हँसी (रूसी कहानी) : लियोनिद आंद्रेयेव

Hansi (Russian Story in Hindi) : Leonid Andreyev

साढ़े छह बजे मुझे विश्वास हो गया कि वह आएगी । मैं व्याकुल और प्रसन्न था । मेरे ओवरकोट का केवल ऊपरवाला बटन लगा हुआ था और ठंडी हवा से फड़फड़ा रहा था, परंतु मुझे सर्दी नहीं लग रही थी। सिर पर पीछे सरकाई विद्यार्थी की टोपी पहने, मैं गर्व से सिर को सीधा उठाए हुए था। जिन आदमियों से मैं मिला, उन्हें एक प्रकार की संरक्षण और धमकीभरी दृष्टि से देखा, जबकि औरतों को आकर्षण और प्यार भरी दृष्टि से निहारा; हालाँकि मैंने उसे चार दिन पहले ही प्यार किया था । मैं युवा था और दिल इतना रंगीन था कि मैं दूसरी औरतों के प्रति संपूर्ण रूप से उदासीन नहीं रह सकता था । मैं शीघ्रता, साहस और ललित भाव से चलता गया।

पौने सात बजे तक मेरे ओवरकोट के दो बटन लग चुके थे और मैंने केवल औरतों की ओर ही देखा – अब प्यार करने की दृष्टि से नहीं, वरन् अति घृणा से । मैं केवल एक औरत को देखना चाहता था, बाकी जाएँ भाड़ में! वह केवल रास्ते में ही मिल रही थीं। उसके साथ उनकी समानता मेरे अंदर के भरोसे को कम करती नजर आ रही थी और इसने मेरे संशयित बिंदु को छुआ।

सात बजने में पाँच मिनट बाकी थे। तब मैंने अपने आपको गरम महसूस किया ।

सात बजने में दो मिनट बाकी थे। तब मैं ठंडा होने लगा।

सात बजते ही मुझे निश्चय हो गया कि वह नहीं आएगी।

साढ़े आठ बजे मैं निराशा की मूर्ति था। मेरे ओवरकोट के सारे बटन लग चुके थे, कॉलर उठा हुआ था और मेरी टोपी नीचे खिसककर मेरी नाक पर आ गई थी— मेरी नाक ठंडी और नीली थी। मेरे बाल, मूँछें और बरौनियाँ पाले से सफेद हो गए थे और मेरे दाँत बज रहे थे। मेरी घिसी चाल और झुकी पीठ से ऐसा लगता था जैसे कोई पुष्ट बूढ़ा अपने मित्रों से मिलकर अनाथालय को लौट रहा हो।

इस परिवर्तन का कारण वही थी । आह ! पिशाच ! नहीं, मुझे यह नहीं कहना चाहिए। संभवतः उसे आने न दिया गया हो; संभवत: वह अस्वस्थ हो या संभवतः वह मर गई हो ! मर गई ! और मैं उसकी शपथ ले रहा हूँ!

* * * * *

"युजेनिया भी आज रात वहाँ होगी । " एक विद्यार्थी साथी ने मुझसे कहा । उसे कोई ईर्ष्या नहीं हो सकती थी क्योंकि वह नहीं जान सकता था कि मैंने सर्दी में सात से साढ़े आठ बजे तक युजेनिया की प्रतीक्षा की थी।

"क्या यह ठीक है?" मैंने पूछा, परंतु मैं अंदर-ही-अंदर फूट पड़ा — 'ओह, पिशाच!'

वह पोलोजोव दंपती द्वारा दी गई सायंकाल की पार्टी में आएगी । मैं पोलोजोव दंपती से कभी नहीं मिला था, परंतु मैंने उसी सायंकाल उनके घर जाने का निश्चय वहीं और उसी समय कर लिया।

“ सज्जनो!” मैं प्रसन्नतापूर्वक चिल्लाया - " यह बड़े दिन की पूर्वसंध्या है ! हर कोई आज की रात प्रसन्नचित्त है -आओ, हम भी मौज मनाएँ । "

