हँसी और हँसी-व्रत (असमिया कहानी) : श्रीकुल शइकीया

Hansi Aur Hansi-Vrat (Assamese Story in Hindi) : Srikul Saikia

रात की वेला में लिया गया एक विशेष मुहूर्त का कोई निर्णय अथवा मन में उभर आई कोई क्षणभर चमककर खत्म हो जानेवाली कोई प्रतिज्ञा या शुरू हो रहे नए वर्ष के आरंभ की उत्तेजनापूर्ण वेला में निरर्थक बानरघुड़की, किसी दूसरे व्यक्ति को देख लेने, किसी की चुनौती को स्वीकार कर उसे भयानक आघात पहुँचाने की धमकी, जिसे कई दिनों तक दुहरा-दुहराकर बनाए रखने की खोखली या कुछ अच्छी बात भी समझी जा सकती है; ठीक उसी तरह जैसे कोई निर्णय उसने लिया नहीं। इस बार जो दृढ़-व्रत उसने लिया है, कम-से-कम उसे वह अपने दैनंदिन जीवन के स्वाभाविक क्रियाकलापों के साथ इस तरह घुला-मिला देगा, उसे एकरस कर देगा, ताकि वह अलग-थलग रहे ही नहीं, जिस तरह मनुष्य की श्वास-प्रश्वास जुड़कर निरंतर चलती रहती है, ठीक उसी तरह अपने इस प्रण को भी अपनी प्राणदायिनी शक्ति बना लेगा।

आज लिया गया यह व्रत पहले के उस व्रत के जैसा नहीं होगा, जिसमें उसने तीन-तीन कसमें खाकर आगे फिर सिगरेट न पीने का व्रत लिया था, किंतु थोड़ा समय बीतते ही दौड़ता हुआ हरकांत सेठ की दुकान पर जाकर वहाँ से सिगरेट का एक पूरा पैकेट खरीद लाया था और धूम्रपान विरोधी की गई अपनी सारी नारेबाजी को सिगरेट-पर-सिगरेट पी-पीकर धुएँ की तरह ही उड़ा दिया था कि इस तरह की कारसाजी अब इस बार हरगिज नहीं करेगा। इस प्रकार के अत्यंत दृढ़-चरित्रवाले के रूप में अपने को भलीभाँति तैयार कर लेने के बाद रात की वेला के चार-पाँच घंटे की गहरी नींद के गड्ढे में गोता लगा चुकने के बाद उसके मोह के गहरे अँधेरे में गिरकर वह स्वयं के दृढ़ व्रत से भी पतित हो जाएगा। इसी बात पर वह एकाएक विश्वास नहीं कर सका था—

“रात में लिये गए व्रत और उसका निर्वाह करने के लिए खाई गई कसमें भूल गए क्या?”

“कैसा व्रत, कैसी कसम? अरे हाँ, यही न कि धूम्रपान नहीं करूँगा। अपने काम करने के कार्यालय में देरी करके नहीं पहुँचूँगा, समय पर पहुँचा करूँगा।”

“सारी चर्चा-परिचर्चा, प्रण-व्रत-सिद्धांत निबाहने का जो संकल्प लिया था, वह सभी कुछ इतनी जल्दी धूल में मिला दिया क्या? मैं अच्छी तरह जानता हूँकि तुम किसी भी बात को सँभाले नहीं रख सकते। दरअसल किसी भी सिद्धांत, किसी भी कसम को निबाहने के ल‌िए जितनी अधिक मानसिक शक्ति की आवश्यकता होती है, उसकी तनिक सी भी क्षमता तुममें नहीं है। यदि ऐसी क्षमता तुममें सचमुच होती तो एक दिन ली गई शपथ को फिर दूसरे दिन, इस बात के बाद उस बात की शपथ लेकर उसका निर्वाह करने का प्रस्ताव घोषित करते हो, हाथ की मुट्ठी बाँधकर झटकारते हुए ऐसी भाव-मुद्राएँ बनाओगे, जैसे सबकुछ कर गुजरने की ताकत तुममें वर्तमान है। तुम सहज-सरल विश्वसनीय मनवाले हो, इस प्रकार का नाटकीय प्रदर्शन नाटक खेलनेवाले अभिनेताओं की तरह सबके सामने दिखलाते हो, जबकि सच्चाई यह है कि जहाँ तक तुम्हारे मन की असलियत का प्रश्न है—तुम्हारी मानसिक शक्ति की जगह एक विराट् शून्य भर है, सबकुछ खाली-खाली है।”

