हूरों, हवाओं का नगर (यात्रा-वृत्तांत) : निर्मल वर्मा कहानी
Hooron Hawaon Ka Nagar (Travelogue) : Nirmal Verma
कोई भी शहर अपना अतीत नहीं बताता। वह हथेली की रेखाओं की तरह गुँथा रहता है; वह गलियों के नुक्कड़ पर, खिड़कियों की झँझरी, सीढिय़ों के बेनिस्टर पर, शलाकाओं के एंतेना पर, पताकाओं के बाँसों पर लिखा रहता है। वह शहर के हर भाग पर खरोंचों, खाँचों, नक्काशियों के भीतर बसा रहता है।’’
ये शब्द इतालवी लेखक इतालो काल्विनो के हैं, जो उन्होंने अपनी अप्रतिम पुस्तक ‘अदृश्य नगर’ में लिखे थे। कैसे हर शहर अपनी दूरियों, ऐतिहासिक सीमाओं को लाँघकर एक-दूसरे से घुल-मिल जाते हैं, इसका अनुभव कुछ दिन पहले हुआ जब लैनोये की पुस्तक 'Benares seen from within' को पढ़ते हुए मेरे सामने इतालो काल्विनो के कुछ उद्धरण चले आए, जो उन्होंने मार्को पोलो के मुँह से वेनिस के बारे में कहलवाए थे और जिन्हें पढक़र मुझे सहसा एक अन्य शहर तेहरान की याद हो आई, जहाँ से मैं अभी लौटा था। बनारस, वेनिस, तेहरान...क्या ये शहर नहीं, स्वप्न हैं, जिनकी स्मृतियों में चलते हुए हम कहीं अपने भीतर की गलियों में चलने लगते हैं, जिन्हें हम बरसों पहले छोड़ आए थे? देखा हुआ तेहरान क्या वही शहर है, जिसे मैं दिल्ली के बागों में याद करता हूँ?
यह कुछ अजीब संयोग ही रहा होगा कि जो ईरानी युवक मुझे एयरपोर्ट पर लेने आए, उनका नाम दरवेश था; दरवेश यानी एक मस्त मौला साँईं भगत, अपनी ही दुनिया में खोया हुआ कोई फक्कड़ फकीर— उनके डील-डौल, हील-हुलिया से भी पहली नजर में भी यही भ्रम होता था—शेव बढ़ी हुई, जो बाद में पता चला, वह इसमें अपवाद नहीं थे। यहाँ लोग पूरी दाढ़ी नहीं रखते, तो पूरी तरह शेव भी नहीं करते; वह मुझे कुछ आश्चर्य से देख रहे थे, जैसे उन्हें भी मुझ पर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं वहाँ कैसे चला आया। कुछ देर बाद पता चला, वह अंगे्रजी से उतना ही अनजान हैं जितना मैं फारसी से। पता नहीं, आनेवाले दिनों में हम अपने गूँगे इशारों से कब तक एक-दूसरे को नचाते रहेंगे?
मैं थोड़ा भारी मन लिये एयरपोर्ट से बाहर आया तो शहर से पहला साक्षात् करते ही लगा, यह वही ‘पहली नजर का प्रेम’ तो नहीं है। नए शहर में प्रवेश करते समय हमेशा कुछ अनिश्चित सा संशय बना रहता है, पर एयरपोर्ट के बाहर आते ही मुझे लगा, जैसे हम किसी नॉवेल के पहले पन्ने को खोलते हैं और पाते हैं कि अजनबी लिपि के अक्षर इतने सुंदर हैं कि हम जो चाहें, वे अर्थ उससे निकाल सकते हैं; उजली वासंती धूप में चमकती सडक़ें, सडक़ के दोनों ओर लंबे पेड़ों की लहराती फुनगियाँ, क्या वे वही प्रसिद्ध ‘पर्शियन पॉपलर’ हैं, जिनके बारे में इतना कुछ सुनता आया था?