“परंतु कैसे?" विद्यार्थी साथी ने उदास होकर पूछा।

“परंतु कहाँ?” दूसरे ने पूछा।

"हम पोशाकें पहनकर आज रात नगर में होनेवाली हर पार्टी में चलें । " मैंने सुझाव दिया।

और खुशी की लहर दौड़ गई। वे उछले, कूदे, चिल्लाए एवं गाना गाने लगे और यहाँ तक कि मेरे सुझाव के लिए मेरा धन्यवाद करने लगे। जो भी रकम हमारे पास थी उसको एकत्र किया और आधे घंटे में हम दस विद्यार्थी इकट्ठे हो गए। छोटे पिशाच का यथाक्रम नाच करते हुए और ग्राहकों के योग्य बनते हुए, अंत में, हमने दुकान को हँसी और रात की ठंडी हवा से भर दिया।

मैंने कोई काली, सुंदर और चिंताकुल चीज चाही और कृत्रिम बाल बनानेवाले से स्पेन के शिष्ट आदमी की पोशाक के लिए कहा।

जो पोशाक मुझे मिली, वह जरूर किसी लंबे शिष्ट पुरुष की होगी, क्योंकि मैं उसमें पूरी तरह गुम हो गया और ऐसा लगा कि मैं बड़े खाली कमरे में अकेला ही हूँ । जितनी जल्दी मैं उसे उतार सकता था, उतारकर दूसरी माँगी।

“क्या तुम रंगदार घंटियाँ लगी मसखरे की पोशाक लेना चाहोगे?"

“मसखरे की?" मैंने घृणा से कहा ।

"ठीक है, तो फिर डाकू की टोपी और कटार के साथ?"

कटार! यह मेरी वर्तमान मानसिक स्थिति के अनुकूल थी । जिस डाकू की पोशाक मुझे दी गई वह बड़ी आयु का प्रतीत नहीं होता था। सारी संभावनाओं के साथ वह कोई आठ वर्ष का बिगड़ा हुआ लड़का होगा। उसकी टोपी से मेरा सिर ढका नहीं गया और मुझे कसे हुए मखमल के पाजामे में से छीलकर निकाला गया। नौकर की पोशाक व्यर्थ थी। उसपर दाग-ही- दाग थे और चोगा छिद्रों से भरा हुआ था।

"तुम आडंबर किसलिए कर रहे हो? जल्दी करो, देर हो रही है!" दूसरे साथियों ने शोर मचाया, जो पहले ही तैयार हो चुके थे। अब एक ही पोशाक बची थी, जो चीनी श्रेष्ठ पुरुष की थी ।

"यह चीनी पोशाक मुझे दो ।" मैं हाथ हिलाकर चिल्लाया। उन्होंने पोशाक मुझे दे दी। मैं उन रंगी स्लीपरों की मूर्खतापूर्ण बात नहीं करूँगा, जो इतनी छोटी थीं कि उनमें मेरा केवल आधा पैर ही आ रहा था; न ही उस लाल सिल्क के टुकड़े के बारे में बोलूँगा, जो कृत्रिम बालों की तरह मेरे सिर को ढककर रस्सियों से मेरे कानों से बाँधा गया था—मेरे कान चमगादड़ की तरह खड़े थे।

फिर मुखौटा आया। ओह, वह मुखौटा ! उसमें नाक, आँखें और मुँह अपने-अपने उचित स्थानों पर थे, परंतु उसमें कोई मानव नाम की चीज नहीं थी । यह एक प्रकार का भाववाचक मुख सामुद्रिक था। आदमी इतना शांत कभी नहीं होता जितना वह दिखाई देता था, यहाँ तक कि कब्र में भी! उससे न ही उदासी प्रकट होती थी, न प्रसन्नता और न ही हैरानी - वास्तव में कुछ भी नहीं । वह मुखौटा तुम्हारी तरफ सीधे और शांत भाव से देखता था; ज्यों ही तुम उसकी तरफ देखते तो दुर्निवार्य हँसी को रोक नहीं सकते थे। जब मैंने उसे अपने साथियों को पहनाया तो हँसी के फव्वारे फूट पड़े। वे अपने हाथ हिलाते कुरसियों पर गिर पड़े। "यह अत्यंत मौलिक मुखौटा होगा।" वे चिल्लाए। मैं लगभग रोनेवाला था, परंतु जब मैंने शीशे में देखा, मुझे स्वयं हँसी ने जकड़ लिया। हाँ, यह जरूर ही मौलिक मुखौटा होगा!

