हिन्दी आधुनिकता का अर्थ : विशेषतः कविता के सन्दर्भ में (निबंध) : केदारनाथ सिंह

आधुनिकता को लेकर हिन्दी में लम्बी बहसें हुई हैं और बहुत कुछ लिखा-पढ़ा गया है। अब यह चर्चा थम सी गयी है। आधुनिकता, आधुनिकताबोध और आधुनिकतावाद-सम्बन्धी बहस आज हिन्दी - लेखक के लिए अतीत की वस्तु हो चुकी है। अगर कोई दिलचस्पी बची है तो वह सिर्फ अकादमिक हलकों तक ही सीमित है । परन्तु यह एक तथ्य है कि इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण दौर में आधुनिकता सम्बन्धी बहसों ने हिन्दी - मानस के एक हिस्से को थोड़ा झकझोरा था और इसलिए वह बार-बार पुनरावलोकन का आमंत्रण भी देगा ही खासतौर से इतिहासकारों और साहित्य के गंभीर अध्येताओं को । पर मुझे लगता है कि सिर्फ आधुनिकता सम्बन्धी बहस खत्म हुई है - आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसीलिए ठेठ भारतीय भी । यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए।

हिन्दी में आधुनिकता शब्द के विकास का एक लम्बा इतिहास है । यह याद रखना जरूरी है कि हिन्दी - मानस ने 'आधुनिकता' शब्द को ही स्वीकार किया, 'आधुनिकतावाद' को नहीं । पचास के दशक में आधुनिकता के साथ-साथ आधुनिकबोध का इस्तेमाल भी मिलता है । परन्तु जाने या अनजाने नई हिन्दी कविता की आलोचना के संदर्भ में 'आधुनिकतावाद' पद के प्रयोग से प्रायः बचने का प्रयास किया गया है। यह मुझे महत्त्वपूर्ण लगता है। व्यापक प्रयोग में किसी शब्द का ग्रहण या परित्याग कभी भी आकस्मिक नहीं होता। हिन्दी में आधुनिकता शब्द का पहला प्रयोग कब और किसने किया, इसकी ठीक-ठीक जानकारी हमें नहीं है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से पहले इस शब्द का प्रयोग लगभग नहीं मिलता। आधुनिक साहित्य के प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कविता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा, “पर उनकी कविता के विस्तृत संग्रह में आधुनिकता कम ही मिलेगी।" ऐसा लिखते समय 'आधुनिकता' शब्द से आचार्य शुक्ल की मंशा क्या थी, इसे उन्होंने स्पष्ट नहीं किया। परन्तु वह चीज, जिसे वे 'आधुनिकता' के नाम पर भारतेन्दु की कविता में देखना चाहते थे, वह वहाँ लगभग नहीं मिली और इस बात ने उन्हें थोड़ा परेशान किया। इससे यह बात खंडित होती है कि हिन्दी में आधुनिकता सम्बन्धी चर्चा स्वाधीनता के बाद के पहले दशक में शुरू हुई थी। आचार्य शुक्ल अंग्रेजी की आधुनिक कविता से परिचित थे और वहाँ 'आधुनिक' या 'आधुनिकता' का क्या अर्थ होता है, इसे बखूबी जानते थे। फिर भी वे हिन्दी काव्यालोचन में इसको ले जायें, तो यह जानने का आधार है कि वे इस शब्द को अंग्रेजी से अलग ठेठ हिन्दी या कहें भारतीय संदर्भ में एक नया अर्थ देना चाहते थे। मैं समझता हूँ, इसे हिन्दी में आधुनिकता सम्बन्धी चर्चा का प्रस्थान- बिन्दु माना जाना चाहिए चाहे उसका अर्थ जितना भी आरम्भिक और स्थूल रहा हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिन्दी में यह चर्चा नकारात्मक 'नोट' के साथ नहीं शुरू हुई थी।

वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दी कविता में (और कमोबेश पूरी भारतीय कविता में भी) आधुनिकता कोई आकस्मिक घटना नहीं है, बल्कि वह एक लम्बी विकास प्रक्रिया का परिणाम है। मुक्ति आन्दोलन के समानान्तर और कई बार उसके आगे-पीछे यह प्रक्रिया पुराने मूल्यों से टकराती हुई और उन्हें छिन्न-भिन्न करती हुई अपने ढंग से चुपचाप चलती रही है। हिन्दी कवि को यह लड़ाई दो मोर्चों पर लड़नी पड़ी - पहले भाषा के मोर्चे पर और लगभग उसी के साथ-साथ संवेदना और विचार के मोर्चे पर भी । भाषा को आधुनिक बनाने का काम अधिक लम्बा और अधिक जटिल था। लोक-व्यवहार में वह अपने ढंग से घटित हो रहा था। काव्य-भाषा को उस लोक-स्पन्दन तक पहुँचने में थोड़ा समय लगा। इसीलिए हम पाते हैं कि निराला - जैसे आश्रेष्ठ आधुनिक कवि की कविताओं में भी कई बार संवेदना और भाषा के बीच एक अजब किस्म का द्वन्द्व या तनाव दिखाई पड़ता है। हमारी आलोचना में भाषा और आधुनिकता के सम्बन्ध पर विचार कम हुआ है। पर मुझे लगता है कि भारतीय संदर्भ में इन दोनों के सम्बन्ध की छानबीन अलग से की जानी चाहिए। यह बार-बार कहा गया है कि हमारी भाषाओं में आधुनिकता पश्चिम के प्रभाव से आई । पर मुझे लगता है कि उस प्रभाव को हमारी भाषाओं ने एक स्वतःस्फूर्त आन्तरिक सेंसर के द्वारा काफी ठोक-बजाकर धीरे-धीरे स्वीकार किया और वहीं तक स्वीकार किया, जहाँ तक उनकी जातीय संरचना और मूल प्रकृति को कोई खतरा नहीं पहुँचता था । इस तरह देखें तो आधुनिक भारतीय भाषाएँ बाह्य प्रभावों के प्रति चुपचाप तरीके से एक 'शॉक एब्ज़ार्वर' का काम करती रही हैं। काव्यभाषा में इसका प्रतिफलन किस रूप में हुआ, यह एक अलग विचार का विषय है, जो गहरी पड़ताल और व्याख्या विश्लेषण की अपेक्षा रखता है।

स्वाधीनता के बाद आधुनिकता को लेकर जो बहसें हुईं - और काफी हुईं-उनमें स्पष्टतः दो खेमे बनते हुए दिखाई पड़े। एक वर्ग वह था, जो मानता था ( और ऐसा माननेवाले थोड़े-बहुत अब भी मिल जायेंगे) कि आधुनिकता एक तरह का संकट-बोध है - लगभग उसी तरह जैसे वह पश्चिम के साहित्य में दिखाई पड़ता है। इस वर्ग ने माना कि आधुनिकता औद्योगीकरण की अतिशयता और 'महानगरीय एकरसता' की उपज है। दिलचस्प यह है कि ये बातें उस समय कही गयीं, जब बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण की शुरुआत अभी हो ही रही थी और जिन्हें हम आज 'महानगर' कहते हैं, वे अपनी नगरीय सीमा को तोड़ने के लिए छटपटा भर रहे थे। फिर उस संकट-बोध का अर्थ क्या था और अपने आसन्न संदर्भ से उसकी संगति यदि बैठती थी तो किस तरह ? मुक्तिबोध पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस सवाल को पूरे बलाघात के साथ उठाया था - 1956 के अपने एक लेख में उन्होंने लिखा, "आज योरुप - अमरीका में एक विशेष प्रकार की समाज समीक्षा, सामाजिक "आलोचना, सभ्यता-समीक्षा प्रचलित है। कई ऐसे कवि हैं, जो भारतीय अनुभव को ध्यान में न रखकर, विदेशों में प्रचलित जो सभ्यता-समीक्षा है, उसको अपनाकर काव्य में अपनी भावनाएँ प्रकट करते हैं।" आगे चलकर उसी निबन्ध में उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी उठाया कि “नयी हिन्दी कविता में जो आधुनिक भाव-बोध है, वह पश्चिमी जगत के व्यक्तिवादी निराशावादी दर्शन से अनुप्राणित हो या भारत के अपने भविष्य स्वप्न से ?"

