हम तो परभाकर हैं जी : हरिशंकर परसाई

Ham To Parbhakar Hain Ji : Harishankar Parsai

प्राइमरी स्कूल में हमारे गुरु जी शरीफे खाते थे और हम शरीफे की छड़ी खाते थे । यह शायद 1931 की बात होगी । होशगाबाद ज़िले में हरदा तहसील में एक बड़ा गाँव था तब रेंहटगाँव । अब अखबार में पढ़ता हूँ कि वहाँ लॉयंस क्लब भी है। छोटा शहर हो गया है। इस बड़े गाँव में पिता जी बस गए थे । यहाँ हिंदी की सातवीं कक्षा तक का स्कूल था । प्रधानाध्यापक हमारे रिश्तेदार थे । वे भी परसाई ही थे। मैं इस स्कूल में दाखिल हुआ।

हमारे स्कूल से लगा हुआ शरीफे का बागीचा था - जंगल ही था । हमारे गुरु जी शरीफा खाने के बड़े शौकीन थे। वे किन्हीं दो लड़कों से कह देते : 'जाओ, इस झोले में शरीफे तोड़कर ले आओ। अच्छे लाना, जिनकी आँखें खुल गई हों। और तीन-चार अच्छी डालियाँ भी तोड़ लाना । मुझे यह काम ज्यादा मिलता था क्योंकि मैं ऊँचा और तगड़ा था। यों शरीफे के पेड़ इतने नीचे थे कि लगभग ज़मीन से लगे थे। हम शरीफे लाते। उनमें से जो चौबीस घंटे में पकनेवाले होते, उन्हें गुरु जी अलमारी में रख देते और पहले के रखे पके हुए 2-3 निकालकर टेबिल पर रख लेते । घर ले जाने के लिए शरीफे झोले में रख लेते । वे आलमारी से चाकू भी निकालते ।

वे शरीफे खाते हुए एक पवित्र अनुष्ठान करते । चाकू से उन डालियों की बड़ी कलात्मक तन्मयता से गाँठें निकालकर, उन्हें छीलकर सुंदर छड़ियाँ बनाते। बड़ी धार्मिक तल्लीनता से । इधर हमारे प्राण काँपते । उनकी यह कलाकृति हमारी हथेलियों के लिए थी । शरीफा खाकर तृप्त होकर, सुखी मनःस्थिति में वे छड़ी उठाते। मुझे या किसी दूसरे लड़के को बुलाकर कहते : 'क्यों बे, ये दो शरीफे बिलकुल कच्चे क्यों ले आया ? तुझे पहचान नहीं है ? हाथ खोल । ' मैं या वह हाथ खोलता और दोनों हथेलियों पर एक-एक छड़ी सटाक, सटाक पड़ती। हम दोनों हाथों को हिलाते और काँखों में दबा लेते ।

हमारे गुरु जी शरीफा खाते थे और हम शरीफे की छड़ी खाते थे ।

गुरु जी दिन-भर किसी भी कारण से हम लोगों को छड़ी मारते थे। पढ़ाई की भूल पर तो मारते ही थे । पर वे आविष्कारक थे। नए-नए कारण मारने के खोजते थे। किसी से कहते 'क्यों बे, कान में अँगुली डालकर क्यों खुजा रहा है ? कान साफ नहीं है ? इधर आ । हाथ खोल ।' इसके बाद - सटाक ! 'अपनी माँ से कहना कि रात को कान में गरम तेल डाल दे और सबेरे जब मैल फूल जाए तो निकाल दे ।'

