हल्ला (कहानी) : राजनारायण बोहरे

Halla (Hindi Story) : Rajnarayan Bohare

सांझ ढल रही थी कि फिर कोलाहल हुआ। ...उनका दिल फिर से कांप उठा।

तहसीलदार होने के बावजूद वे अपने आपको आज भी किसान का बेटा मानते हैं। किसानों से बेहद प्यार है उन्हें । जिस गांव जाते हैं सरकारी योजनाओं की तमाम जानकारियों से वाकिफ कराते हें वे हर आदमी को। उन्हें पता है कि जो किसान उनके पास अपने खेत के मुकदमें के सिलसिले में वकील और तहसील के बाबू के पास रिरया रहा है उसने यहां आते वक्त अपनी मां या पत्नी के पांव के आंवले या हाथ के कंगन गिरवी रखे हैं। साथ के सारे अफसर उन्हें सनकी और सिरफिरा कहते हैं और वे किसानों का एक भी पैसा छूने से कांप जाते हैं।

अपनी तरफ से तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं, सब कुछ ऊपर से तय हो कर आया था। आदेश के मुताबिक ही तो उन्होंने गांव-गांव जाकर इश्तहार बँटबाये, तकावी वसूली कराने वाले गांव के आखिरी कारिंदे पटेल की मार्फत घर-घर जाकर खबर पहुँचाई कि फसल का समय है भाइयों, तहसील के रिकॉर्ड में अपने बाप-दादा के जमाने से चला आ बकाया पूरा नही तो आधा-पद्दा ही जमा करादे। ।

सो, लग रहा था कि अबकी हल्ला में सारा लगान बेबांक हो जायगा उनकी तहसील का।...जिस दिन से सरकार ने लगान वसूली में सख्ती अख्तियार करने की ठानी उसी दिन से सूबे के कुलुक वर्ग के पेट में दर्द पैदा हो गया। कुलुक यानी कि वे अमीरजादे किसान, जिन्हे विरासत में हजारों एकड़ खेती मिली, गांव में हुकूमत चलाने के खानदानी पद मिले और जरूरत पड़ने पर सौ-पचास लट्ठ और बंदूक उठाने वाले पालतू चमचे भी। उन सबने एकराय हो कर तय कर लिया कि सरकार को एक धेला नहीं देंगे हम।... और उन्होंने अपनी बंदूक की नाल धर दी उस गरीब किसान के कंधे पर जो अपने दो बैलों के सहारे पूरे परिवार का भरण-पोषण कर रहा था ।

तहसील में उगे नये किसानों के उस कुलक संगठन ने कह दिया कि जिस दिन से सरकार लगान वसूली का अभियन चलाना चाहती है उसी दिन से किसान अपना हल्ला अभियान आरंभ करदेंगे।

‘हल्ला’ एकदम नया लफ्ज था सरकारी कारिंदों के लिए। अब तक प्रदर्शन, धरना, हड़ताल और अनशन तो सुना था लेकिन हल्ला क्या है? सब सहम गए थे। तब हिन्दी के बुढ़ियाते प्रोफेसरों और दीमक खाई डिक्शनरीयों में इस शब्द के अर्थ खोजे जाने लगे, लेकिन जो अर्थ में किताब में मिलता उससे मौजूदा हालात का कोई साम्य न देख परेशां हो चले थे सब। नीचे से ऊपर तक सबने सोचा और सरकारी निज़ाम की आमफहम आदत के चलते शुतरमुर्ग की तरह जमीन में गर्दन गाड़कर लेट गए सब।

पटवारी, पटेल और कोटवारों से नई नई खबरें मिल रही थीं। आन्दोलन के वास्ते किसानों को खद्दर के कुर्ता-धोती बांटे जा रहे हैं हर गांव में दो-दो ट्राली भरके नई लाठियां पहुंचाई गई हैं। घबरा ही उठे बजाज साहब।

