हीर-रांझा/हीर-सलेटी : पंजाबी लोक-कथा
Heer-Ranjha : Punjabi Lok-Katha
‘झनाँ’ अपनी झोंक में बह रहा था। परले किनारे ‘सियालों’ का गाँव था। इस किनारे एक सुबह एक सुथरी सी नौका खड़ी थी, जिसके चारों ओर खुलती खिड़कियोंवाली पालकी दीख रही थी। रंग-बिरंगे कपड़ों के साथ काढ़ी गई फुलकारियाँ इन खिड़कियों के आगे मचलती पवन के साथ कभी अंदर, कभी बाहर की ओर उड़ रही थीं। नौका के एक किनारे दो स्त्रियों के साथ एक व्यक्ति हुक्का पी रहा था।
बाँके-छबीले से एक युवक ने समीप आकर पूछा, “भाई, मुझे उस पार जाना है।”
“नहीं भाई, यह नौका यात्रियों के लिए नहीं है!”
“फिर किसकी है?” युवक ने नौका को बड़े चाव से देखते हुए पूछा।
“यह हमारे मालिक की सुपुत्री की अपनी नौका है। यात्रियों की नौका कल सुबह-सवेरे ही जाएगी।”
“मुझे कुछ जल्दी है।”
“भाई, तुम कोई और रास्ता निकाल लो, इसमें तो तुम जा नहीं सकोगे।” कहकर उसने हुक्के का एक बड़ा दम लिया।
“अच्छा, तो फिर भगवान् ही मालिक।” कहकर युवक ने तहमद व कुरता उतारकर सिर पर लपेट लिया और नदी में कूदने के लिए तैयार होने लगा। नाविक हुक्का परे करके उठ खड़ा हुआ।
“न भाई पहलवान, यह न करना, यह है ‘झनाँ’ राजा, कहीं सोचता हो कि यह ‘रावी’ है!”
“झनाँ तो झनाँ ही सही, अंत कौन ले आएगा, डुबो ही देगा न!” युवक किनारे की ओर चल पड़ा।
छलाँग लगाकर नाविक ने उसे बाजुओं से पकड़ लिया। और भी दो-चार व्यक्ति आ गए। सभी मना करें, इतना सुंदर युवक यों ही डूब जाएगा, किंतु युवक कहता रहा—“तैयार हुए व्यक्ति को तैर जाने दो, भगवान् भरोसे किनारे लग ही जाऊँगा।
कौन सारा दिन और रात को यहाँ तारे गिनता रहेगा!”
उसे लोगों को सौंपकर नाविक नौका में आ गया।
“कहाँ हो बीबी रानी?” एक बार तो फुलकारी उठाकर उसने पूछा।
“इधर लुड्ढणा—मैं देख रही हूँ कि किस प्रकार लहरें एक-दूसरी के पीछे दौड़ती हुई मेरे समीप आती जा रही हैं...श्वास क्यों चढ़ आया है लुड्ढणो?”
“कोई युवक है, रानी! बहुत सुंदर, घर से लड़कर आया दीखता है, कह रहा है, नौका में बैठा लो। मैंने इनकार किया ही था कि वह कूदने ही लगा। वह अवश्य ही डूब जाएगा, यदि कहो तो उसे भी पार उतार दें?”
“जाओ, चढ़ा लो न! अपने पास ही बैठा लेना!” और सुंदरी लहराते दरिया के साथ अपने दिल को लहराते देखने लगी।
उसने अपने काशनी घाघरे की ओर देखा, फिर अपनी विलंबरी कुरती की ओर देखा, तरबूजी दुपट्टे के आँचल को हाथों में पकड़े उसने पैरों के रंगीले नाखूनों को देखा व भुजाएँ फैलाकर अँगड़ाई ली। अलसाए शरीर की रेखाएँ समतल हो गईं, किंतु यौवन के दो ज्वालामुखी सूर्य के स्वर्ण मुख को ललकारने लग पड़े।
नौका चल पड़ी व छींटों के साथ छलकती पवन पर ‘वंझली’ की लय थिरक उठी। मीठी थी यह लय। नई जोड़ी पहचानती और जीवन टोहती थी यह लय। नवयौवना ने दूसरी खिड़की से फुलकारी उठा दी।
लुड्डन नाव चलाता सिर मार रहा था और उसकी दोनों पत्नियाँ बैठी झूल रही थीं। वंझली के छिद्रों में से मानो कोई जादू झर रहा था।
यह मस्ती किस प्रकार की थी! नवयौवना को ज्ञात नहीं था कि यह कब व क्यों आती है, भले कितने ही अपहचाने रूपों में ऐसी ही मस्ती नवयुवती ने अनुभव की थी। जब मेहँदी रचे हाथ-पैर मारकर वह सहेलियों के साथ झनाँ में तैरती थी, कइयों ने श्वेत झाग में से चिनगारियाँ उड़ती देखी थीं। जब पाजेब छनकाती वह चलती थी, उसके छुई-मुई पैरों को छाती से लगाए रखने के लिए भूमि उसाँसें भरती थी—कइयों ने सुना था। जब वह हँसती थी, तो झनाँ की झनकार भी धीमी पड़ जाती थी।
सेज से उठकर नवयुवती वंझलीवाले के समीप आ बैठी। युवा ने देखा, आँखें उसकी भर आईं—वंझली होंठों से परे हो गई, “परदेसी दीख पड़ते हो? बजाए जाओ, बहुत सुंदर बजाते हो!” सुंदरी ने कहा।
वंझली पुनः होंठों से लग गई व उसमें से कोई लय निकल पड़ी। झनाँ भी तड़प उठा। अपने किनारे तो उसे लहराने ही थे, तीनों युवतियों के दिल भी छलक उठे।
एक-दो तानों के बाद युवती उसे अपनी पालकी में ले गई। खिड़कियों पर से सभी फुलकारियाँ परे कर दीं।
“बहुत प्यारी वंझली बजाते हो!”
“पहले मुझसे कभी भी इतनी प्यारी नहीं बजी। संभवतः दरिया ही इसका कारण होगा।”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“नाम तो मेरा ‘धीदो’ है, पर सभी ‘राँझा-राँझा’ ही कहते हैं।”
“सुंदर नाम है ‘राँझा,’ झांझरों जैसा छलकता हुआ!”
राँझे के होंठ खिल उठे।
“अच्छा बता राँझे, तुम आए कहाँ से और तुम्हें जाना कहाँ है?” युवती मानो उसे जानने का यत्न कर रही थी।
“आया तो तख्त हजारे से हूँ, पर बात बताने योग्य नहीं है।”
नौका ने हिचकोला खाया, राँझा लड़खड़ा गया, हाथों से उसे सँभालकर युवती पछताई।
“मैंने तुझे खड़ा ही रखा, बैठ जा।” तख्तपोश की ओर संकेत करके नवयौवना ने कहा, “तू परदेसी, मैं तेरे लिए परदेसिन। तू अपना काम करके चला जाएगा, मैं क्यों किसी को बताऊँगी?”
“यही तो बात है। मैं चले जाने के लिए ही आया नहीं। मुझे सदा सयाल में रहना है।” युवा के चेहरे पर शर्मीलापन सा था।
“वह तो हमारा गाँव है, तुम्हारा वहाँ कोई संबंध है?”
“न पूछो, बात बतानेवाली नहीं।” राँझा नवयौवना के पैरों पर, नाखूनों पर मेहँदी-रँगे चाँद देखने लग पड़ा।
“यदि नहीं भी बतानेवाली, तो भी बता दो, मैं तुम्हारा बिगाड़ूँगी कुछ नहीं।”
“वचन दो, तुम मुझ पर हँसोगी नहीं, भले ही बात कितनी ही हँसी-मखौल की क्यों न हो!”
