हरा बैग और वो अनजाना (कहानी) : कुमकुम सिंह
Hara Bag Aur Vo Anjana : Kumkum Singh
१
" अरे आ गई हमारी बिट्टो ! शादी वाले ,हमारे इस घर मे असली रौनक अब आई है जब घर की बिटिया अपने घरवाले के साथ विराजी है ! , बड़ी बहू जरा जल्दी से आरती की थाली लाकर कुँवर साहब की और बिटिया की आरती तो उतारो "कमला देवी ने घर के प्रवेश द्वार पर अपनी दिल्ली से आई बेटी कलावती को खुशी से गले लगाते हुए कहा ।
शादी जैसे उत्सव पर घर आए मेहमानों की ,परम्परा के अनुसार पहले से सजा कर रखी , आरती की थाली लेकर कमला देवी की बड़ी बहू ,घर के बेटी दामाद की मुस्कुराते हुए आरती उतारने लगी ।
" जिज्जी आप बच्चों को साथ नही लाई । उनको भी साथ लाती तो बहुत अच्छा रहता " कमला देवी की छोटी बहू अपनी ननद कलावती के पैर छूती हुई बोली ।
" नही उनकी परीक्षा कुछ दिन बाद ही है , उनकी पढ़ाई ज्यादा जरूरीहै , हम लोग ही आ गए ,इतना ही बहुत है ! अब हमारे कोई खेत-खलिहान , मकान दुकान जैसी कोई जायदाद तो है नही । नौकरी करके जो पगार मिलती है , उसी से काम चलाना होता है । आजकल नौकरी मिलने में , अच्छे कॉलेज मे दाखिला मिलने मे ,गला काट प्रतियोगिता है । ऐसे मे आगे आने के लिए बच्चों को रात दिन मेहनत करके पढ़ना होता है । अब मेरे बच्चे ,यहाँ के बच्चों की तरह मटरगश्ती तो नही कर सकते । यहाँ के बच्चों के बाप- दादा की अच्छी खासी जायदाद ,उनसे मौज मस्ती करवा रही है तो करवाए । सब बच्चे तो इतने भाग्यशाली तो नही होते हैं ना !" कला ने मुँह बिचका कर ताना देते हुए कहा ।यह सुनकर प्रश्न करने वाली छोटी भाभी परेशान होकर सोचने लगी कि आखिर काहे जिज्जी के बच्चों के बारे मे पूछ लिया ! कि इत्ता बड़ा भाषण सुनने को मिल गया ।
कला और उसके पति भूरेलाल का सामान अम्मा यानी कमला देवी के कमरे मे रखवाया गया । पहले से वहाँ पहुँचे हुए मेहमानो से कला और भूरेलाल की दुआ सलाम और कुशल मंगल ,जब हो गई तो बड़े प्यार से अम्मा बोली -
" चलो तुम लोग नहा धो कर कुछ खा पी लो और आराम कर लो , रात भर के ट्रेन के सफर करके तुम लोग बहुत थक गए होगे "
अम्मा के कमरे रखे अपने सूटकेस से , कला ने अपने पति भूरेलाल के कपड़े निकाल कर दिए । कपड़े और तौलिया लेकर भूरेलाल तो नहाने चल दिए । कला अपने भी कपड़े निकालने लगी तो चाय का मग लेकर कमरे मे अम्मा आ गई
" लो बिट्टो अपनी पसंद की एकदम कड़क चाय पियो "
कला ने चाय का एक घूँट पीकर बुरा सा मुँह बनाया और फट पड़ी " ये चाय किसने बनाई है ? एकदम फीकी ! शक्कर कितनी कम डाली है । इस घर मे तो किसी को ढंग की चाय तक नही बनानी आती ।और अम्मा तुम्हे क्या सूझी थी , अपने घर मे ये सब नाटक करवाने की ? हम तीन भाई बहन की शादियों से क्या तुम्हारा मन नही भरा था कि ममेरे मामा के लड़के की शादी के लिए अपना मकान दे दिया ? मेरी तो कुछ समझ मे नही आ रहा कि तुम को ये सब करने की क्या जरूरत थी ? अरे आजकल तो जमाना ऐसा है कि को ई अपनी कटी ऊँगली पर मूतने को कहे कि भाई जरा इस पर मूतो ताकि ये घाव जल्दी से ठीक हो जाए , तो कोई मूतने को तैयार नही होता , और तुम इतनी दिलदारी दिखाने चल दी ! तुम्हारे जितना भोला इन्सान मैने आज तक नही देखा ।
आखिर तुम को इससे क्या मिलेगा ? “ कला अपनी माँ को चाय पीते पीते डांटने सी लगी । आज तो , कलावती ने घर मे पैर रखते ही , सब लोगों पर अपना गुस्सा दिखाना शुरू कर दिया । कला के इस अजीब स्वभाव का कारण सिर्फ इतना था कि वह अपने मायके और ससुराल , दोनो ओर की एकमात्र महिला थी जो कॉलेज गई थी और ग्रेजुएट थी । उसके दोनो भाई लोग का तो - ‘ आलू बटा ढम !बाप पढ़े ना हम ! ‘ वाला हिसाब किताब था ।पर कला के ग्रेजुएट होने के बावजूद , शास्त्रों मे लिखी इस प्रसिद्ध सूक्ति का कुछ उल्टा ही नजारा यहाँ देखने को मिल रहा था कि ———विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ——पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्म तत: सुखम् । अर्थात् विद्या विनय देती है , विनय से पात्रता , पात्रता से धन , धन से धर्म और सुख प्राप्त होता है । उपरोक्त सूक्ति अति उत्तम और अनुकरणीय है , परन्तु प्राय: यह देखा गया है कि विद्या प्राप्ति के पश्चात् , विवेक के अभाव में विनय के स्थान पर अहंकार और उससे अविनय की उत्पत्ति होती है और इस अविनय से किसी का भी कोई लाभ नही होता । कला के साथ भी कुछ ऐसा ही था । उसे अपने पढ़े लिखे होने का तथा दिल्ली मे रहने का कुछ घमन्ड सा हो चला था । कला कभी भी किसी नाते रिश्तेदारों से सीधे मुँह बात नही करती ।कमला को कभी कभी लगता था कि उनकी ‘पढ़ी लिखी ‘ बिट्टो का स्वभाव कुछ ज्यादा ही उग्र था । पर कला ने अच्छे से अपनी माँ को समझा दिया था कि - आजकल सीधे लोगों का जमाना नही है , कुछ दबंगई जरूरी है वरना ये दुनिया हमको जीने नही देगी । उनको ये भी लगता था कि कला ही सही होगी क्योंकि वो पढे लिखे होने के साथ साथ दिल्ली जैसे शहर मे रहती है और उसने दुनिया देखी है , उसे जानकारी ज्यादा है ।क्योंकि एक बार जब पन्द्रह साल पहले वे अपने पति के साथ दिल्ली गई थी तो उन्हे लग गया था कि वे लोग दिल्ली जैसे शहर मे कतई रहने लायक नही हैं । कैसे फर् फर् मोटर गाड़ी , सड़क पर दौड़ती थी । वे तो अपने आप सड़क पार ही नही कर सकतीं थीं । वो तो उनकी बिट्टो ही हाथ पकड़ पकड़ कर सड़क पार करवाती थी ,उन्हे लगता था कि कला की सहायता के बिना पूरा दिन ही बीत जाएगा पर उनका सड़क पार करना ना हो पाएगा। दिल्ली मे कला ने उनको बहुत से दर्शनीय स्थलों के साथ साथ एक गोल गोल सा सुन्दर और बहुत बड़ा सा भवन दिखाया था और कहा कि - ये देश का संसद भवन है , यहाँ ही नियम कानून बनते हैं , जिसका पालन हर देशवासी को पालन करना होता है । यह जानकारी मिलते ही , उनका रोम रोम रोमान्चित हो उठा कि उनकी बिट्टो ऐसे शहर मे कदम से कदम मिलाकर , बराबरी से रहती है ,जहाँ से पूरे देश का राजकाज चलता है , तभी तो वो इतनी बुद्धिमान है । उसे ही दुनियादारी आती है ।हम छोटे शहर वाले क्या जाने कि कब कैसे क्या करना चाहिए और किस विषय पर क्या सोच रखनी चाहिए ।कभी कभी तो उन्हे अपनी बिटिया पर नाज होने लगता था ।
२
कमला का ऐसा मानना था कि किसी भी घर मे ढोलक जैसा वाद्य बजना बड़े ही भाग्य की निशानी होती है । क्योंकि जब किसी परिवार मे सब कुछ ठीक चल रहा होता है और खुशहाली का माहौल होता है तभी ही मंगल कार्य भी सम्पन्न होते हैं और बजते हुए ढोलक की थाप ही बाहर आते जाते लोगों को घर के भीतर के लोगों की खुशियों की सूचना देती है । अत: जैसे ही उनके ममेरे भाई , सत्यप्रकाश अपने बेटे का विवाह कमला के मकान से करने का प्रस्ताव लेकर आए तो वे खुशी खुशी मान गईं । कमला ने सोचा कि चलो इसी बहाने सभी नाते रिश्तेदारों से मिलना होगा , मिष्ठान-पकवान बनेगे , नाचना-गाना होगा , कुछ हंसी-ठिठोली होगी । आखिर जीवन भी एकरस जीवन से ऊब जाता है , कुछ बदलाव से वापस अपने मे उमंग भर लेना चाहता है । कमला और उसके परिवार की कहानी भी कुछ ऐसी ही चल रही थी । रोज की बस वही दिनचर्या , सुबह से शाम और वापस फिर शाम से सुबह , जैसे दिनों का काटना ही जीवन का पर्याय बन चुका था । इसीलिए इस ‘बेगानी शादी मे घर के सभी अब्दुल्ला लोग जोरशोर से दीवाने ‘ हो चले थे । पर कमला देवी अगर अपने मन की यही सारी बात अपनी बिट्टो को बता देतीं तो उनको डर था कि वो और ज्यादा गुस्सा होकर उनको फिर से एक डांट लगा देगी । अत: उन्होने कलावती को कुछ इस तरह समझाने की कोशिश में