मेरे मन पर से यात्रा का बोझ, दरवेश साहब का ‘गूँगापन’, मन की अनजान विह्वलता धीरे-धीरे झरने लगे।
क्या हम किसी शहर में पहली बार आते हैं? हाँ भी, नहीं भी। हाँ, सिर्फ तथ्यात्मक रूप में—जब हम किसी दूसरे से कहते हैं, वह तेहरान में मेरी पहली यात्रा थी, पर जब हम सचमुच उस शहर से गुजर रहे होते हैं, किनारे पर झुकते पेड़, आकाश में तिरते बादल, भीगी कोमल धूप की चमकीली परतें, तो लगता है, कोई वर्षों पहले की स्मृति आँखें खोलती है। क्या यह वही सडक़ तो नहीं है, वही पेड़, वही धूप, जब मैं पहली बार श्रीनगर से गुलमर्ग गया था? एक शहर के बीच कितने शहरों के खंडहर ढले रहते हैं; और वे पहाड़, जिन पर बर्फ के चकले हैं। क्या मैंने अनुमान किया था कि वे वसंत के दिनों में हिमालय से अवतरित होकर तेहरान में प्रगट होंगे? दिल्ली की झुलसती गरमियों से निकलकर मैं शायद किसी ‘स्वप्न नगरी’ में चला आया था। और तब मुझे काल्विनो की बात याद हो आई, ‘तुम्हारे पैर कहीं बाहर नहीं चलते, जहाँ तुम्हारी आँखें देखती हैं; बल्कि वहाँ, जो भीतर है, दबा हुआ, मिटा हुआ...’
पर वह स्वप्न जल्दी ही ढह गया, ज्यों ही हम अपने होटल के सामने आए। एक भीमकाय इमारत, सफेद कंक्रीट का पंचसितारा दैत्याकार, जिसके ऊपर ‘आजादी’ के अक्षर चमक रहे थे। इस कारागृह का नाम ‘आजादी’? यह सोचकर ही दिल दहल उठा कि आनेवाले दिनों में यह हमारा आवास स्थल रहेगा।
पर भीतर आकर मन कुछ हलका हुआ। एक हॉलनुमा लॉबी, रेस्तराँ के रिसेप्शन पर बैठे कृपालु मेजबान...दरवेश साहब ने मुझे कमरे का कार्ड दिया, जो चाबी का काम करता था। ग्यारहवीं मंजिल पर मुझे जाना था। भारतीय दूतावास के अधिकारी हसन साहब से विदा ली। उन्होंने ही बताया कि उस दिन कोई प्रोग्राम नहीं है और मैं आराम से अपना दिन गुजार सकता हूँ।
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मेरा कमरा सचमुच रोशनी से भरा है—बड़ा, खुला हुआ, चौड़ा पलंग और सामने सुंदर काँच की खिडक़ी, जिसके पीछे दो आकाशचुंबी इमारतें दिखाई देती हैं। नीचे एक खाली प्लॉट पड़ा है, कुछ भद्दे बैरकनुमा कंकाल खड़े हैं और पीछे सारा शहर फैला है। हमारा होटल शहर में नहीं है, हवाई अड्डे और पुराने तेहरान की बस्तियों के बीच कहीं अधर में खड़ा है। कुछ ही दूर शहर के पीछे वह पहाड़ दिखाई देता है, जिसे रास्ते में देखा था। हलकी सी खुशी होती है कि कमरे की खिडक़ी से वह हर सुबह मुझे अपने दर्शनों से कृतार्थ करेगा!
