हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास : प्रकाश मनु

Hindi Baal Sahitya Ka Itihaas : Prakash Manu

हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते बहुत अधिक विस्तीर्ण और व्यापक हो चुके हिन्दी बाल साहित्य का यह पहला इतिहास है। एक बृहत् इतिहास, जिसे लिखने में मेरे जीवन के कोई बीस-बाईस वर्ष लगे। पर एक धुन थी, एक बहुत गहरी-गहरी-सी धुन—कृष्ण के अलौकिक वंशीनाद सी, जिसने इस काम में एक के बाद एक आती गई सैकड़ों बाधाओं के बावजूद, मुझे इस काम से विरत नहीं होने दिया। शायद इसलिए कि यह न सिर्फ़ मेरे जीवन का बड़ा सपना था, बल्कि हिन्दी बाल साहित्य के सैकड़ों लेखकों का भी सपना था कि हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखा जाए, जिसमें पिछले कोई सवा सौ वर्षों में लिखी गई बाल साहित्य की बहुविध रचनाओँ की सम्मानपूर्वक चर्चा हो और अलग-अलग कालखंडों की जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, प्रतिनिधि और पूरे बाल साहित्य की धारा को सार्थक मोड़ देने वाली कालजयी रचनाएँ हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाए। बल्कि उन्हें केंद्र में रखकर ही यह समूचा इतिहास लेखन हो।

इस इतिहास-ग्रंथ की भूमिका में मैंने अपने मन की उन भावदशाओं का वर्णन किया है, जिनसे इतिहास लिखने की प्रक्रिया में मुझे गुजरना पड़ा। पर इसके बावजूद इस कार्य के पूरा होने का अहसास इतना आनंदपूर्ण और सुखदायी था कि मैं अपने सारे कष्ट भूल गया। याद रहा तो बस, इतना ही कि बरसोंबरस की रात-दिन की मेहनत से आख़िर यह यज्ञ संपन्न हुआ। इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ की भूमिका की प्रारंभिक सतरें कुछ इस तरह हैं—

“इक्कीसवीं सदी हिन्दी बाल साहित्य के बहुमुखी विकास और चरम उत्कर्ष की सदी है, जब कि उसकी प्रायः हर विधा में लीक को तोड़ता हुआ नया निराला साहित्य लिखा जा रहा है और संभावनाओं के असंख्य नए द्वार खुल गए हैं। कोई सवा सौ बरसों से निरंतर अपनी जीवंत उपस्थिति का अहसास कराता हिन्दी बाल साहित्य का कारवाँ इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे शतक में अप्रत्याशित सक्रियता और धमक के साथ अपनी मौजूदगी साबित कर रहा है। यहाँ तक कि ज्ञान का भारी-भरकम टोकरा उठाए हिन्दी साहित्य के बहुत से विद्वान जो अभी तक बाल साहित्य की विकास-धारा, जीवंत हलचलों और गूँजों-अनुगूँजों को जान-बूझकर अनसुना करते रहे, अब अपनी ग़लती स्वीकार कर रहे हैं और बाल साहित्य की अजस्र सृजनात्मकता, सक्रिय ऊर्जा और जिजीविषा को समझने की कोशिश कर रहे हैं।...

“मेरे लिए यह ख़ुशी और राहत की बात है कि जिस बाल साहित्य के इतिहास लेखन के लिए मैं पिछले दो-ढाई दशकों से निरंतर खट रहा था, उसकी पूर्णाहुति ऐसे सुखद काल में हुई, जब बाल साहित्य की दमदार उपस्थिति पर कोई सवाल नहीं उठाता। बाल साहित्य की यह विकास-यात्रा बड़े-बड़े बीहड़ों से निकलकर आई और अब एक प्रसन्न उजास हमें चारों ओर दिखाई देता है। बेशक यह यात्रांत नहीं है। होना चाहिए भी नहीं। अभी तो एक से एक बड़ी चुनौतियाँ बाल साहित्य के आगे मुँह बाए खड़ी हैं। संभावनाओं के नए से नए पुष्पद्वार भी। पर इतना सच है कि बाल साहित्य ने अपना ‘होना’ साबित कर दिया है। अब पहले की तरह कोई भी ऐरा-गैरा मुँह उठाकर सवाल नहीं दाग देता कि क्या हिन्दी में भी बाल साहित्य है?...”

यह एक यज्ञ के पूर्ण होने की ख़ुशी थी। मेरा बहुत लंबा और बीहड़ वाङ्मय तप सफल हुआ था। पर यह कोई आसान काम न था। मेरे लिए तो यह जीवन भर की तपस्या ही थी, जिसमें मैं तन, मन, धन से जुटा था। कुछ इस क़दर तन्मयता से कि देह का भी होश न था। बस, सामने एक पहाड़ है, यह नज़र आता था। पिछले सौ-सवा सौ सालों में हिन्दी बाल साहित्य की प्राय सभी विधाओं में इतना काम हुआ है कि उस सब को एक ग्रंथ में समेटना किसी पहाड़ को उठा लेने से कम न था। कई बार लगता था कि काम इतना बड़ा है कि मेरे इस जीवन में तो पूरा न होगा और मैं इसके बोझ के नीचे दब जाऊँगा। पर सौभाग्य से मेरी पत्नी सुनीता जी ने किसी आत्मीय दोस्त की तरह हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाया। सुख-दुख में वे चट्टान की तरह मेरे साथ खड़ी रहीं। कुछ मित्रो ने भी समय-समय पर सामग्री जुटाने में मेरी मदद की और निरंतर प्रीतिकर चर्चाओं से मेरे आत्मविश्वास को सँभाले रखा।

आज याद करता हूँ तो आँखें फैलती हैं। कोई सौ से ज़्यादा प्रारूप इस इतिहास-ग्रंथ के बने। आज यह बात कहना-सुनना आसान है, पर उसे समझ पाना उतना ही मुश्किल। इसलिए कि कोई एक प्रारूप बनाने में ही छह-आठ महीने लग जाते। फिर प्रिंट लेने पर हमेशा कुछ न कुछ नया जुड़ जाता और यह इतिहास-ग्रंथ बहुत अधिक फैल न जाए, इसलिए बहुत कुछ नए सिरे से संपादित भी होता। कई बार तो पूरा का पूरा प्रारूप ही बदल जाता और नई दृष्टि से फिर से काम शुरू करना पड़ता। बाल साहित्य के सैकड़ों दुर्लभ ग्रंथों की खोज तो साथ ही साथ चल रही थी। वे मिलते तो फिर से एक नई और व्यापक दृष्टि से पूरी सामग्री को संपादित करना आवश्यक हो जाता। कई बार तो चीजों को बिल्कुल नए सिरे से लिखना पड़ता।

मेरे लिए तो यह एक तप ही था। जीवन भर का तप। इसे आप वाङ्मय तप कह सकते हैं। पर जब यह बृहत् इतिहास-ग्रंथ सामने आया तो पूरे बाल साहित्य जगत ने जिस तुमुल उत्साह से इसका स्वागत किया, उसने जैसे मेरी सारी थकान को धो डाला। मेरे लिए यह अकल्पनीय है। अद्भुत! अपूर्व...!!

मेरे जीवन के ये सर्वाधिक यादगार पल थे। बाल साहित्यकारों के इतने उत्साह भरे पत्र मुझे मिले कि लगा, यह तप अकारथ नहीं गया। अब जबकि इसका पहला संस्करण लगभग समाप्ति की ओर है, हिन्दी का शायद ही कोई महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार, या फिर बाल साहित्य का अध्येता हो, जिसके पास बाल साहित्य का यह गौरव ग्रंथ न हो। बाल साहित्य के शोधार्थियों के लिए तो यह सर्वाधिक प्रतिनिधि और प्रामाणिक आधार सामग्री के रूप में, एक बड़ा विश्वसनीय ज्ञान-स्रोत बन गया और उन साहित्यकारों या साहित्य के अध्येताओं से हुई उत्साहपूर्ण फोन-चर्चाओँ की बात करूँ तो शायद कई पन्ने भर जाएँगे।

अब मुझे इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ की रचना-प्रक्रिया की भी कुछ बात करनी चाहिए। इस लिहाज़ से सबसे पहले मैं यह स्वीकार करूँगा कि निश्चित रूप से मेरे इतिहास लेखन के पीछे ‘नंदन’ पत्रिका की बड़ी भूमिका और योगदान है। अगर मैं ‘नंदन’ पत्रिका से न जुड़ा होता, क्या तब भी मेरे मन में इतिहास लेखन का सपना उत्पन्न होता और वह होते-होते इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता कि मैं इस तरह बरसोंबरस तक जुटे रहकर इस इतिहास-ग्रंथ को आकार दे पाना। मेरे लिए कह पाना कठिन है। इस इतिहास-ग्रंथ के लिखे जाने के भगीरथ प्रयत्न में ‘नंदन’ पत्रिका का योगदान बेशक बड़ा है और इतना ही ‘नंदन’ के उत्साही संपादक भारती जी का भी, जिनके मन में बच्चों और बाल साहित्य के लिए अपरंपार प्रेम था। वे बार-बार मुझसे कहते थे, “चंद्रप्रकाश जी, हिन्दी बाल साहित्य में अच्छे संदर्भ ग्रंथ नहीं हैं और जिस साहित्य में अच्छे संदर्भ ग्रंथ न हों, उसका सम्मान नहीं होता!”

कई बार वे मुझे अपने पास बैठाकर कहते, “चंद्रप्रकाश जी, कविता, कहानी तो सब लोग लिख लेते हैं। पर कोई अच्छा और बड़ा संदर्भ ग्रंथ तैयार करने में बहुत समय और श्रम लगता है। इसलिए कोई इधर आना नहीं चाहता।”

उनकी बातें सुनकर मेरे भीतर एक सुगबुहाहट-सी पैदा हो जाती और मैं अपने पंख तोलने लगता। मन ही मन अपने आप से कहता, ‘जो काम कोई और नहीं कर सका, उसे तुम क्यों नहीं करते प्रकाश मनु? आगे बढ़ो और करो...!’ और मैं महसूस करता कि अपनी उत्तेजना को सँभालने में मुझे बहुत शक्ति लगानी पड़ रही है।

निस्संदेह बाल पत्रिका ‘नंदन’ से जुड़ने पर ही मुझे पता चला कि बाल साहित्य का विस्तार कितनी दूर-दूर तक है। साथ ही उसमें बचपन की ऐसी खूबसूरत बहुरंगी छवियाँ हैं कि उनका आनंद लेने के लिए आप फिर से बच्चा बन जाना चाहते हैं।... ‘नंदन’ में काम करते हुए जब भी मुझे फुर्सत मिलती, मैं पत्रिका की पुरानी फाइलें उठा लेता और पढ़ने लगता। मुझे यह बड़ा आनंददायक लगता था। इसलिए कि उन्हें पढ़ते हुए बरसों पहले ‘नंदन’ में छपे रचनाकारों से मेरी बड़ी जीवंत मुलाकात हो जाती और मैं अभिभूत हो उठता।...फिर ‘नंदन’ के शुरुआती अंक देखे तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। उनमें ऐसा अपूर्व खजाना था कि मैं झूम उठा। वहाँ अमृललाल नागर के ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी-नौरंगी’ ऐसे जबरदस्त उपन्यास थे कि पढ़ते हुए मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गया। जैसे मैं बाल पत्रिका का सहयोगी संपादक नहीं, एक छोटा, बहुत छोटा-सा बच्चा हूँ, जो नागर जी के उपन्यास के नायक बजरंगी पहलवान के साथ ही दुश्मन के किले में जा धमका हैं और दुश्मन की सेना को बुरी तरह तहस-नहस करने में जुट गया हूँ। अद्भुत थे वे भावोत्तेजना के पल! मैं कैसे कहूँ, शब्द साथ नहीं देते।

इसी तरह ‘नंदन’ के प्रारंभिक अंकों में छपी कमलेश्वर की ‘होताम के कारनामे’ एक विलक्षण कहानी थी। उसमें पुराने ज़माने के चमत्कारी होताम को नए ज़माने के माहौल में इस क़दर हैरान-परेशान और ठिठका हुआ-सा दिखाया गया था कि उस महाबली होताम की बेचारगी पर हँसी आती थी। मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘आओ करें चाँद की सैर’ भी ऐसा ही अद्भुत था। यहाँ तक कि राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी और मोहन राकेश की बड़ी दिलचस्प कहानियाँ पढ़ने को मिलीं। मोहन राकेश ने बच्चों के लिए कुल चार कहानियाँ लिखी हैं और वे चारों आपको ‘नंदन’ के पुराने अंकों में मिल जाएँगी। हरिशंकर परसाई, वृंदावनलाल वर्मा, रघुवीर सहाय, सबने बच्चों के लिए लिखा और जमकर लिखा। इनकी रचनाएँ मुझे ‘नंदन’ के पुराने अंकों में पढ़ने को मिलीं।