कलेक्टर के बंगले पर सुबह आठ बजे ही जा पहुंचे थे वे और उन्होंने मातहतों से प्राप्त अपनी तहसील के ताजा हालात की जानकारी विस्तार से सुनाई तो कलेक्टर गंभीर हो गए थे। उसी गंभीरता का परिणाम था कि तहसील कार्यालय के चारों ओर पुलिस आ डटी।

बजाज साहब सुबह दस बजे अपने इजलास मे आए तो देखा, कि पुलिस ने सुरक्षा के चार घेरे बनाये हैं उनके इजलास के चहं ओर-दस मीटर, पचास, सौ और दो सौ मीटर पर। चप्पे चप्पे पर पुलिस के सिपाही तैनात थे। सिर पर हेलमेट, बांये हाथ में ढाल नुमा बांस की जाली और दांये हाथ में मजबूत पुलिसया लाठी लिये था हरेक पुलिसमेन। इंतजाम देख कर

क्षण भर को निश्चिंत हुए। डर के मारे उनका एक भी चपरासी और बाबू नही आया था, सिर्फ माल जमादार तोरनसिंह अपने कमरे में पुलिस सिपाही के साथ बैठा अपने रजिस्टरों में इंद्राज कर रहा था। उन्होंने अलमारी खोली और लगान वसूली के रसीद कट्टे उठाकर अपनी टेबिल पर रखे। पहली रसीद में नया कार्बन फंसाया और एक खुला हुआ पेन उसके ऊपर रख दिया। शोरगुल हुआ तो उनका ध्यान फिर भंग हुआ। पुलिस की खाकी वर्र्दी के उस पार ट्रालियों पर ट्रालियां आती जा रही थीं और उनमें भकभकाते कुर्ता-धोती धारी तमाम लोग उतर रहे थे, जिनके हाथों में लाठियां लहरा रहीं थीं।

सहसा सामने का पुलिस घेरा टूटता सा लगा उन्हें। एस.डी.ओ.पी. साहब उधर ही दौड़े। बजाज साहब ने भी ध्यान दिया उधर। हां- कुछ लोग इस तरफ आते दिख तो रहे हैं! उनकी घबराहट बढ़ी।

पुलिस वालों के घेरे में आठ-दस निहत्थे किसान उनके इजलास की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। आगे आगे एस.डी.ओ.पी. सिंह साहब भी थे। वे मुड़े और अपने इजलास में घुस आये फिर अपनी सीट पर जा बैठे। पांच मिनट का समय पांच घंटे सा लगा उन्हें। सिंह साहब उस जत्थे के साथ उनके कमरे मे प्रवेश कर रहे थे और पुलिस के जवान बाहर ही खड़े रह गए थे।

ये लोग चाहते हैं कि पांच मिनट आपसे बातचीत करें और प्रतीक स्वरूप कुछ लगान जमा करा दें!’’ निर्पेक्ष स्वर में सिंह साहब ने उन्हें सूचना दी।

‘‘बोलिए’’ बजाज साहब उन किसानो से मुखातिब हुए। ताज्जुब कि ज्यादातर चेहरों को पहली बार देख रहे थे अपनी तहसील में। उनमें से किसान तो एक भी नहीं दिख रहा था।

‘‘तहसीलदार साहब, हम लोग आपके या सरकार के दुश्मन नहीं हैं। हमने तो सदा से आपकी मदद की है।’’ अखैपुर का सरपंच बालकिसन उन सबका नेतृत्व करता दिख रहा था। उन्हें ताज्जुब था कि जिस आदमी के खिलाफ पंचायत के सरकारी धन के दुरुपयोग और गबन तक की पुलिस रपट दर्ज है वह आज किसानों की नुमाइंदगी करने आया है।

‘‘तो कौन दुश्मन है आपका ’ आवाज में कुछ ज्यादा ही नर्मी लाते हुए बजाज साहब मुस्कराए। ’आज तो आप लगान जमा कराने की बात करें।’’