मैं चाय पीने लॉबी में ही बैठ गया...। फर्श से थोड़ा ऊपर वह एक विशालकाय मंच जान पड़ता था। भारतीय होटलों की तरह वह सिर्फ लॉबी ही नहीं थी, रेस्तराँ भी था, जहाँ अलग-अलग मेजों पर लोग कॉफी, चाय पी रहे थे। मेरा ध्यान बरबस ईरानी लड़कियों की तरफ चला जाता था...वे अलग-अलग मेजों पर अपनी सहेलियों के साथ बैठी बातों में मगन दिखाई देती थीं। परंपरागत इसलामी पहरावा से ढकी थीं, काली लंबी स्कर्ट, सिर पर ओढऩी, सिर्फ चेहरे के अलावा शरीर का कोई भाग काली पोशाक के बाहर नहीं दिखाई देता था। लंबी, छरहरी, गोरा, सफेद संगमरमरी चेहरा, जो यूरोपीय लड़कियों की ‘सफेदी’ से बहुत अलग था—उनमें एक स्निग्ध किस्म की ‘ओरियंटल’ सौम्यता थी। यद्यपि मजहबी नियमों के कारण पहनावे में बहुत स्वतंत्र नहीं थीं, किंतु अपनी बातचीत, आचार-व्यवहार में बिलकुल मुक्त और कुंठाहीन दिखाई देती थीं। बिना किसी संकोच के सिगरेट पी रही थीं, शायद शहर से दूर पंचसितारा होटल में वे अपने को कुछ ज्यादा ही मुक्त महसूस कर रही थीं। सोचने लगा, कुरान में बहिश्त की हूरों के बारे में जो परिकल्पना की गई है, वह ऐसी लड़कियों को देखकर ही की गई होगी। मैं आस पास की दुनिया को आँक ही रहा था कि मुझे दरवेश मियाँ दिखाई दिए। वह एक युवक साथी के साथ थे। मुझे देखकर मुसकराए और दोनों मेरी मेज पर ही आकर बैठ गए। अंग्रेजी से दोनों ही इतने कोरे थे जितना मैं फारसी से।इसलिए बातचीत मुसकराहट से आगे ज्यादा नहीं बढ़ पाई।
चाय पीने के बाद मैं होटल के बाहर निकल आया। कुछ ही दूर गया था कि पीछे आवाज सुनाई दी। मुडक़र देखा, दरवेश के मित्र हवा में हाथ हिलाते हुए मुझे बुला रहे थे।
उन्होंने दो-चार शब्दों में बताने की कोशिश की कि हम शहर जा रहे हैं। मैंने राहत की साँस ली। अब शाम अकेले नहीं बीतेगी। वह अब अप्रत्याशित विस्मयों को लिये हमारी प्रतीक्षा कर रही थी...
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मेरी राहत का एक दूसरा कारण भी था। मुझे अब दरवेश मियाँ और उनके दोस्त के साथ पैंटोमिम नहीं करना पड़ेगा...हमारे गिरोह में कुवैत के दो अरब डेलीगेट शामिल हो गए थे, जिन्हें अंग्रेजी आती थी। एक लंबे डील-डौल के विद्वान् थे, जिन्होंने सफेद लंबा चोगा और सिर पर अरब शेख की तरह स्कार्फ बाँध रखा था, जिसके इर्द-गिर्द काली रस्सीनुमा बेल्ट लिपटी थी। वह बहुत ही शांत, सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे, जिनके होंठों पर हमेशा एक व्यंग्य भरी मुसकराहट थिरकती रहती थी। वह किसी कुवैती पत्र में राजनीतिक- सांस्कृतिक मसलों पर लिखते थे। बोलचाल में बहुत संभ्रांत और विचारों में संतुलित जान पड़ते थे। लगता था, वह खुमेनी के कहर, अतिवादी दृष्िटकोण से बिलकुल सहमत नहीं थे। दो दिनों बाद जब हम होटल की लॉबी में एक साथ बैठे थे, तो उन्होंने लॉबी की दीवार पर लिखे फारसी के दो वाक्य दिखाए, ‘देखिए, क्या लिखा है—‘अमेरिका हमेशा ही हमारा दुश्मन रहेगा, यह बात हमें समझनी होगी।’ यह खुमेनी के भाषण का एक उद्धरण था। उनकी व्यंग्यात्मक मुसकान से मुझसे छिपा नहीं रह सका, वह इसके बारे में क्या सोचते हैं!
