हमारी समस्याएँ (निबंध) : महादेवी वर्मा

Hamari Samasyayen (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

हमारी समस्याएँ : 1

जिस प्रकार मिले रहने पर भी गंगा-यमुना के संगम का मटमैला तथा नीला जल मिलकर एक वर्ण नहीं हो पाता उसी प्रकार हमारे जन साधारण में शिक्षित तथा अशिक्षित वर्ग के बीच में एक ऐसी रेखा खिंच गई है जिसे मिटा सकना सहज नहीं । शिक्षा हमें एक दूसरे के निकट लाने वाला सेतु न बनकर विभाजित करने वाली खाई बन गई है, जिसे हमारी स्वार्थपरता प्रतिदिन विस्तृत से विस्तृततर करती जा रही है ।

हम उसे पाकर केवल मनुष्य नहीं, किन्तु ऐसे विशिष्ट मनुष्य बनने का स्वप्न देखने लगते हैं जिनके निकट आने में साधारण मनुष्य भीत होने लगें । ऐसे मिति मानव- हृदय को संकीर्ण कर देने वाले स्वर्ण-द्वारा बने तो किसी प्रकार क्षम्य भी हो सकती है, परन्तु हृदय को प्रतिक्षण उदार और विस्तृत बनाने वाले ज्ञान के द्वारा जब यह निर्मित होती है तब इसे अक्षम्य और मनुष्य-समाज के दुर्भाग्य का सूचक समझना चाहिए । नदी के बहने के मार्ग को रुद्ध कर उसके प्रवाह को उद्गम की ओर ले जाने के प्रयास के समान ही हमारी यह मनुष्यता को संकीर्ण बनाने की चाह है ।

सारा ज्ञान, सारी शिक्षा, अपने अविकृत तथा प्राकृतिक रूप में मानव को, जीवन की अनेकरूपता में ऐक्य ढूँढ़ लेने की क्षमता प्रदान करती है, दूसरों की दुर्बलता में उदार अपनी शक्ति में नम्र रहने का आदेश देती है तथा मनुष्य के व्यक्तित्व की संकीर्ण सीमा तोड़ उसे ऐसा सर्वमय बना देती है जिसमें उसकी बुद्धि, उसका चिन्तन, उसके कार्य उसके होते हुए भी सबके हो जाते हैं और उसके जीवन का स्वर दूसरों के जीवन -स्वरों से सामञ्जस्य स्थापित कर संगीत की सृष्टि करता है । इतने ऊँचे आदर्श तक न पहुँच सकने पर भी हम ज्ञान से पशु की स्वार्थपरता सीखने का विचार तो कल्पना में भी न ला सकेंगे चाहे कभी कभी ऐसे व्यक्ति उत्पन्न हो जाते हों जिनमें सर्प के मुख में स्वातिजल के समान विद्या विष बन गई है । ऐसे अपवाद तो सर्वव्यापक हैं ।

हमारी नैतिक, सामाजिक आदि व्यवस्थाओं से सम्बन्ध रखने वाली अनेक दुरवस्थाओं के मूल में शिक्षा का विकृत रूप भी है, यह कहना अतिशयोक्ति न होगी ।

यह दुर्भाग्य का विषय कहा जाता है कि हमारे यहाँ शिक्षितों की संख्या न्यूनतम है, परन्तु यह उससे भी अधिक दुर्भाग्य की बात है कि इने -गिने शिक्षित व्यक्तियों के जिन कन्धों पर कर्तव्य का गुरुतम भार है वे दुर्बल और अशक्त हैं । जिन्हें अपनी, अपने समाज की, अपने देश की अनेकमुखी दुर्दशा का अध्ययन करना था, उसके कारणों की खोज करनी थी और उन कारणों को दूर करने में अपनी मारी शक्ति लगा देनी थी यदि वे ही इतने निस्तेज, उद्योग-शून्य, अकर्मण्य तथा निरीह हो गये तब और व्यक्तियों के विषय में क्या कहा जावे जो अँधेरे में पग-पग पर पथ-प्रदर्शक चाहते हैं ।

शिक्षा-द्वारा प्राप्त अनेक अभिशापों में से एक, जीविका-सम्बन्धी बेकारी के समान ही, इनके मस्तिष्क की बेकारी भी चिन्तनीय है । सारी बद्धि . सारी क्रियात्मक शक्ति मानो पुस्तकों को कण्ठस्थ करने और समय पर लिख देने में ही केन्द्रित हो गई है, इसके उपरान्त प्रायः उन्हें बुद्धि तथा शक्ति के प्रयोग के लिए क्षेत्र नहीं मिलता और यदि मिला भी तो इतना संकीर्ण कि उसमें दोनों ही पंगु बनकर रह पाती हैं ।

ठण्डे जल के पात्र के पास रखा हुआ उष्ण जल का पात्र जैसे अनजाने में ही उसकी शीतलता ले लेता है उसी प्रकार चुपचाप शिक्षित महिला-समाज ने पुरुष-समाज की दुर्बलताएँ आत्मसात् कर ली हैं और अब वे उनकी दुरवस्था में ही चरम सफलता की प्रतिच्छाया देखने लगी हैं ।

हमारे सारे दुर्गुण अपने बाल-रूप में बड़े प्रिय लगते हैं । छोटे से अबोध बालक के मुख से फीका झूठ भी मीठा लगता है, उसकी स्वार्थपरता देखकर हँसी आती है, परन्तु जब वही बालक सबोध होकर अपने झूठ और स्वार्थपरता को भी बड़ा कर लेता है तब हमें उन्हीं गुणों पर आँसू बहाने पड़ते हैं । दरिद्र माता जब अनेक परिश्रमों से उपार्जित धन का प्रचुर अंश व्यय कर अपनी विद्यार्थिनी बालिका को गृह के इतर कार्यों से घृणा तथा जिन्हें ऐसी सुविधा नहीं मिली है उनके प्रति उपेक्षा प्रकट करते देखती है तब उसे आत्मसन्तोष की प्रसन्नता हो सकती है, परन्तु जब वही बालिका बड़ी तथा शिक्षित होकर अपनी माता तथा उसके समाज के प्रति अनादर दिखाने का स्वभाव बना लेती है तब सम्भव है उसे पहली-सी प्रसन्नता न होती हो ।

