ज्ञानदान (कहानी) : यशपाल

Gyandaan (Hindi Story ) : Yashpal

महर्षि दीर्घलोम प्रकृति से ही विरक्त थे। गृहस्थ आश्रम में वे केवल थोड़े ही समय के लिए रह पाये थे। उस समय ऋषि पत्नी ने एक कन्यारत्न प्रसव किया था । महर्षि भ्रम और मोह के बन्धनों को ज्ञान की अग्नि में भस्म कर, वैराग्य साधना द्वारा मुक्ति पाने के लिए नर्मदा तीर पर एक आश्रम में आ बसे थे। ऋषि पत्नी भी पुत्री के साथ एक पर्णकुटी में उन्हीं के समीप रहती थीं । वे भी ऋषि पति की सेवा-भक्ति कर, उनके ज्ञान के प्रकाश में, जीवन के दुरूह दुःख - मायामय भँवर से मुक्ति पाने की आशा करती थीं ।

महर्षि ने अपनी कन्या की आत्मा को पहले गृहस्थ के माया-बन्धन के कीचड़ में फँसने देकर, फिर तपश्चर्या द्वारा मुक्ति की साधना का मार्ग दिखाने की अपेक्षा उसे आरम्भ से ही तप और त्याग द्वारा मुक्ति के मार्ग की दीक्षा दी थी । वन्य लता - द्रुमों और तपोवन के पशु-पक्षियों की संगति में पली ब्रह्मचारिणी सिद्धि का शारीरिक और मानसिक वासना से कोई परिचय न था । आश्रम के नियमों के अनुसार आत्मा मुख्य और शरीर गौण था। ब्रह्मचारिणी सिद्धि अपने शारीरिक विकास से उन्मुख रहकर आत्मा को पहचानने में ही तत्पर रहती थी ।

सिद्धि पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए छब्बीस वर्ष की आयु को प्राप्त हुई। उसके सिर के लम्बे केशों ने अलंकार और प्रसाधन के साधनों का स्पर्श कभी न किया था। उसके उपेक्षा से पीठ पर फेंके हुए दीर्घ केशों के शृंगार नर्मदा नदी के जल में स्नान करते समय उलझ जाने वाले अबरक के कण और काई ही थे। उसके मस्तक पर प्रातः स्नान का चिह्न, नदी-पुलिन के त्रिपुण्ड्र की खौर रेखा विद्यमान रहती थी। शरीर का बोझ बनते हुए उच्छृंखल उरोज केले की छाल में पीठ पीछे बँधे रहते थे । कमर से नीचे का भाग मृगचर्म से ढका था। वह ऋषि उपदेश के अनुसार शारीरिक आवश्यकताओं को आत्मा का शत्रु समझ उनका सदा दमन करती थी । प्राणायाम और समाधि द्वारा मन और इच्छाओं का निग्रह करना उसके लिए सुख था। वह क्षणिक सुखों की अनुभूति की इच्छा को पाप समझ कर सदा चिरन्तन सुख की ही कल्पना करती थी । वह सुख था, सुख की इच्छा का न होना। वह ब्रह्मचारिणी थी; संयम ही उसका जीवन था ।

नर्मदा तट पर महर्षि दीर्घलोम का आश्रम पर्वतों की गुफाओं से घिरी वनस्थली में था। गोदावरी, गंगा, यमुना और हिमालय तक के तपोवनों में महर्षि दीर्घलोम के अनासक्ति योग की चर्चा थी । उनके यहाँ कर्मकाण्ड का महत्त्व केवल वैराग्य साधना के लिए ही था । उनका उपदेश था— कर्मों और संस्कारों के बन्धनों में फँसी मनुष्य की आत्मा माया के आकर्षण से निर्बल होकर जीवन और मृत्यु के बन्धनों में दुख पाती है। दुख से मुक्ति और शाश्वत आनन्द की प्राप्ति का मार्ग कर्म और संस्कार के बन्धनों से आत्मा को मुक्त करना है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति है । चिर आनंन्द मुक्ति है।

महर्षि दीर्घलोम अनासक्ति के मार्ग में विश्वास करते थे। उनका उपदेश था—संग से मोह उत्पन्न होता है, मोह से काम, काम से क्रोध और क्रोध से बुद्धि विभ्रम । बुद्धि विभ्रम सर्वनाश है। महर्षि परम ज्ञानी और वेदोद्गाता थे। अमरत्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिज्ञासु ब्रह्मचारियों का दल उनके चारों ओर बना रहता था । दूर-दूर से राजा और ऋषि अनासक्ति योग का उपदेश लेने वहाँ आते थे। चातुर्मास आने पर अनेक परिव्राजक संन्यासी भी आश्रम में आ टिकते थे ।

