हरे कोट के पीछे (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Hare Coat Ke Peechhe (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

तेज धूप और नीले आसमान के नीचे हरा कोट पहने वह आदमी आराम से खड़ा था। भीड़ बहुत थी, फिर भी वह सबको साफ नजर आ रहा था। गाँव के लोग कमीज पहने और पगड़ियाँ बाँधे, शहर के कोट और टोपियाँ लगाये, नंगे बदन भिखारी और रंग-बिरंगी साड़ियों में औरतें छोटी-छोटी दुकानों और सँकरे रास्तों में एक-दूसरे से टकराते चल रहे थे, फिर भी हरा कोट सबसे अलग दिखाई दे रहा था। बाजार का का शोर-शराबा और धींगामस्ती, सब कुछ वहाँ थी, लोग दुकानदारों से मोलभाव करते, एक-दूसरे से मिलते-जुलते और नमस्ते-राम-राम करते, इस सबके ऊपर बाइबिल का प्रचार करने वाले की बुलंद आवाज, और जब वह साँस लेने के लिए ठहरता तो दूसरे कोने से स्वास्थ्य-संबंधी सूचनाएँ देने वाला लाउडस्पीकर मलेरिया और टी. बी. से बचने के उपाय बताने लगता। इस सबके बावजूद हरा कोट मानो सबको निमंत्रण-सा देता प्रतीत हो रहा था।

राजू यह न्यौता नकार नहीं सका। यह उसके स्वभाव में ही नहीं था कि इतने आकर्षक व्यक्ति को वह महत्व न दे। वह भीड़ से बिकुल अलग न होता, और यह भी जाहिर न होने देता कि लोगों में वह बहुत घुल-मिल रहा है। वह जहाँ भी होता, डरता रहता कि पुलिस उसे पहचान न ले, आज वह ज्यादातर नंगे बदन, सिर्फ एक जैघिया पहने और पगड़ी बाँधे, जिससे उसका सिर पूरी तरह ढंक-सा गया था, कि लोग गाँव का किसान समझे, घूम रहा था।

एक दुकान के बगल में केले के छिलकों के एक ढेर पर बैठा वह भीड़ को देख रहा था। भीड़ को वह हमेशा बड़े ध्यान से देखता था। दरअसल यही उसका पेशा भी था। आमतौर से देखने पर वह घूमने-फिरने वाला साधारण आदमी दिखता था और उसमें इतनी ही ताकत भी थी कि ध्यान से देखकर सही आदमी की जेब में हाथ डाल दे। देखा जाये तो यह एक जुआ ही था। कभी उसे जेब में कुछ भी न मिलता और हाथ सही-सलामत बाहर आ जाय तो वह अपने को भाग्यवान् ही समझता था। कभी एक फाउंटेन पेन ही उसके हाथ लगता और कमेटी के पीछे बैठा खरीददार इसके लिए चार आने से ज्यादा नहीं देता था और ऐसी चीजों से उसके पकड़े जाने का डर भी बना रहता था। राजू ने फैसला किया कि अब वह फाउन्टेन पेनों को हाथ भी नहीं लगायेगा, अगर उसे कोई प्लेट में रखकर भेंट भी करेगा तो भी नहीं लेगा-इनसे बहुत परेशानी होती थी, इनसे स्याही टपकती रहती थी और इनका ज्यादा उपयोग भी न था, खरीददार को भी बिलकुल पसंद न थे। घड़ियाँ भी इसी श्रेणी में आती थीं।

राजू को सबसे ज्यादा पसंद था-बड़ा-सा पर्स, जिसका पेट खूब फूला हुआ हो। अगर उसे पर्स होने का पता चलता तो वह उसे बड़ी सफाई से निकालने की कोशिश करता। उसमें रखे पैसे निकालकर पर्स को कहीं फेंक देता और खुश होकर घर जाता, कि आज उसने अच्छा काम किया है। इसके बाद वह अपना मुँह पानी से धोता और सामान्य नागरिक बनकर फिर सड़कों पर निकल आता। बच्चों के लिए मिठाई, किताबें और स्लेटें खरीदता, और कभी-कभी बीवी के लिए भी कुरती का कपड़ा खरीद लेता। बीवी के बारे में उसका दिमाग हमेशा हलका नहीं रहता था। जब वह ज्यादा पैसा लेकर घर पहुँचता तो एक बड़ा हिस्सा लिफाफे में रखकर पहले कहीं छिपा देता, तब घर में घुसता। नहीं तो बीवी बहुत सारे सवाल पूछकर परेशान करती। वह जानना चाहती कि अब वह सचमुच सुधर गया है या नहीं, और जो भी कमाता है, 'कमीशन' के रूप में ही कमाता है-यद्यपि कमीशन क्या होता है, यह वह बिलकुल नहीं जानती थी। यह शब्द उसे अच्छा और सही लगता था।