दूसरी एक लेखिका थीं। वह भी कुवैत से थीं, अरबी भाषा में कहानियाँ लिखती थीं। उनका गोल-मटोल चेहरा पाउडर, पेंट, लिपस्टिक से लिपा-पुता था, सिर की ‘चद्दर’ बार-बार उनके भूरे बालों पर फिसल जाती थी, जिससे पता चलता था, वह उसकी आदी नहीं हैं, जो शायद स्वाभाविक था। वह भी मेरी तरह ईरान पहली बार आई थीं और इसलामी पहनावे के कड़े नियमों से काफी अनभिज्ञ जान पड़ती थीं। स्वभाव से बहुत खुली, भोली और बातूनी जान पड़ती थीं। उन्हें देखकर न जाने क्यों मुझे इस्मत चुगताई की याद आती रही थी, जैसा मैंने उनके बारे में दूसरों से सुना था, हालाँकि देखा कभी नहीं था।
कुछ ही देर में हम गाड़ी से शहर के ‘हृत्स्थल’ में आ गए—भीड़ भरे चौक के बीचोबीच। चारों ओर लोगों का बवंडर था, जैसे कोई मेला लगा हो। यह तेहरान से मेरी ‘पहली पहचान’ थी और तब मुझे लगा, वह शहर मेरी स्मृति में पहली बार आया था, क्योंकि वह मुझे न किसी यूरोपियन नगर की, न किसी भारतीय शहर की याद दिलाता था।
किसी शहर को पहली बार देखना विचित्र अनुभव है, वह किसी अज्ञात दुनिया के नक्षत्रमंडल से एकाएक छिटककर एक चमकते हुए तारे की तरह सामने आ जाता है। किसी परी-कथा के जादुई आलोक मंडलसा, जिसमें हम स्वयं अपने को अजनबी सा पाने लगते हैं। लगता है, हमारे साथ वहाँ कुछ भी हो सकता है—मदारी की तरह डमरू बजाकर वह हमें पास बुलाएगा और सिर्फ एक इशारे से हमें किसी भेड़, बकरी या पत्थर की चट्टान में बदल देगा!
सहसा सामने एक विराट् नीले गुंबदवाली मसजिद दिखाई दी। पता चला, वह किसी सुविख्यात संत का समाधि स्थल है, सही अर्थों में ‘मसजिद’ नहीं। कुवैती लेखिका फोटो लेने में मुस्तैद थीं। ज्यों ही उन्होंने उसके सामने अपना कैमरा बंदूक की तरह दागा, दरवेश साहब ने उनका हाथ रोक लिया। वहाँ फोटो लेने पर कड़ी मनाही थी।
हम चौक से निकलकर छोटी सँकरी गलियों में चले आए; ‘धँसे आए’ कहना बेहतर होगा, क्योंकि भीड़ वहाँ इतनी घनी थी कि पता नहीं चलता था कि ग्राहकों के बहते रेले में कहाँ पैर जमाकर टिका जाए...किसिम-किसिम के फल, सब्जियाँ, मसालों और मेवों से ठसाठस भरी दुकानें, इससे पहले कि उन्हें पल भर देखने की इच्छा पूरी कर सकें, पीछे भीड़ की लहरें हमें आगे धकेल देती थीं। एक गली दूसरी गली में खो जाती थी और तभी वहाँ कोई दूसरा ही नजारा दिखाई देने लगता था। कुछ ही देर में जब हम उस मध्यकालीन दुनिया की भूलभुलैया से बाहर आए तो कुछ आश्चर्य हुआ, कि हम लोग अब भी साबुत-के-साबुत एक-दूसरे के साथ थे।
लौटकर वापस चौक में आए तो गाड़ी में बैठकर चैन की साँस ली। मुझे मालूम नहीं था, हम किधर जा रहे हैं; पर कुछ ही देर में पता चला कि हमारी कार शहर की चढ़ाई पर अलबोजे पहाड़ की तरफ रुख कर रही है। यह वही पहाड़ था, जो मुझे अपने होटल की खिडक़ी से इतना दूर जान पड़ता था और अब बिलकुल सामने खड़ा था। ऊपर चढ़ती हुई सडक़ के दोनों ओर कहवा घर, रेस्तराँ और ढाबानुमा दुकानें थीं। हमारे साथ आनेवाले कुवैती पत्रकार ने सुझाव दिया कि यहाँ तो गाड़ी से उतरकर पैदल चलना ही बेहतर होगा।
