ईश्वर (उड़िया कहानी) : प्रतिभा राय
Ishwar (Oriya Story) : Pratibha Ray
वे निकले थे ईश्वर की तलाश में । वे यह भी जानते थे कि ईश्वर कहीं नहीं मिलेगा; क्योंकि 'ईश्वर' नाम की कोई सत्ता है यह अभी रहस्यमय था।
ईश्वर के पास उनका 'खास' काम कुछ भी नहीं था । क्योंकि उन्हें कोई अभाव न था, अतः कोई माँग भी न थी । बस, कौतूहल था कि उसे खोज लें । सो वे पहले भारत चले आए । सुना था कि यहाँ ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा जाता है अगर कोई निष्ठा से उसे खोजे। ।
ईश्वर कोई विवादास्पद विषय नहीं है । ईश्वर है, नहीं है-इस द्वंद्व की स्थिति में ईश्वर को खोजने में निष्ठा नहीं आ सकती । अतः वे दोनों विदेशी चाहते थे कि ईश्वर के बारे में निश्चित हो लें । उन्होंने कुछ साधु, संत, पंडित, ज्ञानी आदि से बातें करनी चाहीं । गुरु को ढूँढा पहले।
भारत में साधु-संतों की कोई कमी नहीं । असाधु और कपटी लोग भी बड़ी तादाद में हैं । पहले काटे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजे, मठ, मंडप, द्रुम-महाद्रुमों की गुफाओं के चक्कर-कंदराओं आदि में ढूँढ़ा । घूम-घामकर थक गए और फिर निराश हो गए।
दोनों तर्कवादी थे । तर्क एवं बुद्धि में पूरा विश्वास था । उन्हें लगा कि लकड़ी, पत्थर, सोना-चाँदी, मार्बल, काँसे की मूर्तियाँ या चित्रपट कोई ईश्वर नहीं-उनका तो नाश हो जाता है समय आने पर । ईश्वर तो तर्क एवं बुद्धि से हटकर है । एक दूसरा रास्ता चुना उन्होंने ।
अब कुछ पंडितों से मिले । उन्हें लगा कि भक्ति, ईश्वर और तर्क एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं । अंधा होकर ढूँढ़ने से खोज पूरी नहीं होती।
उनके सवाल थे, 'ईश्वर का रंग कैसा है ? आकार कैसा है ? आपने देखा है ? स्पर्श किया है ? नहीं, तो फिर कैसे मानते हैं कि ईश्वर है ?'
उत्तर देना नहीं बल्कि, यह गुरु का काम है-उत्तर निकलवाना । अतः निर्विकार और निर्लिप्त गुरु ने पूछा, “प्रकाश क्या है ?"
विदेशी, “एक शक्ति ।"
गुरु, “देखा है ? प्रकाश दिखता है ?"
विदेशी हड़बड़ा गए, “नहीं, खुद नहीं दिखता, मगर चीजों को दिखा देता है।"
गुरु, “प्रकाश का रंग कैसा है ?"
दुविधा में पड़े विदेशी ने बताया, “प्रकाश का रंग सफेद नहीं लाल ना गुलाबी हरा नहीं प्रकाश का कोई रंग नहीं होता । उलटे प्रकाश ही प्रतिफलित होकर उस चीज का रंग प्रकट करता है।"
गुरु ने मुसकराकर कहा, “प्रकाश कब उपस्थित रहता है-उषा, सायं, रात में या सुबह ?"
विदेशी ने स्पष्ट कहा, “प्रकाश तो सदा विद्यमान है । रात में प्रकाश नहीं है ऐसा कहने वाले प्रकाश के बारे में जानते नहीं ?" गुरु के चेहरे पर प्रकाश उतर रहा है । पूछा, “प्रकाश कहाँ रहता है ? भारत में ? इंगलैंड ? अमेरिका ? अंतरिक्ष में या पहाड़ पर ? या शास्त्र में ?"
“वह तो सर्वत्र विराजमान है । भारत या अमेरिका में नहीं । स्थानातीत, कालातीत होता है । प्रकाश मेरे देश का है या मेरी जाति का है ये बातें तो मुर्खता-भरी हैं।" विदेशी ने जरा उत्तेजित होकर कहा।
गुरु ने वैसे ही मुसकराकर पूछा, “प्रकाश की गति कैसी है ?"
