हत्यारा : वनिता वसन्त झारखंडी

Hatyara : Vanita Vasant Jharkhandi

अचानक ही एक आदर्श चेहरा काले धब्बों में रंग सा गया था। जिसे लोग अब तक सहनशीलता का प्रतीक मानते थे आज वह एक हत्यारा मान लिया गया था। लोगों ने उससे जुड़े अपने रिश्ते को भी खत्म सा कर लिया था। पर यह घटना मेरे लिए बहुत सारे प्रश्नों के तीरों से मन और मस्तिष्क को बेध रहा था। मेरी पहचान उससे नहीं थी और न ही उसके परिवार को मैं जानती थी पर मेरा मन क्यों बूझ सा गया था। दीनबंधू यही नाम था उसका। सच में दीन ही तो था कुछ क्षण पहले तक। और अब.... अब वह एक हत्यारा बन गया था।

उसकी पत्नी रेबा तेज तर्रार। दोनों के स्वभाव में जमीन और आसमान का अन्तर था। रेबा एक गजेटेड आफिसर थी। दीनबंधू भी सरकारी नौकरी करता था पर रेबा के आगे उसका व्यक्तित्व दबा-सा ही रहा। कभी उसे ऊंची आवाज में बात करते नहीं देखा और न ही कभी पत्नी की बातों को काटते ही देखा। उसने यदि दिन को रात कहा है तो बेचारे दीनू की कहा मजाल थी कि वह उसे दिन कहे।

रेबा का यह रवैया सिर्फ उसके पति के लिए ही नहीं था घरवाले, मायके वाले सभी उसके व्यवहार से परेशान ही रहते थे। उसे दो टूक कहने की आदत थी और यह दो टूक वाक्य भी उसके द्वारा ही सही और गलत तय किए जाते थे जिसे सभी को स्वीकार करना था। कौन उससे लड़े सभी शान्ति चाहते थे सो चुप ही रह जाते थे।

रेबा बचपन से ही प्रतिभाशाली थी। वह जिस घर में पली बढ़ी वह बहुत ही अनुशासन प्रिय था। हर चीज अनुशासन के अन्दर ही आती थी। ऐसे में रेबा का जीवन अनुशासन के ही सांचे में पूरी तरह ढल चुका था। उच्च शिक्षा के साथ ही सरकारी पद पर गजेटेड आफिसर  का सफर तय करते-करते हुए वह कठोर हो गई थी। उसके मुंह से निकलने वाला वाक्य मानों एक आर्डर की तरह ही निकलता था। अनुशासन तो उसके घर में सभी पर लागू था पर न जाने क्यों वह बहुत ही शुष्क थी। इसका एक कारण शायद उसका रूप था। प्रतिभासम्पन्न होने पर भी उसका काला रंग था जो उसके व्यक्तित्व को दबा से देता था। उसके लिए रिश्ते मुश्किल से ही आते थे। कठोर व्यवहार होने के कारण कोई लड़का उसे प्रेम निवेदन भी कैसे करे। ऐसी स्थिति में उसके घरवालों को उसकी बड़ी चिन्ता थी कि कैसे होगी उसकी शादी?  आम लड़कियों की शादी जब चट मगंनी और पट विवाह में तब्दील होता था वही पर रेबा के यहां उसके लिए लम्बा इंतजार करना पड़ा था। कहते है जोड़ी भगवान बनाते है। ऐसे में भगवान ने ही दीनबंधू जैसा पति भेज दिया था। वह चिल्लाती और दीनबंधू चुप रहता। वह शासन करती और वह उसे मान लेता।

