हिन्दू या मुसलमान (कहानी) : धर्मवीर भारती

Hindu Ya Musalman (Hindi Story) : Dharamvir Bharati

सरकारी अस्पताल के बरामदे में 30 लाशें एक कतार में रक्खी हुई थीं। लाशें, नहीं उन्हें लाशें कहना गलत होगा, मगर उन्हें जिन्दा भी नहीं कहा जा सकता था। वे सूखी हड्डियों के मुरदार ढाँचे जिन पर जर्द, झुर्रीदार चमड़ा मढ़ा हुआ था । कलकत्ते की विभिन्न सड़कों से मुरदे उठाकर लाये गये थे इलाज के लिये । उन्हें भूख की बीमारी हो गयी थी और इसीलिये वे चलते-चलते सड़क पर गिर पड़ते थे और धीरे-धीरे दम तोड़ देते थे । हिन्दोस्तान जैसे खराब आबोहवा के देश में जहाँ आये दिन एक बीमारी चल पड़ती है, यह भी एक नयी बीमारी चल निकली थी। झुण्ड के झुण्ड लोग गाँवों से चल पड़ते और चलते-चलते बिना दायीं और बायीं पटरी का ख्याल किये गिर पड़ते और फिर उठने का नाम न लेते। शासकों ने समझा यह सत्याग्रह का कोई नया तरीका है मरने दो; मेडिकल विभाग ने समझा यह मलेरिया की कोई नयी किस्म है जो बंगाल के लिए साधारण बात है। लेकिन बीमारी बढ़ती गयी। जब सड़कों पर पड़ी हुई लाशों की वजह से, मारवाड़ियों की मोटरें, दफ्तर की बसें और फौज की लारियों के आने-जाने में रुकावट होने लगी तो हमारी मेहरबान सरकार को फिक्र हुई, और इसीलिए वे 30 भुखमरे, सरकारी अस्पताल में जाँच के लिए लाये गये और सावधानी से बरामदों में नरम और सीले हुए पक्के फर्शो पर लिटा दिये गये ।

डाक्टर परेशान थे, नर्सों परेशान थीं। यह भी क्या बीमारी है ? और एकदम से तीस नये मरीज ।

बरामदे में शान्ति थी । एक सुनसान कब्रगाह की तरह डरावनी खामोशी । मुरदे खामोश थे। एकाएक खटखट की आवाज हुई और एक नर्स बरामदे की सीढ़ियों पर चढ़ती हुई दीख पड़ी। चढ़ने में उसका मोजा नीचे खिसक गया और वह रुक कर उसे ठीक करने लगी। उसके जूतों की खटखट शायद किसी भुखमरे के बेहया दिल से जा टकराई। उसने करवट बदली। नर्स आगे बढ़ी और जब उसके पास से गुजरने लगी तो उसने बेबस निगाहें उठाकर नर्स की ओर देखा और बहुत प्रयत्न कर बोला- “पानी।"

नर्स पल भर को ठिठकी ।

“उहँ, कहाँ तक कोई काम करे सुबह से पोशाक भी तो नहीं सम्हाल पायी हूँ।” वह आगे बढ़ गयी ।

मरीज की प्यासी पसलियों से फिर दर्दनाक कराह उठी- “पानी ।”

“मरने दो !" नर्स ने कहा। और बगल के कमरे में एक शीशे के सामने खड़े होकर गले में बँधे रूमाल की गाँठ खोलने लगी ।

“पानी ”, घुटती हुई आवाज़ बोली। वह अभागा मरीज भी अपनी जिन्दगी और मौत की गाँठ खोलने में व्यस्त था ।

नर्स परेशान थी । गाँठ खुल ही नहीं रही थी। वह आदमी चुप हो गया। नर्स ने अपनी पोशाक ठीक की और चली गयी।

मरीज की कराह बन्द न हुई । बगल की लाश में कुछ हरकत हुई और कम्बल उठाकर एक बुढ़िया ने सर बाहर निकाला। उसके बाद वह उठी और कंकालों की तरह लड़खड़ाते हुए एक टीन के डब्बे में पानी लायी और मरीज के मुँह से लगा दिया। वह अपनी दम तोड़ रहा था। पहला घूँट गले से उतरा मगर दूसरा घूँट हिचकी के कारण नीचे गिर गया। बुढ़िया ने क्षण भर मायूसी से मरीज की ओर देखा और उसके बाद चुपचाप कम्बल के नीचे लुढ़क गयी ।

इतने में नर्स डाक्टर को साथ लेकर लौटी और प्यासे मरीज की ओर इशारा किया। डाक्टर ने स्टेथेस्कोप लगाकर देखा। उस कम्बख्त की प्यास हमेशा के लिए बुझ गयी थी । डाक्टर ने स्टेथेस्कोप हटाया और अजीब आवाज में कहा - "खतम।”...

