हल, ट्रैक्टर और पहली बौछार (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Hal Tractor Aur Pehli Bauchhar (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

एक दिन एक मित्र ने एक विचित्र सवाल पूछा। वे अध्यापक हैं और अध्यापक वह होता है, जिसके पास हर सवाल का कोई न कोई 'रेडीमेड' उत्तर होना ही चाहिए। जो सवाल था, उसका एक उत्तर मेरे अध्यापक मित्र के पास पहले से था, पर उसके बारे में वे पूरी तरह आश्वस्त न थे। उनकी जिज्ञासा नागार्जुन की एक कविता की व्याख्या को लेकर थी । कविता का शीर्षक था 'मेघ बजे'- वर्षा का एक सहज-सरल-सा संगीतमय स्तवन । उन्होंने पुस्तक खोली और मेरे सामने कविता की अन्तिम पंक्ति रख दी, जो इस प्रकार थी - 'हल का है अभिनन्दन ! मेघ बजे।' छापे की हल्की-सी त्रुटि के कारण उन्होंने 'हल का' हो ‘हलका' पढ़ लिया था और इस तरह पूरी पंक्ति की एक व्याख्या भी खोज ली थी, जो उनके अनुसार आधुनिक मन से मेल खाती थी। उनका मानना था कि इस पंक्ति में एक विलक्षण आधुनिक बोध है, जो प्रकृति से विच्छिन्नता के कारण पैदा हुआ है । सो, यहाँ वर्षा का आगम तो है, पर उसके लिए स्वागत का वह उल्लास नहीं है, जो पहले हुआ करता था - अस्तु 'हलका है अभिनन्दन।' मैंने जब उनसे 'हल' और 'का' को अलग-अलग करके पढ़ने का आग्रह किया तो यह उन्हें थोड़ा अटपटा लगा। पर एक किसान के लिए वर्षा का महत्त्व और आषाढ़ की पहली बौछार के साथ कृषि - समाज में हल के पूजन के सांस्कृतिक सन्दर्भ की ओर मैंने उनका ध्यान आकृष्ट किया तो वे कुछ आश्वस्त हुए। पर अब भी उनका मन पहली व्याख्या में ही अटका हुआ था । जब वे चले गए तो मैं देर तक सोचता रहा कि मेरे अध्यापक मित्र ने उस कविता का - खासतौर से उसकी अन्तिम पंक्ति का जो पाठ अपने लिए रच लिया था, वह क्या एकदम आकस्मिक था ? मुझे लगा, वह एक ऐसे मन के द्वारा रचा गया पाठ है जो हल-संस्कृति से, जिसकी जड़ें कृषि - जीवन की मिट्टी में गहरे धँसी हुई थीं, बहुत दूर आ चुका है-उससे खंडित और लगभग छिन्नमूल । वर्षा की बूँदें ऐसे मन के लिए मौसम की एक रस्मी कार्रवाई की तरह होती हैं - मौसम कार्यालय की भविष्यवाणी की एक तरल-सी पुष्टि । पर इस बात के लिए उस मन को दोष नहीं दिया जा सकता, जो आधुनिकता की अनेक सरणियों से होकर यहाँ तक पहुँचा है। यह वही मन है, जिसके लिए प्रकृति महज पर्यावरण की चिन्ता होकर रह गई है।

पर्यावरण की चिन्ता वस्तुतः मनुष्य के अपने अस्तित्व के संकट की चिन्ता है - प्रकृति जिसमें महज आनुषंगिक है। ऐसा कहकर मैं उस आन्दोलन के महत्त्व को घटाना नहीं चाहता। मुझे यह मानने में भी कोई हिचक नहीं कि इस आन्दोलन की अन्तर्वस्तु में एक गहरी सच्चाई है, जो विकास की विसंगति की पीड़ा से पैदा हुई है। पर मेरी परेशानी यह है कि इस आन्दोलन को कुछेक अपवादों को छोड़कर, वह जिसके अभाव में वह अब भी बौद्धिक वर्ग की परिधि को अतिक्रान्त नहीं कर सका है। यह सही है कि बहुत-सी प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं। बहुत-सी वनस्पतियाँ या तो नष्ट हो चुकी हैं या धीरे-धीरे नष्ट हो रही हैं। अभी कल ही कोई बता रहा था कि गाँवों से कौ लगभग गायब हो चुके हैं - शहरों से तो शायद वे पहले ही गायब हो चुके थे । पर यह भी सही है कि मनुष्य के वर्षा या किसी भी मौसम से जुड़ने की जैविक क्षमता में भी दरार पड़ी है। पहले कविता में एक चीज होती थी, जिसे प्रकृति चित्रण कहा जाता था - गोया प्रकृति बृहत्तर जीवन-चक्र से अलग कोई चीज है । कालिदास ने मेघदूत में मेघ और उससे जुड़े अनुषंगों को जिस तरह प्रस्तुत किया है, वह प्रकृति-चित्रण नहीं, जीवन को देखने की एक सहज दृष्टि है, जिसमें मेघ और मनुष्य आवयविक ढंग से जुड़े हुए हैं। इस सहसम्बन्ध का एक भी तार ढीला होता तो 'मेघदूत' नहीं लिखा जा सकता था ।

पर बात मेघ के अभिनन्दन से शुरू हुई थी, जिसको लेकर मेरे अध्यापक मित्र के मन में कुछ शंका थी। वे हल की धुँधली-सी स्मृति और अपने भीतर की शंका, दोनों को साथ-साथ लेकर मेरे पास से गए थे। पर अभी कुछ दिन पहले एक स्थानीय मन्दिर के द्वार पर मैंने एक अद्भुत दृश्य देखा । मन्दिर के अहाते के बाहर एक ट्रैक्टर खड़ा था, जिसको देखने से लगता था कि वह अभी-अभी कारखाने से बाहर लाया गया है। पूछने पर पता चला, वह मन्दिर के द्वार पर पूजन के लिए लाया गया था। मैं कुछ देर के लिए रुक गया। देखा - मन्दिर के भीतर से कोई पंडितनुमा व्यक्ति बाहर आया । उसने ट्रैक्टर पर पल्लव से जल छिड़का, कुछ मन्त्र पढ़े और जो एक आधुनिक वेषधारी व्यक्ति बगल में खड़ा था, उसे आदेश दिया कि वह ट्रैक्टर का इंजन चालू करे। इस तरह ट्रैक्टर का पूजन सम्पन्न हुआ और वह घरघराता हुआ खेतों की तरफ चल पड़ा। पर मुझे लगता रहा कि कुछ है जो हल के पूजन-अभिनन्दन में तो होता था, पर ट्रैक्टर - प्रसंग में अनुपस्थित है। बाद में ध्यान आया कि हल के पूजन के साथ पावस की स्मृति जुड़ी होती थी- यानी आषाढ़ की पहली बौछार - जिसके बिना पूजन अर्थहीन था। ट्रैक्टर जैसे सीधे कारखाने से निकलकर प्रकृति को चीरता फाड़ता मन्दिर के द्वार तक आ गया था। फिर हल के पावस-पूजन में अनुष्ठान की सारी प्रक्रिया तो होती थी, पर उसमें मन्दिर की कोई भूमिका नहीं थी और यदि मैं अपनी स्मृति पर विश्वास करूँ तो शायद पंडित की भी नहीं । वहाँ सीधे हल और किसान आमने-सामने होते थे, और बीच में होता था पहली बौछार का सोंधा - सा स्पर्श । पर ट्रैक्टर बिचारा क्या करे ! वह नहीं जानता कि उसका मन्दिर जाना या न जाना उसकी अपनी गति का हिस्सा नहीं, जिसमें वह निर्मित हुआ, उस माहौल के दबाव का एक हिस्सा है, जो उसे ढकेलकर वहाँ तक ले गया ।

जहाँ बैठकर ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, वहाँ की सबसे बड़ी घटना यह है कि अभी कुछ देर पहले यहाँ बारिश हुई थी । यह मौसम की पहली बौछार नहीं, शायद तीसरी या चौथी बौछार थी और मैं सोचने लगा-मिट्टी की वह गंध कहाँ गई जो हर बौछार के साथ आती थी। सच क्या है ? क्या मिट्टी ने अपनी गंध खो दी है या मैंने अपनी गंध-चेतना। सचाई शायद दोनों के बीच में कहीं हो - क्योंकि कुछ न कुछ दोनों ने ही खोया है । गालिब ने जब दरो-दीवार से उगते हैं सब्जे को देखकर यह पंक्ति लिखी थी कि 'हम बयाबाँ में हैं, और घर में बहार आई है' तो वे अपने भीतर की शायद उसी गहरी क्षति की ओर इशारा कर रहे थे, जिसे उन्नीसवीं शताब्दी के किसी बिन्दु पर भारतीय मानस ने पहली बार अनुभव किया था ।

आज आषाढ़ के पहले बादल को देखकर विरही यक्ष का व्याकुल होना कुछ लोगों को हास्यास्पद लग सकता है। स्वयं 'विरह' शब्द भी अनेक शताब्दियों की असंख्य वर्षाओं से धुलकर अपनी वह सारी तीव्रता खो चुका है, जिससे कभी कविगण आक्रान्त हुआ करते थे। पर वर्षा आज भी होती है - वही जो अभी कुछ देर पहले हुई थी। सिर्फ आदमी और वर्षा के बीच का रिश्ता बदल गया है- जैसे हल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है। अब कविता में वर्षा कम कम ही होती है और होती भी है तो झमाझम नहीं - बस उसे छूकर निकल जाती है। मैं देख रहा हूँ कि बूँदें फिर गिरने लगी हैं और इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे हल की मूठ पर गिर रही हैं या ट्रैक्टर के इंजन पर । मेरे भीतर का किसान - रक्त हल को भूलना नहीं चाहता । पर मैं वर्षा में भीगते हुए हर ट्रैक्टर का अभिनन्दन करता हूँ ।

('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)

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