इक्कीसवीं सदी की पहली कहानी (कहानी) : मसऊद अशअर

Ikkisvin Sadi Ki Pehli Kahani (Story in Hindi) : Masood Ashar

"अमेरिका ऑन लाइन और टाइम वार्नर एक हो गये हैं और उन्होंने ई.एम.आई. भी ख़रीद लिया है। बेचम वेलकम और ग्लैक्सो भी आपस में मिल गये हैं, बिल गेट्स ने एम.डी. के ओहदे से इस्तीफ़ा दे दिया है। टेड टर्नर और जेन फोण्डा में अलहदगी हो गयी है और चार्ली ब्राउन मर गया।"

अहमद ने एक ही साँस में ये सारी ख़बरे ऐमन को सुनायी और कहा, "अब तुम हमें अच्छी-सी चाय पिला दो कि हमने एक मिनट में तुम्हारी मालूमात में इतना इज़ाफ़ा कर दिया है कि दिनभर अख़बार पढ़ती रहती तब भी तुम्हें इतनी बातें मालूम न होतीं। और अगर तुम्हें ये बातें मालूम न होतीं तो तुम नयी सदी के इतने अहम वाक़यात के इल्म से महरूम रह जाती। और अगर इन मालूमात से महरूम रह जाती तो फिर तुम अपनी शादी के इमकान से महरूम रह जाती कि इन्फॅार्मेशन टेक्नालॉजी का ज़माना है और इस ज़माने में...शादियाँ इण्टरनेट पर हो रही हैं यक़ीन न हो तो फ़ोन करो वाशिंगटन और मालूम करो अपने कजिन से कि उसने अमरीका में बैठकर आस्ट्रेलिया की लड़की से शादी कैसे की है।"

अब ऐमन की बारी थी उसने जवाब दिया - "इस ज़हमत का बहुत-बहुत शुक्रिया। मगर ये सारी बातें हमें पहले ही मालूम हैं कि हमें भी इण्टरनेट देखना आता है। ये और बात है कि तुम्हारी तरह हमें इण्टरनेट का नशा नहीं है कि सुबह से रात गये तक कम्प्यूटर के सामने बैठे अपनी आँखें फोड़ती रहें। दूसरे... ठहर जाओ... हमें बात पूरी करने दो... दूसरे, वाक़यात से या उन वाक़यात का इल्म होने न होने से हमारी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हत्ता कि हमारी क़ौम का एक बाल भी बाँका नहीं होगा कि हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे। और शादी करो तुम और तुम्हारे होते-सोते। हमारे इरादे नहीं हैं शादी-वादी करने के। अब रही चाय तो अव्वल तो हम आपके लिए चाय बनाने से रहे। दूसरे इस घर में हर काम का वक़्त मुक़र्रर है। चाय तीसरे पहर पाँच बजे मिलती है, रात के दस बजे नहीं। इस वक़्त सिर्फ़ दूध मिलता है और वो भी सिर्फ़ तुम्हें कि तुम अपनी दादी जान के लाडले हो। तुम्हारे लिए दूध ज़रूरी है कि तुम लड़के हो। हमारे लिए ज़रूरी नहीं हम लड़की हैं। जाओ देखो वो तुम्हारे लिए गर्म दूध लिए बैठी होंगी जल्दी जाओ वरना दादी ख़ुद ही यहाँ आ जायेंगी।"

ये उन दोनों को खेल था जो वो ज़बान के साथ खेला करते थे क्यूँकि दादी उनसे पुरानी कहानियाँ और दास्तानें पढ़वाकर सुनती थीं। दादी ने सारी उम्र यही ज़बान पढ़ी और पढ़ाई थी। वो कहती थीं कि तुम स्कूलों-कालिजों में तो ये ज़बान पढ़ते नहीं, इन कहानियों में ही पढ़ लो। इस बहाने तुम्हारे अख़लाक़-ओ-आदाब भी दुरुस्त होंगे। तुम्हें अपने रस्म-ओ-रिवाज़ का भी पता चलेगा और तुम्हारी ज़बान भी ठीक हो जायेगी। दादी के सामने तो वो इस ज़बान का मज़ाक़ उड़ा नहीं सकते थे इसीलिए अकेले में वो इसी ज़बान में बात करते और ख़ुश होते थे। ये ज़बान उन्हें मज़ाक़ ही नहीं लगती थी ना।

"मगर ये चार्ली ब्राउन कौन था?" ऐमन ने झुँझलाकर कहा।

"देखा ना, अभी कह रही थीं कि मुझे सब मालूम है और अब पूछ रही है चार्ली ब्राउन कौन था। फिर पूछेंगी कि ये टेड टर्नर कौन है और जेन फोण्डा क्या बेचती है।"

"ख़ैर टेड को तो मैं जानती हूँ। वही बदशक्ल सफ़ेद बालोंवाला बुड्ढा जिसने इतनी ख़ूबसूरत जेन फोण्डा से शादी की है..."

"और जेन फोण्डा को इसीलिए जानती हो कि अम्मी ने तुम्हें उसकी वीडियो ला दी है उसे देख-देखकर दुबली-पतली होने के लिए एक्सरसाइज़ करती रहो..."

"सच्ची बात बताऊँ?" अब अहमद भी शख्रमन्दा हो रहा था - "इतना तो मुझे मालूम है कि चार्ली ब्राउन एक कार्टून केरैक्टर है मगर ये समझ नहीं आ रहा है कि उसके बन्द हो जाने पर इतना रोना-पीटना क्यूँ मच रहा है। मैं इस बारे में इण्टरनेट पर देख ही रहा था कि तुम टपक पड़ीं और अब तो हमारा वक़्त ख़त्म हो चुका है।"

"अच्छा अम्मी से पूछेंगे।"

"अम्मी से नहीं अब्बू से। अम्मी ये पख़ नहीं पालतीं। वो सिर्फ़ अपना सब्जेक्ट ही पढ़ना जानती हैं। बाक़ी बातों में वक़्त ज़ाया नहीं करतीं। हाँ अब्बू को मालूम होगा। ये उनके ज़माने का ही कार्टून है।"

रात के दस बज चुके थे और इण्टरनेट पर उन दोनों का वक़्त ख़त्म हो चुका है। उन दोनों को रात नौ बजे से दस बजे तक इण्टरनेट खोलने की इजाज़त थी। आधा घण्टा ऐमन का। वैसे उन्हें इजाज़त थी कि वो जिस वक़्त चाहें कम्प्यूटर पर अपने स्कूल और कॉलिज के प्रोजेक्ट तैयार करें या सी.डी. लगाकर गाने देखें और सुने या फिर हरकुलीज़ जैसे गेम्स पर दिमाग़ लड़ाएँ कि रिफ़्लेक्सेज़ तेज़ करने के लिए ये गेम्स इन्तिहाई ज़रूरी हैं। टोफेल और सेट के इम्तिहानों में यही हाज़िर दिमाग़ी और रि"रलेक्सेज की यही तेज़ी तो काम आती है। और उन्हें ये दोनों इम्तिहान देने थे कि अमेरिका जाना था। लेकिन इण्टरनेट रात के दो बजे से पहले नहीं खुल सकता था। घर में टेलीफ़ोन एक ही था और अम्मी अब्बू और दादी के फ़ोन आते रहते थे। मोबाइल अब्बू के पास रहता था जो अक्सर घर से बाहरी भाग-दौड़ में लगे रहते थे। दस बजे के बाद कोई और इण्टरनेट इसीलिए नहीं खोल सकता था कि दस से बारह साढ़े बारह बजे तक अब्बू का वक़्त होता था। अम्मी को सिरे से ही दिलचस्पी नहीं थी बल्कि उन्हें तो किताबों से ही फ़ुरसत नहीं मिलती थी कि वो कम्प्यूटर खोलकर बैठती। इसीलिए उन्होंने कम्प्यूटर को हाथ लगाना ही नहीं सीखा था। उन्हें तो किसी को ई-मेल भी करना होता तो उन दोनों में से किसी से कहतीं - ज़रा ई-मेल कर दो - फिर वो बोलती जातीं। और उनमें से कोई कम्पोज़ करता जाता। वैसे अम्मी को इसकी ज़रूरत भी सिर्फ़ उस वक़्त पड़ती थी जब अब्बू शहर से बाहर होते वरना अपने और अम्मी के ई-मेल अब्बू ही करते थे। दादी को शौक़ हुआ था कम्प्यूटर सीखने का मगर वो जल्दी ही बोर हो गयी थीं। अब्बू रात को ठीक दस बजे इण्टरनेट पर ऐसे बैठते जैसे बहुत ज़रूरी काम कर रहे हों। आम तौर पर वो अकेले ही होते लेकिन कभी-कभी वो अम्मी को भी बुला लेते थे और फिर उन दोनों के हँसने की आवाज़ दूसरे कमरों तक सुनायी देती थी।

"अब्बू चार्ली ब्राउन मर गया।" अहमद ने किसी भूमिका के बग़ैर एकदम ऐलान कर दिया। उसका ख़याल था कि ये ख़बर सुनकर अब्बू को भी ऐसा ही सदमा होगा जैसा दुनिया भर में महसूस किया जा रहा था। ये दूसरी शाम की बात है। अब्बू उसी वक़्त बाहर से आये थे और बेवक़्त चाय पी रहे थे कि अम्मी के हिसाब से छह बजे चाय नहीं पी जा सकती। दादी और अम्मी भी साथ ही बैठी थीं। सामने टी.वी. खुला था जिसे कोई भी नहीं देख रहा था।

"कौन मर गया?" अब्बू के बजाय दादी ने सवाल किया। किसी के मरने-जीने की सबसे ज़्यादा फ़िक्र उन्हीं को होती थी।

"चार्ली ब्राउन। आप जानती हैं उसको?" अहमद ने अपनी दादी से मज़ाक़ किया। दादी अख़बार पढ़ती थीं। अंग्रेज़ी अख़बार सरसरी ही देख लिया करती थीं।

"तेरा कोई दोस्त था?" अब्बू को जवाब देने का अभी तक कोई मौक़ा ही नहीं मिला था। अभी दादी की जिरह ही जारी थी।

"हाँ मेरा दोस्त था..." उसने फिर दादी को छेड़ा।

"तुमने फिर वही कहा।" दादी ने हस्बेमामूल उसकी ज़बान पकड़ी, "कितनी मर्तबा समझाया है कि हाँ नहीं कहते जी कहते हैं। मगर तुम्हारी समझ में नहीं आता।"

"दादी ये बाहर के टी.वी. चैनल और फ़िल्में देखता है न इसीलिए इसकी ज़बान ख़राब हो गयी है" ऐमन ने भी अब लुक़मा देना ज़रूरी समझा। अब्बू और अम्मी ख़ामोश बैठे हँस रहे थे। ऐसे मौक़े पर दोनों हमेशा हँसते रहते थे।

तुम्हारी ज़बान कौन-सी अच्छी है। तुम भी कहती हो, भाई आप क्या खाओगे। आप कहाँ जाओगे।" दादी ने ऐमन को भी डाँटा।

"आपकी ज़बान में शायद इसे सुतर गुरवा कहते हैं।" अब्बू ने अपनी माँ से मज़ाक़ किया। उन्होंने भी उर्दू अपनी माँ से ही पढ़ी थी।

"तुम भी अपनी जाने दो। ये सब तुम दोनों का ही कुसूर है। तुम ख़ुद भी तो ऐसी ही ज़बान बोलते हो।" दादी झुँझला गयी थीं, "किसी को ज़बान की सेहत का ख़याल नहीं रहा।"

"अम्माँ आप भी कैसी बातें कर रही हैं।" अब अम्मी के बोलने की बारी थी।

"आजकल लोग अपनी सेहत का ख़याल नहीं रखते ज़बान की सेहत का क्या ख़याल रखेंगे।" अम्मी ने ये बात मज़ाक़ में कही थी लेकिन दादी इस वक़्त मज़ाक़ के मूड में नहीं थी।

"लो ख़ुद ही देख लो। जब बड़े बच्चों के सामने ऐसी बातें करेंगे तो बच्चे तो ख़ुद ही शेर हो जायेंगे।"

"शेर हो नहीं जायेंगे दादी, बच्चे शेर हो गये हैं।" अहमद ने दादी को और छेड़ा और दादी ने सचमुच नाराज़ होकर अपना मुँह फेर लिया।

"बुरी बात अहमद" बाप ने उसे डाँटा लेकिन ऐसे कि उनके होंठों पर मुस्कुराहट थी। दादी का मुँह फूला हुआ था।

"हम ये नहीं कहते की नयी बातें न सीखो मगर छोटे-बड़े की तमीज़ तो रखो" दादी जैसे अपनेआप से ही कहे जा रही थीं-"अब ‘बाज़ी’ ‘आपा’ भी ख़त्म हो गया। छोटा भाई बड़ी बहन का नाम लेता है..."

"अम्माँ, अब तो यही होगा।" अम्मी ने डरते-डरते होंठों ही होंठों में कहा,

"ज़माना ही ऐसा है।"

"कल को माँ-बाप का नाम भी लिया जाने लगेगा।" दादी बोले जा रही थीं।

"अम्माँ... आप अमरीकी फ़िल्में नहीं देखती न और टी.वी. के प्रोग्राम भी नहीं देखतीं। ये काम तो वहाँ एक ज़माने से शुरू हो चुका है।" अब्बू अपनी बीवी का साथ दे रहे थे।

"मेरी समझ में तो आजकल के माँ-बाप नहीं आते" दादी ने जैसे उनकी बात नहीं सुनी थी वो अपनी ही कहे जा रही थीं - "बच्चों से कुछ न कहो। बच्चों को कुछ न सिखाओ। बच्चे जो करते हैं, करने दो। उनके लिए सबकुछ बच्चे ही हैं। उठते बच्चे, बैठते बच्चे। न दिल का चैन न रात का आराम। हर वक़्त बच्चों की फ़िक्र। बच्चों के लिए ये लाना है बच्चों के लिए वो लाना है। बच्चे ये माँग रहे हैं, बच्चे वो माँग रहे हैं। बच्चे इस स्कूल में पढ़ रहे हैं, बच्चे उस स्कूल में पढ़ रहे हैं। ये स्कूल अच्छा है। वो स्कूल अच्छा नहीं है। बच्चे क्या पढ़ रहे हैं माँ-बाप पढ़ रहे हैं। बच्चे पास-फेल रहे हैं माँ-बाप पास-फेल हो रहे हैं। हमने भी बच्चे पाले। हमनें भी तुम्हें खिलाया-पढ़ाया। तुमने सी.ए. किया, छोटा भाई डॉक्टर बना। उसने इंग्लैण्ड से एफ.आर.सी.एस. किया। तुम्हारी बड़ी बहन को डॉक्टर बनाया और दूसरी ने इंग्लिश में एम.ए. किया। और हमने ख़ुद भी पढ़ा। और उस वक़्त पढ़ा जब तुम चारों बड़े हो गये थे। मगर ऐसा नहीं हुआ की बच्चों को सिर पर सवार कर लिया हो। दोनों मियाँ-बीवी दिन रात कमाई करने लगे हैं। न दिन का चैन है न रात का आराम। और सारी कमाई कहाँ जा रही है? बच्चों पर। सारा वक़्त कहाँ र्ख़च हो रहा है? बच्चों पर..." दादी का ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।

वो दोनों मियाँ-बीवी जानते थे की उनका ये ग़ुस्सा क्यों है। उन्हें इस बात की तकलीफ़ थी कि उनके बेटे को आराम करने का ज़रा-सा भी वक़्त नहीं मिलता। सुबह से जो निकलता है तो रात को ही घर में घुसता है। बहू है वो बच्चों को स्कूल लाने ले जाने में मसरूफ़ रहती है या स्कूल जाने और बच्चों को पढ़ाने में। हाँ ओ लेविल और ए लेविल के बच्चों को पढ़ाने में। घर में भी हर वक़्त बच्चों की पढ़ाई के सिवा और कोई बात ही नहीं होती।

"अम्मी यही बच्चे तुम्हारा मुस्तक़बिल हैं," अब्बू ने डरते-डरते कहा।

"बच्चे हमारा भी मुस्तक़बिल थे।" दादी ने भी उसी लहज़े में जवाब दिया।

"इसीलिए आप देख रही हैं अपना मुस्तकबिल" अब्बू मज़ाक़ करते नहीं चूकते थे। कहने को तो यह कह दिया लेकिन फ़ौरन ही अपनी ग़लती का अहसास हो गया और पलटकर उन्होंने अहमद को डाँटा, "माफ़ी माँगो दादी से। बत्तमीजी करने लगे हो। देखो दादी नाराज़ हो गयीं।"

"सॉरी दादी, आइन्दा हम बत्तमीजी नहीं करेंगे, अल्लाह का वादा।" यह कहकर अहमद ने अपनी गरदन की खाल पकड़ी और दादी से लिपटकर घूमने लगा। माँ ने इशारा किया तो ऐमन भी उनसे लिपट गयी। "मेरी दादी, प्यारी दादी, आप तो नाराज़ हो गयीं।"

"अच्छा-अच्छा, मुझे तो छोड़ो," दादी ने गुत्थम-गुत्था होते अपने पोते और पोती को हटाया और हँसकर प्यार से उनके थप्पड़ लगाये। "मगर ये बताओ, ये अल्लाह का वादा क्या होता है और ये तुमने अपने नरखरे पर हाथ क्यों लगाया?" ये सवाल उन्होंने बच्चों से किया था लेकिन वो देख रही थीं बच्चों के माँ-बाप की तरफ़। उन्होंने बच्चों को ऐसा करके कई बार देखा था लेकिन वो हर बार ख़ामोश हो गयी थी कि आजकल सारे बच्चे ऐसा ही करते हैं। और फिर उन्होंने हिन्दुस्तानी फ़िल्मों में और उनके टी.वी. पर भी ऐसा ही देखा था। लेकिन इस वक़्त बच्चों के साथ उनके माँ-बाप मौजूद थे इसीलिए वो उनके सामने ये बात करना चाहती थीं। उन्हें अहसास दिलाना चाहती थी कि आखि़र हमारे बच्चे दूसरों की नक्ल में कहाँ तक जायेंगे।

"माँ आप जानती हैं अल्लाह का वादा अंग्रेज़ी का तर्जुमा है और गरदन को हाथ लगाना भी," अब्बू ने जवाब देने की कोशिश की लेकिन ये उन्हें भी मालूम नहीं था कि गरदन को हाथ क्यों लगाते हैं। और ये बात ख़ुद बच्चों को भी मालूम नहीं थी। उन्होंने भी स्कूल में दूसरों को ऐसा करते देखा था या हिन्दुस्तानी टी.वी. पर।

"हम गरदन को हाथ लगाते थे तो बाद में अपनी उँगलियों पर फूँकते थे," दादी ने उन्हें याद दिलाया। लेकिन अब दादी ग़ुस्से में नहीं थीं। ये बातें मज़ाक़ में हो रही थीं। उनका ग़ुस्सा ख़त्म हो चुका था। आखि़र वो भी कब तक ग़ुस्सा करती। "अच्छा? फूँकते थे? मगर फूँकते क्यूँ थे दादी?" ऐमन को ये बात अजीब-सी लगी कि गरदन पर हाथ लगाने के बाद हाथ पर फूँका जाये।

"गरदन को हाथ लगाना बदशगुनी समझा जाता था कि ख़ुदा न करे हमारी गरदन को कुछ जो जाये। हमारे बुज़ुर्ग तो अगर किसी को ये बताते थे कि फलाँ आदमी के जिस्म के फलाँ हिस्से पर ज़ख़्म लगा और उसके साथ अपने बदन पर हाथ लगाते थे तो कहते थे ‘दस्तम बखै़र’। दादी ने प्यार से समझाने की कोशिश की लेकिन अब्बू ने उनकी बात काट दी।

"हाँ... उस ज़माने में तलवार से गरदन काटी जाती थी ना। बन्दूक़ क्लाशनीकोफ़ ईज़ाद ही नहीं हुई थी।" अब्बू ने शरारत से अपनी माँ का देखा। "तो अम्माँ आजकल जिस्म के किस हिस्से पर हाथ लग जाये तो फूँकना चाहिए? गोली तो कहीं भी लग सकती है?"

दादी ने इस मज़ाक़ को नज़रअन्दाज़ कर दिया। वो इसका जवाब भी क्यों देतीं। वो ख़ामोश हो गयी। दरअसल पुरानी बातें करके वो तो सिर्फ़ अपनेआप को ख़ुश करना चाहती थीं। वो ख़ूब जानती थीं कि उनकी इन कहानियों का बच्चों पर कोई असर नहीं होगा। हाँ, बच्चों के लिए ये कहानियाँ ही थीं। ऐसी बातें सुनकर बच्चे उनका मज़ाक़ नहीं उड़ाते थे बल्कि बहुत शौक़ से सुनते थे ये बातें। लेकिन जानते थे कि ये बातें सिर्फ़ सुनने के लिए हैं। अमल करने के लिए नहीं। वो ये भी जानते थे कि दादी भी ये बातें क़िस्से कहानियों की तरह ही सुना रही हैं उन्हें ख़ुद भी यक़ीन है कि आजकल कोई भी उन पर अमल नहीं करेगा। अगर मज़ाक़ उड़ाते थे तो उनके अपने बच्चे। लेकिन वो भी महज बात करने के लिए ही बात करते थे। नियत उनकी भी मज़ाक़ उड़ाना नहीं होती थी। दादी ये पुरानी बातें करके अपनेआप को बच्चों से अलहदा करना नहीं चाहती थीं। वो तो ख़ुद उनके साथ चलना चाहती थीं। वो हर नयी बात सीखना चाहती थीं। ताकि घर में जो बात हो रही हो उसमें वो भी बराबर की शरीक़ हों। वो घर में फालतू चीज़ न बन जायें। लेकिन उनके दिल के किसी कोने खुदरे में कहीं एक कसक-सी ज़रूर रहती थी कि ये सबका सब इतना नया क्यूँ है? ये सारा का सारा अनजाना क्यूँ है? कुछ तो जान-पहचान वाली चीज़ें होनी चाहिए।

"ओहो मैं तो भूल ही गयी" अम्मी एकदम उछल पड़ी। "अभी तक पम्पकीन का तो इन्तज़ाम हुआ ही नहीं है। ऐमन तुम ज़रा समन को तो फ़ोन करो उससे कहो बाज़ार से पम्पकीन ख़रीद लाये। और सुनो," ऐमन उठकर जाने लगी थी, "उससे कहना अब मेरे पास वक़्त नहीं है वो ख़ुद ही उसकी लैण्टर्न बना लें। परसों स्कूल में हेलो विन है और पम्पकीन का इन्तज़ाम अभी तक नहीं हुआ।"

पम्पकीन पर दादी का जी चाहा था कि वो अपनी बहू को याद दिलायें कि हम उसे हलवाये-कदू कहते हैं। लेकिन वो ख़ामोश रहीं। अब तो उनके घरों में हलवाये-कदू पकने का रिवाज़ ही ख़त्म हो गया है।

"मिसेज शेर भी सारे काम मेरे ऊपर ही डाल देती हैं।" अम्मी की बात अभी पूरी नहीं हुई थी। अब वो अपनी प्रिंसिपल पर नाराज़ हो रही थीं। "और तुम जल्दी जाओ, बहन से कहो वो कपड़े उठाती लाये जो कास्ट्यूम बनाने के लिए रखे हैं।"

ये बात उन्होंने बेटे से कही जो अभी तक अब्बू से अपने सवाल का जवाब लेने के इन्तज़ार में बैठा था। वो बुरा-सा मुँह बनाकर उठा और चला गया।

"ये ‘हेलो विन’ और ‘मदर्स डे’ और ‘फ़ादर्स डे’ मनाने का रिवाज़ बढ़ता जा रहा है।" ये बात अब्बू ने कही जो अपनेआप को नया आदमी कहते थे।

"जब स्कूलों के कोर्स इंग्लैण्ड और अमेरिका से बनकर आयेंगे तो यही होगा।"

दादी ने अपनी समझ के मुताबिक़ बात की।

"नहीं अम्माँ। ये भी हमारा ही कारनामा है। मार्केट इकॉनामी ज़िन्दाबाद। हम टीवी. पर इन त्यौहारों के तमाशे दिखायेंगे और रंग-बिरंगे क़ीमती कार्ड छापकर बाज़ार भर देंगे तो फिर यही होगा।" अब्बू संजीदा होने लगे थे।

"दुनिया में रहना है तो दुनिया के साथ ही चलना पड़ेगा।" अम्मी ने टी.वीका चैनल तब्दील करते हुए जवाब दिया। दादी ने टी.वी. पर एक नज़र डाली और

उसमें खो गयी। स्टींग का नया गाना आ रहा था ‘डिजर्ट रोज़’ अरबी धुन और मग़रिबी मोसिक़ी का मिलाप उन्हें बहुत अच्छा लगा। इसमें अपनाइयत भी थी और नयापन भी।

"अब तो वेलेण्टाइन डे भी मनाया जाने लगा है।" अब्बू बहुत ज़्यादा संजीदा हो रहे थे।

"हाँ, अब तो स्कूलों के बच्चे भी ये दिन मनाते हैं। बड़े हंगामे होते हैं। दिल की तस्वीर बने कार्ड, सुर्ख़ गुलाब और केक मिठाइयाँ भेजी जाती हैं एक-दूसरे को"

अम्मी ने वो काले-पीले कपड़े उठाते हुए कहा जो अहमद ने लाकर उनके सामने रख दिये थे।

"मगर इसमें बुरी बात क्या है?"

"बड़ा मुश्किल हो गया है साथ देना वक़्त का।" अब्बू ने खिसियानी-सी हँसी हँसकर गहरा साँस लिया जैसे वो ख़ुश न हों इस बात से।

"तुम भी ये कह रहे हो?" दादी ने हैरत से अपने बेटे को देखा उन्हें सदमा हुआ था ये सुनकर या ख़ुशी? वो यक़ीन के साथ कुछ नहीं कह सकती थीं।

"जी अम्माँ, हम भी बुड्ढे हो गये हैं।" बेटे ने ये बात उस लहज़े में कही थी कि दादी का दिल कट गया।

दादी ने ठण्डी चाय का लम्बा-सा घूँट लिया। पहले अपनी बहू को और फिर बेटे को देखा और फिर महज़ ख़ामोशी तोड़ने के लिए यूँ ही कहने को कह दिया, "हाँ, हमारे अपने त्यौहार तो जैसे ख़त्म ही हो गये हैं।"

"अम्माँ हमारे ऐसे कौन-से त्यौहार होते हैं जिनमें बच्चे पागल होकर शिरकत करें। अब तो ईद-बक़रीद पर भी मेले नहीं लगते।" ये जवाब उनके बेटे ने दिया जो शायद अभी तक अपनेआप से लड़ रहा था। बहू भूतों और चुड़ैलों के कास्टयूम बनाने में मसरूफ़ थी।

"हमारे त्यौहारों का ताल्लुक़ मज़हब के साथ है," दादी ने समझाया।

"इन त्यौहारों का ताल्लुक़ भी मज़हब से ही है," बेटे ने अपनी माँ के लहज़े ही कहा।

"मगर कहीं और के मज़हब से" दादी ने गहरा साँस लिया और टी.वी. देखना शुरू कर दिया। वो ये बात आगे बढ़ाना चाहती थीं कि फिर बहस लम्बी हो जाती और उन्होंने बहस करना छोड़ दी थी। अब वो सिर्फ़ अपनेआप से बहस करती थीं।

"अब्बू, आपने बताया नहीं कि चार्ली ब्राउन पर लोग इतना अफ़सोस क्यों कर रहे हैं?" अब ऐमन ने संजीदगी की उस संगीन दीवार को तोड़ा।

"इसीलिए अफ़सोस कर रहे हैं कि चार्ली ब्राउन ऐसा कैरेक्टर था जिसे लूसी बेवक़ूफ़ बनाती रहती थी। चार्ली मर्द था और लूसी औरत और कार्टून बनाने वाला भी मर्द था।" अम्मी ने माहौल की उदासी दूर करने के लिए अपने मियाँ को छेड़ा।

"माशा अल्लाह... माशा अल्लाह... ये हुआ ना फेमनिस्ट इण्टरप्रेटेशन... वाह वाह" अब्बू ने ताली बजायी। अब माहौल फिर ख़ुशगवार हो गया था। "शुल्ज़ भी अपने कार्टून का ये मतलब सुनता तो बहुत ख़ुश होता। मर गया बेचारा। लेकिन आप फ़िक्र क्यूँ करती हैं। औरतों को ख़ुश करने के लिए उन्होंने जॉनी ब्रावो भी तो बना दिया है। वो हाथी और गेंडे के तन-ओ-तोश वाला मर्द, जो हर बार औरत से पिट जाता है और कार्टून बनाने वाला भी मर्द है।" अब अब्बू के साथ अम्मी भी हँस रही थीं और दादी भी कि वो भी ये कार्टून देखती थीं।

लेकिन अहमद और ऐमन को अपने सवाल का जवाब नहीं मिला था। "आप तो मज़ाक़ कर रहे हैं।" दोनों ने एहतिजाज़ किया।

"बेटे, बात ये है कि हम अपने सामने की चीज़ों को देख-देखकर उनके आदी हो जाते हैं। अच्छी हों तो उन्हें पसन्द करने लगते हैं। अगर वो हमारे सामने से हट जायें या ख़त्म हो जायें तो हमें सदमा होता है।" अब्बू फिर संजीदा हो गये थे।

"ऐसा भी क्या सदमा करना।" ऐमन को ये बात भी पसन्द नहीं आयी थी।

हमारी पसन्द की चीज़ें, हमारी अपनी चीज़ें हमारे सामने से हट जायें या ख़त्म हो जायें या ख़त्म होने लगें तो हमें सदमा होता है? दादी ने सोचा। उनका पोता और पोती जब उनसे कहते कि दादी आपने तीस-चालीस साल पहले एम.ए. किया था। अब ज़माना बदल गया है। तो उन्हें सुनकर सदमा नहीं होता था। वो बच्चे उनसे कहते आपकी दास्तानों के हातिम अब गै़ब से सदा नहीं देते वो अब कम्प्यूटर इण्टरनेट से आवाज़ लगाते हैं। अब आप अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे दुनिया जहान से बातें कर लेती हैं। आप फ़ोल्डर की तरफ़ का लैपटॉप उठायेंगी और किताब की तरह खोलकर पढ़ना शुरू कर देंगी। एक सीडी में कम से कम बीस किताबें आ जाती हैं। तो वो सिर्फ़ इतना कहतीं बेटे हम भी पुराने नहीं हैं। हमने अपने सामने चीज़ों को बदलते देखा है। हम भी गवाह हैं उस वक़्त के जो तब्दील हुआ है और तब्दील हो रहा है। हमारी भी आँखें खुली हैं। लेकिन इसके साथ ही उनके दिल की कोई एक धड़कन कम भी हो जाती थी।

पुराना क्या है और क्या नया? नया कब पुराना बनता है और पुराना कब नया? वक़्त को किस तरह तक़सीम किया जाता है? वो कौन था जिसने रेत वाली घड़ी देखकर शोर मचाया था कि तुम मेरे वक़्त को लम्हों में क्यों तक़सीम कर रहे हो। दादी उस ज़माने को भी नहीं भूली थीं जब वो वक़्त के तसलसुल की आदी थीं। उनके लिए वक़्त एक सीधी लकीर था। वो लकीर जो दायें-बायें कहीं नहीं मुड़ती। फिर शादी ने उस लकीर को तोड़ दिया। शादी हुई तो उन्होंने नया घर और नया वक़्त देखा। अब वक़्त वो नहीं था जिसकी वो आदी थीं। वो जिस घर से आयी थीं वहाँ अख़लाक़, आदाब और रस्म-ओ-रिवाज़ सब मज़हब के ताबेअ थे। लेकिन मज़हब आम ज़िन्दगी से अलग कोई चीज़ नहीं थी। वो रोज़मर्रा ज़िन्दगी का ऐसा हिस्सा था जो नज़र भी आता था और नज़र नहीं भी आता था। रस्म-ओ-रिवाज़ के साथ मज़हबी फरायेज़ (दायित्व) भी ऐसे ही अदा किये जाते थे जैसे खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना जैसी चीज़ें होती हैं कि मौजूद होती हैं लेकिन नज़र नहीं आतीं। वो हमारे जिस्म और हमारी रूह का हिस्सा होतीं। जिस घर में वो ब्याहकर आयीं वहाँ उन्हें थोड़ी-सी दूरी नज़र आयी। वहाँ चीज़ें कुछ अलग-अलग होती दिखायी दीं। मगर इतनी भी अलग नहीं कि पहचानी ही न जा सके। हाँ, जिस आदमी से उनका ब्याह हुआ वो बिल्कुल ही नया आदमी था। वो वक़्त का सिलसिला तोड़कर एक नया ही सिलसिला बनाना चाहता था। वो सीधी लकीर पसन्द नहीं करता था। वो ज़माने को बदलना चाहता था इसीलिए उस आदमी ने उन्हें ख़ुश भी बहुत किया और परेशान भी बहुत।

वो आदमी उससे टूटकर प्यार करता था। वो भी उससे प्यार करती थीं कि उन्होंने ऐसा प्यार पहली बार देखा था। वो प्यार जो माँ-बाप और बहन-भाइयों के प्यार से मुख़तलिफ़ होता है। ये प्यार उनके लिए नयी दुनिया थी और वक़्त का नया सिलसिला। उनके लिए तो यही प्यार सबकुछ था लेकिन उस नये आदमी को अपने प्यार के लिए नयी दुनिया भी चाहिए थी। वो नयी दुनिया बसाना चाहता था। नया ज़माना लाना चाहता था। बस थोड़े ही दिनों की बात है। फिर ये सबकुछ बदल जायेगा और हम सबके साथ मिलकर हँसी-ख़ुशी ज़िन्दगी गुज़ारेंगे। ये कहकर वो घर से ग़ायब हो जाता। कभी-कभी तो महीनों ग़ायब रहता। दूर किसी शहर से उसका ख़त आता कि मैं ख़ैरियत से हूँ फ़िक्र ना करना जल्दी आ जाऊँगा। फिर पता चला कि वो तो जेल में है। क़ैद काट रहा है। कभी छुपता छिपाता घर आता और कहता मैं आजकल अण्डरग्राउण्ड हूँ। किसी को मेरे आने की ख़बर न हो। और फिर ऐसे ही चला जाता जैसे आया था।

एक ऐसे घर में जहाँ माँ-बाप और चचा-भतीजे साथ-साथ या दीवार बीच रहते हों किसी एक आदमी के कम हो जाने की ज़्यादा फ़िक्र नहीं होती। कम ही महसूस किया जाता है कि कोई मर्द घर से ग़ायब है। सिवाय इसके कि सब उससे बुरा-भला कहते कि अच्छी सियासत है, अच्छा नजरिया है कि बीवी बच्चों की भी परवाह नहीं है। भागा फिरता है एक शहर से दूसरे शहर और एक जेल से दूसरी जेल। हाँ उन्हें पहले पहल बहुत महसूस हुआ था। छुप-छुपकर बहुत रोयी थी। मगर फिर समझौता कर लिया था हालात से कि उन्हें उस आदमी के अटूट प्यार पर पूरा भरोसा था।

फिर वक़्त की एक और कड़ी टूटी। अचानक वो पुरानी जगह से उखड़े और नयी जगह आ गये। नयी जगह नया घर और नया मुल्क़। उन्होंने कभी सेचा भी नहीं था कि जहाँ पुश्त से उनके क़दम जमे हुए हैं और जहाँ उनके बाप-दादा और परदादा की क़ब्रें हैं वहाँ से वो उखड़ भी सकते हैं। लेकिन उखड़े और ऐसे उखड़े कि मकान बदला तो ज़माना भी बदल गया। या यूँ कह लें कि ज़माना बदला तो मकान भी बदल गया। बहरहाल कुछ ऐसा हुआ कि सबकुछ ही बदल गया। यहाँ तक कि वो आदमी भी बदल गया। वो आदमी जो अपनेआप को नया आदमी कहता था उसे भी नये घर में आकर अपने पुराने होने का अहसास हुआ। उसे अहसास हुआ कि अब तक वो ज़माने को देता ही रहा है। ज़माने ने उसे कुछ दिया या नहीं दिया मगर वो ख़ुद ज़माने के साथ नत्थी हो गया। लेकिन ये सब यकलख़्त नहीं हुआ। ये तब्दीली एकदम नहीं आयी। इसमें कुछ वक़्त लगा लेकिन दादी ने उससे पहले ही अपनेआप को बदलना शुरू कर दिया था।