थोड़ी नम्रता दिखाते हुए और सफाई देते हुए कहा - “ वो सत्यप्रकाश ( कला का ममेरा मामा ) और उसकी बीबी बहुत विनती चिरौरी कर रहे थे कि जिज्जी हमारा घर बहुत ही छोटा है । बस तीन चार दिन की ही तो बात है , आप अपने घर से हमारे बेटे की बारात निकलने दो । बारात वापस आते ही ,उसी दिन शाम को हम घर खाली कर देंगे । इसके बदले उन लोग ने हमारे घर का महिने भर का राशन भरा है , पूरे मकान की टूटी दीवारों की मरम्मत कराई है और पुताई भी करवाई है । इससे जादा हमे और क्या चाहिए ? वरना तुम तो जानती हो कि तुम्हारे दोनो भाइयों को इस पुश्तैनी घर को साफ सुथरा और सुन्दर रखने का ना तो कुछ शौक है ना ही कूवत । तुम्हारे बाबूजी जब जीवित थे तो हर दीवाली को अपने हाथ से खुद ही पूरे मकान का रंग रोगन करते थे । कहते थे कि आखिर बाप दादा ने इतने शौक से इस मकान को बनवाया है " और कमला देवी भावुक होकर अपनी आँखें पोछने लगी ।
अरे हाँ ! अभी तक कला ने देखा ही नही था कि घर की दीवारें , जिनका देखरेख के अभाव मे जगह जगह से पलस्तर झड़ चुका था , अब एक नई आभा लिए चमक रही थीं । ठीक ही कहा गया है कि अगर मन मे कुछ ' और ' ही चल रहा हो तो आँखें देख कर भी नही देखतीं ।
यूँ तो कमला देवी अपने रिश्तेदारों और परिचितों मे बड़े ही भले दिल की महिला एवं दया ममता की देवी के रूप मे जानी जाती थीं पर वे अपने सारे निर्णय नफा -नुकसान समझ कर ही लेती थीँ । इसके पीछे उनकी एक संघर्ष भरी जिन्दगी की कहानी थी । जब वे ब्याह करके इस छोटे से शहर लालपुरा मे आईं थी तो उनके पति बिन्दादीन , खेती का काम करते थे । कुनबे के खेतों का बटवारा होते होते अन्तत: बिन्दादीन के हिस्से मे बहुत कम खेत आया था । कम पढ़े लिखे होने के कारण , बिन्दादीन को नौकरी मिलना तो मुश्किल ही था , तो वे मन लगाकर खेती ही करते थे । बहुत मेहनत के बाद भी , खेती की उपज इनके परिवार के खाने पीने की आवश्यकता मे ही खप जाती थी । अन्य जरूरतों की पूर्ति हेतु धन के ना होने के कारण , कमला देवी को भारी अभावों का सामना करना पड़ता था ।जबकि कमला अपने मायके से अच्छे खासे सम्पन्न घराने से थीं । पर उन्होने अपने अभाव और परेशानियों को कभी भी अपने मायके वालों को पता नही होने दिया ।
३
शादी के कुछ और साल बीतते बीतते कमला देवी तीन बच्चों की माँ बन गई । बच्चे कुछ और बड़े होकर कस्बे के सरकारी स्कूल मे जाने लगे । घर के खर्चे और बढ़ गए । कमला अपनी अभाव भरी जिन्दगी के लिए अपने पति को जिम्मेदार नही ठहराती थीं क्योंकि बिन्दादीन प्रतिदिन उजाला होने से पहले ही , हल बैल लेकर खेतों मे चले जाते थे । कभी खेत मे जुताई , कभी बीजों की बुआई , कभी निराई , कभी सिंचाई , कभी कटाई आदि कुछ ना कुछ काम लगा ही रहता था । इतनी मेहनत करने के बाद भी जब तक फसल कट कर और तैयार होकर घर तक ना आ जाए , कुछ पक्का ही नही रहता था कि कुछ हाथ भी लगने वाला है , क्योंकि कभी कम बरसात , कभी ज्यादा बरसात , कभी अधिक ठन्ड के कारण पाला , कभी फसल पर जंगली जानवरों का आक्रमण और ना जाने क्या क्या होता ही रहता था ।
इस अनिश्चित स्थिति से उबरने के लिए कमला देवी ने अपना दिमाग चलाया । मकान के ऊपर के हिस्से के दो कमरे किराए पर चढ़ा दिए । थोड़ा बहुत किराया तो आने लगा पर किराएदार की बीबी जब ना तब इनसे कुछ ना कुछ उधार मांग कर ले जाती जैसे कि शक्कर, चाय पत्ती , चावल , आटा , तेल , साबुन , रूपये आदि जो कि वो कभी वापस नही करती । कमला दिल की उदार महिला थी तो वे अपना सामान दे तो देती थीं पर वापसी का तकाजा कभी ना करती , यानी कि फिर से वही ढाक के तीन पात !
कमला देवी ने फिर से अपनी अक्ल दौड़ाई और अपने कुछ जेवर गिरवी रख कर , मकान के एक कमरे जिसका दरवाजा सड़क की ओर खुलता था , मे परचून की दुकान खोल दी । इस दुकान को कमला देवी स्वयं चलाती थीं । इस बात के लिए वे अपने दिवंगत माता पिता को हृदय से धन्यवाद देतीं थीं कि उन्होने कमला को स्कूली शिक्षा प्रदान करवाई थी ।
घर गृहस्थी के काम के साथ साथ दुकान भी चलाना एक बहुत ही कठिन सा काम था पर कमला देवी जैसी कर्मठ महिला ये सब अच्छे से कर गई ।
बेटी कलावती नियम से नित्य स्कूल जाती और पढ़ने मे मन लगाती पर दोनो बेटे ऐसे नही थे । बेटों के लिए स्कूल जाना और पढ़ना एक सजा के जैसे था , अत: वे जब ना तब स्कूल से गायब रहते और अपनी कक्षाओं मे फेल होते रहते । थक हार कर कमला ने बेटों का स्कूल छुड़वा कर एक को पिता के साथ खेत भेजने लगी और दूसरे को अपने साथ दुकान पर बैठाने लगीं । मामला चल निकला और दोनो ने ही अपने कार्यक्षेत्र मे जल्द ही निपुणता हासिल कर ली । इसका कारण था कि दोनो को स्कूल की पढ़ाई समझ नही आती थी और मास्टरजी की मार अलग से पड़ती थी , जबकि दुकान का काम और खेती का काम दोनो को ही रूचिकर लगता था ।
समय का पहिया चलता गया । समय तो स्वयं मे समय ही रहता है सतत अपरिवर्तनशील और नित्य ! पर साथ की अनित्य दृश्यावली मे सतत परिवर्तन आता ही रहता है । पता नही ये समय का कोई गुण है या ये सभी दृश्यावली ही किसी अदृश्य नियमों का पालन करते हुए परिवर्तित होती ही रहती है ।
बेटी कलावती पढ़ लिख कर बड़ी हुई । उसकी शादी दिल्ली सरकार मे कार्यरत एक ‘होनहार’ युवक भूरेलाल से कर दी गई । बेटों की शादियाँ भी बिरादरी की लड़कियों से करा दी गई । लम्बी बीमारी के बाद बिन्दादीन ने अपने परिवार से सदा के लिए विदाई ले ली ।
कहतें हैं कि स्त्री के लिए उसके जेवर ही उसके सबसे बड़े साथी और सहायक होतें हैं । ये सिर्फ आभूषण ही नही बल्कि समय पर काम आने वाले सेवक भी होतें हैं । मायके से कमला सम्पन्न घराने की थीँ अत: उनकी शादी मे बहुत सा जेवर मिला था । कमला ने ये जेवर पहने कम थे पर गिरवी ज्यादा रखे थे । कभी खेती मे मौसम की मार के कारण फसल को नुकसान हुआ तो ये जेवर गिरवी रखे गए , कभी दुकान का घाटा पूरा करने हेतु , बच्चों की शादियाँ , पति की बीमारी - हर बड़े कारणों मे इन जेवरों ने कमला की सदैव मदद की । कमला को जितना अपने बच्चों से प्यार था , उतना ही अपने जेवरों से भी लगाव था । प्यार इतना कि जब वे कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हो जातीं तो अपना कमरा बन्द करके जेवरों का डिब्बा खोल कर बैंठ जातीं । बहुत देर तक अपने जेवरों को सहलाती , निहारती और कभी कभी तो बात भी करतीं । ऐसा करते हुए उनको लगता कि दिवंगत माँ बाप की अनुपस्थिति मे ये जेवर कमला का सहारा बन कर उसकी जीवन नैया खेने मे कमला की मदद कर रहे है ।
४
उसी दिन शाम को घर के आंगन मे ढोलक बजने लगी , ईश वन्दना के तुरन्त बाद बन्ना बन्नी वाले गीत , जो विवाह के सुअवसर पर गाए जातें हैं , ऊँची आवाज मे जोश से भरी हुई महिलाएँ गाने लगी । अति उत्साहित कमला देवी नए नए गीत गाने के लिए महिलाओं को याद दिलाने और उकसाने लगीं । जब संगीत की महफिल अच्छे से जम गई तो अति उत्साहित , कमला देवी उठ कर मगन होकर नाचने लगी । उनके साथ कुछ अन्य महिलाएँ भी मनोहर नृत्य करने लगी । अच्छा रंग जम गया था , जो नाच गा नही रही थीं , वे झूम झूम कर तालियाँ बजा बजा कर उस संगीत की महफिल मे अपना योगदान दे रही थीं ।
