हिंदू स्त्री का पत्नीत्व (निबंध) : महादेवी वर्मा
Hindu Stri Ka Patnitva (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma
विकास और विकृति दोनों ही परिवर्तन-मूलक होने पर भी परिणाम में भिन्न हैं, क्योंकि एक वस्तु-विशेष को इस प्रकार परिवर्तित करता है कि उसके छिपे हुए गुण अधिक-से-अधिक स्पष्ट हो जाते हैं और दूसरा उन्हीं गुणों को इस प्रकार बदल कर विकृत कर देता है कि वे दोष जैसे जान पड़ने लगते हैं। मार्ग में पड़ी हुई शिला से टकरा कर जल-प्रवाह में जो परिवर्तन होते हैं वे विकास-मूलक हैं, परंतु किसी गढ़े में भरे हुए गति-हीन जल के परिवर्तन में शोचनीय विकृति ही मिलेगी ।
भारतीय स्त्री की सामाजिक स्थिति का इतिहास भी उसके विकृत से विकृततर होने की कहानी मात्र है। बीती हुई शताब्दियाँ उसके सामाजिक प्रसाद के लिए नींव के पत्थर नहीं बनीं, वरन् उसे ढहाने के लिए वज्रपात बनती रही हैं फलतः उसकी स्थिति उत्तरोत्तर दृढ़ तथा सुंदर होने के बदले दुर्बल और कुत्सित होती गई ।
पिछले कुछ वर्ष अवश्य ही उस पुराने इतिहास में नए पृष्ठ बन कर आए जिसने समाज को स्त्री की स्थिति को एक नए दृष्टिकोण से देखने पर बाध्य किया। इस समय भारतीय स्त्री चाहे टर्की, रूस आदि देशों की स्त्रियों के समान पुराने संस्कार मिटाकर नवीन रूप में पुनर्जन्म न ले सकी हो, परंतु इसमें संदेह नहीं कि वह अपनी स्थिति और तज्जनित दुर्दशा को विस्मय से देखने लगी है। अपनी दुर्बलता पर हमें जो विस्मय होता है वही अपनी शक्तियों के प्रति हमारे विश्वास का प्रमाण है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि अपनी शक्ति में विश्वास न करने वाला व्यक्ति अपनी दुर्बलता में विश्वास करता है, उस पर विस्मय नहीं ।
स्त्री के जीवन में राजनीतिक अधिकारों तथा आर्थिक स्वतंत्रता का अभाव तो रहा ही, साथ ही उसकी सामाजिक स्थिति भी कुछ स्पृहणीय नहीं रही। उसके जीवन का प्रथम लक्ष्य पत्नीत्व तथा अंतिम मातृत्व समझा जाता रहा, अतः उसके जीवन का एक ही मार्ग और आजीविका का एक ही साधन निश्चित था । यदि हम कटु सत्य सह सकें तो लज्जा के साथ स्वीकार करना होगा कि समाज स्त्री को जीविकोपार्जन का साधन निकृष्टतम दिया है। उसे पुरुष के वैभव की प्रदर्शनी तथा मनोरंजन का साधन बनकर ही जीना पड़ता है। केवल व्यक्ति और नागरिक के रूप में उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं आँका जाता। समाज की स्थिति के लिए मातृत्व पूज्य है, व्यक्ति की पूर्णता के लिए सहधर्मिणीत्व भी श्लाघ्य है, परंतु क्या यह माना जा सकता है कि सौ में से सौ स्त्रियों की शारीरिक तथा मानसिक स्थिति केवल इन्हीं दो उत्तरदायित्वों के उपयुक्त होगी ? क्या किसी भी स्त्री को उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियाँ और रुचि किसी अन्य पर श्लाघ्य लक्ष्य की ओर प्रेरित नहीं कर सकतीं ?
