हिमालय-किरण (तेलुगु कहानी) : अडिवि बापिराजु

Himalaya-Kiran (Telugu Story) : Adivi Bapiraju

एक दिन सबेरे-ही-सबेरे आनंदस्वामी ने हरिद्वार के स्नान घाट पर उस युवती को देखा। देखते ही उनके हृदय में एक भीषण टीस की ज्वाला जाग्रत हई। उनका शरीर काँप गया।

मुखमंडल लाल हो गया। उनकी तपस्या अंतर्धान हुई। स्वामीजी की दृष्टि उनके नियंत्रण से हटकर स्नान करनेवाली उस सौंदर्य की राशिवाली नारी पर जा अटकी। उस युवती के भीगे हुए कपड़ों में से उसका सौंदर्य झलक रहा था। शिशुता और जीवन की दीप्ति, धूप-छाँव रेशमी वस्त्र की तरह चमक रही थी। स्वामीजी की दृष्टि शिशुत्व एवं मुग्धत्व के साथ झूलनेवाली उस युवती के मुखमंडल पर केंद्रित हुई और कभी-कभी उस युवती के कंठ, बाहु-मूल, उरोज तथा आँखमिचौनी खेलनेवाली के कटि-विलास पर दौड़ने लगी।
सहज भाव से प्रशांत हो, दिव्य ज्योति की भाँति प्रकाशित होनेवाले उस बाल-योगी का मुखमंडल विवर्ण हो गया।
इसी समय बाल-शंकर के स्वरूप का स्मरण दिलानेवाले उन आनंदस्वामी को, जो स्नान कर रहे थे, कश्मीरी सुंदरी ने देखा।
वह सुंदरी श्रीनगर की एक कश्मीरी ब्राह्मणबाला है। उसका शिरोमुंडन कराने के अभिप्राय से उस बाला के पिता उसे हरिद्वार ले आए हैं।
छह वर्ष की छोटी अवस्था में उस बाला का विवाह एक अभागे के साथ हुआ था, लेकिन वह उस दुधमुंही लड़की को निरीह छोड़ सदा के लिए इस संसार से चल बसा।

वह बाला संसार से सदा अनभिज्ञ ही रही। उसे इस बात का दु:ख नहीं, वह पतिविहीना है। जब कभी उसकी माता उसे अपने आलिंगन में लेकर कहती-'मेरी बेटी, तेरे भाग्य का सितारा डूब गया है, तेरे जीवन का आधार इतनी छोटी उम्र में ही टूट गया है' तो उसका भाव इसकी समझ में बिल्कुल न आता।
सोलह साल की अवस्था में वह युवती कमल जैसी विकसित हुई। उसके मुखमंडल पर वैधव्य नहीं दीखता था, बल्कि वह सौभाग्य-देवी मालूम होती थी।
वह अपरिचित सौंदर्य-राशि, शिल्पकला के सुंदर नमूने की मूर्ति, उस कश्मीरी ब्राह्मण के गृह को ज्योतिर्मय बना रही थी। 18 साल की उम्र में तो ऐसे दिखाई देती थी, मानो उसकी ओर देखने मात्र से उसे नजर लग जाएगी।
उस युवती की फूफी ने कहा, "हमारे घर में इस सौंदर्य के रहने से वह अष्टविध पापकृत्यों का आश्रय बन जाएगा। इस बाल-विधवा का सिर मुंडवा देना चाहिए।" उसकी माता कुढ़कर रह गई।

आनंदस्वामीजी? राजमहेंद्री में बी.ए. पास करके, कृष्णा जिले के कलेक्टरेट में 40 रुपया मासिक वेतन पर नियुक्त हुए। 25 वर्ष की उम्र तक रेवेन्यू इंस्पेक्टरी करते भीमवरम में निवास कर रहे थे। उस समय का उनका नाम रामचंद्रराव था। वे एक कुलीन घराने में पैदा हुए थे। उनका विवाह भी एक सुसंपन्न घर की युवती से हुआ था। उनका पारिवारिक जीवन शांतिपूर्वक बीतता जा रहा था। स्वर्णमूर्ति जैसी पत्नी और दो लड़के तथा दो लड़कियों का परिवार उनके घर को सुख का आगार बना रहा था।

एक दिन रात को न मालूम रामचंद्रराव के मन में कौन सी भावना जाग्रत हुई कि वह किसी से बिना कहे उस अमावस्या की अँधियारी में एकाएक भीमवरम से अंतर्धान हो गए। सबेरे रामचंद्रराव का एक पत्र देखने को मिला। उसे देखकर पत्नी को असीम दुःख होना स्वाभाविक था।
सिर पीटते हुए बच्चों का खयाल न कर वह भी कुएँ में गिर पड़ी। लोगों ने उसे बाहर निकाला। सबने रामचंद्रराव के लौटने की आशा की; लेकिन वह आशा व्यर्थ सिद्ध हुई। मित्रों ने रामचंद्रराव को मूर्ख, कायर कहकर संतोष किया।