लगभग सब अध्यापक पीटते थे बच्चों को - कोई कम, कोई अधिक । इसमें शक नहीं कि अपवाद भी होते थे। ऐसे अध्यापक मुझे आगे. मिडिल स्कूल में मिले। मगर सौ में से अस्सी अध्यापक पीटते थे । सोचता हूँ, मेरे वे गुरु जी तथा दूसरे अध्यापक हम बच्चों को क्यों पीटते थे ? एक कारण तो यह हो सकता है कि वे 'सेडिज़्म' (पर-पीड़न प्रमोद) मानसिक रोग के मरीज हों। पर इतनी बड़ी संख्या में पूरा का पूरा वर्ग 'मेडिस्ट' नहीं हो सकता। एक कारण तो यह हो संकता है कि इनका वेतन बहुत कम होता है और ये परेशान तथा खीझे रहते हैं । एक कारण यह कि ये पढ़ाते नहीं हैं या बहुत कम पढ़ाते हैं। अचरज यह कि ये बिना क्रोध या तनाव के या नफरत के सामान्य संतुलित मन से पीटते थे। मैं समझता हूँ, तब, आधा शताब्दी पहले, ये पिटाई को पढ़ाई का एक ज़रूरी भाग मानते थे। तब कहावत प्रचलित थी : Spare the rod and spoil the child. बच्चों को पीटना ये अध्यापक अच्छी शिक्षा का तकाजा मानते थे । इंग्लैंड के पुराने 'ग्रामर स्कूलों' से यह सिद्धांत वाक्य भारत आया था। पीटते अभी भी हैं - पर बहुत कम। अब तो छात्रों को पीटने के खिलाफ कानून भी बन गया है ।

सोचता हूँ, हम सुसंस्कृत होने का गर्व करनेवाले लोग बच्चों के प्रति कितने क्रूर हैं। बहुत निर्दयी हैं - स्कूल में भी और घर में भी । हमारे घरों में देखिए । बच्चे के हर प्रश्न का, हर समस्या का हर छोटी हरकत का एक ही इलाज है- तमाचा जड़ दो, कान खींच दो, घूँसा मार दो। बच्चा कुछ माँग रहा है, उसकी कुछ समस्या है, वह ज़िद कर रहा है, वह पढ़ने में लापरवाही कर रहा है, उसके हाथ से कोई चीज़ गिर गई - तो एक ही हल है कि उसे पीट दो। बच्चे को समझेंगे नहीं, उसे समझाएँगे नहीं । समस्या कुल यह है कि वह या तो बोल रहा है या रो रहा है । कुल सवाल उसे चुप कराके उससे बरी हो जाने का है। एक-दो तमाचे जड़ देने से यह काम हो जाता है। रोते हुए बच्चे को धमकाते हैं : 'अरे चुप हो ! चोप्प ! ' और चाँटा जड़ दिया। चाँटा तो रुलाने के लिए होता है, रोना रोकने के लिए नहीं । मगर वह बच्चा चुप तो डर के कारण हो जाता है, पर रोता और ज़्यादा है । वह बुरी तरह सिसकता है । माँ-बाप को सिसकने पर कोई एतराज़ नहीं ।

