Hansi (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
हँसी (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
एक प्रसिद्ध दार्शनिक का कथन है कि मनुष्य हँसने वाला प्राणी है और यह बिल्कुल ठीक बात है क्योंकि श्रेणियों का विभाजन विशेषताओं पर ही आधारित होता है और हँसी मनुष्य की विशेषता है। यों तो मानव हृदय की भावनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं मगर आनंद और शोक का स्थान इनमें सबसे प्रधान हैं। अन्य भावनाएँ इन्हीं दोनों के अंतर्गत आ जाती हैं। उदाहरण के लिए निराशा, लज्जा, दुख , क्रोध, घृणा ये सब शोक के अंतर्गत आ जायेंगे। उसी प्रकार अहंकार, वीरता, प्रेम आदि आनंद की श्रेणी में। मनुष्य का जीवन इन्हीं दो प्रतिकूल भावनाओं में विभाजित है। आनंद का प्रकट लक्षण हँसी है, शोक का रोना। हँसने और खुश रहने की इच्छा सर्वसामान्य है। रोने और शोक से हर व्यक्ति बचता है। हँसना और रोना मनुष्य के जन्मजात गुण हैं, अर्जित गुण नहीं। बच्चा पैदा होते ही रोता है और उसके थोड़े ही दिनों बाद एक खामोश सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर दिखाई देने लगती है। अन्य भावनाएँ समझ बढ़ने के साथ-साथ पैदा होती जाती हैं।
कुछ विद्वानों ने यह पता लगाने का प्रयत्न किया है कि कुछ जानवर भी हँसने में आदमियों के साझीदार हैं। वे यह तो स्वीकार करते हैं कि जानवरों की हँसी सस्वर नहीं होती मगर जो प्रेरणाएँ मनुष्य के हृदय में हँसी उत्पन्न करती हैं उनमें किसी न किसी हद तक वह भी जरूर शरीक हैं। कुत्ता अपने मालिक को जब कई दिन के बाद देखता है तो दुम हिलाता हुआ उसके पास चला जाता है बल्कि उसके बदन पर चढ़ने की कोशिश करता है और एक किस्म की आवाज उसके मुँह से निकलने लगती है। कुत्तों को गेंद उठा लेने की शिक्षा दी जाती है। जब कई कुत्ते साथ खेलने लगते हैं तो उनकी चुहल और शरारत की कोई सीमा नहीं रहती। जिन लोगों ने इन कुत्तों के चेहरों को ध्यान से देखा है वे कहते हैं कि आँखों में एक शरारत-भरी झलक, गालों का सिकुडना और दांतों का बाहर निकल आना, जो हँसी के अनिवार्य लक्षण हैं, वे सभी एक बहुत हल्की-सी शक़्ल में कुत्तों के चेहरे पर भी दिखाई देने लगते हैं। कभी-कभी कुत्ते मुर्गियों को सिर्फ डराने के लिए दौड़ाया करते हैं। बिल्ली एक बहुत गंभीर जानवर है मगर वह भी चूहों को खिलाते वक्त अपनी जन्मजात हास्यप्रियता का परिचय देती है। और बन्दरों के बारे में तो कितनी ही पशु-विज्ञान के विद्वान का विश्वास है कि वे हँसते भी हैं और मजाक समझते भी हैं। अगर बन्दर को मुँह चिढ़ाओ तो वह कितना झल्लाता है। अगर उसे छेदने के लिए उसके साथ दिल्लगी करो तो वह नाराज हो जाता है। उसे यह पसंद नहीं कि कोई उसका मजाक उड़ाए। कहने का मतलब यह कि कुत्ते, बिल्ली, बन्दर की हँसी खामोश और बेआवाज होती है मगर उसमें हँसी दिल्लगी की चेतना होती है।
बच्चे को हँसी भी शुरू में बेआवाज और किसी कदर जानवरों से मिलती हुई होती है। मगर उम्र के दूसरे महीने में उसमे फैलाव और तीसरे महीने में आवाज पैदा हो जाती है। तब उसे गुदगुदाओ तो खिलखिलाता है और दूसरों को देखकर हँसता है। गुदगुदाने से हँसी क्यों होती है, कुछ विद्वानों ने इसकी भी व्याख्या की है। एक प्रोफेसर का ख्याल है कि जब मनुष्य विकास की आंरभिक स्थिति में था उस समय माँ बच्चे के शरीर पर से मक्खियाँ उड़ाने या दूसरे कीड़े को भगाने के लिए ही उसी तरह हाथ फेरती थी जिस तरह आजकल गायें अपने बच्चों को चाटती हैं। इसी तरह हाथ फेरने से बच्चे को बहुत कुछ आराम मिलता है। लिहाजा आजकल भी जब नर्मी से शरीर पर हाथ फेरा जाता है तो उसी तरह इंसान को वही आराम याद आता है और वह हँसने लगता है। यह खयाल सही हो या गलत मगर आदमी की हँसी का विकास उसकी इंसानियत के साथ ही होता है। एक मजेदार बात है कि होंठ या शरीर की एक जरा-सी हरकत इंसान को घंटों हँसाती है।