असल में हमारे भविष्य स्वप्न का जो परिकल्पित ढाँचा था, उसकी मूल प्रेरणाएँ भी लगभग वहीं थीं, जहाँ नयी कविता के एक अच्छे-खासे हिस्से की। हमारे जैसे ही नवस्वाधीन अन्य एशियाई देशों तथा अफ्रीकी या लैटिन अमरीकी देशों के सांस्कृतिक मोर्चों पर क्या हो रहा था, यह जानने के उपाय तो थे, पर उसके लिए अपेक्षित उत्सुकता हमारे भीतर नहीं थी। हमारे सांस्कृतिक जीवन पर जो औपनिवेशिक दबाव अब भी बना हुआ था, उसके चलते हमें इस एहसास तक पहुँचने में लम्बा समय लगा कि उन भू-भागों में जो घटित हो रहा है, उससे हमारी सोच और संवेदना के तार कहीं न कहीं मिलते हैं। साथ ही पश्चिम के परम्परागत सांस्कृतिक केन्द्र अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे हैं, यह जानने और मानने में भी हमें थोड़ा समय लगा। फलतः इस अन्तराल में हिन्दी के नये कवियों के द्वारा आधुनिकता के मान-मूल्य वहीं देखे और तलाशे जाते रहे, जहाँ खुद वे अप्रासंगिक होते जा रहे थे। लेकिन इस बीच भी हिन्दी आधुनिकता की जो मुख्य धारा थी, वह चुपचाप सक्रिय थी और अपनी गतिमयता के स्रोत कहीं और नहीं, अपने परिवेश की उन्हीं जानी-पहचानी परिस्थितियों के भीतर खोज रही थी, जिनके बीच वह सक्रिय थी। मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन और त्रिलोचन आदि इसी धारा के कवि थे और इनमें से पिछले तीन तो एक व्यापक संदर्भ में आज भी उस धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इन कवियों के निकट आधुनिकता वस्तुतः मुक्ति की आकांक्षा है, जो कविता में एक नये कलात्मक तेवर के साथ व्यक्त होती है।

पश्चिमोन्मुख आधुनिकता और ठेठ भारतीय आधुनिकता के बीच का वह द्वन्द्व कविता में एक सुखद रचनात्मक परिणति तक पहुँचकर अब धम-सा गया है। परन्तु अब भी कई अंतराल ऐसे हैं, जिनको भरे बिना कविता को उसके अभीष्ट लक्ष्यों तक पहुँचाना कठिन होगा। समकालीन कविता में यह अंतराल कई बार संवेदना और सोच के बीच की फाँक के रूप में प्रकट होता है, कई बार स्वयं शब्द और अर्थ के बीच की दरार के रूप में भी। स्वाधीनता के बाद हिन्दी का जो मानक रूप बना है और किसी हद तक आज भी बन रहा है, उसके विकास की दिशा बहुत कुछ अभिजनोन्मुख रही है। इसका प्रभाव थोड़ा-बहुत कविता की भाषा पर भी पड़ा है। उसने काफी हद तक एक आधुनिक मुहावरा अर्जित तो कर लिया है, पर ऐसा करते हुए वह अपने मूल भाषिक स्रोतों से कुछ विच्छिन्न भी होती गयी है। अतः बाद के कवियों के लिए भाषा के स्तर पर आधुनिकता की लड़ाई ज्यादा जटिल होती गयी है। इस स्थिति ने लिखित शब्द और पाठक के बीच के अन्तराल को भी थोड़ा बढ़ाया है। इसका एक नतीजा यह है कि समाज का वह हिस्सा जो अपनी भाषा के बीच पहले से ही गूँगा था, थोड़ा और गूँगा हुआ है।