कला को ये सब कुछ अच्छा नही लग रहा था । उसके मन मे तो ' कुछ और ' ही खिचड़ी पक रही थी । बार बार उसको नाचने को कहा गया पर कला ने हर बार मना कर दिया । वो तो आई हुई सभी महिलाओं ने जो जेवर पहन रखे थे , उनकी बनावट और सोने की गुणवत्ता ही देखने और परखने मे लगी थी । कि -‘ इन लोगों के जेवरों के आगे अम्मा के जेवरों का ' कलेक्शन ' तो बहुत ही सुन्दर है । और तो और अम्मा के जेवरों की डिजाइन कितनी सुन्दर है , सोना कितना खरा और उम्दा है ।अभी तक ऐसा चमकता है , जैसे कि कल ही सुनार की दुकान से खरीद कर लाए हों । ऐसा सोना आजकल मिलता ही कहाँ है ' । कला इन्ही सब विचारों मे इतना खोई रही कि कब संगीत समाप्त हो गया , और कब चाय नाश्ता करके , अपनी अपनी चप्पल पहन कर महिलाएँ कब विदा हो गईं , कला को पता ही नही चला ।
ममेरे मामाजी बड़े दिलदार और खाने पीने के शौकीन थे । शादी के एक दिन पहले ही उन्होने उस इलाके के सबसे मशहूर हलवाई को घर पर ही लगवा दिया था । हलवाई अपने साज सामान और साथियों के साथ ,एक दिन पहले ही आकर अपना काम शुरू कर चुका था । पहले दिन से ही उसने अपनी पाक कला का अच्छा प्रदर्शन करना आरम्भ कर दिया । महिला संगीत के उपरान्त दिया जाने वाला नाश्ता बनाने के बाद उसने रात का खाना बड़े दिल लगा कर बनाया । रात्रि भोज मे मठे वाले आलू , कद्दू की खटमिठ्ठी सब्जी , कचौड़ी , रायता बूंदी , पुलाव , पापड़ ,और तीखा खाना पसन्द करने वाले लोगों के लिए उस जालिम हलवाई ने हरी मिर्च बेसन मे लपेट कर तल दीं । फिर क्या था , लोग ऐसा मगन होकर , स्वाद ले लेकर खाने लगे जैसे आज के बाद इससे अच्छा स्वाद कभी मिलने वाला नही । सबके पेट इतने भर गए कि लगा कि अब दो कदम चलना भी दूभर होगा कि ममेरे मामा जी ने एक और काम कर दिया ! वे चिरौंजी की बरफी का डिब्बा लेकर आ गए और सबसे बरफी खाने हेतु मनुहार करने लग गए । स्वाद से भरपूर ,चिरौंजी की बरफी बेहद मंहगी होती थी और सिर्फ लालपुरा की ' स्पेशलिटी ' मानी जाती थी । अब वो कोई कैसे छोड़ता , देखते ही देखते पूरा डिब्बा खाली हो गया ।
५
पिछली रात का खाना इतना अधिक स्वाद से भरपूर था कि कला कुछ ज्यादा ही खा गई । पिछली शाम को , जब घर के पिछवाड़े , जहाँ हलवाई खाना बना रहा था , वहाँ से जो जोरदार महकें आ रही थी कि सबका दिल मचल रहा था कि कब खाना परोसा जाए और कब हम जी भर के क्षुधा तृप्ति करें । लगभग यही हाल कला का भी था । उसने भी छक कर खाना खाया । देशी घी के मोयन वाली कचौरियाँ , उनमे उड़द दाल की भरावन जो हींग , सौंफ और अन्य मसालों से भरपूर थी । ये गरम गरम कचौरियाँ किसी को भी स्वाद की अन्तिम पराकाष्ठा तक पहुँचा देने का दम खम रखती थीं । कला जैसा ही हाल मिस्टर बी लाल ( कला को अपना नाम कलावती और भूरेलाल का नाम बहुत ‘ओल्ड फैशन्ड ‘ सा लगता था , अत: उसने दिल्लीवासियों को अपना नाम कला और भूरेलाल को मिस्टर बी लाल के नाम से परिचय करवाया था ) । हाँ तो मिस्टर बी लाल जो ससुराल आकर अब तक नाक मुँह बना रहे थे , इस हलवाई के हाथ बना भोजन का आनन्द उठाते हुए अपना लालपुरा आना सार्थक मान रहे थे । अगले दिन सुबह जैसे ही कला सोकर उठी तो बड़ी भाभी उसकी पसन्द की कड़क चाय बिस्तर पर ही दे गई । रात के गरिष्ठ भोजन और सुबह की गरम चाय ने अपना प्रभाव दिखाया और कला को जोर का ‘ प्रेशर ‘ आया । वो तुरन्त ही उठ कर शौचालय की ओर लपकी । पूरे मकान मे एक ही शौचालय था पर वो खाली कहाँ था ! वहाँ तो पहले से जाने को तत्पर लोग इन्तजार कर रहे थे । फिलहाल अभी अन्दर खरगौन वाली मौसी जी विराजमान थीं । कला ने किसी तरह इन्तजार किया ।
‘ चल जा जल्दी से जाकर अन्दर बैठ , मै बाहर ही खड़ी हूँ , हो जाए तो बताना , मै आकर धुला दूँगी “ पहले से लाइन मे लगी रामपुर वाली मामी अपने बालक को बोल रही थी ।
इधर खरगौन वाली मौसी , जैसे ही शौचालय से बाहर निकली , और कला अन्दर जाने को उठी कि पहले से लाइन मे लगी , रामपुर वाली छोटी मामी ने अपने चार साल के बड़े बेटे को पलक झपकते ही शौचालय मे अन्दर प्रवेश दिला दिया ।
अब तो कला कि हालत सिर्फ कला ही स्वयं समझ सकती थी । मिस्टर बी लाल जो वहीं आँगन मे , वहाँ का स्थानीय समाचार पत्र , बैठ कर पढ़ रहे थे , साथ ही नजारा भी देख रहे थे , कला की ओर देख कर मुस्करा दिए । उनका मुस्कराना देख कला और चिढ़ गई क्योंकि पुरूष वर्ग तो पहले से ही नुक्कड़ वाले सुलभ शौचालय मे तनावमुक्त होकर आ गया था ।
‘ चलो बच्चा है ,जल्दी बाहर आ जाएगा ‘ ये सोच कर कला ने अपने मन को ढाढस दिया ।
“हो गई ? मै आऊँ ? “ बच्चे की माँ ने पूछा ।
“अभी नही “ बच्चे ने अन्दर से चिल्ला कर उत्तर दिया ।
फिर तो हर थोड़ी देर बाद माँ और बच्चे मे यही पूछताछ का खेल होने लगा । इस तरह का बेतुका खेल देख कर कला का दिमागी पारा सांतवे आसमान पर पहुँच गया । अम्मा ने आखिर मुझे यहाँ किसलिए बुलवाया है ? इतने सारे मेहमान आ गए और शौचालय सिर्फ एक ? मकान इत्ता बड़ा और शौचालय सिर्फ एक ? भई मेरा दिल्ली वाला घर छोटा जरूर है पर टॉयलेट तो दो दो हैं । इस बात की कितनी राहत है । कला तो अपनी दिल्ली के जीवन और भी बहुत ही गुणगान कर कर के अपने मन को प्रसन्न कर सकती थी पर उफ ! ये प्रेशर ! कुछ और सोचने ही नही दे रहा था ।
जब कला से बिलकुल ही नही रहा गया तो वह बोल ही उठी “ बच्चे को बाहर निकालिए , औरों को भी जाना है “
मामी ने मुँह बिचकाया और अन्दर जाकर बच्चे की बाँह पकड़ कर बाहर लाते हुए , कला को सुनाते हुए बोली “ चल बेटा , बाहर नाली मे बैठ जा । यहाँ तो लोगों को कन्ट्रोल ही नही हो रहा है ।
और कोई समय होता और कला को इस ‘ प्रेशर ‘ का प्रेशर नही होता तो इस औरत को , सारे रिश्तेनाते भुला कर वो सुनाती - वो सुनाती कि उसको छठी का दूध याद आ जाता । पर अभी मुझे यहाँ का माहौल नही बिगाड़ना चाहिए और मेरे यहाँ आने का ‘ उद्देश्य कुछ दूसरा है ‘ , यह सोच कर कला जल्दी से शौचालय मे घुस गई और अन्दर से कुन्डी लगा ली ।
६
शाम को बारात थी , अत: सुबह पारम्परिक गीतों के साथ हल्दी की रस्म हुई । घर की बड़ी बूढ़ियाँ बड़ी दृढ़ता के साथ रस्म और रिवाज का पालन करवा रही थीं । वे भी जानती थीं कि ऐसे ही मौकों पर ही उनकी सुनी जाती है , वरना आजकल की नई पीढ़ी उनकी बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकालने मे पारंगत हो चली है ।
हल्दी की ढोलक के चुप होते ही , अति उत्साहित महिलाएँ और लड़कियाँ अपने आप को चमकाने मे लग गईँ । किसी ब्यूटी पार्लर वालियों को बुलाया गया था , वो जल्दी जल्दी सबके फेशियल करने और मेहंदी लगाने मे लगीं थीँ ।शाम को पहने जाने वाली साड़ियाँ , लहंगे , दुपट्टे और जेवर एक दूसरे को दिखाए जा रहे थे । लड़के भी पीछे नही थे , छत पर वे भी अपना फेशियल करवा रहे थे और बारात मे नाचने के लिए डांस का अभ्यास कर रहे थे । चाय ,मिठाई और नमकीन का दौर पे दौर चल रहे थे । चारों ओर हर्ष और उल्लास का माहौल था ।