वहशी कौमें भावनाओं की प्रौढ़ता की दृष्टि से बहुत कुछ बच्चों से मिलती हैं। यही कारण है कि उनकी हँसी भी बच्चों की हँसी से मिलती-जुलती होती है। बच्चे कभी-कभी खामखाह हँसते हैं। उनकी हँसी लाज-संकोच की परवाह नहीं करती। वहशियों की भी यही हालत है। सभ्य लोग अपनी हँसी पर बहुत संयम करते हैं लेकिन बर्बरों में यह संयम कहाँ। वह जब हँसते हैं तो खूब खुलकर। खूब कहकहे लगाते हैं। तालियां बजाते हैं, चूतड़ पीटने लगते हैं और नाचते हैं, यहाँ तक कि कभी-कभी उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। हँसते-हँसते मर जाना इससे चाहे एक कदम और आगे बढ़ा होता हो। कोई अपरिचित चीज देखकर वह खूब हँसते हैं। बोर्नियो द्वीप में एक मिशनरी को पियानो बजाते देखकर वहाँ के बर्बर निवासी हँसने लगते है। सभ्य लोगों की एक-एक हरकत उन बर्बरों की हँसी का सामान है। उनके कपड़े, उनका मुँह-हाथ धोना, यह सब बातें उन्हें अजीब मालूम होती हैं और यह अजीब मालूम होना हँसी की मुख्य प्रेरणाओं में से एक है। एक बार एक हब्शी सरदार इंगलिस्तान में पहुँचा और एक कारखाने की सैर करने के लिए चला। मैनेजर ने मेहरबानी से उसे कारखाना दिखाना शुरू किया। संयोग से एक जगह मैनेजर का कोट किसी चरखी की पकड़ में आ गया और बेचारे मैनेजर साहब कोट के साथ दो-तीन चक्कर खा गए। कर्मचारियों ने दौड़कर किसी तरह उनकी जान बचाई मगर हब्शी सरदार हँसते-हँसते लोट गया। उसने समझा कि मैनेजर साहब ने उसे तमाशा दिखाने के लिए कलाबाजियाँ खाई और इस घटना के बाद वह जब तक इंगलिस्तान में रहा उसने कई बार मैनेजर साहब से वही दिलचस्प तमाशा दिखाने का तकाजा किया। कुछ असभ्य जातियों में रईसों के दरबार में अब भी मसखरे या विदूषक रक्खे जाते हैं।
पुराने जमाने में दरबारी विदूषकों का रिवाज हिन्दुस्तान और योरप में प्रचलित था। यहाँ तक कि वे दरबार का आभूषण समझे जाते थे। उनके बगैर दरबार सूना रहता था। इस सभ्यता के युग में भी वही रिवाज एक दूसरी शक़्ल में मौजूद है जिसे थियेटरों में देख सकते हैं। एस्किमो एक जंगली कौम है। उनके यहाँ रिवाज है कि जब किसी मुकदमे का फैसला होने लगता है तो दोनो विरोधी पक्ष के लोग एक दूसरे को गंदी-गंदी गालियाँ सुनाना शुरू करते हैं। कभी-कभी पद्य-बद्ध गालियाँ दी जाती हैं। हाकिम इजलास और दूसरे तमाशाई इन तुकबंदियों पर खूब हँसते हैं और आखिरकार उसी पक्ष की विजय होती है जो गालियों की गंदगी और बेशर्मी के लिहाज से तमाशाइयों को ज्यादा खुश कर दे। न्याय की अच्छी कसौटी निकाली है। ऐसे देश में गालियाँ बकना निश्चय ही कानूनदानी से अच्छा और फायदेमंद धंधा है और काश हमारे देश के कुँजड़े और भटियारे वहाँ पहुँच जाएँ तो यकीन है कि उन्हें किसी अदालत में हार न हो। अभी पशु- विज्ञान के किसी पंडित ने छान-बीन नहीं की लेकिन हँसी और निर्लज्जता में कोई कार्य-कारण संबंध अवश्य है। हिन्दुस्तान में शादी-ब्याह में, दावतों में गंदी और शर्मनाक गालियाँ गाने का रिवाज कितना बुरा मगर सब तरफ कितना प्रचलित और लोकप्रिय है। यहाँ तक कि कितने