इस समाचार से अवगत एक व्यक्ति ने, जो काशी की यात्रा को गया था, वहाँ पर रामचंद्रराव को देखा और उसके ससुर को इस आशय का एक तार दिया। "रामचंद्रराव यहाँ पर है। शायद संन्यास ले रखा है। उनकी पत्नी व बच्चों को लेकर जल्दी आ जाइए।" सब लोग वहाँ पहुँचे। देखा, रावजी संन्यासियों के साथ योगाभ्यास कर रहे हैं। उन्हें देखकर उनकी पत्नी मूर्च्छित हो गई। बच्चे आँखें फाड़-फाड़कर पिताजी को विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखते रह गए।

सबने घर लौटने की प्रार्थना की। लेकिन रामचंद्रराव शांकर भाष्य का एक उपदेश देने लगे कि "संसार से तर जाने के लिए वैराग्य ही एकमात्र साधन है।"
रामचंद्रराव के गुरु यतीश्वरानंदजी ने सबको समझाया-बुझाया। हिमालय के बुलाने पर कौन लौट सकता है? यही रामचंद्रराव वहाँ के आश्रम में अब आनंदस्वामी के नाम से पुकारे जाते हैं।
उस युवती को देखते हुए आनंदस्वामीजी का शरीर अपने नियंत्रण से मुक्त होता जा रहा था। उनका दिल रेल के इंजन की भाँति धड़कने लगा। उनका मन जैसा आज काबू से बाहर हो गया, वैसा कभी नहीं हुआ था।
सहमते हुए आनंद ने स्नान किया और हरिद्वार के समीप स्थित आश्रम में चले गए। यह कहाँ का घोर पाप है? सारा विश्व क्या रसातल में धंसता जा रहा है? हिमालय तो नहीं टूट रहे हैं? अपना सर जमीन पर पटकने लगे।
आज तक की तपस्या भग्न हो गई। गंगोत्तरी के समीप आनंदस्वामी ने तीन वर्ष तक परम तप किया था। उन्होंने प्राकृतिक सत्य को कभी मिथ्या नहीं माना था।

पिछले दिनों उनका मन चंचल रहता। 'शिवोऽहं' का ध्यान और दीक्षा से पूर्ण महायोग द्वारा मन स्थिर हो गया। कुंडली को जगाया। पदचक्रों को पार कर ऊपर उठा। प्राण-शक्ति विकल्प समाधि-आगे की सीढ़ियाँ हैं।
उस नीरव अंधकार में एकाकी बैठे हैं। देह शिथिल है, हृदय जम गया है, कुछ सप्ताह तक चेतना-रहित हो पड़े रहे। बाह्य ज्ञान नहीं रहा। अंतरज्ञान का तो कभी का अंत हो चुका था। हुआ क्या था?

एक दिन अचानक वह जाग्रत हुआ। गुरुभाइयों का 'शिवोऽहं', 'शिवोऽहं'...का जप सुनाई दिया। धीरेधीरे फलाहार प्रारंभ किया; दूध, रोटी लेने लगे।
गुरु यतीश्वरानंदजी ने आनंद को आदेश दिया-"प्रथम सीढ़ी तुमने पार की है, दूसरी के लिए तैयार हो जाओ।" उनकी आत्मा महाशक्ति में स्थित रही। उनके भाल पर तेज दमकने लगा। गुरुजी के समक्ष अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया, वेदांत की विविध वैराग्य भावनाओं को अवगत किया। सब ऐसा मालूम होता था, मानो उन सबसे वह पहले ही परिचित हैं।

कैलाश पर्वत पर निकट की गुफा में आनंदस्वामी ने दूसरी बार तपस्या करने हेतु पद्मासन लगाया। इस बार वह जल्दी ही विकल्प समाधि में पहुँचे। उनके शरीर में मानो हजारों विद्युल्लताएँ दौड गई। छह मास तक अखंड समाधि। अपार आनंद।'ॐ', 'ॐ', 'ॐ'... का प्रणव मंत्र।
आनंदजी ने अपने नेत्रद्वय खोले। उनका मुख संपूर्ण चंद्रमंडल ही था, उनकी देह से प्रकाश फूट रहा था। उनके ओठों से मंद हास छूट रहा था। उनके नेत्रों से दिव्य ज्ञान ज्योति निकल रही थी।

