हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ (निबंध) : महादेवी वर्मा

Hamari Shrinkhala Ki Kariyan (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ : 1

प्रायः जो लौकिक साधारण वस्तुओं से अधिक सुंदर या सुकुमार होती है उसे या तो मनुष्य अलौकिक और दिव्य की पंक्ति में बैठाकर पूजार्ह समझने लगता है या वह तुच्छ समझी जाकर उपेक्षा और अवहेलना की भाजन बनती है। अदृष्ट विडंबनाओं से भारतीय नारी को दोनों ही असस्थाओं का पूर्ण अनुभव हो चुका है। वह पवित्र देव-मन्दिर की अधिष्ठात्री देवी भी बन चुकी है और अपने गृह के मलिन कोने की बंदिनी भी। कभी जिन गुणों के कारण उसे समाज में अजस्त्र सम्मान और अतुल श्रद्धा मिली, जब प्रकारांतर से वे त्रुटियों में गिने जाने लगे उसे उतनी ही मात्रा में अश्रद्धा और अनादर भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर स्वीकार करना पड़ा। उसे जगाने का प्रयास करने वाले भी प्रायः इसी संदेह में पड़े रहते हैं कि यह जाति सो रही है या मृतक ही हो चुकी है जिसकी जागृति स्वप्न मात्र है।

वास्तव में उस समय तक इसका निश्चय करना भी कठिन है जब तक हम उसकी युगांतरदीर्घ जड़ता के कारणों पर एक विहंगम दृष्टि न डाल लें।

संसार के मानव-समुदाय में वहीं व्यक्ति स्थान और सम्मान पा सकता है, वही जीवित कहा जा सकता है जिसके हृदय और मस्तिष्क ने समुचित विकास पाया हो और जो अपने व्यक्तित्व द्वारा समाज से रागात्मक के अतिरिक्त बौद्धिक संबंध भी स्थापित कर सकने में समर्थ हो। एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की सबको आवश्यकता है, कारण, बिना इसके न मनुष्य अपनी इच्छा-शक्ति और संकल्प को अपना कह सकता है और न अपने किसी कार्य को न्याय-अन्याय की तुला पर तोल ही सकता है।

नारी का मानसिक विकास पुरुषों के मानसिक विकास से भिन्न परंतु अधिक द्रुत, स्वभाव अधिक कोमल और प्रेम-घृणादि भाव अधिक तीव्र तथा स्थायी होते हैं। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उसका व्यक्तित्व विकास पाकर समाज के उन अभावों की पूर्ति करता रहता है जिसकी पूर्ति पुरुष-स्वभाव द्वारा संभव नहीं। इन दोनों प्रकृतियों में उतना ही अंतर है जितना विद्युत् और झड़ी में। एक से शक्ति उत्पन्न की जा सकती है। बड़े-बड़े कार्य किए जा सकते हैं, परंतु प्यास नहीं बुझायी जा सकती। दूसरी से शांति मिलती है, परंतु पशुबल की उत्पत्ति संभव नहीं। दोनों के व्यक्तित्व, अपनी पूर्णता में समाज के एक ऐसे रिक्त स्थान को भर देते हैं जिसमें विभिन्न सामाजिक संबंधों में सामंस्य उत्पन्न होकर उन्हें पूर्ण कर देता है।

प्राचीनतम काल में मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनाने में, पत्नी-पुत्रादि के लिए गृह और उसकी पवित्रता की रक्षा के लिए नियमों का अविष्कार कराने में स्त्री का कितना हाथ था, यह कहना कठिन है, परतु उसके व्यक्तित्व के प्रति समाज का इतना आदर और स्नेह प्रकट करना सिद्ध करता है कि मानव-समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति उसी से संभव थी। प्राचीन आर्य नारी के सहधर्मचारणी तथा सहभागिनी के रूप में कहीं भी पुरुष का अंधानुसरण या अपने-आपको छाया बना लेने का आभास नहीं मिलता।

याज्ञवल्क्य अपनी विदुषी सहधर्मिणी मैत्रेयी को सब कुछ देकर वन जाने को प्रस्तुत होते हैं, परंतु पत्नी वैभव का उपहास करती हुई पूछती है- "यदि ऐश्वर्य से भरी सारी पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मैं अमर हो सकूँगी ?" चकित-विस्मित पति कह देता है, 'धन से तुम सुखी हो सकोगी, अमर नहीं।' पत्नी की विद्रूपमय हँसी में उत्तर मिलता है- "जिससे मैं अमर न हो सकूंगी उसे लेकर करूँगी ही क्या ?" आज भी, 'तमसों मां ज्योतिर्गमय मत्योः मां अमृतं गमय' आदि उसके प्रवचनों से ज्ञात होता है कि गृह की वस्तुमात्र समझी जाने वाली स्त्री ने भी कभी जीवन में कितनी गंभीरतामयी दार्शनिक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया था।

त्यागी बुद्धि की करुण कहानी की आधार सती गोपा भी केवल उनकी छाया नहीं जान पड़ती वरन् उसका व्यक्तित्व बुद्धि से भिन्न और उज्जल है। निराशा में, ग्लानि में और अपेक्षा में वह न आत्महत्या करती है, न वन-वन पति का अनुशरण। अपूर्व साहस द्वारा अपना कर्तव्य-पथ खोज कर स्नेह से पुत्र को परिवर्धित करती है और अंत में सिद्धार्थ के प्रबुद्ध होकर लौटने पर धूलि के समान उनके चरणों में लिपटने न दौड़कर कर्तव्य की गरिमा से गुरू बनकर अपने ही मंदिर में उसकी प्रतीक्षा करती है।

महापुरुषों की छाया में रहने वाले कितने ही सुन्दर व्यक्तित्व कांतिहीन हो कर अस्तित्व खो चुके हैं। परंतु उपेक्षित यशोधरा आज भी स्वयं जीकर बुद्ध के विरागमय शुष्क जीवन को सरस बनाती रहती है।

छाया के समान राम का अनुसरण करने वाली मूर्तिमयी करुणा सीता भी वास्तव में छाया नहीं है। वह अपने कर्तव्य के निर्दिष्ट करने में राम की भी सहायता नहीं, वरन् उनकी इच्छा के विरुद्ध वन-गमन के क्लेश सहने को उद्यत हो जाती है। अंत में अकारण ही पति द्वारा निर्वासित की जाने पर असीम धैर्य से वनवासिनी का जीवन स्वीकार कर गर्वपूर्ण संदेश भेजती है-"मेरी ओर से उस राजा से कहना कि मैं तो पहले ही अग्नि-परीक्षा देकर अपने-आपको साध्वी प्रमाणित कर चुकी हूँ।, मुझे निर्वासित कर उसने क्या अपने प्रख्यात कुल के अनुरूप कार्य किया है ?"-

वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम्।
मां लोकवादश्रवणादहासीः श्रुतस्य किं सत्यदृशं कुलस्य।।

उसका सारा जीवन साकार साहस है जिस पर कभी दैन्य की छाया नहीं पड़ी।
महाभारत के समय की कितनी ही स्त्रियाँ अपने स्वतंत्त्र व्यक्तित्व तथा कर्तव्यबुद्धि के लिए स्मरणीय रहेंगी। उनमें से प्रत्येक संसार-पथ में पुरुष की संगिनी है, छाया मात्र नहीं। छाया का कार्य, आधार में अपने आपको इस प्रकार मिला देना है जिसमें वह उसी के समान जान पड़े, संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक-से-अधिक पूर्ण बनाना।

स्त्री को अपने अस्तित्व को पुरुष की छाया बना देना चाहिए, अपने व्यक्तित्व को उससे समाहित कर देना चाहिए, इस विचार का पहले कब आरंभ हुआ, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि यह किसी आपत्तिमूलक विषवृक्ष का ही विषमय फल रहा होगा। जिस अशांत वातावरण में पुरुष अपनी इच्छा और विश्वास के अनुसार स्त्री को चलाना चाहता था उसमें इस भ्रमात्मक धारणा को कि स्त्री स्वतंत्र व्यक्तित्व से रहित पति की छाया मात्र है, सिद्धांत का रूप दे दिया गया। इस भावना ने इतने दिनों में कितना अपकार कर डाला है, इस जाति की युगांतक तक भंग न होने वाली निद्रा और निष्चेष्टता देख कर ही जाना जा सकता है।

उसके पास न अपनापन है और न वह अपनापन चाहती ही है।
इस समय हमारे समाज में केवल दो प्रकार की स्त्रियाँ मिलेंगी-एक वे जिन्हें इसका ज्ञान नहीं है कि वे भी एक विस्तृत मानव-समुदाय की सदस्य हैं और उनका भी ऐसा स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके विकास से समाज का उत्कर्ष और संकीर्णता से अपकर्ष संभव है; दूसरी वे जो पुरुषों की समता करने के लिए उन्हीं के दृष्टिकोण से संसार को देखने में उन्हीं के गुणावगुणों का अनुकरण करने में जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति समझती हैं। सारांश यह है कि एक ओर अर्थहीन अनुसरण है तो दूसरी ओर अनर्थमय अनुकरण और यह दोनों प्रयत्न समाज की श्रृंखला को शिथिल तथा व्यक्तिगत बंधनों को सुदुढ़ और संकुचित करते जा रहे है।

अनुसरण मनुष्य की प्रकृति है। बालक प्रायः आरंभ में सब कुछ अनुसरण से ही सीखता है, तत्पश्चात् अपने अनुभव के साँचे में ढालकर उसे अधिक-से-अधिक पूर्ण करने का प्रयास करता है। परंतु अनुभव के आधार से हीन अनुसरण, सिखाए हुए पशु के अंधानुकरण के समान है जो जीवन के गौरव को समूल नष्ट कर और मनुष्य को दयनीय बनाकर पशु की श्रेणी में बैठाने के लिए बाध्य कर देता है। कृमिक प्राचीनता के आवरण मे पली देवियाँ असंख्य अन्याय इसलिए नहीं सहतीं कि उनमें प्रतिकार की शक्ति का अभाव है वरन् यह विचार कर कि पुरुष समाज के न्याय समझ कर किये कार्य को अन्याय कह देने से वे कर्तव्यच्युत हो जाएगी। वे बड़ा-से-बड़ा त्याग प्राणों पर खेलकर हँसते-हँसते कर डालने पर उद्यत रहती हैं, परंतु उसका मूल्य वही है जो बलिपशु के निरुपाय त्याग का होता है। वे दूसरों के इंगित मात्र पर किसी सिद्धांत की रक्षा के लिए जीवन की बाजी लगा देंगी, परंतु अपने तर्क और विवेक की कसौटी पर उसका खरापन बिना जाँचे हुए; -अतः ये विवेकहीन आदर्शाचरण भी उनके व्यक्तित्व को अधिक-से-अधिक संकुचित तथा समाज के स्वास्थ विकास के लिए अनुपयुक्त बनाता जा रहा है।

दर्पण का उपयोग तभी तक है जब तक वह किसी दूसरे की आकृति को अपने हृदय में प्रतिबिम्बित करता रहता है, अन्यथा लोग उसे निरर्थक जानकर फेंक देते हैं। पुरुष के अन्धानुसरण ने स्त्री के व्यक्तित्व को अपना दर्पण बनाकर उसकी उपयोगिता तो सीमित कर ही दी, साथ ही समाज को भी अपूर्ण बना दिया । पुरुष समाज का न्याय है, स्त्री दया; पुरुष प्रतिशोधमय क्रोध है, स्त्री क्षमा; पुरुष शुष्क कर्तव्य है, स्त्री सरस सहानुभूति और पुरुष बल है, स्त्री हृदय की प्रेरणा । जिस प्रकार युक्ति से काटे हुए काष्ठ के छोटे-बड़े विभिन्न आकार वाले खण्डों को जोड़कर हम अखण्ड चतुष्कोण या वृत्त बना सकते हैं, परंतु उनकी विभिन्नता नष्ट करके तथा सबको समान आकृति देकर हम उन्हें किसी पूर्ण वस्तु का आकार नहीं दे सकते, उसी प्रकार स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक मानसिक वैपरीत्य द्वारा ही हमारा समाज सामंजस्यपूर्ण और अखण्ड हो सकता है, उनके बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से नहीं। उससे समाज का दृष्टिकोण एकांगी हो जायगा तथा जीवन की अनेक रूपता का वास्तविक मूल्य आँकना असम्भव ।

असंख्य विषमताओं का कारण, स्त्री का अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भूलकर विवेकशक्ति को खो देना है। उसके बिना जाने ही उसका कर्तव्य-पथ निश्चित हो चुकता है जिस पर चल कर न उसे सफलताजनित गर्व का अनुभव होता है, न असफलता-जनित ग्लानि का। वह अपनी सफलता या असफलता की छाया पुरुष की आत्मतुष्टि या असंतोष में देखने का प्रयत्न करती है, अपने हृदय में नहीं ।

हमारे यहाँ सभी माताएँ हैं, परंतु मातृत्व की स्वाभाविक गरिमा से उन्नत-मस्तक माता को खोज लेना सहज नहीं; असंख्य पलियाँ हैं, परंतु जीवन की प्रत्येक दिशा में साथ देने वाली, अपने जीवन-संगी के हृदय के रहस्यमय कोने-कोने से परिचित सौभाग्य-गर्विता सहधर्मचारिणियों की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है ।

अनुकरण को चरम लक्ष्य मानने वाली महिलाओं ने भी अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए सत्पथ नहीं खोज पाया, परंतु उस स्थिति में उसे खोज पाना संभव भी नहीं था। उन्हें अपने मूक छायावत् निर्जीव जीवन में ऐसी मर्मव्यथा हुई कि उसके प्रतिकार के लिए उपयुक्त साधनों के आविष्कार का अवकाश ही न मिल सका; अतः उन्होंने अपने-आप को पुरुषों के समान ही कठिन बना लेने की कठोर साधना आरंभ की। कहना नहीं होगा कि इसमें सफलता का अर्थ स्त्री के मधुर व्यक्तित्व को जलाकर उसकी भस्म से पुरुष की रक्षा - मूर्ति गढ़ लेना है। फलतः आज की विद्रोहशील नारी व्यावहारिक जीवन में अधिक कठोर है, गृह में अधिक निर्मम और शुष्क, आर्थिक दृष्टि से अधिक स्वाधीन, सामाजिक क्षेत्र में अधिक स्वच्छंद, परंतु अपनी निर्धारित रेखाओं की संकीर्ण सीमा की बंदिनी है । उसकी यह धारणा कि कोमलता तथा भावुकता ऐसी लौह-शृंखलाएँ हैं जो देखने तथा सुनने में ही कोमल जान पड़ती हैं, पहनने में नहीं; उसके प्रति पुरुष समाज के विवेक और हृदयहीन व्यवहार की प्रतिक्रिया मात्र है। संसार में निरंतर संघर्षमय जीवन वैसे ही कुछ कम नीरस तथा कटु नहीं है, फिर यदि उससे सारी सुकुमार भावनाओं का, माधुर्य का बहिष्कार कर दिया जाय तो असीम साहसी ही उसे वहन करने में समर्थ हो सकेगा, इतर जनों के जीवन को तो उस रुक्षता का भार चूर-चूर किये बना न रहेगा ! स्त्री की कोमलतामयी सदाशयता और सहानुभूति समाज के संतप्त जीवन के लिए शीतल अनुलेप का कार्य करती है, इसमें संदेह नहीं ।

अर्वाचीन समाज में या तो स्त्रियों में स्त्रियोचित स्वतंत्र विवेकमय व्यक्तित्व का विकास ही नहीं हो सका है या उनकी प्रत्येक भावना में, चरित्र में, कार्य में, पुरुष की भावना, चरित्र और कार्य की प्रतिकृति झाँकती रहती है। इसी से एक का निरादर है और दूसरी से अविराम संघर्ष ।

अपनी समस्त शक्तियों से पूर्ण महिमामयी महिला के सम्मुख किसी का मस्तक आदर से नत हुए बिना नहीं रह सकता, यह अनुभव की वस्तु है, तर्क की नहीं । उपेक्षा तथा अनादर वहीं संभव है जहाँ उपेक्षित और अनादृत व्यक्ति उपेक्षा और अनादर करने वाले के समकक्ष या उसमें न्यून होता है। परंतु स्त्री के जिस गरिमामय व्यक्तित्व को शक्ति का नाम मिला है तथा जिसके लिए मनु को 'यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया' कहना पड़ा है, वह संसार की संकीर्णता से दूर टिमटिमाते हुए ध्रुव की तरह उपेक्षा और अनादर से बहुत ऊपर तथा स्थायी रहेगा । उसकी शक्तियों की गुरुता जानने के लिए उन्हें पुरुष की शक्तियों के साथ एक तुला पर तोलने का प्रयत्न भी भ्रांति से रहित नहीं । कारण, संसार की प्रत्येक वस्तु में निहित शक्ति की अभिव्यक्तियों और उसके रूपों की एकता किसी भी दशा में न संभव है, न उसे होना चाहिए। तूल अपने हल्केपन में कार्य की जो शक्ति छिपाये है वही लोहे की कठिनता में समाहित है; जल के चल प्रवाह में जिस शक्ति का परिचय हमें मिलता है वही पर्वत में अचलता बन कर सफलता पाती है। यदि हम अप्राकृतिक साधनों द्वारा जल को अचल या तूल को कठिन बना कर उनकी शक्तियों से कार्य लेना चाहें तो उनका रूप तो विकृत हो ही जायगा, साथ ही शक्तियाँ भी परिमित हुए बिना न रहेंगी।

आधुनिक भौतिकवाद-प्रधान युग की नारी को यही दुःख है कि वह पुरुष के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता पाकर भी संसार के अनेक आश्चर्यों में एक बन गयी है; उसके हृदय की एकांत श्रद्धा की पात्री बनने का सौभाग्य उसे प्राप्त न हो सका । संसार उसे देख विस्मय से अभिभूत होकर चकित सा ताकता रह जाता है, परंतु नतमस्तक नहीं होता। इसका कारण उस व्यक्तित्व का अभाव है जिसके सम्मुख मानव-समाज को बालक के समान स्वयं ही झुक जाना पड़ता है।

किसी-किसी की धारण है कि अपने सर्वतोन्मुखी विकास के उपरांत स्त्री का, पर्वत के शिखर के समान उच्च परंतु उसी के समान एकाकी हो जाना निश्चित है, क्योंकि तब अपने जीवन की पूर्णता के लिए उसे किसी संगी की अपेक्षा ही न रहेगी। परंतु वास्तव में यह धारणा प्रत्यक्ष सत्य का उल्लंघन कर जाती है । अपने पूर्ण-से-पूर्ण विकास में भी एक वस्तु दूसरी नहीं हो सकती, यही उसकी विशेषता है, अतः उससे जो भिन्न है उसका अभाव अवश्यंभावी है। अपने पूर्ण-से-पूर्ण गौरव से गौरवान्वित स्त्री भी इतनी पूर्ण न होगी कि पुरुषोचित स्वभाव को भी अपनी प्रकृति में समाहित कर ले, अतएव मानव समाज में साम्य रखने के लिए उसके अपनी प्रकृति से भिन्न स्वभाव वाले का सहयोग श्रेय रहेगा। इस दशा में प्रतिद्वन्द्विता संभव नहीं ।

