हत्या (कहानी) : भगवान अटलानी

Hatya (Hindi Story) : Bhagwan Atlani

थकावट के बावजूद नींद नहीं आ रही है, गाँव के ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर कुल मिलाकर दो घंटे साइकिल चलानी पड़ी होगी। मगर अस्थि-पंजर ढीले हो गए हैं। चारों तरफ अँधेरा है। इस गाँव में तो बिजली भी नहीं है। दूर-दराज से कोई रोशनी की किरण तक चमकती नजर नहीं आती, उस पर यह नींद का न आना।

वैसे तो कई ‘सैडिसन’ डिस्पेंसरी की आलमारी में हैं, एक गोली ही नींद के लिए काफी होगी। मगर मैं जानता हूँ कि गोली खाकर सोने से कुछ नहीं होगा। नींद आ जाएगी तो सपनों में वह अँधेरी झोंपड़ी और उस झोंपड़ी में तड़पता, दवा के अभाव में दम तोड़ता मरीज मुझे घेर लेगा। ऐसी नींद आने से जागते रहना ज्यादा अच्छा है।

गोबर का ढेर। सड़ाँध मारता पानी का खड्डा। भिन-भिन करते मच्छर। अनिश्चय की आशंकाओं से डरा-सहमा, रूखा-सूखा भोजन। कमर तोड़ मेहनत। सुबह के धुँधलके से शाम तक अविराम माँ-बाप, पत्नी और तीन बच्चों को जिंदा रखने की चिंता। तीन रुपए रोज की दिन-ब-दिन घटती हुई मजदूरी। हाट-बाजार में बढ़ती हुई महँगाई। घिसटती साँसों को जीवित रखने की लड़ाई में बुरी तरह घायल एक मामूली सा निर्वस्त्र आदमी—बीमार न हो तो जरूर हो जाए। फिर जो बीमार है, उसके ठीक होने की संभावना ही क्या है?

मैं साइकिल पर चला जा रहा हूँ। इस गाँव की डिस्पेंसरी में आए आज दूसरा दिन है। प्राइवेट प्रैक्टिस के खयाल से पहला केस। यहाँ आने से पहले एक सीनियर डॉक्टर ने सलाह दी थी—‘गाँव में कभी किसी से फीस माँगने की गलती मत करना। मरीज को देखकर, उसे अपने पास से दवा, इंजेक्शन देकर, कीमत के नाम पर पंद्रह-बीस रुपए वसूल कर लेना। दवा और इंजेक्शन डिस्पेंसरी से मुफ्त मिल ही जाएँगे तुम्हें।’

सीख मैंने गाँठ बाँध ली थी। यों भी यहाँ नया-नया आया हूँ, गाँव की जनता को प्रभावित करने का काम पहले करना चाहिए। एक-दो केस अगर बिना लिये भी कर दूँगा तो यह आगे बात काम आएगी। यही सब सोचता हुआ मैं साइकिल पर चला जा रहा हूँ। रास्ता इतनी पगडंडियों में फट जाता है। बार-बार कि अगर मैं अकेला होऊँ तो निश्चित भटक जाऊँ। जो लड़का मुझे बुलाने आया था, आगे-आगे साइकिल चलाता हुआ रास्ता दिखा रहा है। अब तक शहर की पक्की सड़कों पर साइकिल चलाई है। कच्चे रास्ते पर साइकिल चलाते हुए यों लगता है, जैसे शुरू में साइकिल सीखते समय लगा करता था। इधर-उधर आकड़े के पौधे या बबूल के पेड़ और बेर के झाड़ हैं। कहीं-कहीं तो ये झाड़ इतना आगे झुक आए हैं कि कपड़े फट जाने या चेहरा छिल जाने का डर लगता है।

लड़का तेजी से साइकिल चला रहा है। इन रास्तों पर साइकिल चलाने की इसे तो आदत है। मगर मुझे साथ देने में बड़ी कठिनाई महसूस हो रही है। साइकिल के कॅरियर पर ‘इमरजेंसी’ बैग लगा हुआ है। मुझे शंका होती है कि झटके खाकर अंदर बहुत कुछ टूट-फूट गया होगा। रास्ते में साइकिल से उतरकर बैग खोलना मेरी ‘डिगनिटी’ के अनुकूल नहीं लगेगा, यह सोचकर मैं आगे चलते लड़के को पकड़ने के लिए साइकिल के पैडल पर दबाव बढ़ा देता हूँ।

