इस उम्र में (कहानी) : श्रीलाल शुक्ल

Is Umar Mein (Hindi Story) : Shrilal Shukla

व्यंग के नाम पर, या सच तो यह है कि किसी भी विधा के नाम पर पत्र-पत्रिकाओं के लिए जल्दबाजी में आएँ-बायँ-शायँ लिखने का जो चलन है, उसके अंतर्गत कुछ दिन पहले मैंने एक निबंध लिखा था। वह एक पाक्षिक पत्रिका में ‘हास्य-व्यंग्य’ के स्तंभ के लिए था। हल्केपन के बावजूद उसे लिखते-लिखते मैं गंभीर हो गया था (बक़ौल फ़िराक़, ‘जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए’) यानी, इस निबंध से ‘शायँ’ ग़ायब हो गई थी, सिर्फ ‘आयँ-बायँ’ बची थी।

‘आयँ-बायँ’ की प्रेरणा शहर के एक बहुत बड़े दार्शनिक ने दी थी जो उतने ही बड़े कवि और कथाकार भी थे परंतु वास्तव में प्रेरणा उन्होंने नहीं, उनकी मौत ने दी थी। वे एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे। एक सप्ताह तक अस्पताल और घर की सेवा अपसेवा के बीच झूलते हुए उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे को पता था कि वे ऊँचे दर्जे के विद्वान हैं, पर उनके प्रशंसकों और मित्रों के नाम का उसे पता न था। इसलिए उसने एक अखबार के दफ्तर को छोड़कर-जो उतना ही गुमनाम था-दो-चार गिने-चुने रिश्तेदारों को ही उनके न रहने की खबर दी और वहीं आठ-दस लोग मिलकर उनका दाह-संस्कार कर आए। बाद में उनके देहांत की खबर फैली और तब अखबारों में विद्वानों के प्रति समाज की उपेक्षा पर जमकर लिखा गया, यह और बात है कि उनकी मृत्यु और उसके अवसादपूर्ण कारणों पर तब भी ज़्यादा नहीं लिखा गया।
स्थिति अवसादपूर्ण थी, इसमें शक नहीं, पर मुझ जैसे लेखक को, जो अपने यथार्थ-बोध और भावुकता-विरोध के लिए विख्यात है, इससे क्या लेना-देना ? मुझे ‘आयँ-बायँ’ यानी हास्य-व्यंग्य के लिए यह बहुत वाजिब जान पड़ा और एक दिन मैंने चार बजे शाम तक छत के ऊपर बने हुए अध्ययन कक्ष में एक टिप्पणी लिख डाली।

जो मैंने लिखा, वह भविष्य में मरने वालों को संबोधित था। उसका सारांश था: ‘ऊँचे नेताओं, व्यवसायियों, उद्योगपतियों और अफसरों के मरने पर उनकी शवयात्रा में जनसंख्या की कमी नहीं रहती। उनके पीछे अनगिनत संस्थाएँ और प्रतिष्ठान भीड़ मुहैया करा देते हैं, या खुद भीड़ बन जाते हैं। पर मामूली लोगों जिनमें लेखक, कलाकार नट, विट, गायक आदि शामिल हैं-को यह सुविधा नहीं मिलती। उनकी शवयात्रा में चलने वाले गिने-चुने ही होते हैं। अत: अगर आप चाहते हैं कि आपकी शवयात्रा धूमधाम से संपन्न हो तो आपको मरने से काफी पहले एक विशेष प्रकार का जनसंपर्क चलाना पड़ेगा। वरना अखबार, टी.वी. रेडियो आदि का तो ज़िक्र ही क्या, आपका पड़ोसी तक आपका-यानी आपके मरने का नोटिस न लेगा और बाद में कहता सुना जाएगा, ‘बड़े अफसोस की बात है ! पर क्या बताएँ, मुझे पता ही नहीं चला !’

‘यह भी याद रखना चाहिए कि भरी-पूरी शवयात्रा के लिए बहुत बासी जनसंपर्क काम न देगा, लोग भूल जाते हैं या मरकर एक अजनबी पीढ़ी छोड़ जाते हैं। जनसंपर्क का अभियान अपने मरने से कोई दो साल पहले चला सकें तो अधिक गुणकारी होगा।’

जनसंपर्क के मैंने कुछ नुस्खे भी सुझाए थे: ‘दूसरों की शवयात्राओं में ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लेना शुरू कर दें, किसी आध्यात्मिक, धार्मिक या सांप्रदायिक संगठन की सदस्यता ले लें, किसी शिक्षा-संस्था के प्रबंध मंडल में घुस जाए (ताकि कई अध्यापक और कुछ विद्यार्थी ऐन मौके पर उपलब्ध रहें), अपनी जाति के किन्हीं ऐसे उद्धार-कार्यक्रमों में खप जाएँ तो हर जाति में हर वक्त चलते ही रहते हैं...आदि-आदि !
‘सारांश यह कि मुर्दा हालत में अगर आपको भीड़ की दरकार है तो जिंदा हालत में भी आपको भीड़ से रब्तोज़ब्त रखनी पड़ेगी।’
ऐसा लिख चुकने पर, एक बडे लेखक के साथ जैसा कि होना चाहिए मैं अपने से कुछ असंतुष्ट और साथ ही, कुछ हद तक आत्ममुग्ध होकर छत पर टहलता रहा। बाद में एक मुँडेर के पास आकर खड़ा हो गया और अपने मकान के सामने से निकलने वाली अतिव्यस्त और काफ़ी अस्त-व्यस्त सड़क को देखता रहा। तभी सड़क के किसी गड्ढे में किसी गाड़ी के गिरने और उभरने की ‘भड़-भड़ भड़ाम’ सुनाई दी और गाड़ी के ब्रेक की चिहुँक भी। इसी के साथ हल्की धूप में एक साया-सा उतराया और ग़ायब हो गया। फाटक पर मेरा नौकर खड़ा था, उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई और सड़क की ओर दौड़ा। एक दुर्घटना हो गई थी।

एक बूढा आदमी किसी तेज़ रफ़्तार टैपों की चपेट में आ गया था। सात सवारियों वाली इस तिपहिया गाड़ी ने उसे बगली धक्का मारकर उछाला और वह पक्की सड़क से विस्थापित होकर, हवा में तैरता-सा मेरे घर की चहारदीवारी के पास आ गिरा। तत्काल वे सभी दृश्य-श्रव्य जो सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े होते हैं एक साथ दिखाई-सुनाई देने लगे। बूढ़े के आसपास भीड़ जमा हो गई। टैंपों का ड्राइवर जो दो-चार सेकेंड के लिए रुका था, पहले ही गाड़ी भगाता हुआ आँख-ओझल हो गया था।

‘‘क्या हुआ ?’’ क्या हुआ ?’’ मैं छत से पुकार रहा था पर दौड़कर नीचे नहीं आ पाया। एक तो भागदौड़ का तरीका मुझे धीरोदात्त आचरण के विपरीत जान पड़ता है दूसरे सच तो यह है-मुझे दुर्घटनाओं से घबराहट होती है, घायल आदमी को मैं देख नहीं सकता। ख़ून देखते ही मेरा सिर चकराने लगता है। जो ऐसे दृश्यों को आसानी से झेल लेता है वह एक तरह से मानव की आदिम संस्कृति में वापस लौटता है। यह प्रवृत्ति उन उदात्त संस्कारों के विरुद्ध है जो शताब्दियों की सभ्यता ने हम जैसों में परिपुष्ट किए हैं। पर तभी एक विचित्र घटना हुई जिसने मुझे तेज़ी से नीचे आने के लिए मजबूर कर दिया।

मैंने देखा कि कुछ लोगों ने इसी बीच बहुत सँभालकर बूढ़े को अपने हाथों में ले लिया है और जब मैं उम्मीद कर रहा था कि वे किसी गाड़ी में लिटा कर अस्पताल ले जाएँगे, वे उसे उठाकर मेरे फाटक के सामने लाए, उसके बाद उन्होंने बड़ी कोमलता से फाटक के ठीक आगे लिटा दिया। यह देखकर नीचे से मेरे नौकर ने और छत से मैंने विरोध की आवाज़ उठाई और मैं तेज़ी से फाटक के पास पहुँच गया। तब तक वे लोग बूढ़े को फाटक के पास छोड़कर ग़ायब हो गए थे। आसपास दस-ग्यारह छोकरे, कुछ औरतें और बूढ़े भर रह गए थे। मुझसे हमदर्दी जताई जाने लगी, कोई अपने आप से कह रहा था, ‘ऐसा नहीं करना चाहिए था।’ यह एक चालू और निरर्थक वक्तव्य है जिसे सुनने के लिए कहीं भी आपको लंबी यात्रा करने की ज़रूरत नहीं है।

बूढ़े के जिस्म में कोई हरकत नहीं हो रही थी, पता नहीं कि बेहोश था या मुर्दा। पर भयानक होते हुए भी यह दृश्य मुझे उतना भयानक नहीं दीखा क्योंकि उसकी देह पर कोई घाव नहीं था, न कहीं ख़ून ही दिखाई दे रहा था। इतना ज़रूर है कि उसकी पतलून के सामने का हिस्सा गीला था, पर घबराहट मुझे ख़ून से होती है, पानी से नहीं।

‘‘आप लोग यहीं रुकें, मैं पुलिस को फोन करके आता हूँ,’’ मैंने कहा और कई कदमों को एक में समेटता हुआ मैं अपने सुपरिचित बैठकखाने में आ गया। कुछ सुकून मिला और जाने-बूझे माहौल में पुलिस को फ़ोन करते वक़्त मुझे ज़्यादा उलझन नहीं हुई।

कौन कहता है कि पुलिस का कोई भरोसा नहीं ? मैंने पुलिस कंट्रोल रूम को फोन किया और पाँच मिनट के भीतर ही पुलिस का एक सचल दस्ता मेरे दरवाज़े पर हाज़िर था। यह और बात है कि जब तक वे आ नहीं गए और नौकर ने मुझे उनके आने की ख़बर नहीं दे दी, मैं घर के अंदर ही बना रहा-बाहर निकलता भी तो क्या कर लेता ?

पुलिस के आने से मुझे दोहरी खुशी हुई एक तो यह कि बूढ़े के बारे में मेरी जिम्मेदारी ख़त्म हुई, दूसरे इसलिए कि बची-खुची भीड़ और मुहल्लेवालों की नज़र में निश्चय ही मेरी साख बढ़ी। उन्होंने देख लिया कि मेरे टेलीफ़ोन घुमाते ही कैसे पूरा पुलिस दस्ता-एक नायब दारोग़ा, एक हेडकांस्टेबुल और तीन सिपाही-मेरे दरवाज़े पर है बूढ़ा अब भी किसी जिस्मानी हरकत के बिना फाटक के सामने पड़ा था। पुलिस की मौजूदगी का असर देखिए कि जो उसे मेरे फाटक के पास छोड़ गए थे, उनके ख़िलाफ़ मेरे मन में अब पहले जैसी कड़ुवाहट नहीं बची थी। बूढ़े के लिए चिंता ज़रूर थी पर यह चिंता भी शायद इस एहसास की उपज थी कि पूरे घटना-चक्र में मुझे अब एक महत्व की भूमिका निभानी है। तभी मैंने हेडकांस्टेबुल से कहा, ‘‘कृपया पूछताछ में वक़्त न बरबाद करें। पूछताछ तो बाद में भी हो सकती है, पहले इसे अस्पताल ले जाएँ। क्या पता, बच ही जाए।

वास्तव में पुलिस ने आते ही बूढ़े की ओर तो बाद में देखा, एकदम से पूछताछ शुरू कर दी थी। कोई जानता है कि यह कौन है ? इसका क्या नाम है ? दुर्घटना कैसे हुई ? तुममें से कोई मौक़े पर था ? टैपों का नंबर ? किसी एक को भी नंबर याद नहीं ? तब तुम साले यहाँ क्या कर रहे थे ? टैपों ने फाटक पर आकर कैसे टक्कर मारी ? उधर मारी ? उस जगह ? तो लाश फाटक पर कैसे आ गई ? वे कौन हरामी के पिल्ले थे जो इसे फाटक पर खींच लाए ?

प्रश्नोत्तर-काल में घटना की बेहूदगियाँ जैसे-जैसे खुलती जातीं, उसी अनुपात से पुलिसवालों की गालियाँ भी तीखी होती जा रही थीं। हैरत की बात कि उन पर मेरी बात से ठंडे पानी का छींटा पड़ा। पता नहीं क्यों, वे मुझसे पुलिस की तरह नहीं, सभ्य पुरुषों की तरह बात कर रहे थे। इसका कारण मैं बाद में सोच पाया: शायद इसलिए कि मैं साफ-सुथरा कुर्ता और पायजामा पहने था ! उनकी निगाह में मेरा अपरिचय इज़्ज़त का हकदार था : क्या पता कोई अज्ञात नायक हो ? या कोई प्रभामंडित महान् खलनायक ?
नायब दारोग़ा ने पहली बार मुँह खोला, ‘‘फ़िक्र न करें, बच जाएगा।’’

बूढ़े के मुँह पर पहले ही पानी के छींटे मारे जा चुके थे। कोई नतीजा नहीं निकला था। अब नायब दारोग़ा से शह जैसी पाकर हेडकास्टेबुल बूढ़े के निश्चल शरीर के पास आया। उसने बूट की नोक उसकी पसलियों में गड़ाई और कहा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
कोई जवाब नहीं। तब पैर छोड़कर उसने हाथ का सहारा लिया बूढ़े की नाड़ी पकड़ी, कहा, ‘‘मरा नहीं है।’’ सिपाहियों से उसने कहा, ‘ले चलो....रामनगर अस्पताल।’
सिपाहियों ने अभ्यस्त मुद्रा से भीड़ में खड़े हुए दो रिक्शावालों को चुना, उनसे कहा, ‘इसे उठाकर जीप पर रखो..सीट पर नहीं, नीचे..अबे नीचे, फ़र्श पर..।’’

जैसे वे अपने गाँव का घर, बटाई पर लिया खेत, खलिहान, नीम का पेड़ छोड़कर शहर यही सुनने, यही करने आए थे, उन्होंने यह सुना यही किया।

अभी कुछ आशाप्रद भी होना बाकी था। हेडकांस्टेबुल ने फर्श पर पड़े हुए बूढ़े को झिड़ककर कहा, ‘‘बैठ जा।’’ इसका भी कोई असर नहीं हुआ। तब उसने बूढ़े को गर्दन का सहारा देकर बैठाया कहा, ‘‘बैठ, बैठा रह !’’ इस बार उसकी पलकों में कुछ हरकत हुई, मुँह से हल्की-सी कराह निकली। पर वह हेडकांस्टेबुल के हुक्म की तामील नहीं कर पाया; ढीले जिस्म से फ़र्श पर पसर गया।
‘‘रामनगर के अस्पताल मत ले जाइए, वहाँ की आपात सेवाओं का भरोसा नहीं। मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में ले जाएँ। वहाँ...।’’
नायब दारोग़ा का धीरज जवाब देने लगा। उसने मेरी बात बीच में ही काट दी, कहा, ‘‘आप अपना काम कर चुके, अब हमें अपना काम करने दें।’’

दूसरे दिन सूर्योदय से पहले ‘जीर्णाजीर्ण’ पर विचार करते हुए शय्या-त्याग, उष:पान, चाय-पान, मल-मूत्र विसर्जन, दंतधावन, आसन-प्राणायाम-व्यायाम, समाचार-मंथन, प्रातराश उर्फ़ सूक्ष्माहार। इन क्रियाओं के बाद मेरे असली कर्म की शुरुआत होनी थी : मरणहीन गद्य की रचना, साहित्य-साधना।

पर मन में कुछ कुरेद रहा था, लग रहा था कि आज कुछ और करना है। क्या अस्पताल जाकर उस बूढ़े की हालत का पता लगाना ही इस अनमनेपन का अभीष्ट है ? हो सकता है। तब फिर क्या मेरा अस्पताल जाना ज़रूरी नहीं है ? है भी और नहीं भी। है इसलिए कि अगर वह ज़िंदा हो और उसकी कुछ ज़रूरतें हों तो अपने साधन और सामर्थ्य को नज़रअंदाज़ किए बिना उनकी पूर्ति की जा सके। उधर ‘नहीं भी’ के पीछे भी कई तर्क थे। एक घटना थी, ख़त्म हुई। अब मुझे हिलगे रहने की क्या ज़रूरत ? फिर, बिलावजह एक अजनबी आदमी का हालचाल लेने के लिए अस्पतालों के वैरपूर्ण वातावरण में चक्कर काटना क्या नाटकीय न लगेगा ?

पर ‘नाटकीय’ ने ही फ़ैसला कर दिया। मैं नाटकीयता के ख़िलाफ़ हूँ, पर कोई मेरे किसी कार्य को नाटकीय समझे या अख़बारों में उसे नाटकीय बनाकर प्रस्तुत करे, तो क्या नाटकीयता के आरोप से भयभीत होकर मुझे उससे विरत हो जाना चाहिए-ख़ास तौर से तब जब कि मैं शुद्ध मानवीय भावना से प्रेरित होकर कुछ करने जा रहा हूँ ?

मैं जानता था कि पुलिस बूढ़े को मेडिकल कॉलेज नहीं ले जाएगी। इसलिए मैं रामनगर अस्पताल गया। वहाँ काफ़ी देर मेरे मरीज़ का पता नहीं चला। जिसका कोई नाम नहीं, उसका पता कैसा ? फिर, कल सारे डॉक्टर हड़ताल पर थे। (किसी दूसरे अस्पताल में किसी मरीज़ ने किसी डॉक्टर को झापड़ मार दिया था। किसी ने उसकी मदद नहीं की थी, न जवाबी तौर पर कोई मरीज़ को पीटने के लिए आगे बढ़ा था। प्रशासन तटस्थ रहा था-‘क़ानून तोड़ा गया है तो क़ानून ख़ुद अपना रास्ता तय करेगा’ के सिद्धांत के अंतर्गत। यह हड़ताल उसी गतिरोध के ख़िलाफ़ सिर्फ़ प्रतीकात्मक रूप में एक दिन के लिए थी।) आज डॉक्टरों की हड़ताल नहीं थी, फिर भी रामनगर अस्पताल में हड़ताल का ख़ुमार बाक़ी था, अधिकांश डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं आए थे।

मैं पूछता रहा: एक बूढ़ा इमरजेंसी में लाया गया था-दुर्घटना का मामला था। उसे पुलिस लाई थी। अब कैसा है ? कहां है ? किसी वार्ड में ? या शवगृह में ?

बड़ी दौड़-धूप और पूछताछ के बाद एक नर्स ने बताया : न वह किसी वार्ड में है, न शवगृह में।
नर्स ने कहा, ‘वे उसे कल यहाँ इमरजेंसी में लाए थे। मैंने कहा कि सारे डॉक्टर हड़ताल पर हैं, मरीज़ को भर्ती नहीं किया जा सकता। पुलिसवाले बोले, ‘ठीक है।’ इसके बाद वे ख़ुद मरीज़ को स्ट्रेचर पर लादकर अंदर लाए, इमरजेंसी वार्ड में एक बेड पर डाल दिया। दारोगा ने मुझसे कहा, ‘सॉरी सिस्टर, हम कुछ नहीं कर सकते, जो करना है तुम ख़ुद करो। एक मोटर ने इसे उछालकर सड़क के किनारे फेंक दिया था। पता नहीं कितनी चोट आई है। पर इतना तय है कि अभी उसकी साँस चल रही है। मैं कुछ बोलती, इसके पहले ही वे गाड़ी स्टार्ट करके चल दिए। मैं उनसे मरीज़ का नाम और पता भी नहीं पूछ सकी।’’

मैंने नर्स को समझाया कि वह पूछ लेती तब भी कोई नतीजा न निकलता।
‘‘मैंने मरीज़ को अपने हिसाब से जाँचा-परखा। लगा कि कोई खास चोट नहीं है। सदमा भर है। पर बिना डॉक्टरी जाँच-पड़ताल के ऐसी राय बना लेना भी खतरे का काम है। हो सकता है कि उसके दिमाग़ में अंदरूनी चोट आई हो, भीतर ही भीतर ख़ून बहा हो ! वैसे डॉक्टर होते, तब भी यह जानने में दिक़्क़त आती। यहाँ न कोई न्यूरोलॉजिस्ट है, न न्यूरोसर्जन, कैट्स स्कैन की मशीन भी नहीं..।
‘‘धीरे-धीरे उसने कराहना शुरू किया। आधी रात होते-होते वह पूरी तौर से होश में था। उसने चाय माँगी, मैं खुद चाय पी रही थी। कहीं और से चाय मिलनी मुश्किल थी। मैंने अपने प्याले से ही कुछ घूँट निकालकर उसे दिए। उसने पिया, कहा, ‘थैंक्यू’ और सो गया।
‘‘मैं भी सो गई।
‘‘बहुत सवेरे देखा, उसकी चारपाई ख़ाली थी वह जा चुका था।’’
नर्स ने आँखें फैलाकर कहा, ‘‘उसने बड़े जोख़िम का काम किया है।’’

श्रेष्ठता की कसौटी को लेकर हमारे साहित्य में रचनाकारों और आलोचकों के दो-तीन बड़े मज़बूत और सुपरिचित खेमे हैं, इनकी मान्यताएँ और दृष्टियाँ अत्यंत सुपरिभाषित हैं और अपने को एक-दूसरे से भिन्न मानने में ही उनकी सैद्धांतिक सार्थकता समझी जाती है, पर एक मामले में दोनों खेमों के सदस्य एक जैसे हैं। वे एक ओर भावुकता-विरोध को एक स्वत: सिद्ध मूल्य मानते हैं और दूसरी ओर अकेले में वे सभी भावुक होने की अपार क्षमता दिखा सकते हैं-सब नहीं तो अधिकांश। उन्हीं अधिकांश में एक मैं भी हूँ।

तभी उस बूढ़े के प्रसंग को बहुत कोशिश करके भी दिमाग़ से ख़ारिज नहीं कर पा रहा था। फाटक पर करवट के बल पड़ा हुआ उसका निश्चेष्ट शरीर, जिसे बुढ़ापे ने सब तरफ़ से बरबाद कर रखा था, दूर-दूर पड़ी रबर की दो घिसी चप्पलें, सामने से गीली मटमैली पतलून-सब कुछ दयनीय होते हुए भी मेरी कल्पना में ये किसी प्रेतछाया के से आतंक के साथ मौजूद थीं। मैं यह भी सोचा करता था कि वह अस्पताल से घिसटकर बाहर आ गया है और सड़क के किनारे किसी झाड़ी में पड़ा हुआ दम तोड़ चुका है या तोड़ रहा है।

मेरा मन व्याकुल था, दो दिन व्याकुल रहा। तीसरे दिन भावुकता चुकने लगी, चौथे दिन चुक गई, आहार-निद्रा भय आदि में ज़िंदगी की सहजता लौटने लगी। तभी पाँचवें दिन, जब मैं अपने फाटक पर खड़ा हुआ सामने सवारियों और पैदल राहगीरों के निरंकुश आवागमन को देख रहा था, मैंने सड़क पर उस बूढ़े को ऐंड़े-बैंड़े चलते हुए पाया। वह मेरे सामने से निकला जा रहा था।

वह पिए हुए हो सकता था, पर मुझे न जाने क्यों यक़ीन था कि था नहीं। पर बदहाल तो था ही। फिर भी मैंने राहत की साँस ली : वह ज़िंदा था।

पर क्या वह सचमुच ही ज़िंदा था? सड़क पर वह आदमी की तरह नहीं, उसकी छाया की तरह बढ़ रहा था। लगता था कि क़दम-क़दम पर वह फैल रहा है, सिकुड़ रहा है। उसके क़दम लड़खड़ा रहे थे। आगे की ओर बढ़ते हुए भी कभी-कभी जान पड़ता कि वह बढ़ नहीं रहा है, किसी दायरे में घूम रहा है। सचमुच वही था या मेरा दृष्टि-छल था? बारिश हो जाने से सड़क की पटरियों पर कीचड़ और सड़क पर पानी की इफ़रात थी, क्योंकि किनारे पर नालियाँ न होने से पानी बरसने पर सड़क ही नाली का काम देती थी–फिर, टूट-फूट और गड्ढे भी थे। मैं बुड्ढे को देखता रहा। मैं जानता था कि वह चल रहा है, पर ऐसा नहीं लगता था कि उसका कोई गंतव्य है। उसका समूचा शरीर एक निरुद्देश्य हरकत बनकर रह गया था। मैंने उससे कुछ कहना चाहा, पर तब तक वह आगे निकल चुका था और मैं सोच भी नहीं पाया था कि चाहूँ तो उससे क्या कहूँ। बादलों-भरी शाम के धुँधलके में अराजक यातायात से बेख़बर वह लड़खड़ाता हुआ चला जा रहा था। उसके आगे-पीछे-दाएँ-बाएँ साइकिलों, रिक्शों, स्कूटरों, मोटरों–सभी तरह की सवारियों का ज़ोर था, शोर था और सभी असंभव रफ़्तार से जाती हुई दिख रही थीं। मैंने सोचा : यह सचमुच ही उनसे बेख़बर है या उन्हें अपने ऊपर हमला करने की चुनौती दे रहा है? ऐसा तो नहीं कि वह सचमुच उन्हें ललकार रहा हो; कह रहा हो कि ‘शहर की सारी सवारियों, टैंपो वालो, मोटर-साइकिलों, स्कूटरों, मारुतियों, प्यूज़ो-सीलो-ज़ेन-इंडिका-फ़ोर्ड-मरसिडीज़ो! आओ, मैं तुम्हारे सामने निहत्था खड़ा हूँ, मुझे कुचलो! ज़िंदगी के कुचक्र से मुझे निजात दिला दो!’ इतनी कल्पना कर चुकने पर मैं आत्मनिरीक्षण करने लगा : इस आदमी में ऐसा क्या है जो यह मुझे अप्रासंगिक दिखने लगा है, उसके बारे में बिना कुछ जाने-समझे उसे मैं आत्मध्वंस की ओर मन ही मन ठेल रहा हूँ, उसके लिए ‘ज़िंदगी के कुचक्र’ जैसे चुस्त शब्दों का आविष्कार कर रहा हूँ। अगली बार जब वह मुझे सड़क पर दिखाई दिया, मैं पहले से सतर्क था। जैसे ही वह सामने से निकला, मैंने कहा, ‘‘सुनिए!’’ आज सड़क धूप में थी, शरत्कालीन वनस्पतियाँ चमक रही थीं, मौसम एक साथ कुछ कर्कश, कुछ कमनीय हो रहा था। वह पहले ही की तरह चल रहा था, थोड़े से इस फ़र्क़ के साथ कि पैर लड़खड़ाने के बजाय घिसट रहे थे।

मैंने उसे दोबारा पुकारा, ‘‘आपसे…आप ही से कह रहा हूँ श्रीमान्! ज़रा इधर आइए।’’

एक स्कूटर उसे लगभग छूता हुआ निकल गया। बेख़बर, वह अपनी जगह खड़ा हो गया था। धीरे से उसने अपने पूरे शरीर को मोड़ा–यह काम सिर्फ़ सिर घुमाकर भी हो सकता था–और मिचमिची आँखों से मेरी ओर देखा। इतना कांतिहीन चेहरा, इतनी निस्तेज आँखें–शायद ही मैंने कभी देखी हों। मुझे लगा कि उसकी निगाह मुझे टटोल नहीं पाई है, इसलिए मैंने फिर दोहराया : इधर…इधर आइए, फाटक की तरफ़! धीरे-धीरे–शायद आवाज़ की डोर पकड़े हुए–वह मेरी ओर बढ़ा, आँखें मिचमिचाकर मुझे देखता रहा। मैंने पूछा, ‘‘उस दिन तुमको ज़्यादा चोट तो नहीं आई?’’

वह सोचता रहा, बोला, ‘‘किस दिन?’’

‘‘जिस दिन तुमको इसी फाटक पर किसी टैंपो ने धक्का मारा था।’’

वह सर लटकाए खड़ा रहा, बहुत सोचकर बोला, ‘‘नर्स बहुत अच्छी थी। उसने मुझे चाय पिलाई थी।’’

यानी, इसे दुर्घटना, बेहोशी, पुलिस, इमरजेंसी–कुछ भी याद नहीं! याद है तो सिर्फ़ नर्स की! ‘जिजीविषा’ का क्या कुल मिलाकर यही अर्थ है!

मुझे मज़ाक सूझा, पूछा, ‘‘कैसी थी? काली या गोरी?’’

उसने हताश स्वर में कहा, ‘‘पता नहीं। मैं देख नहीं सकता था। मेरा चश्मा खो गया है। उसी दिन खोया था।’’

‘‘मुझे देख पा रहे हैं?’’

‘‘धब्बे जैसा।’’ उसने फिर कहा, ‘‘मेरा चश्मा खो गया है।’’

अपने को धब्बा कहा जाना मुझे रुचा नहीं, पर उस स्थिति में उसे वहीं छोड़ दिया।

‘‘चश्मे के बिना सड़क पर चलते डर नहीं लगता?’’

उसने धीरे से दाएँ-बाएँ सिर हिलाया, कहा, ‘‘अब, इस उम्र में, किस बात का डर?’’

‘मौत का।’ मैं कह सकता था, पर कहा नहीं। वह ऐसा डर है जिससे मैं ख़ुद आतंकित हूँ।

अचानक मैंने तय किया कि इस गरीब की मैं कुछ सहायता कर सकता हूँ, इसे अपनी कार से इसके घर छोड़ आऊँगा। तय किया और अपने आप पर हँसा भी। मुझे अपने लघु निबंध ‘अपनी शवयात्रा में भीड़ जुटाने के नुस्खे’ की याद आ गई थी। मुझे लगा कि अनजाने ही मैं अपनी शवयात्रा के लिए एक रँगरूट की भर्ती करने जा रहा हूँ। भले ही अपनी उम्र के हिसाब से वह इसके क़ाबिल न हो। अपने आप पर हँसी आई, फिर बड़े अनमनेपन का एहसास हुआ।

पूछा, ‘‘तुम कहाँ रहते हो?’’

जवाब में उसने एक फ़ैशनेबल इलाक़े का नाम लिया जो मेरे घर से डेढ़ किलोमीटर दूर होगा। मैंने पूछा, ‘‘मकान आपका ही है?’’

अपने आप मेरे मुँह से उसके लिए ‘तुम’ की जगह ‘आप’ निकल आया था। उसने कुछ देर विचार किया, कहा, ‘‘था, अब मेरे बेटे का है।’’

मैंने कहा, ‘‘आपको चश्मे के बिना सड़क पर नहीं चलना चाहिए। रुकिए, मैं आपको कार से घर पहुँचाए देता हूँ।’’

‘‘बेकार है।’’ वह बुदबुदाया।

मैंने ज़ोर देकर कहा, ‘‘रुकिए।’’

गाड़ी निकालते समय मैंने नौकर से कहा, ‘‘पहचाना? यह वही बूढ़ा है, उस दिन के एक्सीडेंट वाला। इसका चश्मा खो गया है।’’

नौकर बोला, ‘‘चश्मा मैंने अपनी कोठरी में रख लिया है। पुलिस के जाने के बाद मुझे चहारदीवारी के पास पड़ा मिला था। अभी लाया।’’

कहकर वह कोठरी से चश्मा ले आया, दरअसल यह चश्मे का फ्रेम भर था; शीशे नदारद थे। नौकर ने बताया कि शीशे टूटकर वहीं कहीं गिर गए होंगे।

बूढ़ा कसमसा रहा था, पर किसी तरह उसे गाड़ी की पिछली सीट में बैठा दिया गया था। नौकर ने उसे चश्मे का फ्रेम दिया तो उसने इनकार में सिर हिलाया, बुदबुदाकर बोला, ‘‘बेकार है।’’

फ्रेम घिसा हुआ था, पर सस्ते क़िस्म का न था। मैंने समझाया, ‘‘रख लीजिए। इसमें दूसरे शीशे लग जाएँगे।’’ फिर भी वह इनकार में सिर हिलाता रहा। नौकर ने फ्रेम उसकी जेब में ठूँसा, तब भी उसका सिर हिल रहा था।

रास्ते-भर हम ख़ामोश रहे; एक कारण यह भी था कि हम आगे-पीछे अलग-अलग सीटों पर थे। कुछ मिनटों बाद मैंने उसे उसके मकान के सामने उतारा।

अच्छा-ख़ासा, साफ़-सुथरा, किसी पेंट कंपनी के विज्ञापन जैसा मकान था। सामने पतली सड़क थी, उसके दूसरी ओर पार्क था। मैंने उसे गाड़ी से हाथ पकड़कर उतारा, वैसे उसे छूना अच्छा नहीं लगा। बुड्ढा कुछ देर फाटक पर खड़ा रहा, फिर आँखें मिच-मिच करते हुए वह मुड़ा और पार्क की ओर चलने को हुआ। उसके कदमों में पहले जैसा ही अनिश्चय, वैसी ही दिशाहीनता थी।

सड़क के दूसरी ओर पार्क से सटा हुआ आम का बड़ा पेड़ था। उसके तने को घेरकर तीन ओर चबूतरा बना दिया गया था। चौथी ओर पार्क की रेलिंग थी। चबूतरे पर एक मटमैली आरामकुर्सी पड़ी थी, एक पुराने ढंग की लोहे वाली सीधी कुर्सी भी थी।

जब वह मुड़ रहा था, मैंने उसे टोका, ‘‘यही आपका मकान है न?’’

उसने स्वीकार में सिर हिलाया।

‘‘तब अंदर चलें।’’

उसने दाएँ-बाएँ सिर हिलाते हुए कंधे से फाटक की ओर इशारा किया, ‘‘देख नहीं रहे हैं?’’

फाटक पर अंग्रेज़ी और हिंदी–दोनों भाषाओं में लिखा था : कुत्ते से सावधान!

मैंने हैरत से पूछा, ‘‘आप यहीं रहते हैं, फिर भी घर का कुत्ता आपको नहीं पहचानता?’’

‘‘नहीं।’’ कहकर वह रुका, फिर बोला, ‘‘पर मैं उसे अच्छी तरह पहचानता हूँ।’’

मैंने कमज़ोर आवाज में पूछा, ‘‘फिर भी! यहाँ आपका बेटा है, बहू है! है न?’’

‘‘पर फाटक के पास कुत्ता ही होगा, वे नहीं।’’

मैंने उसके ध्वस्त चेहरे की ओर देखा और पहली बार महसूस किया कि मैं किसी अपढ़ से बात नहीं कर रहा, विडंबना के विषय में उसका दिमाग़ काफ़ी सजग है।

मेरा रुकना ज़रूरी न था, फिर भी मैं रुका रहा। बूढ़ा पेड़ की छाँह में आरामकुर्सी पर पसर गया था, मैं लोहे की कुर्सी पर बैठा था। बीच में असहज ख़ामोशी थी।

धीरे से उसने चश्मे का फ्रेम जेब से निकालकर मेरी ओर बढ़ाया, कहा, ‘‘मेरे लिए बेकार है।’’

‘‘पर चश्मा तो आपको बनवाना ही पड़ेगा।’’

उसने सिर हिलाया : ‘‘नहीं, इस उम्र में…वे ठीक कहते हैं, बेकार रुपिया फूँकने से क्या फ़ायदा? बच्चों के काम आएगा…मेरे दो पोते भी हैं।’’

कुछ कहना चाहिए था, पर मुझे कुछ कहने को नहीं सूझा।

लगा, उसकी बात पूरी नहीं हुई है, वह खुल रहा है। वह रुक-रुककर कहता रहा : ‘‘चश्मे की ही बात नहीं। आँत उतर आती है, हर्निया! प्रॉस्टेट भी…शायद बढ़ा है…पता नहीं। ऑपरेशन नहीं कराया।…झमेला है।…इस उम्र में…सोचा, जो हज़ारों रुपए उस पर बेमतलब फुँकते, वही बच्चों के काम आएँगे। ठीक है न?’’

‘‘बिल्कुल नहीं, यह ठीक नहीं है।’’ मुझे झटका-सा लगा था।

इस प्रतिक्रिया से वह अछूता रहा। कुछ देर बाद बोला, ‘‘आप क्या करते हैं?’’

‘‘लिखता हूँ।’’

शायद इसे पचाने में उसे कुछ समय लगा। लगभग मिनट-भर बाद वह बोला, ‘‘मैं भी लिखता था। पैंतीस साल लिखा। हज़ारों-लाखों फ़ाइलों पर लिखा।…मैं ए.जी. के दफ़्तर में था।’’

मैंने कुछ सफ़ाई देनी चाही, कुछ सूचना भी, पर चुप रहा। बाद में, कुछ कहने भर के लिए कहा, ‘‘तब तो आपको पेंशन मिलती होगी? उसका कुछ हिस्सा आपको अपनी देखभाल में लगाना चाहिए?’’

वह बुदबुदाया : ‘‘इस उम्र में…सब कुछ बेकार-सा है…पर बच्चों के लिए…।’’

मेरे लिए यह अब असह्य हो गया, बोला, ‘‘आप बार-बार ‘इस उम्र में’, ‘इस उम्र में’ क्या रट रहे हैं? इस उम्र में आप बहुत कुछ करने की सोच सकते हैं! आप अपने को अपने लिए, पूरे समाज के लिए उपयोगी बना सकते हैं!’’

‘‘आपने अपने को बनाया है?’’