“हमें प्रतिज्ञा करनी होगी कि किन्हीं भी परिस्थितियों में हम मुखौटे नहीं उतारेंगे।" ज्यों ही हम बाहर निकले हममें से एक ने कहा, "अपने मान के नाम पर।"

* * * * *

वस्तुतः वह अद्वितीय मुखौटा था। लोगों की भीड़ ने मेरा पीछा किया, मुझे हर तरफ घुमाया, धक्के दिए चुटकियाँ भरीं। जब थका हुआ मैं क्रोध से मुड़ा तो दुर्निवार्य हँसी से मेरा स्वागत किया गया। सारे रास्ते मुझे घेरे रखा और हँसी के गरजते बादलों से दबाया गया। उनके साथ-साथ मैं अपने आपको इस अट्टहास के उन्मत्त चक्कर से पृथक् नहीं कर पाया। तभी अट्टहास ने मुझे भी जकड़ लिया। मैंने शोर मचाया, गाना गाया और फिसला; जबकि सारी दुनिया मेरी आँखों के सामने घूम गई, जैसे मैंने बहुत पी ली हो । फिर भी यह सबकुछ मुझसे कितनी दूर था! उस मेरे मुखौटे के नीचे कितना अकेलापन था!

"यह मैं हूँ ।" मैंने धीरे से कहा ।

उसकी भारी बरौनियाँ धीरे से ऊपर उठीं। उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा, काली किरणों का सारा पुलिंदा मुझपर फूट पड़ा और वह एकाएक हँसी से फूट पड़ी— टन - टन करती प्रसन्न वसंत ऋतु के सूर्य की तरह चमकती हुई!

"यह मैं हूँ, मैं!” मैंने मुसकराते हुए दोहराया—“तुम आज शाम क्यों नहीं आईं?"

परंतु वह हँसे जा रही थी, हँसे जा रही थी, बिना रुके !

"मैं बहुत थक गया हूँ, मेरा दिल पीड़ा से भरा है । " मैंने उत्तर के लिए याचना की।

परंतु वह हँसती चली गई । उसकी आँखों की किरणें कुछ मद्धिम हो गई तथा उसकी मुसकराहट और साफ होती गई। यह सूर्य था, परंतु एक जलता हुआ निर्दयी, क्रूर सूर्य !

"क्या, बात क्या है?" मैंने पूछा।

"क्या यह तुम हो ?" उसने अपने आप में रोते हुए पूछा, "तुम कितने जोकर लग रहे हो!" मेरे कंधे नीचे हो गए, मेरा सिर झुक गया, मेरी आकृति में गहरी निराशा थी। वह पास से गुजरते प्रसन्न युवा जोड़ों को देखने के लिए मुड़ी, मरता हुआ प्रभात उसके चेहरे पर था।

“हँसना लज्जा की बात है!" मैंने कहा, "क्या तुम जानती हो, मेरे इस मुखौटे के नीचे जीवित पीड़ाग्रस्त चेहरा है? केवल तुमसे मिलने के लिए यह मैंने पहना है । तुमने मुझे अपने प्रेम की आशा बँधाई है और तुम इसे इतनी जल्दी और निर्दयता से वापस ले रही हो! तुम आई क्यों नहीं?"

वह मेरी ओर मुड़ी; जैसे उसके मधुर, मुसकराते होठों पर मेरे प्रश्न का उत्तर हो, परंतु मेरी ओर देखते ही उसे पुनः हँसी का दौरा पड़ गया । साँस नहीं ले सकती थी । आँसुओं को भी रोक नहीं पाई। उसने लैस लगे अपने रूमाल से अपना मुँह ढक लिया । अत्यंत कठिनाई से अपना उत्तर दे पाई

"जरा मुड़कर शीशे में अपना चेहरा देखो ! ओह, क्या सूरत बनाई है ! "

मैंने अपनी भौंहें सिकोड़ीं और पीड़ा से दाँतों को रगड़ा। मैंने अनुभव किया कि मेरा चेहरा जम गया था और मृत्यु रूपी चटाई मेरे ऊपर तन गई थी। मैंने शीशे में झाँका - मूर्खता भरी शांति, हठी उदासीनता, निर्दयी, निश्चल मुख सामुद्रिक ने मुझे घूरा और मैं हँसी से फूट पड़ा तथा पूर्व इसके कि हँसी पूर्ण रूप से रुके, उसी समय गुस्से की कंपन भी हुई। मैंने निराशा के पागलपन में लगभग चीख मारकर पूछा, “तुम हँस क्यों रही हो?"