“हँसी-मजाक की तो बात मुझे कोई दीखती नहीं, पर लो वचन ले लो, यदि वचन ही माँगते हो।” और नवयौवना ने अपने दाहिने हाथ की सामनेवाली उँगली की कड़ंगी बाएँ हाथ की सामनेवाली उँगली के साथ डालकर कहा।
नवयौवना की अपनी ओर दृष्टि से दिलेर होकर राँझे ने शुरू किया, “पुत्र, मैं अच्छे परिवार का हूँ—मौजू चौधरी का हूँ। किंतु माँ-बाप ‘वाहरा’ होने के कारण मैं इधर-उधर ही रहता था। सात भाइयों ने जमीन बाँटकर बंजर मुझे दे दी। जमीन की तो बात कोई नहीं थी, पर भाभियों ने जीना हराम कर दिया था।”
“तुम्हारी तो होंगी भी ढेर सारी भाभियाँ?”
“उनमें से एक की तो मुझे लेशमात्र भी समझ नहीं आई, घड़ी में तोला तो घड़ी में माशा! सच तो यह है, उसी के दुःखों का मारा मैं गाँव छोड़ आया।”
“कोई बदनसीब होगी, जो चाँद जैसे देवर को घर में नहीं रख सकी!”
“शक्ल से अच्छी है। उस दिन उसने कपड़े भी अच्छे पहने हुए थे। कहती थी, उसके पीर का दिन है। भाइयों से चिढ़ा, आकर चारपाई पर पड़ गया था। मैंने उसकी ओर देखा भी नहीं। अन्य भाभियाँ खाना लेकर खेतों पर गई थीं। वह तो मुझ पर बरस पड़ी—
“अरे राँझे-झाँझे, सुन तो, घर आकर तेरे चेहरे पर बल क्यों पड़ जाते हैं? बाहर तू जीभ मुँह में भी नहीं डालता! कुएँ पर पानी लानेवाली महिलाओं को वंझली से कीले रखता है। क्या हम तेरी भाभियाँ सभी काले मुँहवाली हैं?”
“मैं उठकर बैठ गया व उसे खुश करने के लिए बोला, लो भाभी, तुम्हारे जैसा भला कौन है! तुम यों ही गुस्सा कर बैठी हो। आज भाई ने मुझे हल पकड़ा दिया, बड़ा क्रोधित हुआ, मेरा बैल सीधा नहीं था, मारने को आता था।”
“पर मेरी बेध्यानी पर उसका कहर टूटा, वह बोली, “भाइयों का काम तुम्हें पसंद नहीं, भाभियों को तुम आँखों देख नहीं सकते; देखूँगी, जब तुम सयालों की हीर ब्याहकर लाओगे!”
नवयौवना का चेहरा मुसकराया।
“हीर के सौंदर्य की चर्चा हमारे गाँव में भी है, पर सच पूछो तो भाभी के तानों ने मेरे कलेजे में छुरियाँ ही कौंधा दीं और मेरे मुँह से बरबस ही निकल पड़ा—
“क्या पता चलता है भाभी, संयोगों का!”
“यह सुनकर वह और भी बिगड़ गई। कहने लगी—‘जा फिर बड़े संयोगों वाले, कोई ठिकाना अपना भी बना ले। कल से हम पकाकर तुम्हें नहीं खिला सकतीं। खाना हम खिलाएँ और वंझली तुम्हारी किसी और के आँगन में बजे! आज तो खा ले, पर कल हमारे घर में तुम्हारे लिए पीने को पानी भी नहीं मिलेगा।’
“सारी रात मेरी भाभी के यह बोल मेरे कानों में गूँजते रहे। बीच-बीच में संयोग मुझे सियालों के घर ले जाकर और ही प्रकार का रास रचाते रहे, पर जब सुबह-सकारे मेरी आँख खुली तो मेरे कानों में भाभी के बोल गूँज रहे थे।
“मैं घबराकर उठा, खूंडी उठा ली और घर से चल पड़ा। मसजिद-मजारों में रातें काटता मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ।”
“यहाँ तुम्हारा क्या करने का विचार है?”
“हीर के गाँव में कोई काम ढूँढ़ूँगा व प्रतीक्षा करूँगा कि भाग्य मुझ पर कभी तो तरस खाएगा!”
“पर यदि भाग्य ने कभी भी तरस न खाया?” नवयौवना ने मुसकराकर पूछा।
“दो प्रकार की तसल्ली तो फिर भी कहीं नहीं जाएँगी। एक, किसी भाभी का उलाहना छाती छलनी नहीं करेगा, दूसरी, शायद कभी हीर मेरी वंझली सुन ही ले!”
घाघरे, कुरती व दुपट्टे से नवयौवना का रूप अडोल दीखता था, पर अंदर से उसके शरीर का एक-एक रोम प्यार की रौ में बिजलाया हुआ था।
“अच्छा राँझन, मेरा भी वचन है कि मैं तेरा भेद किसी पर भी प्रकट नहीं होने दूँगी। मैं तुझे काम दिलवाने में भी सहायता करूँगी, हीर को तेरी वंझली भी सुनवा दूँगी। तू उसे ब्याह सके या नहीं, यह तेरे व उसके संयोगों पर ही आधारित होगा।”
राँझा हीर के मुँह की ओर ताकने लगा और वह अपने मन से पूछा रहा था, ‘क्या हीर इससे भी सुंदर होगी?’
“बीबीजी, सावधान, किनारा आ गया है।” लुड्डण जल्दी-जल्दी नाव सँभाल रहा था व पत्नी को ताड़ रहा था—“अपनी ओर और खींचकर...”
मालिक चूचक अपने घर के एकांत पसार में बैठा, मलकी के साथ बतिया रहा था—“माल का हाल मंदा है। कोई अच्छा ग्वाला मिलता ही नहीं, भैंसें दूध से घट रही हैं, लोगों को भरपूर दूध नहीं दे रही हैं।”
इतने में हीर की पाजेबें बजीं व वह माँ की चारपाई पर आ धमकी।
“भैंसों का रखवाला मैं ढूँढ़ लाई हूँ माँ!”
“कहाँ ढूँढ़ा है बिटिया? भैंसों की बात तेरा पिता भी कह रहा था।”
“माँ, है भी बहुत अच्छा, किसी अच्छे घर का जनमा-पला।” हीर का चाव खिल-खिल रहा था।
“ऐसा जाट कहाँ से आ गया, बिटिया?”