बाहर आए तो एक अजीब दृश्य था, जैसे अभी शहर के हृत्स्थल की गरम उसाँसों से निकलकर अचानक उसके शीर्ष स्थल की हवाओं में चले आए हैं। एक ही शहर का दूसरा चेहरा...सामने पहाड़, दोनों तरफ चट्टानों की दीवारें, जिनके झरोखों के नीचे तीव्र गति में गडग़ड़ करता पहाड़ी नाला; नाले के ऊपर कश्मीरी हाउस बोटों और बजरों की तरह बने हुए आरामगाह, जिनमें कुरसियों के बजाय कालीन बिछे हुए, गाव तकिए और कुशन, सामने रखी चौकोर चौकियाँ, सुंदर नक्काशी के बने हुक्के—जैसे हम इक्कीसवीं शती के तेहरान में नहीं, अलिफ लैला की जादुई परी-कथा में चले आए हों।
कोई शहर भी कैसे एक विदेशी के लिए स्वप्न में बदल जाता है और उसे बार-बार अपने को याद दिलाना पड़ता है कि नहीं, यह असली है, कोई स्वप्न नहीं; पर अजीब बात यह है कि वह स्वप्न ही असली है, नकली वह दुनिया है जो हम पीछे छोड़ आए हैं। वह इस ‘स्वप्न’ के सामने फीकी पड़ती है। बिलकुल वैसे ही जैसे हम किसी उपन्यास को पढऩे के बाद अपने यथार्थ में लौटते हैं और वह हमें यथार्थ नहीं, उसकी ‘पैरोडी’ जान पड़ता है।
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हम कालीन पर बजरेनुमा ढाबे में बैठे हैं। सामने सुंदर चौकियाँ रखी हैं। लोगों का शोर नीचे था, यहाँ सिर्फ बहते पानी का मदमाता पागलपन है, जो बीहड़ गति में पत्थरों, चट्टानों से टकराता हुआ नीचे बह रहा है। दुकान के मालिक सुंदर सलवार और लंबी कमीज पहने हैं, ऊपर पगड़ी है, जिसके नीचे सिर्फ उनकी हलकी खुशी में चमकती आँखें दिखाई देती हैं। उन्होंने हमें छोटे-छोटे प्यालों में (जिन्हें गुड्डा- गुड्डी के खेल में बच्चे एक-दूसरे को पिलाते हैं) चाय दी है। यहाँ चाय बिना दूध के ही दी जाती है, किंतु होती इतनी ‘कोमल’ है कि जरा भी कड़वी नहीं लगती। शराब का अभाव शायद यह चाय ही पूरा करती है, जिसे लोग एक के बाद दूसरे प्यालों में गटकते जाते हैं। हमारे मेजबान ने हमें चाय के साथ हुक्का भी पेश किया है। मैं कोई अर्धशती के बाद लोगों को हुक्का पीते देख रहा हूँ...वर्षों पहले शिमला में हमारे पड़ोसी कुमाऊँ ‘पैट्रियार्क’ जानकी बाबू बरामदे में हुक्का पिया करते थे और हम उनकी गोद में बैठकर उसके धुएँ का आनंद लेते थे। मैं इस बार अपना लोभ संवरण नहीं कर सका। हुक्के की नली को मुँह में लगाया, तो कड़वे तमाखू की जगह एक बहुत मनोरम सी सुवास मेरे हलक के भीतर तक तिरती गई। संभवत: तमाखू में अजीब सुगंधित मसालों का सम्मिश्रण रहा होगा। हुक्के के भीतर हलकी गडग़ड़ाहट के साथ राख में दबे कोयले सुलगने लगे और भीना सा धुआँ ऊपर उठने लगा।
चौकी पर स्वादिष्ट मसाले में तर खजूरें भी रखी थीं, जो मुँह में जाते ही घुल जाती थीं। ढाबे के मालिक एक तश्तरी में छोटे-छोटे लाल बेरों से भरी तश्तरी भी छोड़ गए। मुँह में डालते ही पता चला, वे बेर नहीं, फालसे हैं और फालसे भी कैसे, जैसे कभी नहीं खाए...आज भी उनके बारे में सोचते हुए मुँह में उनका ‘स्वाद’ याद करने की कोशिश करता हूँ, पर स्वाद की जगह सिर्फ पानी भर आता है!
