ज्ञान की सीमा (कहानी) : गुरुदत्त
Gyan Ki Seema (Hindi Story) : Gurudutt
जब मैं पाँच वर्ष का हुआ तो मेरे पढ़ने-लिखने की चिंता होने लगी । उन दिनों यह प्रथा थी कि पहले लड़कों को
पाधे के पास पढ़ने बैठा दिया जाता था । हमारे मुहल्ले के मेरी आयु के लड़के पाधे के पास पढ़ने के लिए बैठाए गए
थे ।
जैसे परिवारों के पुरोहित होते हैं , वैसे ही पाधे होते थे। स्वाभाविकतया मुझे भी एक पाधे के पास पढ़ने के लिए
बैठाया गया । पाधे ने मेरी नई पाटी ली और उस पर केसर से गणेश ( स्वास्तिक ) का चिह्न बनाकर उसका पूजन
किया और फिर मुझे लुंडी भाषा का उड़ा-ऐड़ा ( अ - आ ) लिखना सिखाया ।
हमारा पारिवारिक पाधा हमारी गली के सामने की गली में रहता था , परंतु उसके पढ़ाने का स्थान कुछ अंतर पर
था । उसका विख्यात नाम था — मोती पाधा । वैसे उसके पिता अथवा बाबा का नाम मोती राम था और उनके नाम से
ही वह भी मोती पाधा प्रसिद्ध था । वास्तव में उसका नाम था पंडित हुकुमचंद ।
मुझे प्रथम शिक्षा तथा दीक्षा देने के लिए पंडितजी को सवा रुपए तथा लड्डू दिए गए । इसके साथ ही सारे
मुहल्ले में भी लड्डू बाँटे गए । मैं भी बहुत प्रसन्न था । कारण यह कि मुहल्ले के अन्य लड़कों के साथ मैं भी
पढ़नेवाला बन गया था ।
लगभग छह मास तक मैं पंडित हुकुमचंद अर्थात् मोती पाधे से पढ़ता रहा । इन छह महीनों में लुंडी के अक्षरों का
ज्ञान ही प्राप्त कर सका था । मुझे इससे संतुष्टि नहीं थी और मैं निराश हो गया था ।
मेरा एक मित्र था चुन्नीलाल । हमारे मकान के सामने के मकान में रहता था । वह मुझसे आयु में कुछ बड़ा था
और एक अन्य पाधे से पढ़ा करता था । वह शिक्षा में पहाड़े ( गुणा करने के गुर ) सीख चुका था ।
एक दिन उसने मुझे कहा कि चलो हमारे पाधे के पास । तुम्हारे मोती पाधे को तो पढ़ाना ही नहीं आता । मैं भी
पहले वहाँ पढ़ने बैठा था, परंतु जब उसने कुछ पढ़ाया नहीं तो मैं उसे छोड़ टक्साल वाले पाधे से पढ़ने जाने लगा
हूँ । मुझे उसकी बात पसंद आई और मैं बिना पिताजी तथा माँ को बताए उसके साथ उसके पाधे के पास जा पहुंचा ।
पाधे के सम्मुख मुझे प्रस्तुत किया गया तो पाधे ने कह दिया, " सवा रुपया लाओ। "
मैंने पाधे को बता दिया कि मैं पिताजी को बताए बिना ही आया हूँ और मेरे पास रुपए नहीं हैं । उसने कहा ,
" अच्छा, कुछ दिन आओ और फिर घर से माँग लाना । "
मैं उस पाधे के पास जाने लगा । मुझे जमा - बाकी तथा पहाड़े सिखाए जाने लगे । अभी मुझे वहाँ जाते कुछ ही दिन
हुए थे कि पाधा हुकुमचंद पिताजी के पास शिकायत लेकर आ पहुँचा कि मैं उसके पास पढ़ने नहीं आता । यह बात
उसने मेरे पीछे कही थी । उस समय मैं टक्सालवाले पाधे के पास पढ़ने गया हुआ था ।
इस कारण मेरी खोज होने लगी । सायंकाल मैं अपनी पाटी और कलम - दवात लिये आया तो पिताजी ने बुला
लिया । मैं उनके सामने दुकान पर जा खड़ा हुआ । पिताजी ने पूछा, " कहाँ से आ रहे हो ? "
" पाधे से पढ़कर । "
" तुम वहाँ नहीं थे? "
" मैं टक्सालवाले पाधे से पढ़ने जाता हूँ । "
" पर वह तो मुसलमान है? "