चातुर्मास आरम्भ होने पर आश्रम में निवास करने के लिए आये परिव्राजक तपस्वियों में ब्रह्मचारी नीड़क भी आये थे । ब्रह्मचारी नीड़क को यौवन से पूर्व ही ज्ञान लाभ हो गया था। उन्होंने सांसारिक मोहजाल में फँस कर ब्रह्मचर्य से ही वैराग्य का मार्ग ग्रहण कर लिया था। आयु अधिक न होने पर भी उनका ज्ञान और योग परिपक्व था । उन्होंने विषयों की निस्सारता के तत्त्व को ज्ञान चक्षु द्वारा पहचान कर परमसत्य ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त कर लिया था । अनासक्ति और समाधि द्वारा उनका मर्त्यलोक और ब्रह्मलोक में समान अधिकार था। वे एक ही समाधि में दस और पन्द्रह दिन तक बैठे रहते थे। एक समय समाधि अवस्था में, उनकी जटा में एक गौरैया ने नीड़ (घोंसला ) बना लिया था । तब से उनका नाम नीड़क पड़ गया था। उनकी समाधि की शक्ति की महिमा दशों दिशाओं में फैल गयी थी । महर्षि दीर्घलोम ने ब्रह्मचारी नीड़क की अभ्यर्थना की और उनसे प्रार्थना की कि वे अपने अलौकिक ज्ञान की शक्ति से उन लोगों का अज्ञान दूर करें जो ज्ञानयोग के नाम पर तर्क का आश्रय लेकर, बुद्धि की लम्पटता द्वारा अपनी वासना को तृप्त करने की चेष्टा करते हैं ।

यज्ञ-कुण्ड में सुलगती हुई पवित्र समिधाओं, घृत और सुगंधित मूलों के पुनीत धूम से आश्रम का वातावरण सुवासित हो रहा था। उस सुगन्ध को वनप्रान्त से आयी बनैली मालती और पाटल के फूलों की सुगन्ध की लहरें अधिक रुचिर बना रही थीं। आश्रम के विशाल वट वृक्ष के नीचे ऋषि-वृन्द ब्रह्मचारी नीड़क का प्रवचन सुनने के लिए एकत्र थे । कुछ वृद्ध तपस्विनियाँ और ऋषि-पुत्री सिद्धि भी बांयीं ओर बैठी थीं ।

ऋषियों की अभ्यर्थना में फैले हुए बलि के चरु का भोजन पाकर आश्रम निवासी मृग तृप्ति से किलोल कर रहे थे। वृक्षों की टहनियों पर बैठे पक्षी अपने पंखों को चोंच से सहला - सहला कर कलरव कर रहे थे । ज्ञानधनी ऋषि लोग इन सब सांसारिकताओं से विरक्त ब्रह्मचारी नीड़क द्वारा चिरन्तन, अविनाशी सुख की प्राप्ति पर प्रवचन सुन रहे थे ।

ब्रह्मचारी नीड़क का मुखमण्डल जटाजूट और श्मश्रु ( दाढ़ी-मूँछ ) से ढँका था । उनके मस्तक पर नर्मदा के पुलिन का खौरा त्रिपुण्ड शोभायमान था। उनके नेत्रों से ज्ञान की उग्र ज्योति निकल रही थी । उनमें आत्म-विश्वास का तेज था। उनके लोमपूर्ण विशाल वक्षस्थल से क्षीण कटि पर मूँज का यज्ञोपवीत लटक रहा था। तपस्या से क्षीण उनके उदर पर त्रिवली पड़ रही थी । कटि से नीचे शरीर मूँज के वस्त्र से ढँका था। वे पद्मासन की मुद्रा में बैठ चार घड़ी तक प्रवचन करते रहे ।

ब्रह्मचारी नीड़क ने कहा - " तर्क बुद्धि का विकार है । बुद्धि संस्कारों से आवेष्टित है। मनुष्य की इच्छा और वासना ही उसके तर्क का मार्ग निश्चित करती हैं, इसलिए तर्क प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वासना के मार्ग का प्रतिपादन करने लगता है ।”

ब्रह्मचारी कहते गये – “ब्रह्मज्ञान अनुभूति द्वारा ही प्राप्त होता है । अनुभूति ही प्रधान है। तर्क भी अनुभूति पर आश्रित है। सृष्टि की कारणभूत शक्ति, मायामय प्रकृति और मनुष्य की अनुभूति यह सब एक हैं। जिस प्रकार वायु के स्पर्श से जल की सतह पर उठने वाले बुलबुले का अस्तित्व सारहीन है, वह क्षणभंगुर है, वह वास्तव में महान् जलराशि का अंश मात्र है; उसी प्रकार मनुष्य का जीवन संस्कारों की वायु के स्पर्श से ब्रह्म के अपार सागर में उठ जाने वाला बुलबुला मात्र है। जीवन का यह बुलबुला सत्य नहीं हो सकता । सत्य और अमर शाश्वत ब्रह्म ही है । संस्कारों का आधार मनुष्य की वासना है । यह वासना संस्काररूपी वायु से जीवन का बुलबुला खड़ा कर देती है। यह बुलबुला ही अहम् का भाव और दुःख का कारण है।

"आत्मा ब्रह्म का अंश है, शरीर ब्रह्म की क्रीड़ा - प्रकृति का अंश है। इनके संयोग का अस्तित्व अस्थिर है। हमारे दुःख और सुख की अनुभूति केवल भ्रम है। संस्कारों की वायु से उत्पन्न बुलबुले का जल में मिल जाना ही आत्मा का ब्रह्म में मिल जाना है। यही चिरसुख है, परमपद है। क्षणिक सुख जब नष्ट होते हैं तब दुःख की अनुभूति होती है। वास्तविक सुख, क्षणिक सुख को छोड़ कर, चिरसुख जीवन - मुक्ति की साधना में ही है । चिरसुख इच्छाओं को जीतने में है, जिसका मार्ग समाधि है । समाधि शरीर के व्यवधान को पार कर आत्मा से परमात्मा के संयोग का साधन है । शरीर आत्मा का कारागार है। शरीर का मोह करना इस कारागार को दृढ़ बनाना है । भ्रम में फँसाने वाली शरीर की पुकार की चिन्ता ज्ञानी व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। शरीर की चिन्ताओं से मुक्ति पाना ही परम मुक्ति का मार्ग है ।"