पता नहीं मरीज कितना पैसे वाला है? गाँव के लोगों को कहते हैं, घर की साज-सज्जा या पहनावे से आँकना बड़ा मुश्किल है। बाहर से फटे-पुराने कपड़े पहने कंगाल सा नजर आने वाला आदमी भी झोंपड़ी के कोने में कितना माल दबाए हुए है, कोई नहीं कह सकता।

अगर पता लग जाए कि मरीज क्या करता है तो उसकी कमाई का अंदाज लगाया जा सकता है। फीस की बात न भी सोचूँ, मगर कम-से-कम दवा तो अपनी गाँठ से न देनी पड़े। मैं और जोर लगाकर लड़के के ठीक पीछे आ जाता हूँ।

‘‘साइकिल बहुत तेज चलाते हो भाई। क्या नाम है तुम्हारा?’’ मैं शुरुआत करता हूँ।

‘‘होरी।’’ वह शरमाई हँसी हँसता है।

‘‘पढ़ते हो?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘फिर क्या करते हो?’’

‘‘खेत पर काम करता हूँ।’’

‘‘यह मरीज कौन है? तुम्हारा कोई रिश्तेदार है?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘तब?’’

‘‘हम एक गाँव के हैं।’’

‘‘अच्छा, क्या करता है वह?’’

‘‘मजूरी।’’

‘‘रोजाना क्या कमा लेता है?’’

‘‘तीन रुपया।’’

‘‘खाने वाले कितने हैं?’’

वह कुछ सोचकर बताता है—‘‘सात जीव।’’

‘‘और कौन-कौन हैं?’’

‘‘माँ-बाप, आप, घरवाली है और तीन बच्चे।’’

‘‘इनमें से और कोई नहीं कमाता?’’

‘‘भौजी और बड़ा लड़का भी मजूरी करते हैं।’’

‘‘इन दोनों को क्या मिलता है?’’

‘‘ढाई रुपया भौजी को और दो रुपया लड़के को।’’

‘‘फिर तो अच्छा कमा लेते हैं वे लोग।’’

वह उदास हो जाता है, ‘‘मजूरी साल भर कहाँ मिले है, साहेब, फसल का चार महीना ही तो मिले है।’’

तीन, ढाई और दो, साढ़े सात रुपए रोजाना, सवा दो सौ रुपए महीना। अनाज का भाव भी इन दिनों सवा दो सौ से कम नहीं है। परिवार के सात सदस्य हैं, बड़ी मुश्किल से अपना काम चला पाते होंगे। मरीज की आर्थिक स्थिति का अंदाज होते ही यह मुश्किल यात्रा, रास्ते की बीहड़ता और कुल मिलाकर चारों ओर का माहौल एकाएक मुझे असह्य लगने लगता है। केस पा जाने की अव्यक्त, गुप्त प्रसन्नता झुँझलाहट में बदलने लगती है।

‘‘तुम्हारा गाँव कितनी दूर है अभी?’’

‘‘वो सामने ही है, साहेब।’’

गंदी सी पोखरनुमा बावड़ी, पनघट, घूँघट से मुँह ढके सिर पर घड़ा रखे पनघट से लौट रही औरतें हमें देखकर एक तरफ हो गई हैं।

‘‘होरी के संग आज यो जंटरमैन कौन है?’’

