गुरु दक्षिणा (कहानी) : गुरुदत्त
Guru Dakshina (Hindi Story) : Gurudutt
दिसंबर 1919 में मुझे गवर्नमेंट कॉलिज में डिमास्ट्रेटर बना दिया गया । उन्हीं दिनों प्रोफेसर बी. के. सिंह, जिनके
साथ मैं रिसर्च कर रहा था, का ढाका तबादला हो गया । उन्होंने जितना रिसर्च का काम लाहौर में हुआ था, उसकी
रिपोर्ट पंजाब विश्वविद्यालय को दी और शेष कार्य वहाँ ढाका में जाकर करने लगे । मेरे लिए वहाँ जाने का प्रबंध
नहीं हो सका और मैं लाहौर में ही डिमास्ट्रेटर एक सौ पचास रुपए मासिक पर बना दिया गया ।
इससे तो मेरे पास अवकाश बहुत रहने लगा । मैं पंजाब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में से राजनीति की पुस्तकें
लेकर पढ़ने लगा । इन्हीं दिनों मुझे जॉन स्टुअर्ट मिल तथा हर्बर्ट स्पैंसर को पढ़ने का अवसर मिला ।
मैंने इन्हीं दिनों कम्युनिस्ट विचारधारा पर साहित्य भी पढ़ा था । प्लेटो की रिपब्लिक और अरस्तू तथा कांट के
विचार पढ़ने का अवसर मिला ।
दिसंबर 1919 में अमृतसर कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था । इस अधिवेशन में मैं दर्शक का टिकट लेकर पहुंचा ।
कॉलिज में क्रिसमस की छुट्टियाँ थीं । मैं नित्य प्रात: लाहौर से अमृतसर जाता था और रात की गाड़ी से लौट आता
था । पहले दिन प्रधान का भाषण था । लाहौर से जानेवाली गाड़ी में भीड़ इतनी अधिक थी कि टिकट नहीं मिल
सका । मुझे स्मरण है कि बिना टिकट के ही अमृतसर जाना पड़ा था ।
उन दिनों मुझे कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि अमृतसर के नागरिकों की ओर से जो स्वागत बाल गंगाधर तिलक का
हुआ था, अन्य किसी नेता का नहीं हुआ। तिलक के सम्मुख जनसाधारण के अन्य सब नेता छोटे समझे गए थे ।
कांग्रेस अधिवेशन का तीसरा दिन था । कदाचित् वह आखिरी दिन था । मैं अमृतसर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर
गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा था कि एक साहब मेरे पास आए और पूछने लगे, “ आप लाहौर में रहते हैं ? "
" हाँ । " मैंने कहा ।
" वहाँ क्या काम करते हैं ? " उसका प्रश्न था ।
गवर्नमेंट कॉलिज में प्रोफेसर हूँ । " मैं विचार करता था कि यह सामान्य व्यक्ति प्रोफेसर और डिमास्ट्रेटर में
अंतर नहीं जानता होगा । इसी कारण मैंने प्रोफेसर बताया था । कदाचित् डिमास्ट्रेटर कहता तो वह समझता भी नहीं
अथवा समझ लेता कि कार्यालय में एकाउंटेंट अथवा क्लर्क हूँ ।
उस व्यक्ति ने अगला प्रश्न किया, " आपका शुभ नाम क्या है ? "
मैंने बताया , " गुरुदत्त । "
यह सब बात बिना किसी छल- कपट के की गई थीं । परंतु बाद में विदित हुआ कि वह खुफिया- पुलिस का
व्यक्ति था ।
क्रिसमस के उपरांत जब कॉलिज खुला तो एक दिन हमारे विभाग के प्रोफेसर भाई प्रेमसिंह ने मुझे अपने कमरे
में बुलाकर पूछा, “मिस्टर गुरुदत्त! तुम कांग्रेस अधिवेशन पर गए थे? "
" जी , गया था । " मेरा निश्छल उत्तर था ।
" तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था । तुम्हें विदित हो कि कांग्रेस सरकार की विद्रोही संस्था है । "
" तो सरकार ने उसका अधिवेशन क्यों होने दिया है ? " मेरा यह प्रश्न था ।
" यह सरकार जाने । मगर हमें सरकारी नौकरी करनी है । हमें सावधान रहना चाहिए । "
मैं मुख देखता रह गया । इस पर उसने बताया, " जानते हो, तुम्हारे वहाँ जाने का क्या परिणाम हुआ है? "
" क्या हुआ है ? मैंने पूछा ।
"किसी ने तुम्हें वहाँ देख लिया है और उसने किसी से तुम्हारा नाम पूछा और रिपोर्ट की है । उस रिपोर्ट पर
डायरेक्टर एजुकेशन से प्रिंसिपल के पास जाँच आई है और वह गुरुदत्त सोंधी ( हमारे कॉलिज के एक अन्य
प्रोफेसर) के पास गई है । सोंधी इस पर पसीना -पसीना हो रहा है ।