मैं अकसर सुना करता था कि हिन्दी में बड़े साहित्यकारों ने बच्चों के लिए नहीं लिखा, पर यह तो उलटा ही मामला था। यानी मैं देखता कि भला कौन बड़ा साहित्यकार है जिसने बच्चों के लिए नहीं लिखा!...यह एक विलक्षण चीज थी मेरे लिए। मुझे लगता, यह बात तो किसी को पता ही नहीं। तो किसी न किसी को तो यह सब लिखना चाहिए। इसी संकल्प के साथ मैंने बाल साहित्य पर विस्तृत लेख लिखने शुरू किए जिनमें इन सारी बातों का ज़िक्र होता। ये ऐसे लेख थे, जिनमें कई महीनों का लंबा श्रम होता, पर उनमें बहुत कुछ ऐसा होता जो बहुतों को ज्ञात न होता। यहाँ तक कि बहुत सारे जाने-माने बाल साहित्य अध्येता और दिग्गज साहित्यकार भी उनसे अवगत न होते। वे मुझसे इन नए और अभी तक अनुपलब्ध रहे तथ्यों के स्रोत के बारे में पूछते और विस्मय प्रकट करते।

धीरे-धीरे मुझे लगा कि हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए ज़मीन खुद-ब-खुद तैयार हो गई है और फिर मैं इस काम में जुट गया। तो इसमें शक नहीं कि मैं ‘नंदन’ में था, इस कारण हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिख पाया। नहीं तो शायद मेरे लिए इतना बड़ा काम कर पाना कतई संभव न हो पाता। बेशक हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखने में बहुत लंबा वक़्त लगा और यह मेरे ‘नंदन’ से मुक्त होने के कोई आठ बरसों बाद आया। हालाँकि इस इतिहास की ही एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में मेरा लिखा ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ तो सन् 2003 में ही मेधा बुक्स से बड़े सुंदर और आकर्षक कलेवर में छपकर आ गया था।

31 जनवरी 1986 को मैं हिंदुस्तान टाइम्स की प्रतिष्ठित बाल पत्रिका ‘नंदन’ के संपादकीय विभाग से जुड़ा और सन् 2010 में ‘नंदन’ पत्रिका के सहायक संपादक के कार्यभार से मुक्त हुआ। ये पच्चीस बरस मेरे जीवन के ऐसे आवेग भरे उत्फुल्ल सृजन-वर्ष हैं, जिनमें बड़ों के लिए बहुत कुछ लिखने के साथ ही बाल साहित्य के अगाध सिंधु में भी मैंने बहुत गहरी डुबकियाँ लगाईं। न सिर्फ़ बच्चों के लिए लीक से हटकर कविता, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, जीवनियाँ और किस्से-कहानियों वाले अंदाज़ में बहुत रोचक और रसपूर्ण ज्ञान-विज्ञान साहित्य लिखा, बल्कि साथ ही साथ बाल साहित्य पर आलोचनात्मक और इतिहासपरक नजरिए से भी बहुत कुछ लिखा गया। कहना न होगा कि समूचे बाल साहित्य जगत ने बड़े उत्साह से इनका स्वागत किया। जयप्रकाश भारती, हरिकृष्ण देवसरे, डा. श्रीप्रसाद, दामोदर अग्रवाल, डा. शेरजंग गर्ग और बालस्वरूप राही समेत बाल साहित्य के दिग्गज रचनाकारों ने अपनी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रियाओं से मेरा मनोबल बढ़ाया। यह सब मेरे लिए बहुत मूल्यवान था।

ये ऐसे उत्साही क्षण थे, जब पहलेपहल हिन्दी बाल कविता का इतिहास लिखने का विचार मन में आया। हिन्दी बाल कविता पर केंद्रित मेरे बहुत सारे विस्तीर्ण लेख थे, जिनसे बहुत मदद मिली। खासकर साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में हिन्दी बाल कविता पर केंद्रित मेरा लंबा लेख छपा, तो उस पर चिट्ठियों की लगभग बारिश ही हो गई। एक से एक शीर्षस्थ साहित्यकारों के सराहना भरे पत्र मुझे मिले। इनमें द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी और डा. श्रीप्रसाद के लिखे बधाई पत्र भी शामिल हैं। जाहिर है, इसने मुझे बहुत उत्साहित भी किया और मैं जी-जान से अपने काम में जुट गया।

सन् 2003 में मेरा लिखा ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ मेधा प्रकाशन से छपकर आया, जिसकी चतुर्दिक प्रशंसा हुई। लगभग हर पत्र-पत्रिका में इस पर समीक्षात्मक लेख छपे। रेडियो और दूरदर्शन के विशेष कार्यक्रम हुए। बाल साहित्यकारों ने बड़े मुक्त मन से इसका स्वागत किया। तभी मैंने मन ही मन पक्का संकल्प कर लिया था कि अब समूचे हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखना है। हालाँकि तब नहीं जानता था कि यह काम इतना बड़ा है कि सिर पर पूरा एक पहाड़ उठा लेने से कम नहीं है।

यों एक राहत की बात यह थी कि हिन्दी बाल साहित्य की अलग-अलग विधाओं पर मेरे लंबे शोधपूर्ण इतिहासपरक लेख बहुत छपे थे। तो यह आत्मविश्वास तो मन में था ही कि बहुत सारी आधार सामग्री मेरे पास पहले से ही मौजूद है। बस, उसे एक नई व्यवस्था देनी थी तथा उसकी लक्ष्य परिधियों को कुछ और विस्तार देते हुए, व्यापक बनाना था। अलबत्ता सन् 2003 में ही ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ ग्रंथ के आते ही मैंने समूचे हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास पर काम करना शुरू कर दिया।

हिंदी बाल कविता के इतिहास पर तो मैं विधिवत काम कर ही चुका था। लिहाज़ ा इसके बाद बाल कहानी, बाल उपन्यास, बाल नाटक, बाल ज्ञान-विज्ञान सहित्य, बाल जीवनियाँ और बाल पत्रिकाएँ—इन पर व्यापक रूप से काम शुरू हुआ। इसके बाद तो प्रकाशन विभाग की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘आजकल’ समेत अपने जानी-मानी पत्रिकाओं में मेरे दर्जनों लेख छपे। साथ ही इतिहास लेखन का कार्य भी निरंतर चलता रहा। सन् 2018 में प्रभात पकाशन से बड़े खूबसूरत कलेवर में हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास छपकर आया।

कहना न होगा कि यह हिन्दी बाल साहित्य का विधागत इतिहास है। यानी हर अध्याय अपने में एक विधा का समूचा इतिहास है। अगर किसी की बाल कहानी में रुचि है तो उसे हिन्दी बाल कहानी की पूरी विकास-यात्रा और बाल कहानी का मुकम्मल इतिहास उसी एक अध्याय में मिल जाएगा। यही बात बाल कविता, बाल नाटक, बाल उपन्यास आदि अध्यायों के बारे में कही जा सकती है। इतिहास-ग्रंथ के प्रारंभ में काल-विभाजन तथा उसके पीछे अंतर्हित साहित्यिक, सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों की बहुत विस्तार से चर्चा है, जिससे इस काल-विभाजन का आधार पुष्ट होता है। साथ ही, अपने इतिहास के लिए यह काल-विभाजन क्यों मुझे सुसंगत और मौजूँ लगा, इस पर भी मैंने प्रकाश डाला है।

अलबता बाल साहित्य के इतिहास पर बात करने से पहले थोड़ा बाल साहित्य की परिधियों और उसकी विकास-यात्रा पर डाल ली जाए। मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल ही बाल साहित्य के प्रारंभ का समय भी है। तब से कोई सौ-सवा सौ बरसों में बाल साहित्य की हर विधा में बहुत काम हुआ है। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, बाल जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य—सबमें बहुत साहित्य लिखा गया है और उनमें कुछ कृतियाँ तो इतनी उत्कृष्ट और असाधारण हैं कि चकित रह जाना पड़ता है।

बाल साहित्य के इतिहास की भूमिका में मैंने लिखा है कि बाल साहित्य जिसे एक छोटा पोखर समझा जाता है, वह तो एक ऐसा अगाध समंदर हैं, जिसमें सृजन की असंख्य उत्ताल तरंगें नज़र आती हैं। बीच-बीच में बहुत उज्ज्वल और चमकती हुई मणियाँ भी दिखाई दे जाती हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि हिन्दी साहित्य के बड़े से बड़े दिग्गजों ने बाल साहित्य लिखा और उस धारा को आगे बढ़ाया है। बहुत से पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिन्दी का पहला बाल उपन्यास प्रेमचंद ने लिखा था। ‘कुत्ते की कहानी’ उस बाल उपन्यास का नाम है और वह प्रेमचंद ने तब लिखा, जब वे ‘गोदान’ लिख चुके थे और अपने कीर्ति के शिखर पर थे। क्या पता, अगर वे और जीते रहते तो कितनी अनमोल रचनाएँ बच्चों की झोली में डालकर जाते।

प्रेमचंद के समय बाल साहित्य में मौलिक उपन्यास तो न थे, पर अनूदित उपन्यास बहुत थे। पर प्रेमचंद को उनसे संतोष न था। उन्हें लगा कि पराई भाषा के उपन्यासों से बच्चों का उतना जुड़ाव नहीं हो पाता और उन्हें सही परिवेश भी नहीं मिल पाता। इसलिए हिन्दी में बच्चों के लिए कोई ऐसा उपन्यास लिखना चाहिए, जो उन्हें बिल्कुल अपना-सा लगे और तब लिखा उन्होंने बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’, जिसका नायक एक कुत्ता कालू है। उपन्यास में उसके कमाल के कारनामों का वर्णन है, पर इसके साथ ही प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जाने कितनी विडंबनाएँ और सुख-दुख भी गूँथ दिए हैं। यहाँ तक कि गुलामी की पीड़ा भी। उपन्यास के अंत में कालू कुत्ते को हर तरह का आराम है। उसे डाइनिंग टेबल पर खाना खाने को मिलता है। तमाम नौकर-चाकर उसकी सेवा और टहल के लिए मौजूद हैं। पर तब भी वह ख़ुश नहीं है। वह कहता है, मुझे सारे सुख, सारी सुविधाएँ हासिल हैं, पर मेरे गले में गुलामी का पट्टा बँधा हुआ है और गुलामी से बड़ा दुख कोई और नहीं है।

ऐसे कितने ही मार्मिक प्रसंग और मार्मिक कथन हैं, जो प्रेमचंद का बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ पढ़ने के बाद मन में गड़े रह जाते हैं। यह है प्रेमचंद के उपन्यास-लेखन की कला, जो उनके लिखे इस बाल उपन्यास में भी देखी जा सकती है।

पर अकेले प्रेमचंद नहीं हैं, जिन्होंने बच्चों के लिखा लिखा। अमृतलाल नागर, रामवृक्ष बेनीपुरी, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभदाकुमारी चौहान, दिनकर, जहूरबख्श, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, बच्चन, भवानी भाई, प्रभाकर माचवे, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय—सबने बच्चों के लिए लिखा और ख़ूब लिखा। तो जैसे-जैसे मैं बाल साहित्य के इस अगाध समंदर में गहरे डूबता गया, बाल साहित्य की एक से एक सुंदर और चमकीली मणियों से मैं परचता गया और बहुत बार तो लगा कि ऐसी दमदार कृतियाँ तो बड़ों के साहित्य में भी नहीं हैं, जैसी बाल साहित्य में हैं।

तब मुझे लगा कि यह बात तो दर्ज होनी चाहिए, कहीं न कहीं लिखी जानी चाहिए। पर मैं देखता था कि ज्यादातर बाल साहित्यकार इस चीज को लेकर उदासीन थे, या कम से कम वैसी व्याकुलता उनमें नहीं महसूस होती थी, जैसी मैं महसूस करता था और भीतर-भीतर तड़पता था।

तो उसी दौर में कहीं अंदर से पुकार आई कि प्रकाश मनु, तुम यह काम करो। बेशक यह काम बहुत चुनौती भरा है, पर तुम इसे कर सकते हो, तुम्हें करना ही चाहिए और मैं इसमें जुट गया। मैं कितना कामयाब हो पाऊँगा या नहीं, इसे लेकर मन में संशय था। पर जैसे-जैसे काम में गहरे डूबता गया, यह संशय ख़त्म होता गया। मुझे लगा कि यह तो मेरे जीवन की एक बड़ी तपस्या है और सारे काम छोड़कर मुझे इसे पूरा करना चाहिए। तो सारे किंतु-परंतु भूलकर मैं इस काम में लीन हो गया।

ऐसा नहीं कि बाधाएँ कम आई हों। मेरे पास कुछ अधिक साधन भी न थे। फिर भी किताबें खरीदना तो ज़रूरी था। बिना इसके इतिहास कैसे लिखा जाता? इन बीस बरसों में कोई डेढ़-दो लाख रुपए मूल्य की पुस्तकें खरीदनी पड़ीं। जो सज्जन कंप्यूटर पर मेरे साथ बैठकर घंटों कंपोजिंग और निरंतर संशोधन भी करते थे, वे बहुत धैर्यवान और मेहनती थे। पर उन्हें उनके काम का मेहनताना तो देना ही था। कोई बीस बरस यह काम चला और दो-ढाई लाख रुपए तो कंपोजिंग आदि पर ख़र्च हुए ही। हर बार नई किताबें आतीं तो मैं उन्हें बीच-बीच में जोड़ता। इतिहास का विस्तार बहुत अधिक न हो, इसलिए बार-बार उसे तराशना पड़ता। लिखना और संपादन, काट-छाँट...फिर लिखना, फिर संपादन, यह सिलसिला बीस बरस तक चलता रहा।