फिर जेब से नोटबुक निकाली। घड़ी देखकर टाइम दर्ज किया और नर्स से पूछा - "यह भुखमरा कहाँ से लाया गया था।”

"सप्लाई आफिस के सामने से ! नर्स ने जवाब दिया ।

" हिन्दू था, या मुसलमान ।”

"मालूम नहीं।”

“मालूम नहीं ? अच्छा इसके बगलवाले मरीज से पूछो ?”

नर्स ने बगल वाले मरीज को उठाया। वह नहीं उठा।

डाक्टर ने जूते से कम्बल उलट दिया और डाँटकर कहा- “उठो ?”

बुढ़िया काँपकर उठ बैठी ।

"यह आदमी कौन था ?" डाक्टर ने पूछा ।

“हुजूर यह आदमी भूखा था ।”

“भूखा था ? यह कौन पूछता है-ठीक से जवाब दो।” डाक्टर ने डाँटा ।

“देखो ! यह सरकारी काम है ! नर्स ने आहिस्ते से समझाया- “सरकार यह नहीं पूछती कि यह आदमी भूखा था या प्यासा । सरकार यह पूछती है कि यह आदमी हिन्दू था या मुसलमान ? बोलो अस्पताल के रजिस्टर में दर्ज करना है।”

“मालूम नहीं हुजूर !" बुढ़िया बोली ।

“उहँ जाने दो। अच्छा उधर वाले मरीज से पूछो ?"

उधर वाला मरीज बोला ही नहीं। नर्स ने डाँटकर पूछा तब भी उसने जवाब नहीं दिया, क्योंकि वह मर चुका था और मुरदों को मजहब की पहचान नहीं होती क्योंकि वे ईश्वर के समीप पहुँच जाते हैं।

डाक्टर एक और नया मुरदा देखकर चिन्तित हुआ। उसने स्टेथेस्कोप लेकर जाँच करनी शुरू की। लगभग इक्कीस भुखमरे मर चुके थे ।

डाक्टर ने अपने सहकारी को बुलाया और कहा – “देखो इन बचे हुए भुखमरों को एक-एक तेज इंजेक्शन देकर निकाल दो। वरना ये भी मर जायँगे ।”

“यदि यहाँ नहीं तो बाहर मर जायँगे ! सहकारी ने उत्तर दिया। “बाहर मरने की परवाह नहीं । यहाँ मरेंगे तो सरकार की बदनामी होगी। और देखो - अखबार को रिपोर्ट दो कि कुल 7 की मौत हुई। बाकी यहाँ लाने के पहले ही मर चुके थे। समझे।” और थोड़ी देर बाद बाकी भुखमरे निकाल दिये गये ।

बुढ़िया बेहद कमजोर थी। वह पाँच कदम चली और बैठ गयी। पेट में जब भूख आँतों को मरोड़ने लगी तब वह फिर उठी और किसी तरह घसिटती हुई आगे बढ़ी।

बगल में एक साबुन की कम्पनी थी जिसके दरवाजे पर एक मोटा पंजाबी दरबान बैठा था । बुढ़िया उसके सामने गयी और हाथ फैला दिये। लेकिन कुछ बोल न पायी। गले में आत्मसम्मान आकर रुँध गया। पंजाबी ने देखा और एक क्रूर हँसी हँसकर बोला- “चल ! चल ! आगे बढ़, अगर तू जवान होती तो इज्जत बेचने पर शायद 8-10 पैसे मिल भी जाते- अब किस बिरते पर भीख माँगने आयी है। I चल हट ?"

बुढ़िया की झुर्रीदार पलकों में दो बेहया आँसू झलक गये ।

वह चलने को मुड़ी कि पंजाबी बोला- “तुझे खैरात चाहिए । यहाँ खैरात की कमी नहीं। हिन्दुस्तानी तो अपने बाप के मरने पर खैरात करते हैं, फिर जिन्दा लाशों के लिए क्यों न खैरात करेंगे। उधर जा, वहाँ सेठों ने धाबा खोल रक्खा है।"

बुढ़िया उधर की ओर चली। भोजनालय के द्वार पर बेहद भीड़ थी । हड्डियों के अनगिनत कंकाल प्रेतों की भाँति सूखे हाथ फैलाकर बैठे थे। उबले हुए ज्वार की महक हवा में फैल रही थी। बुढ़िया ने एक गहरी साँस ली जैसे साँसों के सहारे पेट भरने की कोशिश कर रही हो ।

कार्यकर्ताओं ने जुआर की खिचड़ी से भरी हुई एक देग लाकर सामने रक्खी और करछुल से निकालकर जुआर बाँटने लगे। एक हंगामा-सा मच गया। बुढ़िया उठी और कुत्ते को भगाकर देग खिसकाने का व्यर्थ प्रयास करने लगी ।

इतने में एक कार्यकर्त्ता चीखा- “देखो ! देखो उसने देग छू ली।” “देग छू ली ! हिन्दू है या मुसलमान ?”

“मुसलमान मालूम देती है।”

" निकाल दो कमबख्त को ?”

बुढ़िया लाञ्छना से पीड़ित होकर उठ गयी। उसका कसूर क्या था ? क्या मुसलमान कुत्तों से भी बदतर होते हैं ?

वह उठी और सर झुकाकर चल दी।

सामने ही एक दूसरा धाबा था। उसकी हिम्मत न हुई वहाँ जाने की, लेकिन उस पर चाँद-तारे का एक हरा झण्डा लगा हुआ था । उसको कुछ सान्त्वना हुई और वह वहाँ चली गयी। सामने एक वालन्टियर था । उसने रोका - “यहाँ सिर्फ मुसलमानों को खाना मिलता है ।

“मैं भी मुस्लिम हूँ” बुढ़िया ने जवाब दिया । “सामने के धाबे से खाकर आयी है, काफिर है; साफ काफिर, शक्ल से नहीं देखते।” दूसरा वालन्टियर बोला-

“भाग ! भाग ! यहाँ काफिरों की गुजर नहीं चल हट ?"

बुढ़िया का चेहरा तमतमा गया और चीखकर बोली-

“खुदा के बन्दो ! अल्लाह ने अनाज के दानों पर मजहब की छाप लगाकर नहीं भेजा है। तुम्हारी ओछी बात सुनकर मुझे अपने मुसलमान होने में शरम आती है । "

“पागल है ?" एक बोला-

“भूख से दिमाग खराब हो गया है।”

“अल्लाह काफिरों को ऐसी ही सजा देता है।”

बुढ़िया कहती ही गयी - “तुम काफिरों को खाना नहीं देते, मत दो। मत दो कमबख्तो ! वह धरती अभी कहीं नहीं गयी जिसने हम सब को बिना मजहब के ख्याल के पैदा किया है। तुम्हारा अनाज लेने के बजाय उसी धरती पर मर जाना मैं ज्यादा पसन्द करूँगी। खुदा तुम्हारा भला करे ।”

और वह हाँफती हुई एक ओर चली गयी।

दूसरे दिन कलकत्ते के एक प्रमुख दैनिक में छपा था-

“बंगाल के इस अकाल में समस्त भारत, प्रान्त और धर्म का भेद-भाव भुलाकर सहायता कर रहा है। मारवाड़ियों और इस्फहानियों, दोनों ने सार्वजनिक भोजनालय खोले हैं। इस सम्बन्ध में हम सरकारी अस्पतालों की मूल्यवान सहायता भी नहीं भुला सकते। हम इन सबके हृदय से कृतज्ञ हैं।”

इसके नीचे एक छोटी-सी नगण्य और महत्त्वहीन खबर छपी थी ।

“यद्यपि सरकारी अस्पतालों के कार्य से भुखमरों की संख्या में भारी कमी है, फिर भी अभी मौतें बराबर हो रही हैं। मुस्लिम धाबे के नजदीक एक बुढ़िया की लाश पायी गयी है जो ठीक वक्त से अस्पताल न पहुँच पाने के कारण मर गयी। यह नहीं समझ में आता कि लाश जलायी जाय या दफनाई जाय, क्योंकि यह पहचान नहीं हो पायी है कि बुढ़िया हिन्दू थी या मुसलमान... ।”

  • मुख्य पृष्ठ : कहानियाँ, नाटक और उपन्यास : धर्मवीर भारती
  • मुख्य पृष्ठ : धर्मवीर भारती की कविताएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यासऔर अन्य गद्य कृतियां