ग्वाल टिल्ले की प्रेम कथा : हिमाचल प्रदेश की लोक-कथा

Gwal Tille Ki Prem Katha : Lok-Katha (Himachal Pradesh)

पालमपुर को हमीर पुर से मिलाने वाली सड़क पर ११ किलोमीटर दूरी पर स्थित भवारना से १७ किलोमीटर आगे जाने पर थुरल नामक स्थान आता है। इसी थुरल से दो किलोमीटर दूर बरसाती नदी के पार स्थित है- ग्वाल टीला। यहाँ इस स्थान का पता इतना विस्तार से बताने का मेरा मकसद केवल इस स्थान की विश्वस्नीयता को सुनिश्चित करना है।

यह घटना कब की है, यह तो कोई नहीं बता सकता। पर यह घटना सत्य है और इस के गवाह हैं इस क्षेत्र के भोले-भाले भेड़ बकरी चराने वाले लोग, जिनकी दंत कथाओं में यह कहानी न जाने कब से शामिल है। कहानी बस इतनी सी है कि इस ग्वाल टीले के पास से एक बारात डोली ले कर गुजर रही थी। पुराने समय के लोग पैदल ही पालकी ले कर जा रहे थे। चढ़ाई चढ़ कर आ रहे लोग और कहार हाँफने लगे थे, सो कुछ देर आराम करने टीले के नीचे पीपल के वृक्ष की छाया में बैठ गए। साथ आई औरतों ने दुल्हन को ताजी हवा देने के लिए डोली के सब परदे उठा दिए। पास ही टीले के ऊपर एक लड़का गाएँ-भैंसें चरा रहा था। चरवाहे को यहाँ ग्वाला भी कहते हैं।

तो बात कुछ यूँ हुई कि खूबसूरत लाल दुपट्टे का घूँघट काढ़े बैठी दुल्हन को देख कर उस ग्वाले के मुँह से बेसाख्ता निकल गया- “आर जरारी पार जरारी, लाल घुंडे वाली मेरी लाड़ी।” अर्थात् इधर झाड़ी उधर भी झाड़ी, बीच बैठी लाल घूँघट वाली मेरी लाड़ी (पत्नी)। बात इस तरह कही गई कि नवविवाहिता ने सुना, उस की सखियों ने सुना, और करते करते बात दूल्हे और बाकी बारातियों तक जा पहुँची। उन में नोक-झोंक आरम्भ हो गई। किसी ने ग्वाले को ताना मारते हुए कहा कि इस सुन्दर लाड़ी का इतना ही शौक है तो इस टीले से छलाँग लगा दे। देखें तेरा प्रेम सच्चा भी है या नहीं। बात मजाक में कही गई थी। पर चरवाहे को भी जाने क्या सूझा उसने आव देखा न ताव, झट ऊँचे टीले से गहरी खड्ड में छलाँग लगा दी। जब तक कोई समझ पाता, ग्वाले के प्राण पखेरू उड़ गए थे।

अब तो बाराती घबरा गए। वे अपना डेरा उठा कर वहाँ से भागने की तैयारी करने लगे। लेकिन हद तो तब हो गई जब दुल्हन ने वहाँ से जाने से इन्कार कर दिया। वह कहने लगी कि ऐसे सच्चे प्रेमी को छोड़ कर वह नहीं जा सकती, वह तो उस ग्वाले की लाश के साथ ही सती हो जाएगी। लोग उसे समझाने लगे, परिवार की इज्जत का वास्ता भी दिया। पर लड़की ने तो जैसे जिद पकड़ ली। अभी लोग इस समस्या का हल सोच ही रहे थे कि दुल्हन जरा सा मौका पाकर भाग निकली और जब तक लोग कुछ समझते उसने भी उसी टीले से कूद कर जान दे दी।

अजीब सी बात थी कि दो लोग तो एक दूसरे को जानते तक नहीं थे, जिन्होंने एक दूसरे को देखा भी नहीं था, इस तरह एक दूजे के लिए प्राण दे बैठे जैसे एक दूजे के लिए ही बने हों। बारात का जाना रुक गया। आने जाने वाले भी इन अन्जाने प्रेमियों के सम्मान में रुक गए। उन्होंने इन अपरिचित प्रेमियों का दाह संस्कार एक ही चिता पर रख कर दिया। बाद में उस स्थान पर गोल-गोल पत्थरों की समाधि बना दी गई। जो भी इस राह से गुजरता उन प्रेमियों की श्रद्धांजलि स्वरूप एक पत्थर यहाँ जरूर लगा देता। यह कौन सी परम्परा थी क्या था किसी को नहीं पता, कोई कुछ समझ नहीं पाया……?

(काँगड़ा की लोककथाएँ: डॉ प्रिया सैनी)

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