हँसने वाली मछली : कश्मीरी लोक-कथा
Hansnewali Machhli : Lok-Katha (Kashmir)
बहुत पहले की बात है। कश्मीर की ख़ूबसूरत घाटी में एक राजा राज
करता था। राजा का महल झेलम नदी के किनारे था। एक दिन राजा की
रानी महल के झरोखे से बाहर देख रही थी। उसने एक मछली बेचने
वाली को देखा, जो मछलियों से भरी टोकरी लेकर शहर में बेचने जा रही
थी। रानी ने मछलीवाली को ऊपर बुलाया। मछलीवाली ने अपनी टोकरी
नीचे रखी। टोकरी में ऊपर ही एक बहुत बड़ी मछली थी। “यह मछली
नर है, या मादा? अगर मादा होगी तो मैं ले लूंगी।” रानी बोली। रानी का
इतना कहना था कि मछली ज़ोर से हंसी और टोकरी में नीचे चली गई।
रानी और मछलीवाली दोनों मछली के हंसने से डर गईं। मछलीवाली ने
जल्दी से टोकरी उठाई और वहां से चल दी। रानी सोच में पड़ गई,
'मछली को हंसते हुए तो न कभी देखा, न सुना। ज़रूर यह कोई विशेष
मछली होगी। जब तक मछली के हंसने के रहस्य का पता नहीं लगा
लूंगी, चैन से नहीं बैठूंगी।'
शाम को जब राजा महल में आए तो रानी ने मछली की हंसी के
विषय में बताया। “मछली आपकी बात सुनकर हंसने लगी! यह तो बड़े
अचरज की बात है,” राजा बोले।
"मैं कुछ नहीं जानती। आपको, मछली क्यों हंसी इसका पता
लगाना पड़ेगा।” रानी ने ज़िद की।
दूसरे दिन राजा का दरबार लगा था। राजा ने सारी बात बताई और
बोले, “क्या कोई बता सकता है कि मछली क्यों हंसी?” जब कोई कुछ
नहीं बोला तो राजा ने अपने वज़ीर से कहा कि छह माह के अंदर वो
मछली के हंसने का कारण पता लगाकर बताएं। वरना उनका सिर धड़
से अलग कर दिया जाएगा। वज़ीर उसी दिन से मछली के हंसने का
कारण पता करने में लग गए। बड़े-बड़े ज्ञानी-पंडितों से, जादूगरों से,
साधु-संन्यासियों से सबसे पूछा, कोई कुछ नहीं बता सका। दूर-दूर तक
यात्राएं की पर कुछ पता नहीं चला। समय निकलता जा रहा था। पांच
महीने निकल गए और वज़ीर कुछ पता नहीं लगा सके। उन्हें अपनी
मृत्यु सामने दिखाई दे रही थी। उन्होंने अपने बेटे सुलेमान को बुलाया
और कहा, “बेटे मुझे तो एक महीने के बाद राजा मरवा देगा। कहीं राजा
का क्रोध तुम पर भी न उतरे इसलिए तुम यहां से चले जाओ।” सुलेमान
अपने पिता से बहुत प्यार करता था, वह बोला, “मैं आपको अकेला
छोड़कर नहीं जाऊंगा।” वज़ीर ने उसकी एक नहीं सुनी और समझा-
बुझाकर सफ़र पर भेज दिया।
सुलेमान दुखी मन से बिना सोचे-समझे जो रास्ता मिला उसी पर
चल दिया।
चलते-चलते रास्ते में सुलेमान को एक किसान मिला। किसान
शहर से सामान आदि ख़रीदकर अपने गांव जा रहा था। सुलेमान ने
सोचा एक से भले दो। वह भी किसान के साथ-साथ चलने लगा। थोड़ी
देर चलने के बाद सुलेमान बोला, “देखिए चलते-चलते हम दोनों थक
गए हैं। ऐसा करते हैं कि आधे रास्ते आप मुझे लेकर चलिए और आधे
रास्ते मैं आपको लेकर चलता हूं, इस तरह से रास्ता आसानी से कट
जाएगा।” किसान उसकी बात सुनकर अचकचा गया। 'आधे रास्ते यह
मुझे लेकर चलेगा और आधे रास्ते मैं...। कैसी बेवक़ूफी की बात है'
किसान ने सोचा और चुपचाप आगे बढ़ता रहा। थोड़ी देर में वे एक पहाड़ी
के ऊपर थे। नीचे झेलम नदी की पतली धार दिखाई दे रही थी और ऊपर
देवदार के पेड़ों का जंगल। दोनों एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने लगे।
सुलेमान ने जेब से एक चाकू निकाला और उसे किसान को देकर बोला,
“आप यह चाकू लीजिए और जंगल से दो घोड़े ले आइए, और हां, चाकू
संभालकर रखिएगा बहुत कीमती है।”
“चाकू लेकर मैं जंगल से घोड़े पकड़ लाऊं। यहां इस पहाड़ी पर घोड़े!