हम काफी देर वहाँ बैठे रहे। ड्राइवर, दरवेश साहब, कुवैती पत्रकार अरबी-फारसी एक साथ बोल रहे थे। कुवैती लेखिका हुक्का पीने में मस्त थीं, जो अच्छा था, इससे उनका बोलना काफी कम हो गया था। मैं चुप था, अजनबी व्यंजनों के बीच अजनबी आवाजों को सुन रहा था।
जब हम ढाबे से बाहर निकले तो तेहरान के आकाश में चाँद निकल आया था; बुद्ध पूर्णिमा के एक दिन पहले का चाँद। सडक़ के दोनों ओर बहते नाले की आवाज सुनाई दे जाती थी; भ्रम होता था, हम सडक़ पर नहीं, किसी पुल पर चल रहे हैं।
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बाद के दिनों में कई बार तेहरान के पुराने हिस्से में जाना हुआ। शायद शहर में उससे ज् यादा आकर्षक जगह भी नहीं थी, जहाँ पहाड़ से बहता हुआ पानी का नाला शहर की तरफ आता था। ऊपर से नीचे नाले के ऊपर एक ढलान जाती थी। दोनों तरफ पेड़ों के झुरमुट और उनके बीच चायघर और रेस्तराँ। बाहर चौड़े तख्त बिछे थे, सुंदर रंग-बिरंगी कालीनों से ढके हुए। लगता था, शहर के युवक-युवतियाँ, सरकारी अफसरों के परिवार, कॉलेज के विद्यार्थी अपनी शामें बिताने वहीं आते हैं। शाम के सात बजे के बाद ही अचानक गहमागहमी बढ़ जाती थी। बाहर बावर्चीखाने से सिंकती हुई रूमाली रोटियों और पकते हुए गोश्त की गंध हवा में तैरने लगती थी। स्कूली लडक़ों-से दीखनेवाले ‘वेटर’ हाथ में खाने की थालियाँ लिये इधर से उधर भागते दिखाई दे जाते थे।
हम भी जूते उतारकर एक तख्त पर बैठ गए। लगता था, हम किसी खुली, हवाघर-सी दिखाई देनेवाली हाउस बोट पर बैठे हैं, ऊपर पहाड़, पास में पानी का झरना, लंबी भीमकाय चट्टानें। कुवैत के पत्रकार ने कुछ उदासी भरी मुसकराहट में कहा, ‘काश! यहाँ चाय की बजाय ठंडी बियर मिल सकती!’ कितना अजीब है कि हाफिज, सादी और उमर खय्याम के देश में शराब पर कड़ी पाबंदी लगी थी। कुछ मुसलिम राज्य अपनी धार्मिक कट्टरता के कारण किस तरह अपनी साहित्यिक परंपराओं को विकृत कर देते हैं और उन्हें मुल्लाओं की संकीर्ण और असहिष्णु नीतियों के तहत विस्मृत कर देते हैं। तब उन क्षणों में मुझे मिर्जा गालिब का तंज और रंज दोनों ही याद आने लगा।
किंतु एक ‘नशे’ के अभाव की क्षतिपूर्ति दूसरे नशे ने कर दी, जो परिवेश से आती है। वह पीने से नहीं, जीने के उल्लास से आती है। ऊपर से नीचे जाते हुए लडक़े-लड़कियों के जोड़े बिलकुल स्वच्छंद, हँसते-बतियाते हुए, जिनमें कोई कुंठा, वर्जना नहीं दिखाई देती थी। इस दृष्िट से ईरान भारत से भी कहीं आगे दिखाई देता है। आनेवाले दिनों में शहर की गलियों, रेस्तराँओं, पुस्तक मेले में जितनी बड़ी संख्या में महिलाएँ दिखाई देती हैं उतनी अपने देश में नहीं। पहनावे पर जरूर बंदिशें लगी हैं; पर अपने आचार-व्यवहार में वे बिलकुल खुली, हँसमुख और मुक्त दिखाई देती हैं। दुकानों, दफ्तरों और कारखानों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से कम नहीं। इसका कारण शायद राजनीतिक वातावरण में वह उदारवादी सहनशीलता का प्रादुर्भाव है, जिसके लक्षण खुमेनी अयातुल्ला की मृत्यु के बाद दिखाई देने लगे थे और जो वर्तमान प्रेजीडेंट मुहम्मद खातमी की नीतियों द्वारा और अधिक प्रखर तथा व्यापक हुए हैं।
