भालू ने माँस खाना कैसे सीखा ? : फ्रेंच/फ्रांसीसी लोक-कथा
How the Bear Learnt to Eat Meat ? : French Folk Tale in Hindi
यह लोक कथा यूरोप महाद्वीप के फ्रांस देश की लोक कथाओं से ली गयी है। सो यह उन दिनों की बात है जब भालू माँस नहीं खाते थे। वे भी सब्जियों और फल पर ही गुजारा करते थे।
एक बार की बात है कि जाड़े का मौसम था। ठंड बड़े ज़ोरों पर थी। जानवरों और पक्षियों को अपने खाना ढूँढने के लिये मीलों लम्बा सफर करना पड़ता था। कुछ पक्षी पहाड़ों की ठंड से बचने के लिये पहाड़ों की तलहटी में चले गये थे।
ऐसी ही एक शाम को एक भालू, उसकी पत्नी और उसका बच्चा तीनों ही ठंड से सिकुड़े अपनी गुफा में बैठे थे। लगता था कि वे सब बहुत भूखे हैं और उन्होंने कई दिनों से पेट भर खाना नहीं खाया है।
पत्नी ने कहा — “ऐसे कब तक चलेगा? कितनी ठंड पड़ रही है और खाना भी कहीं मिल नहीं रहा। ऐसे तो हम लोग मर जायेंगे।”
पति ने एक लम्बी साँस भर कर कहा — “क्या करें, तुम ही बताओ। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता।”
पत्नी ने अपने भूखे बच्चे की ओर देखा और बोली — “तुम पहाड़ की तलहटी के पास वाले गाँव में क्यों नहीं चले जाते? लेकिन ज़रा होशियारी से जाना कहीं ऐसा न हो कि तुमको देख कर वे लोग डर जायें।
अगर तुम वहाँ अपने पिछले पैरों पर खड़े हो कर नाचोगे तो वे शायद लोग तुमको देख कर हँसें और खुश हो कर शायद कुछ प्याज, बन्द गोभी या कुछ आलू दे दें।”
पति ने जवाब दिया — “यह तो साफ ही है कि अगर कोई हमारी सहायता नहीं करेगा तो हम लोग मर जायेंगे इसलिये इस तरीके को आजमाने में भी क्या हर्ज है।
हालाँकि मैंने यह सब पहले कभी किया नहीं है पर कल मैं इसे पहली बार कर के देखता हूँ। कल मैं अँधेरे के समय शाम के बाद जाऊँगा और आदमी की गन्ध सूँघूँगा।”
अगले दिन शाम को अँधेरा होने के बाद पति भालू पहाड़ों से नीचे उतरा और गाँव के रास्ते पर चल दिया। घने कोहरे में से तारों की झिलमिल रोशनी झाँक रही थी। गाँव के पास पहुँच कर उसको धुँए की गन्ध आयी। पहली बार पति भालू ने धुँए की गन्ध महसूस की।
आगे जाने पर उसने देखा कि जहाँ धुँआ था वहाँ आग थी और जहाँ आग थी वहाँ गर्मी। उस गर्मी से उसके शरीर में कुछ जान आयी।
वह और आगे बढ़ा तो रोटी की खुशबू आयी क्योंकि वहीं पास में एक बेकरी की दूकान थी जहाँ गाँव भर के लिये डबल रोटी बनती थी।
रात हो चुकी थी। करीब करीब सारा गाँव सोया पड़ा था। पर ऐसी रात में एक आदमी अभी भी रोटियाँ बना रहा था।
पति भालू उधर ही जा पहुँचा और खुले दरवाजे के सामने खड़े हो कर अपनी पिछली टाँगों पर नाचने लगा, जैसा कि उसकी पत्नी ने उससे कहा था।
आदमी की निगाह उधर गयी तो वह चौंक गया। उसने देखा कि एक भालू बाहर खड़ा अपने पिछले पैरों पर खड़ा नाच रहा है। उसकी तो नसों में जैसे खून ही जम गया। वह डर के मारे काँपने लगा।
कुछ पल वह उसे नाचते देखता रहा तो उसे लगा कि भालू की नीयत उसको तंग करने की नहीं थी बल्कि उसको उसकी ताजा डबल रोटी चाहिये थी। यह देख कर उसकी जान में जान आयी।
उसने भालू से कहा — “तुम वहाँ बाहर खड़े खड़े क्यों नाच रहे हो, आओ मेरी कुछ सहायता ही कर दो। डबल रोटी सेकने की ये तश्तरियाँ मुझे उठा दो और मैं तुम्हें कुछ डबल रोटी दे दूँगा।”
भालू से जैसा कहा गया उसने वैसा ही किया। उसने वे तश्तरियाँ उठायीं, उनको ओवन में रखा, दूकान साफ की, डबल रोटियाँ ओवन से निकालीं।
सारी रात भालू उस आदमी के वफादार नौकर की तरह उसकी दूकान में काम करता रहा। सुबह को चार डबल रोटियाँ मजदूरी के रूप में ले कर वह अपनी गुफा में पहुँचा। ताजा डबल रोटी देख कर सारा भालू परिवार बहुत खुश हुआ और सबने ताजा डबल रोटी की दावत बाँट कर खायी।
इस घटना के बाद अब वह भालू रोज रात को गाँव जाने लगा और डबल रोटी बनाने में उस आदमी की सहायता करने लगा। उस इलाके में वह आदमी पाँच गाँवों के लिये अकेले ही डबल रोटी बनाता था।
धीरे धीरे वह आदमी अपने शान्ति प्रिय और मेहनती साथी को बहुत पसन्द करने लगा था। और मजदूरी भी कुछ ज़्यादा नहीं, बस केवल चार डबल रोटी। लेकिन फिर भी वह एक भालू को अपनी दूकान में नौकर रख कर खुश नहीं था।
एक रात उस आदमी की पत्नी इस अजीब काम को देखने के लिये रात को उठी। उसको देख कर सचमुच ही बड़ा आश्चर्य हुआ कि किस प्रकार एक भालू सधे हुए हाथों से दूकान का सारा काम कर रहा था।
उसने अपने पति से कहा — “अगर इस भालू की शादी हो गयी हो तो इससे बात करो। इसकी पत्नी घर के कामों में मेरी सहायता कर दिया करेगी।”
दूकान के मालिक ने भालू से इस बारे में बात की। पति भालू ने जब यह सुना तो उसने अपनी पत्नी को जा कर बताया। पत्नी यह सुन कर बहुत खुश हुई और अगले दिन से वह भी गाँव जाने लगी।
दोनों ही भालू मेहनती थे, साथ ही उनकी मजदूरी भी बहुत कम थी सो आदमी और उसकी पत्नी दोनों ने ही यह तय किया कि वह भालू परिवार वहीं गाँव में ही रहे और उनकी सहायता करे। उन्होंने उनको रहने के लिये वहीं पास में ही एक घर दे दिया गया जिसमें काफी घास फूस थी।
क्योंकि उन भालुओं को अब ताजा पकी हुई डबल रोटी खाने को मिलती थी वे बिल्कुल ही भूल गये थे कि वे क्या हैं, उनका खाना क्या है और उन्हें कहाँ रहना चाहिये।
अब हुआ यह कि उस आदमी के एक लड़का था जो गाँव के दूसरे सिरे पर स्कूल जाया करता था।
उस लड़के और भालू बच्चे की इतनी अधिक दोस्ती हो गयी कि उस आदमी का लड़का उस भालू बच्चे को एक पल के लिये भी अलग नहीं करना चाहता था। सो वह लड़का उस भालू बच्चे को भी अपने साथ स्कूल ले जाने लगा।
उस लड़के के टीचर भी उस भालू बच्चे को देख कर बहुत खुश थे क्योंकि वह भालू बच्चा सोने की तरह सुन्दर और चूहे की तरह शान्त था।
दिन बीतते चले गये। भालू बच्चा बड़ा होता गया। एक दिन ऐसा भी आया जब वह बहुत बड़ा हो गया और इतना बड़ा हो गया कि स्कूल की सारी कुर्सियाँ और मेजें उसके लिये छोटी पड़ गयीं।
मास्टर जी ने पति भालू और पत्नी भालू को बुलाया और उनको सलाह दी कि अब उस बच्चा भालू को किसी व्यापार में लगा दिया जाये लेकिन पति भालू और पत्नी भालू इस बारे में कुछ भी नहीं जानते थे सो इस बारे में वे कुछ भी नहीं सोच सके।
तब मास्टर जी ने उसको सलाह दी कि लाटरी निकाली जाये और जो काम भी उस लाटरी में निकले वही काम बच्चा भालू कर लेगा।
लाटरी निकालने के लिये कुछ पर्चियाँ बनायीं गयीं। उन पर कुछ काम लिखे गये जैसे दरजीगीरी, रंगसाज़, चिमनी साफ करने वाला, लकड़ी काटने वाला, आदि आदि और कसाई।
भाग्य की बात, भालू बच्चा ने जब अपनी पर्ची खोली तो उस के ऊपर कसाई का काम लिखा था। पति भालू और पत्नी भालू दोनों ही उसको साथ ले कर बाजार गये और वहाँ जा कर एक कसाई की दूकान पर उसको काम पर लगा दिया।
जब भालू बच्चा काम पर जाने के लिये विदा हुआ तो तीनों ही भालुओं की आँखें आँसुओं से भरी थीं। पति भालू और पत्नी भालू जब बच्चा भालू को काम पर भेज कर वापस घर पहुँचे तो पति भालू इतना दुखी था कि बहुत देर तक तो उससे कोई काम ही नहीं हुआ।
पत्नी भालू ने पूछा — “प्रिये, क्या बात है बहुत उदास हो?”
पति भालू बोला — “हाँ प्रिये, मैं नहीं जानता कि कसाई क्या होता है और वह क्या करता है पर एक बात मुझे ठीक लगती है कि उस कसाई की दूकान में से खुशबू बहुत ही अच्छी आ रही थी इस लिये हमारा बच्चा वहाँ ठीक से रहेगा।”
ऐसा इसलिये हुआ कि सारा मामला दूकान के बाहर इतनी जल्दी निपट गया और तय हो गया कि पति भालू को दूकान को अन्दर से देखने का मौका ही नहीं मिला। लेकिन पति भालू दूकान की उस गन्ध को नहीं भूल सका।
एक सप्ताह बाद जब भालू बच्चा घर आया तो पति भालू और बच्चा भालू में ये बातें हुईं —
पति भालू — “मेरे बच्चे, तुम उस कसाई के लिये क्या काम करते हो? मेरा मतलब है कि वह तुमसे किस तरीके का काम कराता है?”
बच्चा भालू — “मैं कसाई को भेड़ मारने में मदद करता हूँ, पिता जी। भेड़ आदमी लोग खाते हैं।”
पति भालू — “उँह, तो क्या आदमी लोग ऊन खाते हैं?”
बच्चा भालू — “नहीं पिता जी, ऊन के नीचे खाल होती है।”
पति भालू — “तो क्या वे खाल खाते हैं?”
बच्चा भालू — “नहीं पिता जी, खाल के नीचे हड्डियाँ होती हैं।”
पति भालू — “तो क्या वे हड्डियाँ खाते हैं?”
बच्चा भालू — “नहीं पिता जी, ऊन के नीचे खाल, और खाल और हड्डियों के बीच में माँस होता है। वही चीज़ आदमी लोग खाते हैं।”
पति भालू — “अरे, मुझे नहीं मालूम था कि भेड़ें अपने माँस को इतना छिपा कर रखती हैं। मैंने तो कभी यह शब्द भी नहीं सुना था लेकिन तुमसे यह सब सुन कर और जान कर मुझे बहुत अच्छा लगा।
मेरे प्यारे बेटे, जब तुम अगली बार आओ तो एक टुकड़ा भेड़ के माँस का हमारे लिये भी लाना, हम भी उसे खा कर देखेंगे। इसके आगे की कहानी बिल्कुल साफ है। जब बच्चा भालू अगली बार घर आया तो वह मटन चाप के कुछ टुकड़े अपने माता पिता के लिये भी ले कर आया।
जल्दी ही पति भालू और पत्नी भालू को डबल रोटी के बजाय मटन चाप ज़्यादा अच्छे लगने लगे। अब वह डबल रोटी को पाने के लिये इतनी अधिक मेहनत करने को तैयार नहीं थे।
इस तरह अचानक ही वे जंगली हो गये थे। आदमी ने तुरन्त ताड़ लिया कि अब इनको यहाँ रखना ठीक नहीं था। इसलिये उसने उनको तुरन्त ही वहाँ से जंगल में भगा दिया। उनका बच्चा भी उनके साथ ही चला गया। अब वे लोग बजाय फल, सब्जी और शहद के मटन खाने लगे थे।
कितना बेवकूफ था वह मास्टर जिसने एक परची पर कसाई लिखा। अगर मैं होती तो लिखती — कैमिस्ट, फल बेचने वाला, मजदूर आदि आदि। और फिर यह न हुआ होता जो अब हुआ, यानी कि भालू शाकाहारी जानवर ही रहता।
(साभार सुषमा गुप्ता जी, जिन्होंने लोक-कथाओं पर उल्लेखनीय काम किया है.)