या तो यह ख़ुद पागल है या मुझे पागल बना रहा है,” किसान बड़बड़ाया।
थोड़ी देर में फिर से दोनों चल दिए।
कुछ देर बाद दोनों एक खेत में पहुंचे । खेत में पकी हुई फ़सल कटने
के लिए तैयार खड़ी थी।
“कितनी अच्छी फ़सल है,” किसान फ़सल देखकर बोला।
“हां वह तो है, पर पता नहीं फ़सल खा ली गई है या बची है.
सुलेमान ने जवाब दिया।
“खा ली गई है! क्या मतलब है तुम्हारा? देख रहे हो फ़सल अभी
कटी नहीं है और तुम कह रहे हो खा ली गई है?” किसान गुस्से से बोला।
"मैंने तो यूं ही कह दिया,” सुलेमान बोला। और वे फिर अपने सफ़र
पर चल दिए। अब वे एक फूलों से भरी घाटी में पहुंचे। घाटी के एक ओर
एक छोटी सी नदी बह रही थी। नदी के पार पहाड़ी थी जिस पर एक गांव
दिखाई दे रहा था। किसान ने अपने जूते उतारे, पजामा ऊपर खोंसा और
नदी पार करने लगा। नदी अधिक गहरी नहीं थी पर धार बहुत तेज़ थी
और तल्रहटी में ढेर सारे छोटे-बड़े पत्थर थे। नदी पार करके किसान मुड़ा
तो उसने देखा कि सुलेमान जूते पहने हुए ही नदी पार कर रहा था।
'सचमुच में ये पागल है,' किसान ने सोचा।
नदी पार करके दोनों पहाड़ी पर चढ़ने लगे। गांव के पास पहुंचकर
किसान बोला, “मेरे घर चलो, कुछ खा-पीकर और आराम करके आगे के
सफ़र पर निकल जाना।”
“मुझे बड़ी ख़ुशी होगी आपके घर चलकर, लेकिन क्या आपके घर
की छत इतनी मज़बूत है कि आप मुझे अपने घर ले जा सकें?” सुलेमान
ने जवाब दिया। अब किसान अपने गुस्से पर काबू नहीं रख सका और
बोला, “मैंने तो शराफ़त के नाते अपने घर आने की दावत दी थी। नहीं
आना है तो मत आओ पर मेरा अपमान तो मत करो,” इतना कहकर
किसान अपने घर की तरफ़ चल दिया।
किसान की एक बेटी थी, गुलनार-बहुत समझदार और चतुर। जब
उसने अपने पिता का गुस्से से तमतमाता चेहरा देखा तो बोली, “अब्बू
क्या बात है, किस पर इतना नाराज़ हो रहे हैं?"
“अरे, एक लड़का है। रास्ते में मेरे साथ हो लिया। रास्ते भर तो ऊट-
पटांग बातें करता ही रहा। अब मैंने जब शराफ़त के नाते घर आने की
दावत दी तो कहता है कि क्या मेरे घर की छत मज़बूत है। जैसे वह
आएगा तो उसके ऊपर छत गिर पड़ेगी।” किसान बोला। अपने पिता की
बात सुनकर गुलनार हंसने लगी। “अरे अब्बू छत कमज़ोर होने से उसका
मतलब रहा होगा कि आपकी हैसियत ऐसी है कि आप उसकी
ख़ातिरदारी कर सकेंगे। ज़रूर वह किसी अमीर घराने का होगा।”
किसान ने सोचा तो उसे गुलनार की बात ठीक लगी। “अच्छा बेटी
तो ज़रा उसकी उन बातों का भी मतलब बताओ जो वह रास्ते भर करता
आया है,” और किसान ने रास्ते का सारा हाल उसे बताया। गुलनार थोड़ी
देर सोचती रही फिर बोली, “अब्बू यह लड़का बहुत समझदार और
बुद्धिमान है। उसकी हर बात में एक मतलब छिपा है। जब उसने कहा
कि आधे रास्ते आप मुझे ले चलें और आधे रास्ते वह, तो उसका मतलब
था कि आधे रास्ते आप उसे कोई कहानी सुनाइए और आधे रास्ते वह
सुनाएगा। इस तरह रास्ता आराम से कट जाएगा और किसी को थकान
महसूस नहीं होगी।” “और घोड़े...?” किसान बोला।
“घोड़ों से उसका मतलब असली घोड़ों से नहीं था। उसका मतलब था
कि जंगल से लकड़ी की दो मज़बूत टहनियां काट कर ले आइए। जो छड़ी
का काम देंगी। चलते-चलते थक जाने पर छड़ी का सहारा किसी घोड़े से
कम नहीं होता। और “फ़सल खा ली गई है” से उसका मतलब था कि
कहीं किसान ने साहूकार से क़र्ज़ तो नहीं लिया है, अगर लिया होगा तो
फ़सल सारी साहूकार उठा ले जाएगा। किसान को तो कुछ नहीं मिलेगा।"
“चलो तुम्हारी सब बातें ठीक हैं। पर जूते पहनकर नदी पार करना
तो पागलपन ही कहा जाएगा,” किसान बोला।
“अब्बू मैं कई बार सोचती हूं कि लोग जूते उतारकर नदी में क्यों
