हवा बंद क्यूँ है? (कहानी) : हसन मंज़र
Hawa Band Kyun Hai ? (Story in Hindi) : Hasan Manzar
पहली बार जब पहरे वाला सिपाही सलाख़ों के बाहर से गुज़रा तो अहमद को वो ख़याल आया। दूसरी दफ़ा वो उसे आवाज़ देने को हुआ और होंट खोल कर रह गया। उसके बाद सिपाही ने मुतवातिर कई फेरे किए, लेकिन अहमद किसी फ़ैसले पर न पहुंच सका। बिलआख़िर जब उसने आवाज़ दी तो वो इतनी मद्धम थी कि जेल की उस कोठरी में बाज़गश्त भी न पैदा कर सकी।...जैसी आवाज़ सोते में डर जाने के बाद मुँह से निकलती है, बल्कि कोशिश के बावजूद नहीं निकलती।
कोठरी के बाहर बजरी कटी हुई सड़क पर कोहरा छाया हुआ था। दूर से, दूर होती हुई फ़ुल बूटों की धमक सुनाई देरी थी। अगर कोठरी के बाहर साइबान न होता तो चांद बज़ात-ए-ख़ुद नज़र आ जाता। लेकिन अब सिर्फ़ उसकी छाया अहाताॱएॱ निगाह में आती थी और सड़क पर दरख़्तों के साये के चलने से पता चलता था कि आसमान पर बादल भाग रहे होंगे। बावजूद कान लगा कर सुनने के ये मालूम करना मुश्किल था कि लोग अभी जाग रहे हैं या सो गए।
जेल में लोगों को काम ही क्या होता है जो रात गए तक जागें। जो बातें, जो कथा-कहानी सुनानी होती है वो बहुत पहले ख़त्म हो जाती है। क़ैदी सरेशाम सो जाते हैं। संतरी जागते हैं और उकताए से नज़र आते हैं। मुम्किन है वो मुहर्रिर जिसने आख़िरी ख़ाना पुरी की थी अभी जागता हो और लैम्प के पास सर नेहोड़ाए ऊँघ ऊँघ कर कुछ लिख रहा हो। लेकिन वो जगह यहां से दो थी। ज़िंदगी की अकेली पहचान उस वक़्त कुत्तों के बेन पर मुश्तमिल थी... जैसा कि होता आया है।
एक बार फिर से भारी बूटों की चरचराहट नज़्दीक आनी शुरू हुई। एका एकी घुप अंधेरा छा गया और ठंडी हवा का एक झोंका अहमद के जिस्म को छूता हुआ गुज़रा जैसे अंधेरा पड़े क़ब्रिस्तान से गुज़रते हुए किसी ने ठंडे हाथों से उसके जिस्म को पीछे से आ कर छू दिया हो। कोई पल जा रहा है कि बारिश शुरू हो जाएगी और सिपाही अपनी काबुक में जा छुपेगा।
अहमद ने घबरा कर फ़ैसला कर डाला।
उसने ठंडी सलाख़ों में से अपने सर को बाहर निकालते हुए ज़ोर से आवाज़ दी,
देखो, बात सुनो!
दूसरे ही लम्हे उसने महसूस किया फ़ासिला थोड़ा था, इतनी ऊंची आवाज़ की चंदाँ ज़रूरत न थी। अलफ़ाज़ मस्नूई से थे।
सिपाही ने ठिठक कर पूछा, क्या है?
मुझे यहां डर लग रहा है।
डर! तुम्हें?
हूँ! अहमद ने सलाख़ें पकड़े पकड़े ज़मीन पर बैठते हुए कहा।
फिर? क्या हुक्म है? ताशे बाजे बजवाऊँ? तुम्हारी भाभी को बुलवाऊँ?
अहमद ने आख़िरी जुमले को अनसुना करते हुए पूछा, बाहर कोहर है ना?
हुँह कोहर! सिपाही ने बंदूक़ दरवाज़े से थोड़ी हटा कर दीवार से टेकते हुए कहा, बारिश होने वाली है कि कोहर है।
मुझे यहां डर लग रहा है।
तो फिर क्या करूँ। नाचूं? गाऊँ? सिपाही ने पिंडलियों पर फैले हुए रगों के जाल पर हाथ फेरते हुए कहा।
नहीं, ये तो मैं नहीं कह रहा। बस अकेले से जी घबराता है।
तो फिर ढोल ढमका कहाँ से आए? सिपाही ने कहा।
ये जगह सबसे अलग-थलग क्यों है?
