हारे हुए व्यक्ति की डायरी (सिंधी कहानी) : शौकत हुसैन शोरो
Haarem Hue Vyakti Ki Diary (Sindhi Story) : Shaukat Hussain Shoro
(यह डायरी मुझे एक पार्क में पड़ी मिली। डायरी काफी पुरानी थी और उसके काफी पन्ने फटे हुए थे। डायरी के ऊपर लिखा था कि ‘‘मैं तुझे हारकर सब कुछ हार गया।’’ लेकिन उसमें कोई क्रम नहीं था। कितनी ही ऐसी बातें लिखी हुई थीं जिनका कोई सिर पैर नहीं था। कम से कम वे मुझे समझ में नहीं आईं, इसलिए मैंने वे यहां नहीं लिखी हैं। डायरी में कोई तारीख, कोई वर्ष नहीं दर्शाया गया है।)
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सब कुछ ऐसे ही शुरू होता है और ऐसे ही खत्म हो जाता है। मैंने जीना मरना नहीं देखा है। (यह बात ऐसे है कि मैं हर गुजरे पल के साथ मर रहा हूं); लेकिन शुरुआत को खत्म होते देखा है और हमेशा से ऐसा होता रहा है। अगर कोई फितरती (स्वाभाविक) फार्मूला है तो यह है। बाकी सभी फार्मूले नकली (हाथों से बनाए हुए) हैं। व्यक्ति जिसे अपनी जिंदगी समझकर प्यार करे और वह जिंदगी एक दिन उससे अजनबियों की तरह मिले! इससे बढ़कर कोई सज़ा नहीं हो सकती। जब से वह अजनबी बन गई तब से मैं खुद से अजनबी बन गया हूं। मुझ में वह कुछ रहा ही नहीं है जो किसी को प्यार दे सकूं। कुछ वक्त पहले ही मुझे पता चला कि तुम बहुत रोयी हो। (मेरे लिए!) रोयी वो भी थी, लेकिन उसने रोकर मुझे रुलाया था। तुमने रोकर मुझे दुःखी किया है (तुम्हारे लिए)। काश मैं तुम्हें बता पाता। मैं एक हारा हुआ व्यक्ति हूं। लेकिन सभी बातें बताई नहीं जा सकतीं। अब मेरे मन पर अजीब भावनाएं छाई हुई हैं। भावनाएं दुःख की, पछताने की और रह रहकर बर्फ की तरह जम जाने जैसी। मैं तुमसे नहीं मिलना चाहता। मैंने जाना है कि यही बात है जो मुझे तुमसे मिलने से रोक रही है। दूसरी अजीब बात जो लहर की तरह रह रहकर बाकी भावनाओं पर छाने लगती है वह यह है कि तुमने मुझसे प्यार करके मुझे अपने ही नजरों से गिरा दिया है। बदले में मैं तुम्हें प्यार नहीं कर सकता, मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता और इसलिए मैं खुद को निकृष्ट समझ रहा हूं। आज तो मैं थका हुआ था। नींद आंखों में और दिमाग में जबरदस्ती घुस रही थी। लेकिन तुम्हारी बात सुनकर वह भी लौट गई। पता नहीं तुम मुझे क्या समझती होगी। चाहे और कुछ भी समझना, लेकिन यह नहीं समझना कि मैं प्यार करने के काबिल हूं। तेरे मन का बोझ आँसुओं ने मिटा दिया होगा और अब तुम्हें मेरे लिए धिक्कार अनुभव होता हो बहुत अच्छा। शायद ऐसा हुआ हो। यह सोचकर मैं खुद को आजाद अनुभव कर रहा हूं। लेकिन शायद यह भी मेरे निकृष्ट होने का बड़ा सबूत है।
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कुछ लोग खुद ही ट्रेजेडी होते हैं।
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इन्सान की भलाई इसी में है कि वह आखिर तक लड़ता रहे और कभी भी हार स्वीकार नहीं करे। लेकिन कोई कोई हार ऐसी होती है जो पहली ही बार में व्यक्ति को तोड़ फोड़ देती है। जो व्यक्ति मन ही मन में हार चुका हो, वह किसी भी युद्ध में सफल नहीं होगा।
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उडोही (लकड़ी को खाने वाला कीड़ा) जैसे दुःख, चढ़ गए शिखर पर-(शाह)
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तुम अब कहां होगी? क्या कर रही होगी! खुश होगी या उदास होगी! कभी अचानक तुम्हें यह विचार भी आता होगा कि कोई तुम्हें दिल से याद कर रहा है। लेकिन मेरी दुआ है कि तुम्हें यह विचार कभी न आया हो। तुम खुश रहो और ठहाके लगाती रहो... अपने मन में तुम्हें ठहाके लगाते देख मुझे बहुत शान्ति मिलती है।
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जब भी मैं तुम्हें याद आऊंगा तुम यही सोचती होगी कि यह पागल अभी तक केवल सपने ही देखता होगा और जब भी तुम मुझे याद आओगी रुस्वाइयों और नाकामियों का बोझा मेरे लिए और भारी हो जाएंगे।
तुम मुझे भुला देना। बिल्कुल भुला देना। भूलकर भी कभी मुझे याद न करना। तुम मुझे याद करोगी तो उदास हो जाओगी और तुम्हारा चेहरा तो आईना है, जिसमें तुम्हारी अहसास और भावनाएं साफ साफ दिखती हैं। लोग तुमसे पूछेंगे कि तुम उदास क्यों हो और उस उदासी का कारण मैं हूंगा!
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रात को मैंने तुम्हें सपने में देखा। नींद में भी डर का अहसास था कि तुम मुझे फिर से छोड़कर चली जाओगी और मैंने तुम्हें कहा कि एक मिनट रुक। मैं तुम्हें अच्छी तरह से परखकर देखना चाहता हूं। तुम्हारे चेहरे को अपने मन में उतार देना चाहता हूं। तुम कहीं भी रहो, लेकिन हमेशा मेरे मन में ही रहोगी।
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अगर मैं तुम्हारी झोली खुशियों से नहीं भर सकता, तो मुझे इस बात का कोई अधिकार नहीं है कि तुम्हें केवल दुःख देता रहूं।
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रेत की तरह दौड़े मन, - (शाह)
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उम्मीद एक लानत बन गई है मेरे लिए।
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साथ साथ चलते चलते अचानक मुझसे हाथ छुड़ाकर पता नहीं कितना आगे निकल गई हो। लेकिन मैं आज भी वहीं का वहीं खड़ा हूं, जहां से हम बिछुड़े थे।
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कुछ लोग इतने बदनसीब क्यों होते हैं! क्या उनके भाग्य में केवल भटकना लिखा होता है। उनकी कोई मंजिल नहीं होती है! आदमी जो कुछ सोचता है होता उसके बिल्कुल उलट है। मैंने जिसे पूरी उम्र चाहा, वह मुझे मिला भी तो किस रूप में! वही न खत्म होने वाली दौड़... वही भटकना...
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मैं जो भी आईना देखता हूं उसमें मुझे तुम्हारा ही चेहरा नजर आता है। लेकिन तुम हो कहां?
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मन है या बंजर खेत! जिसमें हर कोई विचार लापरवाही से, बिना रोक टोक चला आता है।
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पैर फट गये हैं। पग पग पर मन की नसें तन जाती हैं। पैर ही केवल पत्थर नहीं हुए हैं, पूरा अस्तित्व ही पत्थर बन गया है। आत्मा इस पत्थर के कोल्हू में पिस रही है।
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मेरे अंदर भी इतना ही अंधेरा है जितना मेरे कमरे में।
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आज घर जाकर कपड़े उतारकर खाट पर फेंके और खुद को दीवार पर लगी कील में टांग दिया।
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यह कितनी लंबी गुफा है। अंधेरे में हाथ लगाकर सरकता जा रहा हूं। मेरी सांस अटक रही है... बहुत थका हुआ हूं। शरीर टूट रहा है। पोर पोर अलग हो गया है।
(अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी)