हैप्पी डॉक्टर्स डे (व्यंग्य रचना) : डॉ. मुकेश गर्ग ‘असीमित’
Happy Doctors' Day (Hindi Satire) : Dr. Mukesh Garg Aseemit
अभी ओपीडी में बैठा मरीजों में व्यस्त था कि बाहर कुछ शोरगुल सुनायी दिया । शीशे से साफ देख सकता था, एक पहुँचे हुए पत्रकार महोदय बाकी के मरीजों से हील हुज्जत करने में व्यस्त थे। साथ में एक अधेड़ उम्र की महिला, शायद पत्रकार साहब की कोई रिश्तेदार होंगी। माजरा मेरी समझ में आ गया था। खुद को स्टाफ का आदमी बता रहा था,कह भी रहा था "भाई तुम जानते नहीं " में डॉक् साहब का ख़ास आदमी हूँ " स्टाफ का आदमी " एक मरीज का रिश्तेदार थोड़ा दार्शनिक भाव से उसको समझा भी रहा था "भाई अगर तुम नहीं जानते की तुम कौन हो तो जाकर हिमालय में आत्म दर्शन क्यों नहीं करते, यहाँ किसलिए आए हो।"
खैर, मामला स्पष्ट था, बात फीस की नहीं थी, वो तो नहीं देने का जन्मसिद्ध अधिकार स्टाफ का आदमी होने के नाते था ही । मुख्य मुद्दा वीआईपी एंट्री का था, जो स्टाफ का आदमी होने के बाबजूद उसे नहीं मिल रहा था । मरीज जो लाइन में लगे थे वो भी बड़े जिद्दी थे , जैसे ही वह दरवाजे की तरफ आता, उसे धक्का देकर पीछे धकेल देते। आखिरकार परेशान होकर एक बार उसने स्टाफ की तरफ कातर निगाह से देखा। स्टाफ ने पिघल कर अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए उसे वीआईपी एंट्री दे डाली। आते ही बोला, "हैप्पी डॉक्टर्स डे।"
ओह, याद आया आज तो डॉक्टर्स डे है। हमारी बदहाली तंगहाली फटेहाल जीवन में पैबंद की तरह, ये दिन ख़ास हमारी लिए जब अखबारों की हेडलाइन में कहीं हमारा नाम तक नहीं होगा, "डॉक्टर बना हत्यारा, डॉक्टर ने मचाई लूट, गलत इंजेक्शन से मरीज की मौत, डॉक्टर या शैतान" जैसे मनोरंजक शीर्षक अखबार से नदारद होंगे । इस बार का डॉक्टर डे मेरे लिए ख़ास है , अभी दो दिन पहले ही एक जानी मानी संस्था के कुछ पदाधिकारी आए थे, मुझे डॉक्टर्स डे पर सम्मानित करने का ख्याल उन्हें आया है।इसके बदले में अपनी डोक्टरी के पेशे की तथाकथित लूटी गयी रकम में से एक अच्छा ख़ासा चंदा देने की पेशकश भी कर दी है ! अब संस्थाएँ भी तो चंदे पर ही चलती हैं, खासकर ये संस्था तो चंदा देकर सम्मानित करने के मामले में सबसे अग्रणी है। आप कैसा भी शिरोमणि, विभूषण पद चुटकी में प्राप्त कर सकते हैं।
मैंने खास तौर पर कुर्सी के पीछे एक शोकेस नुमा अलमारी बनवाई है, अभी तक मेरे द्वारा एड़िया घसीट कर हासिल की गई डिग्रियाँ ही उसमें लगी हैं। दिली तमन्ना है कि हमें भी कोई सम्मानित करे और मेरी अलमारी चमकीले रंग बिरंगे मोमेंटो से भर जाए। अब संस्था इसके बदले चंदा लेती है तो कोई बुरी बात तो है नहीं, उन यूनिवर्सिटी से तो बढ़िया काम कर रही है जो फर्जी डिग्रियाँ बांटती फिर रही हैं, आपको रात में ही डॉक्टर बना देती हैं।मेरा मतलब थीसिस वाला डॉक्टर, वैसे थोड़े दिनों में दवाइयों वाला डॉक्टर की डीग्रीयाँ बांटने के लिए भी यूनिवर्सिटियाँ आगे आएंगी।
इसी बीच में पत्रकार साहब से पूछ लिया, "कहो, कैसे तकलीफ दी?"
पत्रकार साहब हँसते हुए बोले, "अरे डॉक साहब, आप भी, अरे आज डॉक्टर्स डे है, आपके हालचाल पूछने आ गए बस। मैंने तो सोचा था आज तो आपने कोई निशुल्क कैंप रखा होगा, भई डॉक्टर्स डे पर ही सही कुछ तो सामाज सेवा का काम कर लिया करो। या दिन और रात बस पैसे ही कमाने का काम," और खी खी करके हँसने लगे। मैंने सोचा डॉक्टर्स डे ही तो है ,कोई डॉक्टर्स का श्र्ध्हांजलि दिवस तो है नहीं ,फिर ये उठावने की बैठक की तरह मेरे पास आकर मेरा हालचाल पूछने की क्या जरूरत आन पडी ! मैंने भी बड़ी मुश्किल से उसके ढीठपन की घूंट को निगला और बोला, "समाज के ठेकेदारों ने डॉक्टरों के पास समाज सेवा का काम कुछ छोड़ा ही नहीं, क्या करें पापी पेट का सवाल है भाई,हमारे भी बीबी बच्चे है,दो रोटी का जुगाड़ हमें भी करना पड़ता है । बाहर मरीजों की भीड़ थी, में जल्दी से उसे विदा करना चाहता था। उसके साथ आये मरीज को देखा, कुछ दवाइयाँ लिखीं, तो पत्रकार साहब बिफर पड़े, "अरे डॉ. साहब, सैंपल की दवाइयाँ आते है उन्हें कुछ इधर सरका दिया करो। आपने खबर नहीं पढी शायद ,अभी दो दिन पहले की खबर ,अपने ही शहर की एक नामे फार्मा कंपनी के यहाँ बड़ा छापा पड़ा है, सैंपल की दवाइयाँ बेचते पकड़ा गया। अब आप ही बताओ, डॉक्टरों ने कितनी लूट मचा रखी है।"
मैं उसे कुछ दवाइयाँ फार्मेसी से मंगवाकर उसे चलता करना चाहा लेकिन आज तो वो अंगद के पाँव की तरह जमा हुआ था। डॉक्टर्स डे का विश उसने किया था उसके बदले में मेरी तरफ से अच्छा सा रिटर्न गिफ्ट नहीं मिलने से संतुष्ट नहीं था। अपना अखबार का एक पन्ना निकालकर मेरी टेबल पर बिछा दिया, "डॉक्टर्स डे पर विशेषांक निकल रहा है ,शहर के सभी डॉक्टरों के सम्मान में। आप तो इतना लिखते रहते हो। डॉक्टरी को भूलकर लिखने का शौक चढ़ा है, डॉक्टर्स डे पर आपका एक लेख छापना चाहते हैं। बस आपको एक बढ़िया सा ऐड हमें देना है, ऐड के बराबर का ही लेख आपका छाप देंगे।वैसे भी आपके लेख पढता रहता हूँ ,ज्यादातर बाहर की पत्रिकाओं,अखवारों में ही छपते हैं, अरे जंगल में नाचा मोरे किसने देखा! पत्रकार महोदय साफ़ किंगमेकर की भूमिका में अपने प्रवचन दे रहे थे, जिसको चाहे अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर लाने की भूमिका में !
पता नहीं क्यों डॉक्टर को भगवान का दर्जा देते हैं,जबकि में देखता हूँ मुझे गुस्सा भी आता है, चिढ भी होती है ,ये तो कोई भगवान् के लक्षण नहीं है ,उसकी इस बात पर मन आग बबूला भी हो गया था , शायद दो चार अपशब्द कहने का मन भी हुआ , लेकिन फिर सोचा कि 'डॉक्टर लुटेरे के साथ गुंडे भी होते हैं 'का एक नया तमगा लग जाएगा, मैं हो जायूँगा डॉक्टर के नाम पर धब्बा। इसलिए खुद को संयत करके बोला, "वो आजकल मैं थीसिस पर लगा हूँ, रिसर्च पेपर पब्लिश करना है, तैयार हो जाएगा और आपके अखबार में जगह मिलेगी तो वहाँ भी पब्लिश करवाऊंगा।"
पत्रकार जी बोले, "ओह, तो आपको भी थीसिस का डॉक्टर बनने का चस्का लग गया।"
मैंने कहा, "हाँ, अब दवाइयों के डॉक्टरों की वैसे ही हालत खस्ता हो रही है तो क्यों न थीसिस वाला डॉक्टर बन लिया जाए।"
पत्रकार ने पूछा, "अच्छा लेकिन आपके थीसिस का टॉपिक क्या है?"
मैंने कहा, "वो गलत इंजेक्शन के बारे में रिसर्च कर रहा हूँ जिसके कारण मरीज की मौत हो जाती है। आए दिन आपका अखबार भी छापता रहता है 'गलत इंजेक्शन लगाने से मरीज की मौत'। मुझे ढूँढना है वो गलत इंजेक्शन कहाँ मिलता है, कौन बनाता है, कौन सा मेडिकल स्टोर रखता है, उसका ड्रग लाइसेंस है या नहीं, कैसे लगाया जाता है, और उसमें ऐसा क्या साल्ट है जिसके लगाते ही मरीज तुरंत मर जाता है।"
वो तुरन्त कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, बाहर दरवाजे की तरफ भागा तो मैंने कहा, "अरे रुको तुम्हारी दवाई की थैली तो यहीं रह गई।"
वो कहने लगा, "नहीं डॉक साहब रहने दो, मैं फार्मेसी से खरीद लूँगा।"
शायद उसे अंदेशा हो गया कि थैली में निश्चित ही कोई गलत इंजेक्शन होगा जो मैं उसके रिश्तेदार को मारने के लिए दे रहा हूँ।