" वह मोती पाधे से अच्छा पढ़ाता है और मैं जमा, बाकी तथा पहाड़े सीख रहा हूँ! "
" कब से जा रहे हो वहाँ ? "
" दो महीने से । "
" और उसने नजर ( दक्षिणा) नहीं माँगी ? "
" माँगी थी ! "
" तो कहाँ से दी थी ? "
" मैंने कहा था कि मैं आपसे पूछे बिना पढ़ने आया हूँ । उसने कह दिया कि कुछ दिन आओ, फिर घर से माँग
लाना । "
इस घटना ने मेरी शिक्षा की चर्चा आरंभ कर दी । दुकान पर फोरमैन क्रिश्चियन स्कूल के मास्टर लाला बूटाराम
आया करते थे । वह हमारे मुहल्ले में ही रहते थे और मास्टरजी करके पुकारे जाते थे।
वह कई बार पिताजी को कह चुके थे कि मुझे स्कूल में प्रवेश दिलाना चाहिए, पाधे की प्रथा अब नहीं रहेगी ।
पिताजी का विचार कुछ भिन्न था । हमारी दुकान के सामने के मकान में एक पंडित धर्मचंद रहते थे। वह नित्य
दुकान पर एक - आध लवंग लेने आया करते थे। पंडित धर्मचंद रहनेवाले अमृतसर के थे और उन दिनों लाहौर
आकर रहने लगे थे।किसी समय वह स्वामी दयानंदजी के साथ लेखक के रूप में रह चुके थे, इस कारण पिताजी
के मन में उनके प्रति भारी श्रद्धा थी । वह पिताजी को कहा करते थे कि गुरुदास को जरा बड़ा होने दें , फिर इसे
संस्कृत पढ़ाकर वैद्यक सिखा दें । तब यह वैद्य बन जाएगा ।
पिताजी की दुकान अत्तारी की थी और उन दिनों वह हिकमत (चिकित्सा- कार्य ) भी करते थे। अत: पंडित धर्मचंद
की योजना पिताजी को पसंद थी और वह उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे थे।
परंतु अपने आप पाधा बदलने की घटना से अविलंब कुछ करना आवश्यक हो गया ।
हमारी दुकान पर मुहल्ले के युवक, जो मेरे बड़े भाई साहब के मित्र थे, एकत्र हुआ करते थे। यहाँ एक प्रकार
की गोष्ठी हुआ करती थी । एक व्यक्ति समाचार - पत्र पढ़ा करता था और सब सुना करते थे और फिर चर्चा आरंभ
हो जाती थी ।
उस दिन पिताजी ने मेरी बात सबको बता दी कि मैंने अपना पाधा स्वयं ही बदल लिया है । मास्टर बूटाराम भी
प्रायः वहाँ आया करते थे और वह उस दिन भी उपस्थित थे। उन्होंने पिताजी को कह दिया, “ इसे हमारे स्कूल में
भरती करा दो । वहाँ उर्दू तथा अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती है । "
पिताजी ने पूछ लिया, " वहाँ हिंदी भी पढ़ाते हैं क्या ? "
" नहीं । "
वहाँ उपस्थित बालकराम कहने लगे, " इसे हमारे स्कूल में भरती करा दो । वहाँ हिंदी भी पढ़ाई जाती है । "
बालकराम हमारे मुहल्ले का ही युवक था और डी. ए. वी . स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था । उसकी बात
सुनकर मास्टर बूटाराम ने कह दिया , " वहाँ उर्दू नहीं पढ़ाई जाती और बिना उर्दू पढ़े इसे कहीं नौकरी नहीं
मिलेगी । " पिताजी के मुख से निकल गया , " गुरुदास नौकरी नहीं करेगा। "
मास्टरजी हँस पड़े । उन दिनों स्कूल में पढ़ाने का अभिप्राय यह लिया जाता था कि लड़का पढ़ -लिखकर कहीं
नौकरी करे । पिताजी के मस्तिष्क में संभवतया पंडित धर्मचंद की योजना थी ।
अतः मेरी पढ़ाई का काँटा फिर बदला । अपने मुहल्ले से कुछ ही दूरी पर एक प्राइमरी स्कूल में मुझे पढ़ने भेजा
गया । उस स्कूल में उर्दू तथा हिंदी, दोनों भाषाएँ पढ़ाई जाती थीं ।