" जब मुझे पता चला कि उससे प्रिंसिपल ने कहा है कि डायरेक्टर को मिलकर सफाई दो तो मैं समझ गया था
कि यह शरारत तुम्हारी है । फिर भी मैंने बताया नहीं । मिस्टर सोंधी अभी- अभी डायरेक्टर से मिलने गया है । "
पहले तो मैं डरा, परंतु बाद में शांत हो गया । मालूम होता है कि सोंधी के कथन के बाद मामला फाइल कर दिया
गया था
परंतु मेरे विरुद्ध एक अन्य प्रकार से मामला उपस्थित हो गया ।
सन् 1920 की बात है, एक दिन मैं विश्वविद्यालय पुस्तकालय से दो पुस्तकें हैरल्ड लास्की की लेकर लैबोरेटरी
में आया । मैंने पुस्तकें मेज पर रख दी और लड़कों को प्रैक्टिकल में सहायता देने लगा ।
इस समय हमारे विभाग के सीनियर प्रोफेसर मिस्टर एच. बी. डन्नक्लिफ वहाँ मुझे काम करते देखने आए । बाद
में जब वह मेज के पास गए तो वहाँ हैरल्ड लास्की की पुस्तकें देख , पुस्तकें उठाकर बहुत देर तक पढ़ते रहे । उसी
दिन पीरियड के उपरांत उसने मुझसे पूछा, " ये पुस्तकें तुम क्यों पढ़ते हो ? "
मेरा सतर्क उत्तर था, " ज्ञान वृद्धि के लिए । "
" तुम्हें कैमिस्ट्री की पुस्तकें पढ़नी चाहिए । "
मैं चुप रहा ।
मुझे कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि उस दिन से ही वह मेरी गतिविधियों पर दृष्टि रखने लगा था । उसी वर्ष सितंबर
अक्तूबर में मुझे प्रोफेसर ने किसी खनिज पदार्थ का एक ढेला दिया और कहा, " इसमें पारे की मिकदार पता करनी
है । इसे कैसे पता करेंगे ? "
मैंने कहा, " मैं साहित्य पढ़कर बताऊँगा । "
उसका कहना था, “ एक परीक्षण की योजना बनाओ और मुझेलिखकर बताओ कि इस पर तुम्हें रिसर्च करने के
लिए क्या - क्या चाहिए? "
मैंने एक सप्ताह भर इस विषय की सब उपलब्ध पुस्तकें पढ़ीं और एक योजना बनाकर दे दी ।
एक परीक्षण को प्रातः चार बजे आरंभ करें तो रात के 9 - 10 बजे तक वह समाप्त होता था । पहले उस खनिज
पदार्थ को नाइट्रिक एसिड में उबाला जाता था । उससे जो कुछ तैयार होता था , उसमें से उसे शुद्ध किया जाता था ।
कई प्रकार के नाइट्रेट बनते थे। इनमें मर्करी नाइट्रेट भी होता था ।
मर्करी नाइट्रेट पृथक् किया जाता था । तदनंतर उसको स्मैल्ट ( भूना ) जाता था और उसमें से नाइट्रोजन डाइ
ऑक्साइड खालिस नामक घोल में ले लिया जाता था और फिर उस सोडियम नाइट्राई की मिकदार जानी जाती थी ।
वैसे खनिज पदार्थ का नाइट्रोजन में घोल तो कई तजुरबों के लिए एकदम तैयार कर लिया था , परंतु उनमें से
खालिस पारे का नाइट्रेट निकालने और फिर उसमें नाइट्रोजन का अनुमान लगाने में दिन भर लग जाता था । मैं ये
आँकड़ेलिखता जाता था ।
छह महीने से अधिक लगे एक सौ से ऊपर परीक्षण के परिणाम प्रतीत करने में । छह महीने के उपरांत मैंने अपने
आँकड़े प्रोफेसर साहब को दिखाए । तीन- चार दिन आँकड़ों का अध्ययन कर उसने बताया, “ ये ठीक नहीं हैं । "
मेरा प्रश्न था, " सर ! क्या ठीक नहीं है ? "
" परिणाम परस्पर बहुत भिन्न- भिन्न हैं । "
" यह इस कारण कि खनिज पदार्थ के टुकड़े के भिन्न-भिन्न भागों में पारे की मात्रा भिन्न -भिन्न है । "
वह बोला, “ परंतु मेरी जानकारी में इतना अंतर नहीं था । "
उसने यही जाँच अपने पहले संस्थान में कराई थी । वह गवर्नमेंट कॉलिज में आने से पूर्व सैनिक कैमिकल
लैबोरेटरी में काम करता था । संभवतया वहाँ उसने अपने किसी असिस्टेंट से यही परीक्षण कराए होंगे ।
मैंने पूछ लिया , “ परंतु श्रीमान् यह क्या है और किसलिए यह खोज कराई जा रही है ? "
वह बोला, " यह सरकारी रहस्य है । मैं बता नहीं सकता । "
मेरे मुख से अकस्मात् यह वाक्य निकल गया —
But Sir! I am not a beast of burden who is required to carry load without knowing what is in it. I
must know what I am doing and why I am doing.