"स्वच्छ पदार्थ में गति करता है । अस्वच्छ पदार्थ अवरोध पैदा कर देता है उसकी गति में ।" धीरे-धीरे प्रकाश उभर रहा था विदेशी के चेहरे पर ।
गुरु ने पूछा, “तुमने स्पर्श किया है प्रकाश को ? चिकना है या खुरदरा ?"
विदेशी, “मैंने प्रकाश को कभी नहीं छुआ । पर इसका कोई निश्चित आकार नहीं ।"
गुरु ने अंत में पूछा, “तो कैसे विश्वास करते हो कि प्रकाश है ?"
दृढ़ स्वर में दोनों ने एकसाथ कहा, “प्रकाश तो एक अनुभव है एक शक्ति की स्थिति का अनुभव । उसी से उपलब्ध होता है प्रकाश...।"
संतुष्ट होकर गुरु बोले, "मित्रो, आपने प्रश्न का उत्तर स्वयं दे दिया है। अब तो ईश्वर की स्थिति के बारे में संदेह मिट गया होगा।"
"कैसे ?" दोनों चौंके।
गुरु ने समझा दिया, “प्रकाश की तरह ईश्वर एक शक्ति है । स्वयं दिखाई नहीं देता, पर विश्व को दृश्यमान करता है । ईश्वर निराकार सर्वविद्यमान है । स्वच्छ हृदय में रहता है । वह कालातीत है, स्थानातीत है । प्रकाश बिना सृष्टि अँधेरे में है, वैसे ही ईश्वरानुभव बिना चेतना मोहाच्छन्न है । ईश्वर एक अनुभव है। जब आदमी बिना चिंतन स्थूल से ऊपर उठता है, तब इस अलौकिक शक्ति की उपलब्धि होती है । चिंतन और चेतना के शीर्ष पर हालाँकि ईश्वर सूक्ष्म रूप में विद्यमान है । प्रज्ञा का मूल है यह शुद्धतम सत्य और अमिट आनंद का अन्वेषण "जिससे समझ में आता है कि ईश्वर ही प्रकाश है और मुक्ति है स्पृहा और उपलब्धि है।"
विदेशी गुरु के शब्दों की व्याख्या करने लगे-आधुनिक ज्ञान-विज्ञान प्रतिभा और प्रज्ञा के सहारे । गुरु ने और भी कई बातें बताईं ईश्वर के संबंध में । खोज में चल पड़े वे । अब उन्हें लग रहा है-ईश्वर विद्यमान है । पर कहाँ ? किस प्रकार उनसे भेंट होगी, इस बात का पता नहीं दिया है गुरु ने । अतः नाना संदेह, संशय का अतिक्रमण कर ईश्वर को खोजा जा रहा है । निष्ठा हो तो ईश्वर सूक्ष्म भाव से दर्शन देता है। उनके मनों में यह बात अब पैठ गई है।
कुछ लोग स्वयं को ईश्वर बता रहे थे। उनमें आपसी खून-खराबा, मार-पीट, षड्यंत्र भी देखा उन विदेशियों ने । गुरु की बातों को वे हर ईश्वर के साथ मिलाकर देख रहे थे।
"वैज्ञानिक ईश्वर है ?"
"वह तो ईश्वर नहीं उद्भावन करता है। ईश्वर कैसे होगा ?"
“कलाकार सृजन नहीं करता-सृजन सौंदर्य को आकार देता है ।"
"गुरु है ईश्वर ?"
“ईश्वर तो परम गुरु है।”
"देवी-देवता है ईश्वर?"
“ईश्वर अव्यय है-लिंगभेद उसमें नहीं ।"
"बुद्धिमान है ईश्वर ?"
“ईश्वर न युवक है न बूढ़ा ।"
“राजा है ईश्वर ?"
“राजा का सिंहासन भी राजा का नहीं-वह ईश्वर की कृपा से दिया अस्थायी दान है। राजा भी तो भिखारी हो जाते हैं।"
"तो कौन है यहाँ ईश्वर ?"
