हिंदी कवि सम्मेलन (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Hindi Kavi Sammelan (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

हिंदीभाषी क्षेत्रों के कवि-सम्मेलन अपनी रोचकता, बाहुल्य, समय और हल्कापन, असमयता, वजनदारी आदि के कारण प्रसिद्ध हैं। हर मौके पर, हर उत्सव में, हर जगह होते हैं। कोई हफ्ता नहीं गुजरता है, जब कवि सम्मेलन सुनने को न मिलता हो ।

अब इस संबंध में हिंदी के कवियों, आलोचकों और श्रोताओं में भी विचार होने लगा है ।

सहयोगी ‘हिंदुस्तान' में अनेक हफ्तों से धारावाहिक रूप से कवि-सम्मेलनों के संबंध में साहित्यिकों तथा कवियों के विचार प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें बड़ी मजेदार बातें सामने आ रही हैं - एक कवि ने इस बात को स्पष्ट रूप से कह दिया है कि कवियों को पहले पैसा दे देने से वे मन से कविता पढ़ते हैं और एक संयोजकजी ने लिखा है कि किसी कवि-सम्मेलन में किन्हीं कवि की नारियों के प्रति कुरुचिपूर्ण चेष्टाएँ देखकर एक राजपूत तलवार खींचकर मारने दौड़ा और भाग खड़े होनेवालों में 'दिनकरजी' भी थे । कुछ कवियों ने इस बात की शिकायत की है कि सम्मेलन हो जाने के बाद संयोजक कवियों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते - " रहिमन भाँवर के परे नदी सिरावत मौर।" एक कवि मित्र ने सुनाया कि एक जगह जब वे कवि सम्मेलन के लिए पहुँचे, तो उन्होंने संयोजकों से कहा कि उनके कमरे में किसी कवि को न ठहराया जाय, क्योंकि उनकी आदत सवेरे 4 बजे उठकर दंड-बैठक लगाने की है। संयोजक बोले, “तो आप करिए; दूसरा आदमी सोया रहेगा।" वे बोले, "नहीं, मेरी आदत है कि दंड-बैठक के बाद जो भी सामने हो, उससे जोर करता हूँ।” कवि-सम्मेलन समाप्त होने पर जब संयोजक ने मुँह नहीं दिखाया, तो वे उन्हें खोजते पहुँचे और कहा, “पैसे दीजिए और स्टेशन तक पहुँचाने का प्रबंध कीजिए, व सबेरे के दंड-बैठक का उपयोग आप पर करता हूँ।" उनका कहना है कि संयोजकजी ने घबड़ाकर पैसे दे दिए।

कितनी ही घटनाएँ हैं जिनसे मालूम होता है कि लोग कवि सम्मेलन कला के प्रसार की दृष्टि से या सांस्कृतिक दृष्टि से नहीं कराते, वरन् सस्ते मनोरंजन के लिए बुलाते हैं। इतना सस्ता हो गया है यह प्रोग्राम कि लोग यह सोचने लगे हैं कि चाहे जब कवियों को इकट्ठा करा सकते हैं। जो लिखता है, वह तो झख मारकर सुनाएगा, ऐसा लोगों का खयाल है।

कवि-सम्मेलन क्यों होते हैं, इस संबंध में कवियों का यह कहना है कि कविता का जनता में प्रसार होना चाहिए, समाज का सांस्कृतिक स्तर उठना चाहिए। वह ठीक हो सकता है; वैसे हमें अनुभव है कि यह दृष्टि 100 में से 1 की हो तो हो । शेष के लिए कवि सम्मेलन टकसाल है, सुनाने की लोलुपता की तुष्टि का साधन है। कुछ कवियों की जीविका है।

उधर श्रोताओं की दृष्टि से इसका महत्त्व यह है कि इतने कम दाम पर न सिनेमा देखा जा सकता है न नाच! अपवादों की बात मैं नहीं कर रहा ।

होता यह है कि कवि और श्रोता में एक व्यावसायिक संबंध हो गया है। संयोजक सोचते हैं कि हमने दाम दिए हैं, हम काम लेंगे। कवि सोचता है कि पैसे मिलें तो कहीं भी मजदूरी करने में क्या हर्ज है। कवि के साथ एक मजबूरी और भी है-मंच और माइक के आकर्षण से उनकी शक्ति काफी क्षीण हो गयी है ।

परिणाम सामने है -कवि की इज्जत को जितना इस व्यावसायिक काव्य-पाठ ने कम किया है, उतना किसी ने नहीं । तरह-तरह के अपमान, अवहेलना और उपहास सहने पड़ते हैं। दूसरा एक कुपरिणाम यह हुआ है कि स्टेज की कविता अलग किस्म की होती जा रही है और मुद्रित कविता अलग। कहा हुआ शब्द क्षण में कान पर से निकल जाता है, इसलिए मंचीय कविता बहुत आसान और कर्णप्रिय होती है। कई बार तो सुरीली मूर्खता सबसे अधिक जमती है। अच्छी कविता की बड़ी दुर्गति हो रही है। रंगमंचीय सफलता काव्य-रचना की कसौटी बन गयी है। अच्छे स्वर से निरर्थक शब्दों को गानेवाले कवि समाज में जाने जाते हैं, पर अच्छा लिखनेवाले, लेकिन मंच पर न कहनेवाले श्रेष्ठ कवियों को भी लोग नहीं जानते !

प्रयोगवादी कवि मंच पर कम ही आते हैं। तो क्या इनमें बहुत श्रेष्ठ लिखनेवाले लोग भी समाज के लिए अज्ञात रह जायेंगे ?

एक और बात होती है-मंच पर पढ़नेवाले कवियों में बड़ी घृणित स्पर्धा, मार-काट, निंदा और निम्नस्तरीय उखाड़ पछाड़ मची रहती है। 'मैंने उसे उखाड़ दिया' - अक्सर सुनने को मिलता है।

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वसुधा, वर्ष 1 अंक 12 अप्रैल 1957

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