ब्रह्मचारी नीड़क की दृष्टि अपने शब्दों का प्रभाव देखने के लिए श्रोतावृन्द के चेहरों पर घूम जाती थी। कुछ तपस्वी नेत्र मूँदे समाधिस्थ होकर इस ज्ञान को मनस्थ कर रहे थे। कुछ की दृष्टि जिज्ञासु भाव से वक्ता के मुख की ओर लगी हुई थी ।

ब्रह्मचारी नीड़क ने अपनी बायीं ओर देखा । उस ओर आश्रम की तपस्विनियाँ बैठी हुई थीं। यौवन ने उनके शरीर को व्यय करके छोड़ दिया था। जीवन में सुख की कोई आशा शेष न रहने पर उनके उत्सुक नेत्र, जर्जर शरीर की गुफाओं से, ब्रह्मचारी के सुख की सान्त्वना देने वाले शब्दों को निगलने का यत्न कर रहे थे। उनकी रीढ़ें झुक गयी थीं। बकरे के गले से लटकने वाले थनों की भाँति निष्प्रयोजन हो गये उनके स्तन, उनके पालथी मारे घुटनों को छू रहे थे। उनके शरीर चूस कर फेंके हुए आम के छिलकों के समान जीवन की निस्सारता की याद दिला रहे थे ।

वृद्ध तपस्विनियों के बीच में बैठी हुई थी ब्रह्मचारिणी सिद्धि । उसके सुरक्षित यौवन का रूप तप की अग्नि में तप कर और भी अधिक प्रखर हो रहा था। वह बिखरी हुई खाद के बीच में उग आये सूर्यमुखी के फूल के समान जान पड़ती थी। उसके सिर पर जटा का जूड़ा बँधा हुआ था । उसकी लम्बी पलकें मुँदी हुई थीं । कठोर जीवन के कारण त्वचा पर फैली शुष्कता को भेद कर यौवन का स्निग्ध लावण्य फूटा पड़ता था । उसके वक्षस्थल का उभार कदली की छाल में समेट कर मूँज की रस्सी से पीठ पीछे बँधा था। ब्रह्मचारिणी मेरुदण्ड को बिल्कुल सीधा कर समाधि के आसन में बैठी थी। उसके सुगोल बाहु प्रातः स्नान के चिह्न लिये पद्मासन की मुद्रा में रखे थे। उसके निश्चल शरीर से जीवन की स्फूर्ति की किरणें फूट रही थीं ।

ब्रह्मचारी नीड़क पर ब्रह्मचारिणी सिद्धि की उपस्थिति का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। उन्होंने अपने प्रवचन में कहा - " वैराग्य और समाधि के लिए उपयुक्त समय यौवन ही है !” परन्तु वे थम गये और कुछ सोच कर बोले, "जीवन में जिस समय भी मनुष्य आसक्ति को भ्रम समझ पाये और निवृत्ति से परम सुख का बोध उसे हो जाय, वैराग्य साधना के लिए वृद्धावस्था की प्रतीक्षा करना परम सुख की उपेक्षा करना है ।"

ब्रह्मचारी ने व्याख्या की — " वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ निस्तेज होकर सांसारिक सुख के स्थूल साधनों को भोगने में भी असमर्थ हो जाती हैं; ऐसी निर्बल इन्द्रियाँ वायु से भी सूक्ष्म आत्मा को और जल के प्रवाह से भी अधिक प्रबल मनोविकारों के वेग को किस प्रकार रोक सकेंगी ? वे परम सुख के अत्यन्त सूक्ष्म साधन ज्ञान को किस प्रकार प्राप्त कर सकेंगी?” ब्रह्मचारी का अभिप्राय वृद्धा तपस्विनियों के जराजीर्ण, फल्गुमात्र, अरुचिकर शरीरों से था । उन्होंने कहा, "वृद्धावस्था का वैराग्य वासना से इन्द्रियों की पराजय है।” यौवन का आत्म-विश्वास ब्रह्मचारी के विशाल वक्षस्थल में उमंग लेने लगा। उन्होंने कहा, "जिस समय शरीर के ओज और स्पन्दन की शक्ति से स्फूर्ति का प्रकाश फैलता है, वहीं समय वासना से युद्ध करने और ज्ञान उपार्जन तथा कठोर साधना का है। " उनकी दृष्टि सबल श्वास की गति से स्पन्दित, ब्रह्मचारिणी के वक्षस्थल की ओर चली गयी ।

मध्याह्न प्रवचन समाप्त होने पर ऋषि लोग कन्दमूल का आहार करने के लिए चले गये। ब्रह्मचारी नीड़क अपने विचारों में उलझे हुए नर्मदा तट पर जाकर नदी की लहरों का प्रहार सहते एक विशाल शिला- खण्ड पर बैठ गये । क्षुधा की अनुभूति ने उन्हें चेतावनी दी, यह समय कन्दमूल के सेवन का है। उन्होंने शरीर की उस पुकार की चिन्ता न की । शरीर का कठोर दमन, उसकी पुकार की उपेक्षा ही तपस्या है। इस तप का अत्यन्त सजीव उदाहरण ब्रह्मचारिणी सिद्धि के रूप में उनके सम्मुख था परन्तु युवती के ध्यान को वे मन में आने देना उचित न समझते थे ।