जाते हैं। ऐसा करने से कोई नुकीला पत्थर उनके पैर में चुभ सकता है
और वे गिर भी सकते हैं। जूते पहने रहने पर पैरों का बचाव तो होगा।"
“अरे! यह लड़का तो सचमुच में बहुत अक्लमंद है। मैं अभी उसे
लेकर आता हूं,” कहकर किसान घर से निकल गया।
इधर गुलनार ने सोचा क्यों न वह भी लड़के की परीक्षा ले। उसने
एक थाली में बारह रोटियां रखीं, एक कटोरा खीर का भरकर रखा और
दूध से लबालब भरा हुआ एक जग रखा। थाली नौकर को देकर बोली,
“यह थाली सुलेमान को देना और कहना कि साल में बारह महीने होते हैं,
पूरे चांद की रात है और सागर में पानी लबालब भरा है।"
नौकर लालची था। उसने सोचा अगर मैं थोड़ा खाना खा भी लूं तो
लड़के को क्या पता चलेगा। उसने एक रोटी खीर के साथ खा ली फिर
जग में से थोड़ा दूध पी लिया। फिर उसने जाकर थाली सुलेमान को दी
और गुलनार का संदेश सुनाया। सुलेमान ने थाली रख ली, और नौकर से
कहा, “आप अपनी मालकिन को शुक्रिया कहिएगा और कहिएगा कि
साल में ग्यारह महीने होते हैं, आधे चांद की रात है और सागर में पानी
लबालब नहीं है।” नौकर ने आकर गुलनार को सुलेमान का संदेश सुना
दिया। गुलनार समझ गई कि नौकर ने थाली में से खाना खाया है।
नौकर ने मान लिया कि उसने चोरी की है। “यह बात तुम्हें कैसे मालूम
पड़ी कि नौकर ने थाली में से खाने की चोरी की है?" किसान ने पूछा।
“अब्बू मैंने बारह रोटियां रखी थीं, मतलब साल में बारह महीने,
कटोरा भरकर खीर का था यानी पूरे चांद की रात और सागर में लबालब
पानी मतलब जग दूध से भरा है। सुलेमान ने कहलवाया, साल मेँ ग्यारह
महीने हैं मतलब ग्यारह रोटियां, आधे चांद की रात मतलब कटोरा आधा
ख़ाली और सागर में पानी कम है मतलब जग में दूध कम है।"
“वाह! तुम दोनों का जवाब नहीं”, किसान बोला।
शाम को सुलेमान आया। खाना ख़त्म होने के बाद गुलनार ने सबको
कहवा दिया। कहवा पीते-पीते सुलेमान ने अपने पिता और मछली की
हंसी के बारे में बताया और बोला, “अगर जल्दी ही मछली की हंसी का
रहस्य नहीं सुलझा तो मेरे अब्बू की जान चली जाएगी। क्या आप कुछ
मदद कर सकती हैं?” गुलनार चुप होकर थोड़ी देर सोचती रही, कुछ देर
में उसके होंठों पर मुस्कान आ गई, “चलिए मैं भी आपके साथ चलती
हूं। मछली के हंसने का रहस्य मैं राजा को ही बताऊंगी।" वह बोली।
सुलेमान गुलनार के साथ उसी वक़्त अपने नगर की तरफ़ चल
दिया। उसके पिता चिंता के मारे खाट से लग गए थे। सुलेमान को
देखकर बोले, “तुम क्यों आ गए? मैंने तुम्हें आने से मना किया था।”
“अब्बू आपकी चिंता ख़त्म हुई। गुलनार मछली की हंसी का रहस्य
समझ गई है। आप हमारे साथ फ़ौरन राजा के पास चलिए।”
“क्यों वज़ीर! मछली क्यों हंसी कुछ पता चला?” राजा ने पूछा।
“हां महाराज, इसका उत्तर यह लड़की देगी।" वज़ीर बोला। “महाराज
आपके महल में एक पुरुष स्त्री के भेष में रहता है। यह बात उस मछली
को पता थी। इसीलिए वह हंसी थी।" गुलनार ने बताया।
“हमारे महल में पुरुष! असंभव।” राजा बोला।
“महाराज अभी इसका फ़ैसला हो जाता है।” गुलनार ने जवाब
दिया।
अब उसने एक बड़ा सा गड्ढा खुदवाया। फिर महल की सारी दासियों
को उस गड्ढे को कूदकर पार करने के लिए कहा। कोई भी दासी उस
गड्ढे को पार नहीं कर सकी सिवाय उस दासी के जो असल में एक पुरुष
था। वह एक चोर था और राजा के महल में चोरी करने के इरादे से रह रहा
था। राजा ने उसे कारागार में डलवा दिया।
राजा ने गुलनार को बहुत सारी धन-दौलत इनाम में दी और उसकी
बुद्धिमानी की सराहना की। थोड़े दिनों में सुलेमान और गुलनार का
विवाह हो गया।
(गिरिजारानी अस्थाना)