हार, कंघी और आईना : यूनानी लोक-कथा
Haar Kanghi Aur Aina : Greece/Greek Folk Tale
बात उस युग की है जब यूनान की बागडोर साम्राज्ञी के हाथों में थी। वहाँ का सेनापति एक बहादुर सामन्त था जिसका नाम डिमिट्रियोस था। वह वीर, नेकदिल, साहसी और देशप्रेमी नवयुवक था। कोई भी शासक उसके भरोसे देश की सुरक्षा को छोड़ कर निश्चिन्त हो सकता था। इसके साथ-साथ वह शाही प्रेमी भी था। साम्राज्ञी उस से प्यार करती थी। वह सम्राज्ञी और अपने देश दोनों के प्रति पूर्ण समर्पित और वफादार था।
उसके हाथों की कोमल उंगलियाँ जब सम्राज्ञी के सुनहरे बालों को सहलाती तो उस स्पर्श के जादू से उसका पूरा शरीर तरंगित हो उठता। मगर यही उंगलियाँ जब तलवार की मूठ पर कस जाती तो शत्रु के कलेजे हिल जाते। उसका दिल साम्राज्ञी के प्यार में साराबोर था। प्रेम रस से लबरेज। मगर जब बात देश की सुरक्षा की होती तो यही प्रेम-पगा दिल वज्र का हो जाता था। देश उसकी दिलेरी वीरता और देशभक्ति का लोहा मानता था। प्रजा को उस पर पूर्ण विश्वास था। उसका हर जगह सम्मान होता था। वह यूनान की सभी नवयौवनाओं का आदर्श पुरुष था। किसी खास मौके पर जब वह अपने काले रंग के अरबी घोड़े पर सवार हो कर यूनान की गलियों से गुजरता तो नवयुवतियाँ उसकी एक झलक पाने को बेचैन हो जाती थी। वे अपने घरों की छतों, खिड़कियों, वातायनों एवं छज्जों पर खड़ी होकर आतुरता से गलियों में देखती ताकि उसकी एक झलक पा सकें। यही डिमिट्रियोस जब हथियार बन्द होकर देश की सीमाओं पर गश्त के लिए निकलता तो पड़ोसी देशों की सेनाओं के सेनापति भय से दहल जाते थे। अद्भुत बेमिसाल व्यक्तित्व का स्वामी था। सेनापति डिमिट्रियोस।
नगर में अमीलिया नाम की एक लोक नर्तकी (नगर-वधू) रहती थी। राजधानी के बड़े-बड़े अमीर-उमराव, छोटे-बड़े सामन्त, धनी रईस, बड़े सरकारी अधिकारी मनोरंजन एवं मौज के लिये इधर आते थे। अमीलिया अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका थी। उसके पास नर्तकियों का पूरा समूह था। उसकी बड़ी तमन्ना थी कि एक बार सेनापति भी उनकी नृत्य शाला में नृत्य देखने आते। मगर सेनापति ने कभी उस तरफ मुँह कर के भी नहीं देखा। अमीलिया ने अभिसारिका बन कर, नारी सुलभ आचरण को छोड़ कर अपनी ओर से पहल करते हुए सेनापति को रंग शाला में आने का निमन्त्रण भेजा। मगर सेनापति ने वहाँ जाना उचित नहीं समझा। अमीलिया ने दूसरी बार फिर अपना एक सेवक भेजकर सेनापति को रंगशाला में आने का अनुरोध किया। सेनापति फिर टाल गए। अमीलिया ने अपने स्वाभिमान को कुचलते हुए तीसरी बार फिर अपना एक संदेश वाहक भेजा। अब की बार डिमिट्रियोस ने कहा- मैं समझता था कि पहले बुलावे पर जब नहीं जाऊँगा तो तुम्हारी मालकिन समझ जायेंगी कि मैं उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर सकता। मगर वह नादान नहीं समझी। दूसरी बार भी जब मैं नहीं गया तब भी वे इस बात को नहीं समझ पाई। अब मैं साफ साफ कहता हूँ कि मैं तुम्हारी मालकिन का यह अनुरोध कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। उनको मेरी ओर से ये कह देना कि मेरे मन में उनको लेकर कोई बैर या कटुता नहीं है। एक लोकनर्तकी की हैसियत से मैं उनका पूरा सम्मान करता हूँ। देश की सुरक्षा का भार मेरे
कन्धों पर है और मैं राजमहल का शाही प्रेमी हूँ। ये दोनों उतरदायित्व बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनके कारण मैं एक सामान्य व्यक्ति की तरह स्वतन्त्र जीवन नहीं जी सकता। यह मेरा कर्तव्य भी है। अपनी मालकिन से कहना कि मैं अवहेलना के लिये क्षमा प्राथी हूँ। सेनापति ने विनम्रता से कहा।
सेनापति का उतर सुन कर अमीलिया का नारीत्व आहत हो गया। उसे लगा कि सेनापति ने कटा-सा जबाव देकर मेरे आत्माभिमान पर आघात किया है। उसका अहम् चेाट खा कर जाग उठा था।
सेनापति कभी-कभी अपने घोड़ों को नदी में नहलाने के लिए लेकर जाता था। एक दिन सेनापति घोड़े लेकर आया तो देखा कि अमीलिया व उसकी सखियों के तम्बू पहले से ही किनारे पर लगे हुए थे। वे भी जल केलि यहाँ आई हुई थी। सामना होने पर अमीलिया मोहक अन्दाज में बोली- देश के रक्षक और शाही प्रेमी को इस अदना-सी नर्तकी का सलाम कबूल हो।
सलाम का उत्तर देते हएु सेनापति ने पूछा- कैसी हो अमीलिया ? ''ठीक हूँ जनाब। लगता है आप घोड़े नहलाने के लिए आए हैं। मगर यह स्थान तो हमने पहले से घेर लिया है। आपसे से सवाल का जबाव चाहती हूँ। फिर यहाँसे चली जाऊँगी। अपना सारा तामझाम उठा ले जाऊँगी।
सेनापति बोले- बोलो क्या पूछना चाहती हो। तुम्हें अपना सवाल पूछने की पूरी आज़ादी है।
''बस मुझे इतना बता दीजिये कि राजमहल में आप अपनी इच्छा से कब गए थे? सत्य बताईयेगा सेनापति जी''
''अपनी इच्छा से तो कभी नहीं गया अमीलिया। मेरी इच्छा का तो कोई मतलब नहीं है। जब सम्राज्ञी बुलाती हैं तभी जाता हूँ।''
''तो इसका मतलब आपकी कोई तमन्ना कोई चाहत या अरमान है ही नहीं। यदि कोई चाँदनी रात, बसन्ती हवा, मधुर संगीत किसी का साथ पाने को बेचैन कर दे तब क्या होता है? कैसा लगता है...?
सेनापति डिमिट्रियोस की चेतना पर मानो हथौड़े पड़ने लगे। मैं कौन हूँ? हुकुम का गुलाम.... सम्राज्ञी के आदेशों पर नाचने वाला पुतला... सीमाओं की रक्षा करना मेरी जिम्मेदारी,
मेरी ताकत का प्रयोग देश की रक्षा के लिए.... और मेरी इच्छा.... मेरे अरमान.... अमीलिया के एक सवाल ने सेनापति के सोचने की दिशा की बदल डाली थी। उसके चेहरे पर चिन्ता व उलझन के भाव साफ दिखाई दे रहे थे। जिस निजी सुखों को वह भूल गया था अमीलिया के सवाल ने सब फिर से याद दिला दिया था।
एक रात सेनापति बिना बताये अमीलिया की नृत्य शाला की महफिल में हाजिर हो गया। अमीलिया के संकेत पर सेविकाओं ने उस पर फूलों की वर्षा की। सुगन्धित इत्र छिड़का गया। मनमोहक सुगन्ध वाला शरबत पेश किया गया। फिर आकर्षक एवं उत्तेजक नृत्य का आयोजन किया गया। डिमिट्रियोस एक अलग दुनियां में था। वह अब अमीलिया पर मोहित हो चुका था।
''मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ अमीलिया। बोलो क्या कहती हो?''
''हम देह के व्यापार को प्रमुखता नहीं देते सेनापति। यदि कभी देह देने की बात आ भी जाए तो हम पैसा नहीं उपहार लेते हैं।''
''तुम कैसा उपहार चाहती हो अमीलिया?'' मैं तुम्हें मनचाहा उपहार ला कर दे सकता हूँ।'' बहके हुए डिमिट्रियोस ने कहा।
''तीन चीज़ें- एक हार, एक कंघी और एक आईना।
''ठीक है अगली बार ये तीनों उपहार लेकर ही तुम्हारे पास आऊँगा।
अब मुझे जाना होगा अमीलिया।''
''ठीक है। मगर जाने से पहले मैं आपके सामने कुछ और बातें स्पष्ट कर देना चाहती हूँ ताकि आप हमें भली भांति समझ सकें और किसी प्रकार की गलतफहमी का शिकार न हों। इसलिये आप संयत होकर हमारी बात सुनिये।'' अमीलिया ने कहा-
डिमिट्रियोस सावधान हो गया।
''देखिये हमारी नृत्य शाला का प्रमुख कार्य है नाच व गाना गाकर लोगों का मनोरंजन करना। फिर यहाँ मधुशाला भी बना दी गई। इस लिये यहाँ हर तरह के लोग आने लगे। लोक नर्तकी होने के कारण मैं किसी को रोक नहीं सकती। फिर हमारे पास कुछ ऐसी युवतियाँ भी आने लगी जो अर्थाभाव के कारण मदिरा पीकर बहकने वाले लोगों के साथ रात बिताने को तैयार थी। इस तरह यहाँ ऐसे लोक भी आते हैं जो मदिरा पीते हैं इन युवतियों को मुद्रा दे कर अपना सयम खोटा कर के निकल जाते हैं। ऐसे लोगों का यहाँ कोई स्वागत-सत्कार नहीं होता। यहाँ पर जो नर्तकी हैं वे लोगों के सामने अपनी नृत्य कला व संगीत कला का प्रदर्शन करती हैं। कला प्रेमी, सम्य दर्शक उनकी कला की प्रशंसा करते हैं इससे उनको आत्म संतोष मिलता है। कभी कभी दर्शक खुश होकर कोई उपहार भी दे देते हैं तो नर्तकियाँ उसे स्वीकार कर लेती हैं। मगर वे न तो किसी से कुछ मांगती है और किसी से उपहार की अपेक्षा करती हैं। ऐसा करना उनकी कला की मर्यादा का अपमान समझा जाता है। रही बात मेरी तो सच यह है कि मैंने आज तक किसी का कोई उपहार स्वीकार नहीं किया है। मैंने निश्चय किया था कि मैं उस व्यक्ति का उपहार स्वीकार करूंगी जिसे मेरा दिल स्वीकार करेगा। मेरे पास बड़े से बड़े धुरन्धर एक से बढ़कर एक उपहार पेश कर चुके हैं मगर मैंने घन्यवाद सहित अस्वीकार कर दिये। आप पहले व्यक्ति हैं जिससे उपहार लेने के लिए मेरा दिल मुझ से कह रहा है।''
अमीलिया ने अपनी बात पूरी की।
सेनापति उसके मुख से अपने बारे में ऐसे शब्द सुनकर भाव विभोर हो गया। बोला- अगली बार आपके लिये तीनों उपहार लेकर ही यहाँ आऊँगा।
''आप असाधारण व्यक्ति हैं सेनापति। अतः उपहार भी असाधारण ही होने चाहिये।'' अमीलिया मोहक अन्दाज में बोली।
''तो बताइये किस प्रकार के असाधारण उपहार चाहियें आपको। मैं वेसे ही ले आऊँगा।''
''वादा करते हैं सेनापति ?''
''बिल्कुल करता हूँ। आप कहिये तो।'' सेनापति डिमिट्रियोस पूरी तरह सम्मोहित हो चुका था।
''मुझे वह हार चाहिये जो देवी अघ्रोदिती की प्रतिमा के गले में है। मुझे वह कंघी चाहिए जो मुख्य चर्च के पादरी की पत्नी अपने जूड़े में हमेशा लगा कर रखती है। मुझे वह आईना चाहिए जो राजनर्तकी अपने श्रृंगार में प्रयोग करती है।'' अमीलिया ने सधे हुए शब्दों में कहा-
डिमिट्रियोस अन्धा हो गया था। एक बार तो वह इन अनोखी माँगों को सुन कर चकराया मगर फिर संकल्प किया कि वह ये तीनों उपहार अति शीघ्र अमीलिया को भेंट करेगा।
देवी अघ्रोदिती की प्रतिमा के गले में जो हार था वह सरकारी सम्पति था। उसे न माँग कर लिया जा सकता था न खरीदा जा सकता था। उसे केवल चुराया जा सकता था। इसके इलावा कोई विकल्प नहीं था। सेनापति पर अपनी इच्छा से कुछ करने व अमीलिया को पाने का जिन सवार था। उसने देवी की प्रतिमा के गले से हार चुराया और छिपाा कर रख लिया।
सुबह होते ही देवी अघ्रोदिती की प्रतिमा के गले से हार चोरी होने का समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया। शहर कोतवाल को चोर पकड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई। अब सेनापति ने चर्च के आसपास घूमना आरम्भ कर दिया। एक रात उसने देखा-पादरी की पत्नी चाँदनी रात में चर्च के सामने वाले बागीचे में घूम रही थी। वह अचानक उसके सामने आ गया। सेनापति को अपने सामने देखकर वह भौंचक रह गई। ''अरे आप?''उसके मुँह से अनायास ही ये शब्द फूट पड़े।
''हाँ, श्रीमती जेनिया। सेनापति हूँ ना। देश की सीमाओं पर गश्त करते-करते कभी अन्दर भी झाँक लेता हूँ। संयोगवश आप से भेंट होनी थी इसलिये शायद यहाँ आ निकला।' बड़े अपने पन से उसने पादरी की पत्नी के कन्धे पर हाथ रखा। जेनिया अभिभूत थी। जिसकी एक झलक पाने को यूनान की सुन्दरियाँ तरसती थी वह आज ठीक उसके सामने खड़ा था। वह उस मादक, मदहोश कर देने वाले हाथ के स्पर्श से सिहर उठी। वह एक खुमारी जैसी स्थिति में आ गई। उसके शब्द मुँह में जैसे बर्फ हो गये। वह मानो सपना देख रही थी।
''आओ थोड़ी देर कहीं बैठ जाते हैं।'' सेनापति ने मौन तोड़ा। वह यन्त्र चलित सी उसके पीछे चलती गई। एक संगमरमर की बैंच पर दोनों बैठ गए। अचानक डिमिट्रियोस ने उसे अपने अंक में खींच लिया। वह मादकता में डूबती चली गई। सेनापति एक योद्धा था। उसे पता था आघात कहाँ करना है। उसने सधे हुए बलिष्ट हाथों से गला दबाया जेनिया पल भर में ही शांत हो गई। उसने जूड़े मे ंसे कंघी निकाली बड़ी नजाकत से जेनिका के शव को बैंच पर लिटाया। लाश के माथे पर चुम्बन अंकित कर के वहाँ से निकल गया।
अब वह राजनर्तकी के महल में गया। वह सब का विश्वास पात्र था। कहीं भी जाना खाने में नशीला पदार्थ मिलाना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। नशे में डूबी नर्तकी के श्रृंगार कक्ष में आईना चोरी हो गया।
लगातार तीन अपराधिक वारदातों ने सम्राज्ञी को विचलित कर दिया। उसने सेनापति के सामने चिन्ता प्रकट की। सेनापति ने कहा- मेरा काम बाहरी शत्रुओं से देश की रक्षा करना है मगर आप चिन्ता न करें। आज से मैं आन्तरिक सुरक्षा का दायित्व ले रहा हूँ। भविष्य में ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं सचेत रहूँगा। आप इत्मीनान रखिए।
अब सेनापति ने तीनों उपहार पा लिए थे। अब वह ये उपहार अमीलिया के पास लेकर जाने को आतुर था। उसका गुलाबी बदन रह-रह कर सेनापति के मन में प्रतिबिम्बत हो रहा था। उसे नींद नहीं आ रही थीं अचानक वह कल्पना करने लगा कि देवी अघ्रोदिती का हार पहन कर अमीलिया कैसी लगेगी। कल्पना करते-करते उसके मस्तिष्क को जोरदार झटका लगा। ऐसा लगा जैसे भयंकर बिजली का करंट उसे सिर से पैर तक बुरी तरह झुलसा गया हो। चेतना पर मानो हथौड़े पड़ने लगे। उसकी छठी इन्द्री कुछ सवालों के संकेत देने लगी थी। प्रश्नों का चक्रव्यूह उसे घेर चुका था।
पहला प्रश्न - अमीलिया नगरवधू है। वह इतनी भोली तो नहीं कि देश के नियम कायदे को न जानती हो। उसे पहले से पता था कि अघ्रोदिती की प्रतिमा का हार केवल चोरी से हासिल किया जा सकता है। राष्ट्रीय महत्व की कोई चीज चोरी हो जाती है तो उसकी चर्चा भी हर जगह होती है और उसकी तलाश भी जोर शोर से की जाती है। ऐसे में कोई उस हार को गले में
धारण कर के स्वयं अपनी मौत को क्यों बुलायेगा ? जब अमीलिया इस हार को पहन ही नहीं सकती तो उसे उपहार में क्यों माँगा ?
अगला सवाल: श्रीमती जेनिया नगर की प्रतिष्ठित महिला थी। उसकी हीरे जड़ी सोने की कंघी के बारे में सब जानते थे। उसके जूड़े से कंघी निकालना ..... या तो मैं उसकी हत्या करूंगा या पकड़ा जाऊंगा। अमीलिया ने सब पहले से ही सोच लिया था। मैं हत्यारा बन गया। क्या कोई किसी लाश से उतरा कपड़ा या जेवर पहन सकता है? कदापि नहीं फिर उसने ऐसा उपहार क्यों मांगा.... मुझ से हत्या जैसा अपराध करवाने के लिये..... ओह कहाँ चल दिया था मैं.....?
तीसरा प्रश्न - राजनर्तकी का आईना। दोनों हमपेशा थी। कभी-कभी किसी विशेष अवसर पर दोनों का सामूहिक नृत्य भी होता था। एक ही पेशे से जुड़ी होने के कारण उनका अक्सर मिलना-जुलना भी होता रहता था। ऐसे में उस आईने को अमीलिया अपने प्रयोग में कैसे ला सकती थी जबकि उसके पकड़े जाने का डर था। ओह.... तो योजना यह थी कि या तो मैं आईना चुराऊँगा या चुराते हुए पकड़ा जाऊँगा दोनों स्थितियों में प्रतिष्ठा तो मेरी ही गिरनी थी।
आखिर क्या चाहती थी अमलिया ? डिमिट्रियोस का दिमाग सनसना उठा। कुछ समय के लिये वह अपना मूल चरित्र खो अवश्य बैठा था मगर था तो वह योद्धा ही। हर पल सचेत, सजग व सावधान देश का सच्चा प्रहरी। अब वह अपने मूल स्वरूप को पा चुका था। वह एक निर्णय ले चुका था। उसके चेहरे पर सुकून था।
अगली शाम उसने सामन्तो जैसी नागरिक पोशाक धारण की। तीनों चीजों को लाल रेशमी थैली में डाला। अपने शानदार अरबी घोड़े पर सवार होकर वह अमीलिया की महफिल में उपस्थित हो गया। उसका शानदार स्वागत हुआ। लाल गोटे की किनारी वाले मनसद पर उसे बिठाया गया। अमीलिया उस के साथ बैठी।
''देखो अमीलिया, यह रेशमी थैली। अपने वायदे के अनुसार मैं तीनों उपहार लेकर उपस्थित हूँ। मगर ये उपहार स्वीकार करने से पहले तुम्हें भी मेरी एक बात स्वीकार करनी होगी। वचन देती हो जैसे मैंने दिया था।''
''हाँ, मैंने वचन दिया। बोलो क्या करना है मुझे ? '' अमीलिया बोली-
''तुम्हें अपने गले में देवी अघ्रोदिति का हार धारण करना होगा। अपने जुड़े में श्रीमती जेनिया की कंघीी लगानी होगी। हाथ में राजनर्तकी का आईना पकड़ कर महफिल में नृत्य करना हेागा।'' सेनापति के संयत शब्दों में अपनी बात पूरी की।
''मगर तुम तो मुझे पाना चाहते थे।'' अमीलिया ने कहा। उसे चेहरे पर बेबसी छा गई।
''तुमको तो मैं पा चुका। यकीनन पूरी तरह से पा चुका हूँ।'' सेनापति ने कहा-
तीनों उपहारों से सुसज्जित अमीलिया मंच पर नमूदार हुई।
''वह देखो, देवी अघ्रोदिति के गले का हार। इस नगरवधू के गले में एक ओर से आवाज आई।
''अरे देखो तो श्रीमती जेनिया जैसी कंघी नर्तकी के जूड़े में''
चारो ओर शोर मच गया। अमीलिया को गिरफ्तार कर लिया गया।
वह जानती थी कि यदि उसने सेनापति डिमिट्रियोस का नाम लिया तो कोई भी उसकी बात पर विश्वास नहीं करेगा। वह खामोश रही। न्यायाधीश के सामने उसने अपराध स्वीकार कर लिया।
राजमहल के कारावास में अमीलिया पर अभियोग चलाया गया। एक बूढ़ा सेवादार उसे समय पर खाने पीने की सामग्री दे जाता था। उसका खाना बहुत उत्तम व स्वादिष्ट होता था। कारावास में उसके सुख सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता था। बूढ़ा सेवादार उसके पास घंटों तक बैठ कर बातें करता रहता था। एक दिन उसने अमीलिया से पूछा- तुमने ये चोरियाँ क्यों की बेटी?
वह बोली- बाबा चोरी मैंने नहीं कीं मगर इन चोरियों का कारण मैं ही हूँ।
''ये क्या कह रही हो बेटी ? ऐसा कैसे हो सकता है, फिर तुम कारावास क्यों झेल रही हो ? तुमने अपराध स्वीकार क्यों किया ? ''
वह बोली - एक राज़ सीने में दफन है। यदि राज़ को राज़ रखने का भरोसा देते हो तो बता सकती हूँ। बुजुर्ग सेवक ने भरोसा देने का वायदा किया। अमीलिया ने बेहद शांति से सारा वृतान्त खोल कर बता दिया। अन्त में वह बोली - बाबा औरत चाहे कितनी भी निल्लर्ज क्यों ना हो अपनी ओर से प्रणय निवेदन कभी नहीं करती। मगर मैंने तीन बार ऐसा किया। सेनापति ने हर बार मेरा मान-मर्दन किया। मेरे अन्दर का नारी दर्प आहत हो गया और मैंने सेनापति को उसके ऊँचे ओहदे एवं प्रतिष्ठा से गिराना चाहा। काफी हद तक मैं सफल भी हुई।
''मगर बेटी वह एक सच्चा शूरवीर और राष्ट्रभक्त है। राष्ट्र की सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा के सामने एक आदमी के मान-अपमान का कोई महत्व नहीं होता। तुम ये क्यों भूल गई? '' बूढ़े ने कहा।
''कुछ मत पूछिए बाबा। बदले की आग तथा अपमान ने मेरा विवेक ही जला डाला।''
न्यायाधीश ने अमीलिया को विष देकर खत्म करने का मृत्यु दण्ड दिया। जल्लाद जहर का प्याला लेकर आया तो बूढ़े ने कहा कि लाओ यह प्याला मुझे दे दो और चले जाओ। मैं यह प्यला स्वयं अमीलिया को देना चाहता हूँ।
बूढ़ा प्याला लेकर अमीलिया के पास आकर बोला- बेटी इस राजभवन में तुम्हारा कोई बहुत बड़ा शुभ चिन्तक है। उसी के आदेश पर तुम्हारी सुख-सुविधा व खाने पीने का पूरा ध्यान रखा जाता था। यहाँ तक कि इस विष में भी बहुत सारा शहद घोला गया है ताकि तुम्हें इसके कड़वेपन एवं तीखेपन का अहसास न हो सके। वह शुभ-चिन्तक कौन है जानना चाहोगी ?
''अब क्या जानना बाबा। फिर भी बताना चाहते हो तो बता दो।'' वह बोली
''वह है सेनापति डिमिट्रियास'
अमीलिया की आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं।।
''अब समय हो गया है। तुम यह प्याला धीरे-धीरे पी जाओ। बड़ी शांत मौन देने वाला विष है जो खास तुम्हारे लिए तैयार करवाया है। पीकर कमरे में घूमती रहना। पैर सुन्न होने लगे तो लेट जाना। नींद आएगी और तुम्हें कुछ भी पता नहीं चलेगा। पीड़ा रहित सरल मौत।
अमीलिया विष पीकर टहलने लगी। तभी सेनापति ने कक्ष में प्रवेश किया। ''मैं स्वयं अपनी इच्छा से तुम्हारे पास आया हूँ अमीलिया। पहली बार अपनी इच्छा से। चट्टान फोड़ कर सोता वह निकला। डिमिट्रियोस ने अमीलिया को अपनी विशाल बलिष्ट बाहों में कस लिया। दो बूंद पानी सेनापति की आँखों से निकल कर अमीलिया के गालों पर बह चला। एक भरपूर चुम्बन अमीलिया ने अपने माथे पर महसूस किया। उसका चेहरा विजय के दर्प से दमक उठा। अचानक वह बोली- पांव सुन्न हो रहे बाबा।
''इसे लिटा दीजिये।'' बाबा ने कहा-
बड़ी कोमलता से उसने अमीलिया को बिस्तर पर लिटा दिया। वह शांत लेट गई। फिर सो गई। कभी न टूटने वाली नींद सदा के लिए।
उसको दफनाते समय डिमिट्रियोस साथ था। अन्तिम रस्म पूरी करने वाली सेविका ने अनुरोध किया कि अमीलिया के बालों की एक लट काट कर मुझे दे दे। आदेश का पालन हुआ।
समय अपनी गति से चल रहा था। सेनापति उम्र पाकर अपने पद से निवृत हो चुका था। अलमारी में उसने अपनी वसीयत लिख कर रख दी थी।
एक दिन वह भी इस संसार में विदा हो गया। शासकी नियम के अनुसार दफनाने से पहले उसकी वसीयत खोली गई थी। लिफाफे में एक खत था और लाल सुनहरी बालों की एक खूबसूरत लट थी। खत में लिखा था- मेरी मृत्यु होने पर जब मुझे दफनाया जाए तो यह लट मेरी बगल में रख दी जाए।
हस्ताक्षर
डिमिट्रियोस
आदेश का पालन हुआ। सेनापति की अन्तिम इच्छा पूरी की गई।
(कमलेश चौधरी)