सोए रहने की अवस्था से निवृत्त हो अपने बिछावन से अभी वह उठा ही नहीं कि नींद की झिलमिल चौंधियाहट के मायाजाल ने उसके शरीर-मन-आँख आदि सभी अंगों को अपनी जकड़न में लेकर अपनी आखिरी गतिविधि चलाए हुए है, फर्क बस इतना भर हुआ है कि नींद की गहराई से थोड़ा बाहर निकल आया है। बस इतने भर में ही ऐसी सब उपदेश-आदेशपरक बातें, ऐसी भाषणबाजी किसके साथ होती रही? उसकी जानकारी के बगैर ही यह सब कैसे हुआ? इसका थाह-पता लगाने की उसने सोची।

मेरी ओर अपना मुँह घुमाओगे तो तुरंत ही तुम्हें उस व्रत की याद आ जाएगी, जो तुमने रात की वेला में लिया था और उसे बहुत लंबे समय तक निबाहने की प्रतिज्ञा की थी। इस समय जो तुम याद नहीं कर पा रहे हो, उसका कारण यही है कि नींद ने चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही, पर तुम्हारी स्मृति की सुरक्षा-प्रणाली को उखाड़-पछाड़ दिया है। जिसके कारण उसने अपनी आँखों को बड़ा करते हुए खोल दिया, जिस तरह कोई हड्डी-पसली-विहीन जीव तह-पर-तह चपटा पड़ा हो। इस अवस्‍था से छुटकारा पाने के लिए उसने अपने शरीर के विभिन्न अंगों को रेखागणित के विभिन्न कोणों की तरह मोड़कर एक लंबी अँगड़ाई लेते हुए सामने की उस लोहे की अलमारी, जिसमें एक बड़े आकार का आईना जड़ा हुआ है, जो अब तक सजने-सँवरने की मेज का काम करता रहा है, उसकी ओर देखा।

“‘हा-हा-हा-हा’ करके अट्टहास करता रहूँगा, इसी बात को लेकर ही तो तुम...”

इतने समय तक चुप्पी साधे पड़े रहनेवाले आईने ने उसे सचमुच ही याद दिला दिया कि उसे हँसना चाहिए। इस बात का व्रत उसने कल की रात में ही ले लिया था। जीवन को हँसते-हँसते ही बिताना होगा। क्योंकि हँसने की कला न जानने, हँसी-मजाक-फुरतीबाजी से जीवन चलाना न जानने से मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक, सभी प्रकार की आपदाएँ, आफत, विपदा, आकस्मिक परेशानियाँ आती रहती हैं। बीते कई वर्षों से वह उच्च रक्तचाप और हृदय-रोग से पीड़ित हो गया है। मन में लगातार बना रहनेवाला मृत्यु का भय उसके दिन-प्रति-दिन के जीवन के हर एक क्षण की सुख-शांति को विनष्ट कर रहा है। इस प्रकार के दुर्गम, नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं से दबे-प‌िसे जीवन का मूल कारण यही है कि अपनी इस जिंदगी में वह दिल खोलकर हँसनेवाली निर्मल हँसी कभी हँस नहीं पाया। हँसी का जो अनंत विस्तारमय माधुर्य है, उसे उसने अागे बढ़कर कभी अपनी गलबहियों में, अपने आलिंगन में लेकर कलेजे से नहीं लगाया। फलस्वरूप षड्‍यंत्रकारी-महाविनाशकारी चक्रव्यूह के फंदे में पड़कर वह हँसी-मजाक केलि-‌क्रीड़ामय जीवन से दूर होकर ऐसी दशा में जा गिरा है और ऐसी षड्‍यंत्रकारी दुष्ट ‌स्थिति ने उसका ऐसा हाल कर दिया है कि उसका जीवन हँसी-विहीन हो गया है। उसके लिए प्रत्येक दिन की वेदनाओं से अक्रांत होने के कारण सहने की सीमा के पार होकर असहनीय हो गया है। जीने की मानसिक प्रेरणा ही उससे दूर हो गई है। जिजीविषा ही नष्ट हो गई है। जैसे कोई मशीन चलती है, ठीक उसी प्रकार लोहा-लक्कड़-स्प्रिंग, बियरिंग, बिजली के उत्ताप से धक्के खा-खाकर प्राणशक्ति से रहित उसका जीवन मशीनी मानुष—रोबोट की तरह चल रहा है, जिसके किसी भी क्षण-विशेष में, तमाशा, मजाक आदि कभी भी हँसी आती ही नहीं। मानसिक अवसाद, थकान आदि को दूर भगा देनेवाले स्फूर्तिदायक गीत उसके जीवन में कभी आते ही नहीं। जहाँ किसी भी समय जीवन का स्पंदन अनुभव होता ही नहीं।

नहीं, इस तरह की प्रक्रिया से जीवन को चलाने देना बिल्कुल ठीक नहीं। इसे ऐसे चलने नहीं दे सकते! देह, जो क्षणभंगुर है, उसकी इस क्षणभंगुरता काे इतनी दुर्दशा की स्थिति में ही गुजार देना बिल्कुल ठीक नहीं। प्राण को उसकी जो निजी मधुरिमा है, सुखमय अनुभूति है, रंगतरंग-आनंदमय, जो उसकी सहज प्रवत्ति है, उसे उसी आनंदोत्सवमय जीवन के रूप में ही आगे बढ़ाते रहने की जरूरत है। उसकी जो निजी भंगिमा है, उसे खाद-मिट्टी-पानी देकर उसके अंकुर को पर्याप्त ऊर्जा देकर दृढ़ और सबलता से बढ़ने लायक बनाने की जरूरत है। अरे, अब और बचे ही कितने दिन हैं!

अभी दो दिन पहले ही तो उसने किसी जगह पढ़ा है कि हँसी के समान कोई दूसरा व्यायाम नहीं है। हँसते समय शरीर की दो सौ से भी अधिक मांसपेशियों का व्यायाम हो जाता है। भौतिक दृष्टि से जो इतना बड़ा लाभ होता है, उसके ऊपर मानसिक स्तर पर भी प्राणवंत होने की अलौकिक शक्ति-सामर्थ्य आ जाती है। हँसी के दृढ़-व्रती में ऐसी मानसिक शक्ति आ जाती है कि वह दूर पड़ी स्टील की चम्मच को भी अपने सबल दृष्टि-निक्षेप से टेढ़ा कर सकता है। नहीं, वह इजराइल के उस प्रसिद्ध कलाकार की तरह हँसी की जादुई शक्ति से दूरस्‍थ पदा‌र्थों को टेढ़ा-मेढ़ा कर जादूगरी का प्रदर्शन करने की इच्छा नहीं होती, जिससे पूरी दुनिया को अचंभित कर सके। परंतु उस शक्ति से वह जीवन के कुछ दिन या दिन की जगह वर्ष भी हो सकता है, अतः हम कह सकते हैं कि जीवन के कुछ वर्ष, संक्षेप में कहें तो जो आयु शेष बची है, उसे अपने जीवन को पूरी प्राणशक्ति से आनंद-आह्ल‍ादपूर्वक उपभोग कर सकेगा, जहाँ बीमारी-बरबादी की जलन नहीं होगी, न होगी दुःख-दर्द भरी चीख-चिल्लाहट। अभी उसी दिन तो उससे किसी ने कहा था, या फिर कहीं उसने पढ़ा था कि हँसना जानने की प्रवृत्ति का मनुष्य के जीवन से वंशानुगत संबंध है, अर्थात‍् मनुष्य के रूप में जन्म लेते से ही हँसी रूपी मधु-छत्ता उसकी जीवन-डाल से चिपका-लटका रहता है। इतने दिनों तक वह भले ही भुला नहीं पाया, फिर भी एक और बात अधिक महत्त्व दिए जाने योग्य थी कि उसके एक रिश्तेदार ने कुछ समय पहले ही ‘महान् अभिनेता’ की उपाधि पाई थी।