आज हमारे हृदयों में शताब्दियों से सुप्त विद्रोह जाग उठा है । इस समय हमारा इष्ट स्वतंत्रता है जिसके द्वारा हम अपने जंग लगे हुए बन्धन को एक ही प्रयास में काट सकती हैं । इसके लिए शिक्षा चाहिए ; उसे चाहे किसी भी मूल्य पर क्रय करना पड़े, परन्तु आज वह हमें महँगी न लगेगी, कारण वह हमारे शक्ति के, बल के कोष की कुंजी है । वही उस व्यूह से निकलने का द्वार है जिसमें हमारे दुर्भाग्य ने हमें न जाने कब से घेर रखा है । घर जलते समय उसमें रहने वाले किसी भी मार्ग से चाहे वह अच्छा हो या बुरा बाहर निकल जाना चाहते हैं ; उस समय उनका प्रवेश- द्वार से ही अग्नि के बाहर जाने का प्रण उपहासास्पद ही होगा । परन्तु निकलने के उपरान्त यदि वे मुड़कर भी न देखें, ज्वाला से घिरे हुए अन्य झुलसने वालों के आर्तनाद की ओर से कान बन्द कर लें, उन्हें किसी प्रकार भी सहायता न दें तो उनका स्वतंत्र, शीतल वायुमण्डल में श्वास लेना व्यर्थ होगा और उनके इस व्यवहार से मनुष्यता भी लजा जायेगी ।

हमारे वर्तमान महिला-समाज की अवस्था भी कुछ- कुछ ऐसी ही है । जिन्हें बन्धनों से मुक्ति के साधन शिक्षा के रूप में मिल गये हैं उनके जीवन के उद्देश्य ऐसे निर्मित हो गए हैं जिनमें परार्थ का प्रवेश कठिनता से हो सकता है और सेवा की भावना के लिए तो स्थान ही मिलना सम्भव नहीं ! जब इतनी शिक्षा के उपरान्त भी पुरुषों में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या नगण्य है तब अविद्या के साम्राज्य की स्वामिनी स्त्रियों के विषय में कुछ कहना व्यर्थ है । यदि उनमें किसी प्रकार एक प्रतिशत साक्षर निकल आवें तो उस एक के मस्तक पर शेष निन्यानबे को मार्ग दिखाने का भार रहेगा, यह न भूलना चाहिए । जब एक कार्य करने वालों की संख्या अधिक होगी सब पर कार्यभार हल्का होगा, परन्तु इसकी विपरीत दशा में अल्प व्यक्तियों को अधिक गुरु कर्तव्य स्वीकार करना ही पड़ेगा ।

हमारे यहाँ कुछ विद्यार्थिनियाँ प्राथमिक शिक्षा के उपरान्त ही अध्ययन का अन्त कर देती हैं, कुछ माध्यमिक के उपरान्त । इनमें से कुछ इनी -गिनी विद्यार्थिनियाँ उच्च शिक्षा के उस ध्येय तक पहुँच पाती हैं जहाँ पहुँचने के उपरान्त उनकी इच्छा और शक्ति दोनों ही उत्तर दे देती हैं । यदि निरीक्षक की दृष्टि से देखा जाय तो ये तीनों सोपान मनुष्य को विशेष उन्नत नहीं बना रहे हैं । जिन्हें प्राथमिक शिक्षा देने का हम गर्व करते हैं उन बालिकाओं को ऐसे वातावरण में जो उनके मानसिक विकास के लिए अनुपयुक्त है, ऐसे शिक्षकों द्वारा शिक्षा मिलती है जो उन्हें जीवन के उपयोगी सिद्धान्तों से भी अनभिज्ञ रहने देते हैं । इस अभाव में मनुष्य के पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन का पंगु हो जाना अवश्यम्भावी है । अशिक्षिताओं में मूर्खता के साथ सरलता, नम्रता आदि गुण तो मिल जाते हैं, परन्तु ऐसी साक्षर महिलाओं के हाथ, अपने सारे गुण देकर अक्षरज्ञान या दो-चार भले-बुरे उपन्यासों के पारायण की शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं आता । जिनकी केवल प्राथमिक शिक्षा सीमा है उनके लिए जब तक वातावरण उपयुक्त तथा शिक्षकवर्ग ऐसे न हों जो उनके संवेदनशील कोमल हृदय पर अच्छे संस्कार डाल सकें, उनके सुखमय भविष्य के निर्माण के लिए सिद्धान्तों की सृदृढ़ नींव डाल सकें, और उन्हें मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक पहुँचा सकें तब तक अक्षर ज्ञान केवल अक्षर ज्ञान रहेगा । जीने के लिए ही शिक्षा की आवश्यकता है, परन्तु जो व्यक्ति जीना ही नहीं जानता उससे न संसार को कुछ लाभ हो सकता है और न वह शिक्षा का कोई सदुपयोग ही कर पाता है।

हमारे बाल्यकाल के संस्कार ही जीवन का ध्येयनिर्धारित करते हैं, अतः यदि शैशव में हमारी सन्तान ऐसे व्यक्तियों की छाया में ज्ञान प्राप्त करेगी जिनमें चरित्र तथा सिद्धान्त की विशेषता नहीं है जिनमें संस्कारजनित अनेक दोष हैं तो फिर विद्यार्थियों के चरित्र पर भी उसी की छाप पड़ेगी और भविष्य में उनके ध्येय भी उसी के अनुसार स्वार्थमय तथा अस्थिर होंगे । शिक्षा एक ऐसा कर्तव्य नहीं है जो किसी पुस्तक को प्रथम पृष्ठ से अन्तिम पृष्ठ तक पढ़ा देने से ही पूर्ण हो जाता हो, वरन् वह ऐसा कर्त्तव्य है जिसकी परिधि सारे जीवन को घेरे हुए है और पुस्तकें ऐसे साँचे हैं जिनमें ढालकर उसे सुडौल बनाया जा सकता है ।

यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि हम अपने साधारण कार्यों के लिए करने वालों में जो योग्यता देखते हैं वैसी योग्यता भी शिक्षकों में नहीं हूँढ़ते । जो हमारी बालिकाओं, भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे उनके प्रति हमारी उदासीनता को अक्षम्य ही कहना चाहिए । देश विशेष, समाज विशेष तथा संस्कृति विशेष के अनुसार किसी के मानसिक विकास के साधन और सुविधाएँ उपस्थित करते हुए उसे विस्तृत संसार का ऐसा ज्ञान करा देना ही शिक्षा है जिससे वह अपने जीवन में सामञ्जस्य का अनुभव कर सके और उसे अपने क्षेत्र विशेष के साथ ही बाहर भी उपयोगी बना सके । यह महत्वपूर्ण कार्य ऐसा नहीं है जिसे किसी विशिष्ट संस्कृति से अनभिज्ञ चञ्चलचित्त और शिथिल चरित्र वाले व्यक्ति सुचारु रूप से सम्पादित कर सकें ।

परन्तु प्रश्न यह है कि इस महान् उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति कहाँ से लाये जावें । पढ़ी -लिखी महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है और उनमें भी भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएँ बहुत कम हैं । जो हैं भी उनके जीवन के ध्येयों में इस कर्तव्य की छाया का प्रवेश भी निषिद्ध समझा जाता है । शिक्षिकावर्ग की उच्छृंखलता समझी जाने वाली स्वतन्त्रता के कारण और कुछ संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण अन्य महिलाएँ अध्यापन कार्य तथा उसे जीवन का लक्ष्य बनाने वालियों को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगी है, अतः जीवन के आदि से अन्त तक कभी किसी अवकाश के क्षण में उनका ध्यान इस आवश्यकता की ओर नहीं जाता जिसकी पूर्ति पर उनकी सन्तान का भविष्य निर्भर है ।

प्राथमिक शिक्षा की शिथिल, अस्थिर नींव पर जब माध्यमिक शिक्षा का भवन निर्मित होता है तब उसकी भव्यता भी स्थायित्व से शून्य और उपयोगरहित रहती है । जिन गुणों को लेकर भारतीय स्त्री भारतीय रह सकती वे तब तक प्रातःकालीन नक्षत्रों की तरह झड़ चुके होते हैं या विरल रह जाते हैं । जिसे उच्च शिक्षा कहते हैं वह जीवन के प्रति कहीं चरम असन्तोष मात्र बन जाती है और कहीं कुछ आवश्यक सुविधाओं की प्राप्ति का साधन । यदि कटु सत्य कहा जाय तो केवल दो ही प्रकार की महिलाएँ उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर होती हैं, एक वे जिन्हें पुरुषों के समान स्वतन्त्र जीवन-निर्वाह के लिए उपाधि चाहिए और दूसरी वे जिनका ध्येय इसके द्वारा विवाह की तुला पर अपने आपको गुरु बना लेना है । इसके द्वारा वे सुगमता से ऐसा पति पा सकती हैं जो धन तथा विद्या के कारण उन्हें सब प्रकार की सामाजिक सुविधाएँ बिना प्रतिदान की इच्छा के दे सकता है और वे आडम्बरपूर्ण सुख का ऐसा जीवन व्यतीत करने को स्वतन्त्र हो जाती हैं जिस पर कर्तव्य की धूमिल छाया और त्याग का भार नहीं पड़ता ।

जो केवल जीविका के लिए, स्वावलम्बन के लिए, ऐसी शिक्षा चाहती हैं वे भी इन्हीं के समान अपनी विद्या-बुद्धि को धन के साथ एक ही तुला पर तोलने में उसकी चरम सफलता समझ लेती हैं, जो उनके कर्तव्य को भी कहीं-कहीं अकर्तव्य का रूप दे देता है । केवल मनुष्य बनने के लिए, जीवन का अर्थ और उपयोग समझने के लिए कौन विद्या चाहता, यह कहना कठिन है । हम केवल कार्य से कारण की गुरुता या लघुता जान सकते हैं । यदि वास्तव में इन सब की शक्तियों का सर्वतोन्मुखी विकास होता, यदि ये हमारी संस्कृति की रक्षक तथा भविष्य की निर्माता होतीं तो क्या इन्हें खिलौनों का-सा सारशून्य आडम्बर शोभा देता ? जब इनके द्वार पर भविष्य की विधाता सन्तान प्रतीक्षा कर रही है, मानवता रो रही है, दैव गर्ज रहा है, पीड़ितों का हाहाकार गूंज रहा है, जीवन का अभिशाप बरस रहा है, तब क्या भारत की नारी दर्पण के सम्मुख पाउडर और क्रीम से खेलती होती ? इस भूखे देश की मातृशक्ति को श्रृंगार का अवकाश ही कहाँ है ? हमारे यहाँ सन्तान का अभाव नहीं है, अभाव है माताओं का ! अनाथालय भरे हैं, पाठशालाएँ पूर्ण हैं और फिर भी एक बहुत बड़ी संख्या में बालक- बालिकाएँ अनाथ की तरह मारे-मारे फिर रहे हैं । यदि हममें में कुछ स्वयं माता बनने का स्वप्न देखना छोड़कर इन्हीं की माता बनने का, इन्हें योग्य बनाने का व्रत ग्रहण कर लें, इन्हें मनुष्य बना देने में ही अपनी मनुष्यता को सार्थक समझ लें तो भविष्य में किसी दिन इनके द्वारा नवीन रूपरेखा पाकर देश, समाज, सब आज की नारी- शक्ति पर श्रद्धाञ्जलि चढ़ाने में अपना गौरव समझेंगे, इनके त्याग के इतिहास, इतिहास को अमरता देंगे ।

कार्य का विस्तृत क्षेत्र तथा इनकी संख्या देखते हुए हममें से प्रत्येक को, जिसे कुछ भी व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने का सुअवसर मिल सका है, अनेक मूक पशु के समान अपनी आवश्यकताओं को स्वयं न बता सकने वाली गृहों में बन्द कुलीनाओं, दिन भर कठिन परिश्रम करने के उपरान्त भी अपनी तथा अपनी सन्तान की क्षुधानिवारण के हेतु अन्न न पानेवाली श्रमजीविनियों तथा समाज के अभिशापों के भार से दबी हुई आहत निर्दोष युवतियों का प्रतिनिधि भी बनना होगा और उनकी सन्तान के लिए दूसरी माता भी ।

प्रश्न हो सकता है कि क्या हमारे शिक्षित भाई भी ऐसा कर रहे हैं ? यदि नहीं तो केवल शिक्षित महिलाओं से, जो उनकी संख्या के सम्मुख नगण्य कही जा सकती हैं, क्यों ऐसी ऊँची आशाएँ की जाती हैं ?

