों सिलवाई?"

सुनकर लाभचंद के चेहरे का रंग उड़ गया। असलियत खुल चुकी थी। उसने उसी समय अपना अपराध कुबूल कर, राजा कृष्णदेव राय से क्षमा माँगी। राजा के आदेश पर उसे सोने के दोगुने सिक्के लौटाने पड़े।

न्याय पाकर गंगाराम खुश-खुश चला गया। राजा कृष्णदेव राय ने उसी समय अपने गले से सोने का हार उतारकर तेनालीराम को पहना दिया। बोले, "सचमुच तेनालीराम, तुम्हारी सूझ-बूझ का जवाब नहीं!"

विजयनगर की प्रजा के बीच भी यह किस्सा पहुँचा। लोग तेनालीराम की बड़ाई करते हुए एक-दूसरे से कह रहे थे, "सचमुच तेनालीराम विजयनगर का रत्न है!"

32

चल नहीं पाया बहुरूपिए का जादू

विजयनगर में अपनी-अपनी विलक्षण कला का प्रदर्शन करने वाले कलावंत अकसर आया करते थे। राजा कृष्णदेव राय उनकी काफी कद्र करते थे और उन्हें उचित पुरस्कार देकर विदा करते थे। पर कभी-कभी बड़ी अजीबोगरीब घटनाएँ भी घट जाती थीं। विजयनगर की प्रजा उन्हें भूलती नहीं थी। लोग बार-बार उन किस्सों को एक-दूसरे को तथा दूसरे राज्यों से आने वाले मेहमानों को सुनाया करते थे।

एक बार ऐसा ही एक मजेदार किस्सा हुआ, जिसे याद करके बाद में भी राजा कृष्णदेव राय और दरबारियों को हँसी आ जाती थी। हुआ यह कि एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक बहुरूपिया आया। बोला, "महाराज, मैं कमालपुर राज्य से आया हूँ। मुझ जैसा बहुरूपिया दुनिया में कोई और नहीं है। आप कहें, तो मैं अपनी अनोखी कला का प्रदर्शन करूँ?"

राजा ने उसे अगले दिन राज उद्यान में अपना हुनर दिखाने के लिए कहा।

कार्यक्रम के लिए राज उद्यान में विशाल शामियाना लगाया गया। एक विशाल मंच भी बनाया गया, जहाँ बहुरूपिए को अलग-अलग वेश धारण करके, अपनी कला दिखानी थी। राजधानी के प्रमुख कलाकारों, विद्वानों, व्यापारियों और अन्य सम्मानित लोगों को भी आमंत्रित किया गया। राजा और प्रमुख दरबारियों के बैठने के लिए अलग आसन लगे थे।

अगले दिन राजधानी में सैकड़ों लोग बहुरूपिए का खेल देखने आ गए। राजा कृष्णदेव आते दिखाई दिए, तो मंत्री, सेनापति और पुरोहित ने आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हुए कहा, "आइए महाराज!"

पर तेनालीराम अपनी जगह पर ही खड़ा रहा।

मंत्री ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, "महाराज, लगता है, तेनालीराम को आपके आने से खुशी नहीं हुई।"

इस पर भी तेनालीराम कुछ बोला नहीं। अपनी जगह खड़ा-खड़ा मुसकराता रहा।

कुछ देर बाद राजा अपने सिंहासन पर बैठने लगे। तभी तेनालीराम ने आगे आकर कहा, "क्षमा करें, आपकी सही जगह यह नहीं है। आप मंच पर पधारें।"

"क्या मतलब...?" तेनालीराम की बात सुन, मंत्री समेत सबकी त्योरियाँ चढ़ गईं।

"मतलब साफ है।" तेनालीराम ने हँसते हुए कहा, "महाराज के स्थान पर महाराज बैठें और कलाकार अपने मंच पर...!"

इतने में शोर सुनाई दिया, "राजा आ गए...राजा आ गए!"

लोग हैरान थे, राजा तो अभी-अभी आ चुके, तो फिर दूसरे कृष्णदेव राय कहाँ से आ गए।

सामने राजा को अपना प्रतिरूप दिखाई दिया, तो वे चौंके। उन्हें क्रोध में देखा, तो राजा बने बहुरूपिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मैंने अपनी असाधारण कला का प्रदर्शन करने का वायदा किया था। सब पर मेरी कला का जादू चढ़ा, पर अकेला तेनालीराम है, जिसने मुझे पहचान लिया।"

राजा ने सुनकर तेनालीराम की ओर देखा तो वह बोला, "यह तो बहुत आसान था। इसलिए कि मुझे पता है कि हमारे दयानिधान सभा में आते हैं, तो किस तरह हौले से सिर हिलाकर सबका अभिवादन करते हैं। यह बहुरूपिया और कुछ भी सीख ले, पर वह अंदाज...! उसे तो वह सात जन्मों में भी नहीं सीख सकता।"

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। उन्होंने तेनालीराम को गले से लगा लिया।