“भगवान् ने ही भेजा है, ऐसा लगता है। किसी ने गाली दी, कोस दिया, सहन नहीं कर पाया, भाग पड़ा। बड़ा गैरतवाला है। कहता है, कुछ भी हो जाए, वह घर लौटकर नहीं जाएगा।”
माँ-बाप ने युवक को देखा-परखा। शरीर से सुकोमल पर जीवट व जान से पक्का पाया। हवेली में रहने को उसे स्थान मिल गया। जानवरों की जान-पहचान हीर ने स्वयं करवाई व उसका साहस बँधाया कि वह तबेले में रोटी स्वयं पहुँचाएगी और अन्य रखवालों से भी परिचय करवा देगी।
राँझा सारा दिन तबेले में रहता। कुछ दिन तक नए जानवर उसे कठिन लगे, किंतु उसकी वंझली ने सभी कठिनाइयाँ आसान कर दीं। वंझली के आस-पास जानवरों का झुरमुट झूम उठता।
“अपनी भैंसों की तुम चिंता न करना, मजाल है, तुम्हारे ढोर-डंगरों की कहीं से भी शिकायत आए! तू वंझली सुना दिया कर।” सारे ही राँझे के आशिक हो गए थे।
जंगल वंझली की टेर के साथ गूँजने लग पड़े। कई जाट भी सुनने आ जाते। किंतु दोपहर होते ही वह वंझली कमर में अटका लेता और कहता, “मेरी रोटी आनेवाली है।”
हीर नित्य उसकी रोटी लाती, जो प्रायः वह स्वयं ही पकाती थी। इस रोटी में कितनी शक्ति थी कि राँझा सुकोमल अंगोंवाला अब नहीं था, वरन् पूर्णरूपेण गबरू जवान बन चुका था।
कभी सामने बैठी हीर को हँसकर राँझा कहता, “कितनी भोली बनकर नौका में ही तुमने मेरा हाल पूछ लिया और स्वयं मुझसे छिपी ही रहीं।”
“सच-सच बताना राँझना, वह तुम्हारी भोली-भाली अच्छी और सुंदर थी या कि यह तुम्हारे सामने बैठी हीर?”
दूध सी मीठी लस्सी का अंतिम घूँट पीकर व मुसकराते होंठ पोंछकर राँझा बताता, “वह नौकावाली हीर, सच बताऊँ बहुत सुंदर थी, कोई परी सी दीखती थी, पर यह सामने बैठी हीर बहुत प्यारी है, मुझे अपनी लगती है।”
“मैं तुझ पर बलिहारी, राँझना, ला अपनी वंझली मुझे दे दे!” सदा ही हीर वंझली माँग लेती या राँझा स्वयं ही पकड़ा देता। यह तभी होता, जब दोनों में से एक का दूसरे पर अधिक प्यार आता।
राँझा कहता, “हीर, यह वंझली मेरे होंठों से लगी रहने के कारण मेरे होंठ ही बन गई है। जरा फूँक मार तो इसमें, इसके छिद्रों में से तेरे होंठ मेरे तक पहुँच जाएँगे।”
प्यार के झूले पर झूलते दो जीवन आपा भूल गए। राँझे को किसी का चाकर होना भूल गया और हीर को उसका अपनापन भूल गया था। नौका में बैठकर भँवर व नदिया में शैतानी करना वह भूल बैठी थी। उसकी माँ प्रसन्न थी, अब कभी भी कहीं से कोई शिकायत या उपलंभ नहीं मिला।
हीर कार्यकुशल भी बहुत हो गई थी। कात-कातकर उसने छींके भर दिए थे, खाना बनाने में भी आधा काम उसने माँ का सँभाल लिया। पहले चाकर सदा रोटी, कपड़े व रहन-सहन संबंधी शिकायतें ही करते रहते थे। किंतु यह चाकर तो यों था, जैसे कोई घर का ही व्यक्ति हो, न रूखी का गिला, न सूखी की शिकायत। भैंसें प्रसन्न थीं। मलकी सारे गाँव में दही-लस्सी भेजने लगी थी। एक जोड़े के प्यार ने सारे गाँव पर प्रभाव डाल दिया था। नव-यौवनाओं की शरारतें राँझन की वंझली ने सुर में ला दी थीं और युवतियों को हीर ने किसी-न-किसी कार्य में संलग्न कर रखा था। त्रिझनों में रौनक बढ़ गई थी और छेड़खानियाँ कम हो गई थीं।
हीर आत्मा थी उस घर की। उसके जीवंत व्यक्तित्व से हवेली जगमग चमक उठती थी। यदि कभी तीज-त्योहार वह कहीं जाती तो कर्मचारी पूछने लगते, आपस में बातें करते—
“आज बीबीजी कहीं भी दीख नहीं पड़ती हैं।”
यदि कभी अधिक दिन बीत जाते तो कर्मचारियों को खाना अच्छा न लगता। किसी को लस्सी का घूँट कम मिलता तो किसी को प्याज के लिए भी इनकार कर दिया जाता।
दो वर्ष बीत गए। माँ-बाप को यदि कोई हीर के विवाह की बात करने लगता तो माँ को, बेटी बेगाने घर चली जाएगी—यह सोचकर गश पड़ जाती। वह कहती—“हीर अभी मेरी नन्हीं सी तो है, कैसे बच्चों की भाँति आकर गले लग जाती है!”
पर गाँव में एक व्यक्ति अवश्य था, जिसे हीर की जवानी गले-गले तक चढ़कर चुभ रही थी। यह था उसका लँगड़ा चाचा कैदों। प्रारंभ से लँगड़े कैदों ने कोई काम-काज नहीं किया था। प्रत्येक व्यक्ति की टोका-टोकी का निशाना वह बना रहा। अंततः वह टोका-टोकी से ऊबकर फकीर बन गया था। जादू-टोने, तावीज-गंडों के कारण उसने अपनी ख्याति अर्जित कर ली थी। जो पहले टोके बिना पास से नहीं गुजरते थे, वे अब सलाह लिये बिना आगे नहीं बढ़ते थे। सारे गाँव की भलाई-बुराई, बहुत ज्यादा बुराई का वह सदा ध्यान रखता—बहू-बेटियाँ उससे बहुत कतराती थीं, वरन् यों कहें कि बहुत ही घबराती थीं।
दूसरे की खुशी उसे फूटे मुँह न सुहाती थी। कोई हँसता तो उसकी छाती फटती थी, कोई गले मिलता तो मानो उसका गला घोंटा जा रहा है, कोई खिलखिलाता दीख पड़ता तो वह जलकर कोयला हो जाता था।
अपनी खुशी उससे छिपाकर रख पाना हर व्यक्ति के लिए एक समस्या बना हुआ था। गाँव के बाहर चूचक ने उसके लिए एक कमरा बनवा दिया था। इस कमरे के सामने ही वह तबेला था, जिसे राँझे की वंझली ने किसी अविनाशी प्यार का रास-घर बना दिया था।
इस तबेले पर बहार आई हुई थी। कीकर फूले हुए—कटीर दूल्हे बने खड़े थे। नदिया का पानी निर्मल था, छायाएँ घनी व पक्षियों के पर चमचमाते थे। गाय-ढोरों के थन भरे-पूरे व शरीर जगमग थे। प्रकृति के इस प्यार-कक्ष में राँझे की वंझली आशिक को टेर-टेरकर बुलाती थी। किंतु कैदों के अंदर ने इस बसंत के सारे पत्ते झाड़ दिए। वह अवसर ताड़ता था कि किसी के होंठों तक आए प्रेम के प्याले को जमीन पर फेंक सके। हीर विशेष रूप में उसका कोप-भाजन थी। किंतु हीर का प्यार गहन गंभीर नदिया की भाँति अपनी गहनता के समान ही अदृश्य था।
एक दिन जब हीर कैदों के कमरे के पास से निकलकर तबेले की ओर जा रही थी तो कैदों को स्वादिष्ट भोजन की सुगंध आई। आँख बचाकर वृक्षों की ओट में होता वह पीछा करता रहा।
फूलों से लदे एक कटीर की छाया में राँझा बैठा प्रतीक्षा कर रहा था। हीर को देखकर वह खड़ा हो गया। जब हीर ने भोजन उसके हाथ में थमाया तो राँझे ने उसकी कलाई पकड़ ली।
“हीर रानी, आज मैं कोई बात करके ही खाना खाऊँगा।”
“क्यों, मेरे राँझन, क्या आज मुझसे नाराज है?”
“नहीं हीरन, बहुत प्रसन्न, किंतु कभी-कभी मन में कुछ होने लगता है।”
“आ, बैठकर बातें करें, जो चाहे मुझे कहो, मैं तो तुम्हारी दासी हूँ।” उसने खाना रख दिया, दोनों आमने-सामने बैठ गए, हीर और समीप को सरक गई।
“दो वर्ष बीतते मुझे पता भी न लगा, पर अब रातें मुझे पहाड़ बन गई हैं, बता न, क्या मैं भैंसे ही चराता रहूँगा व खाना खा छोड़ूँगा?”
हीर ने राँझना का हाथ थाम लिया।
“बोल राँझना, तुम क्या चाहते हो?”
“मैं जानना चाहता हूँ कि यह स्वर्ग क्या मेरा है या मैं किसी के स्वर्ग को चोरी-चोरी तुनका लगा रहा हूँ?”
हीर ने राँझे के गले में गलबहियाँ डालकर कहा, “भगवान् के प्यारे गबरू राँझना, मैं तुम्हारी हुई!”
“फिर तो सारी उम्र मैं भैंसें भी चराता रह सकता हूँ।”
हीर ने खाना खोलकर आगे रख दिया। राँझे की प्रेम-बेलि पर आया पहला फूल पुलकित हुआ था। हीर उस पर कृपावंत थी, वह पर्याप्त काल से जानता भी था, किंतु कोरी कृपा प्रेम-वेलि को पल्लवित नहीं कर सकती। प्रेम समूचा जीवन-प्राण चाहता है व हीर ने प्रेम की माँग पूरी कर दी। हीर ने उसकी होकर रहने का भगवान् की साक्षी में वचन दिया। राँझे ने बड़े चाव के साथ पका हुआ खाना खाया। उसकी प्यास आज लस्सी से बढ़ गई व हीर छन्ना लेकर नदी से पानी लेने गई।
एक भिक्षुक कहीं से आ निकला। राँझे से उसने कुछ खाने को माँगा। छन्ने में से कौर भर के राँझे ने उसे पकड़ा दिया। शुद्ध घी व शक्कर की महक भिक्षुक के सिर में समा गई।
हीर आकर हाथ मलने लगी। “बड़े दुश्मन की चाल में आ गए हो!” हीर ने बहुत अफसोस किया।
“मैंने सोचा, भिक्षुक होगा, खाकर आशीष देगा।”
“आशीष इस फकीर ने कभी किसी को दी नहीं, कोई आफत समझो आई कि अब आई!”
हीर उदास हो गई। राँझे ने बाँहें पकड़कर फिर गले में डाल लीं।
“हीरन, भूल हो गई, पर जब तुम मेरी हो, फिर कौन सी आफत हम सहन नहीं कर सकते?”
उस रात माँ के गले में बाँहें डालने का साहस हीर का काफूर हो गया। माँ कुछ और की और ही उसे दीख पड़ी।
“ए हीरिये! ऊपर से सच्ची और अंदर से खोटी जहर भरी! तुझे पिता की दाढ़ी का भी ध्यान नहीं आया!” एकदम से माँ बरस ही पड़ी।
“अम्मा मेरी, बात तो बता, मुझसे क्या भूल हो गई?” हीर ने अत्यंत ही धैर्य से पूछा।
“अरे, तुझ पर कहर टूट पड़े, तू राँझे चाकर को चूरियाँ खिलाती है! तूने उस के साथ तबेले में सारी शर्म-हया बेच खाई है! मैं मानती नहीं थी...कहूँ, नहीं, मेरी बेटी ऐसी नहीं है और न हमारा चाकर ही ऐसा है।”
“रानी माँ, इतना क्रोध न कर, तेरी बेटी ने कोई पाप नहीं किया, कोई भी बात बेशर्मी की नहीं की—कैदों चाचे को तो पूरा ही गाँव जानता हैं।”
“उसका कहना मैं कभी भी न मानती, पर यह देख तो वह चूरी—सीधा ही शक्कर-घी। इतना घी तो मैंने कभी तेरे बाप को भी डालकर नहीं दिया!” माँ बहुत क्रोधित हो रही थी।
“चूरी तो मैं ठीक ले गई थी, पर घी चाचे कैदों का है। मैंने तो जरा ठीक चुपड़कर शक्कर में रोटी मल दी थी। दो वर्ष हो गए हैं, उसे घर से आए हुए। हमारे घर में उसने दूध की नदी बहा दी है, मुझे उपयुक्त नहीं लगता था कि हम नित्य खाएँ और वह कभी मुँह न लगाए! माँ, मैं तो स्वयं तुझे कहने ही वाली थी।”
माँ हीर के मुँह की ओर देखने लग पड़ी। उसी प्रकार का उसका चेहरा था, बल्कि पहले से भी मासूम; क्योंकि प्यार ने दिल की सारी शैतानी को घड़ी-दो-घड़ी प्रतिदिन मिलन में रचा-गचा दिया था। पर पिता को कैदों ने बातों में हिलगा लिया, एक-दो और खूसट बूढ़ों ने भी हुँकारा भर दिया कि कोई घर देखकर हीर के हाथ पीले कर देने चाहिए। बस फिर क्या था, नाई-धोबी हर ओर भेज दिए गए। हर ओर से सूचनाएँ आने लगीं। किसी की जमीनों की तादाद नहीं तो किसी का लड़का दूसरा यूसुफ। सारा दिन हीर की मँगनी की चर्चा ही गाँव में होने लगी।
बात अंततः रंगपुर के खेड़ेवालों पर आकर समाप्त हो गई। अब हीर को गश पड़ने लगे। उसने माँ को अपने दिल की बात कहने की सोची—
“अम्माँ, इतनी बातें तुम रोज मुझे कहती हो, मैं सुनती हूँ। एक बात मैं भी कहूँ, यदि तुम सुन लो!”
“सुना हीरिये, मेरी मेहमान बेटी हीरिये!”
“आप चाहती हैं कि लड़का अच्छे कुल का व जमीनों का मालिक हो। मैं कहती हूँ माँ कि राँझा हर प्रकार से इस कसौटी पर पूरा उतरता है। ध्यान से सुनना माँ! बात मेरी खो न देना!” हीर ने निहोरे किए।
“अरी, फिर वही अंधेर कहने लगी है—तो कैदों सच्चा ही था?”
“नहीं माँ, वह झूठा था। तुझे तब मैंने यह कहा था कि न मैंने, न राँझे ने कोई बात लज्जाजनक की है। अब है स्वामी के चयन की बात, तो यदि राँझा अच्छे कुल व अच्छी जायदाद का स्वामी हो तो भला मुझे अच्छा लगने के कारण बुरा क्यों हो जाए?”
“पर है तो वह हमारा चाकर ही न?” माँ ने कहा।
“उसे चाकर नहीं था होना, यदि आप उसे उसके भाइयों के साथ रवाना कर देते, जब वे उसे लेने आए थे। वह जाता नहीं था, उसे मैं अच्छी लगती थी। आपने रवाना नहीं किया, उसने आपका घी-दूध दुगना कर दिया।”
माँ सोच में पड़ गई—“यह तेरी बात झूठ तो नहीं है, हमने उसे रवाना नहीं किया था, इतना अच्छा नौकर हमें कभी भी नहीं मिल पाया था।”
“मेरी अच्छी माँ, फिर कर दिलेरी, बेटी की आत्मा आशीष देगी। मेरे पिता व भाइयों के गौरव व गरिमा दिन-दूनी रात-चौगुनी हो।”
हीर माँ के गले लगकर रोने लग पड़ी। माँ ने ढाढ़स बँधाया कि वह पिता से बात करेगी।
पिता व भाई सुनकर आग-बबूला हो गए—“हीर को मार न फेंकेंगे, नौकर के साथ डोली रवाना कर दें!” किसी ने कहा, “राँझे को झनाँ में फेंककर झगड़ा ही क्यों न खत्म कर दें! न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!”