‘‘लगान की ऐसी-तैसी रे बजाज के बच्चे। हरामजादे तैने बिगाड़े सब लोगों को..’’ सहसा चीख उठा था बालकिसन, .और जब तक कोई कुछ समझता या करता तब तक बालकिसन ने बजाज साहब के हाथ पकड़ लिए थे और उसके दूसरे साथी ने अपने कुर्ते की जेब से एक टूयूब सी निकालकर अपने हाथों में मल ली थी और फिर वे ही हाथ बजाज साहब के चेहरे पर फेरने लगा था। एक अजीब सी बदबू महसूस करते बजाज साहब ने देखा कि उनके चेहरे पर फिर रही हथेलियों में गहरा काला रंग लगा है। तब तक पुलिस के जवान भी इजलास में दाखिल होकर अपना मोर्चा संभाल चुके थे। जाने कितनी ही देर तक वे ऐसे ही बेठे रहे अपनी सीट पर फिर तब थोड़ा जागे जब कि एस.डी.ओ.पी. साहब ने आकर उनका कंधा थपथपाया था, ‘‘माइंड मत करो पार्टनर, अपने देश की डेमोक्रेसी में ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं।... उस बालकिसन और उसके साथियों की ऐसी जबर्दस्त पिटाई हुई है कि साले ताजिन्दगी याद रखेंगे।’’

उन्हें बरबस उठा ही लिया सिंह साहब ने और जवानों के घेरे में ही एक ओर से निकाल कर जीप में बैठाया और क्वार्टर तक छोड़ने गए।

क्वार्टर पर पत्नी डरी हुई थीं और बच्चे सहमे हुए। सहसा कोरें भीग गईं बजाज साहब कीं। वे चुपचाप अपने कमरे मे घुसे और भीतर से किबाड़ बंद कर लिए।

कमरे के बीचोंबीच खड़े होकर उन्हें लगा कि सबकुछ खत्म हो चुका है उनका। अब बचा क्या है जिन्दगी में? कल उनके मातहत इस कस्बे के लोग, खबरनवीस, वकील और दूसरे वाशिंदे जानेंगे उनके साथ घटे अपमानजनक स्थिति के बारे में तो क्या हैसियत रह जायेगी उन सबकी नजरों में उनकी? ...रिश्तेदार सुनेंगे तो क्या कहेंगे? ..पत्नी और बच्चे भी क्या सोचेंगे इस बाबत ! ...कैसे जियेंगे ऐेसी बोझल जिंदगी? उनकी नजरों ने रस्सी का कोई टुकड़ा ढूढ़ना चाहा जिसे गले में डाल कर पंखें से लटक जाऐं वे। फिर विचार आया कि तार का कोई टुकड़ा खोज लें जिसे बिजली के सॉकिट में लगा कर

अपने माथे से चिपका लें और एक ही झटके में मुक्ति पा जांय । ...या फिर कोई ब्लेड मिल जाय जिससे माथे और हाथ पांव की नस काट कर सारा खून बहा दें...। न रस्सी मिली न तार और न ही कोई ब्लेड। गहरी सांस ली उन्होंने, एक आह जैसी सांस। फिर एक और सांस, एक और। और इन तीन सांसों में ही मस्तिष्क हल्का सा होता लगा उन्हें तो चौंके वे। उन्हांने कई सांसे ली पूरी पूरी।

...पत्नी को भीतर से ही सोने को कह दिया था उन्होंने और नंगी जमीन पर ज्यों के त्यों लेट गए थे। पता नहीं कब तक दुःस्वप्न से चलते रहे थे और कब नींद आई थी। जागे तो अवसाद कुछ कम था। बाहर सुबह हो रही थी। वे किवाड़ खोलकर बाहर आए और उदास मुस्कान के साथ दोनों बेटों के सिर पर हाथ फेरा ।

