हमारे समाज में वर-विक्रय (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Hamare Samaj Mein Var-Vikray (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

इस बार मेरे एक परिचित वृद्ध सज्जन कन्या के ऋण से मुक्त होने के लिए जब वर के पिता के दरवाजे पर माथा टेकने पहुँचे तो मुझ अनुभवहीन को शायद इसलिए ले गए कि मौका पड़ने पर सहानुभूति का मलहम लगानेवाला एक आदमी तो साथ रहे। 'नमस्कार' इत्यादि के उपरांत वर के पिता जब चश्मे के काँच की किनार से मुझे घूरकर देख चुके तब उन्होंने दफ्तर से चोरी हुई एक फाइल निकाली और मेरे साथी की ओर मुँह करके बोले, “देखिए, साहब, मैंने तो तीनों लड़कों की यह फाइल खोल रखी है । जिनके यहाँ से जितने रुपयों की बात आती है उनका नाम सिलसिलेवार दर्ज करता जाता हूँ। अब ये देखिए-मनोहरलालजी के यहाँ से 5000/- की बात आई है, और रामकिशनजी के यहाँ से 6000/- की। तो आप भी अपना हिसाब बतला दीजिए, मैं नोट कर लूँगा। साहब अपना तो खुला काम है । 'अहारे व्यवहारे लज्जा निकारे' - समझे न आप?" मेरे साथी बेचारे, जो केवल दो हजार का इंतजाम करके लड़का खरीदने निकले थे, किस मुँह से बोली लगाते ! फिर आने का वायदा करके और वर के पिता की व्यंग्यपूर्ण मुस्कुराहट से तिलमिलाकर बेचारे उठ दिए ।

मैं नहीं जानता था कि वर-विक्रय हमारे समाज में इतने वैज्ञानिक तरीके से होने लगा है कि फाइल, रजिस्टर, रसीद इत्यादि रखे जाने लगे। और अब मैं सोचता हूँ कि जो थोड़ी-सी झिझक बची है वह भी त्याग दी जाय और लड़के का पिता लड़के के सिर पर 'वर बिकाऊ है' की तख्ती लगाकर मवेशियों के बाजार में इतवार को खड़ा करे और नीलाम करके सबसे ऊँची बोली लगानेवाले को लड़के के गले में रस्सी बाँधकर सौंप दे।

विवाह-सा पवित्र बंधन जो पारस्परिक प्रेम बढ़ाकर दो परिवारों को अधिकाधिक समीप लाता था, न जाने कब से वाणिज्य बनकर रह गया? और आज खुलेआम वर की बिक्री होती है जिसकी कीमत कन्या के रूप- गुण से नहीं, वरन् उसके पिता के टकों से लगाई जाती है। जिसके पास पैसे हों वह अपनी कन्या के लिए अच्छा वर खरीद ले, जिसकी सामर्थ्य नहीं है वह बेचारा थोड़ी देर बैठकर अपने भाग्य को रो ले और फिर कन्या को 'जहर' दे दे अर्थात् किसी वृद्ध, रोगी, अपढ़, गँवार के हाथ उसे सौंप दे, 'क्योंकि' इनकी कीमत कुछ कम होती है ।

किसी ने गिना है कि वर -विक्रय की इस प्रथा के फलस्वरूप कितनी आत्महत्याएँ होती हैं? किसी ने हिसाब लगाया है कि कितने घर जलकर खाक हो जाते हैं? किसी को मालूम 'है कि कितने पिताओं का जीवन अभिशाप की अग्नि में जला करता है? कितनी बाल-विधवाएँ होती हैं, कितनी भ्रूण हत्याएँ होती हैं, कितना व्यभिचार होता है, कितनी निरपराध स्त्रियों का जीवन निरंतर जला करता है? जिस दिन इसका हिसाब लग जाएगा उस दिन हमारा रामानंदी तिलक मिट जाएगा, हमारा चंदनछाप काला पड़ जाएगा-कलंक बन जाएगा; हमारी गाँधी टोपी की नोक मिट जाएगी, और हमारा भगवान मंदिर से भागकर कहीं शरण लेने पहुँचेगा।

विदेशी लोग हमारे समाज के विषय में अन्य देशों में भ्रमपूर्ण बातें फैलाकर हमें असभ्य, जंगली बतलाते रहे हैं और हमारा उनके प्रति रोष भी सर्वथा उचित ही रहा है। पर एक बात में तो हम पूर्व ऐतिहासिक काल के इस जंगली को भी मात करते हैं और आज के अफ्रीका के वनभाग के हब्शी को भी मात करते हैं- और वह बात यह है कि हममें अभी भी मनुष्य का क्रय-विक्रय होता है और वह कानूनी भी माना जाता है।