जैसे ही कन्या का जन्म हुआ, माता-पिता का ध्यान सबसे पहले उसके विवाह की कठिनाइयों की ओर गया। यदि वह रोगी माता-पिता से पैतृक धन की तरह कोई रोग ले आई तो भी उसके जन्मदाता अपने दुष्कर्म के उस कटु फल को पराई धरोहर कह-कह कर किसी को सौंपने के लिए व्याकुल होने लगे। चाहे कन्या को कुष्ठ हो; चाहे यक्ष्मा और चाहे कोई अन्य रोग, परंतु उसको विवाह जैसे उत्तरदायित्व से वंचित करना वंश के लिए कलंक है। चाहे वह शरीर से उस जीवन के लिए असमर्थ है, चाहे मन से अनुपयुक्त परंतु विवाह के अतिरिक्त उसके जीने का अन्य साधन नहीं। उसकी इच्छा-अनिच्छा, स्वीकृति - अस्वीकृति, योग्यता- अयोग्यता की न कभी किसी ने चिंता की ओर न करने की आवश्यकता का अनुभव किया। यदि कन्या कुरूपता के कारण विवाह की हाट में रखने योग्य नहीं है तो उसके स्थान में दूसरी रूपवती को दिखाकर, रोगिणी है तो उसके रोग को छिपा कर, सारांश यह है कि लालच से, छल से, झूठ से या अच्छे-बुरे किसी भी उपाय से उसके लिए पत्नीत्व का प्रबंध करना ही पड़ता है, कारण वही एक उसके भरण-पोषण का साधन है। यह सत्य है कि विवाह-जैसे उत्तरदायित्व के लिए समाज पुरुषों की भी योग्यता - अयोग्यता की चिंता नहीं करता परंतु उनके लिए यह बंधन विनोद का साधन है, जीविका का नहीं । अतः वे एक प्रकार से स्वच्छंद रहते हैं।
प्राचीनता की दुहाई देने वाले कुलों में बिना देखे सुने जिस प्रकार उसका क्रय-विक्रय हो जाता है, वह तो लज्जा का विषय है ही, परंतु नवीनता के पूजकों में भी विवाह योग्य कन्या को, बिकने के लिए खड़े हुए पशु की तरह देखना कुछ गर्व की वस्तु नहीं। जिस प्रकार भावी पति-परिवार के व्यक्ति उसे चलाकर, हँसाकर, लिखा-पढ़ाकर देखते हैं तथा लौटकर उसकी लंबाई-चौड़ाई, मोटापन, दुबलापन, नख - शिख आदि के विषय में अपनी धारणाएँ बनाते हैं, उसे सुन कर दास प्रथा के समय बिकने वाली दासियों की याद आए बिना नहीं रहती । प्रायः दुर्बल, कुरूप परंतु उपाधिधारी बेकार युवकों के लिए भी कन्या को केवल रूप की ही प्रतियोगिता में नहीं किंतु शिक्षा, कला, गुण आदि की प्रतियोगिता में भी सफल होना पड़ता है। जहाँ प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक स्त्री को प्राण धारण के लिए ही पत्नी बनना होगा वहाँ यदि आदर्श पत्नी या आदर्श माताओं का अभाव दिखाई दे तो आश्चर्य की बात नहीं !
पति होने के इच्छुक युवकों की मनोवृत्ति के विषय में तो कुछ कहना व्यर्थ ही है । वे प्रायः पत्नी के भरण-पोषण का भार ग्रहण करने के पहले भावी श्वसुर से कन्या को जन्म देने का भारी-से-भारी कर वसूल करना चाहते हैं। एक विलायत जाने का खर्च चाहता है, दूसरा यूनीवर्सिटी की पढ़ाई समाप्त करने के लिए रुपया चाहता है, तीसरा व्यवसाय के लिए प्रचुर धन मांगता है। सारांश यह कि सभी अपने-आपको ऊँची-से-ऊँची बोली के लिए नीलाम पर चढ़ाए हुए हैं। प्रश्न उठता है कि क्या यह क्रय-विक्रय, वह व्यवसाय स्त्री