ईश्वर की सौगात : तमिल लोक-कथा
Ishwar Ki Saugat : Lok-Katha (Tamil)
रोज सुबह होती। अपनी आँखों में उगते सूरज की स्वर्णाभा और माता-पिता के सपनों को उन पर सजाए वह घर से निकलता। हाथों में डिगरियों और उपलब्धियों के प्रमाण-पत्रों की फाइल। चेहरे पर आशाओं का पाउडर और चाल में नौकरी प्राप्त करने की लालसा।
जब वह लौटता, चेन्नाईराम देखता। आँखें शाम सी बुझी-बुझी, चेहरा म्लान और कदम थके-थके। हाथों की फाइल वह सोफे पर पटकता और निढाल सा पड़ जाता उसी के पास आँखें-मूंदे। प्रतिदिन का यही क्रम। चेन्नईराम जानता था, समझता था उसकी वेदना को। उसके पास न तो कोई सिफारिशी चिट्ठी है, न किसी नेता या मंत्री से रिश्तेदारी, जो सौंदर्य देवी की जादुई मुसकान सा असर करती। धन का जुगाड़ भी नहीं, जो किसी अफसर के हाथों पर मरहम लगा सके। अपनी योग्यता और योग्यता के बल पर सरकारी नौकरी पाना, दलालों के शिकंजे से किसी युक्ति का निकल पाना, जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
चेन्नईराम अपनी मनमोहक बातों से उसके मन में आशाओं के दीये जलाए रखता। आधुनिक समय में ही नहीं, पुराने समय में भी लोग-बाग अपने युवकों को नौकरी ढूँढ़ने बाहर भेजते थे और वे युवक भी देश-परदेश भटकते थे, काम की तलाश में। भाग्य में जब जो-जो लिखा होता है, वह मिलता अवश्य है युवकों को उनके कर्मानुसार।
एक दिन उसने उसे एक लोककथा सुनाई। पुराने समय की बात है। तमिल प्रदेश के एक गाँव में एक युवक रहता था। उसके माता-पिता जमींदार के एक भू-खंड पर बँटाई पर खेती करते थे।
बड़ी मेहनत के बाद भी वे कर्ज में डूबे रहते। किसी प्रकार उन्होंने अपने युवा-पुत्र की गृहस्थी बसा दी। उस युवक को कमाने की इच्छा तो थी, किंतु खेती करना पसंद नहीं था। गाँव में उसके लायक कोई अन्य कार्य नहीं होने के कारण वह आलसी हो गया। समय गुजरता गया। उसके माँ-बाप वृद्धावस्था की ओर थे, किंतु वह निठल्ला बैठा रहता। उसकी पत्नी उसे समझाती, अपने बच्चों के भविष्य के प्रति चेतना दिलाने का प्रयास करती, पर सब बेकार। प्रेम से, गुस्से से सभी उपाय उसने कर लिये, पर वह उलाहने सुनता और चुपचाप बैठा रहता। एक दिन पत्नी को अत्यंत क्रोध आया। उसने एक पोटली में कच्चे-गीले चावल बाँधे और उसके हाथ में पकड़ाकर कहा, 'इस गाँव में जब तुम्हारा काम नहीं। उठो, गाँव के बाहर जाकर काम तलाशो।' इस प्रकार से उसने उसे धकिया सा दिया।
मरता क्या न करता। अब घर में रहना कठिन था। वह भी चल दिए शहर की ओर। शायद भाग्य में यही लिखा था। चलते-चलते दोपहर हो गई। राह में एक घना छाँवदार वृक्ष देखकर उसने सुस्ताने की सोची। चावल की पोटली वृक्ष की टहनी से बाँध दी और लेट गया।
वृक्ष की आरामदेह छाँव और शीतल बयार ने शीघ्र ही उसे निद्रा देवी की गोद में सुला दिया।
उस वृक्ष पर एक देवता का वास था। उसने टहनी से बँधी पोटली देखी। खोलने पर चावलों की महक ने उनकी जठराग्नि को प्रदीप्त कर दिया। देवता जो प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के भोजन का आस्वाद करते थे, उस दिन उस पोटली के चावल खाकर अत्यंत प्रसन्न व तृप्त हुए। उनके लिए वह नए प्रकार का स्वादिष्ट और खुशबूदार पकवान था।
थोड़ी देर के बाद पेट में भूख द्वारा तोड़-फोड़ के कारण वह युवक जाग्रत् अवस्था को लौटा। उसने पेड़ से पोटली उतारी, खोला तो पाया कि चावलों के स्थान पर उसमें टेढ़े-मेढ़े दो प्याले थे। वह हैरान रह गया कि चावलों के स्थान पर ये बेढंगे प्याले कहाँ से आ गए? भूख से वह व्याकुल हो रहा था। गुस्से में उसने उन प्यालों को जमीन पर दे मारा।
