हरे मेंढक का पछतावा : कोरियाई लोक-कथा
Hare Mendhak Ka Pachhtava : Korean Folk Tale
एक समय की बात है, एक तालाब में एक विधवा मेंढ़की रहती थी। उसके
केवल एक ही बेटा था। वह भी सिर से पांव तक शरारतों से भरा और अपनी मां
की कही हुई बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने वाला। मां
बेचारी बड़ी परेशान रहती। उसका बेटा, हरा मेंढक, उसकी किसी बात पर कान
न देता। जो वह कहती, ठीक उसका उल्टा करता। वह कहती कि जाओ लाल!
पूरब की ओर हो आओ तो वह आंख मूंदकर पश्चिम दिशा की ओर दौड़ने लगता।
यदि वह कहती कि पहाड़ पर जाकर कोई काम कर आओ तो वह उछलकर सीधे
नदी में कूद पड़ता और फिर घंटों उसी में तैरता-किल्लोल करता रहता।
इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे। धीरे-धीरे मेंढकी बूढ़ी हो चली। उसकी
चिन्ता और भी बढ़ गयी। वह दिन-रात इसी फिक्र में घुलती रहती कि मेरे बाद
इस लड़के का क्या होगा? इसी चिन्ता में एक दिन वह बीमार पड़ गयी। उसे
लगने लगा कि बस अब उसके दिन पूरे हो गए। जीने की कोई आशा न रही।
चूंकि उसका इकलौता बेटा निठल्ला था, इसलिए वह सुख-सन्तोष से मर भी नहीं
सकती थी।
एक दिन जब उसकी दशा बहुत ख़राब हो गयी तो उसने हरे मेंढक को
अपने पास बुलाया और उससे बोली-
“मेरे लाड़ले बेटे! देखो मैं कब्र में पांव दिए खड़ी हूं। कुछ ही घड़ी की
मेहमान हूं। मेरी एक इच्छा है, बेटा। मैं चाहती हूं कि जब मैं मरूं तो मैं पहाड़ पर
न दफ़नाई जाऊं। सुन रहे हो न? मुझे नदी के किनारे ही दफ़नाना ।”
क्योंकि वह जानती थी कि उसका बेटा उसके मरने के बाद भी ठीक उसके मन
के ख़िलाफ़ करेगा। सच में तो बुढ़िया पहाड़ी पर ही दफ़नाया जाना चाहती थी।
अगले दो-चार घंटों के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गयी। हरा मेंढक बेचारा
बड़ा दुखी हुआ। मां के बिछुड़ने का उसे बड़ा शोक हुआ। फूट-फूटकर रोया वह ।
उसे अपनी पिछली करतूतों पर बहुत अफसोस हुआ। अन्त में उसने निश्चय किया
कि अपनी मां के जीवनकाल में तो मैंने उसका कोई कहना माना नहीं, कम-से-कम
उसकी अन्तिम इच्छा तो पूरी की ही जानी चाहिए। इसलिए उसने उसे नदी के
किनारे दफनाया। जब कभी वर्षा होती, उसकी फ़िक्र होती कि कहीं मां की कब्र
बारिश में बह न जाए। वह कब्र के किनारे घंटों बैठकर रोता-कलपता और
पछताता।
यही कारण है कि जब कभी मौसम भीगा-भीगा और नम रहता है, हरे मेंढक
टर्र-टर्र किया करते हैं।