Hadd Ka Chirag (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

हड्डी का चिराग : रामधारी सिंह 'दिनकर'

कार्तिक–अमावस्या की सरणी हिन्दू–इतिहास में आलोक की लड़ी बनकर चमकती आई है। प्रत्येक वर्ष की एक अँधेरी रात को भारत की मिट्टी अपने अंग में असंख्य दीपों के गहने पहनकर तारों से भरे आकाश से होड़ लेती है और आदर्शनिष्ठ हिन्दू प्रकृति को यह सन्देश देता है कि काल–निर्मित कुरूप अन्धकार को वह सौन्दर्य और ज्योति दे सकता है। आलोक सर्वजयी पुरुष का प्राण–धन और उसके भीतर बसनेवाली आशा का प्रतीक है। वर्ष में एक बार अँधेरी रात को पुरुष प्रतिज्ञा करता है कि वह अन्धकार की सत्ता को स्वीकार नहीं करेगा। जब सूर्य और चन्द्र पराजित होकर धरती को अन्धकार में छोड़ देंगे, तब वह मिट्टी के दीयों से आलोक का सर्जन करेगा और ज्योति में चलेगा।

आज हिमालय की गुहा में भीषण अन्धकार का साम्राज्य है। सूर्य, चन्द्र और कितने ही उपग्रह पराजय स्वीकार करके क्षितिज के पार उतर गए हैं। सत्ता दीखती है तो धूमकेतु और उल्कापात की, जो इस अन्धकार को और भी डरावना बना रहे हैं। तिमिरकाय दैत्य ने अपनी जादू की छड़ी घुमाकर जीवन के प्रत्येक अंग को जड़ता के पाश में बाँध रखा है। न कोई आहट है और न कोई नाद। ऐसा लगता है कि हमारा समग्र राष्ट्रीय जीवन ही शिथिल और विजड़ित हो गया है। चट्टानों के बीच केवल एक बूढ़े सिंह का हुंकार गूँजता है, लेकिन चट्टानें टूटतीं नहीं, केवल हिलकर रह जाती हैं और हुंकार की व्यंग्यपूर्ण प्रतिध्वनि को सिंह के ही इर्द–गिर्द लौटा देती हैं।

बरसों से देश के शेर सीखचों में बन्द हैं और बाहर श्रृगाल और भेड़िये अपनी तुरही बजा रहे हैं। देश ने गर्जन किया, लेकिन बन्दी–गृह के प्राचीर नहीं गिरे। देश ने तप्त आहें भेजीं, लेकिन सीखचे गले नहीं, कड़ियाँ पिघलीं नहीं। देश ने आक्रोश भेजा, लेकिन प्रलय के बादल घुमड़कर रह गए–शाप का एक वज्र भी आततायियों पर नहीं गिरा सकेय क्रोध, आक्रोश, गर्जन, आँसू और आह–सब–के–सब बेकार हुए। अस्सी वर्षों की कठिन तपस्या जब सफल होने जा रही थी, ठीक तभी इन्द्र का आसन डोल गया। मार ने आकर अभियानियों का मार्ग घेर लिया। निर्भीक प्रवाहित होनेवाला निर्झर सहसा ठिठककर रुक गया। वर्षों से उद्दीप्त होकर जलनेवाली आग ने अपनी लपटें समेट लीं, मानो किसी दुष्ट देवता ने उसकी गति बाँध दी हो!