उसे अपने गुरुतम उत्तरदायित्व के अनुरूप मानसिक तथा शारीरिक विकास के लिए विस्तृत स्वाधीनता चाहिए। कारण, संकीर्णता में उसके जीवन का वैसा सर्वतोन्मुखी विकास संभव ही नहीं जैसा किसी समाज की स्वस्थ व्यवस्था के लिए अनिवार्य है। मनुष्य अपने स्वभाव में कुछ संस्कार लेकर जन्म लेता है जिनके, परिस्थितियों के वातावरण में विकसित होने से उसका चरित्र बनता है। इसके अनंतर उसके जीवन का वह अध्याय प्रारंभ होता है जिसमें उसके चरित्रजनित गुण-दोष संसार पर प्रतिफलित होने लगते हैं और संसार के उसके जीवन पर । सबके अंत में वह प्राकृतिक नियम के द्वारा, अनेक मधुर-कटु अनुभवों का संचय कर अपने जीवन के पर्यवेक्षण को तथा अपने अनुभवों को दूसरों के मार्ग का दीपक बनाने का अवकाश पा लेता है। जिस परिस्थिति रूपी साँचे में उसके चरित्र को ढलना पड़ता है वह यदि विपरीत, अनुपयुक्त या विकृत हो तो चरित्र पर भी उसकी अमिट छाप रह जायगी और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि विकृत चरित्र और अनुपयुक्त मानसिक विकासवाला व्यक्ति अपने निर्दिष्ट स्थान में न स्वयं सामंजस्य का अनुभव करेगा, न किसी को करने देगा और अंत में अनेक कटु अनुभवों से विषाक्त चित्त लेकर वह अन्य व्यक्तियों के मार्ग में भी शूल बिछाता चलेगा। फलतः जीवन की सबसे बड़ी और पहली आवश्यकता सामाजिक प्राणियों के स्वतंत्र विकासानुकूल वातावरण की सृष्टि कर देना है। जिस प्रकार यह सत्य है कि व्यक्ति द्वारा समाज निर्मित और परिवर्तित होता रहता है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि मनुष्य समाज को लेकर नहीं, वरन् समाज में जन्म लेता है । अतएव उसका विकास ऐसा होना उचित है जिससे साधारण सामाजिक सिद्धांतों की रक्षा भी हो सके और समयानुकूल परिवर्तन भी । पुरुष के समान स्त्री भी कुटुम्ब, समाज, नगर तथा राष्ट्र की विशिष्ट सदस्य है तथा उसकी प्रत्येक क्रिया का प्रतिफल सबके विकास में बाधा भी डाल सकता है और उसके मार्ग को प्रशस्त भी कर सकता है। प्रायः पुरुष का जीवन अधिक स्वच्छंद वातावरण में विशिष्ट व्यक्तियों के संसर्ग द्वारा बनता है और स्त्री का संकीर्ण सीमा में परंपरागत रूढ़ियों से—जिससे न उसे अपने कुटुंब से बाहर किसी वस्तु का अनुभव होता है, अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान । कहीं यह विषमता और कहीं इसकी प्रतिक्रिया जीवन को एक निरर्थक रणक्षेत्र बनाकर उसकी सारी उर्वरता को नष्ट तथा सरसता को शुष्क किये दे रही है।

स्त्री के व्यक्तित्व के कोमलता और सहानुभूति के साथ साहस तथा विवेक का एक ऐसा सामंजस्य होना आवश्यक है जिससे हृदय के सहज स्नेह की अजस्र वर्षा करते हुए भी वह किसी अन्याय को प्रश्रय न देकर उसके प्रतिकार में तत्पर रह सके। ऐसा एक भी सामाजिक प्राणी न मिलेगा जिसका जीवन माता, पत्नी, भगिनी, पुत्री आदि स्त्री के किसी-न-किसी रूप से प्रभावित न हुआ हो। इस दशा में उसके व्यक्तित्व को कितने गुरु उत्तरदायित्व की छाया में विकास पाना चाहिए, यह स्पष्ट है।

स्वयं अपनी इच्छा से स्वीकृत युगदीर्घ बंधनों को काट देने के लिए हमें संसार-भर की अनुमति लेने का न अवकाश है, न आवश्यकता; परंतु इतना ध्यान रहना चाहिए कि बेडियों के साथ ही उसी अस्त्र से बंदी यदि पैर भी काट डालेगा तो उसकी मुक्ति की आशा, दुराशा मात्र रह जावेगी। अपने व्यक्तित्व की और अपनी विशेषताओं की रक्षा न करते हुए यदि हमने अपनी रक्षा कर ली, यदि उन बंधनों के साथ हमारे जीवन का आवश्यक अंश भी घिस गया तो हमारा एक बंधन से मुक्ति पाकर दूसरे में बँध जाना अनिवार्य हो उठेगा।

हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ : 2

व्यक्तित्व की विकासहीनता का सहायक बनकर जिसने हमें दासता की संकीर्णतम कारा में निर्वासन दे डाला है वह हमारा नागरिकता विषयक अज्ञान कहा जा सकता है।

हममें से अधिकांश को यह भी ज्ञान नहीं कि गृह की दीवारों के बाहर भी हमारा कार्यक्षेत्र हो सकता है तथा उस क्षेत्र में और अपनी गृहस्थी में उपयोगी बने रहने के लिए हमें कुछ विशेष अधिकारों की और सुविधाओं की आवश्यकता पड़ती है।

समाज तथा सामाजिक व्यक्ति सापेक्ष शब्द है, कारण, सामाजिक प्राणी के विकास के लिए समाज का आविर्भाव हुआ है तथा समाज के विकास के लिए व्यक्ति को अधिकार एवं सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं। नागरिक शब्द केवल अपने शाब्दिक अर्थ में प्रयुक्त न होकर इतना व्यापक हो गया है कि उससे केवल नगर-निवासी का बोध न होकर न्याय और कानून-संबंधी अनेक अधिकार एवं सामाजिक उत्तरदायित्व से युक्त व्यक्ति का ज्ञान होता है । व्यक्ति, सामूहिक विकास को दृष्टि में रखते हुए शासित भी होता है और शासन में हस्तक्षेप तथा परिवर्तन करने का अधिकारी भी । अतः उससे राजनीतिक अधिकार पृथक् नहीं किये जा सकते। यदि कर लिये जायें तो समाज में उसका वही मूल्य होगा जो किसी मूक पशु का होता है जिसे मनुष्य अपनी सुविधा के लिए पालता है और इस प्रकार उसके जंगली जीवन को बलात् कभी सामाजिक जीवन में जोड़ लेता है और कभी स्वयं ही उस बंधन को तोड़ डालता है ।