इस प्राइमरी स्कूल में एक वर्ष तक मैं पढ़ा । एक वर्ष के उपरांत मुझे डी. ए. वी. स्कूल की प्रथम श्रेणी में भरती
करा दिया गया ।
इन दिनों मैं बड़े भाई साहब के साथ आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों में जाने लगा था । मेरा उनके साथ जाने में
आकर्षण यह था कि भाई साहब सत्संगों से लौटते हुए लाहौरी दरवाजे से दो-तीन आने के फल खरीद लाया करते
थे और वे मुझे भी खाने के लिए मिलते थे।
बहुत ही सस्ता काल था । तीन पैसे के एक दर्जन अच्छे केले, एक आने दर्जन संतरे, मौसम के दिनों सहारनपुरी
कलमी आम एक आने के दर्जन मिल जाते थे और फिर भाई साहब द्वारा तीन आने में खरीदे हुए फलों से घर में
दावत हो जाती थी । अतः मैं बहुत ही शौक से जाता था और वापसी में फल खरीदकर खाने का लोभ ही जाने में
मझे उत्साहित करता था ।
आर्यसमाज अनारकली में भाई साहब के एक मित्र थे मास्टर हरगोविंद । जब भी आर्यसमाज में कोई सेवा- कार्य
होता तो दोनों सेवा के लिए अपना नाम लिखाया करते थे। अतः दोनों में काफी घनिष्टता थी ।
मास्टरजी का एक लड़का था मदनगोपाल । वह भी डी. ए. वी . स्कूल की पहली कक्षा में पढ़ता था । भाई साहब ने
जब बताया कि मुझे भी डी. ए. वी. स्कूल में भरती कराया जा रहा है तो मास्टर हरगोविंद ने कह दिया कि मैं भी
मदनगोपाल के साथ ही स्कूल चला जाया करूँ । मदनगोपाल लाहौरी दरवाजा सूत्तर मंडी में रहता था । वह स्थान
हमारे स्कूल के रास्ते में ही था ।
फिर भी पहले दिन मैं बालकराम के साथ ही स्कूल गया । उसने ही स्कूल में मेरा फॉर्म भरकर मुझे भरती कराया
था । प्रवेश शुल्क चार आने और पीछे दो आना शुल्क प्रति मास देने का नियम था । कुछ दिन तक मैं बालकराम के
साथ गया और फिर मैं अकेला जाने लगा ।
अगले महीने स्कूल में एक घटना हो गई ।
वच्छो वाली प्राइमरी स्कूल में तो केवल तीन मास्टर थे, परंतु यहाँ डी . ए. वी . स्कूल में दस श्रेणियाँ थीं और
पंद्रह- सोलह मास्टर थे। हेडमास्टर था , क्लर्क था, चपरासी था और फिर एक ड्रिल मास्टर था । इस प्रकार एक
भीड़ - भाड़ थी ।
दूसरे महीने की फीस दो आने में लेकर गया तो मुझे विदित नहीं था कि कहाँ जमा करानी चाहिए । मैंने
मदनगोपाल से पूछा तो वह मुझे अपने साथ ही ले गया । उसे भी फीस जमा करानी थी । उसने हम दोनों की फीस
जमा करा दी । क्लर्क बाबू ने चार आने लिये और रजिस्टर पर लिख दिया । फीस देकर हम चले आए ।
इसके आठ- दस दिन उपरांत स्कूल का चपरासी आया और मुझे कक्षा में से उठाकर हेडमास्टर के कमरे में ले
गया ।
हेडमास्टर की मूंछे कुछ - कुछ वैसी ही थीं जैसी क्लर्क बाबू की थीं । जब उनके कमरे में पहुँचा तो उन्होंने पूछ
लिया, " तुम गुरुदास हो । "
मैंने कहा, " जी हाँ । "
" तुम पहली श्रेणी में पढ़ते हो ? "
" जी । "
" इस महीने की फीस नहीं दी ? "
" जी , दी है । "
"किसको दी है ? "
मैंने हेडमास्टर के मुख पर देखकर कहा , " जी , आपको दी है ? "
हेडमास्टर ने तीन - चार बार पूछा और मैंने यही दुहराया कि आपको दी है । इस पर हेडमास्टर को क्रोध चढ़ गया