रात के साथ सर्दी बढऩे लगी। तेहरान आते समय मैंने नहीं सोचा था कि इन दिनों भी वहाँ जाते हुए जाड़े के आसार बचे रहेंगे, इसलिए अपने साथ बहुत कम—लगभग नहीं के बराबर—गरम कपड़े लाया था। बाहर तख्त पर बैठे हुए शरीर ठिठुरने लगा। दरवेश साहब ने इशारे से सामने शीशे के केबिनों की ओर संकेत किया, जो रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैले थे। जो लोग बाहर सर्दी में न बैठना चाहें, वहाँ जाकर भोजन या चाय मँगवा सकते थे। मैंने देखा, वहाँ अधिकांश परिवार के लोग या युगल प्रेमी अपनी प्राइवेसी के सुरक्षित घेरे में बैठे हैं। सौभाग्य से एक केबिन खाली दिखाई दिया और मैं भी वहाँ जाकर बैठ गया। वहाँ सफेद चादरें, कालीन और कुशन रखे थे।
मेरे आस-पास पड़ोस में लोगों के गुच्छे गप्पों में या खाने में व्यस्त थे, और किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया।
मुझे लगा, मैं ट्रेन में बैठा हूँ और बाहर प्लेटफॉर्म पर चलते-फिरते लोगों का रेला है। मेरे अरबी-ईरानी मित्र तख्त पर बैठे हुए हुक्का और चाय पी रहे हैं। पीछे कहीं अँधेरे में गिरते हुए पानी के झरने की कल-कल सुनाई देती है। पहाड़ की चोटी यहाँ से दिखाई नहीं देती। तेहरान की रात शुरू हुई है। आनेवाले दिनों में मैं अखबार के संपादकों से मिलूँगा, पुस्तक मेले के उत्सवी वातावरण में पहली बार उस विशाल मैदान के जन-सागर को देखूँगा, जहाँ दिल्ली के प्रगति मैदान की तरह प्रदर्शनियाँ लगती हैं—और फिर उस स्वप्न-नगर जाना होगा, जिसका सुंदर काव्यात्मक नाम शीराज है, जहाँ हाफिज और सादी जैसे कवि रहते थे, और अब वहाँ उनके मकबरे हैं...।
पर यह सब बाद में। यह सब फिर कभी...अभी, इस क्षण यह सुख है, पलकों पर झुकी आती नींद, निर्झर पर बहती हवा, काली चादरों के बीच झाँकती हूरों-सी आँखें—और तब मुझे उसी अपने प्रिय मृत लेखक के शब्द याद आने लगे, जिससे यह यात्रा-विवरण शुरू हुआ था—
शहरों के साथ कुछ ऐसा होता है जैसा सपनों के साथ। हर कोई कल्पना स्वप्न में देखी जा सकती है; पर कोई भी स्वप्न, वह चाहे कितना ही अप्रत्याशित क्यों न हो, एक रेखाचित्र है, जो अपनी चित्रमयी भाषा में कोई आकांक्षा छिपाए रहता है या कोई डर।...तुम शहर की सात या सत्तर विस्मयकारी चीजों को देखकर उतना आनंद नहीं प्राप्त करते जितना सवालों के उन उत्तर से, जो एक शहर तुम्हें देता है।