Ham Rakhel : (Hindi Story) : Amrit Rai
हम रखेल : अमृत राय (कहानी)
मानो अपनी अनहोनी मदिरता से चौंका देने वाले किसी सपने को देखकर ठिठक गया हूँ–
अभी अपने गाँव के फाग से लौटकर आया हूँ। रंग-अबीर गुलाल-कीचड़।
और मिला हूँ रजेसरी से जो नारी है, और महेसरी से जो नर है, और नन्देसरी से जो रखेल है, यानी नारी नहीं, नर नहीं, दोनों के बीच एक अधकचरा समझौता।
रजेसरी, महेसरी, नंदेसरी और मैं।
हमारे गाँव का पुराना क़ायदा है कि कुछ खास त्यौहारों पर आसपास के ज़िले-तहसील के जो लोग आ सकते हैं, आते हैं।
रजेसरी, जो कैशोर्य से उछलकर सीधे मातृत्व में जा ढेर हो गयी है, जिसे खुद अभी आँचल की ओट चाहिए और जो अपने पति के घने बाल वाले सीने में मुँह धँसाने के बाजय, माँ के वक्ष में लग जाना चाहती है। ऐसी रजेसरी। सात बरस उसकी शादी को हुए हैं, अब वह इक्कीस की है, कुछ माह कम।
महेसरी, जो पेशकार होने की आकांक्षा के झूले में बचपन से अपने को झुलाता रहा है अब तक पहले दुकड़हे चश्मे और सरकंडे की कलम से, अब तेल में चिपचिप जूते और चीकट कमीज़ से। पर व्यक्ति बदला नहीं है। वैसा ही है,अपने शिखर से चार हाथ दूर, मुख्तार का मुहर्रिर है। पेशे से लगा हुआ है, शहर में रहता है, वहाँ के क़ायदे-कानून का जानकार है, गाँववालों का राजा है। चाहे तो उन्हें सलाह दे सकता है, या अपनी नफ़रत से पीस सकता है।
और नन्देसरी–तो रखेल है। यानी उसका व्यक्तित्व उसके पास कहाँ, शरीर है। और जब केवल शरीर है तो रखेल का शरीर उघाड़ना कापुरुषता है। नारी का शरीर तो उघाड़ा भी जा सकता है, यहाँ तक कि मोह के साथ। पर रखेल का नहीं। मुझे डर है, विकृति के साँचे में पीसे जाते हुए उसके अंगों पर मेरी आंख से कहीं लोहू न टपक जाय। वह काठ भी तो नहीं है, नहीं तो कुर्सी-मेज की तरह उसकी भी रूपरेखा शौक से दे सकता था। वह तो मूर्त चीत्कार है, पर देखो तो काठ, गहर, ठक्-सी, भावहीन, बेबसी की बेबस दलील।
ये हैं, हम सब–आस-पास के चार-छः जिलों में झरबेरियों की तरह छिटके हुए। दो दिन को राग-रंग मनाने को साथ आ रहे हैं। कितना गाया, रसिया गाने, नवेली भौजाई मन मोह लिया री। कितना रंग उछाला, काला, पीला, गुलाबी, बैगनी, टेसू और कुछ बेरंग के रंग। बड़ा रस लिया। मुझे बड़ी खुशी हो रही है कि मन का सौदा करना भूला नहीं हूँ। अपने को दिया, दूसरे से लिया स्नेह। मानों कहीं एक ऐसे अजाने टापू पर जहाँ सभी अमित्र हों, आधे दर्जन आदमियों का एक गुच्छा एक-दूसरे में समा जाने को आतुर हो। हममें से कोई अभी दादी की भूत वाली कहानियों को भी नहीं भूला है जब कि बचपन में हम भूतों से डर कर अपनी भाभियों और बड़ी ब्याहता बहनों, बालपने में ही श्वेत वैधव्य को ढो ले चलने वाली फूफियों से लिपटकर भूत को ललकार देना चाहते थे, उसे ताल ठोंक चुनौती देना चाहते थे। भावनाओं का वह श्लथ भार अभी नहीं है, जिसे समझने का अवकाश आज मिला है। आज जब जीवन की चौहद्दी पर निकम्मेपन ने संगीनें गाड़ दी हैं। उन कहानियों के भूत तो बड़ी कसरत से आज भी यथार्थ में मिलते ही रहते हैं, बड़े-बडे खपरे जैसे दाँत वाले, माथे पर मेंढ़े की तरह सींग वाले, आदमी के खोपड़े के तसले लिये हुए, नयी जर्मन सिलवर कटोरियों जैसी चमकती, डब्बे जैसे आँख वाले, डरावने भूत। पर अब वे व्यक्ति तो कल्पना से भी बाहर जा पड़े हैं जिनसे लिपट, जिनके बूते हम इन भूतों को ललकारते। कुछ यही कमी पूरी करने को हम सब बचपन के साथी कुछ दिन साथ रह लेना चाहते हैं।