के जीवन का पवित्रतम बंधन कहा जा सकेगा ? क्या इन्हीं पुरुषार्थ और पराक्रमहीन परावलंबी पतियों से वह सौभाग्यवती बन सकेगी ? यदि नहीं तो वह इस बंधन को जो उसे आदर्श माता और आदर्श पत्नी के पद तक नहीं पहुँचा सकता, केवल जीविका के लिए कब तक स्वीकार करती रहेगी ? अवश्य ही यह मत्स्य - बेध या धनुष-भंग द्वारा युवक के पराक्रम की परीक्षा का युग नहीं है परंतु स्त्री, पुरुष में इतने स्वावलंबन की अवश्य ही अपेक्षा रखती है कि वह उसके पत्नीत्व को व्यवसाय की तुला पर न तोले ।
ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो किसी भी नवीन दृष्टिकोण को समाज और धर्म की स्थिति के लिए घातक समझ लेते हैं और भरसक किसी भी परिवर्तन को आने नहीं देते; फल यह होता है कि प्रतिरोध से और भी सबल होकर उसका प्रवाह प्राचीन की मर्यादा भंग कर देता है। ऐसी क्रांति की आवश्यकता ही न होती यदि हमारे समाज समुद्र में इतनी गहराई होती कि वह नवीन विचार धाराओं को अपने में स्थान दे सकता ।
स्त्री के विकास की चरम सीमा उसके मातृत्व में हो सकती है, परंतु यह कर्त्तव्य उसे अपनी मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों को तोल कर स्वेच्छा से स्वीकार करना चाहिए, परवश होकर नहीं । कोई अन्य मार्ग न होने पर बाध्य होकर जो स्वीकार किया जाता है वह कर्त्तव्य नहीं कहा जा सकता। यदि उनके जन्म के साथ विवाह की चिंता न कर उनके विकास के साधनों की चिंता की जावे, उनके लिए रुचि के अनुसार कला, उद्योग-धंधे तथा शिक्षा के द्वार खुले हों, जो उन्हें स्वावलंबिनी बना सकें और तब अपनी शक्ति और इच्छा को समझकर यदि वे जीवनसंगी चुन सकें तो विवाह उनके लिए तीर्थ होगा, जहाँ वे अपनी संकीर्णता मिटा सकेंगी, व्यक्तिगत स्वार्थ को बहा सकेंगी और उनका जीवन उज्ज्वल से उज्ज्वलतर हो सकेगा। इस समय उनके त्याग पर अभिमान करना वैसा ही उपहासास्पद है, जैसा चिड़िया को पिंजरे में बंद करके उसके, परवशता के स्वीकृत जीवन उत्सर्ग का गुणगान ।
समय की गति धनुष से छूटे हुए तीर की तरह आगे की ओर है, पीछे की ओर नहीं । जीवन की जिन परिस्थितियों को हम पीछे छोड़ आए हैं उन्हें हम लौटा नहीं सकते। इससे उनके अनुरूप अपने आपको बनाते रहना जीवन को एक वृत्त में घुमाते रहना होगा। जिस प्राचीन संस्कृति का पक्ष लेकर हम विकास का मार्ग रुँधना चाहते हैं यदि उनकी छाया भी हम छू सके होते तो हमारे कार्य ऐसे अर्थहीन और दृष्टिकोण ऐसा संकीर्ण न हो सकता। अनेक संस्कृतियों, विभिन्न दृष्टिकोणों तथा परस्पर विरोधी विचारों को समाहित कर लेने वाला अतीत चाहे हमें आगे न बढ़ाता, परंतु पीछे लौटना भी न सिखाता। हमारा निर्जीव रूढ़िवाद, हमारे पवित्रतम संबंधों में भी पशुता की अधिकता आदि प्रमाणित करते हैं कि हम भटक कर ऐसी दिशा में बढ़े चले जा रहे हैं, जो हमारा लक्ष्य कभी नहीं रही।