वह चुप हो गई। मैंने अपने प्रेम की कानाफूसी में बोलना शुरू कर दिया। मैंने इससे अच्छी वकालत पहले कभी नहीं की थी, क्योंकि इतनी गहराई से प्रेम नहीं किया था । मैंने प्रतीक्षा के दुःख के बारे में कहा, उन्मत्त ईर्ष्या के जहरीले आँसुओं की बात की और बात की अपनी आत्मा की, जो संपूर्ण प्रेम थी। मैंने देखा कि उसकी बरौनियाँ नीची होकर किस तरह उसके गालों पर छाया कर रही थीं— गाल जो अब पीले पड़ चुके थे। मैंने देखा, उसकी आंतरिक आग किस तरह से इस भोथरी सफेदी में से प्रतिबिंबित हो रही थी और किस तरह से उसका लचीला शरीर मेरी ओर अनिच्छा से झुक रहा था। वह रात की रानी की तरह कपड़े पहने हुए थी और पहेली की तरह काले फीते में, जैसे अँधेरे से लिपटी हुई हो - सितारे की चमक-दमक जैसी दमकती - सी; वह सुंदर थी बच्चे के भूले स्वप्न की तरह! फिर भी मैंने बात की। आँसू आँखों में भर गए और मेरा दिल खुशी से धड़कने लगा । अंततः मैंने ध्यान दिया -मैंने देखा कि कोमल मुसकराहट ने उसके होंठ जुदा कर दिए, जबकि उसकी बरौनियाँ काँपकर ऊपर उठीं-धीरे से, भीरुता से; मानो उसे अनंत भरोसा हो, उसने अपना छोटा चेहरा मेरी ओर मोड़ा और मैंने कभी ऐसी हँसी नहीं सुनी, जैसी उसकी ओर से आई।

"नहीं-नहीं, मैं नहीं!" उसने लगभग विलाप करते हुए कहा; पुनः टन-टन का फव्वारा फूट पड़ा!

ओह, काश! क्षण भर के लिए मैं मानव चेहरा ले सकता! मैंने अपने होंठ चबाए । आँसू मेरे जलते हुए गालों पर गिर रहे थे और मेरा यह मूर्ख मुख सामुद्रिक, जिसमें हर चीज —- नाक, आँखें और होंठ – गंभीर और शांत उदासीनता से देख रहे थे - अपनी मूर्खता में भयंकर था । अपने रंगदार स्लीपरों में मैं उसकी ओर लंगड़ाकर चला और उसकी टन-टन हँसी ने मेरा पीछा किया। ऐसा लगा, मानो पानी की चाँदी - लहर बहुत ही ऊँचाई से गिरी हो— चट्टान से टकराती हुई!

हम सुनसान सड़क पर दृढ़, उत्तेजित आवाजों के साथ रात के मौन में चलते हुए अपने-अपने घरों की ओर लौट रहे थे। मेरे साथियों में से एक ने मुझे कहा, “तुमने बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की है। मैंने अपने जीवन में लोगों को इस प्रकार हँसते कभी नहीं देखा । लगे रहो... यह क्या? क्या कर रहे हो तुम? मुखौटा क्यों फाड़ दिया? लड़के कहते हैं, वह पागल हो गया है! देखो, वह अपनी पोशाक भी फाड़ रहा है ! ...वह रो क्यों रहा है?"

(अनुवाद : भद्रसैन पुरी)

  • लियोनिद आंद्रेयेव की रूसी कहानियाँ हिन्दी में
  • रूस की कहानियां और लोक कथाएं
  • भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं की लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां