Hamari Sanskriti Aur Aadhunikta (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

हमारी संस्कृति और आधुनिकता : रामधारी सिंह 'दिनकर'

बहुत-से विद्वानों और चिन्तकों ने इस बात को लेकर चिन्ता प्रकट की है कि भारतीय समाज आधुनिकता से बहुत दूर है और भारत के लोग अपने-आपको आधुनिक बनाने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं।

नैतिकता, सौन्दर्यबोध और अध्यात्म के समान आधुनिकता कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। वह कई चीजों का एक सम्मिलित नाम है। औद्योगीकरण आधुनिकता की पहचान है। साक्षरता का सर्वव्यापी प्रसार आधुनिकता की सूचना देता है। नगरसभ्यता का प्राधान्य आधुनिकता का गुण है। सीधी-सादी अर्थव्यवस्था मध्यकालीनता का लक्षण है। आधुनिक देश वह है, जिसकी अर्थव्यवस्था जटिल और प्रसरणशील हो और जो 'टेक-ऑफ' की स्थिति को पार कर चुकी हो।

आधुनिक समाज मुक्त और मध्यकालीन समाज बन्द होता है। बन्द समाज वह है, जो अन्य समाजों से प्रभाव ग्रहण नहीं करता, जो अपने सदस्यों को भी धन या संस्कृति की दीर्घा में ऊपर उठने की खुली छूट नहीं देता, जो जाति-प्रथा और गोत्रवाद से पीड़ित है, जो अन्धविश्वासी, गतानुगतिक और संकीर्ण है।

आधुनिक समाज में उन्मुक्तता होती है। उस समाज के लोग अन्य समाजों के लोगों से मिलने-जुलने में नहीं घबराते, न वे उन्नति का मार्ग खास जातियों और खास गोत्रों के लिए सीमित रखते हैं। आधुनिक समाज सामरिक दृष्टि से भी बलवान समाज होता है। जो देश अपनी रक्षा के लिए भी लड़ने में असमर्थ है, उसे आधुनिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। आधुनिक समाज के लोग आलसी और निकम्मे नहीं होते। आधुनिक समाज का एक लक्षण यह भी है कि उसकी हर आदमी के पीछे होनेवाली आय अधिक होती है, उसके हर आदमी के पास कोई धन्धा या काम होता है और अवकाश की शिकायत प्रायः हर एक को रहती है।

लेकिन ये आधुनिकता के बाहरी लक्षण हैं। यूरोप और अमेरिका में जो आधुनिकता फैली है, उसका असली कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्राथमिकता और प्राबल्य है। यह दृष्टि उद्योग और टेक्नोलॉजी से उत्पन्न नहीं हुई, बल्कि उद्योग और . टेक्नोलॉजी ही उसके परिणाम हैं। यूरोप और अमेरिका का सबसे बड़ा लक्षण वैज्ञानिक दृष्टि है, निष्ठुर होकर सत्य को खोजने की व्याकुलता है। और इस खोज के क्रम में श्रद्धा, विश्वास, परम्परा और धर्म, किसी भी बाधा को बुद्धि सहने को तैयार नहीं है। आधुनिक मनुष्य के बारे में सामान्य कल्पना यह है कि वह अपने चिन्तन में निर्मम और निर्भीक होता है। जो बात बुद्धि की पकड़ में नहीं आती, उसे नया मनुष्य स्वीकार नहीं करता और जो बातें बुद्धि से सही दिखाई देती हैं, उनकी वह खुली घोषणा करता है, भले ही उनसे नैतिकता, चिरपोषित विश्वास अथवा किसी परम्परा का खंडन क्यों न होता हो।

जहाँ तक औद्योगीकरण और जटिल अर्थव्यवस्था का प्रश्न है, ये चीजें यूरोप और अमेरिका में भी पिछले दो सौ वर्षों में ही बढ़ी हैं। किन्तु आधुनिकता के साथ जो वैचारिक और सांस्कृतिक क्रान्ति लिपटी हुई है, उससे मिलते-जुलते आन्दोलन भारत में कम-से-कम तीन बार उठे हैं। पहले बुद्ध के समय में, फिर कबीर के समय में और तब उन्नीसवीं सदी में, जब भारत और यूरोप के बीच सम्पर्क बढ़ा। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, जाति-प्रथा के बुद्ध विरोधी थे और मनुष्य को वे जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे। नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। किन्तु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे और गृहस्थी के कर्म से भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। इसी प्रकार कबीर ने भी अपने समय में बड़ी भारी वैचारिक क्रान्ति की ओर लोगों के मन को नवीन बनाने का प्रयास किया। बुद्ध के समान कबीर से भी निवृत्ति-मार्ग को प्रोत्साहन मिला। इसमें कोई सन्देह नहीं कि निवृत्ति मनुष्य के ऊर्ध्व विकास का सूचक है, किन्तु वैज्ञानिक संस्कार से जनमी हुई आधुनिकता का ऐसे विकास में कोई विश्वास नहीं है।

बुद्ध के पहले भारत में संस्कृति की एक ही धारा बहती थी, जिसे हम वैदिक संस्कृति के नाम से जानते हैं। किन्तु बुद्ध के आविर्भाव के बाद से इस देश में संस्कृति की दो धाराएँ बहने लगीं। पहली धारा संस्कृति की वह मातृधारा है, जो वर्णाश्रम का समर्थन करती है, जाति-प्रथा को कायम रखना चाहती है, शूद्रों को ऊपर उठने देना नहीं चाहती, छुआछूत में विश्वास करती है और अन्य धर्मों और संस्कृतियों से बचकर जीना चाहती है। दूसरी धारा वह है, जो बुद्ध के कमंडलु से निकली है। यह धारा वृहत् मानवता की धारा है। जन्मांतरवाद और कर्मफलवाद में यह धारा भी उसी दृढ़ता से विश्वास करती है जिस दृढ़ता के साथ वैदिक-धर्म उसमें विश्वास करता है। किन्तु यह धारा वर्णाश्रम-धर्म के विरुद्ध है, जात-पाँत को वह नहीं मानती, छुआछूत को वह अधर्म समझती है, शूद्रों और दलितों के लिए उसके भीतर खास पक्षपात है तथा अन्य धर्मों और संस्कृतियों से उसे द्वेष नहीं है, वह उनके प्रति पूर्ण रूप से सहनशील है।

पहली धारा के आदि ऋषि मनु, उसके दार्शनिक कपिल, कणाद और शंकराचार्य तथा उसके कवि वाल्मीकि, तुलसी, कम्बन और पोतन्ना हैं। वर्तमान युग में उस धारा के प्रतीक महामना मदनमोहन मालवीय हुए हैं। और दूसरी धारा के आदि ऋषि गौतम बुद्ध, उसके दार्शनिक वसुबन्धु और नागार्जुन तथा उसके कवि अश्वघोष, सरहप्पा, नहपा, कबीर, नानक और वेमन्ना हुए हैं। आधुनिक युग में इस धारा के अनेक लक्षण महात्मा गांधी में प्रकट हुए थे। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, पुरानी धारा खिसककर नई धारा के पास पहुँचती जा रही है। इसीलिए इन दो धाराओं के बीच पहले जो दूरी थी, वह दूरी मालवीय और गांधी के बीच दिखाई नहीं देती।

जिस धारा का प्रवर्तन बुद्ध ने किया था, वह वृहत् मानवता की धारा है और . भारत में आधुनिकता के भी वही धारा करीब है। जिन लोगों पर इस धारा का अधिक प्रभाव था, उन्हीं के बीच से वे कवि और सन्त उत्पन्न हुए, जिन्होंने धार्मिक कलह और विद्वेष की खुलकर निन्दा की और वैचारिक धरातल पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर, नानक, रैदास, दादू दयालु, मलूकदास, रज्जब और सुन्दरदास उन बौद्ध कवियों के वारिस हैं, जिन्होंने बुद्ध की सामाजिक क्रान्ति की मसाल को दीप्त रखा था। बौद्ध कवि नास्तिक थे, किन्तु कबीर आदि सन्त आस्तिक हुए, यह दूसरी धारा पर पहली धारा के प्रभाव का दृष्टान्त है। इसी प्रकार, ज्यों-ज्यों समय बीतता है, हम तुलसीदास से दूर और कबीर के समीप होते जा रहे हैं, यह पहली धारा पर दूसरी धारा का प्रभाव है।

हिन्दू धर्म जब इस्लाम के सम्पर्क में आया, तब पहले वे लोग उत्पन्न हुए, जो निर्गुणवादी थे। जैसे कबीर, नानक, रैदास आदि। इसी प्रकार हिन्दू धर्म जब ईसाइयत के सम्पर्क में आया, तब भी पहले ब्राह्मसमाजी, प्रार्थनासमाजी और आर्य-समाजी उत्पन्न हुए, परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द बाद को आए। उन्नीसवीं सदी में आधुनिकता का जो आन्दोलन उठा, उसकी ओर भारत अच्छी गति से बढ़ना चाहता था। किन्तु दो कारणों से वह ठिठक गया। एक तो यह कि आधुनिकता के प्रतीक अंग्रेज थे और अंग्रेजों पर जनता को शंका थी, अतएव आधुनिकता भी शंका की वस्तु बन गई। और दूसरा कारण यह हुआ कि कलकत्ते के जो नौजवान अंग्रेजी पढ़कर तैयार हुए, उनके आचरण में उच्छृखलता दिखाई पड़ी। अतएव जनता का मन आधुनिकता से बिदक गया।