रेबा हर कही अपने स्वाभाव के कारण जानी जाती थी। आफिस हो या परिजनों का घर जहां वह जाती आधे से अधिक लोग वहां दूसरी ओर हट जाते थे। घर में शादी हो तो सबों के लिए मुसीबत होती थी क्योंकि उसकी उपस्थिति लोगों को पसन्द नहीं होती थी। अब तक ऐसा कोई समारोह नहीं हुआ था जिसमें उसने सीन क्रिएयट न किया हो। जब तक वह अपनी भाभियों  को नीचा न दिखा दे तब तक सुकून नहीं मिलता था आखिर वह उन सबसे ज्यादा खुद को योग्य मानती थी। लोगों का उससे भय खाना भी उसे भाता था। उसे लगता था कि व्यक्तित्व ऐसा ही होना चाहिए नहीं तो हर जन लड़कियों को सस्ता ही समझ लेते है। रेबा चाहती थी कि वह जहां भी जाए उसे तव्वजों मिले। सब उसके आगे-पीछे घूमें। उसे जो चाहिए वह उसके हाथों में लाकर थमा दे। घर में दिए जाने वाला सबसे कीमती और अच्छे उपहार पर उसी का हक होता था। जब ऐसा नहीं होता था तो बस महाभारत शुरू हो जाती थी। ऐसी ही दीनबन्धू के वैवाहिक जीवन की गाड़ी भी चलती रही। उसकी एक लड़की थी। वह भी मां के शासन मे ही बड़ी होती चली गई।  सब कोई आपस में रेबा के कठीन स्वाभाव का जिक्र करता और दीनबंधु के विनम्र स्वभाव की तारीफ करते नहीं थकता था। लोगों का तो यहां तक कहना था कि दीनबंधु है तभी चल रहा है वरना रेबा के साथ कौन जीवन गुजरा सकता है इतने साल।

कुछ समय से रेबा के स्वाभाव में थोड़ा-थोड़ा बदलाव आया था। उसकी बेटी की शादी तय हुई थी। वह जानती थी कि घर में, परिवार में ऐसी कोई शादी नहीं हुई थी जिसमें उसने तमाशा न किया हो पर अब ... अब तो उसके ही घर में शादी थी। क्या होगा? सब कोई आएंगे तो, समाज में नाक तो नहीं कटेगी आदि इन्हीं वजह को ही उसके स्वभाव में बदलाव का कारण मान लिया गया था पर अब लगता है कि इसके पीछे कोई और कारण रहा हो जो उसे बदलाव लाने को मजबूर कर दिया था। 

एक दिन खबर सुनी की रेबा रसोई पकाते हुए जल गई है और उसे अस्पताल ले जाया जा रहा है। डाक्टरों ने भी 72 घंटे का समय दे दिया था। यह बात को स्वीकारने जैसी नहीं थी कि रसोई पकाते हुए इतना कैसे जल गई। उसके भाई को पता नहीं कुछ संदेह हुआ था पर किसी पर संदेह करता गउ... दीनबंधु पर ... नहीं वह तो ऐसा कर ही नहीं सकता था। पति, भाई-भाभी सभी अस्पतालों के चक्कर कांटने लगे। रेबा के भाई ने मौका निकाल कर  रेबा से पूछा था कैसे घटना घटी। रेबा ने अस्पताल के बेड पर लेटे हुए भाई की ओर देखती रही। उसकी आंखों से आँसू बह रहे थे। उसने सिर्फ इतना ही कहा कुछ नहीं भैया रसोईघर को किरोसिन से साफ किया था। उसके बाद चावल चढ़ाया था। चावल के पात्र को आंचल से उतारने लगी तो बस आग ने पकड़ लिया। साड़ी के कोर में किरोसिन लगा था इसलिए आग और भड़क गई। रेबा की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। यह आंसू क्यों बह रहे थे क्या वह जान चूंकि थी कि यह समय उसके जीवन की अंन्तिम घंडिय़ां है या फिर जीवन की सबसे बड़ी हार का सदमा था जिसे कोई समझ नहीं पा रहा था। आखिरकार 72 घंटा पार कर लेने के बाद भी सबसे लडऩे वाली रेबा मौत से नहीं लड़ पाई और उसका हर वक्त खोलता खून धीरे-धीरे शान्त हो गया।

सभी ने तो मान लिया था कि यह महज एक दुर्घटना है। समय बीता बेटी भी ब्याह के अपने ससुराल चली गई थी। बड़े से मकान में तन्हा दीनबंधू रह गया था। सब लगभग भूल गए थे पूरी घटना को, और हां शायद दीनबंधू को भी। पर तीन साल भी नहीं बीता था कि दीनबंधू की मौत की खबर ने सबको चौंकासा दिया था। इतना ही नहीं उसकी मौत ने उसे एक बड़ा अपराधी भी बना दिया था।

सुबह कबूतर को दाने खिलाते हुए ही सुना था कि दीनबंधू ने आत्महत्या कर ली है। उसने जहर खा कर जान दे दी। उसके पास से एक सुसाइड नोट भी मिला था जिसमें उसने लिखा था मैं कंगाल हो गया....इतनी सम्पत्ति, घर, बेटी सभी तो था पर खुद को कंगाल कैसे हो सकता था... खैर.....