ब्रह्मचारी जल के प्रवाह पर दृष्टि लगाये विचार में मग्न थे । वे स्वच्छ जल में किल्लोल करती मछलियों को देखते हुए, दुखों की मूल वासना से मुक्ति पाने का उपाय सोचने लगे परन्तु विचारों के क्रम में ब्रह्मचारिणी सिद्धि का समाधिस्थ रूप दिखाई पड़ जाता; सीधे मेरुदण्ड, उन्नत मस्तक, नासिका, चिबुक, उरोजों की सन्धि और त्रिवलियों में छिपी नाभि सब एक सीधी रेखा में। मृगचर्म से आवृत शरीर के अधोभाग के सम्मुख पद्मासन में एक-दूसरे पर रखी हुई पिण्डलियाँ और हथेलियाँ ।

ब्रह्मचारी ने इससे पूर्व भी नारी को देखा था । उन्होंने अनेक बार पलित अंग तपस्विनियों और शरीर को वस्त्रों में लपेटकर राजमार्ग पर चलती हुई पाप और मोह में लिप्त आत्मा - नगर की स्त्रियों को देखा था । उनकी ओर दृष्टिपात करने की इच्छा भी ब्रह्मचारी नीड़क के मन में न हुई थी परन्तु ब्रह्मचारिणी सिद्धि का समाधिस्थ रूप बार-बार उनकी कल्पना में आ खड़ा होता था । उन्हें याद आ जाता - ब्रह्मचारिणी नेत्र मूँदे थी परन्तु अनेक श्रोता - ब्रह्मचारी, ऋषि और तपस्विनियाँ एकटक उसकी ओर देख रही थीं - सिद्धि नेत्र क्यों मूंदे थी ? ब्रह्मचारी के मन में प्रश्न उठने लगा ।

ब्रह्मचारी ने स्वयं अपने प्रश्न का उत्तर दिया- प्रवचन को ध्यानपूर्वक सुनने के लिये। उसी क्षण विचार आया - सम्भवतः इसलिए कि वह उन्हें देखना नहीं चाहती थी परन्तु वह देखना क्यों नहीं चाहती थी ? सिद्धि को उनसे क्या भय हो सकता था ?

ब्रह्मचारी ने स्वयं ही उत्तर दिया – समाधि के लिए वे भी तो नेत्र मूँद लेते हैं । उस समय किस वस्तु से भय होता है ? उत्तर मिला – संसार के दुःखों से मुक्ति पाने के लिए ही नेत्र मूँद कर संसार से अपना सम्बन्ध विच्छेद किया जाता है ।

ब्रह्मचारी समाधिस्थ हो जाने के लिए शिला-खण्ड पर पद्मासन से बैठ गये । नेत्र मूँद लेने से पूर्व उनकी दृष्टि जल में किल्लोल करती हुई मछलियों की ओर गयी यह मछलियाँ ?

नर्मदा तट की उत्तुंग शिलाओं में एक आकाश - बेधी तीव्र चीत्कार गूँज उठा। ब्रह्मचारी की दृष्टि उस ओर उठ गयी । नदी पार धूप में चमकती सबसे ऊँची संगमरमर की शुभ्र चट्टान पर पर चिपका कर चील ऊपर उड़ते सजातीय पक्षी की ओर कातर भाव से चोंच उठा कर चीख रही थी । चील के ऊपर पर फड़फड़ाता हुआ पक्षी भी व्याकुलता भरी उड़ानें ले-ले कर हृदय से उठे आवेग से आकाश को गुँजा रहा था। एक प्रबल आकर्षण दोनों को व्याकुल कर रहा था। ब्रह्मचारी नीड़क की रोमराशि सिहर उठी। उन्होंने एकाग्र होकर सोचा - तन अथवा मन की कौन वृत्ति इन पक्षियों को विक्षिप्त कर रही है ? उन्होंने सोचा, मनोवेग को वश में करने के लिए इन पक्षियों को ध्यान मग्न हो जाना चाहिए । इस पर भी विचार उठा– क्यों ? सुख की प्राप्ति के लिए ? यह चील और यह मछलियाँ समाधिस्थ क्यों नहीं होतीं? इन्हें जन्म-मरण के बन्धन से और दुःख से भय क्यों नहीं लगता? इनके शरीर में स्थित आत्मा को मुक्ति की इच्छा क्यों नहीं होती ? क्या वे ब्रह्म का अंश नहीं हैं ?

ब्रह्मचारी की शंका का उत्तर था - यह जीव भ्रम और अज्ञान के कारण दुःख को दुःख नहीं समझ पाते परन्तु इस उत्तर ने उनके विचारों में खलबली मचा दी। प्रश्न उठा – दुःख को दुःख न समझना भ्रम और अज्ञान है या दुःख से सदा भयभीत होकर उससे बचते रहने की चिन्ता में दुखी रहना अज्ञान है ? और भी प्रश्न उठा - इन जीवों के अज्ञान और भ्रम का कारण क्या है ? क्या यह वासना के दास हैं ? यदि वे वासना के दास हैं तो उनकी यह वासना, उनके शरीर और ब्रह्म के अंश उनके आत्मा का ही गुण और स्वभाव हैं ! इन जीवों का शरीर और अस्तित्व क्या उनकी अपनी इच्छा या वासना पर निर्भर है ? नहीं, वह तो ब्रह्म की ही लीला है। ब्रह्म की इच्छा के विरुद्ध वे कैसे जा सकते हैं ? मनुष्य भी क्या ज्ञानमय ब्रह्म की इच्छा के विरुद्ध जा सकता है ? क्या मनुष्य की प्रवृत्ति, उसकी इच्छा और वासना भी प्रकृति और ब्रह्म का विधान नहीं है ? क्या मनुष्य की तपस्या, ज्ञान उपार्जन का प्रयत्न और वासना को दमन करने की चेष्टा ब्रह्मशक्ति के विधान और कार्यक्रम के विरुद्ध नहीं हैं ?

ब्रह्मचारी नीड़क समाधिस्थ न हो सके। वे सोचते चले गये - भय और पीड़ा इन पशु-पक्षियों के जीवन में भी आती है परन्तु वे दुःख और पीड़ा की आशंका और चिन्ता को ही जीवन का लक्ष्य बना कर मुक्ति की चिन्ता नहीं करते रहते। वे सुख को सुख और दुःख को दुःख मान कर । जो कुछ जीवन में सम्मुख आता है, उसे ग्रहण कर जीवन की यात्रा पूर्ण कर देते हैं। यही वास्तविक अनासक्ति है। जीवन की यात्रा समाप्त हो जाने पर इन जीवों और मनुष्य की आत्मा में क्या कुछ अन्तर रह जायगा...?

सम्मुख शिला-खण्ड पर परों की फड़फड़ाहट और चीत्कार सुनकर ब्रह्मचारी की दृष्टि फिर उस ओर गयी । चील का जोड़ा जीवन और जन्म के क्रम को निरंतर रखने के प्रयत्न में लगा हुआ था। ब्रह्मचारी का शरीर एक अद्भुत रोमांच की सिहरन और उद्वेग से बल खाकर रह गया जैसे वेग से दौड़कर लक्ष्य को पकड़ते समय लक्ष्य अदृश्य हो जाये ।

ब्रह्मचारी को स्मरण हुआ कि वे समाधिस्थ होने जा रहे थे परन्तु अब समाधि के लिए दृढ़ता और उत्साह शेष न रहा था । मन में तर्क और शंका ने स्थान ले लिया था । समाधि के प्रति विरक्ति के भाव ने कहा— सहज सुख से उपराम होकर तप, त्याग और समाधि द्वारा भी सुख की ही तो खोज की जाती है। यह क्या प्रवंचना है ? वितृष्णा की एक मुस्कान से ब्रह्मचारी के होंठों पर खड़े श्मश्रु तनिक थिरक कर रह गये । उनकी ग्रीवा पराजय के से भाव में एक ओर झुक गयी। एक साँस खींचकर उन्होंने कहा- जीवित रह कर जीवन के क्रम का विरोध ?

ब्रह्मचारी नीड़क को विचारों की भूल-भुलैया में भूल जाने के कारण क्षुधा और समय का कुछ ध्यान न रहा। सूर्य आकाश के मध्य से पश्चिम की ओर ढलता चला जा रहा था। ब्रह्मचारी नीड़क के मस्तिष्क के अतिरिक्त विशाल प्रकृति का शेष व्यापार गति के प्रवाह में स्वाभाविक रूप से बहता चला जा रहा था ।

ब्रह्मचारी नीड़क ने नदी के जल में विलोडन का शब्द सुना । दृष्टि बायीं ओर नदी तट की ओर चली गयी। तट के समीप एक स्थान से जल की लहरें वृत्ताकार फैलती हुई कुछ दूर जाकर जल में विलीन हो रही थीं। वहाँ समीप ही तट पर मृगचर्म और कमण्डल भी रखा हुआ था । कौन ? यह प्रश्न नीड़क के मस्तिष्क में उठने से पहले ही फैलती हुई लहरों के वृत्त के केन्द्र से, फैले हुए भीगे केशों से ढका सिर जल के ऊपर उठा । दो हाथों ने उन फैले हुए केशों के बीच से मुख को बाहर किया। जल की वृत्ताकार लहरें नये सिरे से एक बार और फैलने लगीं । नीड़क ने देखा, वह आकृति ब्रह्मचारिणी सिद्धि की थी । ब्रह्मचारिणी के श्मश्रुहीन मुख की कोमलता से ब्रह्मचारी के शरीर में बिजली-सी कौंध गयी । कन्धों तक जल में खड़ी ब्रह्मचारिणी डुबकी लेकर अपने शरीर का प्रक्षालन कर रही थी। उनके अंगों के हिलने से नर्मदा का जल क्षुब्ध हो रहा था और उस दृश्य से उसी मात्रा में नीड़क के शरीर का रक्त भी ।

ब्रह्मचारी नीड़क उस ओर से दृष्टि न हटा सके। स्नान करके ब्रह्मचारिणी सिद्धि तट की ओर चली । तट की ओर उठते हुए प्रत्येक पद से उसका शरीर क्रमशः जल के बाहर होता जा रहा था। नीड़क की दृष्टि निरंतर उसी ओर थी । विचारों के क्षोभ से उनके श्वास की गति तीव्र हो गयी थी। वे हृदय से उठकर कण्ठ में आ गये उद्वेग को निगल जाने का प्रयत्न कर रहे थे ।

अपने यौवन-धन के शत्रु पुरुष की दृष्टि से सुरक्षित उस स्थान में ब्रह्मचारिणी जल के आवरण से निकल कर अपने शरीर को दूसरे आवरणों में सुरक्षित करने लगीं। उन्होंने कटि पर मृगचर्म को मूँज की मेखला से बाँधा और उन्नत वर्तुल उरोजों को कदली वल्कल के वर्तुल में छिपाकर मूँज की रस्सी से पीठ के पीछे बाँध लिया, मानो तप साधना के शत्रुओं को विघ्न डालने से दूर रखने के लिए बन्दी बना दिया हो ।