हम स्त्रियों के विवाह की चिंता इसलिए नहीं करते कि देश या जाति में सुयोग्य माताओं और पत्नियों का अभाव हो जाएगा, वरन् इसलिए कि उनकी आजीविका का हम कोई और सुलभ साधन नहीं सोच पाते। माता-पिता चाहे संपन्न हों चाहे दरिद्र, कन्या का कोई उत्तरदायित्व प्रसन्नता से अपने ऊपर नहीं लेना चाहते और न विवाह के अतिरिक्त उससे छुटकारा पाने का मार्ग ही पाते हैं। विधवाओं की भी हमारे निकट एक ही समस्या है। किसी स्त्री के विधवा होते ही प्रश्न उठता है कि उसका भरण-पोषण और उसकी रक्षा कौन करेगा। यदि उसे उदर-पोषण की चिंता नहीं है तो रक्षक के अभाव में दुराचार में प्रवृत्त करने वाले प्रलोभनों से घिरी रहती है और यदि संबलहीन है तो उसकी आवश्यकताएँ ही अन्य साधनों के अभाव में बुरे मार्ग को स्वीकार करने के लिए उसे विवश कर देती हैं। यदि हम गृह के महत्व को बनाए रखना चाहते हैं तो हमें ऐसी गृहणियों की आवश्यकता होगी जो अपने उत्तरदायित्व को समझ-बूझ कर स्वेच्छा से, प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें, केवल जीविका के लिए विवश होकर या अपनी रक्षा में असमर्थ होकर नहीं ।
माता-पिता को बाध्य होना चाहिए कि वे अपनी कन्याओं को अपनी-अपनी रुचि तथा शक्ति के अनुसार कला, व्यवसाय आदि की ऐसी शिक्षा पाने दें, जिससे उनकी शक्तियाँ भी विकसित हो सकें और वे इच्छा तथा आवश्यकतानुसार अन्य क्षेत्रों में कार्य भी कर सकें। राष्ट्र की सुयोग्य संतान की माता बनना उनका कर्त्तव्य हो सकता है, परंतु केवल उसी पर उनके नागरिकता के सारे अधिकारों का निर्भर रहना अन्याय ही कहा जाएगा।
इस विवशता के कारण ही वे किसी पुरुष की सहयोगिनी नहीं समझी जातीं। सत्य भी है, बंदी के पैर की बेड़ियाँ साथ रहने पर भी क्या सुखद संगिनी की उपाधि पा सकेंगी ? प्रत्येक पुरुष पत्नी के रूप में स्त्री को अंगीकार करते समय अनुभव करता है मानो यह कार्य वह केवल परोपकार के लिए कर रहा है। यदि उसे इतना अवकाश मिले कि वह आजीवन संगिनी के अभाव का अनुभव कर सके, उसे खोजने का प्रयास कर सके और उस उत्तरदायित्व के लिए अपने आप को प्रस्तुत कर सके तो यह उपकार की भावना एक क्षण भी न ठहरे जो अधिकांश घरों में दुःख का कारण बन जाती है। उन्हें न स्वयंवर में वरमाला पाना है, न अप्रतिम पराक्रम द्वारा प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर अपने-आपको वरण-योग्य प्रमाणित करना है और न विशेष विद्या-बुद्धि का परिचय देना है। केवल उन्हें जीवन भर के लिए एक सेविका की सेवाएँ स्वीकार कर लेनी हैं और इस स्वीकृति के उपलक्ष्य में वे जो चाहे माँग भी सकते हैं। अतः वे इस बंधन को महत्वपूर्ण कैसे और क्यों समझें। उन्हें आवश्यकता न होने पर भी दर्जनों विवाह-योग्य कन्याओं के पिता उन्हें घेरे रहते हैं तथा अधिक-से-अधिक धन देकर, अधिक-से-अधिक खुशामद करके अपनी रूपसी, गुणवती और शिक्षित पुत्रियों को दान देकर कृतार्थ हो जाना चाहते हैं । ऐसा विवाह यदि स्त्रीत्व का कलंक न समझा जावे तो और क्या समझा जावे !
गृहस्थाश्रम हमारे यहाँ उपयोगिता की दृष्टि से सबसे उत्तम समझा जाता था और उसकी अनिवार्यता के कुछ धार्मिक तथा कुछ सामाजिक कारण रहे हैं। प्राचीनकाल में नवागत आर्यजाति को अपनी सामाजिक स्थिति दृढ़ करने के लिए अधिक-से-अधिक संतान की कितनी आवश्यकता थी यह हमें उन वेदमंत्रों से ज्ञात हो जाता है जिनमें वे देवताओं से वीर संतान और पशुओं की याचना करते हैं। इस नवीन कृषि प्रधान देश में उन्हें अन्न के लिए पशुओं की जितनी आवश्यकता थी उतनी ही अपने विस्तार के लिए वीर पुत्रों की। किसी कुल की भी स्त्री उनके लिए त्याज्य नहीं थी । अतः वर्णों में उत्तम ब्राह्मण भी किसी भी वर्ण की स्त्री को पत्नी रूप में ग्रहण कर सकता था।
कुछ समय के उपरांत संभवतः कन्या-पक्ष के नीचे कुल के संबंधियों को दूर रखने के लिए उन्हें इस विधान को धर्म का रूप देना पड़ा, जिससे कन्या को दान करके माता-पिता जामातृ-गृह को त्याज्य समझें। आज भी हमारे यहाँ माता-पिता पुत्री के गृह में अन्न-जल ग्रहण करना या उससे किसी प्रकार की सहायता लेना पाप समझते हैं । इस भावना ने उनकी दृष्टि में पुत्र को पुत्री से भिन्न कर दिया, क्योंकि विवाह के उपरांत पुत्री उनके किसी काम न आ सकती थी और पुत्र उनके जीवन का अवलंब रहता था। इसी से नवीन गृहस्थी बसाने के लिए कुछ यौतुक देने के अतिरिक्त उन्होंने अपनी संपत्ति का कोई भाग उनके लिए सुरक्षित नहीं रखा। फिर भी अधिक संख्या में ब्रह्मचारिणियों की उपस्थिति, राजकन्याओं द्वारा ऋषियों का वरण आदि प्रमाणित कर देते हैं कि स्त्री उस समय आज की तरह परतंत्र नहीं थी । एक विशेष अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन कर लेने पर स्वयं अपना वर चुन कर गृहिणी बनने का अधिकार रखती थी तथा एक विशेष अवस्था के उपरांत उस आश्रम से विदा भी ले सकती थी ।
आज हम उन रीतियों के विकृत रूप तो अपनाए हुए हैं, परंतु उन परिस्थितियों पर विचार नहीं करना चाहते। इन कंकालावशिष्ट, दुर्बल और रोगी बालकों की बाल-माताएँ इस इतिहास से संबंध नहीं रखतीं, ये जाड़े में ठिठुरते नंगे भूखे और उस पर माता-पिता के रोगों का भार लादे हुए दरिद्र भिखारियों के बालक विवाह की उपयोगिता प्रमाणित नहीं करते, ये जर्जर शरीर और निर्जीव मन वाले युवक तथा मृत्यु का उपहास करने वाले मौरधारी बूढ़े प्राचीन चार आश्रमों की सृष्टि नहीं है, और यह मनुष्य-संख्या की अधिकता से आकुल होकर संतान - निग्रह की सम्मति देने वाला विज्ञ-समाज उस समय की परिस्थिति का प्रतिबिंब नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः नवीन युग के नए अभिशाप हैं, जिनका परिहार भी नवीन ही होगा। प्राचीन की सुदृढ़ सुंदर नींव पर हमने अपनी दुर्बुद्धि के कारण हवा से कंपित हो उठने वाली जर्जर कुटी ही बनाई है, गगनचुंबी प्रसाद नहीं और उस नींव के उपयुक्त भवन-निर्माण करने के लिए हमें इसको गिरा ही देना होगा। यह हमारी अदूरदर्शिता होगी, यदि हम अतीत को जीवित करने के लिए जीवित वर्तमान की बलि दे दें, क्योंकि वह अब हमारे प्रगतिशील जीवन के लिए सहारा हो सकता है, लक्ष्य नहीं ।