लोग परिजन उसके अन्तिम यात्रा में भी शामिल होना तो कतराते दिखे। कुछ तो उसके बारे में बात करना भी नहीं चाहते थे। दबी आवाज से जिस बात का पता चला वह थी दीनबंधु का किसी महिला के साथ अफेयर। पत्नी के मरने के तुरन्त बाद ही उसने शादी कर ली थी जिसकी खबर किसी को नहीं थी। उसकी बेटी ने भी पिता से चुपचाप किनारा कर लिया था ताकि पिता के इस उम्र में शादी की बात छुपी रहे। उसने लगभग मायेक आना भी छोड़ दिया था। कभी  कदाद पिता ही उससे मिलने आते थे पर बेटी उनसे सीधे मुंह बात नहीं करती थी।

दीनबंधु ने  अपना मकान में ताला लगा दिया था और अपना ट्रांस्फर दूसरी जगह करवा दिया था ताकि परिजनों का सामना भूल से भी न हो जाए। वहीं पर एक मकान किराए पर ले रखा था और उसी महिला के साथ रहने लगा था। इसकी बात की खबर रेबा के घरवालों को दीनबंधू के आत्महत्या के बाद ही लगी थी। इसके पहेल तक उन्हें इस बारे में नहीं मालूम था। जैसे ही इस बात का खुलासा हुआ वैसे ही सबने रेबा की मौत जो की अब तक  एक दुर्घटना थी वह हत्या का सार्थक प्रयास मान ली गई थी। सबने बात को न बढ़ाकर चुप्पी साध ली थी। मानों कुछ हुआ ही न हो या फिर दीनबंधु से उनका कोई नाता ही न हो। रेबा के भाई ने कहा भी था जब बहन ही नहीं रही और उसके पति ने दूसरी शादी कर ली तो उससे हमारा रिश्ता ही कैसा।

दीनबंधू के बारे में सोच रही थी क्या वह सच में हत्यारा था, क्या उसी ने रेबा की हत्या की थी। दरअसर दीनबंधु का मंजूश्री के साथ लम्बे समय से प्रेम था। इसकी जानकारी रेबा को भी हो गई थी। नैतिकता की बातें करने वाली रेबा हमेशा ही अपनी भाभियों पर धोंस जमाते हुए कहा करती थी कि पति को ठीक रखना पत्नी के हाथों में होता हैं। यदि पति बिगड़ता है या फिर दूसरी औरत के पास जाता है तो उसकी जिम्मेदार कोई और नहीं उसकी पत्नी ही होती है। पर रेबा अब क्या करे ? भाभियों को चेतावनी देने वाली रेबा अपना दुखड़ा उनसे कह भी नहीं सकती थी। कहती तो उसके झूठे दम्भ का क्या होता। 

दुघर्टना के कुछ दिन पहले वह आफिस के काम से बाहर गई थी। बेटी भी काम पर गई थी। उसे तेज बुखार आने के कारण ही उसे अपना टूर बीच में ही छोड़कर घर आना पड़ा था। उसने घर में प्रवेश करते ही देखा कि उसका पति उस महिला के साथ चाय पी रहा है बस वह आपे से बाहर हो गई। बहुत हंगामा हुआ। महिला घर से चली गई पर हंगामा बढ़ता ही गया। उसी रात को सोते वक्त दीनबंधू और रेबा के बीच इसी घटना को लेकर बात हो रही थी। दीनबंधू ने भी पूरी ताकत समेटते हुए अपनी बातों को रेबा के सामने स्पष्ट कर दिया था।