“अम्मा मै दिल्ली से अपने जेवर नही लेकर आई “ कला ने अम्मा से कहा जो अपने कमरे मे अलमारी खोल कर कुछ ढूंढ रही थी ।
“तुमने बिलकुल ठीक किया , आजकल का माहौल ठीक नही है । ऐसे मे जेवर लेकर यात्रा बिलकुल नही करनी चाहिए “ कमला ने अलमारी से कुछ रूपये निकालते हुए कहा ।
“पर अम्मा मै शाम को पहनूँगी क्या ? “ कला तुरन्त मुद्दे पर आ गई । क्योंकि वह अपनी ‘ योजना ‘ के अनुसार एकदम सही राह पर थी ।
कला के मुँह से बात निकली ही थी कि अम्मा ने तुरन्त जेवरों का डिब्बा , अलमारी से निकाल कर , कला के आगे रख दिया ।
“अपनी पसन्द के निकाल लो बिटिया “ कमला ने बेटी पर पूरा प्यार उड़ेल दिया ।
थोड़ा सकुचाते हुए कला ने , जेवरों के डिब्बे से , अपने जाने पहचाने झुमके , एक पतला हार और चार चूड़ियाँ , निकाल कर पहिन लीं ।
शाम होते ही , मकान के दरवाजे पर बारात सजने लगी ।बैंड वाले जोरशोर से फिल्मी धुन बजाने लगे ,लड़के , अपने मुँह मे नोट दबा कर अजीब अजीब मुद्राओं वाले डान्स करने लगे । घर की महिलाएँ भी खूब सज धज कर बारात के साथ चलने को तैयार खड़ीं थीँ ।
एक रस्म के अुनसार घुड़चढ़ी से पहले कला की बड़ी भाभी ,दूल्हे को काजल लगा कर उसकी नजर उतारने लगी । इस तरह नजर उतारने वाली बड़ी भाभी पर जब कला की नजर गई तो वह एकदम गुस्से से भर गई । क्योंकि इस बड़ी भाभी ने अम्मा का सबसे भारी वाला सेट पहन रखा था । ‘ इतना सुन्दर और भारी सेट , मुझे पहनने को देना था , आखिर मै बेटी हूँ ‘ कला ने ऐसा सोचते हुए , छोटी भाभी पर नजर डाली तो मारे जलन के उसका हाल बेहाल होने लगा । इस पर तो अम्मा ने और भी ज्यादा दरियादिली दिखाई थी । छोटी भाभी तो अम्मा की सोने की कमरधनी और बाजूबन्द पहने हुए थी । घर के दोस्तों और रिश्तेदारों की इस भीड़ मे , कला की नजरों ने अम्मा को ढूंढा तो देखा कि वो बिना जेवरों के सादी सी साड़ी पहिन कर , वैराग्य की मूर्ति बन कर एक कोने मे खड़ी थी । यह सब देख कर कला अपने पर काबू रखने की कोशिश करते हुए , मन ही मन ‘ आगामी योजना ‘ बनाने मे लग गई ।
७
बारात कन्या-पक्ष के दरवाजे पहुँची । दरवाजे पर लड़कों का जोरदार डान्स हुआ , रूपये न्योछावर किए गए , वर ने घोड़े से उतर कर अपनी कमर पर लटकी तलवार से , द्वार पर सजे तोरण को काटा , सबने ताली बजाई पर कला ने मुँह बिचका दिया । असल मे तोरण काटने का अर्थ होता कि जैसे दूल्हा किसी देश का राजा है और युद्ध जीत कर अपनी रानी लेकर जाएगा । कला इतने पतले दुबले नाटे कद के लड़के को राजा मानने को बिलकुल भी राजी नही हो रही थी । खैर इससे हमको क्या ? हमे तो ‘वही ‘ करना है जिसके लिए हम यहाँ आए हैं । कला ने एक बार फिर अपने मन को भटकने से रोका । वर की द्वारपूजा के बाद , सभी बारातियों के गले मे फूलों की माला पहनाई गई , उन पर इत्र छिड़का गया । स्टेज पर जयमाला की रस्म होने लगी । वरपक्ष के लोगों ने जोश मे आकर दूल्हे महाशय को गोद मे उठा कर ऊँचा कर लिया ताकि दुल्हन को जयमाला दूल्हे के गले मे डालने मे मुश्किल हो । इधर दुल्हन पक्ष वाले भी कैसे पीछे रहते , उन लोग ने भी दुल्हन को गोद मे उठा कर ऊँचा कर लिया , हालाकि उनके लिए ये काम कठिन था क्योंकि दुल्हन अच्छे खाते पीते घर की , भारीभरकम देहयष्टि की मालकिन थी । हल्के कदकाठी वाला दूल्हा अब तक काफी ऊँचा कर दिया गया था । अब तो दुल्हन को गोदी उठाने वालों की हालत पतली होने लगी , दुल्हन को भी इस बात का अन्दाजा हो गया था कि , ये लोग ज्यादा देर तक उसका भार नही सहन कर सकते , कहीं उसे ये लोग गिरा ही ना दें , इस डर से उसने , दूल्हेमियाँ की गरदन का निशाना साध कर जयमाला उछाल दी , जो सीधे वर के गले मे जा पड़ी ।आखिर उसने भी स्कूल मे बास्केटबॉल खूब खेला था । यह दृश्य इतना मजेदार था कि सबके साथ अब तो कला ने भी ताली बजा दी ।वर के भी जयमाला पहनाने के बाद , मोटी दुल्हन को लोगों ने जल्दी से नीचे उतारा और राहत की सांस ली ।
रात्रिभोज के बाद ,मंडप मे शादी की रस्म होने लगी । पंडित जी किसी के भी समझ मे ( खुद पंडित के स्वयं की भी ) ना आने वाले ,मंत्रोच्चारण मे लग गए । इधर महिलाएँ गाली गाने लगी । वरपक्ष के लोग अपने लिए गालियाँ सुन कर खुश होने लगे । यही समय होता है कि कोई अपने खिलाफ गाली सुनकर भी खुश होता है वरना और कोई समय हो तो लट्ठ बजे बिना नही रहते ।
कन्यापक्ष के निम्नमध्यम वर्ग के परिवार ने अपनी ओर से जितना खर्च कर सकते थे , उतना किया था ।लेकिन जब मंडप मे वधू के गहने चढ़ाए जा रहे थे तो सबकी आँखें फटी की फटी रह गई , क्योंकि गहने बहुत भारी भारी और ज्यादा थे ।
“अरे इसमे आधे से ज्यादा जेवर तो नकली हैं । असल मे चांदी के हैं और इन पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है “ वर पक्ष की एक महिला ने दूसरी के कान मे धीरे से फुसफुसाई ।
“अरे जरा दिमाग लगाओ , जब लड़के को दो लाख का तिलक चढ़ाया गया है , तो इतने सारे जेवर कहाँ से देंगे ? अब इन लोग ने कोई टकसाल तो नही खोल रखी है “
रिश्तेदार महिलाओं के इस वार्तालाप को सुन कर कला जोर से चौंक उठी , ‘ दो लाख !! यानी इस सिगरेट जैसी टांगों वाले , जोकर जैसी शकल वाले , किसी छोटी मोटी प्राइवेट कम्पनी मे क्लर्क की नौकरी करने वाले लड़के को इतना ज्यादा रूपयों का तिलक ! और मेरे मिस्टर बी लाल को , जो कि दिल्ली सरकार मे लोवर डिविजनल क्लर्क की महत्वपूर्ण नौकरी करने वाले को , जिसको दिल्ली जैसे बड़े शहर में एक दो कमरे का , रहने को घर मिला है , उसे तिलक मे सिर्फ ग्यारह हजार का तिलक चढ़ाया गया था ! ये तो बहुत नाइन्साफी हुई है ‘ यह सोच कला और ज्यादा गुस्से से भर गई ।
८
अगले दिन तड़के ही बारात वापस लौटी । रात भर के जगे और थके लोग , इधर उधर लुढ़क कर आराम करने लगे । पर लड़के की माँ ने नई बहू की मुंह दिखाई की रस्म शुरू करवा दी ( क्योंकि उसे शक था कि जरा भी देरी करने पर , कुछ मेहमान बगैर नेग दिए ही वापस रवाना हो जाएंगे ) बहू की मुँह दिखाई के बाद कंगन छुड़ावन और परात मे अंगूठी डाल ,दूल्हा -दु्ल्हन के बीच खेल करवाया जाने लगा । अगर दुल्हन जीत जाती तो लड़कियाँ शोर मचाती और कोशिश करके दूल्हा जीतता ,तो लड़के तालियाँ पीट कर शोर मचाते । इस पूरे शोर गुल मे कला का सारा ध्यान अम्मा के ऊपर था कि कब वे अकेले मिलें कि ‘ बात ‘ करें । क्योंकि उसकी भी दिल्ली वाली गाड़ी शाम के चार बजे रवाना होती थी । उससे पहले ही ये बड़ा ‘ काम ‘ हो ही जाना चाहिए । बस कुछ ही घन्टे का समय बाकी रह गया था ! अचानक कला ने देखा कि अम्मा अपने कमरे की ओर जा रही हैं । बस बस यही मौका है , वरना अत्यधिक व्यस्त अम्मा अकेले मिलती ही कहाँ हैं ।कला भी अम्मा के पीछे हो ली ।
“अम्मा क्या हो गया ? यहाँ क्यों आई ? अपनी दवा तो खाली ना ?” कला ने अम्मा के प्रति प्यार दिखाया ।
“हाँ दवा वगैरह तो सब खा ली है । मै ये जेवर वापस रखने आई थी । क्योंकि कहीं और रख कर भूल गई तो , परेशानी होगी । आखिर इत्ते सारे मेहमानों मे कोई कैसा कोई कैसा ! सब पर तो भरोसा नही किया जा सकता । बिट्टो तुम भी झुमके , हार , चूड़ी उतार कर दे दो , अभी एक साथ ही सब वापस जगह पर रख दें “ अम्मा ने उससे अपने जेवर मांग लिए ।