हम अन्य देशों में, जहाँ पहले स्त्रियों के प्रति पुरुषों के, हमारे जैसे ही विचार थे, अनेक परिवर्तन देखते हैं, वहाँ की स्त्रियों को सारे क्षेत्रों में पुरुषों के समान ही सुचारू रूप से कार्य करते देखते हैं, आवश्यकता से नहीं किंतु इच्छा से उन्हें जीवनसंगी चुनते देखते हैं तो हमारा हृदय धड़कने लगता है। हम परिस्थितियों पर कुछ भी विचार न कर केवल अपने देश की स्त्रियों को और भी अधिक छिपा कर रखने में सयत्न हो जाते हैं। हम नहीं जानते और न जानना ही चाहते हैं कि सबेरे पूर्व के अंधकार से फूट निकलने वाली प्रकाश की रेखाओं को जैसे हम आकाश के किसी एक कोने में बाँध कर नहीं रख सकते वैसे ही जागृति की दिग्व्यापिनी लहर भी किसी देश के एक कोने में बंदिनी नहीं बनाई जा सकती। फिर विचारों के प्रसार के इतने साधन होते हुए परिवर्तन केवल कुछ समय के लिए रोका जा सकता है, आमूल नष्ट नहीं किया जा सकता। आज टर्की की महिला को देखकर कौन कह सकता है कि यह उन्हीं की वंशजा है जो एक पुरुष के अंतःपुर में अनेक की संख्या में बंद रहती थीं, प्रकाश से भी मुख छिपाती थीं और जिनका उपयोग पुरुष के मनोरंजन और उसकी वंश-रक्षा के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जाता था। सोवियत रूस की सेना, नौसेना, यंत्रालयों, न्यायालयों आदि में सैनिक, जज आदि के पदों पर प्रतिष्ठित महिलाओं को देख कर क्या हम विश्वास कर सकते हैं कि इन्हीं को लक्ष्य कर यह रूसी कहावत कही गई होगी - "Beat your fur and you make it warmer, beat a woman and you make her wiser" उस देश में वधू का पिता वर को उसके अधिकार का चिह्न - स्वरूप नया चाबुक देता था, जो केवल वधू को पीटने केही काम आता था और प्रायः नव दंपति की शय्या के ऊपर टाँगा जाता था । यूरोप के अन्य सभ्य देशों में भी स्त्रियों की स्थिति ऐसी ही थी, परंतु आज वे चाहे हमारी तरह देवत्व का भार लेकर न घूम रही हों, मानवी अवश्य समझी जाने लगी हैं। हमारे देश की महिलाएँ भी कब तक केवल रमणी या भार्या बन कर संतुष्ट रह सकेंगी, यही प्रश्न है। इसका यह अर्थ नहीं कि यदि स्त्रियाँ गृह-धर्म और मातृत्व को तिलांजलि देकर पुरुषों के समान सब क्षेत्रों में काम करने लगें तो उनकी स्थिति समुन्नत कही जाने योग्य हो जाएगी। विवाह मनुष्य जाति की असभ्यता की भी सबसे प्राचीन प्रथा है और सभ्यता की भी, परंतु उसे सामाजिक के साथ-साथ नैतिक और धार्मिक बंधन बनाने के लिए अधिक परिष्कृत करना होगा। इस समय तो भारतीय पुरुष जैसे अपने मनोरंजन के लिए रंग-बिरंगे पक्षी पाल लेता है, उपयोग के लिए गाय या घोड़ा पाल लेता है उसी प्रकार वह एक स्त्री को भी पालता है तथा अपने पालित पशु-पक्षियों के समान ही वह उसके शरीर और मन पर अपना अधिकार समझता है। हमारे समाज के पुरुष के विवेकहीन जीवन का सजीव चिह्न देखना हो तो विवाह के समय गुलाब-सी खिली हुई स्वस्थ बालिका को पाँच वर्ष बाद देखिए। उस समय उस असमय प्रौढ़ा, कई दुर्बल संतानों की रोगिनी पीली माता में कौन-सी विवशता, कौन-सी रुला देने वाली करुणा न मिलेगी।
अनेक व्यक्तियों का विचार है कि यदि कन्याओं को स्वावलंबिनी बना देंगे तो वे विवाह ही न करेंगी, जिससे दुराचार भी बढ़ेगा और गृहस्थ धर्म में भी अराजकता उत्पन्न हो जाएगी। परंतु वे यह भूल जाते हैं कि स्वाभाविक रूप से विवाह में किसी व्यक्ति के साहचर्य की इच्छा प्रधान होनी चाहिए; आर्थिक कठिनाइयों की विवशता नहीं। यदि मनुष्य में किसी के आजीवन साहचर्य की इच्छा प्रधान न होती तो जिन देशों में स्त्रियाँ सब प्रकार से स्वावलंबिनी हैं वहाँ इस प्रथा का नाम भी न रह गया होता। रह गई दुराचार की बात - तो इस संबंध में यह निर्भ्रात सत्य है कि सामाजिक परिस्थितियों