ब्रह्मचारिणी सिद्धि ने स्नान के पश्चात् नदी से कमण्डल भर कर पश्चिम क्षितिज पर अनेक रंग के मेघों से घिरे सूर्यदेव का तर्पण किया और आश्रम की ओर चलने लगी ।

सिद्धि ने सहसा पुकार सुनी - " ब्रह्मचारिणी ! "

चौंककर सिद्धि ने अपने बायीं ओर देखा। लम्बे पग रखते हुए ब्रह्मचारी नीड़क उसी ओर आ रहे थे । ब्रह्मचारिणी ने नत शिर होकर उन्हें प्रणाम किया। यह विचार कर उसका शरीर झन्ना उठा कि इस स्थान को उसने पुरुष की दृष्टि से निरापद समझा था ।

ब्रह्मचारिणी सिर झुकाये तपोधन नीड़क की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही थी । नीड़क की तीव्र दृष्टि ब्रह्मचारिणी की संकुचित, मौन, संयत मुद्रा की ओर थी। उनके मुख से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। उन्होंने तरल स्वर में पूछ लिया- "ब्रह्मचारिणी, जीवन का उद्देश्य क्या है ?"

सिद्धि ने उत्तर दिया – “जीवन के बन्धन से मुक्ति !”

नीड़क ने सिद्धि के मुख पर दृष्टि केन्द्रित कर पूछा - "जीवन का प्रयोजन क्या स्वयं अपना नाश करना ही है ? ब्रह्मचारिणी, जीवन है क्या ?"

सिद्धि ने दृष्टि झुकाये उत्तर दिया – “आत्मदर्शी ऋषियों के वचन के अनुसार जीवन दुःख का बन्धन है ।"

सिद्धि के नत नेत्रों की ओर देख ब्रह्मचारी नीड़क ने फिर प्रश्न किया - "जीवन दुःख का बंधन है और जीवन का उद्देश्य इस बंधन से मुक्ति प्राप्त करना है ? ब्रह्मचारिणी, जो कहा जाता है और जो सुना जाता है उसे एक ओर छोड़ कर तुम अनुभूति की बात कहो ! जीवन देने वाली सृष्टि की संचालक ब्रह्मशक्ति जीवन को समाप्त करके उससे मुक्ति पाने के लिए ही जीवन की सृष्टि करती है, यह बात तर्कसंगत और बुद्धिसंगत नहीं है।"

सिद्धि ने कुछ क्षण विचार कर उत्तर दिया – “महर्षि के प्रवचन में यह प्रसंग कभी नहीं आया । ज्ञाननिधि इस प्रश्न का समाधान करें ।"

नीड़क ने फिर प्रश्न किया - "जीवन का सबसे भयंकर दुःख कौन है ब्रह्मचारिणी ?"

ब्रह्मचारिणी ने संक्षिप्त उत्तर दिया- "मृत्यु ।”

हल्की मुस्कराहट से नीड़क के श्मश्रु थिरक उठे । सिद्धि की दृष्टि नर्मदा के पुलिन पर थी। नीड़क बोले – “मृत्यु ! ब्रह्मचारिणी, जीवन के क्रम में मृत्यु अनिवार्य है। उसका भय भ्रम है। वह व्यर्थ आतंक है। मृत्यु जीवन को समाप्त नहीं कर देती । वह जीवन की शृंखला में जीवन की एक कड़ी की सीमा है । जीवन की एक कड़ी के बाद दूसरी फिर तीसरी क्रमशः चलती है । जीवन के क्रम को चलाना ही सृष्टि का प्रधान कार्य है । शंका उत्पन्न करके उसका समाधान करना, दुख की कल्पना कर उससे निर्वाण का उपाय ढूँढ़ना, क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? ब्रह्मचारिणी, जीवन की इच्छा, प्रवृत्ति और गति ने क्या कभी तुम्हें स्वाभाविक मार्ग की ओर नहीं पुकारा ?"

सिद्धि ने कुछ क्षण मौन रह कर उत्तर दिया – “ज्ञाननिधि, मेरा तप अपूर्ण है। मेरी आत्मा ने अभी ज्ञान नहीं पाया है । "

“ब्रह्मचारिणी, आँख मूँदकर जिस ज्ञान की खोज की जाती है, उसके विषय में प्रश्न नहीं कर रहा हूँ," नीड़क ने कहा, "प्रत्यक्ष अनुभव में जो जीवन और ज्ञान आता है, उसी की बात पूछ रहा हूँ।"

सिद्धि ने प्रश्न का भाव ठीक से न समझ कर नेत्र झुकाये निवेदन किया - "ऋषिवर का तत्त्व मैं ग्रहण नहीं कर पायी। तपोधन, उपदेश कीजिये जीवन क्या है ?"

नीड़क ने दीर्घ निश्वास से उत्तर दिया- "नर्मदा का प्रवाह ही उसका जीवन है। यदि प्रवाह की गति का अवरोध करके इसे उद्गम की ओर प्रवाहित करने की चेष्टा की जाय तो क्या होगा ? यदि यह नदी प्रवाह को दुःख समझ कर गति निरोध द्वारा प्रवाह से मुक्ति प्राप्त करना चाहे तो क्या होगा ?"

सिद्धि ने अंजलिबद्ध करों से विनय की - " ऐसा अगम ज्ञान केवल तपोधन भविष्य-द्रष्टा ऋषि लोगों को ही प्राप्त हो सकता है। ज्ञानधन, अभी मेरी आत्मा ज्ञानहीन और निर्बल है । "

नीड़क बोले—“ब्रह्मचारिणी, जीवन की इच्छा को ही तुम निर्बलता समझती हो। उसे वासना का नाम देकर अपनी सम्पूर्ण शक्ति से जीवन का हनन करने का यत्न करती हो। तुम दुःख को सुख और सुख को दुःख मानने का यत्न कर यह भूल जाना चाहती हो कि जीवन क्या है ?"

नीड़क के शरीर में रक्त के वेग की उत्तेजना का ज्ञान, सम्पर्क के अभाव में, सिद्धि के लिए सम्भव न था परन्तु प्रातः प्रवचन के समय ब्रह्मचारी के स्थिर गम्भीर स्वर और इस समय के स्वर के तरल-कम्पन में ब्रह्मचारिणी अन्तर अनुभव कर रही थी । एकान्त में मिलने के संकोच से एक मधुर मूढ़ता ब्रह्मचारिणी के मस्तिष्क में प्रवेश करती जा रही थी । उसने बद्ध - अंजलि होकर विनय की - "ज्ञानधन, ज्ञानदान दीजिये !”

"ज्ञान ?" नीड़क ने एक दीर्घ निश्वास लेकर नदी पार संगमरमर के उत्तुंग शुभ्र शिला-खण्डों की ओर दृष्टि उठायी। चील की जोड़ी अभी तक अपने जीवन की शक्ति को शरीर में सीमित न रख सकने के कारण उसके लिए नवीन शरीरों की रचना में व्यस्त थी । चरम सीमा पर पहुँचा हुआ उनके जीवन का उच्छ्वास तीव्र चीत्कारों के रूप में नर्मदा तट की उत्तुंग शिलाओं से टकराकर जल पर गूँज रहा था। नीड़क ने उस ओर संकेत कर कहा, "उस ओर देखो ब्रह्मचारिणी !"

ब्रह्मचारिणी सिद्धि ने दृष्टि उठाकर देखा । विषयान्ध शरीरों का ऐसा व्यापार उसने पहले भी देखा था । ऐसे अवसर पर उस ओर से दृष्टि हटा कर प्राणायाम द्वारा मन और इन्द्रियों का निरोध कर मन को विकार के आक्रमण से बचाने का प्रयत्न उसने किया था, परन्तु पूर्ण युवा ब्रह्मचारी की उपस्थिति में, उनके संकेत से उस दृश्य को देख कर ब्रह्मचारिणी का शरीर कंटकित हो उठा। उसके नेत्र झुक गये। उसका मुख आरक्त हो गया।

ब्रह्मचारी नीड़क के श्वास का वेग अधिक तीव्र हो गया। उनके स्नायु वीणा के तने हुए तारों की भाँति झनझनाने लगे । ब्रह्मचारिणी का शरीर उन्हें तीव्र वेग से आकर्षित कर रहा था । नेत्र झुकाये का मुख आरक्त हो जाना ब्रह्मचारी को असह्य हो रहा था। उन्होंने एक पग समीप होकर कम्पित स्वर में पूछा - " ब्रह्मचारिणी, क्या वह पाप और अनाचार है तो क्या जीवन भी पाप और अनाचार नहीं ?"

ब्रह्मचारिणी ने नेत्र मूँदकर कम्पित स्वर में उत्तर दिया – “तपोधन, ऋषियों के वचन के अनुसार यह अज्ञान के कारण, वासना के पंक में फँसकर मुक्ति के मार्ग से च्युत होना है। आत्मा को दुख के बन्धन में फँसा देना है । जीवन भ्रम और माया है ।"

"ब्रह्मचारिणी, यह दुख का बन्धन है ?" ब्रह्मचारिणी की ओर एक और पग बढ़ कर नीड़क ने प्रश्न किया, "तुम्हारा विश्वास है, चील की यह जोड़ी इस समय जन्म - मृत्यु के माया-बंधन को सम्मुख देख कर भय से कातर होकर चिल्ला रही है या वे जीवन के उच्छ्वास की पूर्ति के आवेग में आत्म-विस्मृत हो रहे हैं ?

"क्या यह जीवन माया और भ्रम है ब्रह्मचारिणी ?" ब्रह्मचारी ने ब्रह्मचारिणी को मौन देखकर फिर पूछा, "जिस सत्य की अनुभूति हम रोम-रोम से कर रहे हैं, संसार में व्यापक ब्रह्म की वह शक्ति माया और भ्रम है । इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सुख की उपेक्षा कर, अतृप्ति के कारण उत्पन्न दुख को सुख समझने की चेष्टा करना सत्य है ? ब्रह्मचारिणी, क्या तुम सत्य को मिथ्या और मिथ्या को सत्य मानने का यत्न नहीं कर रही हो ?"

सिद्धि मौन रही ।

नीड़क ने अपनी तर्जनी से संकेत कर पूछा - "ब्रह्मचारिणी, क्या तुम हृदय में कामना के रूप में जीवन की शक्ति को अनुभव नहीं कर रही हो ? क्या तुम हृदय में द्वन्द्व अनुभव नहीं कर रही हो?"

ब्रह्मचारिणी ने अपने झुके हुए त्रस्त अधमुँदे नेत्रों को क्षण भर के लिए ऊपर उठा कर उत्तर दिया – “अन्तर- द्रष्टा ज्ञानी, आपका वचन सत्य है। मैं निर्बल आत्मा इन्द्रियों का निग्रह मैं अभी तक नहीं कर पायी हूँ ।"

ब्रह्मचारी ने अपना हाथ सिद्धि के कन्धे पर रख दिया। उन्होंने अनुभव किया ब्रह्मचारिणी का शरीर काँप रहा था। अपनी बाँह से उसकी पीठ को सहारा देकर दूसरे हाथ से उसका चिबुक ऊपर उठाकर ब्रह्मचारी ने कहा – “सुन्दरी, यह द्वन्द्व जीवन की माँग और ब्रह्म की शक्ति है । "

ब्रह्मचारिणी के पैर इस प्रकार लड़खड़ा गये मानो वह गिर पड़ेगी। ब्रह्मचारी ने कुछ हतप्रतिभ होकर प्रश्न किया - " सुन्दरी, मेरे कठोर शरीर के स्पर्श से तुम्हें असुख का अनुभव होता है ?"

नीड़क के शरीर का आश्रय लेकर सिद्धि ने काँपते हुए स्वर में उत्तर · देने का यत्न किया- "नहीं एक अपरिचित अनुभूति है, कुछ असह्य- सी, कुछ अप्राप्य - सी अत्यन्त प्रिय है । आह !”

सिद्धि का कंठ रुँध गया । उसका जटावेष्टित सिर ब्रह्मचारी के लोमपूर्ण वक्षस्थल पर टिक गया। नर्मदा के पुलिन से भरे सिद्धि के जटाजूट पर नीड़क के ओष्ठ आ टिके ।

सिद्धि सहसा चौंक कर अपने पैरों पर खड़ी हो गयी - "ज्ञानधन, अज्ञान का अन्धकार मुझे घेरे ले रहा है। मुझे ज्ञान दीजिये !"

ब्रह्मचारी ने कुछ हतोत्साह होकर उत्तर दिया – “ज्ञान ! - ज्ञान चेतना का विकास है। चेतना का द्वार इन्द्रियाँ हैं । प्रकृति स्वयं उन्हें मार्ग दिखाती है। ब्रह्मचारिणी, प्रकृति का हनन और दमन अज्ञान है।"

ब्रह्मचारिणी ने निर्बलता अनुभव कर आश्रय के लिए अपने दोनों बाहु, शरीर के बोझ सहित ब्रह्मचारी के कन्धे पर रख दिये ।

ब्रह्मचारी नीड़क और ब्रह्मचारिणी कम्पित चरणों से नर्मदा के पुलिन पर दोहरे चरण-चिह्न अंकित करते हुए नीरव नदी-तट की निर्जन शिलाओं की ओर चले जा रहे थे । नवोदित तारे अपनी शीतल किरणों की उँगलियों से श्रावण के घने मेघों का पट खोलकर, पृथ्वी पर होने वाले सृष्टिक्रम के व्यापार को देखकर संतोष प्रकट कर रहे थे । ब्रह्म की शक्ति सृष्टि के क्रम की रक्षा के लिए प्राकृतिक शक्तियों का आयोजन कर रही थी ।

ब्रह्म मुहूर्त से पूर्व ही श्रावण के घने मेघ अविराम बरस रहे थे परन्तु यम-नियम का पालन करने वाले ऋषि लोग प्रातः कर्म से निवृत्त होकर आश्रम के विशाल बरगद के नीचे ज्ञान चर्चा के लिए एकत्र हो गये थे । यज्ञ का पवित्र धूम, दिशा बदलती हुई वायु के प्रहारों से महावृक्ष को चारों ओर से घेर कर स्थिर-सा हो रहा था। पिछले दिन मध्याह्न से ब्रह्मचारी नीड़क की अनुपस्थिति और संध्या समय नदी स्नान करने जाकर ब्रह्मचारिणी सिद्धि के न लौटने की चिन्ता सभी आश्रम निवासियों को विक्षिप्त किये थी । प्रसंग में महर्षि दीर्घलोम ने कहा- "वासना मनुष्य की सबसे बड़ी शत्रु है । वासना की अग्नि में मनुष्य का ज्ञान सूखी समिधाओं की भाँति भस्म हो जाता है ।"

सूर्योदय के समय नर्मदा तट की एक गुफा में नीड़क ने निद्रा समाप्त होने की अँगड़ाई ली। उनका शरीर हिलने से सिद्धि सचेत हो गयी । नीड़क के पलक खुलने से पूर्व ही उसने उपेक्षित मृगचर्म को शरीर पर खींचते हुए गुफा द्वार से बाहर दृष्टि डालकर कहा - "ब्रह्म मुहूर्त व्यतीत हुए विलम्ब हो गया जान पड़ता है !"

"हाँ!" नीड़क ने उत्तर दिया, "समाधि का समय बीत गया है। " और सिद्धि की ग्रीवा को अपनी बाँह में लेकर, उसके अधमुँदे नेत्रों में नेत्र गड़ाकर नीड़क ने मुस्कान से पूछा, "सच कहो, अनेक वर्ष समाधि द्वारा परम सुख में तल्लीन होने और आत्म-विस्मृति में संसार को भूल जाने की चेष्टा करके भी क्या कभी तुम तृप्ति में इतनी आत्म-विस्मृत हो सकी थी जितनी इस सम्पूर्ण रात्रि में ?"

सिद्धि ने तृप्ति में पुनः आत्म-विस्मृत हो नीड़क की ग्रीवा को आलिंगन में लेकर उन्मीलित नेत्रों से उत्तर दिया – “आर्य सत्य कहते हैं ।"

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