जेल मेरे मश्वरे से नहीं बनी थी। जी चाहे तो सुपरिटेंडेंट साहब से पूछ लेना।
मुझे बारक में क्यों नहीं ले चलते?
मैं दरोगा हूँ? सिपाही ने बंदूक़ उठाते हुए कहा।
अहमद ज़मीन से उठ खड़ा हुआ। इस ख़याल से कि मबादा वो कुछ और कहे। सिपाही अपनी जगह पर खड़ा रहा।
फिर डरते डरते अहमद ने कहा, मुझे यहां डर लगता है।
फिर वही बात। डर लगता था तो जेल क्यों आए? सिपाही ने आगे बढ़ते हुए कहा।
तुम थोड़ी देर यहां ठहर जाओ, मुझे अंधेरे से डर लगता है।
सिपाही ने दूर जाते हुए कहा, मुझे तुमसे डर लगता है।
इसके बाद सन्नाटा छा गया।
ड्यूटी रुम में मुहर्रिर ने ज़ोर से चाय की आख़िरी चुस्की ली और प्याली मेज़ पर रखते हुए बोला,
वही लड़का जिसने अपनी भाभी को क़त्ल किया है?... चाय कुछ ठंडी थी आज।
पिछले साल इसी कोठरी में मैंने एक आदमी को दहश्त से मरते हुए देखा था। पहरे का सिपाही बोला, रात को मैं गश्त कर रहा था, पिछले पहर चीख़ने की आवाज़ें आईं। जब हम बत्ती लेकर गए तो वो ऐंठा हुआ पड़ा था, नाख़ुन जंगली कबूतरों के रंग के थे और बाछें नीचे को खिंच गई थीं। पोस्टमार्टम मेरे सामने हुआ था... सुन रहे हो या नहीं?
सुन रहा हूँ! मुहर्रिर ने उकताए हुए लहजे में कहा।
सिवाए इसके कि उसके पेट में केचुए भरे पड़े थे और कुछ नहीं मिला। केचुए भूक से बिलबिला रहे थे, कम से कम उनके लिजलिजाने से तो ऐसा ही दिखाई पड़ता था।
मुहर्रिर बड़े आक़लाना अंदाज़ से बोला, लोग कहते हैं, अंधेरे में इन्सान को अपना आप नज़र आता है। जैसे अंधेरा एक आईना हो और उसमें पिछली तमाम बुराइयां, सारे गुनाह साफ़ दिखाई दें। दिन होता है तो दूसरे ही दूसरे दिखते हैं, दूसरों पर ग़ुस्सा आता है, अपना आप ग़ायब हो जाता है। रौशनी से ज़मीर चुंधिया जाता है।
आम आदमी हो सकता है जब अकेला हो और अंधेरे में तो उसका दिल दहश्त से फट जाता हो। उन हथियारों को अपना आप नज़र आता है लेकिन उनके दिल नहीं फटते। वर्ना इतने आदमियों को रोज़ फांसी देकर नहीं मारना पड़ता। उसे डर-वर कुछ नहीं लग रहा है, अपना आप नज़र आ रहा होगा, यार तुम्हारे सिगरेट में से हमेशा चम्बेली के तेल की बू आती है।
उस लड़के को अंधेरे में अपना आप नज़र आता हो ये बात ठीक नहीं है। सिपाही ने मुहर्रिर के सामने वाली कुर्सी से उठते हुए कहा, अभी तो उसके दाढ़ी भी ठीक से नहीं निकली है।
दाढ़ी का क़त्ल से कोई रिश्ता नहीं, जिनके दाढ़ी होती है वो भी क़त्ल करते हैं, जिनके नहीं होती वो भी। मुहर्रिर ने मामूराना अंदाज़ से जवाब दिया।
सिपाही ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए कहा, मेरा मतलब उम्र से है भय्या। तुम ख़ुद सोचो उसकी उम्र क्या है। सतरह या ज़्यादा से ज़्यादा अठारह। अठारह बरस का था तो मैं अपनी औरत को अपनी बीवी कहते हुए शरमाता था।
ठंडी हवा का एक झोंका उसके चेहरे को छूता हुआ निकल गया।
कुछ देर ख़ामोशी रही।
सिपाही दोबारा कुर्सी पर बैठ गया।
मैं पछतावे की बात कर रहा था। मुहर्रिर ने बेरहमी से कहा, पछतावा उन्हें होता है जिनका दिल मासूम हो!