चलते-फिरते रंगनाटक, यात्रा-पार्टी लोकनाट्‍यों के मंचन में जनसमारोहों में किए जानेवाले कीर्तनों-भजनों में वे जो गीत-संगीत गाते, व्यंग्य-विनोद-कौतुक करते, बाेलने और शरीर के विभिन्न अंगों के भाँति-भाँति के संचालनों से जो मुद्राएँ बनाते, वे उन सबसे एकत्र जनसमुदाय को हँसी-आनंद की बाढ़ से भिगोकर उनकी सारी जड़ता-थकान को धो-नहलाकर साफ-सुथरा-तरोताजा बना दिया करते थे। बहुत दूरदूर के लोग भी अपने यहाँ होनेवाले नाना प्रकार उत्सवों-पर्वों-समारोहों में उनकी उपस्थिति के लिए जी-जान से कोशिश करते थे। इसका अत्यंत सहज-सरल अर्थ यह है कि खुश रहने की जो अानुवंशिक क्षमता मनुष्य को प्राप्त है, जीवन को हँसी-मजाक करते हुए अत्यंत सहज-सरल ढंग से, किसी प्रकार की गंभीर चिंता के बोझ से मुक्त कर हलके-फुलके ढंग से जीवन जीने का जो सहज कौशल है, वह उनका जो जन्म लेने के वंशवृक्ष का अपना मूल तना है, वृक्ष जैसे अपने तने में सन्निविष्ट होता है, उसी तरह उनके जीवन रूपी तने में हँसी की प्रवृत्ति भी सन्निविष्‍ट है। आज इतने वर्षों बाद बहुत संभव है कि वातावरण में जो नाना प्रकार की विरोधी परिस्थितियाँ बनी हैं, उनके खिंचाव-दबाव के कारण उस मूल मानवीय प्रवृत्ति में कुछ बदलाव आया हो या फिर जो मूल प्रवत्ति थी, जो आधारभूत मानवीय गुण-धर्म थे, वे पूरी तरह चूर्ण-विचूर्ण होकर समाप्त नहीं हुए हैं। इस कदर तो हरगिज ही नहीं हुआ है कि वह अगर हँसना चाहे, हँसी-मजाक, आनंद-उत्साह मनाना चाहे तो वैसे कर ही न पाए। हँसी तो उसके लिए इतनी सहज है कि काँख में जरा सा गुदगुदाते ही वह खिलखिलाकर हँस पड़ेगा।

‘‘कल जो फाइलें देखने-जाँचने से रह गई थीं, उन्हें ला दूँ क्या?’’

इतने लंबे समय तक वह कुरसी पर बैठकर हँसी से संबंधित बातें, उसके संबंध में जो महानतम सिद्धांत स्‍थापित हुए हैं, उसके संबंध में सोचने- समझने, तुलनात्मक ढंग से उनकी समीक्षा करने आदि के गंभीर प्रश्नों पर विचार करने में वह निमग्न था कि हरिदास चपरासी ने आकर ऐसा प्रश्न पूछ लिया तो यदि पहले जैसी सामान्य परिस्थित‌िहोती तो उसमें उसके सकपकाकर अचानक चकपका जाना ही स्वाभाविक था, क्योंकि स्पष्‍ट रूप से दिखाई पड़ रहा था कि कार्यालय के अपने काम से वह पूरी तरह अन्यमनस्क था। कार्यालय के परिश्रमपूर्ण—कठोर कर्म से विरत रहकर वह स्मृति की रसमयी दुनिया में मानसिक रूप से भाव-विभोर होकर कुलाँचें भर रहा था।

‘‘ठीक है, लाना चाहते हो तो लेकर ही आना न।’’

