Islami Sabhyata (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand

इस्लामी सभ्यता (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद

हिन्दू और मुसलमान दोनों 1000 वर्षों से हिन्दुस्तान में रहते चले आते हैं, लेकिन अभी तक एक दूसरे को समझ नहीं सके । हिन्दू के लिए मुसलमान एक रहस्य है मुसलमान के लिए हिन्दू एक मुअम्मा। न हिन्दू को इतनी फुरसत है कि इस्लाम के तत्त्वों की छानबीन करे, न मुसलमान को इतना अवकाश कि हिन्दू-धर्म-तत्त्वों के सागर में गोते लगाए। दोनों एक दूसरे में बेसिर-पैर की बातों की कल्पना करके माथा फुटौवल करने पर आमाद रहते हैं। हिन्दू समझता है कि दुनिया भर की बुराइयाँ मुसलमानों में भरी हुई हैं, इसमें न दया है, न धर्म, न सदाचार, न संयम। मुसलमान समझता है हिन्दू पत्थरों को पूजने वाला , गर्दन में धागे डालने वाला, माथा रंगने वाला और दाल-भात खाने वाला पशु है। दोनों एक-दूसरे के साये से बचते हैं। और दोनों दलों में जो बड़े से बड़े धर्माचार्य हैं वह इस भेदभाव में सबसे आगे हैं, मानों द्वेष और विरोध ही धर्म का प्रधान लक्षण है। हम इस समय हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य पर कुछ नहीं कहना चाहते। मौलाना शौकतअली के साथ हमारा भी यह विश्वास है कि यह दशा अस्थायी है और वह समय दूर नहीं है जब हिन्दू और मुसलमान दोनों अपनी गलती पर पछतावेंगे, और अगर मनुष्यता और सज्जनता से प्रेरित होकर नहीं तो आत्मरक्षा के लिए संयुक्त होना आवश्यक समझेंगे, हम इस समय केवल यह देखना चाहते हैं कि हिन्दुओं की मुसलमानों की सभ्यता के विषय में जो धारणा है वह कहाँ तक न्याय है।

पुराने जमाने में किसी जाति की धर्म-परायणता और उपकार-वृत्ति ही उसकी सभ्यता की द्योतक थी। सेवा और त्याग ही सभ्यता का मुख्य अंग था, चीन, जापान, भारत, मिस्र किसी देश की प्राचीन सभ्यता को लीजिये आप उसे धर्म प्रधान पावेंगे। यद्यपि अब भी वही आदर्श सर्वोपरि है, पर उसमे परिस्थितियों ने थोड़ा-सा परिवर्तन कर दिया है, या यों कहिए कि उनका रूपांतर कर दिया है। फ्रांस की राज्य क्रांति ने सभ्यता का जो आदर्श स्थापित किया वह न्याय, भ्रातृभाव और समता, इन तीन स्तंभों पर आधारित है। जरा गौर से देखिए तो नवीन और प्राचीन आदर्शों में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता। लेकिन हम नई सभ्यता की जांच कर रहे हैं, इसलिए नए मापयंत्रों का व्यवहार करना ही उपयुक्त होगा।

सबसे पहले न्याय को लीजिए। जहाँ तक हम जानते हैं किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। ईसाई धर्म में दया प्रधान है। दया में छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, सबल-निबल का भाव छिपा रहता है। जहाँ न्याय होगा वहाँ ये भेद हो ही नहीं सकते और वहाँ दया का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। कम से कम मनुष्यों के लिए नहीं। अन्य जीव-धारियों ही पर उसका व्यवहार हो सकता है। हिन्दू धर्म अहिंसा प्रधान है, और तह तक जाइए तो न्याय और अहिंसा दोनों ही वस्तु हैं। अहिंसा के बगैर न्याय की, और न्याय के बगैर अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती। हम यह मानते हैं कि मुसलमानों ने बड़े-बड़े अन्याय किए हैं। धर्म के नाम पर न्याय को खूब पैरों से कुचला है, पर क्या हिन्दुओं ने अहिंसावादी होते हुए हिंसा के झंडे नहीं गाड़ दिए, यहाँ तक कि बौद्ध और जैन राजाओं ने अहिंसा को धर्म का मुख्य लक्षण मानते हुए धर्म के नाम पर खून की नदियाँ नहीं बहाईं? किसी धर्म की श्रेष्ठता व्यक्तियों के कृत्यों से न जाँचनी चाहिए, यह देखना चाहिए कि धर्म के आचार्य और संस्थापक ने क्या उपदेश किया है । हजरत मुहम्मद ने धर्मोपदेशकों को इसलाम को प्रचार करने के लिए देश-देशांतरों में भेजते हुए ये उपदेश दिया था – जब तुमसे लोग पूछे कि स्वर्ग की कुँजी क्या है तो कहना कि वह ईश्वर को भक्ति और सत्कार्य में है। आराफात के पहाड़ पर हजरत के मुख से जिस वचनामृत की वर्षा हुई थी वह अनंत काल तक इसलामी जीवन के लिए संजीवनी का काम करती रहेगी। और उस उपदेश का सार क्या था? न्याय। उसके एक एक शब्द से न्याय की ध्वनि निकल रही है। आपने फरमाया –

“ऐ मोमिनो, मेरी बातें सुनो और उन्हें समझो। तुम्हें मालूम हो कि सब मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं, तुम्हारा एक ही भ्रातृ-मंडल है। एक भाई की चीज दूसरे भाई पर कभी हलाल नहीं हो सकती , जब तक वह खुशी से न दे दी जाएँ। बेइंसाफी कभी मत करो। इससे हमेशा बचते रहो।” इस अमर वाणी में इसलाम की आत्मा छिपी हुई है। इसलाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है, वहाँ राजा और रंक, अमीर और गरीब बादशाह और फकीर के लिए केवल एक न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं।

ऐसी सैकड़ों रवायतें पेश की जा सकती हैं। जहाँ बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुकाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है जहाँ बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम, यहाँ तक कि स्वयं अपने को, न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की इसलामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए। आप इसलाम का पल्ला झुकता हुआ पाएंगे।

अध:पतन होने पर सभी जातियों के आदर्श भ्रष्ट हो जाते हैं। इसमें हिन्दू मुसलमान, ईसाई किसी की कैद नहीं। आज हम मुसलमानों को तअस्सुब से भरा हुआ पाते हैं। लेकिन जिन दिनों इसलाम का झंडा कटक से लेकर डैन्यूब तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फहराता था, मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्यपदों पर गैर-मुसलिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे। इस पद के लिए केवल योग्यता और विद्वत्ता की शर्त थी, धर्म से कोई संबंध न था। प्रत्येक विद्यालय के द्वार पर ये शब्द खुदे होते थे – पृथ्वी का आधार केवल चार वस्तुएँ हैं, बुद्धिमानों की विद्वत्ता, सज्जनों की ईश-प्रार्थना, वीरों का पराक्रम और शक्तिशाली की न्यायशीलता।

अब सभ्यता के दूसरे अंग को ली जिए। यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि इस विषय में इसलाम ने सभी अन्य सभ्यताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है, वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे, और उनका जन्मदाता अरब का उम्मा था जिसका नाम मुहम्मद है! मुहम्मद के सिवा संसार में और कौन धर्म-प्रणेता हुआ है जिसने खदा के सिवा किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया ? मुहम्मद के बनाए हुए समाज में बादशाह का स्थान ही नहीं था। शासन का काम करने के लिए केवल एक खलीफा की व्यवस्था कर दी गई थी जिसे जाति के कुछ प्रतिष्ठित लोग चुन लें। इस नियम से उन्होंने अपने आपको भी मुस्तसना नहीं किया और हार्दिक इच्छा रहते हुए भी अपने चचेरे भाई और दामाद हजरत अली को खलीफा नहीं बनाया, हालांकि उनका दवाब इतना था कि केवल एक संकेत से अली का निर्वाचन हो सकता था। और इस चुने हुए खलीफा के लिए कोई वजीफा, कोई वेतन कोई जागीर, कोई रियायत न थी। यह पद केवल सम्मान का था। अपनी जीविका के लिए खलीफा को भी दूसरों की भांति मेहनत मजदूरी करनी पड़ती थी ऐसे महान पुरुष जो एक बड़े साम्राज्य का संचालन करते थे, जिनके सामने बड़े बड़े बादशाह अदब से सिर झुकाते थे, जिनके एक इशारे पर बादशाहतें बनती बिगड़ती थीं, जूते सी कर या कलमी किताबें नकल करके, लड़कों को पढ़ाकर अपनी जीविका अर्जन करते थे। हजरत मुहम्मद ने खुद कभी पेशवाई का दावा नहीं किया। खजाने में उनका हिस्सा भी वही था जो एक मामूली सिपाही का। उन्हें कभी-कभी मेहमानों के आ जाने के कारण बड़ा कष्ट उठाना पड़ता था, फाके करने पड़ जाते थे, चीजें बेच डालनी पड़ती थीं, पर क्या मजाल कि अपना हिस्सा बढ़ाने का ख्याल भी दिल में आए। और संप्रदायों में गुरु-प्रथा ने जितने अनर्थ किए हैं उनसे इतिहास काला हो गया है। ईसाई धर्म में पादरियों के सिवा और किसी को इंजील पढ़ने की आजादी न थी। हिन्दू-समाज ने भी शूद्रों की रचना करके अपने सिर कलंक का टीका लगा लिया। पर इसलाम पर इसका धब्बा तक नहीं। गुलामी की प्रथा तो उस वक्त समस्त संसार में थी, लेकिन इसलाम ने गुलामों के साथ जितना अच्छा सलूक किया उस पर उसे गर्व हो सकता है। इसलाम कबूल करते ही गुलाम आजाद हो जाता था। यहाँ तक कि ऐसे गुलामों की कमी नहीं है जो अपने मालिक के बाद उसकी गद्दी पर बैठे और उसकी लड़की से विवाह किया। और किस समाज ने नीचों के साथ यह उदारता दिखाई है। कोमल वर्ग के साथ तो इसलाम ने जो सलूक किए हैं उनको देखते अन्य समाजों का व्यवहार पाशविक जान पड़ता है। किस समाज में स्त्रियों का जायदाद पर इतना हक माना गया है जितना इसलाम में? यों बुद्धि और धन की असमता हमेशा रही है और हमेशा रहेगी, लेकिन इसलाम ने समाज के किसी अंग के पैरों में बेड़ी नहीं डाली। वहाँ प्रत्येक व्यक्ति उतनी मानसिक और सामाजिक उन्नति कर सकता है जितनी उसमे सामर्थ्य हो। उसके मार्ग में कोई कंटक, कोई बाधा नहीं। हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज से भी इसलामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।

अब सभ्यता का तीसरा अंग लीजिए। इस विषय में भी इसलाम किसी अन्य जाति से पीछे नहीं है। हजरत ने फरमाया है-कोई मनुष्य उस वक्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक वह अपने भाई-बंदों के लिए भी वही न चाहे जो वह अपने लिए चाहता है। एक दूसरी जगह आपने लिखा है-जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता, खुदा उससे खु श नहीं होता। उनका यह कौल सोने के अक्षरों में लिख जाने याग्य है – “ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है और वही प्राणी ईश्वर का भक्त है जो खुदा के बन्दों के साथ नेकी करता है।” किसी मोमिन में एक बार आपसे पूछा था – खुदा की बन्दगी कैसे की जाए? आपने जवाब दिया – अगर तुम्हें खदा की बन्दगी करनी है तो पहले उसके बन्दों से मुहब्बत करो। इन शिक्षाओं से यह बात भली भांति विदित हो जाती है कि इसलाम के नियामक ने भ्रातृ भाव का महत्त्व अन्य जातियों से कम नहीं समझा।

यह तो सभ्यता के मूल तत्त्व हुए। उसके गौण अंगों में, राजनैतिक विधान, विद्याव्यसन, स्वाधीनता का प्रेम, कलाकौशल, भवन-निर्माण, वेष-भूषा सभी समाविष्ट हैं। सूद की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं हैं। इसलाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम ठहराया हो। यह दूसरी बात है कि व्यवसाय की दृष्टि से इस निषेध का खंडन किया जाए, पर सामाजिक दृष्टि से कोई इसका समर्थन किए बगैर नहीं रह सकता। विद्यानुराग में तो शायद बहुत कम जातियाँ मुसलमानों की बराबरी का दावा कर सकती हैं। हिन्दुस्तान से आयुर्वेद, गणित और ज्योतिष, अध्यातम, यूनान से दर्शन और प्रजा-वाद, गरज़ जहाँ जो रत्न मिला, इसलाम ने दोनों हाथ फैलाकर अपनाया और उसे अपनी सभ्यता का अंग बना लिया। भवन-निर्माण करने में तो शायद संसार की कोई जाति मुसलमानों से टक्कर नहीं ले सकती। जहाँ जहाँ इसलामी तहजीब का झंडा लहराया, उनकी बनवाई हुई इमारतें, अब तक अपने निर्माताओं का यशोगान कर रही हैं। स्वाधीनता का ऐसा सच्चा अनुराग कदाचित् और कहीं देखने में न आएगा। आज कौन ऐसा सहृदय प्राणी है जो मुट्ठी भर को यूरोप की दो महान शक्तियों से युद्ध करते देखकरु गर्व से फूल न उठे? दमिश्क में, शाम में, तुर्कों में, मिस्र में, जहाँ देखिए मुसलमान अपने को स्वाधीनता की वेदी पर बलिदान कर रहे हैं। अफगानिस्तान के वल स्वाधीनता पर मर मिटने के लिए तैयार होने के कारण आज स्वाधीन बना हुआ है। हम तो यहाँ तक कहने को तैयार हैं कि इसलाम में जनता को आकर्षित करने की जितनी शक्ति है उतनी और किसी संस्था में नहीं है। जब नमाज पढ़ते समय एक मेहतर अपने को शहर के बड़े से बड़े रईस के साथ एक ही कतार में खड़ा पाता है तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगे न उठने लगती होंगी। उसके विरुद्ध हिन्दू समाज ने जिन लोगों को नीच बना दिया है उनको कुएँ की जगत पर भी नहीं चढने देता, उन्हें मंदिरों में घुसने नहीं देता। ये अपने में मिलाने के नहीं, अपने से अलग करने के लक्षण हैं। इसलामी धर्म और सभ्यता को संसार में जो सफलता मिली है वह तलवार के जोर से नहीं, इसी भ्रातृभाव के कारण मिली है। आज भी अफ्रीका में ईसाइयों के मुकाबले में इसलाम का प्रचार अधिक हो रहा है, हालांकि ईसाइयों के पास सभी प्रकार के प्रलोभन हैं और यहाँ केवल अल्लाह का नाम है।

अंत में हम संगठन और तंजीम के प्रेमियों से यह निवेदन करना चाहते है कि इन आयोजनाओं से आप हम दोनों जातियों के बीच में एक लोहे की दीवार खड़ी कर रहे हैं। अगर आप बिना मुसलमानों से बिगाड़ किए हुए अपनी जाति में संगठन कर सकते हैं, विधवाओं का, अनाथों का, अछूतों का उद्धार कर सकते हैं तो शौक से कीजिए। तंजीम में भी कोई बुराई नहीं है अगर वह बिना हिन्दुओं से बिगाड़ किए हुए की जा सके । लेकिन अब तक हमें जो अनुभव हुआ है वह साफ बता रहा कि आंतरिक संगठन और अंदरूनी तंजीम के वल कल्पना का स्वर्ग है। आंतरिक संगठन तो नहीं होता, क्योंकि वह भक्ति, प्रेम और अनुराग की स्पिरिट में नहीं किया जाता। भीतर जो लाखों बुराइयाँ हैं वह ज्यों की त्यों बनी हुई हैं, उसमे अणुमात्र भी सुधार नहीं हो सका, और दोनों जातियों में वैमनस्य दिन दिन बढ़ता जाता है। कम से कम इतना तो सिद्ध ही हो गया है कि जिस वेग से हिन्दू मुसलिम विरोध बढ़ रहा है, उस वेग से हिन्दुओं का आंतरिक संगठन नहीं बढ़ रहा है, हमें तो दिन दिन इसमें शैथिल्य और उसमे स्फूर्ति के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। नतीजा यही होगा कि न हम संगठित होंगे, न स्वराज्य-पथ पर ही अग्रसर होंगे। और हमारी दशा उत्तरोत्तर हीन होती चली जाएगी।

[साप्ताहिक ‘प्रताप’, दिसंबर, 925 के विशेषांक में प्रथम बार प्रकाशित]

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