दोनों विदेशी भारत में घूमते रहे । अंत में तय किया, बिना दर्शन के ही लौट चलें । दोनों ट्रेन के इंतजार में प्लेटफार्म पर बैठे हैं । ट्रेन आने में विलंब है । यह कोई नई बात नहीं यहाँ । अतः उस पर कोई प्रतिक्रिया मन में नहीं हुई । मगर बाकी यात्री कब से गाड़ियों के आने-जाने की आदत से परिचित होते हुए भी परेशान थे । धीरज खोते-से लग रहे थे ।
हालाँकि आज गाड़ी के देर से आने का कोई खास कारण था । यात्री स्टेशन पर आने के बाद यह जान पाता है कि गाड़ियाँ 8-10 घंटे लेट चल रही हैं । पहले यह खबर रेडियो-टीवी पर दी जा सकती थी । उचित काम यहाँ उचित समय पर नहीं हो पाते हैं । इसलिए हर जगह कोलाहल, गोलमाल, गड़बड़ स्थिति दिखती है । स्टेशन पर भी वही चल रहा है । यात्री बालबच्चों एवं सामान के साथ परेशान हैं । कल तूफान में रेल की पटरी पर पेड़ गिर गए थे । हटाने का काम जारी है। इसलिए देर हो रही है। प्लेटफार्म पर बैठने की जगह तक नहीं । वेटिंग रूम की स्थिति अत्यंत दयनीय है । सब एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं । लोग जहाँ कहीं गंदगी कर देते हैं । सफाई का दायित्व तो रेल के मेहतर या स्वीपरों का है । और गंदगी ही गंदगी दिख रही है चारों ओर । भीड़ आज बहुत है । सब नाक पर रूमाल डाले नाक-भौंह सिकोड़े औरों पर गंदगी फैलाने का आरोप लगा रहे हैं।
वेटिंग रूम में पहले से बैठे लोग बेंच और सोफे पर पाँव फैलाकर आराम कर रहे हैं। अपने घर की बैठक में भी कोई आता है तो उसके लिए जगह छोड़ देते हैं । मगर पब्लिक प्लेस में कोई सोया है, तो कोई बैठने के लिए जगह तलाश रहा है । साधारण सौजन्य की दृष्टि से जगह छोड़ना तो दूर, जबरन दखल कर दूसरों की कोई परवाह भी नहीं करते । मैं पहले आया, इसलिए सारी जगह मेरी' यही भाव विराजमान होता है।
उन्हें प्लेटफार्म पर आना पड़ा। गंदा हो भले ही। कुछ जगह तो बची है । इधर-उधर साफ कर यात्री जगह बना लेते हैं । वहाँ अखबार बिछाकर एक परिवार वहीं अपनी दुनिया जमाकर बैठ गया है । अटैची, टिफिन कैरियर, पानी की बोतलें वगैरह भी हैं । लगता है दो संपन्न परिवार छट्टियाँ बिताने निकले हैं । दो महिलाएँ, दो पुरुष, चार बच्चे । खुब हँसता-खेलता परिवार लग रहा है।
दोनों विदेशियों को देखकर कुछ प्रफुल्ल दिख रहे हैं।
दोनों महिलाएँ बातों-बातों में बेडिंग के सहारे टिक गई हैं । वेनिटी बैग से आईना निकाल चेहरा देख रही हैं । होंठों पर लिपस्टिक घुमा ली । सुबह का किया मेक-अप फीका हो आया था। थोड़ा पोंछकर पफ कर लिया । तिरछे नेत्रों से दोनों विदेशियों को देख रही थीं । वे लोग अधीर न थे, न ही खीझ थी उनके चेहरे पर । दोनों विदेशी उनके मनोविनोद की वस्तु बन चुके थे। लोग उनके करीब आ रहे थे।
भारत-भ्रमण के अनुभव ने उन्हें बता दिया था कि अब यहाँ देश-प्रेम की बजाय विदेशी प्रेम' का चलन अधिक है । फॉरनर को देखकर हर कोई उसे देवदूत समझ विस्मय और कुतूहल से, उल्लास-भरे आग्रह से देखने लगता है । उनके देश की मामूली चीजें भी 'इंपोर्टेड' के नाम पर कीमती बन जाती हैं । इन दिनों विदेशों की कलम, घड़ी, बेल्ट, जैकेट, कंघा, ब्लेड, शेविंग लोशन वगैरह हस्तांतरित हो चुके हैं भारतीय चीजों के बदले । नई वस्तु देकर पुरानी काम में लाई गई वस्तुएँ आग्रह से रखी गई हैं । अजीब है यह क्रेज भी ।