बहुत सावधानी से सँभल-सँभलकर कह उठने के साथ ही वह समझ गया कि कार्यालय की कुछ आवश्यक फाइलों पर उसे जितना ध्यान देना चाहिए था, वस्तुतः उसने उनपर उतना ध्यान दिया नहीं। फिर भी उसने निश्चय किया कि फाइलों को निपटाने से अनावश्यक थकान होती है, जिससे घृणा सी पैदा हो जाती है। वह कम-से-कम आज तो उसकी उस प्रसन्नता को नष्‍ट न कर सके, ‌िजस प्रसन्नता का भाव हँसी का चिंतन करते हुए उसे आज सहज रूप से मिला है। उसने सोचा कि अब वह इस तरह खिलखिलाकर इतनी जोर से हँसे क‌िजो प्रसन्नता उसे हँसी से प्राप्त हुई है, वह प्रसन्नता हरिदास के हृदय में भी महसूस होने लगे। अतः खिलखिलाकर हँसते हुए उसने कहा, ‘‘अरे, फाइल ले आना न! यह सब दफ्तरी काम तो चलता ही रहता है और चलता ही रहेगा भी। अतः चिंता छोड़कर हँसी-मजाक भरा मस्ती का जीवन जीना होगा, समझे न! नहीं तो दुःख-दरिद्रता-निराशा से दबे-कुचले रहकर शीघ्र ही किसी दिन अकाल मृत्यु मरकर परलोक सिधार जाएगा। और हाँ, तुमने जो छुट्टी पाने के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था, उसका क्या हुआ? छुट्टी पा गया? वैसे नहीं भी पाए हो तो भी कोई चिंता करने की जरूरत नहीं है। सबकुछ चल जाता ही है। समझते हो न कि इस तरह बराबर चिंताओं के बोझ से सिर झुकाए रहने से मनुष्य की आयु छोटी हो जाती है। बीमारी, ज्वर-जड़ाय की पीड़ा आदि होती रहती है। अतः सुख-सुविधापूर्णस्थिति पाने की उम्मीदें छोड़ जो पाया है, बस उतने भर से। अरे-अरे! तेरे बेटे ने तो हाई स्कूल की परीक्षा उत्त‍ीर्ण कर ली है न! उसे खूब अच्छी तरह पढ़ाना। इस सबसे ही तुम आनंद पाओगे।”

वे कहते गए, किंतु हरिदास ने उनकी कही पिछली बातों की ओर ध्यान नहीं दिया। बस, हामी भरकर वह अब एक दूसरी ही परिस्थिति का मुकाबला करने की तैयारी करने की सोच रहा है—

‘‘देखो, तुम बिना किसी डर-घबराहट के, निस्संकोच जो कुछ भी मुझसे पूछना चाहते हो, पूछ सकते हो! डरने का कोई कारण ही नहीं है। तुम मुझे प्रसन्न-चित्त रहने दो, मैं तुम्हें हँसी-खुशी व स्फूर्ति से भरा हुआ बना रहने दूँगा। हमें बराबर यही कोशिश करनी चाहिए। तुमने हास्य-योग का नाम सुना है? आज के युग में एक नए प्रकार की सोच-समझ विकसित हुई है, नए ढंग का विचार-विमर्श शुरू हुआ है। विचारशील मनुष्य आज हँसने के लिए, जी खोलकर उन्मुक्त हँसी हँसने के लिए अपने व्यस्त समय में से समय निकालकर अब ‘विश्व हास्य दिवस’ मनाने का निर्णय ले चुके हैं। इसका आधारभूत कारण यह है कि वैसी ऊँचे दर्जे की जी-खोलकर हँसनेवाली हँसी-अट्‍टहास हँसने से हृदय के अंतरतम तक के सभी अंगों को असीम शक्ति-सामर्थ्य पैदा करने की क्षमता उत्पन्न होती है, रोग-व्याधि को दूर करने के औषधीय गुण पैदा होते हैं, आयु बढ़ा देने की महाक्षमता वाली पौ‌िष्टक ताकत मिलती है। तुम लोग चूँकि इस ओर विशेष ध्यान नहीं देते, इसकी महिमा को महत्त्व नहीं देते, इसी से बहुत कम उम्र में ही...

‘‘अरे हाँ रे! बता तो तुम्हारी उम्र कितनी है? अधिक-से-अधिक दो-बीसी अर्थात‍् चालीस वर्ष की ही तो होगी! किंतु इसी उम्र में तुम्हारा शरीर साठ वर्ष के बूढ़े जैसा हो गया हो, ऐसा लगता है, हा, हा, हा...’’

इतनी सारी बातें सुनने के लिए हरिदास कभी भी तैयार नहीं रह सकता। इतने लंबे समय की अपनी नौकरी में इस प्रकार की कोई भी और अस्वाभाविक परिस्थित‌िउसके सामने आई हो, ऐसी कुछ की तो उसे याद ही नहीं आ रही।