“नहीं नहीं, मरदूदो, बहिन साथ ही डूब मरेगी!” माँ ने समझाया।
निर्णय हुआ कि हीर की डोली रवाना करके राँझे से निबट लिया जाएगा।
खेड़ों से बारात आनेवाली थी। मुजरे व आतिशबाजी की बातें गाँव-गाँव में हो रही थीं। पर घर में माँ व बेटी बारी-बारी रो रही थीं। कभी माँ बेटी को समझाती तो कभी बेटी माँ को धीरज बँधाती।
“अम्माँ, स्त्री के दो पति नहीं हो सकते। यों ही खेड़ों के घर भेजने का बखेड़ा न कर, मैं काजी को भी कह दूँगी कि भगवान् को साक्षी करके मैं वचन राँझा को दे चुकी हूँ।”
“सयानी बन बेटी, इतने बड़े बाप की इज्जत मिट्टी में मत मिला।”
“इज्जत व बेटी दोनों बचा सकती हो यदि कुछ दिलेरी दिखाओ!”
“तेरे भाई कतई नहीं मानते!”
“इज्जत जाती सहन कर लोगी, पर बेटी को बरबाद होते कैसे देख सकोगी, मेरी अच्छी माँ?”
हीर अपना सिर बाँहों में लपेटकर चुप हो गई। और कोई चारा काम न आता देख, राँझे के गले लगकर अपना दिल खोलकर उसे बताने का अवसर हीर ने ढूँढ़ ही लिया।
“राँझणा, मैं स्त्री जाति की हूँ। मेरे बस में तो बस इतना ही है कि डूब मरूँ, किंतु अभी तुझे देखने की हविश समाप्त नहीं हुई है। इतना विश्वास कर कि मैं तेरी हूँ और आजीवन तेरी ही रहूँगी!”
“हीरिये, बेगाने पुत्रों ने कब तुझे मेरी रहने देना है?” राँझे ने उसाँस भरते हुए कहा।
“फिर तू ही बता राँझना, जैसे कहे, मैं हाजिर, चाहे मुझे यहाँ से निकाल ले चल, कहीं पहुँचा, तेरे साथ मैं हर प्रकार का कष्ट सहन के लिए तैयार हूँ!”
“सियाल हमें गाँव की मेंड़ भी पार नहीं करने देंगे।”
“फिर राँझना?” बाँहों को गले में डाल, आँखों में आँखें डाल हीर ने कहा, “मेरे लिए दिल हलका न करना, एक तुझे ही मिलने की आशा के लिए मैं डोले पड़ रही हूँ। तू जानता ही है कि ‘झनाँ’ मुझे कितना प्यारा है! यह मुझे ‘खेड़ों’ से ही छुड़वा सकता है, किंतु इस प्रकार मैं तुमसे भी छूट जाऊँगी!”
“हीरे! दे वचन पक्का, तू मेरा दिल कभी तोड़ेगी नहीं...तेरे बिना इस दिल का जीवित और जाग्रत् रह पाना असंभव है!”
हीर ने राँझे का हाथ अपनी छाती पर रख लिया।
“वचन क्यों, यह दिल ही निकालकर तू अपने पास रख ले। खेड़ों के पास तो बस मेरी यह प्रतिमा ही जाएगी। न रो प्यारे...पर मेरे दीवाने, कभी मुझे भूल तो नहीं जाओगे?”
“तुम्हारी नौका में तुम्हारी सेज पर बैठना कभी मैं भूल नहीं सकूँगा। तब तुम मेरी हीर नहीं थीं, पर मेरी उदास रातों पर पहला प्रभात थीं; इस प्रभात पर इतना श्वेत चिलकता दिन चढ़ा कि क्या कहने...मेरी हीर है तू...भला मैं तुझे भूल सकता हूँ?”
“हाय राँझना! यह अपनी वंझली मुझे दे दे!”
“ले ले हीरे! अब इसे कौन बजाएगा?”
“यह तेरे होंठ हैं राँझना, मेरे सुनसान जीवन से यह बातें किया करेंगे!”
नाई-कहार दौड़-दौड़कर इन्हें लूट रहे थे। राँझा उन भैंसों को गले लगा रहा था, जिन्हें चूचक ने दहेज में दिया था, किंतु वे राँझे के बिना विदा नहीं हो रही थीं। अपने ध्यान में डूबा राँझा डोली व ढोर-डंगरों के पीछे आ रहा था। डोली के सालू हवा में लहरा रहे थे। पिछली ओर का सालू तो बहुत ही लहरा रहा था। उसमें से हीर अपने राँझन को देख रही थी और जब मोड़ मुड़ा और उसका उदास मुखड़ा उसे समीप से दीख पड़ा, तो उसके मानो प्राण ही निकल गए।
रंगपुर में बहुत रौनक थी। खेड़ों का सैदा हीर-सलेटी को ब्याह लाया था। हीर के चेहरे की धूम दूर-दूर तक गूँज रही थी—वह हीर, जिसने नदी-किनारे-जंगल आदि को महका रखा था। किंतु उसकी सास-ननद उसका उतरा व मुरझाया मुँह देखकर विचारों में डूब गईं।
देखनेवालियाँ पूछें, “बहूरानी को क्या हो गया है?”
सास ने उत्तर दिया, “रास्ते में ठंड-ठकोर लग गई होगी!”
