हमारी बातें (बांग्ला कहानी) : रमानाथ राय
Hamari Batein (Bangla Story in Hindi) : Ramanath Roy
मेरी पत्नी खाना बनाती है, मैं ऑफिस जाता हूँ। छुट्टी के दिन हम घर में ही रहते हैं, कभी-कभी हम कहीं घूमने भी जाते हैं। किसी दिन हम चिडि़या-घर जाते हैं, तो किसी दिन गंगा किनारे जाकर हम घंटों बैठे रहते हैं। हम आइसक्रीम खाते हैं, मूँगफली खाते हैं। झालमुड़ी खाते हैं। एक दिन मैं झालमुड़ी खाते-खाते पत्नी से कहता हूँ, ‘‘मैं तुम्हें एक दिन एक चीज खिलाऊँगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘मैं तुम्हें चाऊमिन खिलाऊँगा।’’
‘‘वह क्या है?’’
‘‘चीन देश का भोजन।’’
‘‘बहुत महँगा मिलता है क्या?’’
‘‘नहीं, उतना महँगा नहीं मिलता।’’
‘‘आप खाए हैं क्या?’’
‘‘नहीं।’’
इस तरह बातें करते रात हो जाती है। हम ट्राम से घर लौट आते हैं। घर आकर भी हम लोगों की बातचीत अधूरी रह जाती है।
मैं कहता हूँ, ‘‘आज हम लोगों का बहुत घूमना हुआ है।’’
‘‘हाँ, घूमना तो हुआ है, मगर मेरा पैर दर्द करने लगा है।’’
‘‘हमें पहले क्यों नहीं कहा? कहती तो...’’
‘‘कहती तो आप गुस्सा हो जाते।’’
‘‘यह कैसी बात हुई! भला मैं क्यों गुस्सा करता?’’
उसके बाद हम लोग भोजन करते हैं, फिर सो जाते हैं। दूसरे दिन हम सुबह सोकर उठते हैं। मैं चाऊमिन खिलाने की बातें भूल जाता हूँ। पत्नी भोजन बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
हम लोग अकसर सिनेमा देखने जाते हैं। एक साथ ही बैठते हैं। इंटरवल के समय हम चनाचूड़ खाते हैं। हम लोग बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बातें करते हैं। हम लोगों की बातें किसी को सुनाई नहीं देती हैं। सिनेमा देखने के बाद हम लोग एक रेस्टोरेंट में आ जाते हैं। मैं चाय पीते-पीते पत्नी से कहता हूँ, ‘‘मुझे सिनेमा अच्छा नहीं लगा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘बेकार की कहानी है।’’
‘‘आजकल का सिनेमा ऐसा ही होता है।’’
‘‘नहीं, ऐसा नहीं होता है।’’
‘‘नहीं, होता है।’’
मैं इस विषय पर और तर्क नहीं करता हूँ। कुछ देर के बाद मैं फिर अपनी पत्नी से कहता हूँ—‘‘एक दिन मैं तुम्हें एक अंग्रेजी सिनेमा दिखाऊँगा।’’
‘‘मुझे अंग्रेजी सिनेमा समझ में नहीं आएगा।’’
‘‘मैं तुम्हें बाद में समझा दूँगा।’’
उसके बाद हम घर लौटकर आ जाते हैं। भोजन करने के बाद हम सो जाते हैं। अगले दिन हम सोकर उठते हैं। मैं अंग्रेजी सिनेमा दिखाने के बारे में भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद ऑफिस चला जाता हूँ।
एक दिन ऑफिस से घर आने पर पत्नी कहती है—‘‘चाचाजी हमारे घर आए थे।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘उनकी बेटी की शादी है।’’
‘‘कब शादी है?’’
‘‘इसी सोमवार को।’’
हम सोमवार को शाम से ही सजना शुरू कर देते हैं। हम अपने चेहरे को साबुन से रगड़-रगड़कर खूब साफ करते हैं। अपने चेहरे पर स्नो और पावर लगाते हैं। पत्नी अपने कानों में झुमका पहनती है। बनारसी साड़ी पहनती है। मैं ताँत की धोती पहनता हूँ। गरद का पंजाबी पहनता हूँ। पॉलिश से चकमक करता हुआ जूता पहनकर घर से बाहर निकल जाता हूँ। उपहार देने के लिए एक किताब खरीदता हूँ। उसके बाद हम एक टैक्सी पकड़कर शादी-घर चले जाते हैं। मैं उपहार देता हूँ। उपहार देने के बाद हम एक साथ नहीं रहते हैं। मेरी पत्नी महिलाओं के गोल में चली जाती है। मैं पुरुषों के गोल में चला जाता हूँ। कुछ देर के बाद हमें भोजन के लिए बुलाया जाता है। हम एक साथ खाने बैठ जाते हैं। भोजन करने के बाद हम पान चबाते-चबाते शादी-घर से बाहर निकल आते हैं। फिर हम एक टैक्सी पकड़कर अपने घर लौट आते हैं। बिस्तर पर सोए-सोए मैं अपनी पत्नी से कहता हूँ—‘‘शादी-घर का भोजन अच्छा ही॒था।’’
‘‘मांस तो थोड़ा लग गया था।’’
‘‘मगर मुझे तो समझ में नहीं आया।’’
‘‘छेछड़ा मगर बहुत अच्छा बना था।’’
‘‘कालिया भी अच्छा ही बना था। पता नहीं किसने बनाया था?’’
‘‘किसने क्या, हलवाई ने बनाया होगा।’’
यह सुनकर मैं चुप हो जाता हूँ। कुछ देर के बाद पत्नी फिर कहती है, ‘‘मेरी बनारसी साड़ी क्या अच्छी नहीं लग रही थी?’’
‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
‘‘कुछ औरतें कह रही थीं।’’
‘‘सच कह रही हो?’’
‘‘हाँ, बाबा मैं सच कह रही हूँ।’’
‘‘ठीक है। इस बार मैं तुम्हारे लिए इससे महँगी एक बनारसी साड़ी ला दूँगा।’’
इस बातचीत के बाद हम लोग सो पड़ते हैं। अगले दिन हम सोकर उठते हैं। मैं पत्नी के लिए महँगी बनारसी साड़ी खरीद लाने की बात भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
अकसर ही हम दोनों की इच्छा कहीं दूर घूमने जाने की होती है। हमारा मन समुद्र किनारे पैदल चलने का होता है। एक साथ पहाड़ पर चढ़ने की बहुत इच्छा होती है। एक दिन मैं रास्ता चलते-चलते अपनी पत्नी से कहता हूँ—‘‘इस बार मैं तुम्हें पूजा की छुट्टी में कश्मीर लेकर चलूँगा।’’
‘‘कश्मीर तो बहुत दूर है।’’
‘‘तो क्या हुआ?’’
‘‘वहाँ जाने में बहुत पैसा लगेगा। इतना पैसा कहाँ से आएगा?’’
‘‘यह तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है।’’
पत्नी कुछ नहीं कहती है। इतना सुनने के बाद चुप रह जाती है। कुछ देर चुप रहने के बाद इतना ही कहती है, ‘‘क्लॉक खरीदूँगी।’’
‘‘मैं एक कश्मीरी शॉल खरीदूँगा।’’
फिर हम पैदल चलते-चलते थक जाते हैं। हम लोगों को अब आगे चलना अच्छा नहीं लगता है। बातचीत करना भी अब अच्छा नहीं लग रहा है। हम घर लौट आते हैं। भोजन करने के बाद हम सो जाते हैं। अगले दिन हम सोकर उठते हैं। मैं कश्मीर जाने की बात भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता॒हूँ।
अकसर मुझे अपनी पत्नी के लिए एक फ्लैट खरीदने की इच्छा होती है। अखबार में मैं जब कभी किसी फ्लैट का विज्ञापन देखता हूँ तो पत्नी को भी दिखाता हूँ। पत्नी फ्लैट का विज्ञापन देखकर हँस पड़ती है। पत्नी को हँसता दिखाकर मैं पूछता हूँ—‘‘तुम हँस क्यों रही हो?’’
‘‘फ्लैट कितने का मिलेगा, आप जानते हैं क्या?’’
‘‘कितने का?’’
‘‘लाखों का।’’
‘‘तो क्या हुआ? मैं लोन ले लूँगा।’’
‘‘लोन पूरा कैसे होगा?’’
‘‘तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। लोन पूरा हो जाएगा।’’
यह सुन पत्नी मेरी तरफ चकित होकर ऐसे देखने लगती है, मानो कुछ कहना भूल गई हो। कुछ देर के बाद मैं फिर कहता हूँ, ‘‘मैं तुम्हारे लिए एक चीज खरीदकर दूँगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘एक कार।’’
‘‘कार खरीदकर क्या होगा?’’
‘‘हम सैर करेंगे। उसमें बैठकर भरपूर हवा खाएँगे।’’
यह सुनकर पत्नी हँसने लगती है। मैं भी पत्नी के साथ हँसने लगता हूँ। हँसते-हँसते मुझे अचानक दर्द होने लगता है। छाती में अचानक जोर-जोर से दर्द होने के कारण मेरी हँसी रुक जाती है। पत्नी के साथ बातचीत करना मुझे और नहीं सूझता है। कुछ देर बाद स्वाभाविक होने पर मैं पत्नी से कहता हूँ, ‘‘मैं तुम्हारे लिए एक फ्रिज खरीदूँगा।’’
‘‘नहीं, फ्रिज की कोई जरूरत नहीं है।’’
‘‘एक रिकॉर्डर खरीद दूँगा।’’
‘‘नहीं, टेप रिकॉर्डर की कोई जरूरत नहीं है।’’
‘‘टी.वी. सेट खरीद दूँगा।’’
‘‘नहीं, टी.वी. सेट की कोई जरूरत नहीं है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हम लोग क्या अमीर आदमी हैं?’’
‘‘आजकल हर साधारण आदमी यह सब कुछ अपने घर में रखने लगा है।’’
‘‘मगर हम लोग तो एकदम ही साधारण आदमी हैं।’’
‘‘नहीं, हम साधारण आदमी नहीं हैं।’’
पत्नी मेरा उत्तर सुनकर चुप हो जाती है। मैं उसे समझाने लगता हूँ कि फ्रिज रखने के क्या-क्या फायदे हैं। समझाने लगता हूँ कि टेप रिकॉर्डर किस काम में आता है। समझाने लगता हूँ कि टी.वी. रहने से क्या होता है। समझाने लगता हूँ कि इन सभी चीजों के हमारे जीवन में क्या-क्या फायदे हैं। यह सब समझाते हुए मैं एकदम चौंक जाता हूँ, जब देखता हूँ कि पत्नी कहीं और देख रही है। उसका ध्यान कहीं और है। वह मेरी बातें नहीं सुन रही है। अब मैं चुप रह जाता हूँ। फिर हम लोग भोजन करने के बाद सो जाते हैं। दूसरे दिन सुबह उठते हैं। मैं फ्लैट और कार खरीदने की बातें भूल जाता हूँ। फ्रिज, टेप रिकॉर्डर और टी.वी. के बारे में मुझे कुछ याद नहीं आ रहा है कि मैंने क्या कहा था। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
बिस्तर पर सोए-सोए एक रात मैं अपनी पत्नी से कहता हूँ—‘‘तुम्हारा भाग्य खराब है।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘अगर तुम्हारा भाग्य अच्छा होता तो मेरे साथ तुम्हारी शादी नहीं होती।’’
‘‘मुझे तुम्हारे साथ रहते हुए किसी चीज की कमी नहीं है।’’
‘‘यह सब झूठी बातें हैं।’’
‘‘नहीं। विश्वास कीजिए मैं सच कह रही हूँ।’’
‘‘मैं कैसे विश्वास करूँ, मैं तुम्हें चाऊमिन खिला न सका। तुम्हें अंग्रेजी सिनेमा दिखा न सका। तुम्हारे पास महँगी बनारसी साड़ी नहीं है। तुम कभी कश्मीर गई नहीं। हमारा कोई फ्लैट नहीं है। अपनी कोई कार नहीं है। फ्रिज नहीं है। टेप रिकॉर्डर नहीं है। अपने घर में कोई टी.वी. सेट नहीं है।’’
‘‘नहीं है तो क्या हुआ, नहीं रहे।’’
‘‘तुम्हें इसके लिए दुःख नहीं होता है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तुम खुश हो?’’
‘‘हाँ, मैं बहुत खुश हूँ।’’
पत्नी का यह उत्तर सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं जानता हूँ, मेरी पत्नी सही कह रही है। मेरी पत्नी कभी मुझसे झूठ नहीं कहती है। वह मुझसे कभी झूठ नहीं कह सकती है। फिर भी मुझे कष्ट क्यों हो रहा है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं चुपचाप सोए रहता हूँ। मुझे नींद नहीं आ रही है। पत्नी सो जाती है। कमरे में नीले रंग का बल्ब जल रहा है। नीले रंग के प्रकाश में पत्नी का चेहरा बदला हुआ लग रहा है। मेरी पत्नी मुझे दूसरी तरह की लग रही है। उसके कपाल पर सिकुड़न उग आई, मुझे दिखाई नहीं दे रही है। उसके आँखों के आस-पास का कालापन मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। मैं पत्नी के चेहरे को देखता रहता हूँ, आहिस्ता-आहिस्ता पता नहीं मुझे कब नींद आ जाती है। दूसरे दिन फिर सुबह सोकर उठता हूँ। सब बातें भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
देखते-देखते हम बूढे़ हो जाते हैं। हमारे बाल एक-एक करके पकने लगते हैं। एक दिन छुट्टी के दिन मेरी पत्नी मेरे सिर से पके हुए बाल को उखाड़ते हुए कहती है—‘‘अब तुम बूढे़ हो गए हो!’’
‘‘मैं क्या अकेला बूढ़ा हुआ हूँ?’’
‘‘हाँ, मैं तो अभी बूढ़ी नहीं हुई हूँ।’’
‘‘दिखाऊँ?’’
‘‘हाँ, दिखाओ।’’
मैं बहुत मेहनत के बाद अपनी पत्नी के सिर से एक पका हुआ बाल निकाल पाता हूँ। पत्नी को दिखाता हूँ। पत्नी अपने सिर का पका हुआ बाल देखकर चौंक जाती है और कहती है—‘‘हाँ, आप सही कह रहे हैं, मैं भी अब बूढ़ी हो गई हूँ। यह कैसे हो गया?’’
‘‘जैसे हर इनसान बूढ़ा होता है।’’
‘‘वैसे हम भी बूढे़ हो गए हैं।’’
‘‘हाँ, वैसे ही हम भी बूढे़ हो गए हैं।’’
‘‘हमारी शादी को कितने वर्ष हो गए?’’
‘‘लगभग बीस वर्ष तो हो ही गए होंगे।’’
‘‘धत्त! इतने वर्ष अभी नहीं हुए होंगे!’’
‘‘धत्त क्या, मैं सच कह रहा हूँ अपनी शादी को बीस वर्ष हो गए॒हैं।’’
‘‘इतने दिन हो गए!’’
‘‘हाँ, इतने दिन हो गए!’’
यह सुनकर पत्नी चुप हो जाती है। कुछ देर के बाद मैं ही पत्नी से कहता हूँ, ‘‘तुम्हारे लिए हैयरडाई खरीदकर ला दूँगा।’’
पत्नी कोई उत्तर नहीं देती है। मुझे भी अब आगे कहने की कोई बात नहीं सूझती है। मुझे लगता है, मैं अपनी बातें खो बैठा हूँ। आहिस्ता-आहिस्ता शाम होने के बाद अँधेरा हो जाता है। फिर रात हो जाती है। हम लोग भोजन करने के बाद सो जाते हैं। दूसरे दिन फिर सुबह सोकर उठते हैं। मैं हैयरडाई की बातें भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
इस तरह ही हम लोगों के दिन व्यतीत होने लगते हैं। महीने बीतने लगते हैं। वर्ष बीतने लगते हैं। हमारे बाल और पकने लगते हैं। अब हम चिडि़याघर नहीं जाते हैं। गंगा किनारे जाकर वहाँ बैठते नहीं हैं। अब हम रह-रहकर एक-एक दिन दक्षिणेश्वर के काली मंदिर जाते हैं। मंदिर जाकर काली माँ की पूजा करते हैं। एक दिन मैं अपनी पत्नी से कहता हूँ, जानती हो, रामकृष्ण परमहंस देव क्या कहते हैं?’’
‘‘नहीं जानती।’’
‘‘रामकृष्ण देव का कहना है, कर्म कितने दिनों का है? जितने दिन उससे लाभ नहीं लिया जा सके। उससे अगर लाभ मिल जाए तो कर्म चला जाता है।’’
‘‘मगर हम लोगों का कर्म तो हमेशा के लिए है।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘रामकृष्ण देव क्या कहते थे जानते हैं?’’
‘‘क्या?’’
‘‘भूखे पेट भजन नहीं होता है।’’
पत्नी की यह बात सुनकर मैं हँस पड़ता हूँ। पत्नी भी मेरे साथ हँसने लगती है। हँसते-हँसते हम सो जाते हैं। दूसरे दिन हम सुबह सोकर उठते हैं। मैं रामकृष्ण परमहंस देव की बातें भूल जाता हूँ। पत्नी खाना बनाती है, मैं भोजन करने के बाद अपने ऑफिस चला जाता हूँ।
(अनुवाद : दिलीप कुमार शर्मा अज्ञात)