रोते बच्चे का 'मूड' (मनः स्थिति) बदलना चाहिए। उसकी दिलचस्पी के विषय की तरफ उसका मन मोड़ देना चाहिए। मेरे भानजे का लड़का है सोनू । क्रिकेट का शौकीन है, चित्रकला का भी । निजी मकान की अपेक्षा किराए के मकान में बागीचा ज़्यादा अच्छा लगता है। बच्चा फूलों का शौकीन है । मेरी मेज़ पर फूल लाकर रख देता है और तारीफ का इंतज़ार करता है। टेलीविज़न पर क्रिकेट देखता रहता है। उसके प्रिय खिलाड़ी हैं। जब वह रोता है, तो मैं कहता हूँ : 'अरे सोनू गुरु, इस मैच में तो भारत हार ही जाएगा। रवि शास्त्री तेईस पर आऊट हो गया।' वह फौरन रोना बंद करके कहता है : 'क्या बात करते हो मामा जी । अभी तो अज़हर को खेलना है। चौवे पर चौवे मारता है, अज़हर ! ' - वह सुनील गावस्कर, चेतन शर्मा वगैरह की बात करता है। खुश हो जाता है । कभी मैं कह देता हूँ: 'तुम्हारा बागीचा सूख गया, सोनू ! आज तो टेबिल पर फूल ही नहीं हैं ।' वह रोना बंद करके कहता है : 'अरे, मेरा बागीचा कभी नहीं सूख सकता । क्या बात करते हो । अभी फूल लाता हूँ ।' वह उत्साह से फूल लाता है और टेबिल पर बड़ी खुशी से सजाता है। हमारे लोग एक तो बाल मनोविज्ञान नहीं समझते। फिर परेशान रहते हैं। काम में रहते हैं । वे एक-दो चाँटे मारकर इस समस्या को फौरन हल कर देना चाहते हैं। पर बच्चे का भीतर कितना हिस्सा मरता है। उसके विकास पर बुरा असर पड़ता है । उसे सज़ा की आदत पड़ती है। वह बड़ा होकर नौकरी करता है तो गैर-ज़िम्मेदारी से काम करता है और डाँट या दूसरी सज़ा के बिना काम नहीं करता ।

मैं खुद बारह साल अध्यापक रहा। याद करता हूँ तो मैंने भी कभी-कभी लड़कों को पीटा था । पर बहुत कम। एक घटना को मैं अब भी याद करता हूँ, तो बड़ी पीड़ा होती है । मैं माडल हाई स्कूल में छठवीं कक्षा में पढ़ाता था। एक चपरासी का लड़का था। वह लगातार चार दिन नहीं आया । छुट्टी का आवेदन भी नहीं था । उसने फीस भी नहीं चुकाई थी । पाँचवें दिन वह आया और बहुत उदास अपनी जगह बैठ गया। मैं उसके पास गया और बोला : 'अरे, चार दिन तुम क्यों नहीं आए ? फीस भी नहीं पटाई । नाम कट जाएगा । बोल, कहाँ गायब हो गया था ? ' वह नीचा सिर किए खड़ा रहा। मैंने तीन बार उससे पूछा, पर वह वैसा ही खड़ा रहा। मुझे गुस्सा आ गया। मैंने डाँटा : 'अरे, कुछ बोलता भी नहीं है।' और एक चाँटा मार दिया। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। धीरे-से बोला : 'सर, पिता जी की मृत्यु हो गई ।' अब मेरी हालत बहुत खराब हो गई । मुझे जैसे सौ जूते पड़ गए हों। आत्मग्लानि से मैं निश्चेत - सा हो गया । इतनी पीड़ा हुई कि मुझे लगा मैं पूरी कक्षा के सामने रो पडूंगा। मैं फौरन बाथरूम गया और वहाँ रोता रहा ।

मैं आगे की पढ़ाई के लिए टिमरनी भेजा गया। वहाँ मेरी बुआ थी। उनका बड़ा बेटा कांस्टेबल था और परिवार बड़ा था। मेरे पिता सहायता करते रहते थे । एक तरह से संयुक्त परिवार - जैसा था। आगे तो जब मेरे माता-पिता भी टिमरनी आ गए, तो सब साथ रहने लगे। मेरी बुआ अद्भुत थी। बड़े जीवट की । घबड़ाती नहीं थी । उसके मुँह से अक्सर यह बात निकलती थी: 'कोई चिंता नहीं । सब हो जाएगा।' पचास साल पहले की उस ब्राह्मण वृद्धा ने मेरे सहपाठी एक मुसलमान लड़के को तीन महीने घर में रख लिया- घर के लड़के की तरह । कोई छुआछूत नहीं । बस, उसके खाने के बर्तन अलग रहते थे । पर यह अनवर को नहीं मालूम था ।