गोरी चमड़ी, धूसर बाल, भूरी आँखें, रंगीन होंठ देखे नहीं कि भारतीय घेर लेंगे । किस देश का है ? मगर फॉरनर पर फिदा हो जाएँगे । कुछ तो फॉरेन ट्रिप के सपने देखने लगेंगे। इससे शायद भारतीय की मित्रता की भावना ही प्रकट होती है । मित्र देश के प्रति आग्रह प्रकट करना बुरी बात नहीं है।
वह परिवार क्रमशः निकट आता गया । बातचीत शुरू हुई और लोग अपनी स्वाभाविक अंग्रेजी में विदेशी लहजा मिलाकर अलग तरह का उच्चारण करने लगे । कुछ अजीब-सा लगता है । धीरे-धीरे वे अपना बैग खोलकर चीजें दिखा रहे हैं । हम भी इंपोर्टेड चीजें रखते हैं, उन्हें पता तो लगे । धड़ी, कैमरा, टेप रिकॉर्डर, वी०सी०आर० वगैरह सब विदेशी हैं । अपने विदेशी रिश्तेदारों का पता बता रहे हैं । अब स्पष्ट हो गया है कि दोनों परिवार उनके प्रति जितनी रुचि ले रहे हैं, दोनों विदेशी इनमें उतनी रुचि लेते नहीं दिखते । निगाह कहीं और है। ईश्वर की परिभाषा याद कर उस अद्भुत जीव को ढूँढ़ रहे हैं । शायद मिल जाए।
प्लेटफार्म पर दो जोड़ी आँखें । प्लेटफार्म की हैं या किसी जीव की ? पशु है ? या आदम ? या कोई ईश्वर ?
इस जीव को दिन भर चलते-फिरते देखा है । अब यहाँ खुद कचरे का प्रतीक बनकर निःसहाय पड़ा है । दिन में गंदे फर्श पर पड़े किसी फटे कपड़े को लपेटे था । वह भी हड्डी वाली कमर से बार-बार फिसल रहा था । उधर कोई ध्यान न था । इस समय वह टुकड़ा निकाल ओढ़े पड़ा है-निर्वस्त्र देह को प्लेटफार्म की गंदगी पर फैलाए लेटा है-राजसी ठाठ में । रंग कैसा है इसका ? गोरा या काला ? कभी न कभी इसका एक रंग रहा होगा। फिलहाल तो इस बिखरे कूड़े-कर्कट के मटमैले रंग में मिल गया है । इस जीव के बाल मटमैले हैं या धूसर? चेहरा कैसा है ? कुछ पता नहीं चलता । किसी भी जीव के सिर की हड्डी या चेहरे पर मांस न हो तो हर खप्पर और उसकी हड्डी ऐसी ही दिखेगी । इसकी हड्डी पर मांसहीन चमड़ी का ढक्कन-सा लगा है । अतः कोई खास आकृति नहीं बन पाती ।
बूढ़ा है या जवान ?
झुलसती उम्र ने या भूख ने हड्डियों का ऐसा ढाँचा बना डाला ? कुछ पता नहीं चलता । शायद जवान हो । बूढ़ा हो तो आश्चर्य नहीं ।
उसके भुतहा सिर से और भी अनगिनत जीव प्रकट होकर सिर के चारों ओर फर्श पर लीला कर रहे हैं।
किसी ने पूछा, "ये क्या हैं ?" बच्चे ने कहा, "नँ ।" एक जीव का अनेक जीव आसरा ले सकते हैं-परमात्मा का आत्मा में आश्रय लेने की तरह, अणु में परमाणु की तरह ।
वह जीव अपने अस्थिमय हाथ के लंबे-लंबे नाखूनों से उन जरा-जरा से जीवों का संहार करता जा रहा है लेटा-लेटा जूं मार रहा है टक-टक । हिरण्य का संहार करते जा रहे हैं नृसिंह।
सृष्टि, स्थिति और विलय का कर्ता शायद एक ही था ।
जीव का एक हाथ मुक्ति की मशाल जलाने की भंगिमा में फर्श पर दूर जा पड़ा है। नाखूनों में गंदगी भरी है । खुली हथेली; 'सब कुछ ले लो, सब कुछ दे दो' की भंगिमा में निश्चल पड़ी है । जो देता है, वह लेता है ? कौन है यह ?