दीनबंधु - मैं इस शादी से खुश नहीं हूं। सुबह शाम सिर्फ तुम्हारे अनुशासन में रहते हुए मैं तंग आ चुका हूं। तुम से शादी करके मुझे क्या मिला। तुम एक मालिक की तरह रही और मैं तुम्हारे घर की रखवाली करने वाला एक वफादार कुत्ता ही बन कर रह गया। कभी तुम्हें नहीं लगा कि मैं तुम्हारा पति हूं मुझे तुम्हारी जरूरत है। कभी हम पास-पास बैठे, प्यार से बातें करे और कभी हाथों में हाथ लेकर स्वप्नील दुनियां में खो जाए पर शादी के 25 साल बीत गए पर मैं उस अनुभूति को तरसता ही रहा। सारे दिन काम करने के बाद जब लोग अपने घर को लौटते है तो उनके चेहरे खिल से जाते है वहीं मैं घर जाने के नाम से ही भयभीत हो जाता था। बच्ची के सामने भी तुमने मुझसे सिर्फ दुत्कारा। अब मेरे मेें सहने की क्षमता नहीं है रेबा। मुझे मंजूश्री से बातें करके अच्छा लगता है। मैं नहीं जानता कि वह कैसी है, हमारा रिश्ता क्या है, पर मुझे तुम्हारे पास जो नहीं मिलता वह मंजूश्री के पास मिलता है। तुम हो सकता है हर क्षेत्र में सफल हो पर एक पत्नी के रूप में असफल रही हो। मैंने कई बार तुम्हें समझाने का प्रयास किया पर तुम्हारी तेज आवाज के नीचे मेरी भावनाएं हमेशा की तरह ही दब गई। मैं अशान्त ही हूं रेबा...

रेबा के पैर के नीचे की जमीन खिसक गई। हर वक्त, हर जंग जीतने वाली रेबा आज खुद से हार गई थी। वह बूत बन चूकी थी। रात कैसे गुजरी नहीं मालूम। उसे लगा था कि वह स्थिति को सम्भाल लेंगी। थोड़ा नम्र भी हुई थी पर स्थिति इतनी खराब हो जाएगी उसने नहीं सोचा था। दूसरे दिन रोजमर्रा के काम करते हुए बेटी के सामने सामान्य नजर आने के लिए रेबा उससे बात कर रही थी। कभी आफिस की तो कभी सहेलियों की बातें पूंछ रही थी। कीचन को किरोसिन से साफ कर रही थी। गैस पर चावल उबल रहे थे। उसके बाद जो हुआ हम जानते है।

दीनबंधू की मौत फिर क्यों हुई ? यह प्रश्न मन में ठीक उसी तरह से उठ रहा था जैसे सागर से उठने वाली लम्बी-लम्बी लहरें उछल-उछल कर न जाने कहा समा जाती है।

उसने ही तो मंजूश्री का साथ चाहा था। उसने जिस खुशी की कल्पना की थी वह तो उसे जरूर मिल गई होगी... फिर क्यों?

मंजूश्री जब तक एक मित्र थी अच्छी थी, भली थी। वह जब खिलखिला कर हंसती थी तो दीनबंधू को बहुत ही अच्छा लगता था क्योंकि इस तरह से खुलकर हंसते उसने रेबा को कभी नहीं देखा और वह जब जोर से हंसता तो रेबा को वह पसन्द नहीं आता था। उसकी अदाओं को देखते हुए लगता था कि इसी की तलाश दीनबंधू को थी। वह भी ऐसी ही खुशमिजाज पत्नी की चाहत रखता था। इसी मरीचिका की ही तलाश में रेबा से मंजूश्री की ओर बढ़ा था। पर एकाएक रिश्ते की डोर बंधते ही सब कुछ वैसे ही उलझ गया जैसे रश्म के सूते आपस में उलझ जाते है और सुलझाते वक्त उसमें कई गांठे पड़ जाती है। इन गांठों से छुटकारा सूते तो तोडऩे पर ही मिलता है।

कुछ सप्ताह ही बीता था पर दीनबंधू को अब सब अटपटा सा लगने लगा। इतने दिनों की रेबा की आदत मंजूश्री के आने पर बदलने को तैयार नहीं थी। मंजू सुबह नौ बजे के बाद ही उठती थी। नौकरानी सिरहाने चाय लेकर आती वह बेड टी पीने के बाद फिर माथे पर तकिया सिर पर ढाप कर मुंह घूमाकर सो जाती थी।

दीनबंधू अकेले ही डाइनिंग टेबल पर बैठकर नाश्ता करता और आफिस चला जाता पर मंजूश्री बेड पर ही पड़ी रहती। रात को भी जब दीनबंधु आता तो मंजू श्री नजर नहीं आती। वह सामने की बालकनी से सामने बह रही गंगा को ही देखता रहता। उसका अकेलापन उसे सालता था। इस तरह के जीवन की उसको आदत ही नहीं थी। रेबा कभी भी छह बजे के बाद तक सोने नहीं देती थी। बिना मुंह धोए, ब्रश किए चाय भी पीने नहीं देती थी। चाहे जो हो जाए वह सुबह की चाय बनाती और फिर दोनों बगीचे में बैठकर साथ ही चाय पीते थे।