ही लोगों को गालियों के बगैर ब्याह का मजा ही नहीं आता और जब तक कानों में गंदी- गंदी गालियों की पुकारें नहीं आतीं खाने की तरफ तबियत नहीं झुकती। हर एक देश या जाति का साहित्य उस देश की सर्वोत्तम भावनाओं और विचारों का संग्रह होता है और हालांकि किसी जाति के साहित्य में हँसी- दिल्लगी को वह स्थान नहीं दिया जाएगा जिसका उसे सर्वसाधारण में अपने प्रचलन की दृष्टि से अधिकार है और प्रेम की भावनाओं को उससे ऊँचा स्थान दिया जाता है जो एक सीमाबद्ध भावना है और जिसका प्रभाव मानव जीवन के लिए एक विशेष अंग तक सीमित है, तब भी यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उनका प्रभाव हर एक साहित्य पर स्पष्ट है और चूँकि हँसने-हंसाने की इच्छा हर दिल में रहती है, हास्य-कृतियां पसंद भी की जाती हैं। अंग्रेजी में शेक्सपियर का मसखरा फॉल्स्टफ, स्पेनी लिटरेचर का डॉन कुइक्जोट और उर्दू लिटरेचर का खोजी कैसे गम भुला देने वाले हैं। कितने रंज और गम के सताए हुए दिल उनके एहसानमंद हैं। यह कहने में कोई अत्यक्तिु नहीं कि गद्य हो या पद्य, हँसी-दिल्लगी उसकी आत्मा है और उसके बगैर वह रूखी-सूखी, और बेमजा रहती है।
हँसी के अनेक उद्दीपक हैं। संस्कृत में हँसी के प्रकारों, उनकी व्याख्या और उनके उद्दीपकों आदि को बड़े विशद और विस्तृत ढंग से बयान किया गया है। अंग्रेजी में ऐसी विशद सैद्धान्तिक चर्चा इस विषय पर नहीं है। इन उद्दीपकों में विशेष ये हैं।
1. किसी चीज का अनोखापन जैसे बन्दर का कोट-पतलून पहनना।
2. किसी अच्छी चीज का फौरन किसी बुरी सूरत में जाहिर होना जैसे मुँह
चिढाना।
3. कोई शारीरिक दोष जैसे कानापन या लंगड़ाकर चलना।
4. मानव विशेषताओं में कोई असाधारण बात जैसे शेखी मारना या
भोलापन।
5. किसी चीज का अपने साधारण रूप से अलग हटना जैसे मुँह में कालिख
लगना।
6. अशिष्टता।
7. छोटी-मोटी दुर्घटनाएँ जैसे किसी का लड्खड़ाकर गिर पड़ना।
8. निर्लज्ज शब्दों का प्रयोग।
9. हर तरह की अतिशयोक्ति या हद से आगे बढ़ जाना जैसे भारी-भरकम
पेट या बहुत ऊँचा कद।
10. गुप-चुप बातें।
11. चीजों की तरह आवाज में भी अजनबीपन, अनोखापन जैसे बेसुरा
गीत।
12. दूसरों की नकल करना।
13. कोई द्बयर्थक वाक्य।
उपरोक्त वर्गीकरण को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि हँसी का उद्दीपन विशेषतः किन्हीं दो वस्तुओं के विरोध पर आधारित है। एक लड़का अपने बाप का ढीला-ढाला कोट पहन लेता है और उसे देखते ही फौरन हँसी आती है। अफीमचियों की कहानियाँ हँसी का एक न चुकने वाला खजाना है। अकबर और बीरबल के चुटकुले भी दिलों को गरमाने के लिए आजमाए हुए नुस्खे हैं और ख्वाजा बदीउज्जमां उर्फ खोजी (खुदा की उन पर रहमत हो !) को तो उर्दू लिटरेचर का सबसे बड़ा शोक-संहारक कहना चाहिए। हाजी बगलोल भी उन्हीं के मुरीदों में शामिल हैं। शायरी के दोषों और त्रुटियों को सरशार ने हँसी-दिल्लगी का कैसा फड़कता हुआ लिबास पहनाया है। ख्वाजा साहब की गंवई बातचीत, उनका शेर पढ़ना, डींग मारना, ये सब हँसने के अक्सीर नुस्खे हैं। छंद-शास्त्र की भूलें, स्त्रीलिंग और पुल्लिंग की गलतियां जो शायरी में ऐब समझी जाती हैं वे पढ़े-लिखे आदमियों के लिए हँसी का सामान हैं। उर्दू कवियों की सौंदर्य की अतिशयोक्ति भी मजाक की हद तक जा पहुँचती है। नाभी की गहराई को अगर बरेली का कुआं कहें तो खामखाह हँसी आएगी।
विद्वानों ने हँसी को छ: श्रेणियों में विभाजित किया है –
1. होंठो ही होंठों में मुस्कराना।