विदेशी अतिथि जितना ही देखते. उनमें उतनी ही उत्कंठा बढ़ती जाती । वे ईश्वर की परिभाषा से मिलाकर देख रहे हैं उस जीव को ।
परमेश्वर सर्वव्यापी है । ऐसे जीव भारत में सर्वत्र देखे हैं इन विदेशियों ने...।
वह निर्मल है । स्नान की आवश्यकता क्या है ?
शायद यह जीव स्नान नहीं करता।
विश्वोदर के लिए वस्त्र की जरूरत नहीं ...राम के लिए आभूषणों की क्या आवश्यकता है ? ऐसा जीव वस्त्राभूषण नहीं पहना करता ।
निर्लेप को गंध की क्या जरूरत ?
निर्गध को धूप का क्या उपयोग ?
निर्लिप्त के लिए नैवेद्य किसलिए?
जीव को गंध या महक कुछ प्रभावित नहीं करती । इधर कभी कोई नैवेद्य अर्पित करता नहीं दीखता।
अस्मिता, प्रेम, क्रोध'गुमान जैसा कुछ नहीं । ऐसा जीव मान-अपमान के प्रति निर्लिप्त होता है । वह इस सबसे ऊपर उठा होता है । इनमें राग-द्वेष-ईर्ष्या-अस्मिता जैसा कुछ होता है।
ईश्वर न युवा है न बूढ़ा।
ईश्वर अनाम है...वह सर्वनाम भी है।
ऐसे जीव का कोई नाम नहीं । कोढ़ी-लँगड़ा-लूला, बड़े-बूढ़े, मँगते जिस नाम से बुलाएँ, वह सुनता है।
दोनों विदेशी उस जीव के निकट आ गए । उन्होंने उत्सुक होकर पूछा, “तुम्हारे मातापिता कौन हैं ? जन्म कब हुआ? बाल-बच्चे...?"
हर सवाल के उत्तर में मुक्त मशालधारी उसका हाथ 'नास्ति' में हिल रहा था । कोई नहीं जानता वह कब, कहाँ, कैसे पैदा हुआ । बाल-बच्चे, माता-पिता-रिश्तेदारों की बात भला किसे मालूम है ?
ईश्वर अजन्मा है । उसके माता-पिता, बेटी-बेटे कोई नहीं । निर्विकार परमात्मा तो सांसारिक बंधन से पूरी तरह मुक्त है।
दोनों ने पूछा, “जाति क्या है ? धर्म ? तुम्हारा ईश्वर ?"
"कुछ नहीं'न जाति है, न धर्म है मेरा "मेरा कोई ईश्वर नहीं ।” उस जीव का हाथ कुछ इसी ढंग से हिल रहा है।
ईश्वर की जाति नहीं, धर्म नहीं परमेश्वर का ईश्वर कौन होगा ?
तो तो यह जीव कौन है ?
घर-बार कहाँ है ? रहता कहाँ होगा ? मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे में ?
"मेरा कुछ नहीं कोई ठिकाना नहीं । कोई एक निवास नहीं ।"
ईश्वर निराधार है-उसका ठौर-ठिकाना कैसा ?