से असंतुष्ट व्यक्ति जितनी सरलता से इस मार्ग के पथिक बन सकते हैं उतने संतुष्ट नहीं। हम भी आकाश के उन्मुक्त वातावरण के नीचे घर की दीवारों से घिर कर रहते हैं और कारागार का बंदी भी, परंतु हम सांझ को बाहर से थके शिथिल उसमें लौट कर द्वार बंद कर अपने-आपको सुरक्षित समझते हैं और वह सुरक्षित होते हुए भी रात भर दीवार तोड़कर बाहर जाने का उपाय सोचा करता है। इस मानसिक स्थिति का कारण केवल यही है कि एक को उसकी इच्छा के विरुद्ध सुरक्षित बना रखा है और दूसरा अपनी इच्छा तथा आवश्यकता के अनुसार घर से बाहर आ जा सकता है। स्त्री की सामाजिक स्थिति यदि इतनी दयनीय न रहे, उसके जीवन और हृदय को यदि ऐसे कठोर बंधनों में बाँधकर आहत न कर दिया जावे तो वह कभी अपनी इच्छा से ऐसा पतन न स्वीकार करे जो आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ नहीं ।
यह धारणा कि स्वावलंबन के साधनों से युक्त स्त्री गृहिणी के कर्त्तव्य को हेय समझेगी, अतः गृह में अराजकता उत्पन्न हो जाएगी, भ्रांतिमूलक सिद्ध होगी। स्त्रीत्व की सारी माधुर्यमयी गरिमा ही मातृत्व में केंद्रित है। ऐसी स्त्री अपवाद है जो अपनी इच्छा से स्वीकृत जीवन-संगी की संपत्ति की चिंता न कर तथा अपने प्रिय बालकों को अरक्षित छोड़कर केवल आर्थिक स्वतंत्रता की कामना से संसार के कठोर वातावरण में द्रव्य उपार्जन करने जाना चाहे । फिर यदि पस्थितियों से बाध्य हो उसे अपनी गृहस्थी सुख से चलाने के लिए ऐसा करना भी पड़े तो वह श्लाघनीय ही है। हमारे यहाँ आज भी श्रमजीवियों की स्त्रियाँ तथा किसानों की सहधर्मणियां घर सँभालती और जीविका के उपार्जन में पुरुष की सहायता भी करती हैं। इस चिंता से कि वे कहीं पुरुष के अधिकार के बाहर न चली जावें, उन्हें पुरुष - मनोरंजनी विद्या के अतिरिक्त और कुछ न सिखाना उनके लिए भी घातक है और समाज के लिए भी, क्योंकि वे सच्चा सामाजिक प्राणी और नागरिक कभी बन ही नहीं पातीं।
शिक्षा की दृष्टि से स्त्रियों में दो प्रतिशत भी साक्षर नहीं हैं। प्रथम तो माता-पिता कन्या की शिक्षा के लिए कुछ व्यय ही नहीं करना चाहते, दूसरे यदि करते भी हैं तो विवाह की हाट में उनका मूल्य बढ़ाने के लिए, कुछ उनके विकास के लिए नहीं। इसी पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह करके अनेक सुशिक्षित स्त्रियाँ गृहस्थ जीवन में प्रवेश ही नहीं करना चाहतीं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि उनके सहयोगी उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व को एक क्षण भी सहन न कर सकेंगे। इस धारणा के लिए प्रमाणों की भी कमी नहीं रही। प्रत्येक भारतीय पुरुष चाहे वह जितना सुशिक्षित हो, अपने पुराने संस्कारों से इतना दूर नहीं हो सकता है कि अपनी पत्नी को अपनी प्रदर्शनी न समझे। उसकी विद्या, उसकी बुद्धि, उसका कला-कौशल और उसका सौंदर्य सब उसकी आत्मश्लाघा के साधन मात्र हैं। जब कभी वह सजीव प्रदर्शन की प्रतिमा अपना भिन्न व्यक्तित्व व्यक्त करना चाहती है, अपनी भिन्न रुचि या भिन्न विचार प्रकट करती है, तो वह पहले क्षुब्ध, फिर असंतुष्ट हुए बिना नहीं रहता। कभी भारतीय पत्नी देश के लिए गरिमा की वस्तु रही होगी, परंतु आज तो विडंबना मात्र है। यदि समाज उसकी स्थिति को न समझेगा तो अपनी दशा के प्रति असंतोष उसे वह करने पर बाध्य करेगा जिससे उसकी शेष महिमा भी नष्ट हो जावे।
('शृंखला की कड़ियाँ' से)