इसमें अतिशयोक्ति नहीं कि हम जिस मार्ग पर अग्रसर हो रही हैं, शिक्षित पुरुष समाज की एक बहुत बड़ी संख्या उसके दूसरे छोर तक पहुँच चुकी है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि गिरने वाले की संख्या अधिक होने पर सब उन्हीं का अनुकरण करें और जो खड़ा रहना चाहे वह मन्दबुद्धि समझा जावे ? प्रचुर धन व्यय करके जो दुर्बल, अशक्त, उपाधिधारी बेकार घूम रहे हैं क्या केवल वे ही शिक्षित महिलाओं के आदर्श बने रहने के अधिकारी हैं, अन्य नहीं ? यदि उन्हीं के चरण -चिह्नों का अनुकरण करते-करते कालान्तर में हमारी भी वही दशा हो जावे तो क्या वह किसी के लिए गौरव का कारण बन सकेगी ? निश्चय ही नहीं । इसके अतिरिक्त उनका इस परिस्थिति की बन्दिनी बन जाना समाज के लिए और भी बड़ा दुर्भाग्य सिद्ध होगा । जाति अनेक आपत्तियों को सहकर जीवित रह सकती है, परन्तु मातृत्व का अभिशाप सहकर जीना उसके लिए सम्भव नहीं । व्यक्ति जिस गोद में जीवित रहने की शक्ति पाता है, अनेक तूफानों को झेलने की सहिष्णुता और दृढ़ता का पाठ पढ़ता है उसका अभाव उन शक्तियों का, गुणों का अभाव है जिनकी से प्रति पग पर आवश्यकता पड़ेगी ।

अतः आज जो परिस्थिति दूर होने के कारण उपेक्षणीय लगती है वह किसी दिन अपनी निकटता के कारण असह्य तथा सबके लिए दुर्वह हो उठे तो कोई विशेष आश्चर्य की बात न होगी। प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक गुण के साथ सीमा है, जिसका अतिक्रमण उस वस्तु के उस गुण के उपयोग को न्यून या विकृत कर देता है । प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता और बन्धन दोनों चाहिए ; स्वार्थ तथा परार्थ दोनों की आवश्यकता है, अन्यथा वह जीवन्मुक्त होकर भी किसी को कुछ नहीं दे पाता ।

अवश्य ही हममें से जो योग्य हैं उनका प्रत्येक क्षेत्र में जाना उपयोगी ही सिद्ध होगा, यदि वे अपने उत्तरदायित्व को समझती हुई तथा उस क्षेत्र में कार्य करने वाले पुरुषों की दुर्बलताओं से शिक्षा लेकर उन न्यूनताओं को पूर्ण करती हुई कार्य कर सकें । इससे उनकी जीवन का अनुभव सर्वागीण तथा विस्तृत होगा और उस वातावरण में अधिक सहानुभूति और त्याग की भावना पनप सकेगी, परन्तु जहाँ ये अपनी विशेषताओं को, सहज प्राकृतिक गुणों को विदा देकर केवल पुरुषों का असफल अनुकरण करने का ध्येय लेकर पहुंचती है वहाँ स्वार्थ और परार्थ का ऐसा विद्रोह आरम्भ हो उठता है जिसे शान्त करना उनकी शक्ति के बाहर की बात है ।

उदाहरण के लिए शिक्षा के क्षेत्र में एक पुरुष अपनी स्वभाव- सुलभ कठोरता से असफल रह सकता है, परन्तु माता के सहज स्नेह से पूर्ण हृदय लेकर जब एक स्त्री उसी उग्रता का अनुकरण करके अपने उत्तरदायित्व को भूल जाती है तब उसकी स्थिति दयनीय के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहती । जिस स्वभाव से वह पथ-प्रदर्शक बन सकती थी उसी को जब वह दूसरों की दुर्बलता के बदले में दे डालती है तभी मानो उसके विकास और उपयोग का द्वार रुद्ध हो जाता है ।

हमारी अनेक जाग्रत बहिनें चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं, परन्तु उनमें से प्राय : अधिकांश पुरुष चिकित्सकों की हृदयहीनता सीख-सीख कर उसमें इतनी निपुण हो गई हैं कि अब उनके लिए जीवन का कोई मूल्य आँक लेना कठिन ही नहीं, असम्भव-सा है । एक डाक्टर महिला ने तो किसी दरिद्र वृद्धा स्त्री को पुत्री को देखने जाना तब तक अस्वीकार किया जब तक उससे पहले उनकी फीस का प्रबन्ध करके उसे उनके पास जमा न कर दिया, परन्तु इस प्रबन्ध में इतना समय लग गया कि जब वे पहुँचीं तब उस वृद्धा की असमय में माता बनी हुई पुत्री अपने नवजात शिशु के साथ दूसरे लोक के लिए प्रस्थान कर चुकी थी । ऐसी कौन स्त्री होगी जिसका रोम- रोम इस सत्य का अनुभव कर काँप न उठेगा कि हमारे हृदय का एक-एक कोना धीरे-धीरे पाषाण हुआ जा रहा है । हमारे स्वतन्त्र होने की, शिक्षित होने की, समस्या तो है ही, उसके साथ -साथ यह नई समस्या उत्पन्न हो गई है कि कहीं हमारा शिक्षित तथा स्वतंत्र जीवन पक्षाघात से पीड़ित न हो जावे। स्वच्छन्द, जीवन विषयक उपयोगी ज्ञान से युक्त व्यक्ति का उत्तरदायित्व गुरुतर और कार्यक्षेत्र विस्तृततर है, इसे हमें न भूल जाना चाहिए । अपने व्यक्तित्व की संकीर्ण सीमा तो सभी को घेरे है और स्वार्थ तक तो सभी की दृष्टि परिमित है ।

ज्ञान के वास्तविक अर्थ में ज्ञानी, शिक्षा के सत्य अर्थ में शिक्षित वही व्यक्ति कहा जायेगा जिसने अपनी संकीर्ण सीमा को विस्तृत अपने संकीर्ण दृष्टिकोण को व्यापक बना लिया हो । एक शिक्षित व्यक्ति से अनेक अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं, गन्तव्य मार्ग की ओर संकेत और उसकी कठिनाइयों को सहने का साहस चाहते हैं, उसकी शक्ति ही नहीं, दुर्बलता का भी अनुकरण करने में अपनी सफलता समझते हैं और उसके दुर्गुणों को आत्मसात् कर गर्व का अनुभव करते हैं ।

हमारी समस्याएँ : 2

शताब्दियों से हमारी सामाजिक व्यवस्था इस प्रकार एकरूपिणी चली आ रही है कि अब हम उसका अस्तित्व भी भूल चले हैं, उसके बन्धनों की त्रुटियों और उनके परिहार की ओर ध्यान जाना तो दूर की बात है । कदाचित् परिहार की आवश्यकता भी नहीं थी, कारण नवीन परिस्थितियों में ही प्राचीन की अपूर्णता का अनुभव और उसे नवीन साधनों द्वारा अधिक सामञ्जस्यपूर्ण बनाने की इच्छा का जन्म हो सकता है । युगों से जब हमारे सामाजिक -वातावरण पर परिवर्तन की छाया ही नहीं पड़ी, उसमें नव जीवन का स्पन्दन होना ही रुक गया, तब सुविधा-असुविधा, पूर्णता -अपूर्णता भी अर्थहीन हो गई । जीवित तथा चलते हुए व्यक्ति को मार्ग भी चाहिए, बैठने की छाँह भी चाहिए और लेटने, विश्राम करने के लिए स्थान की भी आवश्यकता होती है, परन्तु जो शव है उसे जिस अवस्था में जीवनी शक्ति छोड़ जाती है उसी में नष्ट होने तक या पुनर्जीवन पाने तक निश्चेष्ट पड़ा रहना पड़ता है, उसे जीवित व्यक्ति के लिये आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है !

अब कुछ दिनों से पुनर्जीवन के जो चिह्न व्यक्तियों और उनके द्वारा समाज में दिखाई पड़ने लगे, उन्हीं के कारण हमें पहले -पहले युगों के उपरान्त, अपनी सामाजिक सुविधाओं का भान हुआ ।

सारी सामाजिक व्यवस्थाओं का प्राण, उसकी रूपरेखा का आधार, समाज के प्रधान अंग स्त्री तथा पुरुष का सामञ्जस्यपूर्ण सम्बन्ध ही है, जिसके बिना किसी भी समाज का ढाँचा बालू की भित्ति के समान ढह जाता है । वे दोनों यदि एक-दूसरे को ठीक -ठीक समझ लें, अपनी-अपनी त्रुटियों और विशेषताओं को हृदयंगम कर लें तो समाज का स्वरूप सुन्दर हो जाता है, अन्यथा उसे कोई, दूसरे उपाय से भव्य तथा उपयोगी नहीं बना पाता । उस युग -विशेष को छोड़कर, जब स्त्रियाँ विद्वत् -सभाओं में बैठने तथा शास्त्रार्थ करने योग्य भी थीं, अब तक सम्भवतः स्त्री तथा पुरुष यदि कभी तनिक भी निकट आ सके तो केवल पति पत्नी के रूप में और उस सम्बन्ध में भी एक ने दूसरे को अधिकार द्वारा समझने का प्रयत्न किया । अन्य सम्बन्धों में या तो अत्यधिक श्रद्धा और संकोच का भाव रहा या उपेक्षा और अनादर का, जिसने स्त्री के स्वभाव को समझने ही नहीं दिया ।

वास्तव में स्त्री केवल पत्नी के रूप में समाज का अंग नहीं है, अतः उसे उसके भिन्न भिन्न रूपों में व्यापक तथा सामान्य गुणों द्वारा ही समझना समाज के लिए आवश्यक तथा उचित है ।

आज की हमारी सामाजिक परिस्थिति कुछ और ही है । स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बन कर प्राण- प्रतिष्ठा चाहती है । कारण वह जान गई है कि एक का अर्थ अन्य की शोभा बढ़ाना तथा उपयोग न रहने पर फेंक दिया जाना है तथा दूसरे का अभिप्राय दूर से उस पुजापे को देखते रहना है जिसे उसे न देकर उसी के नाम पर लोग बाँट लेंगे । आज उसने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष को चुनौती देकर अपनी शक्ति की परीक्षा देने का प्रण किया है और उसी में उत्तीर्ण होने को जीवन की चरम सफलता समझती है ।

परन्तु क्या ऐसे जागृति के युग में भी समाज के उन आवश्यक अंगों में, जिन्हें शिक्षा के सुचारु साँचे में ढाला गया है, सामञ्जस्य उत्पन्न हो सका है ? कदाचित् नहीं ! प्रतिदिन हम जो सुनते तथा देखते रहते हैं उसे सुनते और देखते हुए कौन मान लेगा कि हमारे समाज का वातावरण अधिक शांति सामञ्जस्यमय हो सका है । स्त्री के लिए एक दुर्वह बन्धन घर में है और उससे असह्य दूसरा बाहर, यह न मानना असत्य ही नहीं, अपने प्रति तथा समाज के प्रति अन्याय भी होगा । यह अस्वाभाविक स्थिति हमें तथा आगामी पीढ़ियों को कहाँ से कहाँ पहुँचा देगी, यह प्रश्न प्रायः मन में उठकर फिर उसी में विलीन हो जाता है, क्योंकि हम अपनी त्रुटियों को सम्मुख रखकर देखने का साहस ही अपने भीतर संचित नहीं कर पाते । यदि कर पाते तो इनका दूर हो जाना भी अवश्यम्भावी था । स्त्रियों की अनेक समस्याओं का सुलझ पाना तो दूर की बात है, साधारण जीवन में उनके साथ कैसा

