ईमानदार चोर : डोगरी लोक-कथा
Imandar Chor : Lok-Katha (Dogri/Jammu)
एक गाँव में दो ब्राह्मण रहते थे। उनमें से एक धर्मपरायण था, अच्छा था और भक्तिभाव में डूबा रहता था, किंतु दूसरा पक्का चोर था । लेकिन वे दोनों अच्छे मित्र थे । अच्छा ब्राह्मण अपनी शाम चोर ब्राह्मण के घर बिताता, उसे अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाता। इन कहानियों के माध्यम से वह उसे यह बताने की चेष्टा करता कि बुरे कर्म का फल भी बुरा ही होता है। ऐसी नैतिक कहानियों का चोर-मित्र पर अच्छा असर हुआ और उसने निश्चय किया कि वह चोरी करना त्याग देगा और वर्ष में केवल एक ही बार दीपावली के दिन चोरी करेगा, ताकि उसका गुजारा चल सके। अच्छे ब्राह्मण के साथ मित्रता के कारण वह अब बुद्धिमान भी होने लगा था ।
समय बीतता गया। महीने गुजरते रहे। कई वर्ष ऐसे ही बीत गए और फिर अच्छे ब्राह्मण की बेटी के विवाह का समय भी आ गया। परंतु बेचारे गरीब ब्राह्मण के पास बेटी की शादी के लिए धन नहीं था । वह पाँच सौ रुपए लेने के लिए गाँव के महाजन के पास गया, वहाँ के अमीर लोगों तथा अपने जजमानों के पास भी गया, परंतु सभी ने कोई-न-कोई बहाना बनाकर टाल दिया। आखिर उसने यह समस्या अपने चोर मित्र को बताई, "तुम्हें तो मालूम ही है कि बिटिया विवाह के योग्य हो गई। है। उसके लिए मैंने एक अच्छा वर भी ढूँढ़ लिया है। मैं अपने गाँव में किसी से भी पाँच सौ रुपए उधार न ले सका। सभी ने कोई-न- कोई बहाना बना दिया। मैं बिटिया की शादी तभी कर पाऊँगा, जब धन होगा। किसी भी तरह मुझे पाँच सौ रुपए दिलवा दो। मैं शादी के बाद सभी पैसे लौटा दूँगा।"
चोर ब्राह्मण ने उत्तर दिया, "मैं तुम्हारी समस्या समझ सकता हूँ, मगर मैं कैसे सहायता करूँ? मैंने तो चोरी करना छोड़ दिया है। केवल दीपावली के दिन कुछ उठा लाता हूँ। दीपावली में तो अभी पूरे नौ महीने बचे हैं। ऐसे में क्या हो सकता है ?"
मित्र ने कहा, "मुझे नहीं मालूम कि तुम क्या कर सकोगे, मगर किसी भी तरह अगले पाँच दिनों के अंदर मुझे कहीं से पाँच सौ रुपए ला दो; नहीं तो कन्या अविवाहित रह जाएगी।"
चोर ब्राह्मण ने कुछ सोचा और फिर कहा, "ठीक है, मैं पाँच दिनों के अंदर-अंदर वापस आ जाऊँगा। लेकिन अगर मैं नहीं लौट पाया तो मेरी प्रतीक्षा मत करना।"
अच्छे ब्राह्मण ने कहा, “मैं यहाँ बारिश में खड़े रहकर, दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करता रहूँगा, ताकि तुम धन लेकर लौट आओ। जब तक तुम आओगे नहीं, तब तक मैं यहीं रहूँगा ।"
चोर चोरी करने चल पड़ा। कुछ ही देर में वह नदी के पास पहुँच गया। नदी पार करने के लिए वह पानी में उतरा ही था कि पीछे से किसी ने पुकारा, "ऐ मित्र ! जरा मेरी प्रतीक्षा करो।"
उसने देखा कि यह तो मंदिर का पुजारी है, जो नदी पार कराने में उसकी सहायता चाहता है। पुजारी उसके पास आ गया। अपनी पोटली थमा दी और अपना एक हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। दोनों नदी पार करने लगे। अभी वे पानी में दो या तीन कदम ही चले थे कि पीछे से पक्षी की आवाज आई। चोर ने अपना सिर हिलाया। जब वे नदी के बीचोबीच पहुँचे तो पक्षी ने फिर आवाज दी। चोर ने फिर से 'नहीं' में सिर हिलाया। चोर और पुजारी नदी के उस पार पहुँच गए। चोर ने पुजारी को उसकी पोटली वापस दे दी और उसे अपनी यात्रा पर आगे जाने को कहा। मगर पुजारी यह जानने को उत्सुक हुआ कि पक्षी ने क्या कहा था और चोर ने क्यों बार-बार अपना सिर हिलाया। चोर ने उत्तर दिया, "पुजारीजी, इससे आपको क्या मतलब? आपने नदी तो पार कर ली है। जो सहायता मैं कर सकता था, मैंने कर दी। अब आप अपने रास्ते जाइए और मैं अपने रास्ते चलूँ।"
लेकिन पुजारी गया नहीं। वह हठ करने लगा। तब फिर चोर ने कहा, " ठीक है, आप ऊपर चंद्रमा की ओर देखो और हाथ में जल लेकर प्रतिज्ञा करो कि जो मैं कहूँगा, वह किसी से नहीं कहोगे ।"
पुजारी ने चंद्रमा की ओर देखा। हाथ में जल उठाया और प्रतिज्ञा ली। तब चोर ने यों कहा, "देखिए, मैं एक चोर हूँ। मेरे मित्र की पुत्री का विवाह होनेवाला है। उसकी शादी के लिए पाँच सौ रुपए जुटाने हैं, इसीलिए चोरी करने निकला हूँ। जब हम पानी में चलने ही लगे थे, तब पक्षी ने मुझसे कहा कि तुम्हारी पोटली में सोना रखा हुआ है और मैं उसमें से पाँच सौ रुपए के बराबर निकाल सकता हूँ। मगर मैंने सिर हिलाकर उससे कहा कि मैं कुछ भी नहीं चुराऊँगा। क्योंकि तुमने मुझे मित्र कहकर पुकारा था, सहायता के लिए अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया था। मित्रधर्म निभाना मेरा कर्तव्य था। अपने मित्र का आदर करना, उसके प्रति निष्ठा को मैं कैसे भूल सकता हूँ।"
पुजारी ने सिर हिलाया। चोर ने आगे कहा, "जब हम नदी के बीचोबीच आ गए थे, तब पक्षी ने यह कहा कि मैं तुम्हें पानी में धक्का दूँ और सोना ले जाऊँ। लेकिन मैंने इनकार किया। यदि में ऐसा करता तो मैं अपने मित्र के साथ धोखा करता । मैं मित्रघात कैसे कर सकता था।"
यह सुनकर पुजारी अपने रास्ते चला और पूरी यात्रा में इस धर्मी और ज्ञानी चोर के बारे में सोचता रहा। उसने अपने आप से कहा, 'मुझे यह बात किसी से नहीं कहनी चाहिए, मगर यह बात मुझे राजा को अकेले में कहनी होगी ।'
पुजारी राजा के दरबार में गया। जैसे ही दरबार की काररवाई पूरी हुई, वैसे ही वह राजा के पास पहुँचा और उससे अकेले में कुछ कहने का अनुरोध किया। राजा मान गया। उसने राजा को सारी कहानी सुनाई। राजा ने कहा, "चोरी करना तो बहुत बड़ा पाप है। महापाप ! जिसने भी ऐसा किया है, वह धर्मी और ज्ञानी कैसे हो सकता है? मैं इसकी स्वयं जाँच करूँगा। मुझे उस चोर का पता-ठिकाना बता दो।"
पुजारी चोर को ढूँढ़ने चला। चलते-चलते वह एक सराय के पास पहुँचा। देखा तो चोर वहीं था। वह एकदम से लौटा और राजा को सराय का पता-ठिकाना बता दिया। राजा ने मक्का की दो रोटियाँ बनवा लीं। उनको पोटली में रखा। अपना वेष बदल लिया और एक साधारण आदमी बनकर सराय में पहुँचा। आधी रात होने को थी। उसने चोर को देखते ही उसे बातों में उलझा दिया। चोर ब्राह्मण ने पूछा, "तुम कौन हो?'' राजा ने कहा, “मैं एक चोर हूँ।" चोर ब्राह्मण ने उसे बताया, मैं सामनेवाली दुकान में आधी रात के बाद चोरी करनेवाला हूँ।
राजा ने कहा, "मुझे एक हजार रुपयों की जरूरत है।"
कुछ ही देर बाद वे दोनों दुकान की ओर गए । चोर-ब्राह्मण ने ताला तोड़ा और दुकान के अंदर घुस गया। तिजोरी तोड़कर उसने पाँच सौ रुपए अपने लिए और एक हजार रुपए अपने साथी के लिए निकाले । उसने राजा को उसकी जरूरत जानकर एक हजार रुपए दे दिए। तब उसने कुछ खाने के लिए दुकान में पड़ी बोरियों की ओर देखा। उसे भूख लग रही थी, क्योंकि जब से वह घर से चला था, तब से उसने कुछ भी नहीं खाया था । उसे सामने की बोरी में कुछ सफेद-सफेद सा नजर आया । शायद चीनी थी। उसने मुट्ठी भर उठाई और अपने मुँह में डाल ली। यह क्या, यह तो नमक है! उसने एकदम से सब थूक दिया। अपने साथी से हजार रुपए वापस माँगे। जब राजा ने रुपए देने से इनकार किया तो उसने उसके मुँह पर एक तमाचा जड़ दिया और रुपए छीन लिये। उसने अपनेवाले पाँच सौ रुपए और राजा से लिये हुए हजार रुपए वापस तिजोरी में डाले। तिजोरी में ताला लगा दिया, दुकान बंद कर दी और सराय की ओर वापस जाने लगा। राजा उसके पीछे-पीछे चलता रहा। जब वे सराय के अंदर पहुँचे तो राजा ने पूछा, "भाई, पहले तो तुमने रुपए चुराए और फिर वापस तिजोरी में रख दिए। ऐसा क्यों ?" चोर ब्राह्मण ने उत्तर दिया, "मैं भूखा था, मगर गलती से दुकानदार का नमक खा लिया। जिसका नमक खाया हो, उसे धोखा नहीं देते। इसीलिए रुपए वापस तिजोरी में रख दिए।"
राजा को विश्वास हो गया कि पुजारी ने जो भी कहा था, वह सही है। उसने चोर से कहा, "अच्छा चलो, किसी और जगह चोरी करते हैं। "
यह सुनते ही चोर ब्राह्मण ने राजा को एक और तमाचा जड़ा और कहा, "क्या हम रात भर चोरियाँ ही करते रहेंगे ? आज के लिए इतना ही कल कहीं और जाएँगे।"
राजा ने अपनी पोटली से रोटियाँ निकालीं और चोर को खाने के लिए दीं। अगली रात किसी निश्चित स्थान पर मिलने का समय बताया।
अगली रात राजा उसी तरह एक साधारण आदमी के वेष में आया और चोर ब्राह्मण को खाने के लिए दो रोटियाँ दीं। जब वह खाकर तृप्त हुआ तो राजा ने कहा, 'चलो, आज राजा के खजाने को लूटते हैं। वहाँ बहुत सा धन है।"
चोर ने कहा, "मगर मुझे तो राजा के महल और वहाँ के खजाने के बारे में कुछ भी नहीं मालूम है।"
'मुझे सारे रास्ते और गलियारे मालूम हैं। चलो, चलते हैं।" राजा अपने पहरेदारों को परखना भी चाहता था । उसने तीनों द्वारों पर पहरेदार रखे थे और चौथे के पास एक कुत्ता बाँध रखा था। जब वे राजकोष के पास पहुँचे तो देखा कि तीनों पहरेदार और कुत्ता गहरी नींद में सोए पड़े थे। राजा ने चोर ब्राह्मण को सभी मार्ग दिखलाए। चोर आया और खजाने का ताला तोड़ने लगा। तभी पक्षी बोला और कुत्ता भौंकने के बजाय पिनपिनाने लगा। जब चोर ने