सैदे का चाव पूरा न हुआ। एक दिन ही नहीं, कई दिनों तक संध्या सूनी ही रही। दवा-दारू का दौर चल पड़ा। मायके भेजने का विचार ही खेड़ों ने छोड़ दिया, राँझे वाली बात की भनक उनके कानों में पड़ चुकी थी।
किंतु ननद सहती को इस रोग का कुछ-कुछ ज्ञान था। उसका विवाह भी अभी हाल ही में हुआ था; वह हँसमुख हुआ करती थी, किंतु ससुराल में उसकी हँसी किसी को भी सुनाई न दी। बीच-बीच में कोई फुसफुसा पड़ता—“सहती किसी बिलोच की मुरादें माँगती है।”
सहती ने भाभी का दिल टोहा, अपने मुराद की बातें करके उसने राँझन की वंझली देख ली। आपस में एक-दूसरे की सहायता व सुझाव के वचन आपस में लिये-दिए गए।
दिल खोलकर राँझे की बातें उसने कीं। हीर को बहुत सुख और शांति मिली, किंतु स्वस्थ होने का साहस वह कर नहीं सकती थी। बीमारी उसका केंद्र था, जिस कारण सहेजकर वह राँझे की अमानत सुरक्षित रखे हुए थी। दिन-प्रति-दिन वह अशक्त होती गई। उसके स्वामी की चिंता बढ़ती गई। उसकी लटकती आशा अब पीड़ादायक हो चुकी थी। वह एक पहलवान मारकर लाया हुआ था।
कोई किसी की बद्दुआ कहे, कोई कहे, किसी ने कुछ कर दिया है, कोई कहे, जादू-टोना किया दीखता है।
उधर राँझे का हाल मंदा था। तबेले में ढोर-डंगर, सभी हीर के साथ ही शोभायमान थे। हर वस्तु का रंग राख जैसा हो गया था, सियालों की हँसी पर मानो उजाड़ ही छा गया था। सुनहरी दोपहरी प्रातः से भी डरावनी हो गई थी।
संदेश भी हीर की ओर से कोई आया नहीं था। तख्त-हजारे जाने के लिए भी मन नहीं मानता था। नदिया में डूबने को मन नहीं मानता था, बार-बार यह उसाँस उठे—“कभी फिर मिलेगी हीर रानी”, पर दिल बैठ जाता—“उन्होंने मेरे कारण मायके भी नहीं जाने दिया। कई महीने बीत गए हैं।” प्रत्येक काम के बाद उसे लगता था, सारे काम हीर के थे। कामों से शौक उठ गया। जीवन खोया-खोया सा लगा।
इस बेकरारी में उसे बालनाथ योगी का शांत चेहरा स्मरण हो आया। घर से आते हुए वह जोगियों के मठ में एक रात रहा था। वह मुसलमान था, तो भी नाथ जोगी ने उसकी बहुत सेवा की थी।
उसने सोचा यदि वह भी जोगी हो जाए! जोगियों को गाँव-गाँव, घर-घर में आने-जाने की सुविधा होती है, संभवतः कभी हीर से भी सम्मिलन हो जाए! यदि न भी हुआ तो भी हीर के वियोग में वह सच्चा योगी बन ही जाएगा।
राँझा सियालों से विदा हो बालनाथ के चरणों में जा गिरा। बालनाथ ने बहुत समझाया कि योग उस जैसे सुंदर व्यक्तियों को रास नहीं आएगा। कदम-कदम पर डोल जाने का भय निरंतर रहेगा। किंतु राँझा उसे निरंतर विश्वास दिलाता रहा कि वह कभी भी योग को लाज नहीं लगने देगा, वह किसी की वस्तु अथवा स्त्री की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगा। हीर की याद ने दिल में तुनका मारा व उसने दिल को समझा लिया—
‘हीर तो किसी की पत्नी नहीं, उसकी अपनी ही आत्मा है, उसने भगवान् के सामने साक्षात् मेरी ही बनी रहने का वचन दिया था।’
बालनाथ ने राँझे के बाल मूँडे़, कान फाड़कर मुद्रिकाएँ डाल दीं, गोरे शरीर पर राख मल दी और राँझे ने फकीरी की अलख जगा दी।
फकीरी रूप भी राँझे पर खूब ही चढ़ा। उसकी बेपरवाही की शोभा दूर-दूर तक फैल गई। वह बहुत अच्छा जोगी माना जाने लगा, जिसे न खाने का चाव था, न धन की इच्छा। लगन सदा ही अपने प्रियतम में लगी रहती थी। इस लगन ने कोई लौ आँखों में जगा दी थी।
जब बालनाथ ने समझा कि चेला पक आया है तो उसने बाहर चलने-फिरने की आज्ञा दे दी। एक गाँव उसकी प्रसिद्धि अगले गाँव तक पहुँचा देता व इसी प्रकार एक दिन लोगों ने उसका डेरा रंगपुर के समीप एक बाग में जा लगवाया।
हीर को भी अलबेले जोगी की बातें किसी ने सुनाईं। दीदार की भूखी के अंदर दर्शन की लालसा जाग उठी। सहती देख आई, कहती, “कोई विचित्र फकीर है, देखकर भूख भी समाप्त हो जाती है।”
कई अन्यों ने भी बताया कि जोगी ने कइयों के रोग दूर किए हैं। हीर की सास भी विवाहित पुत्र के कुँवारेपन को देख रही थी। स्त्रियों ने उसे सलाह दी और ननद-भाभी जोगी के डेरे जा पहुँचीं।
जोगी के दर्शन कर हीर निढाल हो गई। सिर पर सुंदर बाल-कुंडल अब नहीं थे। उन बालों की महक उसकी स्मृति में अभी भी सजीव थी। पतले-पतले कानों में कितनी मोटी मुद्रिकाएँ पहन रखी थीं व लहकने-दमकनेवाला शरीर राख से सना हुआ था। केवल उसकी आँखों में रक्ताभ प्रेम की झलक शेष थी।
जोगी ने हीर की बाँह देखी, नब्ज पर रखी उँगलियों ने दिल का तार झनझना दिया—“जोग नहीं, हीरिये, तेरा केवल वियोग ही है।”
हीर ने आँखें उठाकर देखा। जोगी ने हँसकर आशीर्वाद दिया। बंद कपाट खुल गए।
हीर के ससुराल में खुशी हुई। आज हीर को भूख लगी थी। उसका माथा उतना पीला नहीं था। सैदे ने शीरनी बाँटने का निश्चय किया। हीर ने यह कहकर उसे भुलावे में डाल दिया कि “अब शीघ्र ही ठीक होकर तेरे साथ अपना वचन पूरा करूँगी।”
“कोई बात नहीं हीरे! तुम ठीक रहो, सारा परिवार तुम्हें स्वस्थ देखना चाहता है।”
दस दिन तक हीर व सहती जोगी के डेरे पर जातीं। एक दिन हीर की कुरती के गले में वंझली की झलकी जोगी को दीख पड़ी। उसकी आँखों की लौ और भी चमकने लग पड़ी।
और जोगी ने सहती के साथ निश्चय कर लिया कि यदि वह मुराद को संदेशा भिजवा दे तो वह ठीक समय पर पहुँचकर आनेवाले शनिवार को अपने मार्ग पर चल पड़ेंगे।
शनिवार वाले दिन रंगपुर में शोर मच गया—“जोगी खेड़ों का मुँह काला कर गया। बहू व बेटी दोनों को भगाकर कहीं भाग गया।” उसकी खैर-खबर अभी किसी को पता न चल पाई। सारे संसार में खेड़े अपनी घोड़ियाँ दौड़ाते घूम रहे थे।
कानों से मुद्रिकाएँ उतार, नहा-धोकर राँझे ने तहमद कमर में बाँध ली और छिपते-छिपाते हीर व राँझा नाहड़ाँ के प्रदेश में जा पहुँचे।
नाहड़ाँ का राजा, कहते हैं न्याय करता था, मजलूमों की बात सुनता था। संयोग से उसके नगर में आग लग गई। उसने सयानों से इसका कारण पूछा। किसी के मुँह से निकल गया, “उनकी धरती पर बहुत द्रोह हो गया है। खेड़े किसी की
विवाहिता को जबरन डोली में डाल लाए हैं। जिसकी वह थी, वह पता लगाकर निकाल ले गया।” खेड़े बहुत शक्तिशाली थे। भाग-दौड़कर उन्हें पकड़ लिया व इतनी अधिक मार मारी कि देखा नहीं जाता था।
राजा ने खेड़ों को हीर सहित अदालत में मँगा लिया। राँझे को चोट खाया देखकर हीर बिलख उठी व सभी के सामने उसके गले जा लगी।
खेड़ों ने गवाह पेश किए कि वे सेहरे बाँधकर काजी से निकाह पढ़वाकर हीर को ब्याह लाए थे। राजा ने राँझा से पूछा व राँझे ने उत्तर दिया, “गवाही हीर की लेकर ही बात पूरी हो सकती है। पहले उसकी बात सुन ली जाए।”
राजा ने हीर को कहा, “वह निडर होकर सच-सच बात बताए। सच बात कहने पर उसके राज्य में किसी प्रकार का भय नहीं है।”
हीर बोली, “खेड़े मुझे सेहरा बाँधकर ही लाए थे, किंतु मेरा विवाह सैदे खेड़े के साथ नहीं हुआ था। ऊँची आवाज में बोलकर मैंने काजी को कह दिया था कि मैंने परमात्मा को हाजिर-नाजिर मानकर विवाह राँझे से कर लिया है। फिर भी जोर-जबरदस्ती माँ-बाप ने मुझे डोली में डाल दिया और यह मुझे जबरदस्ती उठा लाए। यदि इच्छा के विरुद्ध हुआ निकाह शरियत में स्वीकार है तो खेड़े सच्चे हैं और यदि मेरी इच्छा निकाह की बड़ी शर्त है, तो मेरा विवाह राँझे से हो चुका व राँझे के साथ ही मैं खेड़ों को त्याग चुकी हूँ।”
राजा पर हीर के साहस व उसके अप्रतिम सौंदर्य का गहरा असर पड़ा व उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि वह हीर व राँझे की सुरक्षा का प्रबंध करे और उन्हें सलाह दी कि वे अपने घर पहुँचकर किसी न्यायप्रिय काजी से शरह की पूर्ति करवा लें।
राँझे ने हीर को सलाह दी कि वे तख्त हजारे चलें। “मैं भी यही चाहता हूँ हीर रानी! भाभियों को जाकर बतालाऊँ कि मैं हीर को ब्याह लाया हूँ, किंत राजा की बात ने मुझे सोच में डाल दिया है।”
“अब काहे का सोच-विचार? राज-दरबार के द्वारा मैं तुम्हारी हो चुकी हूँ, सैनिक भी अब हमारे साथ हैं।”
“बात तो हीर ठीक है, पर भाभियों की जबान तुम जानती ही हो कि कितनी लंबी होती है, वे कहेंगी कि ब्याहकर नहीं, वरन् भगाकर लाया होगा!”