जैसे ही प्यालों को धरती का चुंबन मिला, उनमें से सौंदर्य को मात देने वाली, परिचारिकाएँ, हाथों में विभिन्न पकवानों से सजे हुए स्वर्ण थाल लिये अवतरित हुई और उसके सामने भोजन रखा। उन सुंदर बालाओं को देखकर यद्यपि वह अचंभित था, परंतु भूख की धमा-चौकड़ी में वह सब प्रश्न भुला बैठा और खाने पर टूट पड़ा। वह जब तक उन खुशबूदार पकवानों को ग्रहण करता रहा, वे अप्सराएँ उसे पंखा झलती रहीं। भोजन से तृप्त होकर वह उठा तो बालाएँ पुनः प्यालों में समा गईं।
युवक अति प्रसन्न हुआ। उसने आगे की यात्रा स्थगित की और वापस घर की राह पकड़ी। घर लौटकर उसने सारी घटना वर्णित की। सभी ने इसे ईश्वर की सौगात माना और एक स्वर में कहा, 'चूंकि यह ईश्वर की अनुकंपा है हमारे पर, इसलिए हम सर्वप्रथम कल प्रात: ईश्वर-आराधना एवं पूजा करेंगे और फिर प्रसादस्वरूप पहले गाँव वालों को भोजन कराएँगे, उसके उपरांत हम परिवार सहित भोजन करेंगे और इस प्रकार इन प्यालों का उपयोग करेंगे।' युवक ने अपने माँ-बाप तथा पत्नी की भावनाओं को सम्मान दिया और ग्रामजनों को दोपहर भोजन के लिए न्योता आया।
युवक के आमंत्रण पर कुछ गाँव वालों ने विश्वास किया, कुछ न अविश्वास। जिन्होंने उस पर विश्वास किया, वे श्रद्धा सहित आए, जिन्होंने अविश्वास किया, वे घर से खाकर तमाशबीन-स्वरूप आए। जब सभी एकत्र हो गए तो युवक ने सबको पंगत में बिठाया और प्यालों को आज्ञा दी कि गाँववासियों को ईश्वर का महाप्रसाद अर्पित करें। प्यालों से देव-अप्सराएँ अवतरित हुई। उनके हाथों में सुगंधित पकवानों से सजे स्वर्ण थाल थे। उन अनिंद्य सुंदरियों ने गाँव वालों को भरपेट भोजन कराया। ग्रामवासी भी आश्चर्यचकित हो आँखों से अप्सराओं का सौंदर्य-पान करते हुए मुख से स्वादिष्ट और रुचिकर व्यंजनों का आनंद लेते रहे।
उसी गाँव में एक धनी व्यक्ति रहता था, जिसे अपनी दौलत पर बहुत घमंड था। गाँव वालों से युवक की प्रशंसा सुनकर वह ईर्ष्या से जल-भुन गया। उसने सोचा, यदि वह इस गरीब के चावल खाकर वृक्ष देवता इसे ऐसा अनोखा उपहार दे सकता है तो मैं तो धरनी हूँ। मैं उसे तरह-तरह के व्यंजनों का स्वाद प्रदान करूँगा, ताकि वह खुश होकर मुझे भी उपहार दे।
विभिन्न प्रकार के व्यंजनों की डलिया लेकर वह धनी व्यक्ति अगले दिन उसी वृक्ष के नीचे पहुँचा और डलिया को टहनी में बाँधकर पेड़ के नीचे लेट गया। वह सोने का बहाना करने लगा। किंतु शीतल ब्यार ने उसे वास्तव में सोने के लिए विवश कर दिया।
उसकी आँख खुली तो हड़बड़ाकर उठा। पेड़ पर लटकी डलिया नीचे उतारी और उसमें दो टेढ़े-मेढ़े प्याले देखकर हर्षित हो उठा था। वह भागा-भागा घर पहुंचा और उसने भी गाँव वालों का अगले दिन भोजन का आमंत्रण दे डाला। चूँकि गाँव वालों ने प्यालों के चमत्कार का स्वाद चख लिया था, पूरा गाँव पूरे विश्वास से धनी के घर उपस्थित हो गया। जिन्होंने पहले युवक के यहाँ दावत खाई थी, उनकी जीभ फिर से चटखारे लेने लगी और जो पेट भरकर वहाँ गए थे, वे इस बार उपवास पर थे।
धनी व्यक्ति ने सभी को अपने घर के प्रांगण में कीमती दरियों पर बैठाया और फिर बड़े गर्व से सिर तानते हुए प्यालों को आज्ञा दी कि वे अतिथियों को स्वादिष्ट भोजन प्रस्तुत करें। किंतु यह क्या? ग्रामवासियों ने देखा कि सुंदरियों के स्थान पर चार दैत्याकार असुर निकले। उनमें से दो ने ग्रामवासियों को दरवाजे की ओर उठा-उठाकर फेंकना शुरू किया और शेष दो ने दरवाजे पर खड़े होकर हाथों के उस्तरे से सभी के सिर को मूंड़ना। ग्रामवासियों ने अपने सिरों पर हाथ फेरते हुए उस धनवान को खूब कोसा और सरपट अपने-अपने घरों की ओर दौड़ पड़े।
यह कथा सुनाकर चेन्नईराम ने उस युवक से कहा, 'देखो, तुम्हारे अंदर न ईर्ष्या है, न पाप, इसलिए हिम्मत रखो। तुम्हारे कर्मों में कोई खोट नहीं है। इस जनकथा के अनुसार तुम्हें भी ईश्वर की सौगात अवश्य मिलेगी, जरा धैर्य रखो।'
चेन्नईराम की वाणी सुनकर युवक के मुरझाए हुए सपनों के गुलमोहर खिलने लगे।
(साभार : डॉ. ए. भवानी)