इस पूरे महाग्रंथ के कोई सौ के लगभग प्रिंट लिए गए। हर बार काट-छाँटकर फिर नया प्रिंट।...सिलसिला कहीं रुकता ही न था। कभी-कभी तो लगता था कि मैं मर जाऊँगा और यह काम पूरा न होगा।...पर अंततः पिछले बरस यह काम पूरा हुआ और लगा कि सिर पर से कोई बड़ा भारी पहाड़ उतर गया हो। काम पूरा होने के बाद भी यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैंने सच ही इसे पूरा कर लिया है।

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरा लिखा ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ ग्रंथ समूचे हिन्दी बाल साहित्य का पहला इतिहास है। हाँ, इससे पहले सेवक जी ने हिन्दी बाल कविता का इतिहास लिखा था, ‘बालगीत साहित्य : इतिहास एवं समीक्षा’ शीर्षक से। इसके बाद सन् 2003 में मेधा बुक्स से ख़ुद मेरा इतिहास-ग्रंथ आया था, ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’। यों मेरे लिखे बाल साहित्य के इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ से पहले अभी तक कुल ये दो ही इतिहास छपे थे, पर ये दोनों केवल बाल कविता तक सीमित थे। हिन्दी बाल साहित्य का पहला इतिहास-ग्रंथ तो यही है, जो सन् 2018 में प्रभात प्रकाशन से बड़े खूबसूरत कलेवर में छपकर आया है। इसे लिखने में मैंने लगभग अपना पूरा जीवन खपा दिया।

यों इस इतिहास-ग्रंथ से पहले मेरी एक पुस्तक ‘हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ आ चुकी थी, जिसमें अलग-अलग विधाओं में बाल साहित्य की विकास-यात्रा को दरशाया गया था। काफ़ी लंबे-लंबे इतिहासपरक लेख इसमें हैं। यह पुस्तक सन् 2014 में आई थी। इसी तरह शकुंतला कालरा जी की एक संपादित पुस्तक ‘बाल साहित्य : विधा विवेचन’ भी आ चुकी थी, जिनमें बाल साहित्य की अलग-अलग विधाओं पर अलग-अलग साहित्यकारों ने लिखा। पर बाल साहित्य का कोई विधिवत और संपूर्ण इतिहास अब तक नहीं आया था। इसलिए मेरे ग्रंथ ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ ने एक बड़े अभाव की पूर्ति ही नहीं की, बल्कि एक तरह की पहलकदमी भी की। मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना तो यह था ही कि मैं हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखूँ। पर मेरे साथ-साथ यह बाल साहित्य के सैकड़ों लेखकों का भी सपना था कि ऐसा इतिहास-ग्रंथ सामने आए।

तो मैं समझता हूँ, इस इतिहास गंथ के जरिए, मैंने केवल अपना ही नहीं, सैकड़ों बाल साहित्यकारों का सपना भी पूरा किया है और यह काम हो सका, इसका श्रेय मैं अपने मित्रों, शुभचिंतकों और उन सैकड़ों बाल साहित्यकारों को देता हूँ जिनकी शुभकामनाएँ मेरे साथ थीं और उसी से मुझे इतनी हिम्मत, इतनी शक्ति मिली कि यह काम पूरा हो सका। सच पूछिए तो मुझे लगता है कि यह काम करने की प्रेरणा मुझे ईश्वर ने दी और उसी ने मुझसे यह काम पूरा भी करा लिया। मैं तो बस एक निमित्त ही था। इतनी सारी सद्प्रेरणाएँ मेरे साथ न होतीं तो मैं भला क्या कर सकता था? एक पुरानी कविता का सहारा लेकर कहूँ तो—‘कहा बापुरो चंद्र...!!’

यहीं एक प्रश्न मन में उठता है कि बाल साहित्य क्या है और इसका निमित्त या प्रयोजन क्या है? इसका सीधा-सी जवाब यह है कि जो साहित्य बच्चों के लिए लिखा जाता है, जो बच्चों को आनंदित करता है, साथ ही खेल-खेल में अनजाने ही कोई मीठी-सी सीख भी दे देता है और यों उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करता है, वह बाल साहित्य है। हालाँकि अगर वे रचनाएँ बाल पाठकों को आनंदित करने के साथ-साथ एक तरह की रचनात्मक संतुष्टि भी दे पाती हैं और उनके भीतर ख़ुद कुछ गढ़ने, कुछ रचने का विचार आता है तो मेरी निगाह में उनका महत्त्व कहीं अधिक बढ़ जाता है। इस तरह अच्छा और सार्थक बाल साहित्य बच्चों की शख्सियत को सँवारने और उसके सर्वांगीण विकास में अपनी अहम भूमिका निभाता है। दूसरे शब्दों में, उत्कृष्ट बाल साहित्य वह है जो बच्चों को आनंदित करने के साथ ही उसे संस्कारित भी करे और जीवन जीने का सही दृष्टिकोण भी दे।

इसमें संदेह नहीं कि बच्चों के लिए लिखी गई कविता, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक और दूसरी विधाओं में रचे गए साहित्य का एक बड़ा हिस्सा बच्चों को एक गहरी रचनामक संतुष्टि और आनंद देता है और अपने साथ बहा ले जाता है। वह जाने-अनजाने बाल पाठकों के व्यक्तित्व को निखारता और उन्हें जीवन जीने की सही दिशा और सकारात्मक ऊर्जा देता है। साथ ही उनके आगे विचार और कल्पना के नए-नए अज्ञात झरोखे खोलकर, उनके व्यक्तित्व का विकास करता है, उनके सामने नई संभावनाओं के द्वार खोलता है। यह काम ऊँचे दर्जे का साहित्य ही कर सकता है। मैं समझता हूँ कि बच्चों के लिए लिखी गई कविता कहानी, उपन्यास, नाटकों आदि की परख के लिए यह एक सही कसौटी है, जिसके आधार पर उनका मूल्याँकन किया जाना चाहिए और यही काम मैंने बाल साहित्य के इतिहास में किया है।

यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि निस्संदेह बच्चों के लिए लिखी गई सभी रचनाएँ समान महत्त्व और ऊँचाई की नहीं हैं। बहुत-सी साधारण रचनाएँ भी हैं। पर बाल साहित्य का इतिहास लिखते हुए मेरी निगाह बच्चों के लिए लिखी गई श्रेष्ठ और कलात्मक रूप से सुंदर रचनाओं पर ही रही है। मैं समझता हूँ कि उनके आधार पर ही बाल साहित्य का मूल्याँकन किया जाना चाहिए और यह तो बड़ों के साहित्य में भी है। वहाँ भी साधारण रचनाओं की काफ़ी भीड़ है, पर हम किसी भी विधा की उत्कृष्ट रचनाओं के आधार पर ही उसका मूल्याँकन करते हैं, तथा उसकी शक्ति और संभावनाओं की पड़ताल करते हैं।

मोटे तौर से इस इतिहास-ग्रंथ को पूरा करने में मुझे कोई बीस-बाईस बरस लगे। शुरू में पता नहीं था कि काम इतना बड़ा है कि मैं इसके नीचे बिल्कुल दब जाऊँगा।...धीरे-धीरे जब पुस्तकों की खोज में जुटा तो समझ में आया कि यह काम कितना कठिन है। हर कालखंड की सैकड़ों पुस्तकों को खोजना, गंभीरता से उन्हें पढ़ना, फिर उनके बारे में अपनी राय और विचारों को इस इतिहास-ग्रंथ में शामिल करना खेल नहीं था। बीच-बीच में साँस फूल जाती और लगता था कि यह काम कभी पूरा हो ही नहीं पाएगा। पर इसे ईश्वरीय अनुकंपा ही कहूँगा कि अंततः यह काम पूरा हुआ...और मुझे लगा कि सच ही मेरे जीवन का एक बड़ा सपना पूरा हो गया है।

याद पड़ता है, सन् 1997 में यह काम शुरू हुआ, जब मैंने बाल साहित्य पर पत्र-पत्रिकाओं में ख़ूब लंबे-लंबे लेख लिखने शुरू किए थे। वे लेख ऐसे थे, जिनके पीछे काफ़ी तैयारी थी और जो महीनों की मेहनत से तैयार किए गए थे। सन् 2003 में मेरा लिखा हुआ इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ आया। वह भी इसी योजना का एक हिस्सा था। कहना न होगा कि इस इतिहास को ख़ूब सराहा गया। दामोदर अग्रवाल और डा. श्रीप्रसाद सरीखे बाल साहित्यकारों ने बड़े उत्साहवर्धक पत्र लिखे। दामोदर अग्रवाल जी का कहना था कि यह ऐसा काम है, जिसे आगे आने वाले सौ सालों तक भुलाया नहीं जा सकता। दूरदर्शन ने एक विशेष कार्यक्रम इस पर केंद्रित किया, जिसमें मेरे अलावा डा. शेरजंग गर्ग और बालस्वरूप राही जी भी सम्मिलित थे। यह एक स्मरणीय विचार-गोष्ठी थी। डा. शेरजंग गर्ग और राही जी ने बड़े सुंदर अल्फाज में इस इतिहास के महत्त्व पर प्रकाश डाला।

कुल मिलाकर हिन्दी बाल कविता के इतिहास का बहुत उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ। इससे जाहिर है, मेरी हिम्मत भी बढ़ी। सन् 2003 में मैंने निश्चय कर लिया कि अब चाहे जितनी भी मुश्किलें आएँ, पर समूचे हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखना है। यह सिर पर पहाड़ उठा लेना है, तब यह न जानता था। पर एक थरथराहट भरे पवित्र संकल्प के साथ यह काम विधिवत मैंने शुरू कर दिया था।

तब से इसके कई प्रारूप बने और बदले गए। बीच-बीच में सैकड़ों नई-पुरानी पुस्तकें जुड़ती गईं। बच्चों के लिए लिखी गई जो भी अच्छी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक मुझे मिलती, मैं गंभीरता से उसे पढ़ता, फिर पुस्तक का संक्षिप्त ब्योरा और उस पर अपनी राय वगैरह दर्ज कर लेता। यों इस इतिहास-ग्रंथ का कलेवर भी समय के साथ-साथ बढ़ता गया। इसलिए बीच-बीच में लगातार संपादन भी ज़रूरी था। शुरू में इतिहास की जो परिकल्पना मन में थी, वह भी बाद में जाकर कुछ बदली और इसमें बहुत कुछ नया जुड़ता और घटता रहा और यह एक अनवरत सिलसिला था, जो करीब दो दशकों तक चला।

मेरे निकटस्थ साथियों और आत्मीय जनों में देवेंदकुमार, रमेश तैलंग और कृष्ण शलभ ऐसे करीबी मित्र थे, जिनसे लगातार इसे लेकर बात होती थी। इतिहास-ग्रंथ की पूरी परिकल्पना की उनसे दर्जनों बार चर्चा हुई। इसमें आ रही कठिनाइयों की भी। सबने अपने-अपने ढंग से मेरी मदद की। उन्होंने कुछ दुर्लभ पुस्तकें तो उपलब्ध कराईं ही, बीच-बीच में जब मेरी हिम्मत टूटने लगती थी, तो वे हौसला बँधाते। बाद के दिनों में श्याम सुशील भी जुड़े और उनका बहुत सहयोग मिला। उन्होंने यह पूरा इतिहास-ग्रंथ पढ़कर कई उपयोगी सुझाव दिए। संपादन में भी मदद की। सच पूछो तो ऐसे प्यारे और निराले दोस्त न मिले होते, तो यह काम शायद कभी पूरा ही न हो पाता और अगर पूरा होता भी, तो शायद इतने सुचारु ढंग से संपन्न न होता।

यहीं एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि मेरा मकसद केवल इतिहास लिखना ही न था। बल्कि मैं चाहता था कि इस इतिहास-ग्रंथ की जो परिकल्पना मेरे मन में है, यह ठीक उसी रूप में पूरा हो। इस बृहत् कार्य में किसी भी तरह का समझौता मैं नहीं करना चाहता था। ऐसा भी हुआ कि लाखों रुपए ख़र्च करके जो पुस्तकें मैं खरीदकर लाया, उनमें से किसी पर सिर्फ़ दो-चार लाइनें ही लिखी गईं, किसी पर मात्र दो-एक पैरे। पर मुझे संतुष्टि थी कि हर पुस्तक को मैंने ख़ुद पढ़ा और अपने ढंग से अपने विचारों को दर्ज किया। दूसरों के विचार मैं उधार नहीं लेना चाहता था और वह मैंने नहीं किया। पुस्तकें ख़ुद पढ़कर राय बनाई और फिर उसे उचित क्रम में तसल्ली से लिखा। इससे काम कई गुना बढ़ गया, पर इसी का तो आनंद था। इसीलिए जब यह इतिहास-ग्रंथ पूरा हुआ तो लगा, मेरी जीवन भर की तपस्या पूरी हो गई और मेरी आँखों से आनंद भरे आँसू बह निकले।

मैं कितना योग्य या प्रतिभावान हूँ, मैं नहीं जानता। इसके बारे में तो दूसरे लोग ही कहेंगे। पर अपने बारे में मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि बहुत खुले दिल और खुले विचारों का आदमी हूँ। मेरे जीवन में कुछ भी दबा-ढका नहीं है और जो भी है वह सबके सामने है। इसलिए इतिहास लेखन के दौरान जो भी लेखक या मित्र मिलते, मैं इनसे खुलकर इस काम की चर्चा करता। फिर उनकी जो प्रतिक्रिया होती, उस पर भी पूर्वाग्रह मुक्त होकर खुले दिल से विचार करता। जो भी सुझाव मुझे काम के लगते, उन्हें मैं अपनाने की कोशिश करता।

जाहिर है कि इससे मुझे बहुत लाभ हुआ और इतिहास कहीं अधिक मुकम्मल रूप में सामने आया।

इस इतिहास-ग्रंथ की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही चर्चा इसके काल-विभाजन को लेकर भी हुई, जिसमें मैंने एक बिल्कुल अलग पद्धति का इस्तेमाल किया। कई मित्रो और आलोचकों ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास के काल-विभाजन से उसकी तुलना की है, पर कहना न होगा कि मैंने शुक्ल जी की तरह प्रवृत्तिगत काल-विभाजन न करके, एक अलग ही पद्धति अपनाई, जिसका बहुत सीधा सम्बंध बाल साहित्य की उत्तरोत्तर आगे बढ़ती और निरंतर विस्तीर्ण होती विकास-धारा से है।

जाहिर है, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में जो काल-विभाजन किया है, उससे मेरा काल-विभाजन बहुत भिन्न है। इसलिए भी कि हिन्दी साहित्य की परंपरा कई सदियों पुरानी है, जबकि हिन्दी में बाल साहित्य की शुरुआत मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी से ही हुई। तो मुझे केवल सौ-सवा सौ साल की कालावधि में ही वर्गीकरण करना था। शुक्ल जी ने अलग-अलग कालखंडों में हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के अनुसार काल-विभाजन किया, जबकि मेरा काल-विभाजन हिन्दी बाल साहित्य की विकास-यात्रा या उसके ग्राफ को लेकर था। इसलिए बीसवीं सदी के प्रारंभ से आज़ादी हासिल होने तक के कालखंड, यानी स्वतंत्रता-पूर्व काल को मैंने हिन्दी बाल साहित्य का प्रारंभिक दौर या आदि काल माना।

आजादी के बाद हिन्दी बाल साहित्य की ओर बहुत से प्रतिभाषाली साहित्यिकों का ध्यान गया और इस कालखंड में बहुत उत्कृष्ट रचनाएँ सामने आईं। खासकर छठे दशक से आठवें दशक तक का बाल साहित्य बड़ी ही अपूर्व कलात्मक उठान वाला बाल साहित्य है, जिसमें बाल साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में एक से एक उम्दा रचनाएँ लिखी गईँ। इसलिए इस दौर को मैंने हिन्दी बाल साहित्य का गौरव काल कहा।

सन् 1981 से लेकर अब तक के बाल साहित्य में बहुत विस्तार है। बहुत से नए लेखकों का काफ़िला बाल साहित्य से जुड़ा और काफ़ी लिखा भी गया गया। पर इस दौर में वह ऊँचाई नहीं है, जो विकास युग में नज़र आती है। इस कालखंड को मैंने विकास युग का नाम दिया। इस तरह हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास में मेरा काल- विभाजन प्रवृत्तिगत न होकर, बाल साहित्य की विकास-यात्रा को लेकर है।

मोटे तौर से यह अध्ययन की सुविधा के लिए है। इस पर कोई बहुत अधिक मताग्रह मेरा नहीं है कि इन कालखंडों के नाम और कालावधि बस यही हो सकती है। पर मैं देखता हूँ कि सामान्यतः सभी बाल साहित्य अध्येताओं ने इसे खुले मन से स्वीकार कर लिया है और इसी आधार पर बाल साहित्य के अध्ययन की परंपरा चल निकली है। मुझे निश्चित रूप से यह सुखद लगता है। इसलिए कि काल-विभाजन पर निरर्थक विवाद के बजाय हमारा ध्यान तो बाल साहित्य की विकास की गतियों को जाँचने और आँकने में होना चाहिए।

यों इस काल-विभाजन का औचित्य परखना हो, तो हमें हिन्दी बाल साहित्य की समूची विकास-धारा पर एक नज़र डालनी होगी। ज़रा बाल साहित्य के प्रारंभिक काल को देखें। बहुत मोटे तौर से कहूँ तो, बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में अभिव्यक्ति सीधी-सादी थी, बाल साहित्य की चौहद्दी भी बहुत बड़ी नहीं थी। बहुत थोड़े से विषय थे जिन पर कविता, कहानियाँ, नाटक लिखे जाते थे। फिर वह दौर हमारी पराधीनता का काल था, इसलिए बच्चों में देशराग और देश के गौरव की भावना भरना भी ज़रूरी था, ताकि ये बच्चे बड़े होकर आज़ादी की ल़ड़ाई के वीर सिपाही बनें और देश के लिए बढ़-चढ़कर काम करें।

आजादी के बाद हिन्दी बाल साहित्य में बहुत कलात्मक उठान के साथ ही अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते खुले और बाल साहित्य का परिदृश्य भी बड़ा होता गया। सन् 1947 से 1980 तक के कालखंड को देखें तो आप पाएँगे कि इस दौर के हिन्दी बाल सहित्य में एक से एक सुंदर और कलात्मक कृतियों का भंडार है, जिसका किसी को पता ही नहीं है। अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी नैरंगी’ ऐसे ही थे, जिन्हें आप पढ़ लें तो बिल्कुल बच्चे ही बन जाएँ। प्रेमचंद की ‘कुत्ते की कहानी’ का मैंने ऊपर वर्णन किया है। वह एक अद्भुत उपन्यास है। भूपनारायण दीक्षित के ‘नानी के घर में टंटू’ और ‘बाल राज्य’ भी ऐसे ही अनूठे उपन्यास हैं, जिनमें बड़ा रस, बड़ा कौतुक है। इसी तरह बच्चों के लिए लिखी गई बड़ी ही अद्भुत कहानियाँ और नाटक मुझे मिले, जो मेरे लिए किसी अचरज से कम न थे और बाल कविता की बात करें तो दामोदर अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, शेरजंग गर्ग, डा. श्रीप्रसाद, निरंकारदेव सेवक, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, इनके यहाँ ऐसी कविताओं का अनमोल खजाना है जिसे हम दुनिया की किसी बड़ी से बड़ी भाषा के बाल साहित्य के समने बड़े गर्व से रख सकते हैं। सच कहूँ तो उनमें ऐसी बहुत-सी चीजें भी थीं, जिन्हें पढ़ते हुए लगा कि शायद बड़ों के साहित्य में भी रचनात्मक ऊँचाई वाली वाली ऐसी सुंदर और भावपूर्ण रचनाएँ न होंगी।

सन् 80 के बाद तो हमारे समाज में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ और उसकी सीधी अभिव्यक्ति बाल साहित्य में देखने को मिलती है। इस कालखंड में बाल साहित्य में कहीं अधिक खुलापन आया और बाल मन की अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते दिखाई पड़े। कहीं बच्चे कंधों पर लटके भारी बस्ते की शिकायत कर रहे हैं, कहीं वे खेलकूद की आज़ादी माँगते दिखाई देते हैं और कभी विनम्रता से बड़ों से कह रहे हैं कि वे उन्हें दोस्तों के सामने न डाँटें, क्योंकि इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, गूगल, ईमेल तथा रोबोट समेत आधुनिक प्रोद्यौगिकी की बहुत-सी चीजें भी इधर बाल साहित्य में आई हैं। आज़ादी से पहले इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी बाल साहित्य में साधारण चीजों का भी बड़ा जखीरा है। उसे देखते हुए बार-बार लगता था कि बाल साहित्य में जो उत्कृष्ट है, उसे अलगाकर दिखाने और मूल्याँकन की बहुत ज़रूरत है, क्योंकि असल में तो यही बाल साहित्य है। सच कहूँ तो मेरे इतिहास लेखन के पीछे जो तीव्रतम प्रेरणाएँ थीं, उनमें एक यह भी थी कि अपने इतिहास ग्रंथ में मैं हिन्दी बाल साहित्य की स्थायी महत्त्व की उन कालजयी रचनाओं को रेखांकित करूँ, जिन्होंने सच में बाल साहित्य को एक बड़ा मोड़ दिया है और साथ ही इतिहास गढ़ने का काम भी किया है।

पिछले दिनों बाल साहित्य के एक जिज्ञासु अध्येता ने मुझसे पूछा कि मनु जी, आचार्य शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास आने के बाद बहुत सारे इतिहास लिखे गए। तो आपको क्या लगता है, क्या आपके इस इतिहास-ग्रंथ के बाद बाल साहित्य में भी आपके इतिहास को ही थोड़ा फेर-फार कर बहुत सारे इतिहास लिखे जाएँगे?

सवाल रोचक था, पर मैं इसका क्या जवाब देता? यों इसमें संदेह नहीं कि आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्य के इतिहास बहुत लिखे गए। थोड़ा फेर-फार करके नया इतिहास लिख देने का खेल भी बहुत चला। पर इससे आचार्य शुक्ल के इतिहास-ग्रंथ का महत्त्व तो कम नहीं हो जाता। बल्कि समय के साथ-साथ उसका महत्त्व निरंतर बढ़ता ही गया है। हो सकता है कि मेरे इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ को पढ़कर और लोग भी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए उत्साहित हों। अगर ऐसा है, तो उनका स्वागत। चूँकि इस क्षेत्र में जमीनी काम मैंने बहुत कर दिया, इसलिए हो सकता है कि उनका बहुत श्रम बच जाए। जिस काम को करने में मेरे बीस बरस लगे, उसे वे थोड़े कम समय में भी कर सकते हैं। पर मेरा कहना है कि किसी इतिहास लेखक को गंभीर अध्येता भी होना चाहिए और उसे इतिहास लिखते समय निज और पर की बहुत-सी सीमाओं से ऊपर उठना चाहिए।

इसी सिलसिले में एक बात और मुझे कहनी है और वह यह कि किसी इतिहास लेखक के अपने विचार तो हो सकते हैं, होने चाहिए भी, पर उसे निजी सम्बंधों के घेरे से तो यकीनन ऊपर उठना होगा, क्योंकि अंततः तो महत्त्व कृति का है। इतिहास लेखक का मूल्याँकन जितना तटस्थ होगा, पूर्वाग्रहों से परे होगा, उतना ही उसके इतिहास को मान-सम्मान भी मिलेगा। मुझे ख़ुशी है कि मेरे इस इतिहास-ग्रंथ का बहुत उत्साह से स्वागत हुआ तथा लेखकों और पाठकों की बड़े व्यापक स्तर पर प्रतिकियाएँ मिलीं। अधिकतर लेखकों ने बहुत भावविभोर होकर इस महत् कार्य की प्रशंसा की। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ।

यों इस इतिहास-ग्रंथ को लिखने के लिए एक से एक दुर्लभ पुस्तकें कहाँ-कहाँ से जुटाई गईं, अगर मैं यह बताने बैठूँ तो यह ख़ुद में एक इतिहास हो जाएगा। अपनी बहुत साधारण आर्थिक स्थिति के बावजूद कोई डेढ़-दो लाख रुपए की पुस्तकें मैंने स्वयं खरीदीं। दिल्ली में जहाँ भी कहीं पुस्तक-पदर्शनी होती, मैं वहाँ जाता। जेब में डेढ़-दो हज़ार रुपए होते। उनसे जितनी अधिकतम पुस्तकें मैं खरीद सकता था, खरीद लेता। बस, वापसी के लिए बस या रेलगाड़ी के टिकट के पैसे बचा लेता, ताकि घर पहुँच सकूँ। फिर दोनों हाथों में भारी-भारी थैले पकड़े हुए, पसीने से लथपथ मैं घर आता। उन किताबों को अपनी अलमारी में सहेजकर रखता। फिर उन्हें पढ़ने का सिलसिला चलता और पढ़ने के बाद अलग-अलग विधा की पुस्तकों का वर्गीकरण करता। फिर इन पुस्तकों को इतिहास-ग्रंथ में उपयुक्त स्थान पर शामिल करने की मुहिम में जुट जाता। यह एक अंतहीन सिलसिला था। इसीलिए मैंने इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी तपस्या कहा।

मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे इतिहास-ग्रंथ के आने पर बाल साहित्य में खासी हलचल हुई। वैसे भी किसी साहित्य के इतिहास-ग्रंथ के आने पर जाने-अनजाने बहुत सारी हलचल होती ही है और यह स्वाभाविक है। इसके कुछ बहुत अच्छे नतीजे भी सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दी बाल साहित्य में दर्जनों ऐसे साहित्यकार होंगे, जिनके लिखे पर पहले लोगों का ध्यान नहीं गया था, पर इतिहास में विशेष चर्चा और फोकस होने पर बहुतों का ध्यान उनकी तरह गया। ऐसा बहुत से पुराने प्रतिभाषाली लेखकों के साथ हुआ और नए उभरते हुए लेखकों के साथ भी। पुराने लेखकों में भी बहुत से समर्थ रचनाकार किन्हीं कारणों से अलक्षित रह जाते हैं। उनकी रचना की शक्ति और विलक्षणता पर लोगों का ध्यान नहीं जाता। एक इतिहासकर का काम उन्हें खोजकर सामने लाना है और बेशक वह काम मैंने किया। ऐसा करके मैंने किसी पर उपकार नहीं किया, बल्कि इतिहासकार का एक स्वाभाविक कर्तव्य है यह।

आजादी से पहले के लेखकों में स्वर्ण सहोदर और विद्याभूषण विभु बड़े ही समर्थ बाल साहित्यकार हैं, जिनकी कविताओं में बड़ी ताज़गी है, जो आज भी हमें लुभाती है और भी ऐसे लेखक हैं, जिनकी तरफ़ पहले अधिक ध्यान नहीं गया था। पर पहले मेरे हिन्दी बाल कविता के इतिहास और अब इस इतिहास-ग्रंथ में भी उनके महत्त्व की इस ढंग से चर्चा हुई, जो आँखें खोल देने वाली है। इसी तरह बहुत से नए उभरते हुए, लेकिन समर्थ लेखकों की ओर भी मेरा ध्यान गया। प्रदीप शुक्ल, अरशद खान, फहीम अहमद, शादाब आलम ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनके महत्त्व को मैंने बाल साहित्य में एक नई संभावना के रूप में रेखांकित किया। उनकी रचनाओं की शक्ति, नएपन और ताज़गी की चर्चा की। मैं समझता हूँ, इससे उनका हौसला तो बढ़ा ही होगा, औरों को भी इसी तरह बढ़-चढ़कर कुछ कर दिखाने की चुनौती मिली होगी। या उनके आगे एक नया मार्ग खुला होगा।...

और अगर ऐसे और भी नए समर्थ लेखक आगे आए, तो मैं सबसे पहले उनका नोटिस लूँगा और इतिहास के अगले संस्करण में उन्हें शामिल करूँगा। इतिहास-लेखक के रूप में यह मेरा दायित्व है, इसलिए इससे मैं बच नहीं सकता। बल्कि सच पूछिए तो मुझे इसमें आनंद आता है।

इस ग्रंथ के आते ही पाठकों और बाल साहित्यकारों की प्रतिकियाओं की मानो बाढ़ आ गई। ज्यादातर साहित्यकारों ने मुक्त कंठ से इसकी सराहना की और इसे बाल साहित्य में ‘एक मील का पत्थर’ कहा। एक वरिष्ठ साहित्यकार ने तो आचार्य रामचंद शुक्ल के इतिहास से इसकी तुलना करते हुए कहा कि मनु जी, जिस तरह आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखकर एक बड़ा और ऐतिहासिक काम किया, उसी तरह हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखकर आपने भी ऐसा काम किया है, जिसका महत्त्व समय के साथ निरंतर बढ़ता जाएगा। आज से सौ साल बाद भी लोग इतनी ही उत्सुकता और जिज्ञासा भाव के साथ इसे पढ़ेंगे।

इसी तरह एक और बड़े साहित्यकार की टिप्पणी थी कि मनु जी, आपने बाल साहित्य के विशाल समंदर को मथकर उसकी सबसे उज्ज्वल मणियाँ और दुर्लभ खजाना खोज निकाला है और उसे इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया है।...ऐसी और भी ढेरों प्रतिक्रियाएँ थीं। पर सच तो यह है कि मैं ख़ुद को आचार्य शुक्ल के पैरों की धूल भी नहीं समझता। हाँ, इतना ज़रूर है कि आचार्य शुक्ल के इतिहास समेत हिन्दी साहित्य के अन्यान्य इतिहास-ग्रंथों को मैंने बड़ी गभीरता से पढ़ा है और उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। बाल साहित्य का इतिहास लिखते हुए वह मेरे बहुत काम आया।

इस ग्रंथ को लेकर निस्संदेह ऐसे सुझाव और प्रतिकियाएँ भी मिलीं, जिनसे आगे के काम की दिशाएँ भी खुलती जान पड़ीं। मेरी बहुत कोशिशों के बावजूद कुछ नए-पुराने लोगों की कृतियाँ मुझे उपलब्ध नहीं हो पाई थीं। इसलिए मैं जिस तरह उन पर लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। इस इतिहास के आने पर बहुत से लेखकों ने अपना प्रकाशित साहित्य मुझे भेजा, जो पहले बहुत प्रयत्न करने पर भी मुझे हासिल नहीं हो पाया था। मैं इन कृतियों को पढ़कर नोट्स ले रहा हूँ, ताकि आगे चलकर इन्हें भी इतिहास में शुमार किया जाए। मुझे खेद है कि ये चीजें मुझे पहले नहीं मिलीं। पर अब मिली हैं तो मेरी पूरी कोशिश होगी कि इनमें से अच्छी कृतियों को उचित महत्त्व देते हुए, मैं इस इतिहास-ग्रंथ में शामिल करूँ तथा उनकी विशेषताओं को रेखांकित करूँ।

यों मैंने बाल साहित्य के इतिहास के संशोधन का काम शुरू कर दिया है और इस इतिहास-ग्रंथ के दूसरे संस्करण में वे सब चीजें शामिल हों, जो छूट गई थीं—मेरी यह पूरी कोशिश होगी। इसके अलावा इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य पर भी मेरी एक बड़ी पुस्तक आ रही है। उसमें भी इनमें से बहुत-सी चीजों की चर्चा आपको मिलेगी।

इस इतिहास-ग्रंथ पर दर्जनों आलोचनात्मक लेख और समीक्षाएँ लिखी गईं, जिनमें अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों की लेखनीय टिप्पणियाँ भी शामिल हैं। इनमें से प्रायः सभी लेखकों ने इस बात को ज़रूर रेखांकित किया कि यह इतिहास-ग्रंथ आलोचना या विवेचन की बनी-बनाई जड़ीभूत दृष्टि से बहुत अलग है। यह एक तरह की सर्जात्मक भाषा में लिखा गया है, जिसमें इतना है कि कोई चाहे तो इस इतिहास को इतिहास के साथ-साथ एक रोचक उपन्यास या महागाथा के तौर पर भी पढ़ सकता है और उसे इसमें वाकई आनंद आएगा।

कुछ लेखकों ने लिखा कि इस इतिहास-ग्रंथ को पढ़ते हुए, किसी संवेदनशील पाठक को लगेगा वह एक ऐसी फुलवारी से गुजर रहा है, जिसमें तरह-तरह के रंग और गंधों वाले बेशुमार फूल खिले हैं और तरह-तरह की मोहक वीथियाँ हैं। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, ज्ञान-विज्ञान साहित्य—बाल साहित्य की ये अलग-अलग विधाएँ ही जैसे उस सुंदर उद्यान की अलग-अलग सरणियाँ हैं। इनमें घूमते हुए पाठक एक रचनात्मक आनंद से भीगता है और उसका मन प्रफुल्लित होता है। इसलिए कि हर विधा की शक्ति और खूबसूरती को मैंने जगह-जगह बड़े आत्मीय ढंग से उजागर किया है।

हालाँकि कुछ स्नेही मित्रो ने तनिक आक्षेप भी किया है। उन्होंने इतिहासकार के रूप में मेरी एक कमजोरी की ओर इंगित किया है। उनका कहना है कि अपने प्रिय लेखकों के बारे में मैंने अधिक विस्तार से लिखा है और उन्हें कुछ अतिरिक्त महत्त्व दिया है। कुछ आलोचकों का कहना था कि मैंने कतिमय लेखकों की बहुत भावविभोर होकर चर्चा की है। इससे इतिहासकार के रूप में मेरी तटस्थता भंग होती है।

मैं समझता हूँ कि यहाँ मुझे एक स्वीकारोक्ति करनी चाहिए और वह यह कि मैं कुछ फूलों की सुंदरता पर इतना मुग्ध हो जाता हूँ कि उनके रस-माधुर्य का वर्णन करते हुए भूल ही जाता हूँ कि इस चक्कर में कुछ दूसरे उपेक्षित भी हो रहे हैं। एक इतिहासकार के नाते मैंने भरसक तटस्थ रहने की कोशिश की, पर मैं अपने मन और विचारों का क्या करूँ? जिन रचनाकारों की रचनाओं से मैं अधिक मुग्ध होता हूँ, तो जाहिर है, इतिहास में उनका प्रमुखता से और बार-बार ज़िक्र होता चलता है। मैं चाहूँ या न चाहूँ, इससे बच ही नहीं सकता। शायद एक अच्छे इतिहासकार के नाते मुझे अपनी रुचियों से थोड़ा और ऊपर उठना चाहिए था। पर यह मामला क्या इतना आसान है?

फिर आचार्य शुक्ल जी का ही संदर्भ देता हूँ। मैं देखता हूँ कि अगर इस तरह की दुर्बलता की बात की जाए तो आचार्य शुक्ल भी इससे परे नहीं हैं। वहाँ भी तुलसी की बात हो तो शुक्ल जी का मन जैसे बह उठता है, पर वही जब कबीर की बात करते हैं, तो उनका लहजा हमें बदला-बदला-सा नज़र आता है और इन्हीं कबीर पर जब आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, तो कैसे उनके भीतर से भावनाओं का झरना फूट पड़ता है। वे जो गद्य लिखते हैं, वह किस कविता से कम है? जाहिर है, कबीर ने बाल कविताएँ नहीं लिखीं और वे मेरे इतिहास की परिधि में नहीं आते। पर अगर वे आते होते तो मैं उन पर उसी भावावेगमयी भाषा में लिखता, जो हजारी बाबू की है। कबीर के बारे में शुक्ल जी की नपी-तुली भाषा मुझे नाकाफी लगती है, बल्कि अन्यायपूर्ण भी।

असल में, हमें नहीं भूलना चाहिए कि इतिहासकार कोई कोरा इतिहासकार तो नहीं होता। इसके साथ-साथ वह एक मनुष्य, एक रचनाकार, आलोचक और साहित्य का पाठक भी तो है। वह अपने विचारों से तटस्थ कहाँ तक हो सकता है? हाँ, निजी सम्बंधों के घेरे से बेशक उसे ऊपर उठना चाहिए और यह शुक्ल जी के इतिहास में भी आपको नज़र आएगा और सौभाग्य से मेरे बाल साहित्य के इतिहास में भी। पर अपने विचारों से एक हद से ज़्यादा तटस्थता तो किसी इतिहासकार के इतिहास को एक मृत इतिहास ही बनाएगी। एक ऐसी निष्प्राण कृति, जिसमें भावनाओं की धड़कन ही न होगी और तब उसे कोई पढ़ेगा ही क्यों?

बाल साहित्य का इतिहास लिखते समय एक सवाल मेरे सामने यह भी था, जिसकी ओर मेरे कुछ स्नेही मित्रो और आलोचकों ने इंगित भी किया है कि उसकी परिधि या विस्तार कहाँ तक हो। कुछ का कहना था कि मैंने सूर और तुलसी के वात्सल्य और बाल वर्णन को अपने इतिहास-ग्रंथ में क्यों शामिल नहीं किया, या अमीर खुसरो की पहेलियों से बाल साहित्य की शुरुआत क्यों नहीं मानी। ऐसे ही कुछ साहित्यिक मित्रो का कहना था कि मैंने मौखिक बाल साहित्य की उतने विस्तार से चर्चा नहीं की, जितनी अपेक्षित थी।

यह मौखिक बाल साहित्य क्या है, इसे ज़रा स्पष्ट कर दूँ। असल में लोककथाओं की तरह बच्चों के खेलगीतों की परंपरा भी सदियों पुरानी है। ‘खेल कबड्डी आल-ताल, मेरी मूँछें लाल-लाल...’ सरीखे गीत हमारे यहाँ बरसोंबरस से गाए जाते रहे हैं। कितनी ही पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते हुए गुजरा। इसी तरह ‘बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई ख़ाके से...’, ‘सूख-सूख पट्टी, चंदन गट्टी... ’, ‘चंदा मामा दूर के, खोए पकाए दूर के... ’ ऐसे गीत हैं, जिनका आज से साठ-पैंसठ बरस पहले मैंने अपने बचपन में आनंद लिया था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे पिछले तीन-चार सौ बरसों से तो चल ही रहे हैं। पिछली जाने कितनी पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते-गुनगुनाते हुए, इनके साथ झूमते-गाते हुए बड़ा हुआ और आज के बच्चे भी इन्हें भूले नहीं हैं। हम नहीं जानते कि कब से यह परंपरा चली आती है, शायद पाँच-छह सौ बरस पहले से या शायद और भी पहले थे। कहना चाहिए कि यह मौखिक बालगीतों की परंपरा थी। मैंने बाल कविताओं की चर्चा करते हुए, बीचबीच में बालगीतों की इस मौखिक परंपरा की भी चर्चा की है और मैं समझता हूँ कि इतना पर्याप्त था।

बीसवीं सदी में आकर मौखिक बालगीतों की वही धारा कुछ अधिक संयत होकर, नए-नए बालगीतों में ढलकर एक नया साहित्यिक कलेवर ले लेती है और बच्चों के गले का हार बन जाती है। यों इससे पहले सूर, तुलसी के वात्सल्य वर्णन में, या फिर अमीर खुसरो की पहेलियों में बहुत कुछ ऐसा है, जो बालगीतों के बहुत नज़दीक है। पर इसकी कोई अनवरत परंपरा नहीं बन पाई। मेरा मानना है कि यह बाल साहित्य की पूर्व पीठिका है। बाल साहित्य की सुव्यवस्थित परंपरा तो बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही बन पाई। मैंने अपने इतिहास में प्रमुख रूप से उसी की चर्चा की है। इसीलिए बाल साहित्य की मौखिक परंपरा के बारे में अधिक विस्तार से मैंने नहीं लिखा, तथा मध्यकाल में सूर, तुलसी आदि की बाल छवियों और क्रीड़ा आदि के वर्णन को मैंने शामिल नहीं किया। यही बात अमीर खुसरो की पहेलियों आदि को लेकर कही जा सकती है।

हिंदी बाल साहित्य के इतिहास लेखन के कारणों और ज़रूरत की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पर एक और कारण भी था, जिससे बाल साहित्य के इतिहास का लिखा जाना मुझे बेहद ज़रूरी लगा। वह यह कि बाल साहित्य के प्रति हमारे आलोचकों का रवैया शुरू से ही दुराग्रहपूर्ण रहा है। क्षमा करें, यह असल में, हमारे समाज के कुंठित होने की निशानी है, जिसमें न बच्चे के लिए सम्मानपूर्ण स्थान है और न बाल साहित्य के लिए। हालाँकि दुनिया की हर संपन्न भाषा में बाल साहित्य और बाल साहित्य रचने वालों के लिए बहुत गहरे आदर और सम्मान की भावना है। फिर हमारे यहाँ बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों के प्रति यह दुर्भाव क्यों है, यह समझना मुश्किल है।...

मैं समझता हूँ, ज़रूर इसके पीछे हमारे आलोचकों की कोई कुंठा है। हालाँकि जैसी कि मैंने पहले भी चर्चा की है, प्रेमचंद सरीखे हिन्दी के दिग्गज कथाकार ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कहानियाँ लिखीं, बल्कि ‘कुत्ते की कहानी’ सरीखा उपन्यास भी, जिसे हिन्दी का पहला बाल उपन्यास होने का गौरव हासिल है। पर पता नहीं क्यों, ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं। इसी तरह बहुतों को यह पता ही नहीं है कि प्रेमचंद की ‘ईदगाह’, ‘गुल्ली-डंडा’, ‘बड़े भाईसाहब’, ‘दो बैलों की कथा’ सरीखी कहानियाँ असल में बड़ों के लिए लिखी गई थीं। यह अलग बात है कि बच्चे भी इनका आनंद लेते हैं।...पर बहुत सारे लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद ने विशेष रूप से बच्चों के लिए ‘गुब्बारे में चीता’ सरीखी कई सुंदर और भावपूर्ण कहानियाँ लिखी थीं, जो उनकी पुस्तक ‘जंगल की कहानियाँ’ में शामिल हैं। ये इतनी सुंदर और रसपूर्ण कहानियाँ हैं कि इन्हें पढ़ते हुए आपका भी बच्चा बन जाने का मन करेगा, ताकि आप इनका भरपूर आनंद ले सकें।

और अकेले प्रेमचंद ही क्यों, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी और आगे चलकर निराला, पंत, महादेवी वर्मा, भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना—सबने बच्चों के लिए लिखा और ख़ूब लिखा। यह परंपरा आगे भी चलती आई और आज के दौर के कई बड़े और प्रतिभाषाली लेखक भी बच्चों के लिए लिख रहे हैं। निराला की ‘भिक्षुक’ जैसी मर्मस्पर्शी कविताएँ तो बच्चे पढ़ते ही हैं। पर उन्होंने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखी हैं। इसी तरह निराला ने अपनी ‘सीख भरी कहानियाँ’ पुस्तक में ईसप की कथाओं को बच्चों के लिए बड़े ही खूबसूरत कलेवर में पेश किया है।

इस पुस्तक की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें निराला कहते हैं कि वही लेखक अमर हो पाता है, जिसकी रचनाएँ बच्चे रस लेकर पढ़ते हैं। यानी जो साहित्य बच्चों के दिल में उतर जाता है, वही अमर साहित्य है। बाल साहित्य के लिए ये सम्मानपूर्ण अल्फाज किसी और के नहीं, महाप्राण निराला के हैं, जो हमारे शीर्षस्थ साहित्यकार हैं और बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि। फिर भी अगर आलोचकों को बाल साहित्य का यह विशाल वैभव नहीं नज़र आता तो यह हमारी आलोचना का दुर्भाग्य है, हिन्दी के बाल साहित्य का नहीं।

मेरे लिए यह दुख और हैरानी की बात है कि हमारे आलोचक इतने पूर्वाग्रही हैं कि जब वे रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, महादेवी वर्मा, रघुवीर सहाय या सर्वेश्वर के रचनाकार व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं तो उनके बाल साहित्य को एकदम ओट कर देते हैं। पर वे नहीं जानते कि बाल साहित्य की चर्चा के बगैर इनमें से किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व और संवेदना को वे ठीक से समझ ही नहीं सकते। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हिन्दी की आलोचना अपनी पिछली भूल-गलतियों और सीमाओं से उबरेगी और बाल साहिय के महत्त्व को स्वीकारेगी।

हालाँकि आज बाल साहित्य इस बुलंदी पर पहुँच चुका है कि आलोचक स्वीकारें या नहीं, इससे हिन्दी बाल साहित्य की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। वह तो है और अपने मीठे रस से लाखों बालकों को आनंदित कर रहा है, उनके व्यक्तित्व को दिशा दे रहा है। यह अपने आप में बड़ी बात है। आज आलोचना भूल कर रही है तो यकीनन कल वह भूल-सुधार भी करेगी और तब उसे समझ में आएगा कि जिस बाल साहित्य को वह छोटा पोखर समझ रही थी, वह तो एक महासिंधु है। बस, आँखें खोलकर उसे देखने, समझने और सराहने की ज़रूरत है।

सच कहूँ तो वर्तमान दौर बाल साहित्य की सर्वांगीण उन्नति और बहुमुखी विकास का दौर है, जब कि उसकी पताका आसमान में ऊँची लहरा रही है। ‘नंदन’ के यशस्वी संपादक जयप्रकाश भारती जी बड़े जोर-शोर और उत्साह से इक्कीसवीं सदी को बालक और बाल साहित्य की सदी कहा करते थे। तब उनकी बात हमें ज़्यादा समझ में नहीं आती थी। पर यह एक सुखद आश्चर्य है कि समय ने इसे सच कर दिया है। निस्संदेह इक्कीसवीं सदी बाल साहित्य के असाधारण उत्कर्ष की सदी है। इसे आज बड़ों के साहित्यकार भी महसूस कर रहे हैं और वे ख़ुद बड़ी जिम्मेदारी के साथ बच्चों के लिए लिख रहे हैं। अगर कोई खुली आँखों से देखे तो उसे आज बाल साहित्य की विजय-गाथा हवाओं के मस्तक पर लिखी हुई नज़र आ सकती है। जो लोग आज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे, वे कल इसे स्वीकार करेंगे। इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।

इसी तरह बाल साहित्य की प्रतिनिधि पत्रिका ‘बालवाटिका’ में अकसर कहानी, कविता के साथ-साथ बड़े ही भावपूर्ण संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा, उपन्यास-अंश, एकांकी आदि भी पढ़ने को मिल जाते हैं। इससे इतना तो पता चलता ही है कि आज बाल साहित्य का चौतरफा विकास हो रहा है और उसके उपेक्षित पहलुओं पर भी हमारे बाल साहित्यकारों का ध्यान गया है। यों बाल साहित्य की कोई विधा आज एकदम उपेक्षित नहीं रह गई।

सबसे सुखद बात यह है कि ‘बालवाटिका’ के उत्साही संपादक भैरूँलाल गर्ग जी ने अपनी विनय और आग्रहशीलता से नई और पुरानी पीढ़ी के लगभग सभी साहित्यकारों को उससे जोड़ा है। वे बाल साहित्यकारों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आग्रह कर-करके मँगवाते और उतने ही आदर के साथ सँजोते भी हैं। ‘बालवाटिका’ संपादक भैरूँलाल गर्ग जी के मन में लेखकों और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान का भाव है, उसका सौवाँ अंश भी मुझे किसी और पत्रिका में नज़र नहीं आता। पर इसे मैं इन पत्रिकाओं की बड़ी कमजोरी मानता हूँ। अगर बाल साहित्यकारों के प्रति आपके मन में सम्मान नहीं है, तो बाल साहित्य के प्रति आपका अनुराग भी सच्चा नहीं हो सकता।

हिंदी बाल साहित्य के इतिहासकार के नाते एक सवाल मुझसे बार-बार पूछा जाता है कि बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य और बाल साहित्य की तुलना करें, तो क्या दोनों के विकास के ग्राफ में कोई बड़ा अंतर है। इसका जवाब यह है कि मोटे तौर से देखा जाए, तो बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य के समकालीन परिदृश्य में कोई बहुत अंतर नहीं है। दोनों ही रचनात्मक दृष्टि से खासे समृद्ध हैं और एक उत्साह भरा माहौल दोनों में ही नज़र आता है। जिस तरह बड़ों के लिए लिखी जा रही कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि में नई पीढ़ी बहुत प्रचुरता से हिस्सा ले रही है और एक ताज़गी भरी फिजाँ दिखाई देती है, लगभग वही मंज़र बाल साहित्य में भी है, जिसमें एक साथ तीन या चार पीढ़ियों के साहित्यकार निरंतर लिख रहे हैं और हर ओर खासी सक्रियता नज़र आती है।

शायद बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य का ही बाल साहित्य पर यह प्रभाव पड़ा कि अभी तक उपेक्षित रही विधाओं संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, रेखाचित्र, आत्मकथा आदि में भी अब खासी हलचल दिखाई देती है और यहाँ तक कि जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य में भी बहुत कुछ नयापन और कलातमक ताज़गी नज़र आती है। खासकर युवा पीढ़ी की सक्रियता दोनों ही जगह उत्साह भरा मंज़र उपस्थित करती दिखाई देती है। इससे कई जगह तो पुरानी पीढ़ी के अंदर भी थोड़ी सक्रियता और कुछ नया करने की ललक पैदा हुई है। इसे मैं शुभ संकेत मानता हूँ।

इसी तरह बड़ों का साहित्य हो या बाल साहित्य, दोनों ही जगह अगर एक ओर उत्कृष्ट साहित्य नज़र आता है तो दूसरी ओर बहुत-सी साधारण चीजों की बाढ़ भी है, जिनके बीच से श्रेष्ठ और उत्कृष्ट को निरंतर अलगाने की ज़रूरत है। पर बड़ों के साहित्य को समीक्षा, आलोचना आदि के जैसे सुअवसर मिल जाते हैं, वैसा बाल साहित्य में बहुत कम है और इसका कुछ खमियाजा भी उसे सहना पड़ता है। इसके कारण बाल साहित्य में जो श्रेष्ठ है, उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता और कई बार औसत साहित्य इतनी जगह घेर लेता है कि बहुत लोग पूछते हैं कि मनु जी, क्या यही है वह बाल साहित्य, जिसके आप इतने गुण गाते हैं? तब उन्हें समझाना पड़ता है कि देखिए, बाल साहित्य में बहुत-सी साधारण चीजें भी हैं। जैसे कोई भूसे से भरी कोठरी हो, जिसमें बीच-बीच में बहुत मीठे रसभरे दाने भी नज़र आ जाते हैं। पर किसी भी साहित्य का मूल्याँकन तो उसकी श्रेष्ठ रचनाओं से ही होना चाहिए। यह जितना बड़ों के साहित्य के बारे में सच है, उतना ही बाल साहित्य के बारे में भी।

तो कुल मिलाकर हिन्दी में बड़ों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य और बाल साहित्य—ये दोनों दो समांतर चलती निरंतर प्रवहमान नदियाँ हैं, जो एक-दूसरे को भी कुछ न कुछ प्रेरणा देती हैं। मैं समझता हूँ, यह किसी भी भाषा के लिए बड़े गौरव की चीज है।

इसी तरह एक प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठता है कि अपने जीवन के इतने बहुमूल्य वर्ष इतिहास-लेखन में खपा देने के बाद, आख़िर वे कौन-सी सबसे मूल्यवान और उत्फुल्लता भरी निधियाँ हैं, जो मेरी इस थकान को कम कर देती हैं। या जिनसे लगता है कि मेरा यह श्रम अकारथ नहीं गया। इसका जवाब यह है कि इतिहास लिखते समय जो सबसे अद्भुत चीजें मुझे मिलीं, वे थीं हमारे बड़े साहित्यकारों द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई एक से एक मनोरम रचनाएँ। हिन्दी बाल साहित्य का यह पक्ष बहुतों के लिए अज्ञात है। पर वह इतना सुंदर, मोहक, अनुपम और रोमांचित करने वाला है कि सच पूछिए तो मैं हैरान रह गया।

हिंदी में बार-बार यह कहा जाता है कि बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य नहीं लिखा, पर इतिहास लिखते समय निरंतर अध्ययन और खोजबीन से यह धारणा ग़लत साबित हुई। लगा कि हिन्दी के एक से एक दिग्गज कवियों, कथाकारों ने बच्चों के लिए लिखा है और बहुत अच्छा लिखा है। मैं प्रेमचंद का ज़िक्र तो पहले कर ही चुका हूँ, जिन्होंने बच्चों के लिए पहला उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ लिखा और इसे मैं बाल साहित्य का बहुत बड़ा गौरव और सौभाग्य मानता हूँ। इसी तरह प्रेमचंद ने ‘जंगल की कहानियाँ’ शीर्षक से बच्चों के लिए विशेष रूप से कुछ कहानियाँ लिखीं, जिनका आज भी बहुतों को पता नहीं है।

बाल साहित्य के प्रांरंभिक काल में हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभदाकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी सरीखे कवियों ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कविताएँ लिखीं। ये कविताएँ सचमुच निराले और अनमोल रत्नों सरीखी हैं। इसी तरह मैथिलीशरण गुप्त की लिखा एक बड़ी सुंदर बाल कहानी भी मुझे मिली, जो ‘बाल भारती’ पत्रिका में छपी थी। कहानी का नाम है, ‘जगद्देव’ और यह वाकई मन को बाँध लेने वाली कहानी है, जिसमें जगद्देव का त्यागमय, उदात्त चरित्र भूलता नहीं है। बाद के दौर में भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखे कवियों ने एक से एक अद्भुत कविताएँ लिखीं। पंत और महादेवी ने भी बच्चों के लिए रसपूर्ण कविताएँ लिखीं और निराला की ‘सीख भरी कहानियाँ’ तो बहुत ही दमदार हैं। निराला ने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखीं, जिनका बहुतों को पता नहीं है। इसी तरह कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, कृष्ण चंदर, कृष्ण बलदेव वैद, हरिशंकर परसाई सरीखे लेखकों ने बच्चों के लिए ख़ूब लिखा। बल्कि बहुत सारे पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि मैंने कृष्णा सोबती के भी कुछ सुंदर कल्पनापूर्ण शिशुगीत पढ़े हैं, जो ‘नंदन’ के पुरानी फाइलों में सुरक्षित हैं। मैंने उनका ज़िक्र इस इतिहास-ग्रंथ में किया है।

इसी तरह बाद के दौर में रमेशचंद्र शाह, राजेश जोशी, नवीन सागर समेत बहुत से लेखकों-कवियों ने बच्चों के लिए लिखा, जिनका कोई ज़िक्र नहीं करता और बहुतों को इसकी जानकारी भी नहीं है। पर इस इतिहास-ग्रंथ में उनके लिखे बाल साहित्य का मैंने बड़े सम्मान से जिक किया है। इसी तरह श्रीलाल शुक्ल ने रवींद्रनाथ ठाकुर की एक पद्यकथा के आधार पर इतना अद्भुत हास्य-विनोदपूर्ण बाल नाटक लिखा है कि उसे पढ़कर बच्चा बन जाने का मन करता है। यह नाटक है, ‘आविष्कार जूते का’। पढ़ते जाइए और खुदर-खुदर हँसते जाइए।

मैं समझता हूँ, इस इतिहास-ग्रंथ में ऐसे एक से एक अनमोल नगीने हैं, जिन्हें पढ़कर बहुतों की आँखें खुल जाएँगी और बाल साहित्य की सीमाएँ कहाँ-कहाँ तक जा पहुँची हैं, जानकर वे अचरज में पड़ जाएँगे।...मेरा मन है कि बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि के बड़े संचयन निकालूँ, जिसमें मौजूद दौर के रचनाकारों के साथ-साथ पुराने साहित्य महारथियों के ऐसे अनमोल नगीनों को भी शामिल करूँ। वह कब तक हो पाएगा, हो पाएगा भी कि नहीं, मैं नहीं जानता। इसलिए कि अब मेरी शक्तियाँ क्षीण हो रही हैं। पर अगर साँसों की डोर चलती रही, तो ऐसे कुछ बड़े और यादगार काम तो मैं ज़रूर करना चाहूँगा।

फिर इतिहास लिखते समय एक और महत्त्वपूर्ण बात जो मैंने रेखांकित की, वह हिन्दी बाल साहित्य की अनवरत विकास-धारा है, जो किसी अचरज की तरह निरंतर फैलती हुई आगे बढ़ती रही और निरंतर समृद्ध होती रही है। इसके साथ ही हिन्दी का बाल साहित्य हर दौर में बच्चों से और अपने समय से करीबी तौर से जुड़ा रहा है और उसमें लगातार आशा, जिजीविषा के स्वर सुनाई देते रहे हैं, जिनसे बच्चों में कुछ कर दिखाने का हौसला पैदा होता है।

फिर एक बड़ी बात है, बाल साहित्य की शाश्वत अपील की। आज से साठ बरस पहले की पीढ़ी जिस बाल साहित्य को पढ़कर बड़ी हुई, उसे उनके बच्चों ने और आगे चलकर नाती-पोतों ने भी पढ़ा और वही आनंद हासिल किया। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि बाल साहित्य हमारी भाषा और हमारे देश-समाज की स्थायी धरोहर है। वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे देश के बचपन को सँवार रहा है। बच्चों को बचपन की उत्फुल्लता से जोड़ने के साथ-साथ बाल साहित्य उनके अनुभव-क्षितिज का भी निरंतर विस्तार करता है और उनकी आत्मा को उजला करता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर निश्चित रूप से देश के बहुत सजग, ज़िम्मेदार और संवेदनशील नागरिक बनेंगे और बड़े-बड़े काम कर दिखाएँगे।

और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बाल साहित्य हमें अच्छा मनुष्य बनाता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर इंजीनियर बने तो वे अच्छे और कुशल इंजीनियर साबित होंगे, डॉक्टर बने तो अच्छे और सहानुभूतिपूर्ण डॉक्टर बनेंगे और अध्यापक बने तो बड़े स्नेहिल और ज़िम्मेदार अध्यापक बनेंगे। मैं समझता हूँ, बाल साहित्य की यह बहुत बड़ी सेवा है। यह इतिहास लिखते हुए मैंने पाया कि ऐसा सुंदर, कल्पनापूर्ण और सुंदर भावों से भरा बाल साहित्य हमारे देश में हर काल में लिखा गया और उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बचपन को सँवारा। इसका सीधा मतलब यह है कि इस देश को समृद्ध करने और सही दिशा में आगे बढ़ाने में बाल साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह निस्संदेह बड़ी सुखद और रोमांचित करने वाली बात है, जो हमारे भीतर आशा और उम्मीदों का उजाला भर देती है।

मेरे गुरु देवेंद्र सत्यार्थी जी, जो लोकगीतों के यशस्वी संग्रहकर्ता और यायावर थे तथा वर्षों तक गाँधी जी और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में रहे थे, एक बात अकसर कहा करते थे कि “याद रखो मनु, अगर तुम किसी कृति को रचते हो तो वह कृति भी तुम्हें ज़रूर रचती है।” अगर इस लिहाज़ से अपने लिखे बाल साहित्य के इतिहास पर बात करूँ, तो कहना होगा कि सिर्फ़ मैंने ही इस इतिहास को नहीं रचा, बल्कि इस इतिहास ने भी मुझे रचा है।

यही कारण है कि बाल साहित्य का इतिहास लिखने के बाद मेरे विचारों में एक बड़ा परिवर्तन आया है। बल्कि एक नहीं, कई परिवर्तन। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह है कि इतिहास लेखन के बाद बाल साहित्य की शक्ति, रचनात्मक समृद्धि तथा बच्चों के भीतर भाव और संवेदना के विस्तार की उसकी अपरिमित सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर आस्था कहीं अधिक गहरी हुई है। मुझे लगता है कि आज जब हमारे समाज में चारों ओर निराशा का पसारा है, तो ऐसे माहौल में बाल साहित्य एक बड़ी संभावना है, जो हमारे दिलों में उम्मीद के दीए जलता है। यहीं एक बात और जोड़नी ज़रूरी लगती है कि बाल साहित्य बच्चों के लिए तो ज़रूरी है ही, पर वह केवल बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी उतना ही ज़रूरी है। बड़े उसे पढ़ते हैं तो उन्हें अपना भोला बचपन याद आता है। बचपन की उस निश्छल दुनिया में पहुँचना उन्हें कहीं अंदर से निमज्जित करता है और पवित्र बनाता है।

फिर एक बात और। बड़े जब बाल साहित्य पढ़ेंगे, तो बच्चों के मन और संवेदना को अच्छी तरह समझ पाएँगे। इससे उन्हें यह भी समझ में आएगा कि हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे बच्चों के कोमल हृदय को चोट पहुँचे। वे बच्चों के मन की उमंग और सपनों को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे और उसे पूरा करने के लिए दोस्त बनकर मदद करेंगे। इससे बच्चों का व्यक्तित्व तो निखरेगा ही, बड़ों का व्यक्तित्व भी निखरेगा। वे अच्छे माता-पिता, अभिभावक और स्नेहशील अध्यापक बन सकेंगे।

अगर हिन्दी बाल साहित्य के इतिहासकार के रूप में आज के बाल साहित्य की दशा और दिशा पर मेरी राय पूछी जाए तो मैं बेहिचक कहूँगा कि यह बाल साहित्य का एक अपरिमित संभावनाओं भरा दौर है। आज हिन्दी में बच्चों के लिए अच्छी पत्रिकाएँ तो हैं ही, इसके अलावा उनके लिए बहुत पुस्तकें छपती हैं और वे बिकती भी हैं। यह एक संकेत तो है कि बाल साहित्य बच्चों तक पहुँच रहा है और पढ़ा जा रहा है। फिर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी तथा सूचना और प्रसारण मंत्रालय का प्रकाशन विभाग—ये सभी संस्थान बच्चों के लिए सुंदर ढंग से पुस्तकें छापकर उन्हें बच्चों तक पहुँचाने में बड़ी मदद कर रहे हैं। ख़ुद मेरे पास अकसर बच्चों के फ़ोन आते हैं कि अंकल, हमने आपकी यह कहानी पढ़ी और हमें अच्छी लगी।...वे दूर-दराज के बच्चे हैं, कोई बिहार, कोई छत्तीसगढ़ का—पर कोई अच्छी रचना पढ़कर लेखक से बात करने की इच्छा उनके भीतर ज़ोर मारती है। इसका मतलब यह है कि बाल साहित्य पढा जा रहा है और वह बच्चों के दिलों में भी अपनी जगह बना रहा है। मैं समझता हूँ, यह बड़ा शुभ संकेत है, जो मन को सुकून देता है।

यों बाल साहित्य का सबसे सबल पक्ष तो वह रस-आनंद है, जो बच्चों के लिए लिखी गई प्रायः सभी रचनाओं में मिलता है और पढ़ने वाले को अपने साथ बहा ले जाता है। इसी तरह बाल साहित्य आशा और उम्मीद का साहित्य है और यह बात भी प्रायः सभी लेखकों की कविताओं और कहानियों में नज़र आ जाती है। बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य में एक बड़ा फ़र्क़ ही यह है कि बाल साहित्य उम्मीद के दीए जलाकर हमारी आत्मा को उजला और प्रकाशित करता है। इसीलिए मैं बार-बार आग्रह करता हूँ कि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए नहीं है, उसे बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी पढ़ना चाहिए और अगर बड़े उसे पढ़ेंगे तो वे नाउम्मीदी के अँधेरे से निकलकर आशा और उम्मीद के उजाले की ओर बढ़ेगे। यह बहुत बड़ी शक्ति है बाल साहित्य की कि वह हमें आनंदित ही नहीं करता, हमारे जीवन और दृष्टिकोण को भी पूरी तरह बदल देता है।

इसी तरह बाल पुस्तकों के प्रकाशन की स्थिति कम से कम हिन्दी में तो बहुत उम्मीद भरी है। प्रकाशक बाल साहित्य की अच्छी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए उत्सुक और लालायित नज़र आते हैं। बल्कि बड़ों के साहित्य की तुलना में बाल साहित्य को छापने में उनकी रुचि कहीं अधिक है। जितने भी प्रकाशकों को मैं जानता हूँ या कहूँ, जिन-जिन प्रकाशकों ने मेरी पुस्तकें छापी हैं, उन सभी का कहना कि बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तकें बिकती हैं। किसी प्रकाशक ने यह नहीं कहा कि बाल साहित्य बिकता नहीं है। बड़ों के लिए लिखी गई पुस्तकों को लेकर तो कभी-कभी सुनना पड़ा कि पुस्तक अधिक बिकी नहीं, पर बच्चों की चीजों के लिए प्रायः सभी प्रकाशकों का कहना है कि बाल साहित्य ख़ूब बिकता है। मैं समझता हूँ, बाल साहित्य के लिए यह बड़ी सुखद स्थिति है।

यह एक सुपरिचित तथ्य है कि हिन्दी में बड़ों के लिए लिखी गई कविताएँ प्रकाशक अकसर नहीं छापना चाहते। उनका कहना है कि कविताओं के पाठक नहीं हैं यानी वे ज़्यादा पढ़ी नहीं जातीं और वे बिकती भी नहीं है। पर बाल साहित्य में स्थिति एकदम उलट है। बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं की किताबें ख़ूब पढ़ी और सराही जाती हैं और बहुत बिकती भी हैं। इस लिहाज़ से बाल साहित्य में प्रकाशन की स्थिति कहीं अधिक आशा और उम्मीद भरी है।

इसी तरह बाल साहित्य के वर्तमान दौर की एक बड़ी उम्मीद भरी स्थिति यह भी है कि आज का बाल साहित्य बच्चों के कहीं अधिक नज़दीक आया है। बल्कि कहना चाहिए कि बच्चे ही उसके केंद्र में हैं और यह बात बाल कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास सभी विधाओं में देखी जा सकती है। आप पाएँगे कि इन सभी में बच्चों की उपस्थिति बहुत अधिक बढ़ी है और आज की बाल कहानी हो, नाटक या उपन्यास, सभी में मुख्य या केंद्रीय पात्र बच्चे ही हैं। इतना ही नहीं, आज के बच्चों के सुख-दुख और समस्याएँ, उनका नटखटपन, शरारतें, यहाँ तक कि बड़ों की दुनिया से उनकी शिकायतें भी बड़ी प्रमुखता से आज के बाल साहित्य में मिल जाएँगी। इससे वर्तमान पीढ़ी के बच्चों का उससे सीधा रिश्ता जुड़ता है।

इस लिहाज़ से बाल कहानियों का रूप तो आश्चर्यजनक ढंग से बदला है और उन्हें सही मायनों में आधुनिक बाल कहानियाँ कहा जा सकता है। उनमें बच्चों की भीतरी दुनिया के भाव भी हैं, विचार भी और संवेदनाएँ भी। बाल कहानियों के नाम पर लोककथाएँ लिख देने का चलन अब काफ़ी कम हुआ है। जबकि बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में लोककथाओं पर बहुत ज़ोर था और बाल कहानियों के नाम पर अकसर विभिन्न तरह की लोककथाएँ ही पढ़ने को मिलती थीं। यहाँ तक कि ‘बालसखा’ सरीखी उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी लोककथाओं की ही प्रमुखता थी। पर आज स्थिति बिल्कुल बदल गई है। आज उन्हीं कहानियों को बाल साहित्य में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है, जिनके केंद्र में बच्चा और उसकी दुनिया है। उसके छोटे-छोटे सुख-दुख, उलझनें, परेशानियाँ, उसकी आशा और आकांक्षाएँ, उसके सपने और कुछ कर गुजरने की आकांक्षा। मोटे तौर से आज की ज्यादातर बाल कहानियाँ इन्हीं स्थितियों से उपजती हैं और इसलिए आज के बच्चों के बहुत करीब हैं।

बहुत-सी ऐसी बाल कहानियाँ भी लिखी गईं, जिनमें बड़ों की दुनिया से बच्चों की शिकायतें हैं और ऐसी चीजें ख़ूब खुलकर लिखी गई हैं। इन कहानियों में कहीं गुस्सा, कहीं खीज तो कहीं हँसी-विनोद सब कुछ हो सकता है। फिर ऐसी कथाएँ फंतासी के रूप में भी हो सकती हैं और यथार्थ कथन के रूप में भी। एक तीसरा रास्ता यह भी है कि कहानी में एक साथ फंतासी और यथार्थ दोनों हों और वे परस्पर एकरूप होकर सामने आएँ। कुल मिलाकर कहानी में बच्चे नायक के रूप में सामने आएँ, तभी आज के बच्चों की वे पसंदीद कहानियाँ बन सकती हैं।

इसमें संदेह नहीं कि अच्छी और सुरुचिपूर्ण लोककथाएँ भी बच्चे पसंद करते हैं, पर मेरे खयाल से उन्हीं लोककथाओं को बाल कथा साहित्य के अंतर्गत लिया जा सकता है, जिन्हें नई भाषिक ताज़गी और बड़ी कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया हो। असल में तो लोककथाएँ बच्चों के लिए तो गढ़ी नहीं गई थीं। वे ग्राम्य स्त्री-पुरुषों की अपनी चीजें थीं, जिनमें उनके सुख-दुख, मान-अपमान, हर्ष, शोक, उदासी और इस विषमतापूर्ण समाज में उपजी मन की अकथ पीड़ाएँ हैं। इसी के साथ-साथ पारिवारिक भावनाएँ, मन की रागात्मकता तथा स्वजनों के लिए हृदय का स्वाभाविक प्रेम, अनुराग, ख़ुशी, उत्साह—लोककथाओं में यह सब बहा चला आता है। इनमें से कुछ लोककथाएँ अगर ढंग से बच्चों के लिए लिखी जाएँ और उनमें एक तरह की क्रिएटिविटी या सर्जनात्मकता भी हो, तो वे बेशक बाल कहानी के अंतर्गत आ सकती हैं।

राजस्थान में बिज्जी ने लोककथाओं को बड़े खूबसूरत और रचनात्मक कलेवर में बाल पाठकों के लिए प्रस्तुत किया। ऐसे ही घुमंतू साहित्यकार देवेंद्र सत्यार्थी जी ने बड़े अनोखे और मोहक अंदाज़ में लोककथाओं को प्रस्तुत किया है। उनकी ‘अदारंग-सदारंग’ सरीखी कहानियों का तो जवाब ही नहीं। इसी तरह ढंग के कुछ प्रयास और भी हुए हैं और सच पूछिए तो कायदे से बस ऐसी ही लोककथाओं को बाल कथा साहित्य माना जा सकता है, जो परंपरावादी होते हुए भी कहीं न कहीं आधुनिक सोच और मूल्यों से जुड़ती हैं। उनमें किस्सागोई और रोचकता तो अपार होती ही है। इसलिए उनकी प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता। अपने इतिहास-ग्रंथ में भी मैंने इसी दृष्टिकोण से बच्चों के लिए लिखी गई अच्छी और सार्थक लोककथाओं की चर्चा की है।

आज जब कि इतिहास लेखन का कार्य संपन्न हो गया है, मैं कभी-कभी बाल साहित्य के इतिहास लेखन के शुरुआती पलों को याद करता हूँ, तो बड़ा रोमांच-सा होता है। एक बात बहुत साफ़ तौर से नज़र आती है कि जब इस दिशा में मैंने अपना पहला झिझकता क़दम उठाया, तब वाकई मुझे पता नहीं था कि यह काम इतना बड़ा है कि इसे करते हुए मैं ख़ुद इसके नीचे दब जाऊँगा...और बाक़ी सब कुछ छूट जाएगा। पर काम करता गया, आगे बढ़ता गया और महसूस होता गया कि यह काम कितना गुरुत्वपूर्ण है। मुझे बाल साहित्य के इतिहासकार के रूप में अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास था और बार-बार एक ही बात मन में उठती कि यह हिन्दी बाल साहित्य का पहला इतिहास है तो कोई कसर बाक़ी न रहे। लगता था, मैं अपनी आखिरी बूँद तक इसमें निचोड़ दूँ, ताकि यह सच में मुकम्मल हो, अद्वितीय भी। फिर भी थोड़े-थोड़े समय बाद मन में गहरा असंतोष उभरता। कारण यह था कि लगातार लेखकों की नई-नई रचनाएँ सामने आती थीं। उनमें जो उत्कृष्ट लगतीं, उन्हें मैं इतिहास का अंग बना लेता और फिर अध्ययन-मनन में डूब जाता। पर बहुत सारा काम करके पसीने से लथपथ हो रहा होता, तो भी अंदर से तृप्ति के बजाय अतप्ति ही अधिक उभरती। लगता था कि ‘अरे, यह तो छूट ही गया...वह तो छूट ही गया...!’

तब मैं फिर किताबों की तलाश में निकलता। हजारों रुपए मूल्य की किताबें खरीदकर लाता। गंभीरता से उन्हें पढ़ने के बाद उनमें जो कुछ अच्छा और उत्कृष्ट नज़र आता, उसे इतिहास में जोड़ता। पर इतने में ही भीतर फिर अतृप्ति धधक उठती कि अरे, यह तो अभी लिखा ही नहीं गया...अभी वह भी तो जोड़ना है...!! मैं इतना थककर चूर हो जाता कि लगता था, यह काम इस जन्म में तो पूरा होने से रहा। मैं चला जाऊँगा, पर यह काम तब भी अधूरा ही रहेगा। ऐसे हालत में मेरी पत्नी सुनीता और कुछ कृपालु मित्रो ने बड़ी हिम्मत बँधाई, मुझे टूटने नहीं दिया और आख़िर यह काम संपन्न हुआ। इसके पूरा होते ही पहली अनुभूति यह हुई कि जैसे सिर से एक बड़ा भारी पहाड़ उतर गया हो, जो हर वक़्त मेरी चेतना पर सवार था।

हालाँकि यह काम संपन्न हो जाने के बाद भी यक़ीन नहीं आता कि सचमुच मैंने इसे किया है। मैं तो कहूँगा कि कोई अज्ञात शक्ति थी, जिसने मुझसे इतना बडा काम करवा लिया, जो एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी एक टीम के लिए भी खासा टेढ़ा और दुश्वार काम था। यह इतिहास लिखते हुए हर क्षण मुझे महसूस होता, जैसे बाल साहित्य में अपना समूचा जीवन अर्पित करने वाले बहुत से बड़े और दिग्गज साहित्यकारों का आशीर्वाद मेरे सिर पर बरस रहा है और देश भर के हजारों बाल साहित्यकों की शुभकामनाएँ हर पल मेरे साथ हैं। वे न होतीं तो यह काम पूरा हो ही नहीं सकता था। इसलिए मैं मन ही मन उन सभी कृपालु मित्रो और दिग्गज साहित्यकारों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता से सिर झुकाता हूँ।

कुछ मित्र और वरिष्ठ साहित्यकार तो इस काम से इस क़दर उत्साहित थे कि लगातार दरयाफ्त करते रहते कि मनु जी, काम कहाँ तक पहुँचा? कब आ रहा है आपका इतिहास...? अफसोस, यह इतिहास सामने आ पाता, इससे पहले ही वे चल बसे। उनका प्यार और विश्वास याद करता हूँ तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं।

आज इस ख़ुशी की वेला में जब कि यह इतिहास सामने आ चुका है और पूरे देश भर में फैले हिन्दी के बाल साहित्यकारों की ओर से सराहा गया है, मैं अपने उन मित्रो और अग्रज साहित्यकारों को याद करना चाहता हूँ जो इसकी प्रतीक्षा करते-करते चले गए। इसी तरह ऐसे बहुत से प्यारे मित्र हैं, जिनका स्नेह-सम्बल इस काम में मेरे लिए पाथेय बन गया। मैं कृतज्ञता से भरकर उन सभी को धन्यवाद देता हूँ। सच पूछिए तो यह इतिहास-ग्रंथ केवल मेरी सृष्टि नहीं, हम सभी के साझे उद्यम का फल है और आज यह मेरे हाथों से निकलकर समूचे हिन्दी बाल साहित्य की अनमोल निधि बन चुका है।

बरसों पहले मेरे एक स्नेही मित्र श्याम सुशील ने मुझसे एक लंबा इंटरव्यू किया था, जिसमें इस इतिहास-ग्रंथ पर भी काफ़ी बातें हुई थीं। उन दिनों यह इतिहास लिखा जा रहा था और मैं आपादमस्तक इस काम में डूबा था। तब इस इतिहास की चर्चा करते हुए मैंने भावोत्तेजना में जो बातें कही थीं, वे आज भी मेरी स्मृति में तैर रही हैं। हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास पर अपने आत्मकथ्य का अंत मैं उन्हीं शब्दों से करना चाहूँगा, जो बरसों पहले मैंने भाई श्याम सुशील से कहे थे—

“...ऐसे एक नहीं पचासों कवि-लेखक हमारे यहाँ हैं, जिन्होंने बच्चों से जुड़कर, बच्चों के सपनों और इच्छा-संसार से जुड़कर इतना अच्छा लिखा है, इतना प्यारा लिखा है और इतनी ऊँची ज़मीन पर लिखा है कि कई बार मैं यह सोचकर अकुलाता हूँ कि ऐसे अपने कद्दावर शख्सियत वाले बाल साहित्यकारों के लिए हम क्या कर रहे हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही बाल साहित्य के लिए समर्पित कर दिया! अपने जीवन-काल में उन्होंने निर्धनता और अपमानों के धक्के खाए, उन्हें समझा नहीं गया और आज भी जब वे चले गए हैं, उन्हें समझने और मूल्याँकन की कोशिश कोई नहीं कर रहा। सिर्फ़ हवा में चिल्ल-पों और चीखों का शोर है और आश्चर्य है, इसी को वे विचार या विचार-गोष्ठियाँ कहते हैं। मेरे भाई, मुझे तो इससे बड़ी चिढ़ है और अगर मैं पिछले कुछ वर्षों में इस सबसे उपराम होकर बाल साहित्य का इतिहास लिखने में जुटा हूँ—और अपने ढंग से अथाह कष्ट पाते हुए भी सुख महसूस करता हूँ तो इसका कारण भी शायद यही है कि मैं यह महसूस करता हूँकि हिन्दी बाल साहित्य अब वहाँ आ गया है, जहाँ सचमुच कुछ ठोस काम करने की ज़रूरत है...

“इसे लिखते हुए मैं किन-किन दुस्सह अनुभवों से गुजरा और कैसी मर्मांतक चोटें खाई, इनकी चर्चा रहने दीजिए, फिर कभी...! हाँ, यह पूरा हो जाए और हिन्दी साहित्य का यह पहला इतिहास लिखा जा सके, तो मुझे ऐसा ज़रूर लगेगा कि आकाश में बैठे तमाम देवता मेरे ऊपर फूल बरसा रहे हैं! लेकिन भाई सुशील जी, ये आकाश के देवता वह देवता नहीं है जिन्हें दूसरे समझेंगे। मेरी दुनिया के ये आकाश के देवता तो हरिऔध, स्वर्ण सहोदर, विद्याभूषण विभु, रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान या सर्वेश्वर सरीखे वे बाल साहित्य के प्रदीप्त रचनाकार हैं जिनके जाने के बाद भी उनका प्रकाश क्षीण नहीं हुआ, वह क्षण-क्षण और निरंतर बढ़ता ही जाता है।”

आज जब मैं अपने इतिहास-ग्रंथ पर चंद सतरें लिखने बैठा हूँ, तो मेरी आँखें सचमुच भीगी हुई हैं और मैं बड़ी विनम्रता और आदर से हाथ जोड़कर अपना अपना यह महत् ग्रंथ इन्हीं साहित्यिक देवताओं के चरणों में अर्पित करता हूँ।

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