“फिर मेरा राँझना क्या चाहता है?”
राँझे ने चाहा कि वे झंग-सियाल चलें और यदि हीर के माँ-बाप मान जाएँ तो वह भाइयों की बारात लेकर आए व सेहरे बाँधकर अपनी हीर को तख्त हजारे ले जाए!
“ठीक राँझना, बिल्कुल ठीक है। अब मेरे माँ-बाप इनकार नहीं करेंगे। वे खेड़ों के साथ नाराज हैं, खेड़ों ने मुझे मायके नहीं भेजा—कई लोग आए, अब मेरी माँ अवश्य मान जाएगी!”
झंग सियालों की ओर अब वे रवाना हो गए! जब परिचित धरती आ गई, देख-देखकर उनकी प्यारी कहानी दोहराने लगी। वही झनाँ की लहरें, वही सियालों के जंगल व तबेले, वही उनकी भूरी-काली भैंसें व वही सुहावने बाग-बगीचे व वैसी ही कुओं पर पनघट की पनिहारिनें!
चूचक व मलकी सूचना पाकर उन्हें लेने गए। हीर के बिना पूरा गाँव सुनसान हो गया था।
माँ-बाप ने हीर की माँग स्वीकार कर ली थी। राँझा तख्त-हजारे जाने को तैयार हो गया। उसका चाव देख-देखकर हीर अंदर से वंझली निकाल लाई व उसके होंठों से लगा दी।
“ला हीरे, एक स्वर इस पर आलाप ही लूँ, युगों ही बीत गए, प्रतीत होता है। आज फिर यही तान मेरे अंदर गूँजी है, जो भेंट होने पर नौका में मैंने सुनाई थी।”
वंझली की लय सुनकर हीर की आँखें मिच गई थीं, वंझली लौटाते हुए राँझे ने हीर के हाथ चूम लिये व कहा, “पहली वंझली पर मैं तेरे मेहँदी रँगे हाथ आँख चुरा-चुराकर देखता रहा था। एक सप्ताह बाद मैं आऊँगा। इस दिन की भाँति ही तेरे हाथों से मेरी भाभियों को तारे टूटते दिखलाई देंगे।”
पाँच दिन राँझे को गए हुए हो गए थे। सहेलियों ने हीर को दुलहन सा सजा दिया। माँ के चेहरे पर भी रौनक थी।
खेड़े की ओर देखते हुए तो उसका दिल बुझ जाता था। आज हीर की सहेलियों से मिलकर उसने हीर के हाथों में मेहँदी रचाई। उसे उबटन मला और कहा, “मेरी बेटी रानी दीखती है!”
तख्त हजारे में राँझे के भाई यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि वे सियाल में ब्याहने जाएँगे। भाभियाँ राँझे के प्रेम-पूरित चेहरे को देख नई देवरानी से रश्क करने लग पड़ीं, किंतु देवर अब उन्हें बहुत ही प्यारा लगता। उससे बातें पूछ-पूछकर वे अघाती नहीं थीं।
भाइयों ने खेड़ों की बारात को मात देने के निश्चय कर लिये। वे भी कौन छोटे चौधरी थे! दो दिनों का रास्ता था। ताजी घोड़ियों को धोने लगा दिया गया।
पाँचवें दिन हीर के घर में तैयारी के साथ एक और प्रकार की घुसर-पुसर हो रही थी। माँ घर के द्वार पर शरीह की टहनियाँ बँधवा रही थीं, पर चाचा कैदों व चूचक मलक हवेली में ऐकांतिक बैठे थे।
कैदों कह रहा था, “एक ही बेटी के लिए दो बारातें गाँव में आएँ तो हमारा मुँह काला न हो जाएगा?”
चूचक औंधा मुँह किए बैठा था।
“कौन नहीं कहेगा कि बेटी चाकर के साथ खराब हो गई होगी!” कैदों बातों में जहर घोल रहा था।
चूचक ने कहा, “दरवाजे पर आई बारात को अब कैसे लौटाएँगे, कह जो चुके हैं!”
कैदों ने माथे पर से चुटकी बजाकर मानो कोई नई बात ढूँढ़ निकाली हो...भाई को समझाया...“है तो बहुत कठिन बात, पर अब हमें हीर के जीवन से हाथ धोने ही पड़ेंगे।”
चूचक का दिल दहल गया।
“भैया, तुम्हें दिल पक्का करना ही पड़ेगा। जीवित हीर को तख्त-हजारे ले जाएँगे तो हमारा मुँह दो दरगाहों में काला हो जाएगा।”
पहले पिता ने बेटी की खुशी परवान चढ़ाई, आज वही लाड़ों पाली बेटी को पूरी तरह न्योछावर करने को तैयार हो गया।
उसने मान लिया, उसके पुत्रों ने मान लिया कि चाचा कैदों शरबत में जहर घोलकर पीरों का आबे-हयात हीर को पिला देगा।
परसों तख्त-हजारे से सियाल में बारात लानी थी। रात को जब गाने गाकर सहेलियाँ गईं तो माँ ने मिन्नतें माँगीं। तो चाचा कैदों पीरों की सौगात ले आया। आबे-हयात का प्याला, जो दिन-रात उसने पीर बादशाह की कब्र के सिरहाने रखा हुआ था—“हीर तू खुशहाल रहे।” उसने वह हीर को पिला दिया।
आधी रात पड़े हीर को कुछ हो गया। उसने माँ को आवाज दी—“माँ...माँ...वह छींका मेरा इधर करना...मैं मारी गई! माँ...!”
माँ को मानो साँप सूँघ गया हो! छींका वह ले आई। उसमें से हीर ने वंझली उठाकर होंठों को छुआ ली व अपनी छाती पर रख ली।
“अम्माँ मेरी, मिल ले, मैं जा रही हूँ—वह आबे-हयात नहीं था, जहर का प्याला था...मेरी अच्छी माँ!”
