हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Ham Ik Umar Se Wakif Hain (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

संस्मरण लिखने का प्रस्ताव आया, तो अचानक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का यह शेर याद आ गया :

हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं अब न समझाओ
के: लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है ।

मैंने शेर का आरंभ का हिस्सा शीर्षक बना दिया हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं ।

न जाने क्यों उपचेतन से अचानक बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' की ये पंक्तियाँ भी कौंध उठीं :

हम विषपायी जनम के सहें अबोल कुबोल
नेक न मानत अनख हम जानत अपनो मोल ।

कहीं उपचेतन में जीवन संघर्ष के अनुभव, कड़वाहट, अपमान और उत्पीड़न, अन्याय, यातना की स्मृतियाँ होंगी। साथ ही विष को पचाकर जीने और लड़ने की स्मृति । और इसके साथ ही आत्मगौरव कि हमने टुच्ची बातों का | बुरा नहीं माना। हम अपनी कीमत जानते हैं। वह कीमत हम वसूलते हैं और तुम कभी हँसने और तकलीफ देनेवाले, अब अपने निर्लज्ज व्यक्तित्व के साथ वह कीमत देते हो, क्योंकि वह कीमत देकर अब तुम छोटे से थोड़ा बड़े होते हो । अनुभव मुझे बहुत हुए हैं कि जो कभी मेरी निंदा और उपहास करके बड़े बनते थे, वही अब यह कहकर बड़े बनते हैं कि दर्शन करके आ रहे हैं। मुझे इनकी दरिद्रता पर दया आती है और अटपटेपन पर हँसी। गुस्सा नहीं आता। पवित्र गुस्सा अत्यंत मूल्यवान और कारगर अस्त्र है। इसे मक्खियों पर बरबाद नही करना चाहिए ।

सचेत आदमी सीखना मरते दम तक नहीं छोड़ता। जो सीखने की उम्र में ही सीखना छोड़ देते हैं, वे मूर्खता व अहंकार के दयनीय जानवर हो जाते हैं। मैंने कहीं लिखा है कि आत्मविश्वास कई तरह का होता है। धन का, बल का, ज्ञान का । पर सबसे विकट आत्मविश्वास मूर्खता का होता है। देखिए, अपने आपको उद्धृत सिर्फ प्रभाकर माचवे नहीं करते, मैं भी करता हूँ ।

तो सीखना तो अंतिम क्षण तक खत्म नहीं होता। मगर एक स्टेज़ आती है, जब सिखानेवालों से चिढ़ आती है। यह सीख खोखली होती है । औपचारिक होती है । आत्महीन होती है। उच्चतर समझ का घमंड होती है। तब यह कि :

हम इक उम्र से वाकिफ हैं अब न समझाओ
के: लुत्फ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है ।

और:

ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई गम गुसार होता ।

( गालिब )

भाई मियाँ, हम समझे हुए हैं । हमने दुनिया देखी और समझी है । तुम पहली कक्षा की बातें एम.ए. के छात्र को क्यों समझा रहे हो । लुत्फ क्या है मेह्रबाँ और सितम क्या है, यह हम जानते हैं। दोनों भोगे हुए हैं। आप समझाने की तकलीफ गवारा क्यों करते हैं ।

'नवीन' कहते हैं - हम विषपायी जनम के ! यह माना कि जन्म से विषपायी रहे । मगर ख्वाहमख्वाह उद्देश्यरहित विष पीना भी बेवकूफी है। पीना ही पड़े तो पचा जाना और मोर्चे पर डटे रहना बहादुरी है। पर दो मानसिक बीमारियाँ होती हैं । एक है 'सेडिज़्म' - इसमें दूसरों को दुख देकर आदमी सुख का अनुभव करता है । दूसरी बीमारी है - 'मेसाफिज़्म' । इसमें खुद को दुख देकर, उसका ढिढोरा पीटकर सुख का अनुभव किया जाता है। समाजशास्त्री बताते हैं कि भारत में काफी सासें इन दोनों रोगों से पीड़ित होती हैं ।