बुझे मन से दिनचर्या आरंभ करने के पहले अपने फोन का रिसीवर उठा कर रख दिया उन्होंने फिर मोबाइल का स्विच आफ किया।

तब चार बजे होंगे। बाहर सूरज ढल रहा था कि उनके बैठक कक्ष में डिप्टीकलेक्टर मिश्राजी ने तीन-चार दीगर डिपार्टमेंट्स के अफसरों के साथ प्रवेश किया। वे अनमने हो उठे। नजर जमीन पर चिपक गई।

‘‘आपके अभिनंदन का जल्सा है बजाज साहब। इसी के लिए आपको दावत देने आए हैं हम सब।’’ मिश्राजी ने अप्रत्याशित बात कही। ‘‘ आफीसर ऐसोसियेसन एक खास जल्सा कर रही है आज। बहुत बहादुर व्यक्ति हैं आप। आपने अपने पद और गरिमा का पूरा ख्याल रखा।’’ एक दूसरा अफसर कह रहा था...। याद आया वह संभवतः मछली विभाग का जिलाधिकारी था।
‘‘आपको आना पड़ेगा बजाज साहब!’’ कहते हुए वे सब उठ गए।

अनिच्छा के बावजूद जल्से में जाना पड़ा बजाज साहब को बिना किसी तामझाम और माइक स्पीकर वाले इस कार्यक्रम में सिर्फ दर्जन भर प्रोफेसर, चार-पांच वकील और पच्चीस तीस की संख्या में दीगर विभागों के अफसर हाजिर थे। वहां मौजूद ज्यादातर लोग बोले और सबने बजाज साहब की तुलना सरहद पर डटे फौजी अफसर से की। सबके भाषण का आशय यही था कि वे सब ऐसे कृत्यों की निंदा करते हैं।

बाहर गगनभेदी नारे थे, ‘बजाज साहबऽ ...जिंदाबाद!’

सहज ही यक़ीन नहीं कानों पर... खिड़की से झांके तो पाया कि जिले के तमाम विभागों के चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों का एक बड़ा सा हुजूम हाजिर है उनके क्वार्टर के सामने।

‘‘साहबऽ!.... बजाज-साहबऽ!’ तहसील का माल जमादार तोरनसिंह उन्हें पूरे आदर से पुकार रहा था।

क्वार्टर पर तैनात पुलिस का दारोगा उस समूह को नियंत्रित कर रहा था जबकि वे लोग बजाज साहब से मिलने की गुजारिश कर रहे थे।

वे बाहर आ गए और उदास मुसकान के साथ बोले, ‘‘क्यों तोरन! क्या बात है? इन सब लोगों को क्यों इकट्ठा कर रखा है तुमने?’’

‘‘साहब, उन गुण्डों ने आपकी नहीं, हम सब कर्मचारियों की बेइज्जती की है... हम लोग आपके साथ हुए सलूक का बदला लेने जा रहे हैं।’’ तोरन तैश में था।

बजाज साहब चुप खड़े ताक रहे थे। तोरन कहता जा रहा था, ‘‘उनकी करनी का मजा चखा दंगे हम-उन्हें। ...आप खुद का बनाया कोई कायदा नहीं पाल रहे थे, सरकार के हुकुम का पालन कर रहे थे! हमने चूड़ियाँ नहीं पहनी हैं साहब। उस दिन उनका हल्ला था आज हमारा हल्ला है।...’’
वह आगे बढ़ा और उनके पांव छूकर लोट गया।

वे लोग अपने आकाशभेदी नारों के साथ वापस जा रहे थे और हक्के-बक्के खड़े बजाज साहब आंख में आंसू भरे उन सबकी तनी पीठ और उछलते हाथ देख रहे थे, जिनको रोज रोज बाबू और अफसरो से हजार झिड़कियां और लाखों ताने मिलते हैं। ...दृश्य उनकी आंखों में उतर आये थे।

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