अनेक संबंधों का केंद्र होने तथा परिवार और समाज विशेष से संबद्ध रहने के कारण उसे सामाजिक विकास के लिए भी विशेष अधिकार और उत्तरदायित्व प्राप्त हो जाना अनिवार्य है। अतः नागरिक को राजनीतिक तथा सामाजिक दोनों क्षेत्रों में समान रूप से अपना स्थान तथा कर्तव्य जान लेना और उसमें संशोधन या परिवर्तन के लिए स्वाधीनता प्राप्त कर लेना नितांत आवश्यक है। नागरिक होने के कारण स्त्री को भी इन दोनों ही अधिकारों की आवश्यकता सदा से रही है और रहेगी; परंतु प्राचीन काल से अब तक उसके अनुकूल स्वत्वों को देने तथा समयानुसार उनमें परिवर्तन की सुविधाएँ सहज करने की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया।

शासन- विधान ने उसे न्याय तथा कानून-विषयक कैसी सुविधाएँ प्रदान की थीं, यह तो उन शास्त्रों से प्रकट हो जायगा जिनके आधार पर आज भी उसे अनेक कष्ट सहने पर बाध्य किया जा रहा था। प्राचीन रोम तथा यूनान के स्वायत्त शासन में भी स्त्रियों को किसी अधिकार के योग्य नहीं समझा गया था, यह इतिहास से प्रत्यक्ष हो जाता है ।

वास्तव में नवीन युग के अनेक संदेशों में, स्त्रियों को भी पुरुषों के समान नागरिक अधिकारों के योग्य समझने की अस्पष्ट भावना भी सन्निहित है।

इस विचार को अब तक भिन्न-भिन्न देशों में कितना क्रियात्मक रूप मिल चुका है यह प्रत्येक जिज्ञासु को ज्ञात होगा। पश्चिमीय तथा पूर्वीय जाग्रत देशों में स्त्रियों ने उन बेड़ियों को काट डाला है जिनमें पुरुषों ने बर्बरता के युग में उन्हें बाँध कर अपने स्वामित्व का क्रूर प्रदर्शन किया था। उन देशों की महिलाएँ राजनीतिक तथा सामाजिक दोनों ही प्रकार के अधिकारों द्वारा अपनी शक्तियों का विकास कर, गृह तथा बाह्य संसार में पुरुषों की सहयोगिनी बनकर अपने देश और जाति के उत्कर्ष का कारण बन रही हैं. अपकर्ष का नहीं । जिसकी सभ्यता की प्राचीनता प्रख्यात है केवल उसी हमारे देश में अब तक इस भावना की ऐसी धुँधली रूप-रेखा है कि हजार स्त्रियों में कदाचित् एक भी इससे परिचित न होगी।

कानून हमारे स्वत्वों की रक्षा का कारण न बन कर चीनियों के काठ के जूते की तरह हमारे ही जीवन के आवश्यक तथा जन्मसिद्ध अधिकारों को संकुचित बनाता जा रहा है। सम्पत्ति के स्वामित्व से वंचित असंख्य स्त्रियों के सुनहले भविष्यमय जीवन कीटाणुओं से भी तुच्छ माने जाते देख कौन सहृदय रो न देगा? चरम दुरवस्था के सजीव निदर्शन हमारे यहाँ के सम्पन्न पुरुषों की विधवाओं और पैतृक धन के रहते हुए भी दरिद्र पुत्रियों के जीवन हैं। स्त्री पुरुष के वैभव की प्रदर्शिनी मात्र समझी जाती है और बालक के न रहने पर जैसे उसके खिलौने निर्दिष्ट स्थानों से उठाकर फेंक दिये जाते हैं उसी प्रकार एक पुरुष के न होने पर न स्त्री के जीवन का कोई उपयोग ही रह जाता है, न समाज या गृह में उसको कहीं निश्चित स्थान ही मिल सकता है। जब जला सकते थे तब इच्छा या अनिच्छा से उसे जीवित ही भस्म करके स्वर्ग में पति के विनोदार्थ भेज देते थे, परंतु अब उसे मृत पति का ऐसा निर्जीव स्मारक बन कर जीना पड़ता है जिसके सम्मुख श्रद्धा से नतमस्तक होना तो दूर रहा कोई उसे मलिन करने की इच्छा भी रोकना नहीं चाहता ।

यदि उन्हें अर्थ-संबंधी वे सुविधाएँ प्राप्त हो सकें जो पुरुषों को मिलती आ रही हैं तो न उनका जीवन उनके निष्ठुर कुटुंबियों के लिए भार बन सकेगा और न वे गलित अंग के समान समाज से निकाल कर फेंकी जा सकेंगी, प्रत्युत वे अपने शून्य क्षणों को देश के सामाजिक तथा राजनीतिक उत्कर्ष के प्रयत्नों से भर कर सुखी रह सकेंगी।

युगों के अनवरत प्रवाह में बड़े-बड़े साम्राज्य बह गये, संस्कृतियाँ लुप्त हो गईं,जातियाँ मिट गईं, संसार में अनेक असंभव परिवर्तन संभव हो गये, परंतु भारतीय स्त्रियों के ललाट में विधि की वज्रलेखनी से अंकित अदृष्ट लिपि नहीं धुल सकी। आज भी जब सारा गतिशील संसार निरन्तर परिवर्तन की अनिवार्यता प्रमाणित कर रहा है, स्त्रियों के जीवन को काट-छाँटकर उसी साँचे के बराबर बनाने का प्रयत्न हो रहा है जो प्राचीनतम युग में ढाला गया था । प्राचीनता की पूजा बुरी नहीं, उसकी दृढ़ नींव पर नवीनता की भित्ति खड़ी करना भी श्रेयस्कर है, परंतु उसकी दुहाई देकर जीवन को संकीर्णतम बनाते जाना और विकास के मार्ग को चारों ओर से रूद्ध कर लेना किसी जीवित व्यक्ति पर समाधि बना देने से भी अधिक क्रूर और विचारहीन कार्य है ।