आनंदजी को अपने गुरुदेव से आज्ञा मिली थी-"हरिद्वार के समीप अपना आश्रम बनाओ। प्रतिदिन भगवान् के मंदिर के सामने स्थित घाट पर स्नान कर उनके दर्शन करो। तदनंतर आश्रम जाकर तप करो।" उस सुंदरी का झलकता हुआ मुखमंडल हर मिनट सामने दिखाई दे रहा था। आनंदजी सिर घुमाकर पद्मासन लगा ध्यान करने लगे। वह कश्मीरी बाला थाली में फल और फूल लेकर पास में आई और नमस्कार कर पार्श्व में बैठ गई। उस बाला के अंग आनंदजी के शरीर का स्पर्श करने लगे। युवती ने आनंदजी के भाल को चूमा। "ओह!" कहते आनंदजी तुरंत उठ बैठे। वहाँ पर कोई नहीं है। थाली नहीं, युवती भी नहीं है। अकेले वही हैं और चारों तरफ शून्य कुटीर।

तपोभंग हुआ, उनके अनेक जन्म व्यर्थ हुए। वे अब अपने गुरुदेव को अपना मुँह कैसे दिखा सकेंगे। अपना सर जमीन पर पीटने लगे; रोए, उन्होंने लाठी लेकर शरीर पर प्रहार किया। इससे शरीर फूलकर कष्ट देने लगा।
वह बाला अपनी ओर हाथ फैलाकर अत्यंत प्रेम के साथ आगे बढ़ती आ रही है।
आनंदजी जोरों से हरि का नाम स्मरण करते उन्मत्त हो, गंगा के किनारे दौड़ रहे हैं। गंगा की धारा प्रतिध्वनित होने लगी।

"मेरी प्यारी बेटी। तेरा भाग्य ही कहाँ रहा? अब तेरा शिरोमुंडन कराना ही होगा। क्या मैंने नहीं कराया? माना, तूने केश रखे भी, उन्हें देखकर संतोष करनेवाला कौन है?" यह कहते-कहते निरुपमा की फूफी उसे मजबूरन खींच रही है। उसकी माता मुँह पर घूँघट डाले फूट-फूटकर रो रही है। पिता पंडित दीनानाथ अपनी पुत्री का हाथ पकड़कर उसे नाई की ओर खींच रहे हैं।

नाई हँसते हुए उस्तरे को सान पर चढ़ाता हुआ अस्पष्ट स्वर में कह रहा है-"कितनी ही सुंदरियों की सुंदर वेणियों को निगलकर इस उस्तरे ने गंगा माई को अर्पण किया है।"
"अरे, मैं अपना सिर नहीं मुँडाऊँगी।" कहती हुई निरुपमा बाघ के सामने पड़ी हुई हरिणी की भाँति छटपटाती हुई पीछे हटती जा रही थी। उसे अपने पति की मृत्यु का दुःख नहीं है। उसे लोग घृणा की दृष्टि से क्यों देखते हैं, यह भी उसे मालूम न था। वह सदा अपने घर-श्रीनगर में खेला करती थी। पिता धनवान थे। बस, वही उनकी एकमात्र संतान थी। पंडित दीनानाथ कट्टर सनातनी हैं। अपने आँसुओं को रोकते, कोप का अभिनय करते अपनी पुत्री निरुपमा की दोनों भुजाओं को पकड़े जबर्दस्ती उसे नाई के पास बैठाना ही चाहते थे कि वह युवती “स्वामीजी! मेरी रक्षा कीजिए!" कहकर नीचे गिर पड़ी।

गंगा के तट पर उन्मत्त की तरह दौड़नेवाले आनंदस्वामी उस समय वहाँ पहुँचे। "कौन है?" नाई ने कहा, "प्रभु! इस बदनसीब बाल-विधवा की वेणी को गंगा माई को अर्पण करने जा रहे हैं।"

स्वामीजी ने पास में कश्मीर युवती को बेहोश पड़ी देखा। तुरंत उसे उठाकर उसके मस्तक को अपनी गोद में रखा और 'शिवोऽहं', 'शिवोऽहं' जपने लगे। युवती ने आँखें खोलीं। लज्जा से युवती उठ खड़ी हुई और घूँघट सँवारने लगी।

पंडित दीनानाथ स्तब्ध हो, देखते रह गए। स्वामीजी प्रलयकाल के रुद्र की तरह गर्जन करते हए शास्त्र और शास्वातीत विषयों का उपदेश देने लगे-"इस अबोध बाला को कुरूपा करने को तुम कैसे तैयार हो गए हो? किसी को क्या जबर्दस्ती वैराग्य दिलाया जा सकता है? जो वैराग्य मन में नहीं है, वह क्या सिर के केश मुंडा देने से पैदा हो सकता है?"