कला को झटका लगा कि मै तो अम्मा से उनके जेवर अपने लिए मांगने के ख्याल रख कर यहाँ ये फालतू सी शादी मे शामिल होने का बहाना लेकर आ गई ! पर इनकी तो मंशा ही कुछ अलग दिख रही है ! अब वो कैसे अपनी बात शुरू करे ? इस मामले मे पहले अम्मा का पेट लेना चाहिए । क्योंकि जिस तरह से उन्होने जेवर वापस मांग लिए , उससे लगता नही कि ये आसानी से उसे अपनी विरासत सौंपेगीं ।अत: उसने उंगली पकड़ते हुए पँहुची लपकने के हिसाब से बात शुरू की ।
“अम्मा पता , कोई कह रहा था कि कल रात मंडप मे जो जेवर चढ़ाए गए हैं , उनमें आधे से ज्यादा नकली हैं । सोने का पानी चढ़े जेवर हैं “ उसने राज की बात बताई ।
“हो सकता है , अरे लड़की वालों की हैसियत इतनी नही है कि इतना सारा सोना दें । आजकल सुनार लोग सोने का पानी चढ़ा कर एकदम असली जैसा बना देतें हैं “ अम्मा ने अपने विचार प्रकट किए ।
“हाँ अम्मा ! मै भी यही कहना चाह रही थी कि तुम तो बहुत भोली हो । भाभी लोग को अपने जेवर पहनने को मत दिया करो । अरे चालाकी से तीन चार दिन ,अपने पास रख लेंगी और झट से सुनार से हुबहूँ वैसा ही पानी चढ़ा जेवर बनवा कर ,तुमको वापस कर देंगी । तुमको पता भी नही चलेगा कि कब असली माल गायब हो गया । आजकल ये सब बहुत हो रहा है “ कला ने अपनी स्पष्ट राय दी ।
“नही बिटिया , मेरी बहुएँ ऐसी तो कदापि नही हैं । मुझ पर जान छिड़कतीं हैं । बेचारी लोग जब से इस घर आईं है , तबसे क्या सुख देखा इन दोनो ने । रात दिन घर की चारदीवारी मे बन्द , बस काम ही करती रहतीं हैं । बाहर की दुनियाँ क्या होती है , इनको पता ही नही । बस मायके या ससुराल ही इनका ठिकाना है । बड़ी वाली का तो मायका भी इसी शहर मे है , वो तो कभी ट्रेन मे भी नही चढ़ी । तुम लोग एक बार हमको और तुम्हारे बाबूजी को दिल्ली ले गए थे , और हम दोनो को पूरी दिल्ली शहर देखने को मिल गया था । कैसी चौड़ी सड़कें थीं , ऊँची उँची इमारतें , गाड़ी मोटर , लाल किला , कुतुब मानार , इंडिया गेट ! सब याद है हमको । ये सब देख कर हम दोनो बहुत खुश हुए थे ।तुम लोग भी सरकार से मिलने वाली मदद से जब ना तब भारत दर्शन करने नई नई जगहों पर जाते रहते हो। पर इन बेचारियों को ये सब कहाँ नसीब ! तुम्हारे बाबूजी तो महिना दो महिना मे मुझको पिक्चर हॉल मे पिक्चर दिखाने ले ही जाते थे । पर तुम्हारे दोनो भाई लोग तो ऐसे हैं कि हम क्या तारीफ करें । खुद घूमघाम आएगें , अकेले पिक्चर देख आयेगें पर अपनी बीबीयों को कहीं नही ले जाएँगे । घर पर बिजली जब ना तब गायब रहती है तो टीवी पर भी कुछ देखने को नही मिलता “ इतना कह कर कमला अपनी आँखें पोछने लगी ।
‘ये उल्टी गंगा कबसे बहने लगी कि अब बहूओं पर प्यार बरसने लगा ! अम्मा हम लोग को दफ्तर से मिलने वाली एलटीसी का बखान करना नही भूली । अरे अम्मा जब तुम्हारे बेटे गिल्ली डंडा खेलने मे लगे रहते थे तो मेरे मिस्टर बी लाल पढ़ाई करते थे । इतनी आसानी से इनको ये नौकरी नही मिली है । हाँ नही तो !’ कला गुस्से से भरने लगी ।
“जिज्जी हरदोई वाले भइया भाभी जा रहे हैं । आपको बुलाया जा रहा है “ बाहर से मामी जी ने अम्मा को पुकारा ।
“अरे बिट्टो , ये सभी जेवर , डिब्बे मे जमा कर रख दो और अलमारी मे डिब्बा रख कर ताला लगा दो । मुझे भईया की विदाई मे देर हो जाएगी “ इतना कह कर कमला देवी तेजी से कमरे से निकल गई ।
९
अम्मा के बाहर जाने के बाद , कला कमरे मे अकेले रह गई । थोड़ी देर तक वो कुछ सोचती रही फिर उसने उठ कर दरवाजा बन्द करके कुन्डी लगा दी । उसने अपना फटा पुराना हरा बैग निकाला और उस हरे बैग में जल्दी जल्दी अम्मा के जेवर भरने लगी । कला ये हरा बैग , दिल्ली से लाई ही इसी उद्देश्य से थी , कि जाते समय अम्मा के जेवर इसी मे छिपा कर ले जाना है । क्योकि हरा बैग अन्दर से मजबूत पर बाहर से फटा पुराना था । इससे किसी को भी सन्देह नही होगा कि इसके अन्दर ‘ माल ‘ भरा है । कला ने गत्ते के डिब्बों से जेवर निकाल लिए और हरे बैग मे नीचे रख कर ऊपर से अपने रोज काम आने वाले सामान , जैसे पुराना तौलिया , चप्पले आदि जमा दिए । फिर वापस गत्ते के खाली डिब्बों को अच्छे से टीन के बने , छोटी सन्दूकची जैसे जेवर के बड़े बाक्स मे , जमा कर ऐसे रख दिया जैसे कुछ हुआ ही नही हो । इसके बाद उसने जेवर के बाक्स को अलमारी के अन्दर रख कर , अलमारी मे ताला लगा कर , चाभी को वहाँ छुपा दिया , जहाँ अम्मा रखा करती थीं ।इतना करने के बाद कला जल्दी जल्दी अपने सामान की पैकिंग करने मे व्यस्त हो गई । उसने अपने बाकी सब बाक्स मे ताला लगाया पर उस हरे बैग मे नही लगाया । वो इसलिए कि लोगों को लगे कि ये गैरजरूरी बैग है और चोर उचक्कों का भी इस पर ध्यान ना जाए ।
कला अब अपने उस खास उद्देश्य को पूरा कर चुकी थी जिसके लिए वो मिस्टर बी लाल को जबरदस्ती छुट्टी दिलवा कर और बच्चों को सासुमाँ के हवाले कर के आई थी । असल मे कला दिल्ली मे अपना खुद का फलैट लेना चाहती थी । भूरेलाल की पगार के अनुसार बैंक से लोन तो मिलता , पर इतना अधिक नही , कि एक अच्छी सी लोकेशन पर दो बेडरूम वाला फ्लैट मिल जाए । कला को मालूम था कि मायके मे माँ के पास काफी सारा सोना है । यह सोना लेने वो आई थी कि किसी तरह वो माँ को अपने प्यार का वास्ता देकर या लड़ झगड़ कर सारा सोना हथिया ले ताकि दिल्ली मे उसका खुद का घर हो सके । पर यहाँ अम्मा के रंग ढंग देख कर लग गया था कि घी सीधी उंगली से नही निकलने वाला , उंगली टेढ़ी करनी ही पड़ेगी । ‘ अभी नही तो कभी नही’ वाला मामला था । और यह बात उसे कहीं से भी सहन नही हो रही थी कि अम्मा के बाद , इतने कीमती जेवरों की मालकिन , उसकी अनपढ़ और गंवार , दोनो भाभी लोग होंगी ! उफ! इससे तो अच्छा है कि अम्मा अपने सारे जेवरों की एक पोटली बना कर , उस पोटली को किसी नदी मे डाल दे । नही नही कलावती ! तुम बिलकुल सही कर रही हो । इस तरह कला ने अपने मन को समझाया और मजबूत किया तथा आँखे बन्द करके गहरी गहरी सांसे लेने लगी फिर धीरे से उठ कर दरवाजे की कुन्डी खोल दी ।
१०
“अरे बिट्टो ! अभी से सामान बांध लिया , तुम्हारी ट्रेन तो शाम को जाती है ना ?” कमला ने कमरे के एक कोने मे , बिट्टो का सारा सामान बंधा रखा ,देख कर आश्चर्य से कहा ।
“हाँ अम्मा ! गाड़ी तो शाम को चार बजे छूटती है पर इनके एक मित्र यहीं रहते हैं , उनसे मिल कर हम लोग सीधे स्टेशन निकल जाएंगे ।” असल मे कला किसी भी बहाने जल्दी से जल्दी , वहाँ से निकल जाना चाहती थी ।
“अच्छा ठीक है फिर मै तुम लोग की विदाई का इन्तजाम करती हूँ “ यह कह कर कमला देवी उल्टे पांव वहाँ से लौट गईं ।
लालपुरा मे भूरेलाल का कोई मित्र नही रहता था ।कला ने बड़ी चतुराई से ,अपने भोले भाले पति से वहाँ से जल्दी चलने का बहाना यह बनाया कि - उसकी भाभी की बहन से बहुत खटपट हो गई है , और कला यहाँ बिलकुल भी रूकना नही चाहती अत: यहाँ से जल्दी चलो । मिस्टर बी लाल की क्या ही मजाल कि वे कला की किसी भी बात पर ‘किन्तु-परन्तु ‘ बोल कर कुछ प्रश्न भी करें ।
फलस्वरूप दोनो दिन भर एक पार्क मे बैठे रहे और थोड़ी शाम होते ही दिल्ली जाने वाली गाड़ी पकड़ने रेलवे प्लेटफार्म पर आ गए ।प्लेटफार्म पर बेन्च पर बैठी कला बड़ी बेसब्री से अपनी ट्रेन का इन्तजार करने लगी । अचानक पता नही कहाँ से एक कुत्ता आकर बेन्च के बाजू मे रखे कला के सामान को सूंघने लगा । कला डर गई कि हो ना हो ये पुलिस का खोजी कुत्ता है , क्योंकि देखने मे आवारा सा नही लग रहा है । हम लोग को घर से निकले करीब पाँच घन्टे तो हो चुके है , जेवर नदारद पाकर अम्मा लोग ने अब तक जरूर ही पुलिस मे रिपोर्ट करवा दी होगी । इसीलिए ये कुत्ता पता लगाने के लिए आया है । ये सिर्फ मेरा ही सामान क्यों सूंघ रहा है ? अब ये जरूर पुलिस को भौंक कर बता देगा कि माल इधर है । क्योंकि और लोगों के सामान को तो ये देख भी नही रहा । कला भयग्रस्त होने लगी । लेकिन तभी कुत्ता दूसरी ओर चला गया ।
चोर कितना ही निडर और चालाक हो पर अपने पकड़े जाने का डर उसकी हालत हमेशा पतली किए ही रहता है । तभी एक पुलिसवाला उसकी ओर आता दिखा । अब तो कला को लगा कि निश्चित रूप से अब तो वो पकड़ी गई । उसका दिल बार बार अपने आप को धिक्कारने लगा । पुलिसवाला थोड़ी देर उसके पास रुका फिर आगे चला गया । कला को लगा कि हो ना हो अब ये वापस लौट कर आयेगा , वो जरूर ही महिला पुलिस को लेने गया है क्योंकि ये मामला ‘महिला चोर ‘से सम्बन्धित था ।
“समोसा खाओगी ? ठेले वाला गरम गरम तल रहा है । जलेबी भी ताजी और स्वादिष्ट है । मै एक प्लेट खाकर आया हूँ । तुम कहो तो मै तुम्हारे लिए भी ले आऊँ !” भूरेलाल ने बहुत प्यार से कला से पूछा क्योंकि उन्होने देखा था कि सुबह से कला ने कुछ खाया नही है ।
‘इनको गरम गरम समोसे और जलेबी की पड़ी है और यहाँ मै गिरफ्तार होने वाली हूँ ‘ यह सोच कर कला को चक्कर ही आ गया । भूरेलाल घबरा कर पानी की बोतल से पानी गिलास से निकालने लगे । तभी ट्रेन आ गई ।
“तुम्हारी तबियत खराब हो रही है तो आज नही जाते हैं और डाक्टर को दिखा कर आराम करो । हम लोग वापस घर चलतें हैं “ भूरेलाल ने नेक सलाह दी ।
“नही नही ! मै बिलकुल ठीक हूँ “ कह कर कला अपना हरा बैग सीने से दबा कर ,तुरन्त ही कूद कर ट्रेन मे चढ़ गई । ट्रेन मे अपनी सीट पर विराजमान होकर कला को कुछ राहत आई पर अब एक नई समस्या ! ट्रेन एक दो सीटी देकर चुप हो गई और चलना शुरू ही नही कर रही । कला को लगने लगा कि पुलिसवाले उसकी खोज कर रहें हैं इसीलिए ट्रेन नही चल रही है ।
खैर ट्रेन ने धीरे धीरे चलना शुरू कर दिया और फिर स्पीड पकड़ ली । कला ने राहत महसूस की पर अचानक उसकी कल्पना मे कुछ दृश्य आने लगे , जैसे कि -घर मे सबको पता लग गया है कि जेवर गायब हैं और कला ही ले गई है । फिर लगा कि अम्मा अपनी घूरती नजरों से उसे देख रही हैं और कह रहीं हैं कि “ बिट्टो हमने तुमको कितना प्यार किया , तुम पर कितना भरोसा किया और तुमने हमको इतना बड़ा धोखा दिया ।शायद , हमारी ही परवरिश मे कोई कमी रह गई होगी “ इसके बाद कला के मनस पटल मे दूसरा दृश्य आया कि जैसे दोनो भाभी लोग कला से कह रही हों “ जिज्जी तुमको अम्मा के जेवर चाहिए थे तो हमसे कह कर ले जाती , हम मना थोड़े ही करते , तुम तो हमारा मान हो ना जिज्जी ! इस तरह चोरी करके अपने खानदान का नाम बदनाम करने की क्या जरूरत थी ?”
पर कला ने इन सब विचारों को अपने मन से ठेल कर अलग किया और अपने आप को यह कह कर दिलासा दी कि - ‘ नही कला तूने बिलकुल ठीक किया रे ! आखिर घर की जायदाद मे लड़की का भी तो हिस्सा होता है ना ! अब तू मकान , दुकान और खेत से तो हिस्सा नही मांग रही , तो ये जेवर ले जा रही तो कोई गलत नही कर रही । ये तो तेरा हक है रे ! और अपने हक को ‘साम दाम दंड भेद ‘कैसे भी लेना कोई बुरी बात नही।
११
पूरी रात ट्रेन मे बितानी थी । ट्रेन सुबह आठ बजे दिल्ली स्टेशन पहुँचती थी । रात का खाना खाने के कुछ देर बाद ही , कला को नीन्द आने लगी । भूरेलाल किसी अन्य यात्री से मांग कर कोई मैगजीन पढ़ने मे तल्लीन थे । कला ने उनके कान में धीरे से कहा “ मै सो रही हूँ , आप इस हरे बैग का ख्याल रखना “
मिस्टर बी लाल को सरपट दौड़ती ट्रेन के शोर मे कला की बात स्पष्ट नही हुई , तो उन्होने चिल्ला कर कहा , “ क्या मुझे इस हरे बैग का ख्याल रखना है ? वो क्यों ? क्या इसमे कोई कीमती सामान रखा है ? तो फिर इसमें ताला क्यों नही लगाया ? लाओ इसे मै सीट के नीचे डाल देता हूँ “
कला का गुस्सा सांतवे आसमान पर पहँच गया । वह मन ही मन बड़बड़ाने लगी ‘ ये निखट्टूलाल ही मेरी किस्मत मे लिखे थे । इतनी जोर से चिल्ला रहें हैं कि जो ना भी जानता हो वो भी जान जाए कि इस हरे बैग मे ‘ कुछ ‘ है । अब मुझे समझ मे आया कि पिछले साल इनके साथ के अन्य लोगों का प्रमोशन हो गया और ये पीछे छूट गए थे । दफ्तर मे भी इसी तरह का काम करते होंगे ‘ और भूरेलाल के खिलाफ सोचते हुए कला के मन मे एक बार भी ये विचार नही आया कि उनको ये कहाँ पता था कि इस हरे बैग मे वो क्या क्या रख कर ले जा रही है ।
थोड़ी ही देर मे भूरेलाल तो कुछ अन्य यात्रियों के साथ खर्राटे लेने की प्रतियोगिता मे जोर शोर से शामिल हो गए , पर कला रात भर हरे बैग की रक्षा करती हुई जागती रही ।
खैर जैसे तैसे रात भर के इन्तजार के बाद ट्रेन दिल्ली स्टेशन जा लगी ।
रेलवे प्लेटफार्म से बाहर आकर , इन दोनो पति-पत्नी ने एक ऑटोरिक्शा किया और अपना सामान सीट के पीछे की जगह पर जमा कर सीट पर विराजमान हो गए । ऑटो अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा । सुबह के समय ट्रैफिक कम था तो ऑटोरिक्शा आराम से चला जा रहा था । हल्की हल्की ठन्डी हवा चल रही थी । कला भर जागे रहने के कारण कला को झपकी आ गई ।
आधे घन्टे बाद ही ऑटोरिक्शा इनके घर के आगे रूका । उतर कर कला ने एक अंगड़ाई ली और अम्मा का दिया मिठाई , नमकीन का झोला लेकर घर के अन्दर दाखिल हो गई । ऑटोवाले को पैसा देने के बाद भूरेलाल जी भी बाकी सारा सामान एक साथ उठा कर , घर के अन्दर दाखिल हुए और अपनी माँ के पैर छूकर , आज का अखबार लेकर सीधे टॉयलेट मे प्रवेश कर गए ।
हाथ मुँह धोकर कला चाय बना लाई , बच्चों को मिठाई देने के बाद स्वयं मठरी के साथ गरम चाय का आनन्द लेने लगी । तभी उसका ध्यान सामान की ओर गया । बाकी सारा सामान तो यथावत था पर हरा बैग कहीं नहीं दिख रहा था । कला एकदम से घबरा गई । चाय का मग टेबल पर रख उसने पहले तो सामान स्वयं चेक किया , फिर लगी टॉयलेट का दरवाजा पीटने ।
“सुनो जी , वो हरा बैग नही दिख रहा “ कला लगभग चीख कर बोली ।
“रुको , अभी आता हूँ “ अन्दर से भूरेलाल की गुर्रा कर डांटती हुई आवाज आई । मिस्टर बी लाल को ये कतई पसन्द नही था कि कोई भी उनके इस नितान्त ‘ निजी समय ‘ मे डिस्टर्ब करे ।
कला को लग रहा था कि कब उसके ये निखट्टूलाल बाहर आएं और हरे बैग के बारे मे बताएं कि उन्होने मजाक करने के लिए वो हरा बैग कहीं छुपा दिया है । हालाकि कला अन्दर बाहर सब जगह कई कई बार देख चुकी थी । उसका एक एक पल घबराहट मे बीत रहा था ।
टॉयलेट के अन्दर से पहले फ्लश चलने फिर हाथ धोने की आवाज आई , और फिर दरवाजा खुला । तौलिए से मुँह पोछते हुए मिस्टर बी लाल ने बुरा सा मुँह बनाया और कहा “ अरे वही फटा सा हरा बैग ! जिसकी तुम मुझको ट्रेन मे निगरानी रखने को कह रही थी ?”