राजू छिलकों के ढेर से उठा और हरे कोट के पीछे लग गया। वह उससे तीन कदम पीछे चलने लगा। यह फासला उसे ठीक लगता था और अनुभव से उसने इसे जाना था। दोनों के बीच का फासला इतना भी नहीं होना चाहिए कि आदमी का हाथ पर्स से कितना दूर है, इसका पता ही न चले, और इतने पास भी नहीं होना चाहिए कि दूसरे को संदेह होने लगे। इसका फैसला अच्छी गणना के बाद किया जाना चाहिए और यह एकदम संतुलित होना चाहिए, बिलकुल उस शिकारी की तरह, जो सभी तरह के जानवरों का पीछा करता है और शिकार के बाद सही-सलामत घर वापस पहुँचना चाहता है। जंगल के शिकारी का काम इसलिए आसान होता है क्योंकि उसे शिकार की सुरक्षा का विचार नहीं करना पड़ता, इस काम में शिकार को पता भी न चलने देने के हिसाब से काम करना पड़ता है, उसे चोट पहुँचाने का इसमें सवाल ही नहीं उठता।

राजू बड़े धीरज से इन्तजार करता रहा। एक दुकान पर खड़ा चटाइयों का मोलभाव करता रहा। बगल में हरा कोट एक ठेले वाले से नारियल कटवाकर आराम से पी रहा था। लगता था, वह यहाँ से हटेगा ही नहीं। भीतर का सारा दूध पीकर उसने धीरे-धीरे उसे कटवाकर गूदा निकलवाया और आराम से खाने लगा। सफेद मीठा मजेदार नारियल का गूदा उसे खाते देखकर राजू के मुँह में भी पानी भरने लगा। लेकिन उसने अपनी इच्छा पर काबू किया-धंधे के समय खाने-पीने में वक्त बरबाद करना अच्छी बात नहीं थी क्योंकि इससे शिकार हाथ से हमेशा के लिए निकल जा सकता था।

गूदा खाने के बाद हरे कोट ने अपना बटुआ निकाला और नारियल की कीमत पर उससे बहस करने में लग गया। उसकी आवाज भारी, आरे की तरह खरखराती थी, जो राजू को अच्छी नहीं लगी। वह चीते की गुर्राहट की तरह थी- लेकिन वह शिकारी ही क्या? जो गुर्राहट से डरकर अपने शिकार को हाथ से निकल जाने दे! पैसे के लिए वह जिस तरह नारियल वाले से लड़-झगड़ रहा था, यह भी राजू को अच्छा नहीं लगा-उसने सोचा कि यह घटिया और कंजूस आदमी है, पैसे का इसे बहुत लालच है। जब ऐसे लोगों का बटुआ गायब हो जाये तो ये बड़ा तूफान खड़ा कर देते हैं।

आखिरकार हरा कोट आगे बढ़ा। वह एक गुब्बारे की दुकान पर रुका। बहुत मोलभाव करके एक गुब्बारा खरीदा. यह भी राजू को पसंद नहीं आया। वह कह रहा था, 'गुब्बारा ऐसे बच्चे के लिए है जिसकी माँ नहीं है। मैंने उससे वादा किया है कि गुब्बारा जरूर लाऊँगा। अगर मेरे घर पहुंचने से पहले यह रास्ते में फट जाता है या खो जाता है, तो बच्चा रात भर रोता रहेगा और मुझे बहुत तकलीफ होगी।' राजू को एक स्टाल के पास अपना मौका मिल गया, जहाँ अखबार पढ़ते गाँधीजी की मोम से बनी एक प्रतिमा को देखने के लिए लोग उमड़े पड़ रहे थे।

पंद्रह मिनट बाद राजू पर्स का मुआयना कर रहा था। सबसे अलग एक टूटी दीवाल के पीछे उसने इसे खोला, इसमें बीस रुपये के नोट और दस रुपये के सिक्के थे। कुछ फुटकर पैसे भी थे। पैसे उसने यह सोचकर जाँघिये की जेब में रख लिये कि भिखारियों को दे देगा। यह सोचकर उसे बहुत अच्छा लगा। मेले के शुरू वाले हिस्से में एक अंधा चीख-चीखकर भीख माँग रहा था और किसी को उसकी परवाह नहीं थी। आज की दुनिया में दूसरों के लिए सहानुभूति बिलकुल भी नहीं रही। तीस रुपये उसने अपनी पगड़ी के सिरे पर गाँठ बनाकर बाँध लिये और उसे दुबारा फिर ठीक से पहन लिया। इन पैसों से महीने के बाकी दिन आराम से गुजर जायेंगे। पंद्रह दिन तक वह भले आदमी की जिन्दगी गुजारेगा और बीवी-बच्चों को सिनेमा दिखाने भी ले जायेगा।

अब खाली बटुआ उसके हाथ में था। अब उसका काम यही रह गया था कि उसे किसी कुएं में फेंक दे, हाथ झाड़कर साफ कर ले और राजाओं की तरह स्वच्छ मन और इज्जत से मेले में घूमे-फिरे। उसने कुएं के भीतर झाँका, नीचे थोड़ा-सा पानी था। हो सकता है, बटुआ पानी पर तैरने लगे, और तैरता हुआ पर्स बड़ी परेशानियाँ पैदा कर सकता है।

उसने बटुआ खोला कि उसमें कंकड़-पत्थर भरकर कुएं में डाल दे जिससे वह पानी की सतह पर तैरने की जगह नीचे जाकर तली में डूब जाये। तभी उसे बटुए में गुब्बारा दिखाई दिया, जो तह करके रखा हुआ था। उसे याद आया कि गुब्बारा हरे कोट ने अपने बच्चे के लिए खरीदा था और बड़ी देर तक इसके लिए मोलभाव करता रहा था। उसने सोचा, 'इसे पर्स में रखने की क्या जरूरत थी?. बड़ों की इन्हीं लापरवाहियों की वजह से बच्चों को परेशानी होती है।' उसे क्रोध आ गया और कल्पना में वह देखने लगा कि दरवाजे में खड़े गुब्बारे का इन्तजार कर रहे बिन माँ के बच्चे, पर पिता को जब जेब में हाथ डालने पर पस नहीं मिलता, उस पर अपना गुस्सा निकालने लगता है. इस कल्पना से वह सहम गया।

माँ हीन बच्चे की स्थिति का विचार करके राजू जैसे रोने को हो आया-बच्चे को वहाँ सांत्वना देने वाला भी कोई न होगा। अगर उसने रोना शुरू कर दिया तो हो सकता है यह गुंडा उसे पीटने लगे। इसकी शक्ल से यह हरगिज नहीं लगता कि यह बच्चों की भाषा जानता होगा। राजू ने सोचा कि बच्चा उसके दूसरे बेटे के बराबर होगा और उसका मन दया से भर उठा। मान लो, मेरी अपनी बीबी चल बसी अपने पैसे छुपाकर रखने पड़ते थे. खैर, उसने इस पर ज्यादा सोचना सही नहीं समझा, यह मुख्य मुद्दा नहीं था। यदि पत्नी न रहे तो उसे अफसोस तो बहुत होगा और बच्चों को प्रसन्न रखने में भी बहुत कठिनाइयाँ आयेंगी.। उसने फैसला किया कि माँ हीन बच्चे को यह गुब्बारा मिलना ही चाहिए। लेकिन कैसे?

उसने दीवाल के पीछे से झाँककर देखा, भीड़ काफी दूर नजर आ रही थी। गुब्बारा वापस तो किया नहीं जा सकता। यही किया जा सकता है कि उसे पर्स में फिर रख दिया जाये और फिर पर्स को चुपचाप हरे कोट की जेब में डाल दिया जाये।

हरे कोट वाला बाइबिल का प्रचार करने वाले के सामने लगी भीड़ को देख रहा था। वक्ता जोर-शोर से भाषण दे रहा था, उसके सामने गोला बनाये लोग सवाल पूछ रहे थे, 'तुम्हारा ईश्वर कहाँ रहता है?' उत्तर सुनने के लिए लोग चुप हो गये। राजू हरे कोट के पास पहुंच गया। गुब्बारा (केवल) पर्स में था और पर्स उसकी हथेलियों में। अब इसे वह जेब में डाल देगा। हाथ हिलाते ही राजू को अपनी गलती समझ में आ गयी।

हरे कोट ने हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया, 'पाकेटमार!" सवाल पूछने वाले ईश्वर की समस्या भूल गये और राजू की तरफ घूमे. जो खुद चिल्लाने लगा था, 'मुझे छोड़ो।' हरे कोट ने झपटकर उसे जोर का चाँटा मारा। इस चोट से राजू जैसे अंधा ही होने लगा। एक क्षण के लिए वह भूल गया कि वह कहाँ है! और यह भी कि वह है कौन? आँखों के आगे से अँधेरा जब कुछ कम हुआ और धुंध कुछ छटी तो उसने आँखें खोली और देखा कि हरा कोट उसे ही नहीं, सारी दुनिया को घेरे खड़ा है। वह दूसरा वार करने के लिए तैयार हो रहा था।

राजू बहुत डर गया। कहने लगा, 'मैं. मैं तो आपका पर्स वापस कर रहा था।' हरे कोट ने दाँत पीसे और बाँह की हड़ियाँ तोड़ दीं। लोग हँसने लगे और कुछ ने खुद भी उसे थप्पड़ मारे।

राजू मजिस्ट्रेट के सामने भी यही कहता रहा कि मैं तो पर्स वापस रख रहा था। लोग हँस रहे थे। फिर पुलिस की दुनिया का यह आम मजाक बन गया। राजू की बीवी जेल में उससे मिलने आयी तो रोकर कहने लगी, 'तुमने हम सबको शर्मिदा किया है।'

राजू गुस्से से बोला, 'क्यों किया है? मैं तो पर्स उसकी जेब में रख रहा था।'

अठारह महीने की सजा काटकर जब वह वापस लौटा तो सोचता रहा कि उसे अब क्या करना चाहिए। उसने खुद से कहा, 'अगर अब मैं फिर कभी किसी की जेब काटूंगा तो वापस हरगिज नहीं रखूँगा।' अब उसे विश्वास हो गया था कि ईश्वर ने उस जैसे लोगों को एकतरफा सफाई ही प्रदान की है। ये अँगुलियाँ निकाल तो सकती हैं, वापस नहीं रख सकतीं।

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