एक दिन दीनबंधू आफिस से घर पर आया तो उसने देखा रोज की तरह ही मंजू घर पर नहीं है। रात के 11 बज गए पर मंजूश्री का कोई पता नहीं है। मोबाइल फोन पर भी जवाब नहीं दे रही है। उसे चिन्ता होने लगी। लगभग रात के 12 बजे एक गाड़ी आई और उसे उतार कर चली गई। दीनबंधू उसे देखता ही रहा। वह कुछ बोलता उसके पहले ही मंजू बोली, ऐसे क्या घूर रहे हो। गाड़ी में कोई नहीं था। मैं अपने पैसे खर्च करके गाड़ी बुक की थी।

दीनबंधू - मैंने तुमसे तो कुछ नहीं कहा.. तुम इस तरह से क्यों बोल रही हो।

मंजूश्री - नहीं मैं जानती हूं कि तुम मुझ पर संदेह करते हो। तुम्हारी बीबी भले मर गई है पर तुम उसी को प्यार करते हो तभी तो उस मकान में ताला लटाकर रख छोड़ा है। बार-बार कहा कि घर को बेच दो हम यही शिफ्ट हो जाते है पर तुम नहीं मानते। उस घर से ही तुम्हारा जुड़ाव है। रेबा की कितनी सुन्दर-सुन्दर साडिय़ां है, गहने है... सब पड़ा है... मैं तुम्हारी पत्नी हूं और वे चीजें तुम्हारी पत्नी का है यानी मेरा है पर कुछ भी तो तुम मुझे नहीं देना चाहते यह क्या है..... तुम्हारा प्यार।

दीनबंधू को तो बातें सहने की आदत थी वह चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट गया।

रात भर उसे रेबा की याद आती रही। रेबा उसे डांटती थी पर इस तरह से बेइज्जत नहीं करती थी। वह उन चीजों को कैसे उसे दे सकता था जिसको छूने भर से रेबा के स्पर्श और उसके साथ बीते समय का एहसास हो आता था। उस घर में कितने ही अच्छे-बुरे,जीवन के उतार-चढ़ाव को झेला था।

दीनबंधू को पिछले महीने की याद आ गई उस दिन मंजू का जन्म दिन था। उसके कुछ मित्रों ने सरप्राइज देते हुए बड़ा सा केक लेकर घर पहुंचे थे। मंजू कैक काटते हुए बहुत खुश थी। उसने केक का बड़ा सा टुकड़ा लेकर दीनबंधू के मुंह में ठूसने लगी। दीनबंधू ने केक का टुकरा हाथ में लेते हुए कहा नहीं मुझे शुगर है...

तो क्या हुआ... एक दिन खा लोगे तो कुछ हो नहीं जाएगा। रेबा का चेहरा दीनबंधु के सामने संजीव हो गया थो जो उसे खाने से रोक रही थी। वह जानती थी कि दीनबंधू को जटिल मधुमेह हमेशा हाई रहता है। वह उसे जरा भी मीठा नहीं खाने देती थी। समय पर दवा देने के साथ ही नीम के पत्ते, करेले का जूस आदि भी उसे दिया करती थी। साथ ही घर के तमाम तनाव उसने अपने सिर पर ले लिया था जिससे वह अब तक मुक्त था। पर मंजू के रोज-रोज की शिकायतें, हर रोज की बढ़ती मांग और अनुशासनहीन जीवन अब कुछ भी रास नहीं आ रहा था। 

रेबा गुस्सेल थी पर वह तो दीनबंधू से प्यार करती थी ईमानदार प्यार जिसे अपने कड़े व्यवहार के कारण सामान्य महिलाओं की तरह प्रदर्शित नहीं कर पाई थी। यही उसका सबसे बड़ा अपराध था। इसका एहसास दीनबंधू को अब अधिक होने लगा था। मंजूश्री के करीब आने के बाद उसे क्षण-क्षण कांटते दौड़ता था। वह जिस चीज की चाहत में मंजूश्री के पास आया था वह मात्र एक मरीचिका ही थी। उसका स्वच्छन्न जीवन, जहां-तहां जोर-जोर से हंसना (जो उसे कभी बहुत पसन्द था), कुछ भी खाना, कभी भी खाना हर कुछ दीनबंधू को बीमार सा कर रहा था। मंजू कभी भी बेटी का जिक्र नहीं करती थी। जब भी दीनबंधू अपनी बिटिया के बचपन की बातें करता, उससे जुड़ी बातें करता तो मंजूश्री को जम्हाई आने लगती थी। दीनबंधू बेटी से मिलने के लिए तरस जाता था। परिजनों से भी पूरी तरह कट चुका था। वह कही भी, किसी के पास भी नहीं जा सकता था। अकेलापन अब उसे काटने लगा था।

काम का बहाना बना कर दीनबंधु अपने पुराने घर गया था। दो सालों के बाद वह पुराने घर पहुंचा था। यह घर अकेला हो गया था। आस-पास की बस्ती के बीच भी छोटा सा बंगाल बिल्कुल निर्जीव लग रहा था। सामने के बगीचे पूरी तरह से सुख चुका था।

ताले को हाथ लगाते ही उसके शरीर में एक बिजली से कोंध गई। लगा रेबा ने उसे पुकारा है। देखा न ताले में तेल नहीं डाला था लग गई न जंग। कितनी बार कहा है समय का ज्ञान रखो.... दीनबंधू ने बाहर से ही घर को ऊपर से नीचे तक देखा। लगा छत पर कोई गुनगुनाते हुए कपड़ों को धूप में सुखा रहा है। वह घर में जैसे ही घुसा वैसे ही लगा कि रेबा कह रही थी कि दीनबंधू तुमने एक बार मुझे परखा नहीं। एक बार कहते तुम मुझसे क्या चाहते हो तो मैं जरूर अपने में बदलाव लाती। इतने दिनों की आदत कैसे एक बार में छोड़ती। मैं तुमसे प्यार करती रही पर तुम्हें समझ ही नहीं पाई। ...दीनबंधू सौंफे पर बैठ गया। रसोई से आग की लपटे दिख रही थी जैसे रेबा कह रही हो दीनबंधू मैं जा रही हूं तुम्हारी दुनिया से दूर...खुश रहना.....  

उस घर की तमाम दीवारें उससे पूछने लगी कि तुमने ऐसा क्यों किया? तुम ही रेबा के हत्यारे हो? तुमने ही उसे मार दिया। वह खुद को भी एक हत्यारा ही मान बैठा था। वह समझ रहा था कि शादी का बंधन प्यार का बंधन भले हो न हो पर आपसी कमीटमेंट का जरूर है। वह हमें एक ऐसे धागे में पिरोता है जिसे तोडऩा शायद आसान है पर तोड़ कर अलग करके जीन आसान नहीं है।

मौत को गले लगाने के पहले दीनबंधू ने घर की दरोदीवार को हाथों से छूता रहा। जैसे दीवारें कुछ बोल रही हो। वह एक-एक कमरे में झांक रहा। वहां पड़ी धुल के साथ यादें भी धुंधला सी गई थी। वह सब को अब समेटने की कोशिश करना चाहता था पर जब कुछ उसके हाथों से निकल चुका था। अपने बेड रूम में पहुंचा जहां एक सेल्फ पर उसकी और रेबा की फोटो थी। जिसमें दोनों ही मुस्कुरा रहे थे। उसे याद आ रही थी रेबा की। वह चाह रहा था कि आज रेबा आए और उसका हाथ थामें अपने साथ ले चले जैसे हाथ पकड़ते हुए उसने सात फेरे लिए थे। उसने फोटो को सीने से लगाकर बेड पर ही लेट गया।

रेबा ने कभी गलत को स्वीकार नहीं किया था। उसे अपने पति के बारे में जानकारी हुई थी कई बार वह उससे लड़ी भी थी। बात हाथ से छूट रही थी। पर जाते हुए भी पति पर कोई आंच आने नहीं दी। पति उसका पति था जब तक वह जीती रही उसका पति था पर आज दीनबंधु जीवन की आखिरी सांस ले रहा था पर आज वह किसी का कुछ नहीं था... न था रेबा का पति, बेटी का पिता और न मंजूश्री का...... उसके पास से एक सुसाइड नोट मिला था जिसमें जिसमें सिर्फ इतना लिखा कि आज मैं कंगाल हो गया..........।

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