पंडित दीनानाथ का मन वास्तव में अपनी पुत्री का मुंडन कराने को नहीं मानता था, लेकिन समाज के डर से ही वे तैयार हो गए थे। इसीलिए वे स्वामीजी से क्षमा माँगने लगे-"स्वामीजी, क्षमा कर दीजिए। जब तक मेरी पुत्री स्वयं योगिन का वेष धारण करने की इच्छा प्रकट नहीं करेगी, तब तक मैं उसके केशों को नहीं निकलवाऊँगा। लेकिन आप जैसे ऋषियों के उपदेशामृत पाकर हमारा परिवार धन्य हो जाएगा।"

आनंदजी का हृदय तूफान के समय के महासमुद्र-सा हो गया। क्या विश्वामित्र का तपोभंग नहीं हुआ था? वह तात्कालिक राव था। उसका अंत उस सुंदर कांता-परिष्वंग से ही हुआ था। वह क्या महापाप नहीं है? तो क्या अपने कर्तव्य की च्युति हुई? पल भर के लिए उस युवती का सुंदर बदन उनके हृदय-पटल पर से विलग नहीं होगा। दिव्य सुंदरी ने जब उनका स्पर्श किया तो उनकी देह में जो पुलक प्रकट हुई, जो आनंद हुआ, वह क्या समाधि से प्राप्त आनंद से उत्कृष्ट आनंद है अथवा तत्समान?
अपने पाप का कोई निराकरण नहीं है? अपने इस अध:पतन का अंत कहाँ होगा?

आनंदजी ने कितने ही देशों का इस अवस्था में भ्रमण किया था। जहाँ कहीं गए-सबने सम्मान के साथ उनका बड़ा आतिथ्य-सत्कार किया। स्वामीजी के मुँह पर जो मोह की हिलोरें उठ रही थीं, उन्हें विधवा स्त्रियों ने दिव्य पारलौकिक कांति समझा।

इस बीच उन्होंने कितने ही तीर्थ व पुण्य-स्थानों का भ्रमण किया, कहाँ–कहाँ गए, उन्हें स्वयं नहीं मालूम। यह परिव्राजकता थी अथवा उस भामिनी में आसक्तिपूर्ण परवशता थी, बताया नहीं जा सकता। घूमघूमकर नेत्र खोलकर देखा तो वह कश्मीर देश ही है। श्रीनगर के एक भवन के सामने उन्होंने अपने को खड़ा पाया।

स्वामीजी को घर के अंदर ले जाया गया। उनका आतिथ्य एवं उनकी सेवा की गई। अब आनंदजी कश्मीरी पंडित दीनानाथ के गृहगुरु हैं। स्वामीजी के हृदय की जड़ को हिलानेवाली वह बाला उनकी परिचर्या कर रही है।

जिस दिन संन्यासी आनंदस्वामीजी ने उस युवती की रक्षा की थी, तब से वह उस बाला के साक्षात ईश्वरावतार बन गए। हिमालय के धवल शृंगों पर नृत्य करनेवाले नटेश्वर ही मानो उस बाला के लिए वे बाल-संन्यासी बने। सदा स्वामीजी की सेवा करने से उस बाला का जन्म धन्य हो गया। जब उनकी गोद में वह पड़ी थी, उस समय उसका शरीर आनंद से परवश हो गया था, उनके मुखमंडल पर मंद हास ऐसा प्रतीत होता था, मानो हिम शिखर पर ज्योत्स्ना छिटकी हुई हो। क्या मनुष्य रूप धरे वह भगवान् तो नहीं हैं! प्रति दिन उनकी सेवा करने से ही तृप्ति होगी। उनके पैर दबाने होंगे। वे भी उसे मुक्तिमार्ग का ज्ञान कराते, सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देंगे।

इस तरह के विचारों में डूबी हुई उस कश्मीरी बाला को "स्वामीजी पधारे हैं", अपने पिता के ये शब्द सुनाई दिए। वह काँप गई। नेत्रों में आनंदाश्रु भर आए। सारा शरीर अतिशय आनंद के मारे हल्का हो गया। स्वामीजी ने उनकी कामना सुनी है। उनका तप व्यर्थ नहीं गया है। उनके गुरु स्वयं उन्हें खोजते हुए नहीं आए हैं?