हमारे उद्देश्यों के रूप चाहे जितने परिवर्तित जान पड़ें, सफलताओं और विफलताओं की संख्या चाहे जितनी न्यूनाधिक हो, परंतु हमारा आगे बढ़ते जाना ध्रुव है, इसमें संदेह नहीं । जीवन की सफलता, अतीत से शिक्षा लेकर अपने आप को नवीन वातावरण के उपयुक्त बना लेने, नवीन समस्याओं को सुलझा लेने में है— केवल उनके अंधानुसरण में नहीं । अतः अब स्त्रियों से संबद्ध अनेक प्राचीन वैधानिक व्यवस्थाओं में संशोधन तथा अर्वाचीनों का निर्माण आवश्यक है ।

शासन व्यवस्था में भी उन्हें स्थान न मिलने से आधा नागरिक समाज प्रतिनिधिहीन रह जायगा; कारण अपने स्वत्वों के रूप तथा आवश्यकताओं से स्त्रियाँ जितनी परिचित हो सकती हैं, उतने पुरुष नहीं । परंतु स्थान मिलने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें केवल पुरुष परिषदों को अलंकृत करने के लिए रखा जाय। वास्तव में उनका पर्याप्त संख्या में रह कर अपनी अन्य बहिनों के हित अनहित-विषयक अस्पष्ट विचारों को स्पष्ट करना और उन्हें क्रियात्मक रूप-रेखा देना ही समाज के लिए हितकर सिद्ध हो सकेगा।

सामाजिक अधिकारों के लिए भी यही सत्य है । जो बंधन पुरुषों की स्वेच्छाचारिता के लिए इतने शिथिल होते हैं कि उन्हें बंधन का अनुभव ही नहीं होता, वे ही बंधन स्त्रियों को परावलंबिनी दासता में इस प्रकार कस देते हैं कि उनकी सारी जीवनी-शक्ति शुष्क और जीवन नीरस हो जाता है। समस्त सामाजिक नियम मनुष्य की नैतिक उन्नति तथा उसके सर्वतोन्मुखी विकास के लिए आविष्कृत किये गये हैं। जब वे ही मनुष्य के विकास में बाधा डालने लगते हैं तब उनकी उपयोगिता ही नहीं रह जाती। उदाहरणार्थ विवाह की संस्था पवित्र है, उसका उद्देश्य भी उच्चतम है; परंतु जब वह व्यक्तियों के नैतिक पतन का कारण बन जावे तब अवश्य ही उसमें किसी अनिवार्य संशोधन की आवश्यकता समझनी चाहिए। हमारी अनेक रूढ़ियाँ सामाजिक और वैयक्तिक विकास में सहायक न बन कर उसके मार्ग में नित्य नवीन बाधाएँ खड़ी करती रहती हैं। अनेक व्यवस्थाएँ जिन्हें हमने आपत्ति-धर्म मात्र समझकर स्वीकार कर लिया था, अब भी हमारे जीवन को छाया में अंकुरित और धूप से दूर रखे जाने वाले पौधे के समान शीर्ण बना कर विकसित ही नहीं होने देतीं। अतः उसी शीत और विकास शून्य छाया में पल कर हमारी संतान भी निस्तेज तथा उत्साहहीन बनती जा रही है। इस दशा में हमारा मिथ्या परंपरा की दुहाई देते रहना केवल व्यक्तियों के लिए नहीं वरन् समाज और राष्ट्र के लिए भी घातक सिद्ध होगा।

जो जाग चुका है वह अधिक समय तक सोते हुए का अभिनय नहीं करता रह सकता। हमारी जाग्रत बहिनों से कुछ ने विद्रोह आरंभ कर दिया है और कुछ उसके लिए सुयोग ढूँढ़ रही हैं। जो देश के भावी नागरिकों की विधाता हैं, उनकी प्रथम और परम गुरु हैं, जो जन्म-भर अपने आपको मिटा कर, दूसरों को बनाती रहती हैं, वे केवल तभी तक आदरहीन मातृत्व तथा अधिकार - शून्य पत्नीत्व स्वीकार करती रह सकेंगी जब तक उन्हें अपनी शक्तियों का बोध नहीं होता । बोध होने पर वे बंदिनी बनाने वाली शृंखलाओं को स्वयं तोड़ फेंकेंगी। परंतु उस दशा में अशांति और संघर्ष अवश्यंभावी है जिसके कारण बहुत समय तक समाज की सुचारु व्यवस्था होनी कठिन हो जावेगी। अतः सामाजिक अधिकारों का फिर से निरीक्षण तथा उनमें से समय के प्रतिकूल परिस्थितियों को दूर करने का प्रयास ही भविष्य के लिए श्रेयस्कर हो सकेगा। समाज अपने आधे उत्तमांग की अवज्ञा करके कितने दिन जीवित रह सकेगा, यह कहना बाहुल्य मात्र है । पुरुष तथा स्त्री के कार्य-क्षेत्र पृथक्-पृथक् समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसी दशा में यदि महत्त्वपूर्ण कर्तव्य का पालन करके भी स्त्री को पुरुष की दासता तथा पद-पद पर अपमान का कटु अनुभव करना होगा तो उसका अपने कार्यक्षेत्र को तिलांजलि दे देना स्वाभाविक ही है। यदि पुरुष धनोपार्जन कर अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ समाज तथा देश का आवश्यक और उपयोगी अंग समझा जाता है, राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों का यथेष्ट उपभोग कर सकता है, तो स्त्री गृह के भविष्य के लिए अनिवार्य संतान का पालन-पोषण कर अपने गुरु कर्तव्य का भार वहन करती हुई इन सब अधिकारों से अपरिचित तथा वंचित क्यों रखी जाती है ? संसार के और उसके बीच में ऐसी काली अभेद्य यवनिका क्यों डाल दी जाती है जिसके कारण अपने गृह की संकुचित सीमा के अतिरिक्त और किसी वस्तु से उसका परिचय हो सकना असंभव है ?

संसार की प्रगति से अनभिज्ञ, अनुभव-शून्य, पिंजरबद्ध पक्षी के समान अधिकार- विहीन, रुग्ण, अज्ञान नारी से फिर शक्ति संपन्न सृष्टि की आशा की जाती है, जो मृगतृष्णा से तृप्ति के प्रयास के समान ही निष्फल सिद्ध होगी ।

हमारे समाज में संपन्न से लेकर श्रमजीवी नारियों तक अज्ञान एकरस और व्यापक है !