खजाने के अंदर रखी बहुत बड़ी तिजोरी का ताला तोड़ा तो पक्षी ने फिर आवाज की और कुत्ता फिर से पिनपिनाया । चोर ब्राह्मण ने सिर हिलाया। उसने पाँच सौ रुपए अपने और एक हजार रुपए अपने साथी के लिए निकाले। पक्षी ने फिर पुकारा और कुत्ता भी फिर से पिनपिनाया। चोर ने रुपए वापस तिजोरी में रख दिए और राजा को भीतर बुलाया। जब राजा अंदर आया तो चोर उसके पैरों में गिर पड़ा और बोला, “महाराज, मैं आपका चोर हूँ और आप हमारे स्वामी हैं। आपने मुझे रँगे हाथों पकड़ लिया है। जो भी दंड देना चाहें, दे दीजिए, मगर पाँच सौ रुपए मेरे मित्र के पास भिजवा दीजिए। उसकी बेटी की शादी है। "
राजा ने उससे पूछा कि वह कैसे जान गया कि उसका साथी चोर नहीं राजा है। चोर ने कहा, "महाराज, जब मैंने राजकोष का बाहरी ताला तोड़ा तो पक्षी बोलने लगा और कुत्ता पिनपिनाया । पक्षी ने कुत्ते से कहा था, खजाने में चोर घुस आया है और तुम सो रहे हो। तुम एक नमकहराम हो ।
"महाराज, कुत्ते ने उत्तर दिया था, मैं तब भौंकता हूँ, जब चोर होता है। यह तो स्वयं राजा है। मैंने यकीन नहीं किया। जब पक्षी ने दोबारा कहा तो कुत्ते ने फिर वही उत्तर दिया। मुझे तब भी यकीन नहीं हुआ। मगर जब तीसरी बार यही हुआ तो मैं समझ गया कि आप चोर नहीं, राजा हैं। "
कुछ रुककर उसने फिर कहा, "महाराज, कृपा करके पाँच सौ रुपए मेरे मित्र के पास भिजवा दीजिए। मेरे लिए आप जो भी सजा तय करें, मुझे मंजूर है।"
अगली सुबह राजा ने दरबार बुलाया। दरबारियों को चोर ब्राह्मण की पूरी बात बताई। चोर ने कहा, "महाराज! यह सारा ज्ञान और अच्छी बातें मैंने अपने ब्राह्मण मित्र से सीखी हैं, जिसकी पुत्री का विवाह होनवाला है। उसकी मित्रता और सदाचार की शिक्षा ने ही मुझे सही रास्ते पर ला दिया है। अब मैं केवल दीपावली के दिन किसी भंडार से कुछ जरूरत का सामान उठा लेता हूँ, जिसकी अनुमति है। आज मैंने अपना संकल्प इसलिए तोड़ा, क्योंकि मैं अपने मित्र की सहायता करना चाहता था। कृपया कल तक उसके पास पाँच सौ रुपए भिजवा दीजिए। वह मेरी प्रतीक्षा में खड़ा होगा। मैंने उससे कहा था कि मैं पाँच दिनों के अंदर-अंदर रुपए लेकर आ जाऊँगा।"
राजा ने उसी समय अपने दूत को पाँच सौ रुपए देकर उस पते पर भेजा, जो चोर ने बताया था। संदेश वाहक ने ब्राह्मण को चोर ब्राह्मण के आँगन में, मूसलधार बारिश में खड़ा पाया । दूत ने उसे रुपए देते हुए कहा,
“यह रुपए लो, तुम्हारा मित्र चोरी करते हुए रँगे हाथों पकड़ा गया है।" यह सुनकर अच्छे ब्राह्मण ने रुपए लेने से इनकार कर दिया और बोला, “अब मैं अपनी बेटी का विवाह नहीं करूँगा। मैं ये रुपए नहीं ले सकता। ये रुपए मुझे अपने मित्र से लेने थे।"
दूत वापस राजा के पास गया और वह सब बताया, जो अच्छे ब्राह्मण ने कहा था। यह भी बताया कि वह बारिश में खड़ा कुछ बुदबुदा रहा था।
राजा और चोर ब्राह्मण उसी क्षण अच्छे ब्राह्मण के पास आए और उसे पाँच सौ रुपए थमा दिए ।
(साभार : गौरीशंकर रैणा)