स्वामीजी घर में आए। कश्मीरी बाला स्वामीजी के पैरों पर गिर पड़ी और उनकी पद-धुलि उसने सिर पर चढ़ा ली।
उस नगर में बाल-वृद्ध स्वामीजी की परिचर्या कर रहे हैं। फल, दूध, मिठाई आदि पहुँचा रहे हैं। स्वामीजी को पल भर के लिए भी अवकाश नहीं है। लोग सदा उन्हें घेरे रहते हैं।

स्वामीजी ने संसार की असारता, मन की दुर्बलता, कर्म, ज्ञान आदि की उत्कृष्टता का निरूपण किया। सैकड़ों की संख्या में उनके भक्त बैठे थे। स्वामीजी उन्हें उपदेश दे रहे थे।

रात में स्वामीजी की परिचर्या निरुपमा ही करती रही। बिस्तर पर दुपट्टे और शॉल बिछे थे; जप के लिए कृष्ण-मृग की छाल वगैरह। स्वामीजी के कपड़े धोना, फलों के छिलके निकालना, दूध गरम करना, पैर दबाना, इत्यादि निरुपमा के काम थे। इससे दोनों को आनंद प्राप्त होता था। भक्ति के साथ परिचर्या में लीन पुत्री को देख माता-पिता को संतोष होता। वैराग्य-पथ में चलती हुई वह समस्त दुःखों को भूल जाएगी न?

इतने वर्षों की तपश्चर्या का बल संभवत: और भी हो। वह बाला उनके पास रहकर परिचर्या करती रहती तो मोह को रोक नहीं पाती। उसके साथ काम की कल्पना मात्र से स्वामीजी डरते थे। तो भी उनका मन विवश हो पतवार-च्युत नाव की तरह समुद्र में कूदने को तैयार था।

स्वामीजी किसी-न-किसी बहाने उस युवती का स्पर्श करते थे। उसके केश सँवारते और आध्यात्मिक रहस्यों का बोध कराते समय उसे बीच-बीच में हृदय से लगाते।

स्वामीजी पर उसका मोह नहीं, स्वामीजी ही उसके देवता हैं, सर्वस्व हैं। स्वामीजी की आज्ञा हो तो वह उन्हें अपनी देह तक अर्पण कर सकती है, अपने पिता के हृदय में कटार भोंक सकती है और झेलम नदी में भी कूदकर प्राण त्याग सकती है। वह अपने सर्वस्व का त्याग कर सकती है। परंतु स्वामीजी को छोड़कर क्षण भर भी वह नहीं रह सकती।

एक दिन स्वामीजी ने पूछा, "बेटी! मेरी परिचर्या क्यों करती हो?"
"अपने देवता की परिचर्या करना क्या आश्चर्य की बात है?"
"सब अपने लिए आप ही देवता हैं। मेरा महत्त्व ही क्या?"
"इस रहस्य को समझने के उपरांत सब अपने लिए आप ही देवता हो सकते हैं। तब तक गुरु ही देवता हैं।"
"लेकिन सब प्रकार की उत्कृष्टताओं से पूर्ण व्यक्ति ही गुरु कहलाने योग्य है, न कि मेरे जैसे।"
"पाप का शमन हो। ऐसा न कहिए। आप स्वयं भगवान् के ही अवतार हैं।"
आनंदस्वामी की सारी तपस्या नष्ट हो गई।

किसी एक मुहूर्त में आनंदजी अपनी इच्छाओं को रोक नहीं सके। परिणामत: निरुपमा उनके आलिंगन की बलि चढ़ गई।
वह संधान-मुहूर्त पवित्र था या पापपूर्ण था? उसी रात्रि को उन्होंने लज्जा से सिर झुकाकर, भयकंपित हो, हृदय में पश्चात्ताप ने दावानल रूप धारण किया और वे घर छोड़कर भाग खड़े हुए।

निरुपमा ने अपने जन्म को धन्य माना। वह ऐसी तेजस्विनी बनी, मानो उसे भगवान् के दर्शन हुए हों। उसके तेज को कोई नहीं पा सकता था।
प्रात:काल होते ही पिता ने पूछा, "बेटी, स्वामीजी कहाँ है?"
निरुपमा-"तपस्या करने गए हैं।"
माता-"कब गए हैं?" निरुपमा-"बहुत ही सबेरे।"

पिता-"बेटी! तेरा मुखमंडल प्रज्वलित हो रहा है। क्या स्वामीजी ने तुझे उपदेश दिया है? बड़े-बड़े ऋषि -मुनियों की तपश्चर्या से भी प्राप्त न होनेवाला महाभाग्य तुझे अपने पूर्वजन्म के सुकृत के कारण प्राप्त हुआ है?"