हमारे धर्म में दूसरे का धन सबसे निकृष्ट माना गया है, पर धन की इच्छा करना पाप माना गया है और उसे ग्रहण करना तो अत्यंत निंदनीय कर्म समझा गया है। इसलिए तो भिक्षावृत्ति हमारे यहाँ अत्यंत नीच मानी गई है। परंतु तिलक लगाए, सुमरनी में हाथ घुसेड़े पंडित की निगाह भी कन्या के पिता के धन पर रहती है, 'रोटरी क्लब' में गला फाड़कर भाषण देनेवाले सभ्य साहब की आँख भी लड़के के ससुर के धन पर लगी रहती है और जन्म-भर देश-सेवा की डींग हाँकनेवाले सुधारक की जीभ में भी दूसरे का पैसा देखकर पानी आ जाता है। यह श्वान - वृत्ति हमारे समाज में कैसे आई यह कौन बताएगा ? वर के पिता के मुख में 'नहीं' के स्थान पर 'और' कब जम बैठा? और आज तो उसका मुँह इतना फट गया है कि कन्या के पिता की सारी जायदाद उसमें समा जाय ।

ऐसा लगता है कि हमारी जातिगत दुर्बलता के कारण जब हमें अपनी भुजाओं पर विश्वास नहीं रहा तब हममें मुफ्त का माल खाने की घृणित प्रवृत्ति आई और जाति की संकीर्णता से उत्पन्न लड़कों की सीमित संख्या ने इस नई 'वस्तु' की क्रयशीलता की ओर संकेत किया। और परिणाम यह हुआ है कि समाज में जड़ वस्तुओं की भाँति लड़के भी बिकने लगे हैं। वह समय अब दूर नहीं है जब वर का पिता लड़कीवालों से 'टेंडर' बुलवाएगा और अधिक-से-अधिक कीमतवाले को ही अपना लड़का देगा ।

वैसे तो हम 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' की घोषणा करना नहीं भूलते और हमारे आदर्शवाद का पोला ढोल भी काफी जोर से बजाते रहते हैं, परंतु हमारे अपने परिवारों में लड़के और लड़की के प्रति व्यवहारों में कितनी विषमता पाई जाती है और यह क्यों पाई जाती है, इस पर कभी विचार किया है? घर में मुन्ना को चुपड़ी और मुन्नी को सूखी रोटी मिलने का क्या कारण है? मुन्ना को छींक आने पर ही डॉक्टर आ जाता है पर मुन्नी की दो-चार दिनों की बीमारी भी डॉक्टर को क्यों नहीं बुला सकती ? मुन्ना के रेशमी और मुन्नी के सूती का क्या रहस्य है? मुन्ना को पुचकार और मुन्नी को फटकार के कारण पर भी विचार किया है? लड़की के प्रति माता-पिता का ही अन्यायपूर्ण वर्ताव हमारे सारे आदर्शों, हमारे सारे सिद्धांतों के मुख पर कालिख पोत देता है। और इसका एक ही कारण है - दहेज | पिता समझता है कि लड़की उसके गाँठ का खर्च करानेवाली है और लड़का उसकी गाँठ में जोड़नेवाला है। अपनी धन-हानि और चिंता की कारणस्वरूप लड़की उसे अप्रिय लगती है। पुत्र उत्पन्न होने पर बाजे बजते हैं, मिठाई बँटती है - पुत्री के जन्म पर मातम-सी शांति रहती है, माता-पिता के मुखों पर दुख की छाप दिखाई देती है।

अभी एक विवाह में देखा कि गरीब कन्या के पिता से दो हजार ऐंठकर भी जब वरपक्ष की परधन - लिप्सा शांत न हुई तो विवाह के बीच में वर के पिता-मामा-फूफा ने वर से 500 रु. और माँगने को कहा। लड़का पढ़ा-लिखा समझदार-सा था पर बड़े-बूढ़ों की भृकुटि और लाल आँखों के सामने उसका विरोध ठहर न सका और उसने निर्लज्जता से, दस साल के बच्चे की भाँति घिघियाकर कहा - '500रु. और लेंगे।' ऐसा लगता था कि ये लोग बाराती नहीं बल्कि कचहरी के चपरासी हैं, जो किसी पुराने कर्ज की कुर्की लेकर आए हैं। गरीब ब्राह्मण ने आरजू-मिन्नत करके दया न पाई तो घर का सामान बेच- बाचकर उन राक्षसों के उदर में धन डाला। मुझे उस बी. ए. की डिग्री से विभूषित वर की परवशता पर दया भी आई - उसकी कमजोरी पर गुस्सा भी आया। उसकी नसों का रक्त ठंडा हो गया था; उसकी शिक्षा उसे अन्याय का सामना करना सिखाने में असमर्थ रही। ऐसी शिक्षा बेकार है; ऐसी युवावस्था को भी धिक्कार है।

पति-पत्नी के संबंध-विच्छेद का रास्ता साफ करने के लिए तलाक का कानून लागू करने से यह अधिक आवश्यक है कि इस दहेज प्रथा को बंद करने के लिए कानून बनाया जाय । इसीलिए हमारा कोई प्रतिनिधि समाज हित के लिए दहेज -विरोधी कानून का प्रस्ताव हमारी धारा-सभा में रखे ।

'प्रहरी, 2 जनवरी, 1949'

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