हुआ क़िस्मत का फ़ैसला, मैं शादी करने चला...(रूसी कहानी) : अलेक्सान्द्र पूश्किन

मेरी क़िस्मत का फ़ैसला हो गया। मैं शादी कर रहा हूँ...

वह, जिसे मैं पिछले दो सालों से प्यार कर रहा हूँ, जिसे हर जगह पहले मेरी आँखें ढूँढ़तीं, जिसके मिलन को मैं सौभाग्य समझता-हे भगवान-वह...क़रीब-क़रीब मेरी हो गयी है।

निश्चित उत्तर की अपेक्षा करना मेरे जीवन का सबसे दुःखद अनुभव रहा है। ताश के निर्णायक पत्ते का इन्तज़ार, आत्मा का धिक्कार, द्वन्द्व-युद्ध से पहले की नींद-यह सब तो उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है।

बात यह है कि मुझे सिर्फ़ इनकार का ही डर नहीं था। मेरा एक मित्र कहा करता, “समझ में नहीं आता कि पैग़ाम कैसे भेजा जाए, अगर जानते हो कि शायद, इनकार नहीं किया जाएगा।”

शादी! कहना आसान है-अधिकांश लोग शादी में देखते हैं उधार माँगी हुई शालें, नयी गाड़ी और गुलाबी अंगरखा।

दूसरे देखते हैं-दहेज और तरक़्क़ी करती हुई ज़िन्दगी...

तीसरे शादी इसलिए करते हैं, क्योंकि सभी शादी करते हैं-क्योंकि उनकी उम्र तीस साल की है। उनसे पूछिये कि शादी का मतलब क्‍या है, तो जवाब में भद्दा-सा चुटकुला सुना देंगे।

मैं शादी कर रहा हूँ, यानी कि मैं अपनी आज़ादी का बलिदान कर रहा हूँ, अपनी बेफ़िक़र, मनमौजी आज़ादी का, अपनी ऐशो-आराम की आदतों का, निरुद्देश्य यात्राओं का, एकान्त का, अस्थिरता का।

मैं अपनी अधूरी ज़िन्दगी को दुहरी बनाना चाहता हूँ। सुख को पाने की मैंने कभी कोशिश नहीं की, मैंने उसके बगैर ही काम चला लिया। अब मुझे दो व्यक्तियों के लिए उसकी ज़रूरत है, उसे कहाँ से लाऊँ?

जब तक मैं कुँआरा हूँ, मेरे कर्तव्य क्या हैं? मेरे एक बीमार चाचा हैं, जिन्हें मैं लगभग कभी नहीं देखता। उनके पास जाता हूँ-वह बड़े ख़ुश होते हैं, नहीं-ऐसा करके वह मुझे क्षमा कर देते हैं, “मेरा छैला जवान है, उसके पास मेरे लिए समय ही नहीं है।” मैं किसी को ख़त नहीं लिखता हूँ, हर महीने अपना क़र्ज़ चुका देता हूँ। सुबह जब जी चाहे, तब उठता हूँ, जिससे चाहता हूँ, उसी से मिलता हूँ, सैर करने का मन करता है-मुझे मेरी ज़हीन, शान्त झेनी साज़ चढ़ाकर दे दी जाती है, गलियों में घूमता हूँ, निचले घरों की खिड़कियों में झाँकता हूँ : कहीं पूरा परिवार समोवार के पास बैठा है, तो कहीं नौकर घर में झाड़ू लगा रहा है; आगे, एक छोटी लड़की पिआनो बजाना सीख रही है, उसकी बग़ल में है संगीतज्ञ । वह अपना बदहवास चेहरा मेरी ओर घुमाती है, शिक्षक उसे डाँटता है, मैं क़दम-क़दम चलकर आगे बढ़ जाता हूँ--घर वापस आता हूँ, किताबें काग़ज़ छाँटता हूँ, अपनी सिंगार मेज़ को सँवार देता हूँ, अगर किसी से मिलने जाना हो, तो अस्त-व्यस्तता से कपड़े पहनता हूँ, अगर रेस्टॉरेंट में खाना खाना हो, जहाँ कोई नया उपन्यास या नयी पत्रिकाएँ पढ़ना हो तो पूरी तरह मन लगाकर तैयार होता हूँ, अगर वॉल्टर स्कॉट या कूपर ने नया कुछ नहीं लिखा हो, या अख़बारों में किसी क़ानूनी कार्रवाई का वर्णन न हो, तो बर्फ़ में रखी हुई शैम्पेन की बोतल की मांग करता हूँ, देखता हूँ कि जाम ठंड से कैसे जम जाता है, धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेता यह सोचकर खुश होते हुए कि भोजन की क़ीमत सत्रह रूबल है, और मैं यह शरारत कर सकता हूँ। थियेटर में जाता हूँ, किसी बॉक्स में कोई बेहतरीन केश-विन्यास, काली आँखें देखता हूँ, हमारे बीच इशारेबाज़ी होने लगती है, मैं बाहर निकलने तक इसी में व्यस्त रहता हूँ। शाम या तो हुल्लड़बाज़ों के साथ बिताता हूँ, जहाँ, पूरे शहर के लोग खचाखच भरे होते हैं, जहाँ मैं सबको और सब कुछ देखता हूँ और जहाँ मेरी ओर कोई ध्यान नहीं देता या फिर अपने प्रिय मित्रों के छोटे से जमघट में, जहाँ मैं अपने बारे में बतलाता हूँ और जहाँ मेरी बात सुनी जाती है। वापस लौटता हूँ देर से, कोई अच्छी-सी किताब पढ़ते हुए सो जाता हूँ। दूसरे दिन फिर घोड़ी पर सवार होकर गलियों में टहलता हूँ, उस घर के सामने से, जहाँ बच्ची पिआनो बजा रही थी। वह पियानो पर कल के पाठ को दुहरा रही है। उसने मेरी ओर देखा, जैसे किसी परिचित को देखते हैं, और मुस्कुरा दी। यह है मेरी कुआरी ज़िन्दगी ।