‘‘नयो डागदर साहेब है। दीनू को देखने आयो है।’’ जानकारी का सिक्का जमाता हुआ एक स्वर पीछे से आकर मुझे कोंच जाता है।

‘खाक डागदर साहेब है,’ मैं मन-ही-मन बड़बड़ाता हूँ।

साइकिल रेत में फँस गई है। होरी साइकिल पर बैठे-बैठे ही ताकत लगाकर दस-पंद्रह कदम आगे खींच ले गया है। मैंने जोर आजमाने की कोशिश नहीं की है। साइकिल से उतरकर अपने साथ-साथ साइकिल को भी घसीटने लगा हूँ।

यहाँ जा रहा हूँ मैं, केस देखने। जितनी मेहनत अब तक की है, उतनी ही लौटते समय फिर करनी पड़ेगी। ‘इमरजेंसी बैग’ में कुछ टूट गया होगा तो जेब से भुगतना पड़ेगा। मरीज को चैकअप करना होगा। उसे दवा देनी होगी। टाइम खराब करना पड़ेगा। बदले में मुझे क्या मिलेगा? कोरा सिरदर्द। इस तरह हो रहा है मुहूर्त मेरी प्राइवेट प्रैक्टिस का।

होरी रुक गया है। उसके निकट आकर मैं भी रुक गया हूँ। हमारे सामने एक खालिस खस्ता हालत झोंपड़ी है। कोई पाँच फीट ऊँची, काली पड़ गई मिट्टी की दीवारें, सड़ी हुई भद्दी खपरैल, खोखों की लकड़ी का चरमराता, दरारों भरा ढहने को उत्सुक, ढीला-ढाला दरवाजा, खपरैल के नीचे की एक बल्ली ठीक दरवाजे के ऊपर इस अंदाज से बाहर निकली हुई कि थोड़ा सा चूकते ही खोपड़ी टूट जाए। होरी अपनी साइकिल को स्टैंड पर लगाकर मेरे ‘इमरजेंसी बैग’ की तरफ लपका। मैं हाथ के इशारे से उसे रोक देता हूँ। साइकिल स्टैंड पर खड़ी करके ‘इमरजेंसी बैग’ कॅरियर से निकालता हूँ।

होरी झोंपड़ी के दरवाजे में घुस गया है। अँधेरा और मनहूसियत। मैं इस बात की सतर्कता बरतते हुए कि बल्ली या चौखट मेरे सिर से न टकराए, झुककर झोंपड़ी में पाँव रखता हूँ। तेज दुर्गंध का भभका अनायास मुझे पीछे धकेल देता है। हड़बड़ाहट में मेरा सिर जोर से उछलकर बल्ली से टकरा जाता है। एक बारगी तो बिलबिला जाता हूँ। फिर स्वयं को संयत करके जेब से रूमाल निकालकर मैं नाक से लगाता हूँ।

दुर्गंध झेलने की मनःस्थिति बनाकर मैं झोंपड़ी में जाता हूँ। नंगी चारपाई पर एक अट्ठाईस-तीस वर्षीय कंकाल अधमरा सा पड़ा है। चारपाई के आसपास उलटी के साथ निकली हुई बदबूदार गंदगी है खून के साथ मिली हुई। नाक को रूमाल से अच्छी तरह दबा लेने के बाद भी सड़ाँध के कारण सिर भिन्नाने लगा है।

झोंपड़ी में सबकुछ अव्यवस्थित है। थेगली लगे हुए कपड़े, मुड़े-निचुड़े बिस्तर, चक्की, रोगी की नंगी चारपाई, गंदगी मिलकर एक अजीब घिनौना दृश्य उपस्थित कर रहे हैं। होरी के बताए हुए इस परिवार के सब सदस्य रोगी के आसपास हैं। सिवाय उसकी पत्नी के, जो झोंपड़ी के कौने में घूँघट निकाले हुए घुटनों में मुँह फँसाए बैठी है। बूढ़ा गमगीन सा चारपाई पर बैठा है। बुढि़या और तीनों बच्चे चारपाई के पाँवों की तरफ हैं।

मेरे अंदर घुसते ही बूढ़ा अपनी जगह उठ खड़ा होता है और बुढि़या वहाँ व्याप्त मातमी सन्नाटा तोड़ती हुई मेरी तरफ बढ़ आई है। ‘‘मेरे अकेले बेटे को बचा लो, वैद्यजी महाराज!’’