मैं भी पछतावे की बात कर रहा हूँ। पछतावे की भी उम्र होती है। सिपाही ने चिड़ कर कहा।
अच्छा जाओ, पहरे पर जाओ। मुहर्रिर ने जमाई लेते हुए कहा और आँखों पर पानी का छपका मारने चला गया।
कमरे से बाहर निकल कर सिपाही ने देखा बारिश हो कर थम चुकी है और जेल की सड़कों पर कीचड़ खड़ी है। वो कुछ देर बरामदे में सतून से टेक लगाए खड़ा रहा। मुहर्रिर दिन रात उर्दू के रिसाले पढ़ पढ़ कर अपने साथियों के सामने दून की लेता था। वो ख़ुद शे'र कहता था और अच्छा शे'र सुनकर दाद भी ऊंची आवाज़ में दे सकता था। इस वक़्त सिपाही को उससे नफ़रत महसूस हो रही थी। पछतावे के इस बेरहम तजज़िये ने उसे बड़े कठोर रूप में उजागर कर दिया था।
जिस कोठरी में अहमद था वो जगह सबसे अलग-थलग थी। उस कोठरी की पुश्त पर वो नाला खुलता था जिसके मुँह पर लोहे की सलाख़ें लगी हुई थीं। बादल छट गए थे और चांद, पूर्णमाशी का पूरा चांद, बड़ी तेज़ रफ़्तारी से आसमान में भाग रहा था। हवा के सिवा सारी कायनात हरकत में थी। यही आख़िरी चीज़ थी जिसे सोच कर सिपाही ने अहमद की कोठरी की तरफ़ जाने का इरादा तक़रीबन तर्क कर दिया। हवा के न होने ने!
उसे मालूम था इस वक़्त अगर वो अहमद की नज़र पड़ गया तो उसका पहला सवाल होगा:
हवा क्यों बंद है?
बारिश से नहाई हुई सड़क पर चलते हुए सिपाही ने कोठरियों के अंदर निगाहें गड़ा कर देखा। मटियाले कम्बल ओढ़े कुछ क़ैदी सो रहे थे। कहीं पर घुप-अँधेरे में बीड़ी का जलता हुआ सुर्ख़ सिरा एक बार नीचे ग़ोता खा कर दुबारा ऊपर लौट आया। तब ही एक मरी मरी सी आवाज़ आई:
आज हवा क्यों बंद है? जैसे किसी ने उसे झिंझोड़ डाला हो।
ये तो हज़रत मीकाईल से पूछो। सिपाही ने दिलचस्पी लेते हुए क़दरे तवक़्क़ुफ़ से कहा।
शायद बारिश की वजह से हवा ठेर गई है। अहमद ने लजाजत से कहा, बारिश हुई है ना! बारिश के बाद आम तौर पर हवा रुक जाती है।
जब तुम्हें हर बात का जवाब ख़ुद मालूम है तो मुझसे क्यों पूछा करते हो। लेट कर सो रहो। मेरा वक़्त क्यों बर्बाद करते हो?
वक़्त कैसे बर्बाद कर रहा हूँ भाई? मुझे मालूम है बारक में कोई ख़तरनाक क़ैदी नहीं है। दूसरी कोठरियां तीन चार दिन से ख़ाली पड़ी हैं। सुबह ही जमादार से मैंने पूछा था, यहां कौन कौन ख़तरनाक क़ैदी हैं? जो सबसे ख़तरनाक क़ैदी है वो मैं हूँ। फिर अगर थोड़ी देर, चाहे अपनी बंदूक़ ही लिये, तुम मेरी कोठरी के सामने ठहर गए तो क्या हुआ। इस तरह वक़्त अच्छा गुज़र जाता है।
सिपाही ने बूट के तलवे को कगर से रगड़ते हुए कहा, वक़्त तो तुम्हारा ख़त्म ही हो चुका है। इसके अच्छे या बुरे गुज़रने का क्या सवाल है।
फिर उसने महसूस किया ये बात मुहर्रिर के कहने की थी। एक आदमी से... बल्कि एक लड़के से... जिसका वक़्त ख़त्म हो चुका है, ये नहीं कहना चाहिए था। ख़िफ़्फ़त मिटाने के लिए उसने दिल में कहा, तौबा यहां की मिट्टी कितनी चिकनी है, एक-बार तले से चिमट जाये छुटने का नाम नहीं लेती।
मौक़ा से फ़ायदा उठाते हुए अहमद ने कहा, जब तले से कोई चीज़ चिम्टी हुई हो तो चलने में अजीब बेचैनी सी रहती है जैसे दाँतों में कुछ फंसा रह जाने पर मालूम होता है।
हाँ आदमी बेकल हो जाता है। सिपाही ने कहा।
मुझे यहां बेहद डर लगता है। मेरा मतलब है जब कोई आस-पास न हो।
मौत का ख़याल आता है?
