इन्द्र का अहंकार : अशोक कौशिक
शचीपति इन्द्र कोई साधारण देवता नहीं, अपितु एक मन्वन्तर तक स्वर्ग के अधिपति थे। उन्हें इकहत्तर दिव्य युगों तक दिव्य लोकों का साम्राज्य प्राप्त रहा। तब उन्हें गर्व क्यों न होता? जिस प्रकार किसी का गर्व भंग होता है, उसी प्रकार इन्द्र के गर्व का भंग होना भी स्वाभाविक था।
इन्द्र ने एक बार महर्षि दुर्वासा को किसी कारण कुपित कर दिया। महर्षि ने उसे शाप देकर स्वर्ग को ही श्री-विहीन कर दिया। इसके साथ ही इन्द्र को वक्रासुर, विश्वरूप, नमुचि आदि दैत्यों के वध के कारण ब्रह्महत्या के पाप का भागी भी बना दिया। बृहस्पति के परामर्श पर उनको इस सबके लिए पश्चात्ताप करना पड़ा। बलि द्वारा उनका राज्य अपहरण कर लिये जाने पर दुर्दशा भी भोगनी पड़ी।
गोवर्द्धन-धारण, पारिजात-हरण आदि अनेक प्रसंगों के माध्यम से इन्द्र का कई बार मानभंग होता रहा। मेघनाद, रावण और हिरण्यकशिपु आदि ने भी जब भय दिखाया तो अनेक बार इन्द्र को दुष्यन्त, खट्वांग, अर्जुन आदि से सहायता की याचना करनी पड़ी। मेघनाद ने तो इन्द्र को पराजित करके ही इन्द्रजित् पद प्राप्त किया था।
इस प्रकार इन्द्र के गर्व-मन्थन की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। उन्हीं में से एक कथा यह भी है कि इन्द्र ने एक बार अपना विशाल प्रासाद बनाने का आयोजन किया। इसके निर्माण के लिए विश्वकर्मा को नियुक्त किया गया, जिसमें पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी भवन पूर्ण न हुआ। इससे विश्वकर्मा बड़े श्रान्त रहने लगे। अन्य कोई उपाय न देख विश्वकर्मा ने ब्रह्मा जी की शरण पकड़ी।
ब्रह्मा जी को इन्द्र पर हँसी आयी और विश्वकर्मा पर दया। ब्रह्मा ने बटुक का रूप धारण किया और इन्द्र के पास जाकर पूछने लगे, “देवेन्द्र! मैं आपके अद्भुत भवन के निर्माण की बात सुनकर यहाँ आया तो वास्तव में वैसा ही भवन देख रहा हूँ। इस भवन के निर्माण में कितने विश्वकर्माओं को आपने लगाया हुआ है?”
इन्द्र बोले, “क्या अनर्गल बात पूछ रहे हैं आप? क्या विश्वकर्मा भी अनेक होते हैं?”
“बस देवेन्द्र! इतने प्रश्न से ही आप घबरा गये? सृष्टि कितने प्रकार की है, ब्रह्माण्ड कितने हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश कितने हैं, उन-उन ब्रह्माण्डों में कितने इन्द्र और कितने विश्वकर्मा पड़े हैं, यह कौन जान सकता है? यदि कोई पृथ्वी के धूलिकणों को गिन भी सके, तो भी विश्वकर्मा अथवा इन्द्र की संख्या तो गिनी ही नहीं जा सकती। जिस प्रकार जल में नौकाएँ दीखती हैं, उसी प्रकार विष्णु के लोमकूप-रूपी सुनिर्मल जल में असंख्य ब्रह्माण्ड तैरते दीखते हैं।”
ब्राह्मण बटुक और इन्द्र में इस प्रकार का वार्तालाप चल ही रहा था कि तभी वहाँ पर दो सौ गज लम्बा-चौड़ा चींटियों का एक विशाल समुदाय दिखाई दिया। उन्हें देखते ही सहसा बटुक को हँसी आ गयी। इन्द्र को विस्मय हुआ तो उसने बटुक से पूछा, “आपको हँसी क्यों आ गयी?”
“देवराज! मुझे हँसी इसलिए आयी कि यह जो आप चींटियों का समूह देख रहे हैं न, वे सब-की-सब कभी इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित रह चुकी हैं। इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि कर्मों की गति ही कुछ इस प्रकार की है। जो आज देवलोक में है, वह दूसरे ही क्षण कभी कीट, वृक्ष या अन्य स्थावर योनियों को प्राप्त हो सकता है।”
इन्द्र को बटुक इस प्रकार समझा ही रहे थे कि तभी काला मृग-चर्म लिये उज्ज्वल तिलक लगाये, चटाई ओढ़े, एक-ज्ञानी तथा वयोवृद्ध महात्मा वहाँ आ पहुँचे। इन्द्र ने यथासामर्थ्य उनका स्वागत-सत्कार किया। बटुक ने उनसे प्रश्न किया, “महात्मन्! आप कहाँ से पधारे हैं? आपका शुभ नाम क्या है? आपका निवास-स्थान कहाँ है? आप किस दिशा में जा रहे हैं? आपके मस्तक पर चटाई क्यों है तथा आपके वक्षस्थल पर यह लोमचक्र कैसा है?”
आगन्तुक मुनि ने कहा, “बटुकश्रेष्ठ! आयु का क्या ठिकाना, इसलिए मैंने कहीं घर नहीं बनाया, न विवाह ही किया और न कोई जीविका का साधन ही जुटाया। वक्षस्थल के लोमचक्रों के कारण लोग मुझे लोमश कहते हैं। वर्षा तथा धूप से बचने के लिए मैंने अपने सिर पर चटाई रख ली है। मेरे वक्षस्थल के रोम मेरी आयु-संख्या के प्रमाण हैं। जब एक इन्द्र का पतन होता है तो मेरा एक रोआँ गिर पड़ता है। यही मेरे उखड़े हुए कुछ रोमों का रहस्य भी है। ब्रह्मा के दो परार्ध बीतने पर मेरी मृत्यु कही जाती है। असंख्य ब्रह्मा मर गये और मरेंगे। ऐसी दशा में पुत्र, कलत्र या गृह लेकर मैं क्या करूँगा? भगवान की भक्ति ही सर्वोपरि, सर्व-सुखद और दुर्लभ है। यह मोक्ष से भी बढ़कर है। ऐश्वर्य तो भक्ति में रुकावट तथा स्वप्नवत् मिथ्या है।”
बटुक के प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देकर महर्षि लोमश वहाँ से आगे चल दिये। ब्राह्मण बटुक भी वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
यह सब देखकर इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। उसके होश और जोश सब ठण्डे हो गये। इन्द्र ने महर्षि लोमश के कथन पर विचार किया कि जिनकी इतनी दीर्घ आयु है, वे तो घास की एक झोंपड़ी भी नहीं बनवाते, केवल चटाई से ही अपना काम चला लेते हैं। फिर मेरी ऐसी क्या आयु है, जो मैं इस विशाल भवन के चक्र में पड़ा हुआ हूँ?
फिर क्या था! इन्द्र ने विश्वकर्मा को बुलाकर उनका जितना देय था, वह सब देकर हाथ जोड़ दिये कि उनका भवन जितना और जैसा बनना था, वह बन गया है, अब उनको परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है।
न केवल इतना, अपितु इन्द्र ने वहीं से तत्काल वन के लिए प्रस्थान कर दिया, साथ में चटाई और कमण्डलु भी नहीं लिया।
इन्द्र के इस प्रकार सहसा देवलोक से विलुप्त हो जाने का समाचार गुरुदेव बृहस्पति को ज्ञात हुआ तो उन्होंने इन्द्र की खोज करवायी और उनसे कहा कि उनका इस प्रकार सहसा वन को चले जाना उचित नहीं है। उन्होंने समझाया कि सब कार्य अपने समय पर और अपने नियम के अनुसार ही होने चाहिए, भावुकता के आधार पर नहीं।
देवगुरु का उपदेश सुनकर इन्द्र को सद्बुद्धि आयी। उन्होंने लौटकर पुनः अपना राजपाट और इन्द्रासन सबकुछ सँभाल लिया और यथावसर उसको त्याग भी दिया।