“हाँ हाँ वही बैग ! वो कहाँ रखा आपने ? “ कला ने गड़गिड़ाते हुए पूछा ।
“वो नही है क्या ? मैने तो ऑटो से ये एक बड़ा सूटकेस और ये दो छोटे बैग ही उतारें हैं । मैने सोचा कि वो तुमने अपना हरा बैग पहले से ही उतार लिया है ।”भूरेलाल का इतना कहना था कि कला की हालत ऐसी हो गई कि काटो तो खून नही वाला मामला । वो आक्रोश से भर गई ‘ मै हरे बैग के कारण रात भर जागी , सुबह जरा सी नीन्द आ गई और ये बन्दा रात भर अच्छे से सोया और इससे इतना भी ना हुआ कि ऑटोरिक्शा मे अच्छे से झांक कर देख ले कि कुछ सामान तो नही छूट गया । एक मै ही हूँ जो ऐसे आदमी के साथ निभा रही हूँ । और वो ऑटोरिक्शा वाला ! लोगों का रातोंरात लखपति बनने का मुहावरा तो सुना है पर ये रिक्शावाला तो दिन दहाड़े लखपति बन गया !अब मै क्या करूँ ? चोरी के लाखों के जेवर फिर से चोरी हो गए ! और ये सोच कर कला अपना माथा ठोकने लगी कि अब तो बहुत देर हो गई है और वो ऑटोरिक्शा वाला बहुत दूर निकल गया होगा ।
१२
“आपने उस ऑटोरिक्शा का नम्बर नोट किया था ?” परेशान कला अपने पति से पूछ बैठी ।
“अरे उसकी क्या जरूरत थी “ अब मिस्टर बी लाल के हैरान होने की बारी थी ।
“क्या उस ऑटोरिक्शा वाले की शक्ल आपको याद है ? अगर रेलवे स्टेशन के पास जाकर हम उसे खोजें तो क्या आप उसे पहचान लेगे ? “ कला की बैचेनी बढ़ती जा रही थी , क्योंकि वो किसी भी कीमत पर उस बैग को वापस चाहती थी ।
“तुम भी कैसी बात करती हो ? अरे हम लोग उस फटे पुराने बैग , जिसमे तुमने सिर्फ तौलिया , पुरानी चप्पलें और मेकअप का सामान ही तो रखा था , के लिए क्यों इतनी भागदौड़ करेंगे ? वो हरा बैगऔर थोड़ा बहुत सामान गया तो जाने दो , फिर से खरीद लेना । “ भूरेलाल ने समझाते हुए कहा ।
अब इस भोलेबसन्त को कला कैसे समझाए कि उस हरे बैग के पीछे , वो अपने मायके से सारे सम्बन्ध तोड़ आई है । सबका विश्वास खो आई है । अपना ईमान- धर्म सब बेच आई है ।
खुद ही खुद की नजरों से गिर चुकी कला , भारी कदमों से अन्दर के कमरे मे जाकर बिस्तर पर आकर बैठ गई और उसकी आँखों से मोटे मोटे आँसू टप टप कर गिरने लगे ।
तभी अचानक ही , दरवाजे की बेल बजी ! जिसे सुन कर कला का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा कि ‘ हाय ! अब इस वक्त ये बेल कौन बजा रहा है ? जरूर ही पुलिस आई होगी । अम्मा ने जेवर गायब देख जरूर कोहराम मचा दिया होगा , और बड़े भइया ने लालपुरा पुलिस थाने मे उसके खिलाफ नामजद रिपोर्ट लिखवा दी होगी कि उन लोग को कला पर शक है । लालपुरा की पुलिस ने दिल्ली पुलिस को फोन कर दिया होगा । दिल्ली पुलिस तो वैसे भी बहुत तेज होती है । फौरन ही आ गई । पुलिस के घर पर इस तरह आने से , अब जेवर वाली बात सासुमाँ , भूरेलाल आदि सबको पता चल जाएगी । बच्चे पता नही क्या सोचे ? और ये माँ बेटा लोग क्या सोचे ? हाय मेरा अब क्या होगा ? ‘ ये सोच कर कला को फिर से चक्कर आने लगा ।
भूरेलाल ने दरवाजा खोला तो सामने ऑटोरिक्शा वाला खड़ा था ।
“साहब ये हरा बैग आप हमारे ऑटो मे भूल गए थे ।” कहकर उसने हरा बैग भूरेलाल को पकड़ा दिया ।
“मै नही देखा था कि ये बैग पीछे रखा है । दूसरी सवारी ने बताया कि कोई अपना सामान भूल गया है ।
मै समझ गया कि आज की पहली सवारी तो आप लोग ही थे , आपका ही होगा , इसलिए देने चला आया “ उसने कहा ।
तब तक कला दौड़ कर आ गई । उसने झट हरा बैग लिया , बेडरूम मे जाकर जल्दी से बैग मे छुपाए हुए जेवर देखे जो पूरे के पूरे मौजूद थे । उत्साह से भरकर कला तुरन्त वापस आई ।
“भइया चाय पीकर जाओ “ कला ने ऑटोवाले को चाय का निमन्त्रण दिया ।
“नही बहन जी रहने दीजिये । मुझे जल्दी स्टेशन जाना होगा । वो कानपुर वाली गाड़ी आने से पहले स्टेशन पहुँचना है । ये बैग लौटाने के चक्कर मे मुझे पाँच किलोमीटर उल्टा आना पड़ा है “ कहकर वो तेजी से वापस निकल लिया ।
इसके बाद ही भूरेलाल जी , दफ्तर और बच्चे स्कूल की ओर चल दिए ।
कला ने वापस बेडरूम मे आकर अपना हरा बैग पूरी तरह से बिस्तर पर पलट दिया । अब उसके सामने एक एक सामान बिखरा पड़ा था । रूमाल , दुपट्टे, चप्पलें , मैगजीन , मेकअप का सामान , सौंफ ,इलाइची , लौंग की डिब्बी , जरूरी दवाओं का डिब्बा , तौलिया , पाचक चूरन की डिबिया , चाभियों का गुच्छा और इन सबके बीच उसके चुराए हुए सारे जेवर मुस्कुराते हुए उसे मुँह चिढ़ा रहे थे । सारे के सारे जेवर सुरक्षित थे , एक भी गायब नही था । कला जेवरों को देखती हुई , गुमसुम सी बस सोचे जा रही थी और सिर्फ सोचे जा रही थी ।
१३
“अम्मा जी मुझे आज ही लालपुरा वापस जाना होगा । एक बहुत जरूरी काम मै भूलकर आ गई हूँ । उसे पूरा करना है , वरना मेरे मायके वालों को बड़ी परेशानी हो जाएगी ।” कला ने एक बड़ा निर्णय ले ही लिया ।
“पर बहू , आज सुबह की गाड़ी से ही तो आई हो !” सासुमाँ ने आश्चर्य दिखाया ।
“अम्माजी मेरे मायके मे जायदाद के कागज पर मुझे हस्ताक्षर करने थे , जो बहुत जरूरी थे । शादी के तामझाम मे , वो मै भूलकर आ गई । मुझे जाना होगा । वरना दोनो भाई लोग और अम्मा बहुत परेशानी मे पड़ जाएंगे ।” बहाने बनाने मे निपुण , कला ने जल्दी से एक नया बहाना बनाया ।
“आप दो दिन और मेरी गृहस्थी देख लो , मै बस परसों वापस आ जाऊँगी ।” कला ने सास से ये विनती की , जिसे सासुमाँ ने तुरन्त मान लिया ।
दिल्ली से लालपुरा जाने वाली गाड़ी शाम को चार बजे ही छूटती थी । बच्चों और भूरेलाल के वापस आने से पहले ही कला , ट्रेन के बिना रिजर्वेशन वाले जनरल डिब्बे मे किसी तरह बैठ कर वापस लालपुरा वापस चल दी । रास्ते भर वो हरे बैग को सीने से चिपकाए बैठी रही ।
ट्रेन ने अपनी रफ्तार पकड़ ली । कला के अन्तरमन मे पिछले कुछ दिनों की सभी बातें और घटनाएँ एक के बाद एक किसी चलचित्र की तरह चलने लगीं । वो कुछ इस प्रकार कि - बहुत समय से कला के मन मे अपनी माँ के बहुमूल्य जेवर हथियाने का लालच था । अचानक उसके ममेरे मामा के बेटे की शादी का निमन्त्रण मिला । संयोगवश शादी भी उसी के मायकेवाले मकान से ही सम्पन्न हो रही थी । वैसे तो कला के बच्चों की परीक्षा सिर पर थी और कला इस दूर के रिश्ते वाली शादी मे जाना टाल सकती थी । पर कला ये ‘सुनहरा मौका ‘ नही गंवाना चाहती थी । कला अपनी अम्मा से जेवर मांग कर लेना चाहती थी । इसके लिए वो लड़ना झगड़ना भी कर सकती थी । पर अम्मा के बदले हुए तेवर देख उसे लग गया था कि आसानी से ये जेवर उसे नही मिलने वाले । उसकी चोरी करने का कतई इरादा ना था पर पता नही कैसे ..... उससे ये अपराध हो ही गया ।
फिर जीवन मे किसी देवदूत की तरह वो अनजाना सा व्यक्ति एक ऑटोरिक्शा वाले के रूप मे चला आया । उसे कला देवदूत ही मान रही थी क्योंकि उसे इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि बैग मे कोई ताला वाला नही लगा था , वो ऑटोवाला बैग वापस करने से पहले , अन्दर झांक कर देख तो सकता था कि अन्दर क्या कुछ रखा हुआ है । चलो एक बार ये मान लें कि बैग मे उपर ही पुराना तौलिया और घिसी चप्पलें देख कर ये अनुमान लगाया जा सकता था कि अन्दर भी ऐसा ही कुछ गैरजरूरी सामान भरा होगा । पर फिर भी इस ‘ ‘गैरजरूरी ‘ सामान को भी तो वापस करने वो चार पाँच किलोमीटर तक उल्टा वापस आया । उसने अकसर ही रिक्शावालों को पाँच - दस रूपये के लिए सवारियों से झगड़ते देखा था । यानी इतना मंहगा पेट्रोल - डीजल होने के बाद भी उसने सिर्फ हराबैग वापस करने के लिए इतनी ज्यादा फालतू गाड़ी चलाई ।वो भी पाँच किलोमीटर , आना व वापस जाना यानी पूरे दस किलोमीटर ! इतना अधिक फालतू गाड़ी चलाना , ईधन खर्च करना , समय खर्च करना , उस स्तर के व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी बात थी ।
शकल से वो कॉफी गरीब सा लग रहा था । उसके भी जीवन मे चाहतें और जरूरतें होंगी , जिन्हे वो दिन भर खटने के बाद भी पूरी कर पाता होगा कि नही , ये सोच पाना जरा मुश्किल है । पर फिर भी उसने वही किया जो उसके लिए सही था ।ऑटोरिक्शा वाले का इस तरह हरा बैग लौटा देने वाले इस काम ने एक झटके से , कला को बदल कर रख दिया ।कला का अन्तरमन बार बार उसे धिक्कारने लगा और वो इस ‘ अनजाने ‘ व्यक्ति के आगे अपने आप को बहुत छोटा महसूस करने लगी कि स्वयं कला के जीवन में कोई भी अभाव नही था फिर भी अपनी खुद की माँ के जेवरों के लिए उसने अपनी नीयत खोटी की थी । अत: उसने तुरन्त ही जेवर वापस करने का निर्णय ले डाला ।
कला की नजर मे वो ‘ अनजाना ‘ आदमी , किसी भी धर्म या जाति से ऊपर एक देवतुल्य इन्सान था क्योंकि अगर वो उसके जीवन मे न आता तो कला कभी भी अपने आप को माफ ना कर पाती और उसे हमेशा एक अपराधबोध के साथ उसे ये जीवन जीना पड़ता ।
१४
कमला देवी अपने कमरे मे कुछ ढीली सी पड़ीं थीं । दो दिन से उनके सिर मे दर्द था । घर के बाकी लोग समझ रहे थे कि , शादी की भागदौड़ मे थक गई होंगी । पर उनके इस तरह निढाल पड़े रहने का ‘कारण’ कुछ और ही था ।
सब मेहमानों के चले जाने के बाद , बस ऐसे ही कमलादेवी अपने जेवरों के बाक्स को खोल कर बैठ गईं । पर जब अपने बहुत सारे जेवरों को बाक्स से नदारद पाया तो उनके होश ही उड़ गए ! शोरगुल मचाने का कोई फायदा नही था क्योंकि वो जान गई थीं कि ये ‘ किसका ‘ काम था । उन्होने चुप रहने मे ही भलाई समझी । पर चुप भी कब तक रह सकेगीं वो ? एक ना एक दिन उनके बेटे बहू जान ही जाएगे कि घर के जेवर गायब हो गए हैं , और ये बात अम्मा ने उन लोग से छुपाई है ! हो ना हो अम्मा ने उन लोग को बिना बताए अपनी बेटी को चुपके से दे दिए होंगे । ऐसा वे लोग जरूर ही सोचेंगे ।अब कमला देवी अपने बेटे बहू लोगों से कैसे बता सकेंगी कि उन्होने कुछ भी नही किया , असल मे बिट्टो ही .... । यानी घर की बेटी चोर निकली ! ये बात कमला देवी के दिल मे किसी शूल की तरह चुभ रही थी । बार बार यही कुछ सोच कर आँखें भर आ रही थीं । अचानक ही , बाहर की आवाजों को सुन कमला देवी चौंक पड़ी ।
“अरे जिज्जी आप ? “ आंगन के हैंडपम्प से पानी निकालते , छोटी बहू के हाथ रुक गए ।
“हाँ , इनके ऑफिस का पहचान पत्र इनसे यहीं छूट गया था । वही लेने आई हूँ । असल मे वो एक सरकारी कार्ड है , उसका हर समय साथ होना बहुत जरूरी होता है , खो जाए तो पुलिस मे रिपोर्ट करानी होती है । मैने इनसे कहा कि आप बच्चों की परीक्षा की तैयारी कराओ । मै ही वापस जाकर ले आती हूँ “ कला ने फिर एक कहानी गढ़ी ।
ये वार्तालाप सुन कमला देवी सोचने लगी - ये तो बिट्टो की आवाज है ! अब वो यहाँ दुबारा क्या लेने आई है ? अब यहाँ बाकी ही क्या बचा है ? यह सोच कर कमला ने मन ही मन एक आह भरी ।
अभी कमला देवी अपने इन्ही विचारों से गमगीन हो ही रही थीं कि कला उनके ठीक सामने प्रकट हो गई ।
“अरे बिट्टो तुम ?” अम्मा ने बिस्तर से उठने की कोशिश की ।
“अम्मा !यहाँ का कुछ सामान ‘गलती ‘ से मेरे साथ चला गया था । वहाँ जाकर जब तुम्हारे दामादजी ने ये सामान देखा तो बहुत गुस्सा हो गए और बोले कि मै नही जानता , अभी के अभी ये सब वापस करके आओ वरना मै अन्नजल कुछ ना ग्रहण करूँगा और मुझे जबरदस्ती ही शाम की गाड़ी मे चढ़ा दिया “ अपने हरेबैग से जेवर निकालते हुए , कला ने फिर से एक कहानी गढ़ी ।
अपने हमेशा के साथी और प्यारे जेवरों वापस मिलते देख पहले तो कमलादेवी भौचक्की सी रह गई फिर रो पड़ीं ,
रोने मे कला ने भी उनका साथ दिया । हालाकि माँ -बेटी दोनो के आँसू अपने अलग अलग कारण और भाव से निकल रहे थे ।
“बड़ी ही महान आत्मा हैं हमारे कुँवर साहब ! अरे बड़े ही भाग्य से किसी परिवार को ऐसा सज्जन और नेक दामाद मिलता है । भगवान उनको बहुत लम्बी उमर दे और दफ्तर मे वे खूब परमोसन ( पदोन्नति ) पाएँ और जल्दी वे दफ्तर के सबसे बड़े साहब बन जाएँ ।” कमला तो भूरेलाल को बस दुआ पर दुआ देते जा रही थी ।
अपने मिस्टर बी लाल को ‘हीरो ‘ का दर्जा दिला चुकी कला उनके पदोन्नति की बात सुन कर मन ही मन मुस्कुरा दी कि मिस्टर बी लाल के अपने खुद के प्रयास तो अपनी प्रमोशन नही करवा पाए , शायद अम्मा की दुआ कुछ काम कर जाए ।
“अम्मा ! गाड़ी लेट होने के कारण मुझको यहाँ पहुँचने मे देरी हो गई है । अत: मुझे बस थोड़ी देर बाद ही वापसी की गाड़ी पकड़ने के लिए निकलना होगा ।तीन दिन बाद ही बच्चों की परीक्षा जो शुरू है “ कला ने उठते हुए कहा ।
“अरे बिट्टो ऐसी भी क्या जल्दी ! बस एक दिन तो और रुक जाती , तुम्हारी पसन्द के कढ़ी- चावल और आलू की भुजिया सब्जी हम अपने हाथ से बनाते “ कमला ने बेटी के प्रति प्यार उड़ेला ।
“नही अम्मा आज जाने दो । मै गरमी मे फिर आऊँगी और दोनो भाभी को और तुमको अपने साथ दिल्ली ले जाऊँगी , दिल्ली की सैर कराने । अम्मा तुमने पन्द्रह साल पहले की दिल्ली देखी थी । अब चल कर फिर से देखो , बहुत बदल गया है सब कुछ !” यह कह कर कला कमरे से बाहर चल दी ।
‘ सिर्फ दिल्ली ही नही बदली , दिल्ली मे रहने वालों का दिल भी बदल गया है ‘ कमला ये सोच कर मुस्कुरा दी और आँखों के कोने से दो आँसू टपक पड़े ।
उसी दिन , शाम को ट्रेन के खचाखच भरे जनरल डिब्बे मे कला को किसी तरह बैठने की थोड़ी सी जगह मिली । कला को इतनी जरा सी जगह पर ही रात भर बैठ कर जाना था पर इससे कला को कोई खास परेशानी नही हो रही थी क्योंकि मन पर अब कोई बोझ या तनाव नही था । तभी उसने देखा कि दो पुलिसवाले अपने डन्डे लिए ट्रेन के डिब्बे मे इधर से उधर सबके चेहरों को ध्यान से देखते हुए इधर से उधर जा रहे थे । एक यात्री ने बताया कि कोई बदमाश चोरी करके , यात्रियों मे छुपा बैठा है , उसी की तलाश जारी है ।
इस बात को जानकर कला पहले की तरह जरा भी विचलित नही हुई , और तो और उसको इस बात का भी अन्दाजा हो गया कि अभी उस ‘चोर ‘ को कैसा डर लग रहा होगा । परसो की अपनी हालत और आज के इस चोर की हालत से तुलना करके , कला मुस्कुरा दी ।
“बहिनजी ! अगर आप इस हरेबैग को सीट के नीचे रख दें और थोड़ा सा खिसक जाएँ तो मुझे भी बैठने को मिल जाएगी “ एक महिला यात्री ने कला से याचना की ।
“हाँ हाँ क्यों नही !” कह कर कला ने अपना हरा बैग तुरन्त ही सीट के नीचे रख दिया , और खिसक कर उस महिला के लिए जगह बना दी ।
अब कला को उस हरे बैग की सुरक्षा की जरा भी चिन्ता नही थी ।क्योंकि उस देवतुल्य अनजाने ऑटोरिक्शावाले ने उसकी जिन्दगी मे बस थोड़ी देर ही आकर उसे सिखा दिया था कि अपराधबोध मुक्त होकर , बिना किसी बोझ के हल्के होकर ,जीवन जीना कितने आनन्द से भरपूर होता है ।