अहमद ख़ामोश रहा। भाभी
नहीं, सिपाही ने दीवार से बंदूक़ टेकते हुए कहा, भाभीअंधेरे में से झाँकने लगती है?
उंह!
पिछले साल जो आदमी यहां दहशत से मर गया था किसी ने उसकी कहानी तुम्हें सुनाई है?
नहीं।
फिर लेट कर सो रहो। नींद आ जाएगी।
अहमद सलाख़ें पकड़े पकड़े ज़मीन पर बैठ गया। सिपाही ने हथेलियाँ रगड़ते हुए पूछा, अहमद आख़िर सच्ची बात क्या है? तुमने अपनी भाभी को क़त्ल क्यों किया था?
मुझे नहीं मालूम। अहमद ने बेध्यानी से जवाब दिया।
असली बात बग़ैर किसी से कहे ही मर जाओगे?
पता नहीं! अहमद ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
लोग कहते हैं, तुम्हारे भाई को अब भी तुमसे बड़ी मुहब्बत है?
अहमद ख़ामोश रहा।
सिपाही ने बेज़ार हो कर बंदूक़ उठाई और आगे चल पड़ा।
अहमद ने चौंक कर कहा, मुझे बेहद डर लग रहा है भाई, यहां हवा बिल्कुल नहीं है। खिड़की हवा के रुख...
सिपाही ने दूर होते हुए कहा, मुझे मालूम है, तुम्हारे शीश महल में न रौशनी है न पंखा।
थोड़ी सी देर और ठेर जाओ। अहमद ने घिघियाते हुए कहा।
मैं जा कर पंखा खींचने वाले क़ुली को भेजता हूँ। दूर से सिपाही की तमसख़ुर आमेज़ आवाज़ आई। फिर बजरी पर बूटों के चलने की आवाज़ डूबती चली गई।
कमरे में घुप अंधेरा था। जैसा क़ब्रों के अंदर होता है और वो सीलन जो साल-हा-साल से बे मकीन इमारतों का ख़ासा होती है।
सिपाही के चले जाने के बाद अहमद पहले तो कुछ देर सलाख़ों को पकड़े बाहर अंधेरे में घूरता रहा, फिर घबरा कर उसने अपनी पुश्त की तरफ़ खिड़की को देखा। बहुत से सवाल सानिए को लहरों की तरह आगे पीछे उसके ज़ेह्न से हो कर गुज़र गए जिनमें पिछली रात का ख़्वाब भी था।
लेकिन ऐसे अंधेरे में उसकी नौ-उम्र भाभी ने जिसके पेट में पहला बचा था उसे आकर तंग नहीं किया। मौत जो यक़ीनी थी उसका वो दहशतनाक रूप भी उसके सामने नहीं आया जिसे सोच कर ही बहुत से पैग़ंबर और फ़ातिह रो पड़ते थे।
वो कौन आदमी था जो पिछले साल दहश्त से यहां मर गया था? अहमद एक कोने में दुबकने लगा, लेकिन सलाख़ों वाली खिड़की और सलाख़ों वाला दरवाज़ा ऐसा लगता था चौपट खुले हुए हैं!