कविता की भाषा छोड़कर हम सीधा प्रश्न उठाना चाहते हैं कि इस जड़ता का अन्त कब और कैसे होगा? इतिहास–निर्माण की अलभ्य घड़ियाँ, एक के बाद दूसरी, व्यर्थ बीतती जा रही हैं। जो समय और शक्ति स्वतंत्रता–स्थापन की तैयारी में व्यय होती, वह विफलता–बोध और अनुपयोगी विलाप के कारण नष्ट होती जा रही है। हमारा देश अब चैराहे पर नहीं है! वह उसे पार करके उस पथ पर आ गया है, जो सीधे स्वाधीनता के मन्दिर में जाता है। एक नहीं, हजार चर्चिलों का यह दावा झूठ है कि साम्राज्यवाद की हिलती दीवारें अब किसी प्रकार भी स्थिर की जा सकती हैं। जनशक्ति का प्राबल्य इस युद्ध से अदृष्टपूर्व भीषणता के साथ निकलता आ रहा है। जो शक्ति अपार संसार का मूल हिला रही है, उसके धक्कों के सामने चर्चिल और एमरी तूफान में रूई के फाहों की तरह उड़ जानेवाले हैं। किसी भी जाति का बलिदान व्यर्थ नहीं जा सकता। मिट्टी पर गिरा हुआ पानी भी सब्जी पैदा करता है। फिर कौन कह सकता है कि भारतीय वीरों का लोहू देश के लिए आलोक का सृजन नहीं करेगा? हमारा बलिदान व्यर्थ नहीं जा सकता :

चिनगारी बन गई लहू की बूँद गिरी जो पग से,
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण–चिह्न जगमग से।

आवश्यकता इस बात की है कि हम विफलता को स्वीकार नहीं करें। इस समय हमें अधिक–से–अधिक विश्वास, निष्ठा और आदर्श के लिए दुराग्रह की जरूरत है। कर्मनिष्ठ योगियों का मार्ग कोई भी नहीं रोक सकता। युद्ध के बाद ही हमें बहुत बड़े राष्ट्रीय प्रश्न का सामना करना होगा। अचानक हम एक ऐसी राष्ट्रीय परिस्थिति के सम्मुख आ जानेवाले हैं, जिसका कभी अन्दाज भी नहीं किया गया था। वैधानिक संकटों के रहते हुए भी हमारे सामने जन–सेवा के अनन्त मार्ग खुले हुए हैं, जिन पर चलने से हमें कोई नहीं रोक सकता। देश की पीड़ित जनता को हमारी सेवाओं की जैसी आवश्यकता आज है, वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। अकर्मण्यता तथा निष्फलता के विषैले वातावरण को दूर करने का केवल एक ही उपाय है कि हम अपनी पूर्व–परिचित तपस्या के मार्ग पर आरूढ़ हो जाएँ। जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए अर्पित कर दिया है, उनकी सेवाओं से देश किसी भी परिस्थिति में वंचित नहीं रखा जा सकता।

इतिहास की सरणी में आई हुई आज की दीवाली उस पुरुष को खोज रही है, जिसने युग–युग से यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि हम अन्धकार को स्वीकार नहीं करेंगे।

ज्योतिर्मय मनुष्य! तू अपने को भूल रहा है। तुझमें बुद्ध का तेज है, जिसने स्वर्ग और पृथ्वी, दोनों के लिए प्रकाश का निर्माण किया था। तुझमें राणा प्रताप का प्रताप है, जिसने वन–वन मारे–मारे फिरकर भी अपने आदर्श के प्रदीप को बुझने नहीं दिया। तुझमें मंसूर की जिद है, जिसके मर जाने पर भी उसके मांस की बोटी–बोटी ‘अनलहक’ पुकारती थी। आज का घनान्धकार तेरे पौरुष को चुनौती दे रहा है। नींद से जाग! आलस्य को झाड़कर उठ खड़ा हो! सूरज और चाँद के प्रकाश में चलनेवाले बहुत हो चुके हैं। इतिहास उनकी गिनती नहीं करता। आज तुझे अपने भीतर के तेज को प्रत्यक्ष करना है। तेरे लहू में तेल, शिरा में वर्त्तिका और हड्डी में चिराग है। मिट्टी के दीये शाम को जलते और सुबह से पहले ही बुझ जाते हैं। आज दीवाली की रात अपनी हड्डी के उस चिराग को जला, जिसकी लौ सदियों तक जलती रहती है।

[दीवाली, 1944]

('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)

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