और उसने कमरे की अलमारी में से बेंत निकालकर मुझे कहा , " हाथ निकालो। "
मैंने हाथ आगेकिया तो हेडमास्टर ने तीन बेंत लगाकर पुनः पूछा, " फीस किसको दी है ? "
क्रोध तो मुझे भी आ रहा था, परंतु मैं विवश था । मैं उनकी मूंछे देखकर प्रत्येक बार यही कहता था कि आपको
दी है ।
जब आठ - दस बेंत लग चुके और मैं अभी अपनी बात पर दृढ़ था कि मैंने फीस उनको ही दी है तो मेरी आँखों में
आँसू छलकने लगे । इस पर हेडमास्टर साहब को कुछ चेतना आई । वह कुछ विचारकर पूछने लगे, " तुम अकेले
ही मुझे फीस देने आए थे अथवा तुम्हारे साथ कोई और भी था ? "
मुझे भी स्मरण हो आया । मैंने कहा , " जी , मेरा एक दोस्त है मदनगोपाल । वह मेरी ही कक्षा में पढ़ता है । हम
दोनों ने एक साथ दी थी । "
इस पर चपरासी भेजकर मदनगोपाल को बुलाया गया । वह आया तो हेडमास्टर ने उससे पूछ लिया, " तुमने इस
महीने की फीस दी है ? "
" जी । " मदनगोपाल ने कहा ।
" इस लड़के ने भी दी है ? "
" जी । हम दोनों ने एक साथ दी थी । "
"किसको दी थी ? "
" क्लर्क बाबू को । " मदनगोपाल ने कहा ।
अब क्लर्क को बुलाया गया । वह मदनगोपाल को पहचानता था । उसने रजिस्टर में उसके नाम के आगे चार आने
जमा लिखे थे।
भूल क्लर्क बाबू की थी । दोनों की फीस एक के नाम के आगे जमा की गई थी । परंतु हेडमास्टर का रोष तो मेरा
उनका नाम लेने पर था । मेरे कथन का अर्थ यह लिया गया कि मैं उनको बदनाम कर रहा हूँ । अतः उन्होंने फिर
मुझसे पूछा, " फीस किसको दी थी ? "
अब मैंने क्लर्क बाबू को देखा तो दोनों में अंतर समझ गया । मैंने कह दिया , " इनको दी थी । "
" तुम तो कहते थे कि मुझे दी थी ? " वास्तव में हेडमास्टरजी ने यह प्रश्न अपनी पीटने की सफाई देने के लिए
पूछा था । मैंने कह दिया, " जी , आप दोनों एक जैसे ही लगते हैं । "
इस पर हेडमास्टरजी हँस पड़े ।
जब मैं मदनगोपाल के साथ वापस कक्षा में आने लगा तो उसने पूछ लिया कि क्या हुआ है । मैंने सारी बात बताई
तो वह भी हँस पड़ा ।
उस दिन मैंने अपनी पुस्तकें उठाई और स्कूल समाप्त होने से पहले ही घर लौट गया ।
इसका भी एक परिणाम हुआ । मैं हेडमास्टर साहब को भलीभाँति पहचानने लगा था और वह भी मुझे पहचान गए
थे। आर्यसमाज के सत्संग में भाई साहब से उन्होंने मेरी शिकायत लगाई होगी और भाई साहब ने भी मेरे विषय में
उन्हें बताया होगा । मुझे फोकट में दस बेंत खाने पड़े थे ।
समय व्यतीत होता गया । मैं चौथी कक्षा में पहुँचा। हमारी श्रेणी में एक जयगोपाल पढ़ता था । वह भी हमारे
मुहल्ले में रहता था । हम दोनों एक साथ ही स्कूल आते- जाते थे ।
हमारे एक मास्टर कृपाराम थे। वह सामान्य ज्ञान तथा किंडर -गार्डन पढ़ाया करते थे। सामान्य ज्ञान में वह देश
विदेश की बातें बताते थे । उन्होंने एक दिन कक्षा में एक शेर सुनाया -
हॉलैंड के एक तिफ्ल ने जान अपनी वार के ,
मुल्क अपना बचा लिया पानी की मार से ।
इस शेर से संबंधित एक कहानी भी उन्होंने सुनाई थी, परंतु जो बात मैं यहाँ बताना चाहता हूँ, वह है उनका शिक्षा
देने का ढंग ।
एक दिन मास्टरजी ने दो रंग के कागज लिये । उनको काटकर उन्होंने एक का ताना बनाया और दूसरे का बाना
बनाया । फिर उसमें फूल बनाने का ढंग बताया । यह सब बताकर उन्होंने सब लड़कों को अपने- अपने घर से यह
बनाकर लाने के लिए कह दिया ।
हम दोनों घर पहुँचे। मैंने अपने पिताजी से दो पैसे लिये और रंगदार दो रोगनी कागज खरीद लाया । जयगोपाल के
पास पैसे नहीं थे। इस कारण मैंने दोनों कागज आधे - आधे उसको दे दिए ।
हम दोनों मास्टरजी के बताए अनुसार चटाई बनाने लगे । जयगोपाल ने तुरंत बना ली , परंतु मैं कई बार यत्न करके
भी नहीं बना सका ।
तीन - चार बार असफल यत्न करने के बाद मैंने जयगोपाल को कहा कि मुझे भी बना दे। उसने इनकार कर दिया ।
उसका कहना था कि अपना काम स्वयं करना चाहिए ।
मैं फिर बनाने लगा, परंतु जब कई बार यत्न करने पर भी नहीं बना सका तो झुंझलाकर मैंने अपने कागज के
टुकड़े- टुकड़े कर दिए ।
इस पर जयगोपाल मुझे चिढ़ाते हुए कहने लगा, " यह देखो, मेरी कितनी सुंदर बनी है! मुझे क्रोध आ रहा था ।
मैंने उसकी चटाई छीनकर उसके भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए । मैं जयगोपाल के घर गया हुआ था । जयगोपाल ने
कागज के टुकड़े अपने स्कूल की पुस्तकों के थैले में रख लिये और मुझे कहने लगा, कल स्कूल चलो, मास्टरजी
से दंड दिलवाऊँगा ।
मैं झुंझलाया बैठा था । उसकी बात सुनकर मुझे क्रोध चढ़ आया । मैंने कहा, " मैं तुम्हें यहीं दंड देता हूँ । " इतना
कह मैं उससे लड़ने लगा । हम दोनों में हाथापाई होने लगी ।
कुश्ती हो गई । वह मुझसे दुर्बल था । जब मैंने उसे नीचे पटका और मुक्कों से उसकी मरम्मत करने लगा तो उसने
शोर मचाकर अपनी माँ को बुला लिया । उसकी माँ ने आकर हम दोनों को छुड़ाया । इसके बाद मैं अपने घर को
लौट गया ।
अगले दिन हम दोनों स्कूल साथ- साथ नहीं गए । मास्टर कृपाराम के घंटे में उसने मास्टरजी से मेरी शिकायत कर
दी और फटे कागज के टुकड़े निकालकर दिखा दिए ।
मास्टरजी ने मुझसे पूछा तो मैंने सत्य - सत्य बात बता दी । इस पर मास्टरजी ने पूछा, " तुमने अपनी चटाई तो
फाड़ी, परंतु जयगोपाल की क्यों फाड़ दी ? "
" वह मेरी थी । कागज के दाम मैंने दिए थे। "
" परंतु कागज तुम्हारा होने से चटाई तुम्हारी कैसे हो गई ? "
" तो किसकी थी ? "
" तुम्हारे पास पैसे कहाँ से आए थे? "
" मैंने पिताजी से लिये थे। "
" पैसे पिताजी के थे तो कागज भी पिताजी का हुआ ? तुमने इसे फाड़ने से पहले पिताजी से पूछा था ? "
मैं इस न्याय का अर्थ समझ ही रहा था कि मास्टरजी ने मुझे दंड सुना दिया । उन्होंने कहा, "बेंच पर खड़े हो
जाओ। "
मैं बेंच पर खड़ा हो गया । मास्टर कृपाराम की घंटी में मैं बेंच पर खड़ा रहा । इससे जयगोपाल प्रसन्न हो गया
और हम पुनः मित्र हो गए ।
इस घटना को लिखने का अभिप्राय यह बताना है कि मैं हाथ का काम करने में भद्दा था , परंतु मुझमें एक विशेष
बात थी । मैं बात करते हुए युक्ति - प्रतियुक्ति करता था । परंतु युक्ति का आधार तो ज्ञान होता है । यही कारण था कि
मैं मास्टरजी की बात का उत्तर नहीं दे सका था । और उन दिनों मेरे ज्ञान की यही सीमा थी ।