असह्य सड़ाँध को झेलने की कोशिश करते हुए बुढि़या की कातर आँखें और वैद्यजी महाराज का संबोधन मुझे बेहद चिढ़ा जाता है। बुढि़या को डाँटने की इच्छा होती है, तभी रोगी चारपाई की ईस पर छाती लगाकर उलटी कर देता है। छींटों से बचने के लिए मैं तुरंत दो कदम पीछे हट जाता हूँ, बाद में ध्यान आता है कि कच्चे फर्श पर जमा गंदगी में खून की मात्रा बढ़ गई है।

मैं गंदगी से बचता हुआ रोगी के निकट जाता हूँ। ‘इमरजेंसी बैग’ खोलकर उसमें से टॉर्च निकालता हूँ। झोंपड़ी में अँधेरा और बेहद सीलन है। टॉर्च जलाए बिना ‘इमरजेंसी बैग’ की स्थिति देख पाना भी मेरे लिए संभव नहीं है।

टॉर्च जलाता हूँ। शुक्र है, उसमें कुछ टूटा नहीं है। मुझे तसल्ली होती है। टॉर्च की रोशनी रोगी की आँखों पर डालता हूँ। देखते ही चौंक जाता हूँ, लगता है, पानी की कमी के कारण कभी भी इसकी जान जा सकती है।

‘‘कब से तकलीफ है इसको?’’ मैं सतर्क हो गया हूँ।

‘‘कल रात से दस्त और उलटियाँ होवे हैं। पानी की एक बूँद भी पेट में टिके ना है।’’

‘‘अब तक कितनी उलटियाँ हो चुकी होंगी?’’

‘‘बार-बार ही होवत है वैद्यजी महाराज। अब तो खून भी गिरने लगी है।’’ बुढि़या की आवाज भर्राई हुई है।

इंट्रावेनस ग्लूकोज इसकी पहली जरूरत है। उलटियाँ रोकने का भी कोई उपाय करना चाहिए। मैं ‘इमरंजेंसी केस’ में से स्टेथोस्कोप निकालता हूँ, हुक कान से लगाते हुए निर्देश देता हूँ। ‘‘किसी साफ बरतन में पानी गरम करो और ये फर्श भी साफ कर दो। बाहर से मिट्टी लाकर गंदगी को ढक दो।’’

एकाएक मुझे होश आता है। यह क्या करने जा रहा हूँ मैं? फीस मिलने की कोई उम्मीद यहाँ से है नहीं, मेहनत को चलो गोली मारो। मगर ये इंट्रावेनस इंजेक्शन भी इसको अपनी जेब से लगा दूँ? ऐसा ही करता रहा तो हो ली यहाँ नौकरी, उलटी रोकने का इंजेक्शन इसको पहले देना पड़ेगा। खैर, वह है भी डेढ़-दो रुपए का, मगर ग्लूकोज के इंजेक्शन तो महँगे पड़ जाएँगे।

‘‘मैं नुस्खा लिख देता हूँ। तुम झटपट जाकर ये सुइयाँ ले आओ। अपने साथ पंद्रह-बीस रुपए ले जाना।’’ स्टेथोस्कोप समेटते हुए मैं होरी से कहता हूँ।

बूढ़े और बुढि़या ने विवश नजरों से एक-दूसरे को देखा। मैं मन-ही-मन भिनभिनाता हूँ, साले तुम लोगों को दवा के पैसे भी डॉक्टर दे।

मैं अपने आपको नुस्सा लिखने में व्यस्त कर देता हूँ। कागज होरी को देता हूँ। बुढि़या उसे साथ लेकर झोंपड़ी के बाहर चली गई है। बाहर से फुसफुसाहट सुनाई देती रहती है, फिर आवाज आती है। ‘‘बहू, जरा बाहर तो आइयो।’’

मरीज की पत्नी पहली बार हिली है। अब तक कपड़ों की निर्जीव गठरी की तरह वह सिमटी हुई बैठी रही थी। उसके उठते ही पैरों में पड़े चाँदी के दो मोटे कड़े आपस में टकराकर बज उठे हैं। जल्दी ही बूढ़े को भी बुलावा आता है। उन डरे हुए तीन बच्चों की उपस्थिति के बावजूद बूढ़े के बाहर जाते ही झोंपड़ी में बेहद सन्नाटा सा महसूस होता है। मौत का सन्नाटा।