यह जो लेखकों, कलाकारों का 'विषपान' वाला ढिढोरा है, इसमें 'मेसाफिज़्म' (स्वपीड़न प्रमोद) भी होता है। यह सही है कि सृजन की आंतरिक पीड़ा विकट होती है । इसे सर्जक के सिवा कोई नहीं समझ सकता । इतने साल मुझे लिखते हो गए, पर आज भी काग़ज़ पर कलम चलाना शुरू करता हूँ तो घबड़ाता हूँ । लगता है पहली बार लिख रहा हूँ । बहुत पहले 'पेरिस रिव्यू' में सौ प्रसिद्ध लेखकों का साक्षात्कार छपा था । लगभग सभी लेखकों ने कहा था : Writing is torture. I hate it. तो यह विषपान तो ज़रूरी है। मगर रूमानी विषपान ? यह दर्दनाक मगर हास्यास्पद होता है। किसने कहा था कि आप विकल जी या आकुल जी या बलिपंथी जी हो जाइए। किसने कहा था आपसे कि बाल बढ़ाइए, दाढ़ी मत बनाइए, स्वास्थ्य कोशिश करके बिगाड़िए, बौखलाए रहिए । किसके लिए ? किसके सिर पर अहसान लाद रहे हैं ? और आप सृजन क्या कर रहे हैं ? कलावती औरत चीख इतना रही है, जैसे भीमसेन पैदा कर रही हो, मगर निकाल रही है चुहिया ।

बड़े लेखकों में भी यह रूमानी आत्मघाती प्रवृत्ति पाई जाती है। विशेषकर उर्दू शायर बरबादी से अपने को महिमा मंडित करते हैं। फ़न के लिए कुरबान हो रहे हैं साहब ! मुरीद ऐसा वातावरण बनाते हैं कि बेचारा न मरता हो तो शराब पी-पीकर मर जाए। मेरा अनुभव है कि हस्बे - मामूल (नार्मल ) रहकर भी सृजन किया जा सकता है। मैं छोटा लेखक हूँ मगर मैंने अपने को त्याग और बलिदान की महिमा से मंडित नहीं किया। कुछ साल शराब ज़रूर पी। पर बाकी ज़िंदगी बिलकुल सामान्य रहा। बड़े-बड़े पारिवारिक दायित्व निबाहे । कई समाजसेवी संस्थाओं में ज़िम्मेदारी के पदों पर रहा - अभी भी हूँ। मैंने कोई त्याग, कोई बलिदान नहीं किया। मैं नकली कफ़न नहीं लपेटता । नौकरी की तो वेतन लिया। सिर्फ लिखने का काम किया तो दाम लिए । मैंने लिखकर किसी पर कोई अहसान नहीं किया। समाज पर मेरा कोई कर्ज नहीं है। लिखना मेरा अपना फैसला था। दुख भी भोगे तो वे अपने ही फैसले के नतीजे हैं। कमज़ोर पड़ा तो सताया भी गया। ताकतवर हो गया तो उन्हीं से चरणों पर माथा रखवाया । विषपान के बारे में इतना बहुत है ।

मैं न सेडिस्ट, न मेसाफिस्ट, न तपस्वी, न एबनार्मल, न कलंकभूषण, न अटपटा, न सनकी, न उचक्का - तो मेरी आत्मकथा या संस्मरण में धरा क्या है ? खाक! उबाऊ चीज़ ही होगी-सो पाठक भोगें ।

अब - जानत अपनो मोल ! ये आत्मविश्वास के बोल हैं। पर मोल के भी अलग-अलग संदर्भ होते हैं। 'नवीन' कहना यह चाहते हैं कि मैं अपनी अहमियत जानता हूँ। जो काम मैं कर रहा हूँ वह कितना महत्वपूर्ण है यह जानता हूँ। मैं अपना और अपने काम का मूल्य जानता हूँ । न जाननेवालों की मुझे परवाह नहीं ।

मगर यही न जाननेवाले बाजार भाव बनाते हैं। यही माल का विज्ञापन करते हैं और उसे खपाते हैं। बाजार भाव बदलते रहते हैं। साहित्य के मूल्य बदलते रहते हैं। हम जो लिखते हैं, उसका मूल्य हम जानते हैं। पर हम साहित्य में भी उसका मूल्य चाहते हैं और बाजार में भी । यह चाहना जायज है । वैसे कीमत घटती-बढ़ती है, इसके मुझे अनुभव बहुत हैं। मैंने शुरू से ही साहित्यशास्त्र के कोई बंधन नहीं माने। आचार्यों के चौखटे तोड़ डाले । मेरी लिखी हुई यह अगर कहानी नहीं मानते, तो परिभाषा बदल दो । यही नहीं, मुझे काफी जड़, दकियानूस, कट्टर, अविवेकी शास्त्रियों से भी लड़ाई लड़नी पड़ी। न ये नई वास्तविकता को ग्रहण कर सकते हैं, न नया सोच सकते हैं। दर्शन के फाटक पर चौकीदार बने बैठे हैं और दिनभर मक्खी उड़ाने की रोटी खाते हैं ।

मैं भारतीय क्लासिकों का शुरू से अध्येता रहा हूँ और इनका खुलकर उपयोग करता हूँ । मध्य युग के तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, कुंभनदास, रहीम आदि के संदर्भ और उद्धरण खूब देता हूँ। पर इन शास्त्रियों के पास जो सूचियाँ रखी हैं उनमें ये पतनशील, सामंती और जातिवादी हैं। सूरदास, पतनशील रूमानी थे । तुलसीदास घृणित जातिवादी और सामंती । और मैं- पुरातनवादी ! बहुत लड़ाइयाँ लड़ीं मैंने इन कवियों के लिए। तुलसीदास ने खुद जितनी लड़ाई लड़ी होगी उससे अधिक मैंने उनके लिए लड़ी। फिर मैं 'प्रथम पुरुष एक वचन' का प्रयोग करता हूँ। कुछ व्याकरणाचार्य प्रथम पुरुष को 'उत्तम पुरुष' कहते हैं। वे होंगे। मैं नहीं। मेरे लेखक में यह 'मैं' हरिशंकर परसाई नहीं है । पर तब और अब भी बहुत लोग मानते हैं कि यह 'मैं' खुद परसाई है, व्यक्तिनिष्ठ है, आत्म- मोहित है, व्यक्तिगत प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करता है । अब ज़रूर पिछले कुछ सालों से प्रबुद्ध समीक्षक यह समझने-समझाने में लगे हैं कि 'मैं' परसाई नहीं है । यह एक प्रतिनिधि व्यक्ति है ।

बहरहाल मुझे 5-6 साल लिखते हुए हो गए, तो मैंने एक समझदार माने जानेवाले प्रकाशक को पुस्तक की पांडुलिपि प्रकाशन की विनती के साथ दी । कुछ दिनों बाद उन्होंने पांडुलिपि लौटाते हुए कहा- माफ कीजिए, इन रचनाओं में पुरातनवाद है और व्यक्तिगत प्रतिक्रियाएँ हैं ।

तब 5-6 साल मैंने जिसे 'बुर्जुआ प्रेस' कहा जाता है, उसमें लगातार वैसी ही रचनाएँ सैकड़ों छपवाईं। शायद बुर्जुआ प्रेस ने भी मुझे वही समझा जो प्रगतिशीलों ने । मेरी तीन पुस्तकें भी बड़े प्रकाशकों ने प्रकाशित कीं। वे खूब बिक रही थीं। तब उन्हीं प्रकाशक ने एक दिन मुझसे कहा- हमें भी अपनी पुस्तक छापने का अवसर दीजिए न ! मैंने तपाक से कहा- आपको पुस्तक देने से क्या फायदा । बिक्री आपकी बहुत कम है। मुझे क्या रायल्टी मिलेगी? एक तरह से किताब कुएँ में डालना ही होगा। यह 'जानत अपनो मोल' का रहस्य । आप मोल सिर्फ जानिए ही नहीं, उसे मनवाइए भी। वसूलिए भी ।

संस्मरण लिखने की बात कुछ ऐसे ही उठी । आत्मकथा नहीं लिखूँगा । लोग यह मानते हैं कि आत्मकथा में सच छिपा लिया जाता है। जो व्यक्तित्व को महिमा दे, वही लिखा जाता है। मगर हर सच को लिखने की ज़रूरत भी क्या है ? अपनी हर टुच्ची हरकत का बयान आखिर क्यों करूँ ? उस टुच्ची हरकत का क्या महत्त्व है, पाठकों के लिए ? कोई उसका सामाजिक मूल्य है क्या ? नहीं है। तो फिर मैं सिर्फ यह अहंकार ही तो बताऊँगा कि मैं कितना महान् हूँ कि अपने टुच्चेपन को भी खोल देता हूँ। सार्थक सच हो तो लिखो । यही आग्रह है 'सत्य' के बारे में। सत्य- सत्य- सत्य ! आखिर सत्य है क्या ? बहुत पढ़ा मैंने । सुकरात भी, उपनिषद भी, टाल्सटाय भी, गाँधी भी । सत्य का आग्रह सबका है पर किसी ने सत्य को परिभाषित नहीं किया। मैं नहीं जानता कि सत्य क्या है ।

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं : सत्य तक पहुँचने का मार्ग कोई नहीं है । पर जो ऐसा अगम है, वह सत्य क्या है, यह कृष्णमूर्ति ने भी नहीं बताया। जिसे जानते ही नहीं उसके लिए मार्ग खोजना एक बेवकूफी है। और यह कहना कि उस तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं है, निरर्थक प्रलाप है। ये परा - चेतना की बातें हैं, जो `शायद पुपुल जयकर समझती हों, जिनका कृष्णमूर्ति की संगति में उदात्तीकरण हो चुका होगा ।

मुझे तो कृष्णमूर्ति के प्रसंग में यह याद आ गया कि वे एनी बेसेंट के दत्तक पुत्र थे । बर्नार्ड शा और एनी बेसेंट दोनों फेबियन सोसाइटी में थे और घनिष्ठ मित्र थे । यह मित्रता विवाह बननेवाली थी. पर कई कारणों से एनी बेसेंट शा मे कट गई। मज़दूरों की हड़ताल के समर्थन में फेबियन सोसाइटी की बैठक में शा ने बहुत लड़ाकू भाषण दिया। तय हुआ कि कल मज़दूरों के साथ फेबियन लोग जुलूस में होंगे। शा और एनी बेसेंट साथ थे। पुलिस ने 'बेटन' चलाए। एनी बेसेंट को सिर पर चोट लगी। उसने आसपास देखा तो शा गायब थे। शाम को वह शा के पास गई और कहा - "तुम भाग आए। यू आर ए कावर्ड ! " शा ने कहा : " इट इज बेटर टु बी ए कावर्ड दैन ए फूल ! " जब विश्वयात्रा के लिए बर्नार्ड शा निकले तो बंबई में तीन दिन रुके। एनी बेसेंट ने कृष्णमूर्ति से कहा कि तुम शा से मिलना। कृष्णमूर्ति मिले। परिचय दिया कि मैं एनी बेसेंट का दत्तक पुत्र हूँ । शा ने पूछा: "तुम्हारी माँ कैसी है ?" कृष्णमूर्ति ने कहा : "वैसे तो ठीक है पर कभी-कभी मानसिक रूप से कुछ गड़बड़ हो जाती है । " शा ने कहा : "ओह, शी नेव्हर हैड ए माइंड ! " बहुत क्रूर बात कही अहंकारी ने ।

बहरहाल संस्मरण लिखूँगा। मैं इनमें कम होऊँगा, मेरे साथ बदलता ज़माना ज्यादा होगा। लोग आत्मकथा और संस्मरण से आशा करते हैं कि हम सीखेंगे और हमें सही रास्ता मिलेगा। अपने और दूसरे के अनुभव से आदमी ज़रूर सीखता है, पर रास्ते अलग-अलग होते हैं । वन मेन्स फूड इज एनदर मेन्स पायज़न । मुझ पर कभी बहुत ज़ोर डाला गया कि अपनी ज़िंदगी का रास्ता दूसरों को बताऊँ । तब मैंने जो कहा था, वह तभी छप भी गया था। वह यह है :

यों तो मेरी ज़िंदगी चमत्कारों से भरी है, मगर कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जिससे मुझे प्रेरणा मिली हो या जिसके बयान से किसी को प्रेरणा मिले । साधारण आदमी के जीवन में आनेवाली स्थितियाँ ही मेरे जीवन में आईं, मगर मैंने साधारण आदमी से बदतर काम किया। जिन स्थितियों में आदमी व्यावहारिक विवेक से काम लेता है, मैंने अविवेक से काम लिया। दुनियादारी में विवेक का अर्थ है लाभ-हानि का हिसाब लगाकर अपनी सुरक्षा को निश्चित करनेवाला बोध । पर मैंने जहाँ बहादुरी दिखानी थी, वहाँ कायरता दिखाई । जहाँ कायरता फायदेमंद थी, वहाँ बहादुरी दिखा बैठा । जहाँ सधा हुआ आदमी खतरा नहीं उठाता, वहाँ मैं खतरा उठा बैठा। कुछ पिट-पिटाकर फिर आगे बढ़ गया। ऐसा मेरे पराक्रम से नहीं हुआ। लेखक बनने में भी कोई आकस्मिक घटना या प्रेरणा नहीं थी। ऐसा नहीं हुआ कि शैशव में माँ की गोद में टट्टी-पेशाब करके किलकारी मारी तो लोगों ने कहा: सुनो, बच्चा महाकाव्य बोल रहा है। ज़िंदगी भर, अब भी 35-40 साल कलम घिसते हो गए, पर जब लिखने बैठ जाता हूँ, हाथ-पाँव ठंडे पड़ जाते हैं। जो लिखा, बाद में पढ़ा तो उससे और अपने से नफरत हुई । पछतावा हुआ लिखने का । मगर जब लेखक बन ही गया, तब उस काम को पूरी ईमानदारी के साथ किया ।

दो बार नर्मदा नदी में डूबते - डूबते बचा। दो बार रेलगाड़ी से कटते कटते रह गया। एक बार हत्या से बचा और पिटाई से ही छूट गया। पहली बार तीन साल की उम्र में नर्मदा में डूबना दुर्घटना थी। दूसरी बार अविवेक के कारण मौत तक पहुँचा । विवेकशील आदमी पैसे का इंतजाम करके शादी तय करता है । पर मैंने पैसे के बिना दो बहनों की शादी तय कर दी। किसी चमत्कार से वे अच्छी तरह हो भी गईं। रोटी का विकल्प खोजे बिना नौकरियाँ छोड़ता गया । आखिरी नौकरी छोड़ने के तीन महीने बाद ही मेरी बहिन विधवा हो गई । वह जबलपुर रहने आ गई। मैंने बिना यह सोचे कि कल इन पाँच प्राणियों को क्या खिलाऊँगा, ज़िम्मेदारी ले ली। घर में एक दिन के आटा-दाल के भरोसे बीस सालों की ज़िम्मेदारी । चमत्कारों से यह काम भी पूरा हो गया। जब अभी तक काम चला है तो आगे क्यों नहीं चलेगा- इसी विश्वास पर चलता रहा। मेरे भीतर चार्ल्स डिकिन्स के डेविड कापर फील्ड का एक चरित्र मिस्टर मिकाबर बैठा है, जो मुफलिसी में भी मस्त रहता है और कहता है- 'समथिंग विल टर्न अप! कुछ हो जाएगा। 'जिस लिखने के कारण पिटा, वह न लिखता तब भी चलता । उसे लिखने से कोई क्रांति तो हो नहीं गई। पर लिख दिया और पिट गया। पीटनेवालों ने सोचा होगा कि अब यह हमारे खिलाफ नहीं लिखेगा । पर मैं अभी भी उनके खिलाफ लिख रहा हूँ। यह भी अविवेक हुआ ।

इन सब चीजों से कोई अगर प्रेरणा ले तो वह मज़े में जिंदगी बरबाद कर सकता है। मुझे कोई एतराज़ नहीं ।

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