हमारे पड़ोस में एक वृद्ध दंपती रहते थे । वृद्ध पडोसी अद्भुत आदमी थे । म रहते । मुझे पता नहीं, उन्होंने क्या धंधा किया होगा। भोपाल राज्य में `शायद पटवारी थे या कहीं कुछ खेती करते थे । बहरहाल अब वे कुछ नहीं करते थे। उन्हें अफीम खाने की आदत थी। शाम होते ही वे अफीम माँगने लगते । वृद्धा कभी कह देती : 'हाँ, लाती हूँ। पैसे का इंतजाम भी तो करना पड़ता है।' चिल्लाते : 'पैसे अपने उस भाई से लिया कर न । साला, मुझे अफीम नहीं खिला सकता था तो अपनी बहिन की शादी मुझसे क्यों की । जब अफीम चढ़ जाती तो वे अँगुलियों से पलँग के पटिए पर ताल देकर गाने लगते :

मुख से न बोले कान्हा
बाजूबंद खोले
कान्हा बाजूबंद खोले । '

रोज़ यही गाते । वृद्धा कहती: 'बाजूबंद खुल गए। अब खाना खा लो और सो जाओ । ' हमें इस दृश्य में बड़ा मज़ा आता।

'बाजूबंद खोल' से मुझे कुछ साल पहले का एक मामला याद आ गया । मेरे एक परिचित थे, जो सड़क किनारे मकान में ऊपर की मंज़िल पर रहते थे। उनका लड़का नौकरी करता था। वह अर्द्धविक्षिप्त जैसी हरकतें करता । रात को सोता नहीं। एक-दो बजे छोटे भाई से कहता कि मुझे स्कूटर पर घुमाओ । कभी सौ रुपए का साबुन ले आता। कभी कहता : 'सामने से सात मुर्दे निकले हैं अभी । मैं आज ऑफिस नहीं जाऊँगा ।' उसके पिता बहुत इलाज कराते थे । एक दिन मैंने उनसे कहा : 'लड़के की शादी कर दीजिए।' उन्होंने कहा : 'शादी की उम्र में तो इनकार करता रहा। अब सैंतीस साल का हो गया है । लड़की मिल भी गई और यह ठीक नहीं हुआ तो समस्या और विकट हो जाएगी। वैसे उसकी शादी के बारे में मैं भी साल भर से सोच रहा हूँ । आप भी यही कहते हैं ।' वे आगरा-दिल्ली और अपनी रिश्तेदारी में गए और पंद्रह दिनों में लड़के की शादी कर लाए। 3-4 दिन बाद मैंने देखा कि लड़का छत की मुँडेर से टिके हुए गा रहा है :

जब साँझ ढले आना
जब दीप जले आना

दूसरे दिन मैंने उसके पिता से पूछा कि अब कैसा है। उन्होंने कहा कि अब बिलकुल ठीक है । मैंने कहा: 'हाँ, मैंने उसे कल शाम छत पर गाते देखा था-

जब साँझ ढले आना
जब दीप जले आना ।

वे सज्जन बहुत हँसे ।

एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल था वह । डिस्ट्रिक्ट काउंसिल का स्कूल था। वहाँ कांग्रेस का क़ब्ज़ा था । इसलिए अंग्रेजी शासन होते हुए भी कई अध्यापक गाँधी टोपी पहनते थे। बाद में जब 1937 में प्रदेश में कॉंग्रेस की सरकार बनी तब तो हाई स्कूल के कई अध्यापक गाँधी टोपी पहनने लगे । 1938 में हमारे क़स्बे की काँग्रेस कमेटी के सचिव एक अध्यापक ही थे। मैं सहायक सचिव था: मैं तब दसवीं कक्षा का छात्र था और भाषण बढ़िया देता था। वे अध्यापक 'दाँत निपोर' आदमी थे। 'हें हें' करते रहते । लोकल बोर्ड के स्कूल में अध्यापक थे । लोकल बोर्ड चेयरमैन हमारे बड़े नेता थे। उनके पास सलाह करने जाते तो अध्यापक सचिव पीले दाँत निपोरकर कहते : 'भैया हुन ( चेयरमैन) जैसों आदेस दें वैसों ही करनौ चैये ।' अब मेरी राजनैतिक ईमानदारी बताऊँ । 1937 में मैं कॉंग्रेस का स्वयंसेवक था । 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा' - राष्ट्रीय गान गानेवाले गुट में था। पर हमारे स्कूल के मैनेजर 1937 के चुनाव में विधान सभा के लिए काँग्रेस के खिलाफ खड़े हुए। तो दिन को तो मैं काँग्रेस की चिटें बाँटता था और रात को मैनेजर की चिटें बनाता । 1937 में कॉंग्रेस की सरकार बन गई, तब जेल जाने का डर नहीं रहा । डटकर काँग्रेस का काम किया । अपना कुल इतना राजनैतिक जीवन रहा ।