और परसों रात होलका जली थी। लकड़ी के कुन्दे अब भी सुलग रहे हैं, धुआँ दे रहे हैं, भक्तों को राख दे रहे हैं, अब भी, यानी जब हम सभी रजेसरी, महेसरी, नन्देसरी, मैं, दूसरी-दूसरी सवारियों पर चार दिशाओं को, तम्बू-खेमा उखाड़ कर चले जा रहे हैं–भूतों से पैतरेबाज़ी करने।
और नन्देसरी के लिए पालकी खड़ी है और दो कहार जो बेशर्मी में साव की कमी पूरी करते हैं। और नन्देसरी क्या कहे, उसके पास छिपाव क्या, ओट कहाँ। अनमनी वह, जो मुँह में जैसे राख लेकर पालकी में उठँग कर बैठ गयी है।
महेसरी भी चला गया है। रजेसरी अपने पति का इतंजार कर रही है।
एक साल बड़ी जल्दी से बीत गया है। मैं अबकी काफी जल्दी गाँव पहुँच गया हूँ। देखता हूँ–जैसे एक लौकी लेकर कोई उसमें बबूल का काटाँ बार-बार गोदे और उसे चलनी कर दे, ऐसा लगता है। आने के साथ ही कुछ खबरें मिली हैं–भूतों से पैतरेबाज़ी करने जो गये हैं उनके नाम भी तो दर्ज हैं। सुना रजेसरी का शौहर मर गया। मर गया, अच्छा हुआ, उसमें क्या। पर जिसमें उसका मरना अखरे, इसका वह जनमजुग्गी इन्तज़ाम कर गया है। मरने के पहले, न जाने किस गोलमाल से उसके दो बच्चे छीन कर उसकी ननद की हिफाजत में रख दिये गये हैं, और बाँट-बखरे में रजेसरी के हिस्से उसकी सबसे छोटी, दूध-पीती पियरिया पड़ी है। जायदाद का कोई हिस्सा भी वह रजेसरी के लिए नहीं छोड़ जा सका है क्योंकि उसे शुबहा हो गया था कि रजेसरी और उसके देवर में कोई बात है!
देखा, वह चली आ रही है। सफ़ेद।
पूछा–रजेसरी!... और शब्द मुँह में बन ही न सके, ज़रूरत भी न थी।
सुना नन्देसरी को उसके मालिक ने ठोकर मार कर निकाल दिया है क्योंकि उसे गर्भ रह गया। वह रखेल कैसी जो इसका इन्तज़ाम भी न कर सके।
देखा नन्देसरी अपनी तीन-चार माह की कमज़ोर लड़की लेकर चली आ रही है। कुछ बात तो करनी ही थी। उसके हाथ में पिटारी देख पूछा, क्यों नन्दी उसमें क्या है?
नन्दी ने लापरवाही से कहा–'बिंदी-टिकुली–मिस्सी...खोला, तो पीपल के गोदे।
नन्दी अब उसमें यहीं रहता है’ कह हँस पड़ी। व्यथा का एक समुंदर जैसे पछाड़ खाकर गिर पड़ा।
और जब मैंने बताया कि मालिक से झगड़ पडने के लिए मैं नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया हूँ, तो उसे बड़ा अचरज हुआ। राजनीति-वाजनीति वह क्या जाने पर उसे अचरज हुआ कि रखेल, रखेल ही है, चाहे वह मुझ-जैसा पढ़ा-लिखा और मुझ-जैसा मर्द ही क्यों न हो!
और हम एक-दूसरे में समवेदना खोजने लगे थे कि नंदेसरी ने बात बदल महेसरी की बहबूदी की शुभचिन्तना की क्योंकि हमसें से वही विकास के रास्ते पर चल सका है, हम में से-मैं और रजेसरी और महेसरी और नंदेसरी, जो सब नर नहीं, मादा नहीं, मनु के वंशज नहीं, रखेल हैं। नंदेसरी की आँखें डबडबा आयी थीं।