दोनों का हाथ पकड़ बच्चों ने उनको खींच लिया । उधर उनकी माएँ टिफिन-कैरियर खोले पैसारा बिछा रही थीं । विदेशियों को आग्रहपूर्वक खिलाना चाह रही हैं वे ।
आँखों में आमंत्रण का अनुरोध...।
विदेशी हाथ जोड़े क्षमा माँग रहे हैं-सज्जनता में नहीं, भय, आशंका और संदेह में ...|
भारतीय भोजन, दवा, दूध, पानी सबमें तो घालमेल है । दूषित परिवेश, अगणित रोगों के जीवाणुओं से भरा है । यह भोजन लेने का मतलब बीमारी बुलाना है । बड़े-बड़े होटलों में परीक्षित भोजन करते हैं । जीवाणु-मुक्त पानी साथ रखते हैं । दवा का अपना बक्सा खुद लाते हैं।
परिवार के सब लोग नाक पर रूमाल रखे उस दुर्गध-भरी हवा में खाना खा रहे हैं । प्राणों को आधार देना जरूरी है अन्न का।
एक प्लेट है जिसमें जूठन डाल रहे हैं वे । छोटे बच्चे ने तो उसी में उलटी कर दी । दुर्गंध-भरे वातावरण में वह खाना पेट में रख नहीं पाया, सारी जूठन वाली वह प्लेट ले जाकर महिला ने जीव के हाथ के पास उँडेल दी।
विदेशी देखते रहे घृणा में, उबकाई के साथ । उनमें प्रतिवाद का स्वर जन्म ले रहा था । उस जीव की आँखों में लोभ का भाव चेहरे पर उभर रहा था तेजी से । उस ढेर को गंदगी में भी समेट कर, नोच कर अपने खुले मुँह में डालने लगा। तेजी से ग्रास बना बड़े-बड़े गोले मुँह में भर रहा था।
ईश्वर निराहार है फिर सर्वभक्त है। विदेशी विचलित हो पूछ बैठे, “ये क्या किया ? जूठा दिया ?"
हँसकर उन सज्जन ने कहा, “कुछ न होगा इसे । वे क्या कुछ अनुभव करते हैं ? इन्हें राग-वैराग कुछ नहीं होता । ऐसा होता तो ये जिंदा रह पाते यहाँ ? वंश-विस्तार कर पाते ? चारों ओर फैल पाते ?" अर्थात् ईश्वर अविनाशी है । धूप, वर्षा, आग, जीवाणु उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाते । वे ऊठ-जूठ, मैला-कुचैला निर्लिप्त भाव से भक्षण करते हैं, इनसे मरने का सवाल ही नहीं । उलटे चारों ओर विस्तार पाते हैं।
विदेशी एक अजीब खुशी में नाच उठे । तेजी से उनके कई फोटो उस परिवार ने उठा लिए । सब विदेशियों के साथ अपने फोटो खिंचवाने लगे । विदेशियों ने भी अपने कैमरे निकाले । वे लोग भी विदेशी कैमरों में अपने फोटो देखने को तैयार हो गए। कहा, “हमें भी फोटो भेजना । हमारा पता यह रहा ।”
विदेशियों ने भाव-विह्वल होकर कहा, “कभी-कभी ईश्वर इस धरती पर उतरता है." बहुत रहस्यपूर्ण है उसका आना-जाना । हमारी सत्ता की अनंत गहराई में उस परमेश्वर का स्पर्श अनुभव कर पाते हैं-एक दिव्य क्षण में । इस दिव्य क्षण को जो आदमी, जो जाति, जो देश अज्ञान में या अहंकार में पाँवों से टाल जाते हैं, वे अभागे हैं, उनका ध्वंस अवश्यंभावी है।"
दोनों विदेशी अपने पावरफुल कैमरों में उस आविष्कृत ईश्वर के रूप को अंकित कर रहे हैं।
स्तंभित विस्मयाभिभूत सज्जन कह उठे, “रील बरबाद कर रहे हैं । क्या सौंदर्य है इन रोगी 'भिखमंगों में...।"
दोनों ने फिर एक चित्र क्लिक करते हुए कहा, “यह दिव्य क्षण आने पर आदमी के मन से सारे मिथ्याभिमान, अहंकार-आत्म-प्रवंचना दूर हो जाते हैं । मगर उस क्षण में शैतान की बुद्धि कहेगी कान के पास फुसफुसाकर, उसके प्रति सावधान रहो,' तब तो वह कल्पनातीत क्षण तुम्हारे लिए ईश्वर को सूक्ष्म रूप में प्रत्यक्ष करने का क्षण होगा ।"
कैमरे से रेडीमेड वीभत्स फोटो निकल रहे थे, उस दिव्य क्षण की उपेक्षा करते उन लोगों के आग्रही हाथ पीछे हट रहे थे।
वे लोग आपस में फुसफुसा रहे थे, “ये फॉरेन वाले गंदगी, कूड़े, दुर्भिक्ष, भिखमंगों के लिए क्यों इतने पागल हैं ? भिखारी और भगवान में कोई फर्क ही नहीं देख पाते । देवभूमि भारत में जिसका जन्म नहीं हुआ वह कैसे पहचानेगा ईश्वर को ?"
(अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित)