हुवन तामाद की करामात : फिलीपींस लोक-कथा
Huvan Tamad Ki Karamat : Lok-Katha (Philippines)
बहुत दिन हुए, फिलीपींस के एक छोटे से गांव में एक बुढ़िया रहती थी । हुवन तामाद नाम का उसका एक बेटा भी साथ रहता था । वह इतना आलसी और मुर्ख था कि बूढ़ी मां उसकी मूर्खता से तंग आ गयी थी। वह किसी भी काम में मां का हाथ नहीं बंटाता था, इसीलिए बेचारी बुढ़िया बड़ा कष्टमय जीवन बिता रही थी ।
एक दिन बुढ़िया बीमार हो गयी । वैद्य ने उसे खाट से उतरने को मना कर दिया । अब घर की देखभाल कौन करता ? बाजार से सामान कौन लाता ? खैर, दो-तीन दिन बाद जब उसका जी कुछ अच्छा हो गया तब उसने घर का काम-काज संभालना शुरू कर दिया ।
किन्तु जब उसने भोजन बनाना शुरू किया तब घर में कोई सब्जी नहीं थी । इसलिए तामाद को बाजार भेजना पड़ा । उसने बेटे को अच्छी तरह से समझाया । उसने कहा, "बेटा, बीमारी, से मेरा जी कुछ उचट-सा गया है। जरा बाजार से कुछ केंकड़े खरीद लाओ न ! आज उसी की सब्जी खाने को मन कर रहा परन्तु देखना, बड़ी होशियारी से केंकड़ा खरीदना । एक रुपये में आठ-दस बड़े-बड़े केंकड़े मिल जाते हैं ।"
तामाद बाजार जाने के लिए राजी हो गया । वह पैसे लेकर बाजार चल पड़ा। रास्ते में उसने एक छिछली नदी पार की। फिर एक पगडंडी पर चलते-चलते बाजार पहुंचा ।
सवेरे का समय था और बाजार में तरह-तरह की ताजी ताजी सब्जियां बिकने आयी थीं । तामाद ने मछलियों के व्यापारियों को एक रुपया देकर लगभग आठ-दस छोटे-बड़े केंकड़े खरीद लिए। इसके बाद कुछ समय तक उसने शहर में इधर-उधर भ्रमण किया, फिर घर का रास्ता पकड़ा ।
किन्तु अभी वह नदी को पार नहीं कर पाया था कि उसे बड़ी थकावट महसूस हो रही थी। उसने सोचा, क्यों न यहां मां उसका इन्तजार कर रही होंगी। कुछ समय तक सोचने के बाद उसके दिमाग में एक अनोखा उपाय आ गया । वह खुशी से उछल पड़ा ।
उसने एक-एक करके केंकड़ों को झोले से निकाला । उन को अपने घर की ओर इशारा करके कहा, "देखो भई ! तुम सीधे इस पगडंडी पर चलते जाना। यहां से कुछ दूर पर रास्ते में एक छिछली नदी मिलेगी । उसे आराम से पार कर लेना और उसके पार वाली पगडंडी पर चलते ही जाना। अन्त में एक गांव मिलेगा और गांव के छोर पर एक छोटी-सी कुटी मिलेगी । उसी में मेरी मां रहती है। मां को बता देना कि मैंने तुम्हें भेजा है । सब्जी बनाने के लिए वह तुम लोगों का इन्तजार कर रही होगी ।"
इसके बाद झोला रख तामाद एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर आराम करने लगा। थोड़ी देर में उसे नींद आने लगी और वह वहीं सो गया ।
उधर झोले से छूटते ही केंकड़े बहुत प्रसन्न हुए। सब केंकड़े पगडंडी पर दौड़ते-दौड़ते नदी तक पहुंचे और उछल-उछल कर पानी में घुस गये । बड़े मजे से सब बिलों में छिप गये । वे तामाद के समान बेवकूफ नहीं थे जो उसके बताये मार्ग पर चलकर मौत के मुंह में जाते ।
घर पर तामाद की मां उसका इन्तजार करती रही । इधर तामाद सो रहा था और केंकड़े नदी में मौज कर रहे थे। बड़ी देर से उसकी नींद खुली। जब वह उठा, तब शाम हो चली थी। वह जल्दी-जल्दी नदी पार करके घर पहुंचा। आते ही वह मां से बोला, "मां, मुझे जोरों की भूख लगी है। जल्दी कुछ खाने को दो ।"
परन्तु मां तो अभी तक बैठी थी और अपने इस कपूत के लौटने की राह देख रही थी। मां ने उसकी ओर देखकर निराशा- भरी आवाज में पूछा, "तू अभी तक कहां था और क्या कर रहा था ? मेरे केंकड़े कहां हैं ?"
हुवन तामाद की मंद बुद्धि की समझ में कुछ नहीं आया । उसने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया- "क्यों मां ! तुम मुझ से मजाक तो नहीं कर रहीं। मैंने सवेरे ही दस-बारह केंकड़ों को रास्ता दिखा कर घर भेज दिया था। क्या वे अभी तक नहीं - आये ?"
ऐसे बेवकूफ बेटे की बातें सुन कर बूढ़ी मां ने दोनों हाथों से अपना सिर पीट लिया। वह सिर्फ इतना ही कह पायी, "अरे मूर्ख ! तुझे इतना भी मालूम नहीं कि केंकड़े नदी में रहते हैं, इसलिए घर आने की बजाय वे पानी में छिपकर अपनी जान बचायेंगे । जा मूर्ख, भूखे ही सो जा, आज कोई खाना-वाना नहीं है ।"
(साभार : एशिया की श्रेष्ठ लोककथाएं : प्रह्लाद रामशरण)