शादी हुई तो वो मैट्रिक थीं। जिस भरे पूरे घर में वो ब्याहकर आयी थीं वहाँ उन्हें किसी ने ये अहसास ही नहीं होने दिया था कि ज़िन्दा रहने के लिए रुपये पैसे की ज़रूरत भी होती है। नये घर, नयी जगह और नये वक़्त ने उन्हें याद दिलाया कि ज़िन्दा रहने के लिए कुछ करना भी पड़ता है। अभी वो आदमी नये वक़्त के साथ नया नहीं हुआ था। उसी तरह शहर-शहर गाँव-गाँव भागा फिरता था। अब दादी ने इण्टर किया, बी.ए. किया और फिर एम.ए. भी कर लिया और मुलाज़िमत शुरू कर दी। अब वो पढ़ा रही थी। दूसरों के बच्चों को भी और अपने बच्चों को भी। सास-ससुर ज़िन्दा थे। उन्होंने हर काम में उनकी मदद की। फिर इधर ससुर की आँखें बन्द हुईं और उधर वो आदमी वापस आ गया। वो भी वक़्त के साथ नया हो चुका था और दोनों हाथों से वक़्त को निचोड़ रहा था।

अब दादी को अपना दूसरा बेटा याद आ गया। डॉक्टर बेटा। वक़्त उसके यहाँ भी बदला था। मगर कैसा? वो नया हुआ था या पुराना उनकी समझ में कुछ नहीं आता था।

"मैंने तुमसे कहा था लौटते हुए भाई के घर होते आना... गये थे वहाँ?" दादी ने बेटे से शिकायत की। वो जानती थीं कि वो अपनी मसरूफ़ियत में भूल गया होगा छोटे भाई के घर जाना।

"अम्माँ मैं क्या करता वहाँ जाकर। कल ही तो गया था। और आपने फ़ोन भी किया था। आप जानती हैं जब वो तबलीग़ (धर्म प्रचार) के लिए जाता है तो कई कई महीने ग़ायब रहता है।" बेटे के लहज़े में तलखी थी।

"मैंने कहा था मुझे छोड़ आओ वहाँ। मगर तुम दोनों को फ़ुरसत हो तो सुनो ना मेरी बात। उसका बच्चा बीमार है और वो घर से ग़ायब है।" दादी को फिर ग़ुस्सा आ गया।

"अम्माँ, मैं आपको बताना भूल गयी" बहू ने जल्दी से कहा, "दोपहर स्कूल से वापसी में गयी थी मैं वहाँ। अब बच्चा ठीक है।"

"अच्छा तुम न ले जाओ मैं ख़ुद ही चली जाऊँगी," दादी ने जैसे बहू की बात नहीं सुनी। वो अपनेआप को बेबस महसूस कर रही थी। बेबस और बेकार। उन्हें अपनेआप पर और अपनी बेबसी पर ग़ुस्सा आ रहा था। "एक तो उसने घर बनाया है अल्लाह मियाँ के पिछवाड़े रिक्शा टैक्सी में वहाँ जाते हौल आता है।"

"अम्माँ, मुझे तो उसकी मुलाज़िमत की फ़िक्र है। अस्पताल से इतने इतने दिन ग़ायब रहता था। कब तक ये बरदाश्त किया जायेगा। निकाल देंगे उसे। और फिर उसकी प्राइवेट प्रैक्टिस भी ख़राब हो रही है। डॉक्टर ही मौजूद नहीं होगा तो मरीज़ क्यूँ आयेंगे।"

उनका बड़ा बेटा बोल रहा था। वो उसकी बात नहीं सुन रही थीं। उनमें अब ज़्यादा सुनने की सकत नहीं थी। अब वो कहीं और पहुँच गयी थीं।

ये किसने वक़्त को लम्हों में तक़सीम कर दिया? वो तो समझ रही थीं कि उनके और उनके बच्चों के लिए वक़्त की लकीर फिर सीधी हो गयी है। ये जो नया वक़्त है और नया तसलसुल। उन्होंने आँखें बन्द कर लीं। मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो रहा था। वो उठीं और अपने कमरे की तरफ़ चली गयीं।

अम्मी ने अहमद और ऐमन की तरफ़ देखा, "तुम क्या कह रहे हो... जाओ अपना काम करो।"

उन्होंने दोनों के जाने का इन्तज़ार किया। फिर अब्बू की तरफ़ झुककर आहिस्ता से कहा, "मैं अम्माँ के सामने नहीं बताना चाह रही थी। बाजी का फ़ोन आया था पेशावर से,"

"ऐसे क्यूँ बात कर रही हो। उनका फ़ोन तो आता ही रहता है। ख़ैरियत तो है?" अब्बू ने घबराकर पूछा।

"अर्शद जिहाद पर चला गया है" अम्मी उसके कमरे की तरफ़ देख रही थी जहाँ अभी अभी दादी गयी थीं।

अर्शद दादी का नवासा था। उनकी सबसे बड़ी बेटी का सबसे बड़ा लड़का।

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