सम्पन्न महिलाएँ अपने गृह तथा संतान की इतर व्यवस्था के लिए अनेक दास-दासियाँ रखकर केवल व्यक्तिगत विनोद और परंपरा - पालन की ओर ही ध्यान देती हैं। वास्तव में इसी श्रेणी की महिलाओं में से अनेक को स्त्रियों के स्वत्वों के निरीक्षण करने का अवकाश और ज्ञान को सब में फैलाने के साधन सुगमता से मिल सकते हैं।

हमें प्रायः अपने देश की कुछ संपन्न तथा जाग्रत महिलाओं की क्रियाशीलता के समाचार ज्ञात होते रहते हैं। उनके विदेशों के कोलाहलमय जीवन और देश में वैभव से जगमगाती पार्टियों का हमें उलाहना नहीं देना है, परंतु वास्तव में उनकी जागृति तभी अभिनंदनीय हो सकेगी जब वे भारत की अंधकार में भटकने वाली वाणीहीन असंख्य नारियों की प्रतिनिधि बन कर जागें और यहाँ की संभ्रांत, साधारण तथा श्रमजीवी महिलाओं के अधिकारों, उन्नति के साधनों, अवनति के कारणों तथा उनसे संबंध रखने वाले अन्य विषयों से परिचित हो सकें। उनके विकास पथ में तभी उनकी देशवासिनियों की पलकें बिछ सकेंगी, जब वे अपने संचित ज्ञान को देश की कुटी कुटी के द्वार पर जाकर प्रत्येक स्त्री को उपहार में देने का निश्चय करके बढ़ेंगी। अनेक ने इस दिशा में स्तुत्य प्रयास किया है, इसमें संदेह नहीं, परंतु कोटिशः सोती हुई स्त्रियों को जगाने का कार्य दो-एक के किये न होगा। उनके लिए सहस्रशः जागृत बहिनों को अनेक सुखों और ऐश्वर्य को ठुकरा कर अलख जगाना पड़ेगा, परंतु इस प्रयास का परिणाम अमूल्य होगा, यह निश्चित है । हमारी मानसिक दासता, मानसिक तन्द्रा के दूर होते ही, न कोई वस्तु हमारे लिए अलभ्य रहेगी, न कोई अधिकार दुष्प्राप्य; कारण, अपने स्वत्वों से परिचित व्यक्ति को उनसे वंचित रख सकना कठिन ही नहीं, असंभव है।

हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी पर प्रभुत्व । केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी। हमारी जागृत और साधन संपन्न बहिनें इस दिशा में विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें संदेह नहीं ।

मध्यम श्रेणी की महिलाओं को गृह के इतर और महत्त्वपूर्ण दोनों प्रकार के कार्यों से इतना अवकाश ही नहीं मिलता कि वे कभी अपनी स्थिति पर विचार कर सकें। जीवन के आरंभिक वर्ष कुछ खेल में, कुछ गृहकार्यों के सीखने में व्यतीत कर जब से वे केवल शाब्दिक अर्थवाले अपने गृह में चरण रखती हैं तब से उपेक्षा और अनादर की अजस्र वर्षा में ठिठुरते हुए मृत्यु के अंतिम क्षण गिनती हैं । स्वत्वहीन धनिक महिलाओं को यदि सजे हुए खिलौने का सौभाग्य प्राप्त है तो साधारण श्रेणी की स्त्रियों को क्रीतदासी का दुर्भाग्य ।

यदि पुरुष व्यसनी है, रोगी, है तो अपने और बालकों के भरण-पोषण की समस्या मृत्यु से भीषणतर बनकर उनके सम्मुख उपस्थित हो जाती है । यदि भाग्य में वैधव्य लिखा होता है तो उनके साथ भिक्षाटन भी स्वीकार करना पड़ता है। सारांश यह है कि उन्हें किसी दशा में भी स्वावलंबन दुर्लभ है। मानसिक दुख के साथ शारीरिक दुःख उपेक्षणीय हो सकता है और शारीरिक सुख के साथ मानसिक पीड़ा सहनीय, परंतु दोनों सुख या दोनों दुःख मनुष्यों को जड़ बनाये बिना नहीं रहते । मध्यम गृहस्थ की गृहिणी को अपनी अनेक इच्छाएँ, अभिलाषाएँ कुचल कर जीवित रहना पड़ता है और इसके साथ ही शारीरिक क्लेशों का अंत न होने से उनका संपूर्ण जीवन अज्ञान पशु के जीवन की स्मृति दिलाता रहता है । राजनीतिक अधिकारों से भी पहले उसे ऐसी सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता है जिससे उसके जीवन में कुछ स्वावलंबन, कुछ आत्मविश्वास आ सके। उसकी दुर्बलताएँ अनेक हैं और सांसारिक संघर्ष घोरतर ।

श्रमजीवी श्रेणी की स्त्रियों के विषय में तो कुछ विचार करना भी मन को खिन्नता से भर देता है। उन्हें गृह का कार्य और संतान का पालन करके भी बाहर के कामों में प्रति का हाथ बँटाना पड़ता है। सबेरे 6 बजे, गोद में छोटे बालक को तथा भोजन के लिए एक मोटी काली रोटी लेकर मजदूरी के लिए निकली हुई स्त्री जब 7 बजे संध्या समय घर लौटती है तो संसार भर का आहत मातृत्व मानो उसके शुष्क ओठों में कराह उठता है । उसे श्रांत, शिथिल शरीर में फिर घर का आवश्यक कार्य करते और उस पर कभी-कभी मद्यप पति के निष्ठुर प्रहारों को सहते देखकर करुणा को भी करुणा आये बिना नहीं रहती। मिलों, कारखानों आदि में काम करने वाली स्त्रियों की दुर्दशा तो प्रकट ही है। परंतु हमारे वृहत महिला सम्मेलन तथा बड़े-बड़े सुधार के आयोजन उन्हें भूल जाते हैं जिनकी कार्य-पटुता के साथ अज्ञान का विचित्र संगम हो रहा है। कृषक तथा अन्य श्रमजीवी स्त्रियों को इतनी अधिक संख्या है कि बिना उनकी जागृति के हमारी जागृति अपूर्ण रहेगी और हमारे स्वत्व अर्थहीन समझे जाएँगे । उत्तराधिकार मिल जाने पर भी हमारी मजदूर स्त्रियाँ निर्धन पिता तथा दरिद्र पति से दरिद्रता के अतिरिक्त और क्या पा सकेंगी !

