Raghavendra Patil राघवेंद्र पाटील
श्री राघवेंद्र पाटील कन्नड़ (17-04-1951-) के नामी कथाकार हैं। उनकी ध्वनि और उनका संदेश ज्यादातर प्रतीकात्मक हुआ करते हैं। केंद्रीय साहित्य अकादेमी ने उनको उनकी कहानियों के
लिए पुरस्कृत कर सम्मानित किया है। मूलत: प्राध्यापक पाटील की रचनाओं में सामाजिक चिंतन बहुत गहरा है। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास तेरु के लिये उन्हें सन् 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उनकी कहानियों की प्रशंसा कर कन्नड़ के यशस्वी कवि एच.एस. वेंकटेश मूर्ति कहते हैं, “आसानी से मुँह खोलनेवालों में से नहीं। जड़ भरत की तरह ठंडा हो बैठे आपके अंदर कैसे-कैसे अनाहत की प्रथम वर्षा का गर्जन है,
पन्ना खोलते ही थाप देते अरबी घोड़े का खरपुट निनाद है। तेजी से बहती हवा के आगे जड़ ही उखड़कर हिलनेवाला इंद्रधनुष है।"
कन्नड़ के स्थापित समीक्षक आमूर के शब्दों में, “पाटील जीवन की लय का अपना अन्वेषण आगे बढ़ाते हैं। पाटील अपने अनुभवों का वर्णन कर कहते हैं कि सच्चाई और उसकी प्रस्तुति का तर्क एवं वैचारिकता लेखक पर बहुत बोझ ढाती है।"
अंतरगंगी (कहानी) : राघवेंद्र पाटील
Antargangi (Kannada Story in Hindi) : Raghavendra Patil
अटारी पर मेरा कमरा है। एक पलंग, एक कुरसी, एक टेबल है। मैं सामान्य रूप से वहाँ पढ़ता-लिखता नहीं। वहीं पर नहीं, कहीं भी, टेबल की एक दराज, दराज में मेरे लिए आवश्यक वस्तुएँ। मैं अपना ज्यादातर वक्त इसी कमरे में बिताता हूँ। नीचे खाना खाता हूँ, चाय पीता हूँ, नाश्ता करता हूँ। ऊपर अपने कमरे के बगलवाले टॉयलेट में जाता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और कुछ-कुछ...ये सब करने के लिए कोई समय-नियम आदि मेरे लिए कुछ नहीं...सब किसी काल-निर्देशन से बँधे नहीं। इसी तरह का एक दिन बीता, दस दिन, सौ दिन, फिर हारकर अनगिनत कई दिन बिताकर आज आया। आज मैं खाना खाकर पलंग पर पाँव फैलाए पड़ा हूँ।...सिगरेट पीकर मैं जो धुआँ छोड़ रहा था, उसमें कैंसर के वायरस नाच रहे थे। धुआँ सिर तक चढ़ा, खाँसी आई। छाती में गौर-गौर की आवाज के साथ जलन शुरू हुई। आजकल रुक-रुककर छाती में दर्द होता रहता है। मेरे मन में हठात् एक विचार चढ़ा। सोचा, क्यों न किसी मजदूर को बुलाकर छाती में गड्ढ़ा खुदवाकर पता लगाया जाए कि अंदर हुआ क्या है? बस, मैंने खिड़की के पास जाकर पिछेवाले मकान में रहते माली को बुलाया। उससे सब्बल और फावड़ा लाने को कहा, माली आया। मैंने कहा, ‘‘देख काडू, काडप्पा उसका नाम था। अभी उठा तो जलने लगा है। बहुत करके जल मूल सूख गया होगा। थोड़ा सा खोदकर देखना चाहिए।’’ आदेश किया। माली ने ‘‘जी’’ कहा। मैं पीठ के बल लेटा। काडप्पा ने खोदना शुरू किया। पहले फावड़े से खोदा, उसे एक टोकरी में भरकर मेरी बगल में फेंका। उसमें जरा सा भी शीतांश न था। काडप्पा खोदता ही गया। ढेर बढ़ता गया। मैंने पूछा, ‘‘काडू, जल मूल मिला?’’ गहराई से काडप्पा की आवाज सुनाई दी, ‘‘नहीं’’, मैं अपनी ऊब हटाने के लिए सोचने लगा कि काडप्पा की आवाज कितनी गहराई से आई होगी? काडप्पा की बीवी सिर पर पाथेय उठा लाई। थोड़ी देर खोदना बंद कर काडप्पा ने खाना खाया, पानी पिया। मैंने भी जरा सी चाय पी। काडप्पा ने फिर से खोदना शुरू किया। मैंने जोर से पूछा, ‘‘रे काडा, जल मूल मिला?’’ काडा की आवाज बहुत धीमी सुनाई दी, ‘‘अभी नहीं।’’ मेरे अंदर खोदने की आवाज धड्-धड् सुनाई पड़ रही थी। ढेर पड़ता जा रहा था। काडप्पा का खाना-पानी, काडप्पा का आराम करना, फिर खुदाई, फिर-फिर ढेर बढ़ना...बीच-बीच में जल मूल मिला? वाला मेरा प्रश्न काडप्पा का निषेधात्मक जवाब...इसी तरह चक्र चला था।
एक दिन, दो दिन, अनगिनत कई दिन बीतकर आज आया...काडप्पा खोदता ही रहा। ढेर मात्र सूखा। जल नहीं, जल मूल नहीं, गीला नहीं, शीतांश नहीं। काडप्पा दुबारा काडू बना। काडप्पा बना, काडप्पा बना, काडप्पा बना वह खोदता ही रहा। अंत में काडप्पा ने ‘‘हो’’ कह चिल्लाया। धम्-धम् कर ऊपर चढ़ने लगा। दिनभर रातोरात चढ़ता रहा, खाली कैसे होता...जन्म-जन्म की खुदाईवाला गड्ढा जो था। फिर किसी तरह ऊपर आकर मेरे आगे घुटने टेककर बैठा, ‘‘मिला बाबूजी!’’ कहा। मुझे खुशी मिली। ‘‘क्या-क्या है? कितने जल मूल हैं। बता तो?’’ मैंने कहा। उसने कहा कि ‘‘आप खुद उतरकर देख लीजिए।’’ मैंने कहा, ‘‘अपनी छाती के बराबर गड्ढे में मैं कैसे उतर सकता हूँ रे?’’ उसने कहा, ‘‘क्यों नहीं बाबूजी, जैसे मैं उतरा था, मेरी बीवी उतरी थी, मेरे बाप, दादा, परदादा उतरे थे न, उस तरह आप भी उतरिए न। मैंने भी यह सोचकर कि ‘‘सच तो है।’’ उतरने लगा। काडू, काडप्पा, काडप्पा जिन सीढि़यों से उतरा था, मैं भी उन्हीं सीढि़यों से उतरने लगा। उतरकर जमीन के नीचे जाकर देखता हूँ कि तल भाग पर एक-दो-दस-सौ...थक गया अनगिनत चिंता! मैं डर गया। लगा, मैं यहाँ कहाँ आ गया? यहाँ कोई तो मिल सकेगा, मैंने दोनों तरफ अपनी नजर दौड़ाई। वहाँ एक इनसान बैठा था। सोचा, डरते समय एक साथी मिल गया, मैं उसकी तरफ बढ़ा। वह चिता के एक अंगारे से अपनी चिलम भरकर गाँजे को गरम कर रहा था। मुझे देखकर वह इनसान भयंकर रूप से हँसा। उसके दाँतों के छेद से मक्खी उड़ आए। उससे गंध झर रही थी। उसका बदन दुर्गंध भरा, भयंकर हँसी, इनसे बेचैन होकर मैं समझ नहीं पाया कि उससे क्या बात करें, सिर्फ आँखों से देखता रहा। वह अब फिर से विकृत रूप से हँसा, परिचित इनसान की तरह यह पूछकर, ‘‘आराम से हो?’’ मेरे पास आकर कंधों पर अपना हाथ रखा। मुझे लगा, यह तो पूरा असभ्य है, मगर मैं उसके साथ झगड़ा नहीं कर सकता था, क्योंकि वह जानता ही होगा कि मेरा जलमूल कैसे सूख गया? मैंने बातें कीं, बताओ, यहाँ का जलमूल कैसे सूख गया? क्यों सूखा? कब सूखा? लगा, वह बिना हँसे बात कर ही नहीं सकता। गंदे तरीके से हँसा, ‘‘क्या बाउजी। उछलता रहा, यहाँ का सारा जल सुखाकर आपने ही तो इसे मरघट बनाया है। वह कैसे? वह कैसे? वह कैसे? यह मुझे कहना पड़ेगा?’’ मुझे लगा यह झगड़ा करने लगा है। मुझे छोड़कर झगड़ा करवाकर यह शायद मेरा गला दबाना चाहता है। मैं एकदम से धीमा पड़ा और कहा, ‘‘अरे भाई, तुम यह क्या कह रहे हो? मैंने उस जल भरी भूमि को श्मशान बनाया? जब वह आदमी नीचे धसक गया और जोर से रोना शुरू कर दिया। फफककर रोने लगा। मैं वास्तव में घबरा गया।
यह सोचकर मैं कैसे इनसान के साथ बात कर रहा हूँ, हिचक गया। हिम्मत अपनाकर डरते-डरते ही मैं उसको शांत करने की कोशिश करने लगा। उसका रोना नियंत्रित हुआ। लगा, यह अजीब इनसान है, पागल भी हो सकता है। उसने रोना बंद करते ही कहना शुरू किया। वाल्मीकि की कहानी, सोचा कि यह कहीं वाल्मीकि का भूत तो नहीं? घबरा गया। भगवान का स्मरण किया। ब्रह्म गाँठ को पकड़ा। डर के बीच भी उसकी कहानी से ऊब गया। ऐसा लगा कि असंबद्ध बोल रहा है। मैंने जम्हाई ली। उसने कहानी रोक दी, फिर से रोने लगा। आवाज न ऊँचा उठती, न उतरती, सावन की झरती बारिश जैसा रोना। गरमी की धूप जैसा रोना। अब से मुझे भी रोना आने लगा। शांति से ऊँची आवाज में पूछा, ‘‘अरे भाई! चुप हो जाओ।’’ मैंने यह पूछा कि ‘‘यहाँ का जलमूल कब और क्यों सूखा, उसके लिए रोते क्यों हो?’’ उस इनसान की आँखें चौड़ी हुईं। उसका सारा खून आँखों में ही था। वह गुस्से में आया था। क्रोध की गंध उसकी आवाज में हठात् फूटी। वह कहने लगा, ‘‘सुनना चाहते हो, सुनो। तुम्हारी छाती में गंगा निनाद कर रही थी। बहुत दिन पहले तुमने लकड़ी इस्तेमाल करते वक्त, पत्थर साफ करते तुमने कपड़ा नहीं देखा तब...वह ज्यादा दिन नहीं चला। तुमने एक दिन आदमी को नीचे भेजकर अपनी छाती को पानी में डुबोने को कहा।
सही, शुरू हो गया। दूसरा-तीसरा-चौथा...भेजते ही रहे, मैंने हम सबको तुम्हारी छाती के पानी में तुम्हारी अंतरगंगा में डुबोया। तुम्हारी गंगा मैली हो गई, सड़ गई। सड़कर दुर्गंधित हुई, मगर तुमने जिन लोगों को भेजा, उन्हें मैंने डुबोया ही। अपने जल की गंध तुम सह नहीं सके। नाक बंद की, दूर न हुई। अत्तर की बोतल उँडे़ल ली, बंद न की। अंत में तुमने कह दिया, ‘‘आग लगा दो।’’ उस इनसान की बातें चलती रहीं, तभी उसके नाखून बढ़ गए। आँखें लाल हुईं। उसके बदन से धुआँ फूटा, फिर अंत में वह भी एक चिता बन गया। मैं इस डर से कि वह मुझको ही जला देगी, ऊपर की तरफ भागने लगा। उस चिता से बचकर ऊपर जाने के लिए काडप्पा ने जो खोदा था, उन सीढि़यों को लाँघ-लाँघकर मैं चढ़ने लगा।