स्वराज्य के बाद से आधुनिकता की हवा फिर जरा तेज होकर बहने लगी है और फिर ऐसे लोग सामने आने लगे हैं, जो आधुनिकता का विरोध करते हैं। सोचने की बात है कि भारत आधुनिकता का विरोध क्यों करना चाहता है अथवा कहाँ तक करना चाहता है। क्या भारतवर्ष को उद्योग नहीं चाहिए, साक्षरता नहीं चाहिए, प्रतिमुंड होने वाली अधिक आय नहीं चाहिए? अथवा क्या आज भी हम अन्धविश्वासी बने ही रहेंगे और परलोक की चिन्ता में लोक को खोते ही जाएँगे? मेरा खयाल है, भारत उद्योग भी चाहता है, साक्षरता भी चाहता है, प्रति मुंड पीछे होनेवाली अधिक आय भी चाहता है और वह अब यह भी मान गया है कि जाति-प्रथा झूठी चीज है, अस्पृश्यता पुण्य नहीं, पाप है तथा समाज में आगे बढ़ने की छूट सभी को एक समान मिलनी चाहिए। किन्तु एक बात है, जिसे भारत का मन मानना नहीं चाहता। विज्ञान ने तो ईश्वर के अस्तित्व अथवा अदृश्य वास्तविकता का खंडन नहीं किया, लेकिन विज्ञान के प्रभाव से एक धारणा पैदा हो गई है कि सत्य वहीं तक है जहाँ तक विज्ञान उसे देख सका है। जो लोक विज्ञान की पहुँच से परे है, वह काल्पनिक है, असत्य है। भारत इस धारणा को ग्रहण करने को तैयार नहीं है।

अदृश्य के प्रति आस्था और परलोक के अस्तित्व में विश्वास-ये भारतीय सृष्टि-बोध की रीढ़ हैं। मूल में यही विश्वास भारत का अटल, मौलिक विश्वास रहा है और भारत में धर्म और नैतिकता का विकास इसी विश्वास के अधीन हुआ है। नीत्से ने एक बार यह घोषणा की थी कि ईश्वर की मृत्यु हो गई। फिर उसने अपनी इस सूक्ति की व्याप्तियों पर विचार किया और कहा कि ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है। इस घटना की बराबरी मनुष्य-जाति तभी कर सकती है, जब उसका एकएक व्यक्ति खुद ईश्वर बन जाए, अर्थात् ईश्वर और मनुष्य के बीच जो मूल्य फैले हुए हैं, उन्हें ईश्वर की मृत्यु के बाद भी कायम रहना चाहिए। इन मूल्यों की महिमा अलबेयर कामू भी समझते थे, अतएव उन्होंने कहा था, “आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वह ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास किए बिना सन्त हो सकता है या नहीं।" भारत का अनुभव है कि आदमी ईश्वर को माने बिना भी सन्त हो सकता है। बुद्ध ईश्वर को नहीं मानते थे, किन्तु वे बहुत बड़े सन्त थे। महावीर ईश्वर को नहीं मानते थे, किन्तु वे महान साधु थे। किन्तु ईश्वर को न मानने पर बुद्ध और महावीर परलोक में विश्वास करते थे, जन्मान्तरवाद और कर्मफलवाद को मानते थे। मेरा खयाल है, विज्ञान धर्म का विरोधी नहीं है। जब भी आदमी विकास के शिखर पर होता है, वह विज्ञान और धर्म-दोनों की आराधना करता है। अदृश्य वास्तविकता में उसका विश्वास कायम रहा, तो भारत आधुनिक होकर भी भारत ही , रहेगा।

पुरुषार्थ-चतुष्टय में से आधुनिकता धर्म और मोक्ष की उपेक्षा करती है, उसका सारा जोर अर्थ और काम पर है। भारत की कमजोरी यह है कि वह अर्थ और काम को धर्म नहीं, आपद्धर्म समझता है। हमें अपने इस विश्वास का संशोधन करना होगा और यह मानकर चलना होगा कि जब भारत के इतिहास का स्वर्ण-काल था, भारतवासी धर्म और मोक्ष के ही समान अर्थ और काम को भी अपने पुरुषार्थ का प्रेरक अंग समझते थे।

आधुनिकता का वरण किए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है, यह बात मैं जोर से कहना चाहता हूँ। किन्तु आधुनिकता के प्रचार के लिए बेचैन रहनेवालों से मेरा यह भी निवेदन है कि कोई खेल इसलिए मत खेलिए कि वह विदेशों में कहीं खेला जा रहा है, कोई काम इसलिए मत कीजिए कि वह विदेशों में किया जा रहा है; बल्कि अपनी आधुनिक बुद्धि का प्रयोग भारत की अवस्था पर कीजिए और तब देखिए कि आधुनिक बनने का भारत का स्वाभाविक मार्ग क्या है। इस प्रयोग से आधुनिकता का जो रूप निखरेगा, वह भारत के परम अनुकूल होगा। तभी भारत आधुनिक भी होगा और वह भारत भी रहेगा।

('आधुनिक बोध' पुस्तक से)

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