बहैसियत एक रचनाकार के मेरे लिए आधुनिकता सबसे पहले मेरा अनुभव है। यह अनुभव बहुत-सी मानसिक प्रतिक्रियाओं, दृश्यों, घटनाओं, उम्मीदों और मोहभंगों का एक मिला-जुला घोल है, जोकि असल में मेरी दुनिया है। मेरी आधुनिकता का एक बड़ा हिस्सा बेशक वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के गर्भ से पैदा हुआ है, परन्तु मेरी विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति की विडम्बना यह है कि मेरी आधुनिकता के स्वरूप को निर्धारित करने में वे वास्तविकताएँ भी एक खास तरह की भूमिका निभाती हैं, जो आधुनिकता के सुपरिचित दायरे से लगभग बाहर हैं। मेरी आधुनिकता की एक चिन्ता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है ? मेरी बस्ती के आखिरी छोर पर रहनेवाला लालमोहर वह जीती-जागती सचाई है, जिसकी नीरन्ध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडम्बनापूर्ण लगने लगती है। मेरे भावबोध की यह एक ऐसी पेंच है, जिसे सुलझाने का कोई आसान रास्ता नहीं है मेरी रचना के पास ।

एक भारतीय नागरिक के रूप में मैं जानता हूँ कि मेरा समाज, सामन्तवाद के विरुद्ध एक लम्बे संघर्ष के बाद भी, अपने मूल्यों और अपने आचरण में सामन्ती अवशेषों से अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति-व्यवस्था, जो मेरे चारों ओर है। मैं चाहूँ या न चाहूँ, अपने समाज में अपने सारे मानववाद के बावजूद, मैं एक जाति विशेष का सदस्य माना जाता हूँ। यह मेरी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे मेरे रचनाकार की संवेदना बार-बार टकराती है और क्षत-विक्षत होती है। मेरी आधुनिकता में यह खरोंच भी शामिल है। अपने शब्दों को अपने समय की आँच पर पकाते और फिर उन्हें कागज पर उतारते हुए मैं चाहूँ भी तो इस तथ्य को भूल नहीं सकता कि मुझे अक्सर हिन्दू-मुस्लिम संघर्षों की शर्म और पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। मैं और मेरी भाषा, दोनों उस द्वन्द्व को दूर तक झेलते हैं, जो इस टकराव से पैदा होता है। समकालीन हिन्दी कविता में ऐसी पंक्तियों का अभाव नहीं है जो इस दंश को व्यक्त करती हैं। कवि शमशेर की नीचे लिखी पंक्तियों में मुझे उसी दंश की एक गहरी और तिलमिला देनेवाली अभिव्यक्ति मिली है-

ईश्वर, अगर मैंने अरबी में
प्रार्थना की तो तू मुझसे
नाराज़ हो जायेगा ?
अल्लाह, यदि मैंने संस्कृत में
संध्या कर ली तो तू
मुझे दोज़ख में डालेगा ?
लोग तो यही कहते घूम रहे हैं
तू बता ईश्वर
तू ही बता मेरे अल्लाह ?

यहाँ थोड़ा रुककर एक और बात पर विचार कर लेना मुझे जरूरी लगता है। सचाई यह है कि सारे साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद हिन्दी कविता में धार्मिक संवेदना का वैसा उभार नहीं दिखाई पड़ता, जैसा कि आधुनिकीकरण के प्रतिक्रियास्वरूप योरुप की आधुनिक कविता में घटित हुआ था। कुछ कवियों के यहाँ एक नव-रहस्यवाद जैसी चीज जरूर दिखाई पड़ती है, पर उसका धर्म से कुछ खास लेना-देना नहीं है। यह कहने की जरूरत नहीं कि हम जिस समाज में रहते हैं, धार्मिक आचार-विचार उसकी बनावट का एक मुख्य हिस्सा है। जिस हद तक हमारा संदर्भ हमारे भाव बोध में रचा-बसा है, उस हद तक उस पर धार्मिक स्थिति का दबाव भी जरूर होगा । उस दबाव का एक बेहद तीखा बयान नागार्जुन की 'पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने' जैसी कविता में मिलता है। इस कविता में कवि उगते हुए सूर्य को देखता है और सहसा उसके प्रति एक परम्परागत स्तुतिभाव उसके भीतर जगता है। उसके होंठों से सूर्य स्तुति के कुछ मंत्र फूट पड़ते हैं लेकिन कविता के अंत तक जाते-जाते वह अपने युवा मित्र से कहता है कि वह मंत्रपाठ वस्तुतः एक 'डिवियेशन' या 'भटकाव था। इस तरह पूरी कविता एक विलक्षण आलोचनात्मक विवेक के साथ एक गहरी मानवीय परिणति तक जाकर खत्म होती है। पश्चिम की आधुनिक कविता से हिन्दी की आज की कविता की मुख्य धारा, जिन अनेक स्तरों पर अलग होती है, उनमें से एक महत्त्वपूर्ण स्तर यह है-एक ऐसा स्तर, जिसकी गहरी छानबीन की अपेक्षा अब भी बनी हुई है।

मेरे समय की एक बड़ी चिन्ता है- पर्यावरण को प्रदूषण से बचाये रखने की चिन्ता । इस चिन्ता का एक विश्वव्यापी आयाम है। इस समस्या की कई पतें हैं और सबका सम्बन्ध केवल उस पर्यावरण से नहीं है, जिसे हम अपना बाह्य परिवेश या आबोहवा कहते हैं। मैं जानता हूँ कि इन शब्दों को लिखते समय मेरे कान और मेरी भाषा के कान भी, उधर लगे हैं, जिधर से खाड़ी युद्ध के धमाकों की आवाज आ रही है। मेरे बोध और मेरे पर्यावरण की रक्षा का उस धमाके से गहरा सम्बन्ध है। पर खतरा सिर्फ उधर से नहीं है। मेरा टेलीविज़न लगभग प्रलाप जैसी भाषा में जो लगातार बोलता रहता है, एक खास तरह का प्रदूषण मेरी भाषा की दुनिया में उसके जरिए भी फैलता है। परन्तु प्रदूषण चाहे बाहरी हो या भीतरी, उसकी जड़ें आधुनिक जीवन के ढाँचे में हैं, ऐसा सोचना समस्या को उलटकर देखना होगा | हिन्दी कविता में पर्यावरण की जो चेतना इधर उभरती हुई दिखाई पड़ती है, उसमें आधुनिकता और पर्यावरण में कोई तनाव या विरोध नहीं है और यह हमारी आधुनिकता का एक नया आयाम है।

मेरी आधुनिकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का सम्बन्ध किस तरह घटित होता है, इस प्रश्न की विकलता मेरे भाव-बोध का एक अनिवार्य हिस्सा है। ये दोनों मेरे भीतर हैं और दोनों में जो एक चुपचाप सहअस्तित्व है, उसका संतुलन हमेशा एक जैसा बना रहता हो, ऐसा नहीं है। इससे भारतीय कवि के भीतर एक नये ढंग का भाव-बोध विकसित होता है, जो पश्चिम से काफी भिन्न है। साइबेरिया में जन्मे प्रसिद्ध रूसी लेखक वसीली शूक्शिन ने गाँव और शहर के इस रिश्ते को काफी गहराई से महसूस किया था। वे लिखते हैं, "यह विचित्र बात है कि चालीस की उम्र में मैं न तो नियमित रूप से शहर में रहनेवाला बन पाया हूँ, न ही देहाती रह गया हूँ । इस बात से मैं बहुत असुविधा महसूस करता हूँ। लेकिन इस स्थिति के भी अपने कुछ फायदे हैं ।" शूक्शिन ने जिस 'असुविधा' की बात लिखी है, उसे अपने रचनात्मक जीवन के किसी न किसी मोड़ पर वे सारे कवि-लेखक महसूस करते हैं, जो रहते तो हैं किसी बड़े नगर में, मगर जिनकी जड़ें किसी सुदूर कस्बे या गाँव में हैं। शूक्शिन के अनुसार इस स्थिति के अपने कुछ फायदे भी हैं। असल में दोनों के बीच का रचनात्मक तनाव कवि के अनुभव को एक नयी ऊष्मा और धार देता है यह बात नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों की कृतियों में खास तौर से देखी जा सकती है। पश्चिम से प्रभावित आधुनिकता के लगभग सारे प्रचलित साँचों को अस्वीकार करते हुए भी ये कवि आधुनिक हैं और अपने ठेठ भारतीय अर्थ में आधुनिक हैं। इनकी आधुनिकता की जड़ें अपने समय और समाज के संघर्षों की उस लम्बी परम्परा में हैं, जो परिवर्तन की एक दीर्घ प्रक्रिया के अन्तर्गत धीरे-धीरे विकसित होती रही है। इसीलिए इनके शब्दों में एक देशज अर्थ की गूँज है जो चेतना में देर तक टिकी रहती है। इस धारा के कवियों में परम्परा की खोज की वह बौद्धिक बेचैनी नहीं दिखाई पड़ेगी, जो आधुनिकतावादी कवियों में दिखाई पड़ती है। असल में परम्परा इनकी संवेदना, सोच और भाषा में अन्तर्निहित है- क्योंकि जिन जनपदीय स्रोतों से उभरकर ये कवि आये हैं, वहाँ परम्परा कोई अलग से खोजी या पायी जानेवाली चीज नहीं होती । वह वहाँ रोजमर्रा के संघर्षों में बनती, छीजती और पुनर्निर्मित होती रहती है।

सचाई यह है कि मैंने और मेरे बहुत-से समकालीन रचनाकारों ने अपने अध्ययन और अनुभव से जिस आधुनिकताबोध को अर्जित किया है, उसमें अपनी जड़ों से आयी हुई स्मृतियाँ और अभिप्राय भी चुपचाप शामिल हो गये हैं। इससे अर्जित बोध को एक स्थानिक प्रामाणिकता मिलती है, जहाँ रचना अपना पाँव टिकाकर खड़ी होती है। आज की ज्यादातर कविताएँ अपने स्थान से होकर अपने समय में प्रवेश करती हैं और थोड़ा प्रयास किया जाये तो उनमें इसका एक आवर्तनशील साँचा भी तलाश किया जा सकता है। अपनी स्मृतियों को कुरेदता हूँ तो वहाँ इसका एक साँचा पहले से ही मौजूद है। मैंने अपनी बस्ती की जिस पाठशाला में शिक्षा ग्रहण की थी, वहाँ कोई घड़ी नहीं थी। उन दिनों घड़ी के होने का सवाल ही नहीं था। इसलिए दोपहर के खाने की छुट्टी तब होती थी, जब दुपहरिया के फूल खिल जाते थे। ये छोटे-छोटे, लाल-लाल फूल होते थे, जिन्हें इसी नाम से जाना जाता था। खाने की छुट्टी का समय और दुपहरिया के फूल के खिलने में जो रिश्ता था, वह हमारे लिए एक चमत्कार की तरह होता था मानो दुपहरिया के फूल दोपहर के समय का सृजन करते हों । मैंने समय को इसी तरह जानना सीखा था और जिस भाषा में सीखा था, वह अजब ढंग से प्रकृति और मनुष्य की मिली-जुली भाषा थी। मेरे आधुनिक संवेदनों में जो बहुत-से तत्त्व अपनी मूल जड़ों से छनकर आ गये हैं, उनमें समय का यह बोध भी है - एक ऐसा बोध, जिसमें स्थान और समय के बीच कोई फाँक नहीं होती। अपने समय को मेरी भाषा की आँख जिस तरह देखती है, उसका छोटा-सा उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूँगा-

क्या आप विश्वास करेंगे
कि आज की धूप में
अगली सदी के किसी शनिवार की गर्मी है।

कि इस समय
हमारे शहर के सारे पौधे
अपनी खुराक ले रहे हैं
आठवीं सदी की मिट्टी में दबी
किसी हरी खाद से ।
कि अभी-अभी मेरे नल से
जो टपक रहा था पानी
वह अड़तीसवीं सदी के
किसी कुएँ से आ रहा था ?

[1991]

('मेरे समय के शब्द' में से)

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