माँ बेहोश सी उसके पास ही गश खाकर गिर पड़ी व उसने चीख मारी...“मेरी रानी बेटी!”
“मेरा राँझन राजा!” और हीर की आँखें मुँद गईं।
सारे गाँव में शोक व्याप्त हो गया। घर-घर में कैदों कहता रहा—“जुल्म हुआ, हीर को किसी ने काट लिया है, बारात द्वार पर आई खड़ी है।”
बारात के बाजे द्वार पर बज उठे। कैदों, चूचक व हीर के भाई आगे बढ़कर उन्हें खबर देने गए। सुनकर सभी के रंग उड़ गए, किंतु राँझा न माना।
राँझे ने कहा, “बारात कब्र तक जाएगी। मैं ब्याहने आया हूँ, ब्याहकर ही लौटूँगा। हीर का विवाह मेरे साथ अवश्य ही होगा।”
इस गम की आज्ञा कौन मोड़ सकता था? कब्र पर बारात पहुँच गई। अभी कब्र कच्ची थी, केवल एक ही पत्थर सिरहाने
पक्का रखा था।
“यह है हमारी लाड़ली बच्ची की कब्र, जिस पर भाग्य मेहरबान नहीं हुआ!” चूचक ने रोकर कहा।
राँझे के भाइयों की आँखों से आँसू टिप-टिप बह पड़े। किंतु राँझा कब्र की ओर एकटक देखता रहा, जैसे मिट्टी उसकी चाहत में से हट गई हो और वह हीर की छाती से लगी अपनी वंझली देख रहा हो!
वह कब्र के साथ लेट गया। आलिंगन करके उठा व सिरहाने की ओर जाकर पत्थर उठाकर इतनी जोर से अपने सिर पर दे मारा कि रक्त के फुहारे फूट पड़े व कच्ची कब्र की मिट्टी में रच-मिच गए। राँझा गिरा व उसके मुँह से चीख निकली, “हाय मेरी हीरिये!”
जब उसका गरम रक्त मिट्टी में चू-चूकर हीर की छाती से लगी वंझली तक पहुँचा तो कइयों को लगा कि उन्होंने कब्र में से उठी एक और चीख सुनी—
“हाय मेरे राँझना!”
साभार : फूलचंद मानव
हीर-रांझा: पंजाब की लोक-कथा
पाकिस्तान की चेनाब नदी के किनारे पर तख़्त हजारा नामक गाँव था । यहा पर रांझा जनजाति के लोगो की बहुतायत थी । मौजू चौधरी गाँव का मुख्य ज़मींदार था । उसके आठ पुत्र थे और राँझा उन चारो भाइयों में सबसे छोटा था । राँझा का असली नाम ढीदो था और उसका उपनाम राँझा था इसलिए उसे सभी राँझा कहकर बुलाते थे । राँझा चारो भाइयो में छोटा होने के कारण अपने पिता का बहुत लाडला था । राँझा के दुसरे भाई खेती में कड़ी मेहनत करते रहते थे और राँझा बाँसुरी बजाता रहता था ।
अपने भाइयो से जमीन के उपर विवाद के चलते रांझा ने घर छोड़ दिया । एक रात रांझा ने एक मस्जिद में आश्रय लिया और सोने से पहले समय व्यतीत करने के लिए बांसुरी बजाने लगा । मस्जिद के मौलवी साब जब बांसुरी का संगीत सुना और बांसुरी बजाना बंद करने को कहा । जब राझा ने कारण पूछा तो मौलवी ने बताया कि इस बांसुरी का संगीत इस्लामिक नही है और ऐसा संगीत मस्जिद में बजाना वर्जित है । जवाब में रांझा ने कहा कि उसकी धुन इस्लाम में कोई पाप नहीं है। मूक मौलवी ने दूसरा कोई विकल्प ना होते हुए उसे मस्जिद में रात रुकने दिया ।
अगली सुबह वो मस्जिद से रवाना हो गया और एक दुसरे गाँव में पंहुचा जो हीर का गाँव था । सियाल जनजाति के सम्पन्न जाट परिवार में एक सुंदर युवती हीर का जन्म हुआ जो अभी पंजाब, पाकिस्तान में है । हीर के पिता ने रांझा को मवेशी चराने का काम सौंप दिया । हीर, रांझा की बांसुरी की आवाज में मंत्रमुग्ध हो जाती थी और धीरे धीरे हीर को रांझा से प्यार हो गया । वो कई सालो तक गुप्त जगहों पर मिलते रहे । एक दिन हीर के चाचा कैदो ने उन्हें साथ साथ देख दिया और सारी बात हीर के पिता चुचक और माँ मालकी को बता दी ।
अब हीर के घरवालों ने राँझा को नौकरी से निकाल दिया और दोनों को मिलने से मना कर दिया । हीर को उसके पिता ने सैदा खेड़ा नाम के व्यक्ति से शादी करने के लिए बाध्य किया । मौलवियों और उसके परिवार के दबाव में आकर उसने सैदा खेड़ा से निकाह कर लिया । जब इस बात की खबर राँझा को पता चली तो उसका दिल टूट गया । वो ग्रामीण इलाको में अकेला दर दर भटकता रहा । एक दिन उसे एक जोगी गोरखनाथ मिला । गोरखनाथ जोगी सम्प्रदाय के “कानफटा” समुदाय से था और उसके सानिध्य में रांझा भी जोगी बन गया ।रांझा ने भी कानफटा समुदाय की प्रथा का पालन करते हुए अपने कान छीद्वा लिए और भौतिक संसार त्याग दिया ।
रब्ब का नाम लेता हुआ वो पुरे पंजाब में भटकता रहा और अंत में उसे हीर का गाँव मिल गया जहां वो रहती थी । वो हीर के पति सैदा के घर गया और उसका दरवाजा खटखटाया । सैदा की बहन सहती ने दरवाजा खोला । सेहती ने हीर के प्यार के बारे में पहले ही सुन रखा था । सेहती अपने भाई के इस अनैच्छिक शादी के विरुद्ध थी और अपने भाई की गलतियों को सुधारने के लिए उसने हीर को राँझा के साथ भागने में मदद की । हीर और रांझा वहा से भाग गये लेकिन उनको राजा ने पकड़ लिया ।राजा ने उनकी पुरी कहानी सूनी और मामले को सुलझाने के लिए काजी के पास लेकर गये । हीर ने अपने प्यार की परीक्षा देने के लिए आग पर हाथ रख दिया और राजा उनके असीम प्रेम को समझ गया और उन्हें छोड़ दिया ।
वो दोनों वहाँ से हीर के गाँव गये जहां उसके माता पिता निकाह के लिए राजी हो गये । शादी के दिन हीर के चाचा कैदो ने उसके खाने में जहर मिला दिया ताकि ये शादी रुक जाये । ये सुचना जैसे ही राँझा को मिली वो दौड़ता हुआ हीर के पास पहुचा लेकिन बहुत देर हो चुकी थी । हीर ने वो खाना खा लिया था जिसमे जहर मिला था और उसकी मौत हो गयी । रांझा अपने प्यार की मौत के दुःख को झेल नही पाया और उसने भी वो जहर वाला खाना खा लिया और उसके करीब उसकी मौत हो गयी । हीर और राँझा को उनके पैतृक गाँव झंग में दफन किया गया ।
(पंजाबी साहित्य में इस कथा के सुखांत और दुखांत दोनों तरह के वर्णन मिलते हैं)