शिष्टाचार उचित होगा, इसका निर्णय भी अब तक न हो सका । यदि रूढ़ियों का अवलम्बन लेनेवाली बहिनें गृहों में अनेक यन्त्रणाएँ रो-रोकर सह रही हैं तो बन्धनों को तोड़ फेंकने वाली विदुषियाँ बाहर असंख्य अपमानों का अविचल लक्ष्य बनकर उससे भी कठिन अग्निपरीक्षा में उतीर्ण होने की आशा में मिथ्या हँसी हँस रही हैं । इस विषय पर बहुत चर्चा हो चुकी है, आवश्यक-अनावश्यक दोनों, परन्तु इससे समस्या के समाधान विषयक व्यावहारिक उपाय मिल सकना उतना सहज नहीं है जितना प्राय : समझ लिया जाता है । इस समय का वातावरण इतना कुहराच्छन्न जान पड़ता है जिसमें गंतव्य मार्ग ढूँढ़ लेने में समय तथा सावधानी दोनों की आवश्यकता है । इतने दीर्घकाल के उपरान्त अचानक ही युवक-युवतियों में, एकत्र होने का, एक दूसरे के सम्पर्क में आने का सुयोग पाकर ऐसी किंकर्त्तव्य -विमूढ़ता जाग उठी है जो उन्हें कोई मार्ग, शिष्टाचार की कोई रूपरेखा, निश्चित नहीं करने देती । इसके समाधान के लिए, इस सम्बन्ध में अधिक सामञ्जस्य लाने के लिए न तो बल प्रदर्शन वाला उपाय सहायक होगा, न स्त्री-पुरुष का भावना-हीन, अपने स्त्री या पुरुष होने की चेतना से (Sex Consciousness ) रहित होकर अपने आपको समाज का अंगमात्र समझ लेना ही । एक मनुष्य से नीचे का उपाय है, दूसरा उससे बहुत ऊपर का ।

स्त्री की स्त्रीत्व की भावना तथा पुरुष की पुरुषत्व की भावना इस उच्छृंखल व्यवहार के लिए उत्तरदायिनी नहीं ठहराई जा सकती और उस चेतना को दूर कर सकना उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार किसी वस्तु को उसके रंग-रूप तथा अन्य इन्द्रियग्राह्य गुणों से रहित कर उसे उसके सारत्व में देखना यह भी दार्शनिक का कार्य है और वह भी । सर्वसाधारण से यह आशा दुराशा ही सिद्ध होगी । इसके अतिरिक्त यह भी न भूलना उचित होगा कि जिस प्रकार इस भावना ने कभी-कभी पशुत्व को जागृत किया है उसी प्रकार कभी -कभी इसने मनुष्य को महान से महान त्याग की अन्तिम सीढ़ी तक भी पहँचाया है । नारी नारीत्व की सजग चेतना से समाज के वातावरण में अधिक से अधिक स्निग्धता ला सकती है और पुरुष इसी से अधिक से अधिक शक्ति । उसमें सामञ्जस्य लाने के लिए उन्हें गाड़ी के निर्जीव पहियों या चारपाई के पायों के समान अपने आपको को समाज के अंग मात्र समझने की आवश्यकता नहीं है और न यह ज्ञान, ऐसी वीतराग जागृति, सामूहिक रूप में सम्भव ही है । स्त्री या पुरुष की इस चेतना से हानि तब तक नहीं हो सकती जब तक उनमें सहयोगी के स्थान में भक्षक-भक्ष्य, भोगी- भोग्य का विकृत भाव नहीं आ जाता । इस भाव ने सदा से हमारा अपकार किया है, करता जा रहा है और करेगा, यदि इसका विषय हमारी नसों में बचपन से ही प्रविष्ट कर दिया जायेगा । हमें ऐसे स्वस्थ युवक चाहिए जिनमें ज्वराक्रान्त की न बुझनेवाली, जल के स्वाद को विकृत कर देने वाली प्यास न हो, जो रोग का चिह्न मात्र है, वरन् स्वास्थ्य की आवश्यकता, साधन तथा स्थान का ज्ञान हो, जो विकास का कारण है ।

हम अपने समाज में कुछ बुरे, आचरण-भ्रष्ट व्यक्तियों पर दमन नीति का प्रयोग कर सकते हैं, अपनी बहिनों को उनके सम्पर्क से दूर रख सकते हैं, परन्तु यही उपाय हमारे शिक्षित, भविष्य के विधाता, युवकों की अशिष्टता समझी जाने वाली शिष्टता का प्रतिकार न कर सकेगा।

इस अप्रिय वातावरण में दूसरे को दोष दे देना बहुत सहज है और एक प्रकार से स्वाभाविक भी, क्योंकि स्वभाव से मनुष्य अपनी त्रुटियों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने का इच्छुक नहीं होता ।

वास्तव में यदि निरपेक्ष दृष्टि से तटस्थ की भाँति देखा जावे तो इस परिस्थिति के, युगों से संगृहीत होते रहने वाले अनेक प्रकट अप्रकट कारण जान पड़ेंगे, जिनकी सामूहिक शक्ति का परिणाम हमारे समाज में अनेकरूपिणी विकृति उत्पन्न करता जा रहा ।

हमारी संस्कृति ने ह्रास के क्षणों में पुरुष को स्त्री से कितनी दूर रहने का आदेश दिया था यह इसी से प्रकट हो जाता है कि ब्रह्मचारी का चित्र में स्त्री दर्शन भी वयं तथा एकान्त में माता की सन्निकटता भी अनुचित मानी गई । भारत वैराग्यमय संयम-प्रधान देश है, अतः दुर्बल पुरुष को इस आदर्श तक पहुँचने के लिए उसके और प्रमुख प्रलोभन स्त्री तथा स्वर्ण के बीच में जितनी ऊँची प्राचीर बना सकना सम्भव था, बना दी गई ।

सम्भव है इन सबके पीछे एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही हो, एक सिद्धान्त रहा है, परन्तु जब कालान्तर में हम उसे भूल गये तब जैसा कि प्रायः होता है, अर्थहीन प्रयोग की रक्षा अनुपयुक्त वातावरण में भी दृढ़ता से करते रहे | बदली हुई परिस्थितियों में इस सिद्धान्त ने खी-पुरुष के बीच ऐसी अग्निमय रेखा खींच दी जिसके उस पार झाँकना कठिन तथा दुस्साहसपूर्ण कार्य हो गया । ऐसे अस्वाभाविक वातावरण में प्रत्येक बालक-बालिका को पल कर बड़ा होना पड़ता है और उनके अबोध मन में एक दूसरे को जानने के कुतूहल के साथ-साथ जानने का अनौचित्य भी समाया रहता है । गृह और समाज दोनों उन्हें इतनी दूर रखना चाहते हैं जितनी दूर रह कर वे एक दूसरे को विचित्र स्वप्नलोक की वस्तु समझने लगें । एक संकीर्ण सीमा में निकट रहते हुए भी पिता- पुत्री, भाई-बहिन अपने चारों ओर मिथ्या संकोच की ऐसी दृढ़ भित्ति खड़ी कर लेते हैं जिसे पार कर दूसरे के निकट पहुँच पाना, उनकी विभिन्नतामयी प्रकृति को समझ लेना असम्भव हो जाता है, यही नहीं, समझने का प्रयास अनुचित और उस दूरी को और अधिक बढ़ाने की इच्छा स्तुत्य मानी जाने लगी है ।

हमारे यहाँ सुशीला कन्या वही कही जायेगी जो अपने भाई या पिता के सम्मुख मस्तक तक ऊँचा नहीं करती और सशील पत्र वही जो विवाह कर बहिन तथा अन्य सम्बन्धियों से बहुत दूर रहना जानता है । इसकी प्रतिक्रिया, लज्जा तथा क्षोभ से रुला देने वाली प्रतिक्रिया, हम बाहर के उन्मुक्त वातावरण में सम्पर्क में आने वाले युवक- को कुछ के व्यवहार में देखते हैं । गृह के वातावरण से निकल कर जब वे एक दूसरे कुछ निकट से देखने का अवकाश तथा सुविधा पा लेते हैं तब उसके दो ही परिणाम सम्भव हैं-या तो वे एक दूसरे को स्वर्गीय वस्तु समझ कर निकट आ सकें या जानने के कौतूहल में उस निर्धारित रेखा का उल्लंघन कर जावें । प्रायः होता दूसरा ही परिणाम है, परन्तु उसके लिए किसी को दोष देना व्यर्थ होगा । प्रायः युवकों के संस्कार उन्हें ऐसी समीपता का अनौचित्य बताते रहते हैं तथा जानने की इच्छा आगे बढ़ाना नहीं रोकती, फलतः वे इस प्रकार अनदेखा कर देखना चाहते हैं जिसे हम अशिष्टता कहेंगे और जिसे देखने में अन्य पश्चिमीय देशों का युवक अपना अपमान समझेगा । युवतियाँ अल्प संख्या में ही स्वच्छन्दता से बाहर आती जाती हैं, यह उन्हें और भी धृष्टता सिखाता है । अस्वाभाविक वातावरण के अतिरिक्त नैतिकता का अभाव भी इस दुरवस्था का कारण कहा जा सकता है । आदि से अन्त तक प्रायः बालकों को न नैतिकता की शिक्षा ही मिलती है न उनके चरित्र के निर्माण की ओर ही ध्यान दिया जाता है, अतः हमें ऐसे युवक अल्प संख्या में मिलेंगे जिनके जीवन में अविचल सिद्धान्त, अटूट साहस, अदम्य वीरता तथा स्त्रियों के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा का भाव हो । और यह सत्य है कि जिस प्रकार वीरता मृत्यु को भी वरदान बना देने का सामर्थ्य रखती है उसी प्रकार कायरता जीवन को भी अभिशाप का रूप देने में समर्थ है । आपदग्रस्ता नारी के सम्मान की रक्षा में मिट जाने वालों की संख्या नगण्य ही है, परन्तु अपनी कुचेष्टाओं से उसका अनादर करने वाले पग-पग पर मिलेंगे।

आधुनिक साहित्यिक वातावरण में भी विकृत प्रेम का विष इस प्रकार घुल गया है कि बेचारे विद्यार्थी को जीवन की शिक्षा की प्रत्येक घुट के साथ उसे अपने रक्त में मिलाना ही पड़ता है । कहानियों का आधार, कविता का अवलम्ब, उपन्यासों का आश्रय, सब कुछ विकृत पार्थिव प्रेम ही है, जीवन-पुस्तक के और सारे अध्याय मानो नष्ट हो गये हैं, केवल यहीं परिच्छेद बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक पढ़ा जाने वाला ।

पत्र- पत्रिकाएँ भी स्त्रीमय होकर ही सफल होने का स्वप्न देखती हैं और चित्रपट, वाक्पट आदि के विषय में कुछ कहना व्यर्थ ही है। अतः बालक- बालिका ज्यों-ज्यों बढ़ते जाते हैं उनका उन्माद, किसी उपन्यास के नायक या नायिका का स्थान ग्रहण करने की इच्छा, वास्तविकता को अनदेखा कर देने की प्रवृति भी उग्रतर होती जाती है । प्रायः युवकों की अस्वस्थ मनोवृत्ति के पीछे एक विस्तृत इतिहास छिपा रहता है जिसे बिना समझे हम इस मनोवृत्ति में कोई परिवर्तन नहीं कर सकते ।

अवश्य ही हमारी विवाहादि से सम्बन्ध रखने वाली अपूर्ण सामाजिक व्यवस्था भी इसके लिए उत्तरदायिनी ठहराई जा सकती है, परन्तु केवल उसी में सुधार होने से इन भावनाओं में सुधार न होगा । उसके लिए तो हमें एक नवीन वातावरण उत्पन्न करने की आवश्यकता होगी जिसमें हमारे बालक-बालिका वय के अनुसार जीवन का सर्वागीण ज्ञान प्राप्त कर स्वस्थ मनोवृत्तियों वाले युवक-युवती बनकर कार्यक्षेत्र में उतर सकें ।

स्वप्न जीवन की मधुरता है तथा प्रणय उसकी शक्ति ; परन्तु उनको यथार्थ समझ लेना जीवन की संजीवनी जड़ी है, यह न भूलना चाहिए । क्या विकृत होकर अंगूर का प्राण को शीतल करने वाला मधुर रस भी तीखी, मस्तिष्क को उत्तप्त कर उसमें उन्माद भर देने वाली मदिरा नहीं हो जाता ?

एक ही वातावरण में परिवर्द्धित होने के कारण बालिकाओं का मानसिक विकास भी विकृत हुए बिना नहीं रहता, परन्तु यह भी अधिकांश में सत्य है कि उनकी मनोवृति, युवकों की मनोवृत्ति के समान ऐसे उद्धत उच्छृंखल रूप में अपना परिचय नहीं देती, चाहे उनकी स्वभाव- सुलभ लज्जा इसका कारण हो, चाहे अन्य सामाजिक बन्धन । परन्तु एक दोष उनका ऐसा है जिसकी ओट में युवक अपनी नैतिक दुर्बलता छिपाने का प्रयत्न करते हैं और सम्भव है बहुत काल तक काते रहें । मनुष्य की वेश-भूषा पर, उसके बाह्य आवरण पर, उसके व्यक्तित्व का वैसा ही आलोक पड़ता है जैसा ग्लोब पर दीपशिखा का । प्रायः हम बाह्य रूप से आन्तरिक विशेषताओं की ओर जा सकते हैं, परन्तु इसके विपरीत पहले आन्तरिक गुणों को समझ लेना अधिकांश व्यक्तियों के लिए कठिन हो जाता है । बाह्य रूप से हम एक को संयमी तथा दूसरे को जीवन के लिए आवश्यक संयम से खिलवाड़ करने वाला उच्छृंखल व्यक्ति मान लेते हैं । इसके अतिरिक्त वेष का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ता है । वेश्या संन्यासिनी के वेष में अपनी भावभंगी में वह नहीं व्यक्त कर सकती जो अपने वेष में कर सकेगी । हर एक वर्ण की, आश्रम की वेश- भूषा चुनने में केवल विभिन्नता ही दृष्टि में नहीं रखी गई थी उसका दूसरा तथा पहननेवाले के ऊपर पड़नेवाला अव्यक्त प्रभाव भी ध्यान में रखा गया था । आज जिस रूप में हमारी नवयुवतियाँ पुरुष- समाज में आती जाती हैं, वह उनका भ्रान्त परिचय ही दे सकता है। किसी विद्यार्थिनी को जिज्ञासु विद्यार्थिनी मात्र समझ लेना कठिन हो उठा है, कारण वह जीवन की गम्भीरता से दूर उच्छृंखल तितली के रूप में घर से बाहर आती है और प्रायः दूसरों के आकर्षण का केन्द्र बनना बुरा नहीं समझती । नवयुवकों के विषय में भी यही सत्य है, परन्तु उनमें आकर्षण का गुण अपेक्षाकृत न्यून होने के कारण उतनी हानि नहीं होती । बहिनें प्रश्न कर सकती हैं कि क्या दूसरों के लिए वे श्रृंगार छोड़कर तपस्विनी बन कर घूमें । इस प्रश्न को कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। यदि हमारा आडम्बर आत्मतुष्टि के लिए है तो घर की सीमा तक भी सीमित किया जा सकता है, बाहर स्थान तथा समय के अनुसार गाीय से आया जावे । परन्तु यदि यहाँ की युवतियाँ, जहाँ उनके भाइयों में दूषित मनोवृति उत्पन्न हो गई है, उनकी असंख्य बहिनें आँसुओं से श्रृंगार कर रही हैं, जहाँ उन्हें बाहर, भूला हुआ आदर्श स्थापित करना है, भीतर जीर्ण सामाजिक बन्धनों को नवीन रूप देना है, अपने आपको श्रद्धा तथा आदर के योग्य प्रमाणित करना है, ऐसा श्रृंगार, जो उनके मार्ग में बाधक होता है, छोड़ दें तो क्या प्रलय हो जायेगा ?

यदि वे अपने आपको केवल मनोरंजन का साधन समझती हैं तब तो उनका चित्र बना रहना अच्छा ही है, अन्यथा उन्हें अपने आपको बाधाओं के अनुरूप वीर कर्मण्य प्रमाणित करना ही पड़ेगा ।

इसके अतिरिक्त उन्हें सदा यह ध्यान में न रखना चाहिए कि संसार के सारे पुरुष उन्हें कुदृष्टि से देखते या देखने का दुस्साहस कर सकते हैं । हमें प्रायः अपने विश्वास की छाया ही दूसरों में दिखाई पड़ने लगती है । जो स्वयं अपना आदर नहीं करना जानता वह दूसरों के सम्मुख अपने आपको आदर का पात्र प्रमाणित भी नहीं कर सकता, यह एकान्त सत्य है । हमारा आत्मविश्वास के साथ पुरुषों के सम्पर्क में आना तथा किसी की वास्तविक कुचेष्टा को सद्भाव से दूर करने का प्रयत्न किसी भी प्रकार के बलप्रदर्शन से अधिक स्तुत्य सिद्ध होगा । परन्तु एक व्यक्ति में किसी आत्मिक परिवर्तन के लिए दूसरे की आत्मा में उससे सौ गुना आत्मिक बल चाहिए ।

इस सम्बन्ध में स्त्रियों द्वारा जो कहा जाता है झुंझलाहट से रंगीन हो जाता है । उन्होंने जिस रूप में इस समस्या को देखा तथा सुलझाना चाहा है वह अधिक उपयोगी न होगा । हमारे तथा पुरुषों के सामञ्जस्यपूर्ण सम्बन्ध पर बहुत कुछ निर्भर है और उस उपाय से विकृति ही उत्पन्न होगी । आज हम उस विकृति के एक रूप में रो रहे हैं, कल दूसरे से खिन्न होंगे, परन्तु वह सामञ्जस्य कहाँ मिलेगा जो समाज का जीवन है । हमारी सामाजिक तथा अन्य व्यवस्थाओं की रूपरेखा चिन्तनशील दार्शनिक निर्धारित कर सके हैं और उसके अनुसार निर्माण का कार्य कर्मण्य व्यक्तियों का रहा है । आज भी हमें अपने भविष्य को ढालने के लिए उन्हीं से साँचा माँगना होगा, इसमें सन्देह नहीं । पुरुष भी इसी विषम मार्ग को सम बनाने में सहायक हो सकते हैं, यदि वे स्त्री की त्रुटियों की आलोचना के स्थान में उसकी कठिनाइयाँ देखने लगें । उनकी संकीर्णता ने ही बाहर आने वाली स्त्रियों को आवश्यकता से अधिक सतर्क कर दिया है । उन्हें पग- पग पर अशिष्ट अधिक मिलते हैं सज्जन कम, अतः धोखा खाने की सम्भावना उन्हें अनावश्यक कटु बना दे तो विशेष आश्चर्य की बात नहीं है ।

1936

('शृंखला की कड़ियाँ' से)

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