‘‘आज के दिन से ही मन में याद किए रखना कि मैंने बातों को किस रूप में लिया है। मेरे मुख से हँसी कभी गायब नहीं होगी। अर्थात‍् किसी भी प्रकार की कठिनाई, किसी प्रकार की हा‌न‌ि पहुँचाने की परिस्थिति भी मेरे हँसमुख चेहरे की मधुरता को हटा नहीं पाएगी, इसे भली-भाँति समझ लेना। जैसे क‌िअभी आज की ही घटना को ही देखो न, आज सवरे-सवेरे नींद से जगते ही मैंने जाना कि घर पर दूध पहुँचानेवाले ग्वाले ने दूध का दाम बढ़ा दिया है। सरकार ने बिजली का किराया भी बढ़ा दिया है। हमारी गृहस्थी की जो मासिक आमदनी और खर्च की स्थिति है, उसमें अचानक बहुत नुकसानदायक आघात लगा है। इन सब चोटों की सूचना मेरी बड़ी बहन के चहरे पर छाए भावों ने मुझे प्रातःकाल ही दे दी। परंतु इतना कुछ जानकर भी इन सबका सामना करने के संबंध में मैं क्या कुछ सोच रहा हूँ, जानते हो?”

“हाँ साहेब, आप सभी कुछ को हँसी से...”

हा-हा-हा! ठीक समझा है तुमने। अरे, जो कुछ भी होना होगा, वह तो होगा ही। अभी आज इस महीने की पंद्रह तारीख ही है, जबकि यह सारा झमेला तो महीने के अंत में आएगा, यानी पंद्रह दिन बाद में; फिर आज ही मैं अपनी हँसी-खुशी गँवाकर उन्हीं सब चिंताओं में डूबा रहूँगा क्या? नहीं, ऐसा कतई नहीं होगा। अब आज की ही यह घटना देखो न। मैं जब नगर बस-सेवा की सीट पर बैठकर आ रहा था, तब दो नौजवान छोकरे अपने चेहरे और जबान को ऐंठ-पैंठकर मुझे चिढ़ाने के अंदाज में यह कहते हुए कि ‘तया को उसकी सीट से उठा दो!’ मेरा मजाक उड़ाते हुए मुझे चिढ़ाने की कोशिशें करने लगे। ऐसी व्यंग्य-विद्रूप भरी उनकी हरकतों पर अगर ध्यान दें तो वह मेरे पुरुषत्व को ललकारने और मेरा तिरस्कार कर मुझे उत्तेजित कर प्रतिक्रिया में कुछ कर गुजरने का सीधा चैलेंज-सा था। और कुछ नहीं तो कम-से-कम उसके प्रत्युत्तर में उन्हें दो-चार बातें तो सुना ही सकता हूँ, लेकिन मैंने ऐसा कुछ नहीं किया; क्योंकि मैं जानता हूँकि ऐसी छोटी-छोटी घटनाओं से अपने अंतरतम की भावनाओं को ठेस पहुँचाकर हीन-दीन-बेचारा बन जाने से तो काम नहीं चलेगा। अधिकाधिक क्राेध करने पर मेरे शरीर की रक्तपेशियों के उत्तेजक तत्त्व (हारमोंस) बढ़ जाने से मेरे अपने शरीर के प्रति ही अन्याय होगा। मेरी मानसिक प्रसन्नता नष्‍ट हो जाएगी। ये सारी संभावनाएँ तो मेरी जानी-परखी हैं। अतः मैंने अपने चेहरे पर ऐसे भाव बनाए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। फिर वे सब अच्छी तरह सुन सकें, इस उद्देश्य से मैं जोर-जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ा।

हँसी की नकली मुद्राओं से चेहरे पर उभर आई लकीरों से हरिदास के मुख पर भी हँसी का ऐसा भाव आया कि उसका चेहरा कुछ टेढ़ा हो गया। बोला, “अभी थोड़ी देर पहले ही मेरी घरवाली ने घर से फोन करके सूचना दी है कि मेरे बेटे की नौकरी नहीं लग पाई है। वैसे मेरा बेटा पहले से ही जानता था कि नौकरी के लिए घूस का पैसा न देने पर नौकरी कदापि नहीं लगेगी।”

उसको मैंने बतलाया कि कोई बात नहीं है। इन सबके बीच ही मौज-मस्ती से जीवन जीना चाहिए। और फिर समझाया कि जाकर कोई हिंदी सिनेमा देख आए। अगर वह भी न हो पाए तो जाकर अपनी ही भाषा का कोई रोचक नाटक या सिनेमा देख आए, जिसे देखने से मन खुलकर हँसी हँस सके। ऐसे में चार्ली चैपलिन की पिक्चरें ज्यादा लाभदायक होतीं, मगर आजकल तो ये कहीं दिखाई ही नहीं जा रहीं।

इसी बीच उधर हरिदास बाहर निकलने के लिए मौका तलाश रहा था।

उसकी छटपटाहट देखकर मैंने कहा, ‘‘तुम चले जाओ! जो कुछ फाइलें यहाँ लानी हैं, उन्हें अमिय के हाथों भेज दो। उससे कहना कि मैंने उन्हें मँगवाया है। वह बड़ा ही मस्तमौला लड़का है। बीते दो वर्षों में मैंने जो उसे यहाँ पाया है, निरखा-परखा है, उससे अनुभव किया है कि जीवन जीने का अर्थ वह खूब अच्छी तरह जानता है। हँसी-मजाक, ठट्ठा-ठिठोली करता हुआ वह अपनी उम्र पच्चीस वर्ष पर ही ठहराए रख सकेगा। उसके मुख पर बनी रहनेवाली हँसी, जो दूसरों को भी हँसने की प्रेरणा देती है, सदा-सर्वदा खिला-खिला सा उसका मुखमंडल चिंता- भावना से दूर ऐसे आनंद का स्रोत है कि उसे मेरी भी उम्र के आगे बढ़ती हुई घड़ी और आगे न बढ़कर पीछे की ओर मुड़ जाती है। मैं पहले की अपेक्षा नौजवान हो जाता हूँ। वह जीवन जीने की कला जानता है। वह हृष्ट-पुष्ट युवक है। इसी प्रकार वह एक सौ वर्ष तक जिंदा रह सकेगा। रोग-कष्ट-बीमारी की तो कोई बात ही नहीं है। तुम सभी को उसका अनुसरण करना उचित है। बहुत दिनों...’’

हरिदास द्वार की देहरी तब पहुँच गया था, मगर वहाँ से लौट आया। उसने जो-जो बातें कहीं, उसके प्रत्येक शब्द उसके कानों में नहीं समा सके, क्योंक‌िउसके द्वारा प्रत्येक शब्द का अर्थ-विश्लेषण करके समय नष्ट करने का कोई अर्थ ही नहीं है। वे कही गई तमाम बातों का मूल भाव समझ गए। फिर भी उन्हें तो हँसते ही रहना होगा। उन्होंने हँसते रहने का व्रत स्वीकार किया है। उनके हँसते रहने के निश्चय पर कहीं कोई हेर-फेर नहीं हुआ है। ऐसे दिखावा करते हुए उन्होंने उस मूलभाव की गंभीरता को हँसी में उड़ा देने की सोची, अट्टहास करने लगे—“हा, हा, हा।’’

हरिदास वहाँ से हट गया। कमरा अब पूरी तरह खाली हो गया है। उनके सिवा वहाँ और कोई भी नहीं है। वे जिस कमरे में बैठे हैं, उसके सटे प्रसाधन-कक्ष (बाथरूम) में जो बड़ा सा आईना लगा है, उसके सामने खड़े होकर उन्होंने एक बार अपना मुखड़ा गौर से निरख-परख लिया। सभी तरह से ठीक-ठाक बिना किसी मिलावट के मोह-माया से मुक्त विशुद्ध हँसी उसके मुख पर फैली हुई है। आँखों के कोनों में छलछला आए दो बूँद पानी को उन्होंने आँसू मानना स्वीकार नहीं किया। ऐसी स्थिति में वे सचमुच हँस रहे हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं है।

“अमिय आज के बाद से अब कभी कार्यालय नहीं आएगा। सड़क पर किसी ने उसे गाेलियों से छलनी कर मार डाला है।”

कई दिनों बाद उसका जो बासी शव मिला, उस बासी पड़ गए शव के मुख पर जो हँसी मौजूद थी, वह अभी इस समय मेरे मुख पर जो हँसी लटकी हुई है, ठीक इसी तरह दिखाई पड़ रही है—उसने विचारा। “नन्हे बच्चे की तरह हिचक-हिचककर रो रहे हो किसलिए?” आईने में हँसता हुआ उसका जो मुख-प्रतिबिंब दिखाई पड़ रहा है, उस मुखड़ेने ही उससे पूछा।

हृदय में उभरी असहनीय प्रचंड वेदना की विषैली चोट के बावजूद वह हँसता ही रहा—हा-हा-हा।

(अनुवाद : महेंद्रनाथ दुबे)

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