इसके लिए तो ज्ञान के धन की ही विशेष आवश्यकता है जिससे वे कारखानों में, मिलों में शारीरिक श्रम करती हुई भी अपने स्वत्वों की हत्या न होने दें वरन् प्रत्येक अन्याय का विरोध करने को उद्यत रहें। वे जीविकोपार्जन में असमर्थ होने के कारण विवाह नहीं करतीं प्रत्युत् एक संगी की आवश्यकता का अनुभव करके ही स्वयं गृहिणी का उत्तरदायित्व स्वीकृत कर लेती हैं। यदि उन्हें अपने स्वत्वों का वास्तविक ज्ञान हो तो उनकी अनेक दुर्दशाओं का पुरुषों द्वारा अंत होते देर न लगे। इनकी पारिवारिक स्थिति धनिक और साधारण श्रेणी की स्त्रियों से भिन्न है । कारण, न वे अपने गृह का अलंकार मात्र समझी जाती हैं न ऐसी वस्तुएँ जिनके टूट जाने से गृहस्थ का कुछ बनता - बिगड़ता ही नहीं! वे पुरुष के जीविकोपार्जन में सहयोग देती हैं, अपनी जीविका के लिए उसका मुख नहीं देखतीं, फलतः वे अपेक्षाकृत स्वावलंबिनी हैं। इन सब में जागृति उत्पन्न करने, उन्हें अभाव का अनुभव कराने का भार विदुषियों पर है और बहुत समय तक रहेगा ।

शिक्षा, चिकित्सा आदि विभागों में कार्य करने वाली जागृत महिलाओं ने अपना एक भिन्न समाज बना डाला है जिसने उन्हें गृहिणियों के प्रति स्नेहशून्य और गृहिणियों को उनके प्रति संदिग्ध कर दिया है। न वे अपनी निर्दिष्ट संकीर्ण सीमा से बाहर पैर रखना चाहती हैं न किसी को अपने निकट आने की आज्ञा ही देती हैं। उनके विचार में गृहिणी के जिस उत्तरदायित्व या परावलंबन से पूर्ण जीवन को उन्होंने छोड़ दिया है उसे स्वीकार करने वाली स्त्रियाँ अनादर तथा उपेक्षा के ही योग्य हैं और एक प्रकार से उनकी यह धारणा अनेक अनर्थों के लिए उत्तरदायिनी ठहरायी जा सकती है। इतनी शिक्षा, इतनी बुद्धि, इतने साधन, इतना अवकाश और स्वावलंबन पाकर भी यदि वे अन्य बहिनों की प्रतिनिधि न बन सकीं, यदि वे उनके त्यागमय जीवन को अवज्ञा से देखती रहीं तो सारे समाज का अनिष्ट होने की संभावना सत्य हुए बिना न रहेगी। उनके संकीर्ण समाज में प्रवेश न पा सकने के कारण अन्य स्त्रियाँ उनके गुरु उत्तरदायित्व से अनभिज्ञ रहकर केवल उनके बाह्य शांतिपूर्ण जीवन से ईर्ष्या कर अपने जीवन को दुर्वह बना डालती हैं।

जिन विदुषी महिलाओं ने घर और बाहर दोनों प्रकार के उत्तरदायित्व को अपनाया उनका जीवन भी प्रायः समाज का आदर्श नहीं बन पाया ।

उन्होंने अपनी असमर्थता के कारण नवीन स्वतंत्र जीवन नहीं स्वीकार किया है, वरन् देश के असंख्य बालक-बालिकाओं की ज्ञानदात्री माता बनने की योग्यता के कारण, यह उन्हीं के जीवन से प्रमाणित होना आवश्यक है। आपत्ति के समय जब युवक पति सद्य: परिणीता पत्नी को या पिता असहाय संतान को छोड़कर युद्ध में प्राण देने चल पड़ता है तब क्या कोई उसे कर्तव्य-पराङ्मुख कहकर उसकी अवज्ञा कर सकता है? आज स्त्रियों की विपन्नावस्था से आहत गौरव लेकर कुछ सुयोग्य विदुषियाँ यदि अपनी जाति की अवनति के कारण ढूँढ़ने और उन्हें दूर करने में अपना जीवन लगा देने के लिए निकल पड़ें तो क्या कोई उन पर हँसने का साहस कर सकेगा? नहीं! परंतु इस श्रद्धा को पाने के लिए उन्हें अपने प्रत्येक कार्य को त्याग की, परार्थ की तुला पर तोलना पड़ेगा, आत्म-सुखोपभोग द्वारा उनकी गुरुता न जाँची जा सकेगी।

नारी में परिस्थितियों के अनुसार अपने बाह्य जीवन को ढाल लेने की जितनी सहज प्रवृत्ति है, अपने स्वभावगत गुण न छोड़ने की आंतरिक प्रेरणा उससे कम नहीं — इसी से भारतीय नारी भारतीय पुरुष से अधिक सतर्कता के साथ अपनी विशेषताओं की रक्षा कर सकी है, पुरुष के समान अपनी व्यथा भूलने के लिए वह कादंबिनी नहीं माँगती, उल्लेस के स्पंदन के लिए लालसा का तांडव नहीं चाहती क्योंकि दुःख को वह जीवन की शक्ति परीक्षा के रूप में ग्रहण कर सकती है और सुख को कर्तव्य में प्राप्त कर लेने की क्षमता रखती है। कोई ऐसा त्याग, कोई ऐसा बलिदान और कोई ऐसी साधना नहीं जिसे वह अपने साध्य तक पहुँचने के लिए सहज भाव से नहीं स्वीकार करती रही। हमारी राष्ट्रीय जागृति इसे प्रमाणित कर चुकी है कि अवसर मिलने पर गृह के कोने की दुर्बल बंदिनी स्वच्छंद वातावरण में बल प्राप्त पुरुष से शक्ति में कम नहीं।

अपने कर्तव्य की गुरुता भली भाँति हृदयंगम कर यदि हम अपना लक्ष्य स्थिर कर सकें तो हमारी लौह-शृंखलाएँ हमारी गरिमा से गलकर मोम बन सकती हैं. इसमें संदेह नहीं ।

('शृंखला की कड़ियाँ' से)

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