इन्द्रू छोरा और राक्षसी : लोककथा (उत्तराखंड)
Indru Chhora Aur Rakshasi : Lok-Katha (Uttarakhand)
एक छोटा बच्चा था। उसका नाम था इन्द्रू छोरा। उसके घर से कुछ दूर अमरूद का एक पेड़ था। इन्द्रू इस पेड़ पर अकसर अमरूद खाने जाया करता था। एक दिन इन्द्रू को पेड़ पर चढ़कर अमरूद खाते हुए एक राक्षसी ने देख लिया। वह पेड़ के नीचे आकर इन्द्रू से बोली, ‘‘बेटा ! अपनी आँखें बन्द करो। फिर अमरूद निकालो। ऐसा करने से कच्चे अमरूद पक जाएंगे।‘‘ वह राक्षसी की बातों में आ गया। वह आँखें बन्द कर अमरूद निकालने लगा। वह पेड़ से गिर गया। राक्षसी ने उसे थैले में बन्द कर दिया। वह उसे अपने घर ले जाने लगी। थैले के अन्दर इन्द्रू भगवान को याद करने लगा। भगवान का चमत्कार हुआ। राक्षसी लघुशंका से निवृत्त होने चली गई। उसने थैले को एक स्थान पर रख दिया। इस बीच इन्द्रू थैले के अन्दर से चिल्लाया, ‘‘बचाओ, कोई मुझे बचाओ। वहाँ आस-पास कुछ बच्चे गायों को चरा रहे थे। उन्होंने इन्द्रू को थैले से बाहर निकाल दिया। राक्षसी के थैले के अन्दर बच्चों ने पानी से भरा एक डिब्बा रख दिया। राक्षसी ने इस डिब्बे को इन्द्रू समझा। वह इसे घर ले जाने लगी। जब राक्षसी चल रही थी, पानी के डिब्बे से कुछ पानी रिसकर राक्षसी के शरीर पर गिरने लगा। राक्षसी को लगा कि थैले में बन्द लड़का पेशाब कर रहा है। वह बोली,‘‘मूत,मूत छोरा,मी तेरु घौर मूं क्य करदु?‘‘(ऐ लड़के!तू पेशाब करते रह। मैं घर जाकर तेरा क्या हाल करती हूँ ?)। घर पहुंचने पर राक्षसी ने अपनी लड़की को थैला खोलने को कहा। थैला खोलने पर उसे पानी का डिब्बा दिखाई दिया।
दूसरे दिन की बात है। इन्द्रू अमरूद के पेड़ पर चढ़कर अमरूद खाने लगा। वह राक्षसी फिर पेड़ के नीचे आ गई। वह इन्द्रू की ओर देखकर बोली,‘‘ बेटा! एक पैर कच्ची टहनी पर रखो। दूसरा पैर सूखी टहनी पर , तब अमरूद निकालो। ऐसा करने से अमरूदों का स्वाद मीठा हो जाएगा।‘‘
‘‘मैं आज तुम्हारी बातों में नहीं आने वाला। कल मैं किसी तरह से बच गया था।‘‘ -राक्षसी की बात को सुनकर इन्द्रू बोला।
राक्षसी बोली, ‘‘कल वाली औरत को मैंने भी देखा था। वह तो बुढि़या थी। मैं तो जवान हूँ। मैं कल वाली औरत नहीं हूँ।‘‘
इन्द्रू ने उस औरत की बातों पर विश्वास कर लिया। उसने एक पैर सूखी टहनी और दूसरा पैर कच्ची टहनी पर रखा। ऐसा करते ही वह गिर गया। राक्षसी ने उसे थैले में बन्द कर दिया। वह उसे घर ले जाने लगी। रास्ते में उसे जोर की प्यास लगी। उसने थैलाबन्द बच्चे को एक टीले के ऊपर रखा। वह पानी पीने चली गई। इस बीच गाय चराने वाले बच्चों ने थैले से इन्द्रू को बाहर निकाल दिया। उन बच्चों ने कपड़े से अपना मुँह ढका। अब उन्होंने राक्षसी के थैले के अन्दर मधुमक्खी का एक छत्ता रख दिया। राक्षसी ने मधुमक्खी के छत्ते को ही इन्द्रू समझा। वह अपने घर की ओर चलने लगी। रास्ते में उसे मधुमक्खियों ने काट खाना शुरू कर दिया। उसने समझा कि यह इन्द्रू की शरारत है। वह कहने लगी,‘‘चुन-चुन छोरा। मीं तेरु घौर जैक क्य करदु‘‘ (ऐ लड़के! तू मुझे चूंटा देकर परेशान करता रह। मैं घर जाकर तेरा क्या हाल करती हूँ ?) घर पहुंचते ही राक्षसी ने अपनी बेटी से कहा, ‘‘तब तक इस लड़के को थैले से बाहर निकाल। मैं खाने-पीने की तैयारी करती हूँ।‘‘
राक्षसी की बेटी ने जैसे ही थैले को खोला मधुमक्खियों ने उसको काट खाया। वह रोने लगी। उसने रोते-रोते राक्षसी को बता दिया कि इस थैले के अन्दर मधुमक्खी का छत्ता रखा हुआ था।
अपनी बेटी की दशा देखकर राक्षसी को क्रोध आया। उसने तय कर दिया कि अब की बार इन्द्रू छोरा को लाते समय वह कहीं नहीं रुकेगी। उसे अपने घर लाकर रहेगी।
दूसरे दिन वह राक्षसी फिर उसी अमरूद के पेड़ के नीचे चली गई। आज भी इन्द्रू छोरा पेड़ पर चढ़कर अमरूद खा रहा था। इन्द्रू को उस पर शक न हो इसलिए आज वह छोटी बच्ची के रूप में पेड़ के नीचे खड़ी हो गई। वह तोतली आवाज में इन्द्रू से बोली, “भैया! पेड़ की एक टहनी पर खड़े हो जाओ। इसके बाद आँखें बन्द कर भगवान को याद करो। इससे पेड़ में लगे सब अमरूद पक जाएंगे।‘‘
इन्द्रू को उस बच्ची पर कोई शक नहीं हुआ। उसने वैसा ही किया जैसा बच्ची ने कहा था। वह पेड़ से गिर गया। अब राक्षसी अपने असली रूप में आ गई। उसने इन्द्रू को थैले में बन्द कर दिया। वह रास्ते में कहीं नहीं रुकी। वह इन्द्रू को अपने घर ले जाने में सफल रही। घर पहुंचकर उसने अपनी बेटी से कहा,‘‘अब की बार थैले में न पानी का डिब्बा है और न मधुमक्खी का छत्ता। इसमे अमरूद के पेड़ वाला लड़का है। तुम इसे थैले से बाहर निकालो। तब तक मैं खाना बनाने की तैयारी करती हूँ।‘‘
यह कहकर राक्षसी खाना बनाने का सामान लेने बाहर चली गई। इधर राक्षसी की बेटी ने इन्द्रू को थैले से बाहर निकाल दिया। इन्द्रू , राक्षसी की बेटी से बोला, ‘‘लगता है तुम्हें मधुमक्खियों ने काट खाया है। मेरे पास मधुमक्खी के काटे से बचने का मन्त्र है।‘‘
‘‘मुझे दे दो न।‘‘- राक्षसी की बेटी बोली।
‘‘ठीक है। मैं तुझे यह मन्त्र दे दूंगा किन्तु तुझे पहले मुझे मनचाहे भेष में आने का तरीका बताना होगा।‘‘
राक्षसी की बेटी ने इन्द्रू को एक जड़ी दी। वह बोली, ‘‘इस जड़ी को जीभ में रखने पर तुम जिसका भेष धारण करना चाहो, वैसे ही बन जाओगे। जब तुम अपने असली रूप में आने की सोचोगे तो तुम्हें असली रूप प्राप्त हो जाएगा।‘‘
इस जड़ी के प्रयोग से इन्द्रू ने राक्षसी की बेटी का रूप धारण कर लिया। उसने राक्षसी की बेटी को मारकर ओखली में कूट दिया। राक्षसी खाना बनाने का सामान लेकर वापस आई तो उसने इन्द्रू को ही अपनी बेटी समझा। उसने ओखली से अपनी बेटी का मांस उठाकर पका लिया। उसने अपनी बेटी समझकर इन्द्रू को मांस खाने को दिया।
‘‘आज मेरा मन मांस खाने को नहीं कर रहा है। तुम ही खा लो। मैं कल खा लूंगी।‘‘-राक्षसी की बेटी के भेष में इन्द्रू ने कहा।
राक्षसी ने धोखे से अपनी बेटी का मांस खा लिया। कुछ देर बाद अपने असली रूप में आकर इन्द्रू राक्षसी के मकान के ऊपर चढ़कर चिल्लाने लगा, ‘‘ सब लोगो सुनो। आज एक औरत ने अपनी ही बेटी का मांस खाया है। इन्द्रू को देखकर राक्षसी वास्तविकता समझ गई। वह रोने लगी, बिलखने लगी। पत्थर से अपना सिर पीटने लगी। इसी समय वहाँ एक महात्मा प्रकट हुए। रोते हुए राक्षसी महात्मा से बोली,‘‘ मैं बच्चों को मारकर खाती रही । आज अपनी बेटी के मरने पर मेरी ममता जाग गई है। मुझे भगवान ने राक्षसी क्यों बनाया ?‘‘
‘‘बेटी! जन्म से कोई राक्षस या मानव नहीं होता। राक्षस या मनुष्य तो कर्म से बनते हैं। तुम बुरा कर्म करना छोड़ दो तो तुम भी मनुष्य बन सकती हो।‘‘
राक्षसी ने बुरे कर्म छोड़ने का संकल्प लिया। उसने देखा कि महात्मा के आशीर्वाद से उसकी बेटी जीवित हो गई थी। अब वह अपना समय ईश्वर भक्ति में गुजारने लगी।
(साभार : डॉ. उमेश चमोला)