‘‘जी?’’ मैं आँखें फैलाकर उस निस्तेज चेहरे को देखने लगा।

‘‘आपने ख़ुद अपने आपको…उपयोगी…बनाया है?’’ उसने झिझकते हुए अपनी बात दोहराई।

उसकी आँखें अब भी मिच-मिच कर रही थीं। पर मैं सकपका गया था। अपने आप मेरी निगाह ऊपर की ओर उठ गई। प्रकाश की किरणें घनी पत्तियों से छनकर चबूतरे पर गिर रही थीं। चमकदार आकाश टुकड़े-टुकड़े होकर उनके बीच से झाँक रहा था। उस ओर देखते ही मेरी आँखों के आगे काले-काले धब्बे तैरने लगे। उनमें मुझे इस बूढ़े की खंड-खंड छायाकृतियाँ उभरती-मिटती-सी जान पड़ीं। हर खंड में उसका विकृत चेहरा था जो ऊपर से ऊँची आवाज़ में मेरे ख़िलाफ़ कोई अभियोग पत्र पढ़ रहा था। धूप-छाँव की भ्रांतियाँ–उसकी संतानें मुझे चारों ओर से काले-सफ़ेद, सचल, धब्बों की शक्ल में घेरे हुए थीं। वे बनती थीं, मिटती थीं, फिर बनती थीं।

मैंने मज़बूती से आँखें मूँदीं, खोलीं, मूँदीं, खोलीं। सर झटककर यथार्थ के एक चबूतरे पर लौटा जहाँ कोई गलित-पलित बूढ़ा मेरे सामने पसरा पड़ा था। तब मुझे याद आया : इसने मुझे भी एक धब्बे जैसा देखा था।

कुछ आतंकित, पर अपनी आवाज़ को काबू में रखते हुए मैंने कहा : ‘‘आपकी बात मैं समझा नहीं।’’

‘‘उसमें…समझने को…कुछ नहीं है।…कुछ उपयोगी बनने की बात थी।…आप मुझसे कुछ कह रहे थे, वही मैं आपसे कह रहा था।’’

वह चुप हो गया।

सन्नाटा था, कोई चिड़िया तक नहीं बोल रही थी। भीतर-बाहर, सब ओर, सब तरह का सन्नाटा था।

उसने कहा, ‘‘मेरे साथ जो होगा, सो होगा। पर आप अभी अधेड़ हैं।…आपके पास बहुत वक़्त है…।’’

या बहुत कम : मैंने सोचा।

बोलते-बोलते वह अचानक थम गया। परेशान करने वाली बात यह थी कि उसकी आवाज़ में अभियोग की छाया तक न थी, वह एक दीर्घ सिसकी जैसी थी।

चश्मे का फ्रेम वह अब भी हाथ में लिए था। उसे मैंने एक बार फिर उसकी जेब में रख दिया, धीरे से उठकर चला आया।

मैं गाड़ी कुछ ज़्यादा ही तेज़ रफ़्तार से ले आया–जैसे इस तरह बचाए गए पलों का कोई ख़ास उपयोग करना चाहता हूँ। अजीब-सा लग रहा था। कुछ देर के लिए बची हुई ज़िंदगी का हर एक पल सचमुच क़ीमती बन गया जिसके शीघ्र और सही उपयोग की ज़रूरत मैंने तीव्रता से महसूस की। पर ऐसा कैसे किया जाए, इसका जवाब न सूझा। जो सूझा, वह यह था कि शाम को मैंने पत्रिका के संपादक को फ़ोन किया। ‘अपनी शवयात्रा में भीड़ जुटाने के नुस्खे’ नामक लेख, जिसे मैंने बहुत हास्यपूर्ण समझा था, अब बड़ा हास्यास्पद–लगभग दयनीय लग रहा था।…

कैसी विडंबना है कि दूसरों की आलोचना करते हुए भी, ख़ुद अपने जीवन के क्षणों को किसी श्रेष्ठतर उद्देश्य के लिए समर्पित करने की ज़रूरत मुझे आज तक नहीं अखरी; इसके बजाय–

मज़ाक में ही सही–मैं दूसरों को सलाह दे रहा हूँ कि विराट संभावनावाले इस जीवन के बचे-खुचे समय को निकृष्टता के दलदल में धँस जाने दो, उन्हें अपनी भावी शवयात्रा की तैयारी में खपा दो!

ऊपर अब आकाश के खंड और छाया-प्रकाश के चौंधियाने वाले धब्बे न थे, खुला नीला आकाश था, पर मुझे लगा कि मैं किसी कोठरी में बंद हूँ, वहाँ बरसों से, शताब्दियों से बंद रहा हूँ और कोठरी की छत अब धीरे-धीरे नीची होती जा रही है।

मैंने संपादक से ‘अपनी शवयात्रा में भीड़ जुटाने के नुस्खे’ तुरंत वापस करने का अनुरोध किया।

पर वह उल्लसित था। मेरी बात ख़त्म होने के पहले ही उसने कहना शुरू किया, ‘‘कमाल की चीज़ लिखी है आपने भाई साहब! आपका लेख तो छपने चला गया, छप चुका होगा। वाह! ऐसी चीज़ आप ही लिख सकते थे…।’’

चालू आलोचना में आजकल प्रशंसा के जो चालू शब्द हैं, उन सभी के प्रयोग के साथ मेरी रोक-टोक को पूरी तौर से नज़रअंदाज़ करते हुए वह कोई रटा हुआ संवाद जैसा बोलता रहा, ‘‘…मौत जैसी भयावह स्थिति तक को सामाजिक यथार्थ के शीशे में उतारकर

परिहास के आवरण में आपने जो संवेदनशीलता दिखाई है और जीवन के जिन सरोकारों से मुठभेड़ की है…। प्लीज़, कोई ऐसी ही रचना दो सप्ताह में…।’’

फ़ोन मैंने रख दिया, पर कानों में सैकड़ों ध्वनि-विस्तारकों का निरर्थक शोर अब भी लगातार गूँज रहा था।

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