बुढि़या और उसकी बहू अंदर आती है। इस बार कोई आवाज न सुनकर में बहू के पाँवों की तरफ देखता हूँ, वहाँ कड़े नहीं हैं।

बूढ़ा शायद होरी के साथ चला गया है।

मेरे निर्देशों का पालन प्रारंभ हो गया है। बुढि़या बाहर से मिट्टी लाकर चारपाई के नीचे बिछा रही है। उसकी बहू अल्युमीनियम के कटोरे में पानी भरकर बाहर चली गई है। मैं सिरिंज और निडल लेकर बाहर जाता हूँ, अल्यूमीनियम का कटोरा छानों पर रखा हुआ है। मैंने झुककर देखा कि पानी साफ है या नहीं, फिर सिरिंज और निडल पानी में डाल देता हूँ।

‘‘कटोरे को किसी बरतन से ढक दो,’’ मैं अंदर आते हुए कहता हूँ।

तभी रोगी फिर उलटी करता है। पहले की तरह मैं झटके से पीछे हट जाता, लेकिन इस बार कुछ छींटे मेरी डबल नेट की बैलबाट को खराब कर गए हैं। मैं गुस्से भरी नजरों से पहले हाँफते हुए रोगी की तरफ और फिर बुढि़या की तरफ देखता हूँ। मेरी आँखें बुढि़या से टकरा जाती हैं। वहाँ बेचैनी, आतंक, याचना और विवशता का मिला-जुला रूप है। न जाने क्यों वे आँखें मुझे छेदती सी महसूस होती हैं। मैं जेब से रूमाल निकालकर छींटे साफ करने लगता हूँ। बैलबाट पर खून के दाग हैं। अभी-अभी हुई उलटी की तरफ देखता हूँ। वहाँ भी खून के अलावा कुछ नहीं है।

‘‘इसकी उलटी में खून क्यों आते हैं, वैद्यजी महाराज?’’ बुढि़या बुरी तरह घबरा गई है।

अगर बैग में से ग्लूकोज के इंजेक्शन निकालकर मैंने इसे नहीं लगाए तो यह मर जाएगा। बलवती इच्छा के अधीन मेरे हाथ बैग की तरफ बढ़ते हैं। मगर तुरंत स्वयं को रोक लेता हूँ। मेरा तो पेशा ही ऐसा है। किस-किस पर दया करूँगा? घास से दोस्ती करने लगेगा तो घोड़ा पेट कैसे भरेगा?

बुढि़या कोई जवाब न पाकर बुझी-बुझी सी मिट्टी लाने बाहर चली गई है। उसकी बहू ने उबलते हुए पानी का कटोरा लाकर मेरे पास रख दिया है। मैं बैग खोलकर इंजेक्शन लगाने की तैयारी करने लगता हूँ। बुढि़या हल्के हाथ से मिट्टी बिछा रही है। उसकी बहू पूर्ववत् कोने में आकर बैठ गई है।

‘‘होरी गयो?’’ बुढि़या की आवाज सुनकर मैं दरवाजे की तरफ देखता हूँ।

बूढ़ा वापस लौट आया है। उसका सफेद बालों वाला सिर ‘हाँ’ में हिल रहा है।

मैं इंजेक्शन तैयार करके बुढि़या को टॉर्च से रोशनी डालने को कहकर बूढ़े को अपने पास बुलाता हूँ। रोगी की नस उभारकर, बूढ़े को टॉर्च पकड़ाकर मैं ‘प्रिंक’ करता हूँ। खून सिरिंज में उतरने लगा है। मैं धीरे-धीरे इंजेक्शन लगा देता हूँ।

‘‘होरी कितनी देर में आएगा?’’ मैंने बूढ़े से पूछा।

‘‘जल्दी ही आ जावेगो।’’ वह मरा-मरा सा जवाब देता है।

‘‘माँ पानी!’’ रोगी ने धीरे से कहा है।

बुढि़या पानी लेने लपकती है कि मैं उसे रोक देता हूँ, ‘‘नहीं, थोड़ी देर पानी नहीं देना है। वरना फिर उलटी हो जाएगी।’’

बुढि़या रुक गई है। लड़का बड़ी प्यासी निगाहों से एकटक माँ को देख रहा है। अपनी आँखें चुराती हुई बुढि़या, लड़के के सिराहने जाकर उसके सिर पर हाथ फेरने लगती है।

लड़के की प्यासी निगाहें ऊपर उठकर फिर माँ को ताकने लगी हैं। उसका मुँह खुला हुआ है। बुढि़या अंगुलियाँ फेरते-फेरते बेटे पर झुक आई है।

‘टप-टप’ दो आँसू बुढि़या की आँखों से निकलकर सीधे लड़के के मुँह में जा गिरे हैं। लड़के ने जीभ को होंठों पर फेरने की कोशिश की है कि अचानक उसकी आँखें उलट गई हैं। सिर झटके के साथ बाईं ओर लुढ़क गया है। मैं फुरती से उसके हार्ट पर झुककर हाथ से पल्स पकड़ने की चेष्टा करता हूँ। वहाँ कुछ भी नहीं है। पथराई आँखों में प्यास लिये एक मुरदा मेरे सामने है बस।

बुढि़या चीख के साथ लड़के के ऊपर गिर गई है। बूढ़े ने असहाय सा बैठकर चारपाई की पाटी पर अपना सिर टिका दिया है। बहू दौड़ती हुई आई है और अपने पति पर बिलखकर विलाप करने लगी है। बड़ों को रोता देखकर बच्चे भी चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगे हैं। झोंपड़ी में कोहराम मच गया है।

मैं सिर झुकाकर झोंपड़ी के बाहर निकल आता हूँ, रुदन लोगों को खींचने लगा है। आनेवालों में से एक हकलाकर मुझसे पूछता है। ‘‘दीनू... दीनू मर गया का?’’

मेरे जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही वह झोंपड़ी में घुस गया है। मैं यहाँ के इस वातावरण से, इस गाँव से जल्दी-से-जल्दी निकल जाना चाहता हूँ। पहला केस था, वह भी मर गया, फीस छोड़ी, अपनी जेब से इंजेक्शन लगाया, इतना करने के बाद भी बदनामी पल्ले पड़ेगी।

अंदर जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं है। मगर ‘इमरजेंसी बैग’ झोंपड़ी में ही रह गया है। अंदर जाता हूँ, वहाँ विलाप और सांत्वनाओं का तूफान चल रहा है।

आगंतुकों में से एक ने मेरी तरफ देखा है। ‘‘जरा मेरा बैग उठा दीजिए।’’

बूढ़े का सिर अब तक पाटी पर झुका है। मेरी आवाज सुनकर वह ऊपर देखता है।

मैं बैग लेकर बाहर निकलता हूँ तो वह भी मेरे पीछे बाहर आ जाता है।

‘‘मुझे अफसोस है बाबा, मैं आपके लड़के को नहीं बचा सका।’’

‘‘मौत को आज तक कौन रोक सको है डागदरजी।’’ कहकर वह फफक-फफककर रो दिया है।

मैं असमंजस की स्थिति में चुपचाप उसके पास खड़ा रहता हूँ। वह जल्दी ही स्वयं को सँभालकर धोती के पल्ले से अपने आँसू पोंछ लेता है। फिर बड़ा सकुचाता हुआ वह कहता है। ‘‘डागदरजी हम गरीब आपकी और कोई सेवा तो नहीं कर सके, मगर...।’’

अंटी में सँभालकर रखा हुआ एक पाँच का और एक दो का नोट दाहिने हाथ में रखकर उसने मेरी तरफ बढ़ा दिया है। दाहिनी भुजा को छूती बाएँ हाथ की अंगुलियाँ उस श्रद्धा को आकार दे रही हैं।

बहू के कड़े बेचकर, इंजेक्शन के लिए रुपए भेजने के बाद बचे सात रुपए मेरी फीस। और कफन? अंदर पड़ी हुई लाश का कफन कहाँ से आएगा?

मैं झटके से साइकिल लेकर भाग छूटता हूँ।

और अब पड़ा-पड़ा सोच रहा हूँ। मेरे ‘इमरजेंसी बैग’ में रखे ग्लूकोज के इंजेक्शन की कीमत क्या इतनी है?

मुझे नींद नहीं आ रही है।

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