Hindi Kavita Mein Ekta Ka Pravah (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
हिन्दी कविता में एकता का प्रवाह : रामधारी सिंह 'दिनकर'
अकसर देखा गया है कि किसी देश के लोगों में राष्ट्रीयता का भाव उस समय पैदा होता है, जब वह देश किसी और देश का गुलाम हो जाता है। जब मुसलमान हिन्दुस्तान के शासक हुए, तब इस देश में राष्ट्रीयता को जन्म देनेवाली हालत पैदा हो गई थी, लेकिन राष्ट्रीयता उस समय जन्मी नहीं। हम्मीर और खुमान जैसे हिन्दू वीरों के चरित्र पर जो काव्य लिखे गए, उनमें एक प्रकार की राष्ट्रीयता की झलक जरूर थी, मगर वह राष्ट्रीयता बहुत दूर सीमित भी रही। असल में इन काव्यों में हिन्दू-राष्ट्रीयता नहीं, वैयक्तिक वीरों की प्रशस्ति है। हाँ, औरंगजेब के जमाने में हिन्दू-राष्ट्रीयता में एक जबर्दस्त उभार जरूर आया जिसके कवि भूषण हुए। मगर हिन्दी के आलोचक भूषण को भी राष्ट्रीय कवि नहीं मानते, क्योंकि पश्चिम से आनेवाली राष्ट्रीयता की सभी शर्ते उनसे पूरी नहीं होती हैं।
हमारे देश में राष्ट्रीयता का असली जन्म उन्नीसवीं सदी में हुआ, जब अंग्रेजी सल्तनत यहाँ अपना पाँव जमाकर बैठ गई और उसके जहर का अनुभव हिन्दू और मुसलमान दोनों ही करने लगे। अंग्रेजी राज के साथ यूरोप से जो ज्ञान, विज्ञान, धर्म और नैतिकता के नए भाव इस देश में आए, उनके सामने हिन्दू और मुसलमान-दोनों ही जातियाँ काँपने लगीं। हिन्दू धर्म और इस्लाम-दोनों में से किसी के भी पास वह चीज नहीं थी जिसे लेकर यह देश यूरोप ये आए हुए विज्ञान और बुद्धिवाद का मुकाबला करता। निदान, ज़िन हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजी की शिक्षा मिली, उनमें से अधिकांश लोग अपने धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी तहजीब की निन्दा करने लगे। हिन्दुस्तानियों के द्वारा हिन्दुस्तान के मजहब और तहजीब की ऐसी आलोचना शुरू हुई कि एक घमासान-सा मच गया और ऐसा लगने लगा कि यह देश अब पोशाक, रहन-सहन, खान-पान और विचार-सभी दृष्टियों से यूरोप बन जाएगा। भारत की पुरानी और जकड़ी हुई सभ्यता यूरोप की जवान और उच्छल सभ्यता से टकरा गई थी और इस धक्के से उसके अंग-अंग काँप रहे थे। मगर इस बूढ़ी सभ्यता ने तुरन्त ही अपने को सँभाला और इस चुनौती का जवाब देने के लिए वह अपने भीतर नई स्फूर्ति, नई ताकत और ताजगी लाने की कोशिश करने लगी। हिन्दू जाति के भीतर से राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, बंकिमचन्द्र, परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द उत्पन्न हुए, जिन्होंने हिन्दू धर्म की पुरातनता को धो-माँजकर उसका एक ऐसा रूप खड़ा कर दिया जिस पर अंग्रेजी पढ़े-लिखे हुए हिन्दुओं की भी श्रद्धा हो सकती थी। इसी प्रकार, इस्लाम के भीतर से सर सैयद अहमद खाँ, मौलाना हाली और वहाबी आन्दोलन के कई नेता प्रकट हुए जिन्होंने कुरीतियों को हटाकर इस्लाम का एक निर्मल रूप दुनिया के सामने रखा। इस्लाम को शुद्ध करनेवाले इस आन्दोलन के पहले कवि हाली और दूसरे कवि सर मोहम्मद इकबाल हुए।
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि यूरोपीय सभ्यता की टकराहट से हिन्दुत्व और इस्लाम-दोनों की नींद टूटी और दोनों ही अपने भीतर उस ताकत की खोज करने लगे जिसे बढ़ाकर वे विज्ञान, ईसाइयतं और नवीन बुद्धिवाद या रैशनेलिटी के हमलों का जवाब दे सकते थे। और दोनों को यह दिखाई पड़ा कि इस चुनौती का जवाब देने का रास्ता सिर्फ एक है और वह यह कि हम अपने धर्म और संस्कृति के उन प्राचीन सत्यों को जोर से पकड़ें जो अमर हैं और उनका मेल उन नए सत्यों से बिठाएँ जो पच्छिम से आ रहे हैं। राजा राममोहन राय अंग्रेजी के साथ संस्कृत, अरबी और फारसी के भी पंडित थे तथा रामकृष्ण परमहंस कुछ दिनों तक इस्लाम और ईसाइयत की भी साधना कर चुके थे। अतएव, साधना और भीतर से हिन्दुत्व का जो रूप निखरा, वह भारत में फैले हुए सभी धर्मों के सामंजस्य का प्रतीक बन गया।
इस आन्दोलन को हम रिनासां या भारत का नवजागरण कहते हैं और इसी नवजागरण ने हमारे देश में राष्ट्रीयता का विकास किया। जब रिनासां या नवजागरण का काल आता है, तब जातियों के कुछ प्राचीन सत्य दुबारा जन्म लेते हैं और जातियां अपने इतिहास के उस हिस्से से जा चिपकती हैं जो गुजर चुका है, मगर जिसकी याद से लोगों में स्वाभिमान की रोशनी उमड़ती है। हिन्दुस्तान में भी यही हुआ और बदकिस्मती की बात यह हुई कि अपने पिछले इतिहास को देखते हुए मुसलमान अरब और कुरान की ओर बढ़ते गए और हिन्दू प्राचीन धर्मशास्त्र, वेद तथा उपनिषद् की ओर । नतीजा यह हुआ कि दोनों ही जातियों ने अपनी उन विशिष्टताओं पर ज्यादा जोर देना शुरू किया जो उन्हें अलग करनेवाली थीं, उन पर नहीं जो उन्हें मिलानेवाली थीं और जिन्हें हिन्दुओं और मुसलमानों ने आपस में मिलकर तैयार किया था। हिन्दुओं और मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति के नेता शहंशाह अकबर हुए थे, मगर नवजागरण के बाद श्रद्धा के पात्र अकबर नहीं रहे, कुछ लोगों ने धीरे-धीरे यह पद सम्राट औरंगजेब को दे दिया। भारत में जो रिनासां आया, उसका सबसे बड़ा दोष यह रहा कि उसने हिन्दुओं और मुसलमानों की आँखों को घुमाकर उनके सिर के पीछे कर दिया। आँखें सामने रहें तो हम भविष्य को देख सकते हैं। वे अगर पीठ पर चली जाएँ तो हमें सिर्फ भूत या गुजरा हुआ जमाना ही दिखलाई पड़ेगा।
रिनासां से प्रेरित यह राष्ट्रीयता जब साहित्य में उतरी, तब यह बात स्पष्ट हो गई कि नए हिन्दू और नए मुसलमान किस तरफ को जा रहे हैं। उस समय, मुस्लिम राष्ट्रीयता के कवि मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली हुए जिनके 'मुसद्दस' नामक काव्य ने भारतीय जनता के जागरण की दिशा में बड़ा काम किया लेकिन यह भी ठीक है कि 'मुसद्दस' लिखने की प्रेरणा कवि को विशेषतः मुस्लिम समाज की दुर्दशा से मिली थी। बल्कि हाली में हम जहाँ-तहाँ इस बात का भी रोना पाते हैं कि भारत में आकर इस्लाम का रूप विकृत हो गया है और हिन्दुत्व से मेल-जोल बढ़ाकर उसने अपनी काफी नुकसानी कर ली है।
वो दीने-हे जाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए-आलम में पहुँचा,
किए पै सिपर जिसने सातों समुन्दर,
वो डूबा दहाने में गंगा के आकर।
इसी तरह हिन्दी के सबसे बड़े कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती' भी मुख्यतः हिन्दू राष्ट्रीयता को उत्थान देने को प्रकट हुई और उसने हिन्दुओं का ध्यान उस गुलामी की ओर आकृष्ट किया, जो खत्म हो चुकी थी और जिसकी जगह पर अब नई गुलामी आ गई थी जिसके नीचे हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही तड़प रहे थे।
अंग्रेजों के आने से जो स्थिति पैदा हो गई थी, उसका सही चित्रण आगे चलकर इकबाल ने किया :
बुतखाने के दरवाजे पर सोता है बरहमन,
तकदीर को रोता है मुसल्मां तहे मेहराब।
लेकिन 'भारत-भारती' के जमाने तक हिन्दी में यह अनुभूति साफ नहीं हुई थी। इसलिए 'भारत-भारती' के कवि ने लिखा :
अन्यायियों का राज्य भी क्या अचल रह सकता कभी?
आखिर हुए अंग्रेज शासक राज्य है जिनका अभी।
मगर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस बढ़ती हुई दरार को पाटने की कोशिश में कांग्रेस अपने जन्मकाल से ही पिल पड़ी और जिस राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी, उसके नारे हिन्दी भाषा के हृदय पर अमिट अक्षरों में अंकित हो गए। हिन्दी के हृदय की लिखावट इतनी मजबूत है कि उस पर साम्प्रदायिक दंगों का कोई असर नहीं हुआ और न नोआखाली, बिहार और पंजाब की खूरेजियाँ ही उस पर कोई धब्बा छोड़ सकी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस कवि ने भारत-भारती लिखकर एक प्रकार से मौलाना हाली के मुसद्दस का जवाब दिया था, उसने भी एक बार राष्ट्रीय एकता के स्वर को अपना लेने के बाद फिर कभी अपनी राह नहीं बदली और उसकी कविता ने कांग्रेस, गांधी, आजाद और जवाहरलाल के आदर्श को बराबर ऊँचा रखा है। उन्नीसवीं सदी में 'हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान' की आवाज पं. प्रतापनारायण मिश्र ने लगाई थी, मगर यह आवाज उन्हीं के साथ खत्म भी हो गई। उनके बाद के कवियों ने भारत की सभी जातियों को मिलाकर राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के आदर्श को बराबर सामने रखा है।
पं. श्रीधर पाठक ने अपने 'भारत-गीत' में
जय हिन्दू जन, जय मुस्लिम गन,
जैन, पारसी, बौद्ध, क्रिश्चियन,
सभी की जय-कामना एक ही भाव से की और पं. गिरिधर शर्मा ने भारत का । . जो चित्र खींचा, उसमें सभी प्रान्त भारत के अविच्छिन्न अंग माने गए :
पंजाबी, गुजरात-निवासी,
बंगाली हो या ब्रजवासी,
राजस्थानी या मद्रासी,
सबके सब हैं भारतवासी।
स्नेहीजी ने भारत के तीस कोटि लोगों की तुलना तीस कोटि देवताओं से की .. और 'हर-हर-महादेव' तथा 'अल्ला-हो-अकबर' के बीच उन्होंने कोई भेद नहीं माना :
करते हो किस इष्ट-देव का आँख मूंदकर ध्यान?
तीस कोटि लोगों में देखों तीस कोटि भगवान।
तथा
कह दो 'हर-हर' यार! या 'अल्ला-अल्ला' बोल दो।
मन्दिर, मस्जिद और गाय को लेकर हिन्दुस्तान में जो साम्प्रदायिक दंगे चलते रहे, उनका आघात हिन्दी कविता ने बराबर अनुभव किया और बराबर वह भारतवासियों को क्षुद्र धर्म से ऊपर उठकर सच्चे मानव-धर्म की याद दिलाती रही:
खूँ बहाया जा रहा इनसान का
सींगवाले जानवर के प्यार में;
कौम की तकदीर फोड़ी जा रही
मस्जिदों की ईंट की दीवार में।
तथा
नूर एक वह रहे तूर पर, या काशी के द्वारों में।
ज्योति एक वह खिले चिता में, या छिप रहे मजारों में,
बहती नहीं उमड़ कूलों से, नदियों को कमजोर कहो,
ऐसे हम, दिल भी कैदी है ईंटों की दीवारों में।
और जब सन् 1946 ई. में नोआखाली और बिहार में दंगे शुरू हुए, तब भी हिन्दी कविता मौन नहीं थी। वह विनाश के नजारों को देखकर चीख रही थी, ढार मारकर रो रही थी, करुण स्वरों में पुकार रही थी। मगर देश की बदकिस्मती ने लोगों के कान बहरे कर दिए :
ओ बदनसीब, इस ज्वाला में
आदर्श तुम्हारा जलता है।
समझाएँ कैसे तुम्हें कि
भारतवर्ष तुम्हारा जलता है।
जलते हैं हिन्दू-मुसलमान,
भारत की आँखें जलती हैं।
आनेवाली आजादी की,
लो, दोनों पाँखें जलती हैं।
हिन्दी में एकता के आदर्श के लिए काम करनेवाले कवियों में माधवप्रसाद शुक्ल, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और सुभद्रा कुमारी चौहान के नाम आदर से लिए जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीयता की आवाज केवल हिन्दी कविता . के ही कंठ से निकली, उर्दू के कवियों ने भी उस आदर्श को पकड़ा जिसके लिए कांग्रेस संघर्ष कर रही थी। इन उर्दू कवियों में सबसे ऊपर इलाहाबाद के विख्यात राष्ट्रीय कवि अकबर रहे, जिनकी पंक्तियाँ क्या हिन्दू और क्या मुसलमान-सबकी जिह्वा पर आज तक चढ़ी हुई हैं। सर सैयद और मौलाना हाली तथा बाद के इकबाल राष्ट्रीयता की जिस धारा के समर्थक थे, अकबर उस धारा के बिलकुल खिलाफ थे और वे सच्चे मन से हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास कर रहे थे :
हिन्दू-मुस्लिम एक हैं दोनों,
यानी दोनों ही एशियाई हैं।
हमवतन, हमजुबाँ व हमकिस्मत,
क्यों न कह दूँ कि भाई-भाई हैं?