पिछली रात झपकी आने पर उसने देखा था उसके पत्थर जैसे सर में आर-पार एक सुराख़ है जिसमें से एक साँप बाहर को सर निकालता है। अहमद ने लकड़ी से जूं ही साँप पर वार किया, साँप ने अपना सर अंदर कर लिया। लकड़ी उसकी कनपटी पर पड़ी। दर्द की तकलीफ़ से पत्थर के सर ने अपनी आँखें खोल दीं।
अहमद की आँख भी खुल गई।
उसने डरते डरते गर्दन लंबी कर के सलाख़ों में से बाहर झाँका और दोबारा गड मडी मार कर बैठ गया। इस घुप अँधेरे में वहशत थी। अंधेरा न क़त्ल की वारदात दोबारा सुना रहा था, न फांसी पाने के ख़ौफ़ को इस पर मुसल्लत कर पाया था। वैसे भी फांसी का जिस्मानी ख़ौफ़ फ़िलहाल बेमानी था, क्यों कि उसने कभी किसी को फांसी चढ़ते नहीं देखा था।
कहीं एक उल्लू अपनी भद्दी आवाज़ में दो तीन बार चीख़ा। अहमद ने अपने पूरे जिस्म को सुन्न होते हुए महसूस किया। यही अंधेरे का ग़म बूदगी, बे-कली और दहश्त का पैग़ाम था।
धीरे धीरे कोठरी में भी चांदनी फैल गई।
अहमद ने खड़े हो कर खिड़की की दहलीज़ पर हाथ फेर कर देखा। एक जली हुई मोम-बत्ती का, सीमेंट पर फैला हुआ मोम और एक पुराना मालूम नहीं कब की ये दो चीज़ें वहां पड़ी रह गई थीं। कई बार वो सोने के लिए लेटा और जूं ही ग़ुनूदगी तारी होने लगती आँख खटके से खुल जाती थी। जैसे खिड़की की तरफ़ ये कोठरी ग़ैर महफ़ूज़ है। कोई झांक रहा है। कई बार उठ उठ कर वो दरवाज़े की सलाख़ों तक आया। कितनी ही बार वो खिड़की तक गया... जिस तरह बच्चे रात को पलंग से नीचे पैर रखते हुए घबराते हैं और डर के बावजूद कभी कभी लटक कर नीचे झाँकने की कोशिश भी करते हैं।
सुबह जब सिपाहियों ने आ कर उसे देखा तो उसके हाथ खिड़की की सलाख़ों को मुट्ठियों में भींचे हुए थे। नाख़ुन जंगली कबूतर के रंग के थे। बाछें नीचे को लटक गई थीं और उसका जिस्म ऐंठा हुआ था। बे-नूर आँखें खिड़की के बाहर नाले की तरफ़ घूर रही थीं।
सुबह के दस बजे अहमद का पोस्टमार्टम पीर बख़्श ने किया जो इससे पहले उसकी भाभी का पोस्टमार्टम भी कर चुका था और जिसके बारे में मशहूर था कि लाश पर चाक़ू चलाते हुए उसके कान डाक्टर और पुलिस के सिपाही की गुफ़्तगू पर रहते हैं। हर पोस्टमार्टम का मतलब उसके नज़दीक एक नई कहानी होता है। लोग कहते हैं अगर उसका बस चले तो वो कहानी के फ़िराक़ में पूरे शहर को पोस्टमार्टम की मेज़ पर ला लिटाए।
जेल के मुहर्रिर ने कहा, ताज्जुब है इस लड़के के पेट से भी केचुवे निकले!
एक बुढ़िया ने जो अपने किसी रिश्तेदार से मिलने आई थी कहा,
आटे में मिट्टी मिली होती है भय्या। जब पेट में मिट्टी होगी तो केचुवे आप ही रहवेंगे।
साढ़े दस बजे एक लंबा तड़ंगा आदमी लाश लेने अकेला आया और बैलगाड़ी पर लाश को लाद कर चला गया। लाश पर पड़ी हुई ख़ुश्क घास गाड़ी से दूर तक गिरती चली गई क्यों कि हवा तेज़ थी।
लोगों ने कहा, वो मरने वाले का बड़ा भाई था जिसकी बीवी को मरने वाले ने क़त्ल किया था।
गाड़ीबान गाड़ी हाँक रहा था और वो आदमी बहली के साथ साथ चला जा रहा था। ऐसा लगता था उसकी कमर टूट गई है।
कहा जाता है, क़त्ल की वजह उसे मालूम थी।
कुछ लोग कहते हैं, नहीं, सही वजह उसे भी नहीं मालूम।
लेकिन इस बात की अहमियत ही क्या है।