बहुरूपिए को अपनी कला के लिए ढेर सारी अशर्फियाँ इनाम में मिलीं, पर तेनालीराम को उससे दोगुना इनाम मिला। मंत्री और दरबारियों के चेहरे देखने लायक थे।

विजयनगर की प्रजा ने भी इस किस्से का खूब आनंद लिया। लोग खूब रस ले-लेकर इस किस्से को आपस में तथा दूसरे राज्यों से आए अतिथियों को सुनाया करते थे।

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कितना अजब था वह विदूषक

तेनालीराम का जीवन यों ही चलता रहा। राजा कृष्णदेव राय तो पूरी तरह उसके मुरीद हो गए थे। विजयनगर ही नहीं, दूर-दूर के राज्यों में भी उसकी कीर्ति फैल गई। वह बेशक अपने समय का सबसे बुद्धिमान शख्स था। पर अंत तो सभी का आता है। और एक दिन तेनालीराम पर भी हम समय की काली छाया को मँडराते देखते हैं।

हुआ यह कि एक दिन तेनालीराम अपने घर के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। तभी अचानक एक झाड़ी के नीचे से विषैला साँप निकला। तेनालीराम कुछ समझ पाता, इससे पहले ही साँप ने उसे काटा और गायब हो गया।

तेनालीराम भीषण कष्ट के बावजूद चलकर घर तक आया। घर में आकर पत्नी को बताया, "मुझे साँप ने काट लिया है। लगता है, कोई विषैला सर्प रहा होगा। इसीलिए उसका दंश इतना गहरा है। जल्दी से राजा कृष्णदेव राय के पास संदेश भिजवाओ, ताकि वे राजवैद्य को भिजवा दें। नहीं तो मेरा बच पाना कठिन होगा।"

तेनालीराम की पत्नी ने उसी समय पड़ोस के युवक को राजा कृष्णदेव राय के दरबार में भेजा। पड़ोसी युवक ने राजदरबार में जाकर राजा कृष्णदेव राय से कहा, "महाराज, तेनालीराम को किसी विषैले साँप ने काट लिया है। उसका बच पाना बहुत कठिन है। जल्दी से राजवैद्य को भेजें तो शायद उन्हें बचाया जा सके।"

राजा कृष्णदेव राय ने सुना तो दुखी और उदास होने के बजाय उलटा उन्हें हँसी आ गई। बोले, "मैं समझ गया, यह भी चतुर तेनालीराम की कोई नई चाल है! वह ऐसे ही एक से एक अजब बहाने करता रहता है, ताकि दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींच सके। कुछ अरसा पहले उसके नदी में डूबकर मर जाने की खबर आई थी। फिर उसने रहस्यपूर्ण बीमारी की अफवाह फैलाई और सारे विजयनगर में यह चर्चा चल पड़ी कि तेनालीराम का अंतिम समय आ गया है। लेकिन अगले ही दिन वह राजदरबार में उपस्थित था। अब भी लगता है कि वह थोड़ी ही देर में हँसता-हँसता राजदरबार में आएगा और कहेगा कि महाराज, यह तो मैंने यों ही कहलवा दिया था, ताकि देखूँ कि मेरी मृत्यु की खबर पाकर आपको कैसा लगता है!"

तेनालीराम के पड़ोसी युवक ने फिर कहा, "महाराज, आज तो मैं अपनी आँखों से देखकर आ रहा हूँ। सचमुच तेनालीराम की हालत बड़ी नाजुक है। जिस पैर पर साँप ने काटा है, वह नीला पड़ गया है। उसके बचने के आसार बहुत कम हैं। कहीं ऐसा न हो कि आप बाद में पछताएँ!"

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए कहा, "लगता है, पंसारी की दुकान से वह जो नीला रंग लाया था, वह इतना ही था कि उसने पैर पर लगा लिया। ज्यादा होता तो शायद उसका पूरा शरीर ही अब तक नीला हो चुका होता।" सुनकर सारे राजदरबारी हँसने लगे।

पड़ोसी युवक ने फिर अपनी बात कहनी चाही, पर राजा कृष्णदेव राय इस कदर चुहल की मुद्रा में थे कि उन्होंने उसकी कोई बात सुनी ही नहीं। हारकर वह वापस चल पड़ा।

उधर चारपाई पर लेटे तेनालीराम को महसूस हो गया था कि अब उसका बच पाना असंभव है। यह शैया ही अब उसकी मृत्यु-शैया होने वाली है। सोचकर उसके चेहरे पर एक विचित्र किस्म की हँसी झलकने लगी। उसने मन ही मन कहा, 'कितनी अजीब बात है, राजा कृष्णदेव राय ने मेरा इतना सम्मान किया कि मेरी बात पर भरोसा करके वे बड़ा से बड़ा निर्णय ले लेते थे। पर एक-दो बार के हास-परिहास के कारण अब हालत यह है कि मेरी सच्ची बात भी उन्हें सच्ची जान नहीं पड़ती।...'

दर्द अब बहुत बढ़ता जा रहा था। किसी तरह होंठ भींचकर तेनालीराम ने उसे बर्दाश्त किया और धीरे से बुदबुदाया—

'मैं तो चला जाऊँगा, पर बाद में राजा कृष्णदेव राय को असलियत पता चलेगी तो वे बड़े दुखी होंगे।...पर मैं क्या करूँ? मैं कुछ नहीं कर सकता। ओह, मेरे जीवन की यह कैसी विडंबना है, जिसे मैं किसी को बता भी नहीं सकता। शायद लोगों ने मुझे विदूषक ही समझा और एक विदूषक की मृत्यु ऐसी ही विचित्र होती है। शायद मेरी मृत्यु भी मेरे परिहासपूर्ण कारनामों की तरह इसी तरह प्रजा में चर्चित हो जाए कि लोग कहें, अरे, तेनालीराम को बड़ी विचित्र मौत मिली!'

उधर तेनालीराम के पड़ोसी युवक के राजदरबार से लौटने पर राजा कृष्णदेव राय के मन में आया, 'कहीं ऐसा तो नहीं कि इस युवक द्वारा कही गई बात सही हो और मैं उसे मजाक समझ बैठा। कहीं तेनालीराम सचमुच संकट में न हो।'

यह सोचकर राजा कृष्णदेव राय बेचैन हो उठे। उन्होंने अपना शाही रथ मँगवाया और जल्दी से जल्दी तेनालीराम के घर की ओर चलने के लिए कहा। राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के घर पहुँचे तो वहाँ का शोकपूर्ण माहौल देखकर समझ गए कि उनसे कितनी बड़ी भूल हुई है।

वे लोगों की भीड़ को चीरते हुए तेनालीराम के पास पहुँचे तो उसके होंठों पर नजर आ रही विचित्र हँसी को देख अचंभित हो उठे। उन्होंने तेनालीराम को झिंझोड़ते हुए कहा, "तेनालीराम, तेनालीराम, तुम्हें क्या हुआ तेनालीराम? बताते क्यों नहीं हो? तुम तो हमेशा इतना बोलते थे, इतना बोलते थे कि कई बार मैं परेशान हो जाता था। पर आज...?"

पर तेनालीराम अब कहाँ था, वह तो जा चुका था। हाँ, उसके चेहरे पर अब भी वहीं व्यंग्यपूर्ण मुसकान थी, जो मानो कह रही थी, 'महाराज, देख लिया आपने, मैं विदूषक था। एक विदूषक की मृत्यु तो ऐसे ही होती है। कितनी विचित्र! मैं मर रहा था और आपको शायद हँसी आ रही थी। मैं मर रहा था और जीवन के अंतिम क्षणों में आपका दर्शन करने के लिए व्यग्र था, लेकिन आप...!'

उधर राजा कृष्णदेव राय शोकग्रस्त होकर विलाप कर रहे थे, "ओह तेनालीराम, तुमने जीवन भर मुझे हँसाया, तो अब रुला क्यों रहे हो? तुम मुझे इस तरह छोड़कर नहीं जा सकते। तुमने अपनी हास्य और चतुराई की बातों से मुझे कितना हँसाया, अपनी सूझ-बूझ से मेरे कितने ही संकटों को दूर किया, यहाँ तक कि शत्रुओं के षड्यंत्र से मेरे प्राण भी बचाए। तुम हमेशा कहा करते थे, महाराज, मैं तो छाया की तरह आपके साथ हूँ। फिर आज...इस तरह मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हो?"

वहाँ उपस्थित लोगों ने किसी तरह राजा कृष्णदेव राय को समझाया। पर इतने लंबे समय के मित्र और हित-चिंतक को खोकर उनकी हालत इतनी खराब थी कि उनका चेहरा देख-देखकर लोग रो पड़ते।

आखिर राजा कृष्णदेव राय ने चंदन की लकडिय़ों से तेनालीराम की चिता बनाने और शाही ढंग से उसकी अंत्येष्टि करने की आज्ञा दी।

जिस समय तेनालीराम की चिता जल रही थी, राजा कृष्णदेव राय के मुँह से निकला, 'तुम महान थे तेनालीराम, महान ही रहोगे! हजारों बरस तक लोग तुम्हारी सूझ-बूझ और चतुराई भरे कारनामों को याद करते रहेंगे और कहेंगे कि विजयनगर में एक ऐसा महान विदूषक था जो बड़े से बड़े पंडितों और विद्वानों से बढ़कर था। उसके आगे बड़े-बड़ों की बोलती बंद हो जाती थी। जब-जब लोग राजा कृष्णदेव राय को याद करेंगे, तो साथ ही उन्हें तेनालीराम की याद जरूर आएगी, जिसके मन में विजयनगर की प्रजा के लिए सच्चा प्यार और हमदर्दी थी और जो हमेशा दूसरों की भलाई की बात सोचता था।'

और सचमुच तेनालीराम का नाम केवल भारत ही नहीं, सारी दुनिया में अमर हो चुका है। उसके चतुराई भरे कारनामों को आज भी लोग रस ले-लेकर पढ़ते हैं और याद करते हैं कि उसकी छोटी से छोटी बात में भी कितनी गहरी सूझ होती थी।

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