उन्होंने एक सपना देखा था कि:
मुहर्रम और दशहरा साथ होगा,
निबाह इसका हमारे हाथ होगा,
खुदा की ओर से ही है ये संयोग,
रहें तब क्यों नहीं मिल करके हम लोग?
जिस आदर्श को अकबर साहब ने सरलता से देश के सामने रखा, उसी आदर्श को ओज, वीरता और निर्भीकता के साथ लिखने का श्रेय चकबस्त और जोश को है। बल्कि जोश साहब के विषय में इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है। असल में हिन्दी के बाहर एकता और क्रान्ति की जो दो सबसे बड़ी आवाजें उठ रहीं थीं, उनमें एक तो बंगला के तेजस्वी कवि काजी नजरुल इस्लाम की थी और दूसरी उर्दू के प्रतापी कवि जोश की। हिन्दुस्तान के नौजवानों के हृदय को जोश ने कुछ इस ढब से पकड़ा कि वे अनायास ही हिन्दू और मुसलमान दोनों के प्यारे हो गए।
मगर अकबर, चकबस्त और जोश तथा श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण और माखनलाल हार गए। जीत उनकी हो गई जो इकबाल की धारा के साथ थे। लेकिन हमारा खयाल है कि यह जीत क्षणभंगुर है। जमीन के कटने और बँटने से आदमी आदमी का दिल नहीं बँटना चाहिए । हम जिस आदर्श के लिए लड़ रहे हैं, वह आनेवाली मनुष्यता का आदर्श है। हम जिस दुनिया को अस्तित्व में लाने की कोशिश कर रहे हैं वह एक ऐसी दुनिया है जहाँ धर्म मनुष्य को आपस में एक करता है, जहाँ राजनीति जनता में बदगुमानी नहीं फैलाती और जहाँ मनुष्य यह महसूस करके एक दूसरे से सट जाता है कि हम सब-के-सब किसी एक ही बिन्दु से आये हुए हैं।
आज की हालत निराशा और अन्धकार जरूर पैदा करती है। एक ही जमीन के दो टुकड़ों के बीच एक नकली रेखा है जो पेड़ों, पहाड़ों और नदियों को ही नहीं, आदमियों को भी बाँटे हुए है । मगर, आदमी, पेड़, पहाड़ और नदी नहीं, भले-बुरे को पहचानने वाला मनुष्य है। यह रेखा बनी रहना चाहती हो तो अपनी जगह पर बनी रहे, मगर, आदमी आदमी से अलग नही रहेगा। हमारी राह प्रेम और मुहब्बत की राह है। घृणा, कलह और बदगुमानी की राह से जो बाजी हम हार बैठे हैं, उसे हम प्रेम और मुहब्बत से वापस लायेगे।
हिन्दी कविता आज भी निराश नहीं है। वह हिन्दुओं और मुसलमानों को बाँधकर अलग रखनेवाली जंजीरों और भारत तथा पाकिस्तान को बाँटनेवाली दीवारों से ललकार कर कह रही है-
विश्वास बंधे, जंजीरों में यह जोर कहाँ ?
रुक सके प्रेम, यह ताव कहाँ दीवारों में ?
उस पार प्रेम की नदी लहर कर जागेगी,
हो टीस अगर सच्ची इस पार पुकारों में।
('रेती के फूल' पुस्तक से)