तेजी के साथ पीछा करनेवाले भयंकर शेर की पकड़ में से छूटकर भागनेवाले हिरण की तरह आनंदजी हिमालय-पहाड़ों में भाग गए। सारा संसार उन्हें अंधकारमय प्रतीत हुआ और ऐसा मालूम होता था, मानो हिमालय का शिखर टूटकर उनके ऊपर आ गिरा हो।

शुभ्र हिमालय पर्वत-पंक्ति को देखकर उन्हें मलिन एवं सड़े-गले अपने जीवन का स्मरण हो आया। उन्होंने संन्यास ही क्यों धारण किया? तीव्रता के साथ चलनेवाली हृदय की धड़कन के आवेग को वे रोक न सके। तेजी से उस महान् पर्वत की घाटी में वे कितनी दूरी पर जा गिरे हैं, इसका उन्हें पता तक नहीं। वहाँ बहनेवाले झरनों की ध्वनि सुनाई दे रही थी। वृक्ष और पत्थर भी उनके साथ बहते आ रहे थे। ऐसा लगता था, मानो एक ही मिनट में सिर फूटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा और फिर उनका स्वरूप ही कहीं दिखाई नहीं देगा। 'शिवोऽहं! शिवोऽहं!!'...कहते-कहते आनंदस्वामी बेहोश हो गए।
निरुपमा दिन-प्रतिदिन महातेजस्विनी होती जा रही है। उसके मुखमंडल की कांति को कोई भी देख नहीं पा रहा है।

वह शीघ्र ही विश्व को एक शिशु प्रदान करने जा रही है। इस बात का पता जब घर के लोगों को लगा तो उसकी माता सिर पीटने लगी और बोली, "मेरी बेटी, तुमने घर को ही डुबोया। कई पीढ़ियों तक हमारे परिवारों को मुक्ति से दूर कर दिया। मुसकराती क्यों हो? क्या वह दुष्ट संन्यासी ही है न?"

माता का दुःख उसकी समझ में नहीं आया। उसने अपराध ही क्या किया है? केवल स्वामी द्वारा उपदेशित मंत्र का पठन मात्र किया है। उस दिन वह अपनी बेटी को देख नहीं सकी।

एक सप्ताह में यह समाचार पंडित दीनानाथ को भी मालूम हो गया। उनके भी क्रोध की सीमा न रही। संन्यासी की दुष्टता का स्मरण करके उनके मन में बार-बार ये विचार उठते थे कि संन्यासी के सिर के हजारों टुकड़े कर दिए जाएँ। अश्रुधारा बहाते हुए पंडित दीनानाथ रोने लगे और बोले, "हे भगवान, आपने कैसी भयानक विपत्ति मेरे सामने खड़ी कर दी? पवित्र परिवार पर ऐसा कलंक!"

वे पुनः क्रोध से पागल हो उठे और कहने लगे-"दुष्ट, भ्रष्टा लड़की! तू उस संन्यासी के जाल में फँस गई। स्त्री यदि सच्चरित्रा हो तो पुरुष कर ही क्या सकता है? उसी दिन इसके सिर का मुंडन करा दिया होता तो अच्छा था। उस दुष्ट संन्यासी ने वेदांत का व्याख्यान देकर रोक दिया। इस विश्व में कैसा पाप भरा है!"

"अब हमें क्या करना चाहिए? इस दुष्टा को झेलम में क्यों न डाल दिया जाए? अथवा फिर इसे विष ही क्यों न दे दिया जाए?..." किंतु फिर एक दूसरा विचार उनके मन में आया कि अकेली संतान है। बड़ी प्रतीक्षा के बाद पैदा हुई है। हे भगवान्, अपने हाथों से उसका गला कैसे घोंटा जाए?

बेटी के पास पहुँचे। उसके प्रफुल्ल बदन को देख काँप गए। इस बाला के मुखमंडल में उन्हें काशी की अन्नपूर्णा के दर्शन हुए। बेटी, तुमने यह कर्म किया? उनकी पत्नी ने शायद गलत समझा हो?
"बेटी क्या कर रही हो?"
"स्वामी द्वारा उपदेशित मंत्र दिया होगा।"
"स्वामीजी तो स्वयं भगवान् के अवतार हैं।"
"नहीं, तुम समझती नहीं।" हमारे परिवार को ही उसने नरक-कूप में ढकेल दिया है। "आपने इसके पूर्व जो कहानियाँ सुनाई, उनमें व्यास महर्षि ने धृतराष्ट्र और पांडु को कैसे वरदान प्रदान किया था, पिताजी?"
"म । म म...प।" "परम तेज सर्वत्र व्याप्त रहता है। पाप और पुण्य का आरोपण मन ही करता है।"
"..." सिर झुकाकर खड़े रहते हैं।

दूसरे दिन सारा कश्मीरी ब्राह्मण परिवार काशी-यात्रा के लिए निकल पड़ा। वहाँ से रामेश्वरम् जाते हुए रास्ते में मदुरा, श्रीरंगम, काँचीपुरम, तिरुपति, कालहस्ती इत्यादि तीर्थों का पर्यटन कर यह परिवार कालीघाट (कलकत्ता) पहुँचा।

एक दिन शुभ मुहूर्त में निरुपमा ने एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। वंश प्रतिष्ठा को दूषित करने के लिए पैदा हुए उस मलिन रक्त-पिंड को हुगली नदी में फेंक देने का पंडितजी ने निश्चय किया। दूसरे दिन पंडितजी ने कमरे में प्रवेश कर देखा-बालक को बगल में लिये निरुपमा सो रही है। वह बालक महान् तेज से प्रकाशमान है।

किसी अज्ञात वाणी ने गंभीर स्वर से उनके कानों में शब्द गुंजा दिए-"पागल ब्राह्मण! तुम्हारे कोई संतान नहीं है। भगवान् ने इस बालक को तुम्हें प्रदान किया है।" इस वाणी को सुनकर पंडितजी चौंक पड़े और सोचने लगे 'लोग क्या कहेंगे? समाज में बदनामी होगी सो अलग। ऐसी हालत में अपना मुँह कैसे दिखाया जाए? तब फिर क्या कोमल फल जैसे इस शिशु का अंत कर दिया जाए? यह तो उससे न होगा। वह कसाई नहीं।'
पंडितजी ने विचार किया कि यदि किसी को पालने के लिए दे दिया जाए तो?

पर इस कलंक को लेगा कौन? उन्हें ही पालना होगा? यदि यह कहा जाए कि किसी के बच्चे को पालने को लाए हैं, तो लोग क्या कहेंगे? लोगों को यह कहकर समझाया जा सकता है-यह तो अनाथ बालक है।

स्वामीजी को जब होश आया तो उन्होंने अपने को उस घाटी की झाड़ियों में लटकते पाया। उस झाड़ी ने उनके प्राण बचाए। सारा शरीर दर्द कर रहा है। सिर फटा जा रहा है। वह हिल-डुल नहीं सकते हैं। झाड़ियों की शाखाओं ने उन्हें झुलाया। नीचे गहराई में बहनेवाली नदी अपनी कलकल ध्वनि संगीत से उनकी पीड़ा दूर कर रही है।

बड़े प्रयत्न के उपरांत स्वामीजी झाड़ी से बाहर आए। परंतु ऊपर भी चढ़ नहीं सकते और नीचे भी नहीं जा सकते। ऐसा क्यों? क्या भगवान् ने उनको कैद में तो नहीं डाल दिया? कुछ भी हो, उन्हें डर ही क्या है? अंत हो जाए तो और भी उत्तम है। पद्मासन लगाकर घोर तपस्या की।

श्रीनगर में कश्मीरी पंडित दीनानाथ का पालित शिशु उनके महल में बालकृष्ण की भाँति बढ़ रहा है। निरुपमा देवी योगिनी हो गई हैं और उन्होंने अपना सिर मुंडा लिया है। बंधु-बांधव सभी दीनानाथजी को कलकत्ते में प्राप्त ब्राह्मण बालक को देख आश्चर्यचकित हो रहे हैं। कुछ लोगों को बालक के रूप को देखकर संदेह हुआ, परंतु दिव्यस्वरूप तपस्विनी की भाँति दिखाई देनेवाली निरुपमा देवी को देखकर उन्हें डर हुआ और दीनानाथ पंडित के कथन पर सबने विश्वास कर लिया।

निरुपमा देवी तपस्या में लीन हो गई हैं। स्वामीजी का उपदेशित वह मंत्र ही उनका परम मार्ग है। उसे अपने पुत्र पर ममता नहीं है। दोपहर के समय पास-पड़ोस की औरतें पालकी से, नाव से और कुछ पैदल आती और निरुपमा देवी द्वारा भगवद्गीता के रहस्यों को सुनकर फूल उठतीं।

कुछ समय के उपरांत आनंदस्वामीजी हिमालय से उतर आए और काशी में रहने लगे। सिर में जटाजूट, लंबी भव्य दाढ़ी और मूंछे बढ़ी हुई हैं। वस्त्र फटे हुए हैं। सीधे जाकर आनंदजी अपने गुरु यतीश्वरानंदजी के पैरों पर पड़े। वे महानुभाव मुसकराए और आशीर्वाद देते हुए बोले, "वत्स! तुम्हें जो अनुभव प्राप्त हुआ, वह पराशक्ति का चिद्विलास है। गिरकर उठे हो। पापी जगत् को आँखें भरकर देख लिया। प्रारब्ध विच्छिन्न हो गया है। हिमालय का गौरीशंकर शिखर तुम्हारा साधना-पीठ होगा।"

दो मास के उपरांत एक दिन प्रात:काल पंडित दीनानाथ जप कर रहे थे। उस समय आनंदजी आए और उनके सामने खड़े हो गए। पंडितजी ने आँखें खोलकर देखा। पहले पहचान नहीं पाए। कैलाश पर्वत पर विहार करनेवाले देवताओं में से कोई एक देवता समझा। आँखें मलकर देखा और कंपित कंठ से मंत्रोच्चार प्रारंभ किया।
आनंदस्वामीजी ने पूछा, "पंडितजी, कुशल है?"

दीनानाथजी ने उस स्वर को पलभर में ही पहचान लिया-"स्वा... स्वा...मी...जी!"
"हाँ, हिमालय से चलकर काशी में गुरुजी के दर्शन किए और पुनः हिमालय में जाने के पूर्व आपके दर्शन करने यहाँ चला आया हूँ।"
पहले तो पंडितजी को आश्चर्य हुआ, पर अब क्रोध ने उस स्थान को ले लिया। उन्होंने गरजकर पूछा, "मेरी पुत्री के लिए तो नहीं आए?"
"पंडितजी! ईश्वर हम सबकी रक्षा करें। मैंने महान् पाप किया और उसका फल भी भोगा।" "महा पाप किया और उसका फल भोगा! तुमने उसका फल ही कहाँ भोगा? तुम संन्यासी हो? छिह दुष्ट, क्या तुम आदमी भी हो? मेरे सामने से हट जाओ, वरना तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा।"

स्वामीजी मुसकराते रहे और थोड़ी देर बाद बोले, "पंडितजी, मैंने तुम्हारे प्रति जो घोर अपराध किया है, उसके लिए किसी भी प्रकार की सजा तुम दे सकते हो। तुम अपना वांछित दंड देकर मुझे पाप से मुक्त करो।" "छिह दुष्ट, मेरे घर से चले जाओ। तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।" महा रौद्ररूप धारण कर बगल में पड़ी लाठी को लेकर दीनानाथजी स्वामीजी पर टूट पड़े।
स्वामीजी ने सिर झुकाया।

पंडित दीनानाथ को ऐसा लगा, मानो उनके पैरों को किसी ने पकड़ लिया हो। सिर झुकाकर देखा कि उनके दौहित्र, पालित पुत्र ने 'ठुमक ठुमक' चाल से आकर और 'दादा', 'दादा' कहते हुए हाथ फैला दिए हैं।

पति के क्रोधपूर्ण वचनों को सुनकर रसोई से उनकी पत्नी वहाँ आई और निरुपमा देवी अपनी तपस्या समाप्त कर पिताजी के पास उपस्थित हुई।
स्वामीजी आँख बंद कर सिर झुकाए वहीं पर खड़े रहे। वे वहीं समाधि में तन्मय हो गए। उनके मुखमंडल से सहस्र ज्योतियाँ फूट रही थीं। वहाँ पर खड़े समस्त लोगों को कोई दिव्य संगीत की श्रुति सुनाई दी।

अपने गुरुदेव, अपने स्वामी को देख निरुपमा का शरीर पुलकित हो उठा और अपने को भूलकर वह सीधे जाकर स्वामीजी के पैरों पर गिर पड़ी। निरुपमा की माता ने अपना घूँघट सँवारा और सिर झुकाकर स्वामीजी को नमस्कार किया।
स्वामीजी के शरीर से कोई ज्योति निकलकर चतुर्दिक फैल गई।

पंडित दीनानाथ के हाथों से लाठी छूटकर नीचे गिर पड़ी। उनके पैर लड़खड़ाने लगे। "प्रभु, क्षमा कीजिए।" कहते-कहते वे जमीन पर गिर पड़े और मूर्च्छित हो गए। आनंदस्वामीजी उस महान् आनंदसमाधि में खड़े ही रह गए।

हिमाच्छादित शृंग, उन्नत पर्वत–पंक्तियाँ, नंदन वन की समता करनेवाली घाटियाँ, सुगंधि को फैलानेवाली चित्र-विचित्र पुष्प-लताएँ, वृक्ष-समूह, निर्मल नीलाकाश, विभिन्न प्रकार के रंग, उन सबने मिलकर वातावरण में एक प्रकार का वैचित्र्य पैदा कर दिया था।
आनंदस्वामी उस देव–पर्वत में घुसते जा रहे हैं। हेमंत का वह पवित्र दिन परम निर्मल होकर प्रज्वलित हो रहा है।

परमेश्वर-स्वरूप को प्राप्त यह महा पर्वत-पंक्ति जगत् की तपोभूमि है। समस्त धर्मावलंबियों को यहाँ पर मुमुक्षु (मुक्ति पाने के इच्छुक) होना पड़ेगा। हे पर्वतेश्वर! तेरी किरण विश्व के हृदय को अपनी अनुपम कांति से पूर्ण कर पुलकित कर रही है। 'शिवोऽहं', 'शिवोऽहं' कहते आनंदस्वामीजी उन अगम्य पर्वत-पंक्तियों में घुसते जा रहे हैं।

'शिवोऽहं! शिवोऽहं! शिवोऽहं!!' की ध्वनि उन पर्वतमालाओं को प्रतिध्वनित करने लगी।

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