अगर मुझे अस्वीकार करते हैं, मैंने सोचा, तो परदेस चला जाऊँगा और मैंने स्वयं की पानी के जहाज़ पर कल्पना की। मेरे चारों ओर भगदड़ मची है, लोग विदा ले रहे हैं, सूटकेस ला रहे हैं, घड़ी देख रहे हैं। जहाज़ चल पड़ा : समुद्री, ताज़ा हवा चेहरे को थपकियाँ दे रही थी, मैं देर तक दूर भागते हुए किनारे को देखता हूँ-मेरी जन्मभूमि, अलविदा! मेरी बग़ल में एक जवान औरत को उल्टियाँ हो रही हैं, इससे उसके चेहरे पर एक शिथिल नज़ाकत का भाव आ जाता है...वह मुझे पानी देने के लिए कहती है। शुक्र है भगवान का, क्रोंश्ताद तक मुझे कोई काम तो है...

इसी समय मुझे एक रुक्‍का दिया गया : यह मेरे ख़त का जवाब था। मेरी मंगेतर के पिता ने मुझे बड़े प्यार से अपने यहाँ बुलाया था...शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है, मेरा पैग़ाम कबूल कर लिया गया है। नादेंका, मेरा फ़रिश्ता-वह मेरी है।

...इस स्वर्गीय ख़याल के आगे सभी निराशाजनक सन्देह काफ़ूर हो गये। मैं गाड़ी की ओर भागता हूँ, सरपट दौड़ता हूँ, यह रहा उनका घर, स्वागत-कक्ष में आता हूँ, नौकरों की भागदौड़ से ताड़ जाता हूँ कि मैं दूल्हा हूँ। मैं सकुचा गया : ये लोग मेरे दिल का हाल जानते हैं, अपनी ख़ुशामदी जुबान में मेरे प्रेम के बारे में बातें करते हैं।...

पिता और माँ मेहमानख़ाने में बैठे थे। पहले ने खुली हुई बाँहों से मेरा स्वागत किया। उसने जेब से रूमाल निकाला, वह रोना चाहता था, मगर रो न पाया और उसने नाक पोंछने का इरादा कर लिया। माँ की आँखें लाल थीं। नादेंका को बुलाया गया : वह आयी विवर्ण, असहज...पिता बाहर जाकर सन्त निकोलाय और कज़ान की मैडोना की मूर्तियाँ लेकर आये। हमें आशीर्वाद दिया गया। नादेंका ने अपना ठंडा, ख़ामोश हाथ मेरे हाथ में दिया। माँ दहेज के बारे में बताने लगी, पिता सारातोव के गाँव के बारे में-और मैं दूल्हा बन गया।

और, इस तरह ये सिर्फ़ दो दिलों का भेद न रहा। आज यह ख़बर घर की है, कल हो जाएगी-चौराहे की।

इस तरह वह कविता, जो एकान्त में, गर्मी की रातों में चाँद की रोशनी में सोची गयी थी, बेची जाएगी किताबों की दुकान में और आलोचित होगी, पत्रिकाओं में बेवक़ूफ़ों द्वारा ।

सभी मेरे सौभाग्य से प्रसन्‍न हैं, सभी बधाइयाँ दे रहे हैं, सभी ने मुझसे प्यार किया है। हर कोई अपनी-अपनी पेशकश कर रहा है : कोई अपना घर, कोई उधारी में पैसे, कोई चौड़ी कॉलरवाला लम्बा फ्रॉक कोट । कोई मेरे भावी विस्तृत परिवार की चिन्ता करते हुए मुझे बारह दर्जन दस्ताने दे रहा है मैडम ज़ोन्ताग1 की तस्वीरवाले।

1. ज़ोन्ताग-जर्मन गायिका।

नौजवान मेरा रोब मानने लगे हैं : मुझमें दुश्मन को देखने लगे हैं। महिलाएँ सामने तो मेरी पसन्द की तारीफ़ कर रही हैं, मगर पीछे से मेरी दुल्हन पर तरस खा रही हैं, “बेचारी! वह इतनी जवान है, इतनी भोली है और वह इतना मनचला, इतना अनैतिक... ।”

मानता हूँ कि इससे मैं उकताने लगा हूँ। मुझे तो किसी प्राचीन क़बीले की रस्म पसन्द है, दूल्हा चुपके से अपनी दुल्हन को चुरा ले जाता है। दूसरे दिन वह शहर के अफ़वाह फैलानेवालों के सामने उसे अपनी पत्नी के रूप में पेश करता है। हमारे यहाँ पारिवारिक ख़ुशी की तैयारियाँ की जाती हैं छपे हुए निमन्त्रण पत्रों से, उपहारों से, पूरे शहर के जाने-पहचाने औपचारिक पत्रों से, मिलने-जुलने से, एक शब्द में कहूँ तो हर तरह के लालच से...

परिशिष्ट

मई 1830 में लिखा गया यह छोटा-सा लेख पूश्किन की नतालिया गोंचारोव से सगाई होने के पश्चात्‌ की मनोदशा को प्रस्तुत करता है। इन्हीं विचारों को पूश्किन ने उस समय लिखे गये कुछ पत्रों में भी प्रकट किया था।

(मूल रूसी भाषा से अनुवाद : ए. चारुमति रामदास)

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