मिडिल स्कूल और फिर प्राइवेट हाई स्कूल में कई तरह के अध्यापक मिले । पाँचवीं में अंग्रेज़ी के अध्यापक छड़ी लेकर कक्षा में घूमते रहते थे । जिस खिड़की के पास पहुँचते उसी पर नाक का मैल निकालकर चिपका देते और पास बैठे लड़के को अकारण ही छड़ी मार देते। गनीमत है, वे कुल तीन महीने रहे । वरना वे कभी घर से नाक साफ करके नहीं आते और हम लोग पिटते । फिर बहुत ही सौम्य अध्यापक आए - गोखले । वे छड़ी रखते ही नहीं थे । बड़े प्यार से पढ़ाते थे ।

हाई स्कूल के मैनेजर पंजाबी थे । वे ज्यादातर पंजाबी शिक्षक बुलाते थे । पंजाबी तो बहुत बुद्धिमान होते हैं। पर हमारे मैनेजर शायद पुरातत्व विभाग से कहते होंगे कि ज़मीन में से खोदकर विचित्र चीज़ें भेजो। एक हिंदी के अध्यापक आए। पंजाब में तब हिंदी 'प्रभाकर' की डिग्री मिलती थी । यह बी. ए. के बराबर मानी जाती थी। ये सपताल मास्साब हिंदी में कोरे ही थे । आदमी अच्छे थे । कह देते थे - यह हम नहीं जानते। हम तो 'परभाकर' हैं जी। बिहारी का यह दोहा उन्होंने पढ़ाया:

मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरी सोय
जा तन की झांई पड़े श्याम हरित द्युति होय ।

सतपाल जी ने 'सोय' का अर्थ सोना ले लिया, जबकि उसका अर्थ है 'वही' । सोने का अर्थ लेकर उन्होंने राधा-माधव को साथ सुलाकर भव बाधा हरवा । बड़े संकोच से मैंने कहा: 'सर, इसका यह अर्थ नहीं है । इसका सही अर्थ यह है।' उन्होंने कहा: 'आपका बताया अर्थ ही ठीक होगा। भई हम तो परभाकर' हैं जी ! ' वे मुसकराते रहते । कभी डाँटते नहीं । और जिस सहजता मे वह कहते 'हम तो परभाकर हैं जी,' तो हमें वे अच्छे लगते । दूसरे पंजाबी अध्यापक जो आए, वे लड़कों से कहते : 'ए, तुझे जूते मारूँगा ।' बीच में छुट्टी में वे किसी भी लड़के से कह देते : 'जा, गिलास में पानी भरकर ले जा और बाहर निंबू बिक रहे हैं, तो एक निंबू पानी में निचोड़कर ला ।' हमारे गणित के अध्यापक को कुछ नहीं आता था। वे हमें सवाल करने को किताब में से दे देते । हमसे नहीं बनता, तो जब वे पास से निकलते तो हम कहते : 'सर, यह सवाल नहीं बनता। बता दीजिए।' मास्साब हमारा कान मरोड़कर कहते : 'आसान है । डू इट ! डू इट !' असल में उन्हें खुद नहीं आता था। हमने उनका नाम 'डू इट मास्टर' रख दिया था। हमने एक प्रिय अध्यापक से पूछा कि इन्हें तो कुछ नहीं आता। मैनेजर ने इन्हें क्यों रख लिया ? उन्होंने समझाया : 'तुम लड़के लोग जानते नहीं हो कि मैनेजर को उनसे अपनी लड़की की शादी करनी है।'

एक बहुत अच्छे अध्यापक थे, ब्रजमोहन दीक्षित । होशंगाबाद में अभी रहते हैं। जबलपुर में पढ़े थे । भवानीप्रसाद मिश्र, भवानीप्रसाद तिवारी, रामेश्वर गुरु, मोहनलाल वाजपेयी आदि की मंडली के वरिष्ठ सदस्य थे । 'मन्ना भैया' कहलाते हैं। इसी मंडली में मैं आगे चलकर शामिल हुआ। पर 1939 में तो वे हमारे अत्यंत आदरणीय व प्रिय अध्यापक थे । वे नाटक कराते थे। खुद बढ़िया रोल करते थे। उस साल की रामलीला से तो उनका जयजयकार हो गया। वे बहुत भावुक और प्रभावशाली वक्ता थे। कस्बे में उनकी बहुत इज्ज़त थी।

पर दीक्षित मास्साब ने एक चमत्कारी काम किया। हमारे हेडमास्टर कन्या विद्यालय की प्रधान अध्यापिका से इश्क फरमा रहे थे। वह हमारे ही मुहल्ले में रहती थी। उससे थोड़ा आगे दीक्षित मास्साब रहते थे। एक रात हेडमास्टर साहब रमण हेतु नायिका के सदन में प्रवेशे तो मुहल्ले के लोग इकट्ठा हो गए । काफ़ी संख्या में क्रोधित मुहल्लेवाले चिल्ला रहे थे : 'अरे बाहर निकल । साले, बदचलन हेडमास्टर ! मुहल्ले को क्या चकलाघर समझ रखा है।' यह पक्का था कि साहब बहुत बुरी तरह पीटे जाते ।

तभी पोस्ट मास्टर मेहता ने कहा : 'अगर इन साहब को कोई बचा सकता है तो दीक्षित मास्टर साहब । उन्हें बुलाओ ।'

दीक्षित मास्साब आए। ऐसी मार्मिक अपील उन्होंने, इतनी भावुकता से की कि लोग वहाँ से चले गए। तब दीक्षित जी ने हेडमास्टर को बाहर निकाला और ताँगे पर बिठाकर घर पहुँचा आए ।

दूसरे दिन साहब स्कूल नहीं आए। बहुत बदनामी हो गई थी और मैनेजर ने उन्हें सस्पेंड कर दिया था। उनका वहाँ से चला जाना पक्का ही था। एक दिन तो वे घर में छिपे रहे ।

लेकिन वाह रे हेड मास्साब ! साहस या बेशर्मी की हद कर दी । स्कूल के पास पान का ठेला लिए एक आदमी बैठता था। वह लोगों के बैठने और गपशप करने की जगह थी । मैंने देखा - लुंगी पहने हेडमास्टर साहब मज़े से चले आ रहे हैं । उस घटना की कोई शर्म चेहरे पर नहीं । वे पानवाले के पास बैठ गए और बोले : 'खिला यार, एक डबल पान बढ़िया । ' उन्हें देखने के लिए आसपास बहुत लोग जमा हो गए । पर वाह रे हेडमास्टर ! वे लोगों से मज़ाक करते रहे ।

ऐसे तो हमारे हेडमास्टर हुए जिनसे सुसंस्कार लिए ।

(किताब : ‘हम इस उम्र से वाकिफ हैं’)

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