2. खुलकर मुस्कराना।
3. खिल-खिलाना।
4. जोर से हसना।
5. कहकहे लगाना।
6. हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाना और आँखों से आँसू बहने लगना।
इनमें पहली और दूसरी किस्मों का स्थान सबसे ऊँचा है, तीसरी और चौथी का मध्यम और पाँचवीं और छठी किस्में सबसे निकृष्ट समझी जाती हैं और उनकी गिनती अशिष्टता में होती है। जिस समय गालों पर हल्की-सी शिकन पड़ती है, नीचे के होंठ फैल जाते हैं, दांत नहीं दिखाई देते हैं, आँखें चमकने लगती हैं, उसे होंठों ही होंठों में मुस्कराना कहते हैं। जिस हँसी में मुँह, गाल और आँखें फूली हुई नजर आती हैं और दाँतों की लड़ियाँ किसी कदर दिखाई देने लगती हैं उसे खुलकर मुस्कराना कहते हैं। खिलखिलाने की व्याख्या करने की जरूरत नहीं। इसमें आँख कुछ सिकुड़ जाती है। कहकहा लगाना अशिष्टता है, खासतौर पर बड़े-बूढ़ों के सामने जोर से हँसना बुरी बात है। डाक्टरी दृष्टि से कहकहा तंदरुस्ती के लिए बहुत अच्छा माना गया है। इससे सीने और फेफड़ों को ताकत पहुँचती है और तबीयत खिल उठती है। मनोविज्ञान के पंडितों का विचार है कि हँसी खुली हुई तबीयत की पहचान है और जिस आदमी के इरादे नेक न हों और जिसके हृदय को शांति और इत्मीनान हासिल न हो वह कभी खुलकर नहीं हँस सकता।
हम ऊपर लिख आये हैं कि संस्कृत साहित्य में हँसी-दिल्लगी के बारे में बड़ी गहरी छान-बीन के साथ विचार किया गया है। उपरोक्त विचार बड़ी हद तक उसी के हैं। अब हम कुछ हास्य-रस के संस्कृत श्लोकों का अनुवाद लिखकर इस लेख को समाप्त करेंगे। उर्दू हास्य की शैली से हम परिचित हैं, संस्कृत साहित्य के भी कुछ उदाहरण देखिए –
1. यह देखिए कुक्कुट मिश्र आए। आपने अपने गुरु से कुल पाँच दिन शिक्षा पाई। सारा वेदांत तीन दिन में पढ़ा है और न्याय को तो फूल की तरह सुंघ डाला है।
2. विष्णु शर्मा नामक किसी दश्चुरित्र विद्वान की बुराईयों की गई है – विष्णु शर्मा हाय हाय करके रोते और कहते थे कि मेरे जिस मस्तक पर मंत्रों से पवित्र किया गया पानी छिड़का गया था उसी पर प्रेमिका के पवित्र हाथों ने तड़ातड़ चपत लगाई।
3. एक कोमल भावनाओं से अपरिचित ब्राह्मण अपनी प्रेमिका से कहता है- ऐ देवी, मेरे यह होंठ सामवेद गाते-गाते बहुत पवित्र हो गये हैं। इन्हें तुम जूठा मत करो। अगर तुमसे किसी तरह नहीं रहा जाता तो मेरे बायें कान को ही मुँह में लेकर चुबलाओ।
4. जबान कट नहीं जाती, सर फट नहीं जाता, तब फिर जो कुछ मुँह में आये कह डालने में हर्ज ही क्या है। निर्लज्ज व्यक्ति विद्वान बनने में आगा- पीछा क्यों करे।
5. दो औरतों वाले मर्द की हालत उस चूहे की सी होती है जिसके बिल में सांप है और बिल के बाहर बिल्ली।
6. दामाद दसवाँ ग्रह है। वह हमेशा टेढ़ा और तीखा रहता है, हरदम पूजा की माँग किया करता है और हमेशा कन्याराशि पर चढ़ा रहता है।
7. जैनियों का मजाक उड़ाते हुए एक लेखक कहता है कि ये लोग एकांत में भी सुंदरी के लाल-लाल होंठों से बचते रहते हैं क्योंकि होंठ में दांत लगने से उन्हें मांसाहार का आरोप लगने का भय है।
8. एक जिंदादिल बुड्ढा कहता है – क्या करें सिर के बाल सफेद हो गये हैं, गालों पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं दांत टूट गये हैं पर इन सब बातों का मुझे कुछ दुख नहीं। हाँ जब रास्ते में मृगनयनी सुंदरियाँ मुझे देखकर पूछती हैं, “बाबा किधर चले?” तो उनका यह पूछना मेरे दिल पर बिजलियाँ गिरा देता है।
[उर्दू मासिक पत्रिका ‘जमाना’, फरवरी 1916]