( श्रीमान्, मैं बोझा ढोनेवाला पशु नहीं कि बिना जाने कि बोझे में क्या है, उसे ढोता रहूँ । मुझे पता होना चाहिए कि
मैं क्या और किस उद्देश्य से कर रहा हूँ ।)
यह सुनकर उसने कह दिया , " तुम जा सकते हो । "
मैं चला आया ।
उसी वर्ष मैं प्रोफेसर प्रेमसिंह के साथ कश्मीर भ्रमण करने गया तो उस भ्रमण में मिस्टर डन्नक्लिफ के तजरबों
पर चर्चा चली । तब प्रोफेसर साहब ने बताया कि मिस्टर डन्नक्लिफ मुझसे बहुत नाराज हैं ।
कश्मीर से लौटने पर मुझमें एक अन्य परिवर्तन हुआ । महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्रों की होली कराई थी । मैंने भी
अपना पैंट- कोट , नेकटाई- कॉलर इत्यादि होली के लिए दिए थे और तब से मैं खद्दर पहनने लगा था ।
ग्रीष्म ऋतु के उपरांत जब कॉलिज खुला तो मैं सिर से पाँव तक खद्दर के कपड़ों में था ।
प्रो. डन्नक्लिफ मुझे देख आग- बबूला हो गया। पहले ही दिन उसने पूछा, " यह क्या पहन आए हो? "
" यह इंडियन ड्रेस है । "
" यह गांधी का यूनिफार्म है । "
" मैं समझता हूँ नहीं है । "
" गांधी सरकार का विद्रोही है। "
"मुझे इसका ज्ञान नहीं । "
मैंने खद्दर के कपड़े नहीं उतारे । इससे पहले एक अन्य घटना हो चुकी थी । प्रिंस ऑफ वेल्स भारत में आया था ।
गांधीजी ने प्रिंस का काले झंडों से स्वागत करने का प्रस्ताव कांग्रेस से पारित कराया था । कलकत्ता में प्रिंस के
जलूस का बहुत जबरदस्त बहिष्कार हुआ था । जहाँ - जहाँ भी वह गया, वहाँ- वहाँ नगर -नगर में बाजार बंद कर
उसके स्वागत का बहिष्कार किया गया था ।
लाहौर में प्रिंस के जलूस को सफल करने के लिए सब सरकारी अफसरों और कर्मचारियों को आज्ञा हुई कि वे
अपने परिवारों को लेकर उनके लिए नियत स्थानों पर जलूस के पहले पहुँच जाएँ ।
हमारे प्रिंसिपल का भी एक सर्कुलर आया । उसके अनुसार कॉलिज के चपरासी से लेकर सीनियर -मोस्ट प्रोफेसर
तक से पूछा गया कि उनके परिवार के लिए कितनी कुरसियाँ रखवाई जाएँ ।
हमारे कॉलिज के स्टाफ के लिए हाई कोर्ट भवन के सामने सड़क के किनारे कुरसियाँ लगी थीं । सर्दूलर हमारे
विभाग में भी आया । मैं प्रोफेसर प्रेमसिंह के कमरे में खड़ा था , जब वह सर्दूलर आया । मैंने भाई प्रेमसिंह की राय
पूछी । उसने मेरे सम्मुख सर्म्युलर पर लिख दिया , सीन अर्थात् नोटिस मिला । मैंने भी ऐसा ही लिख दिया ।
अगले दिन सब प्रोफेसरों ने अपने परिवार के लिए सीटें लिखकर भेजी थीं । मैंने यह आवश्यक नहीं समझा और
मैं जलूस देखने भी नहीं गया ।
मैं समझता हूँ कि ऊँट की कमर पर यह अंतिम तिनका सिद्ध हुआ । उस वर्ष ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में मुझे
नोटिस मिल गया कि गवर्नमेंट कॉलिज को मेरी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है ।
विचित्र बात यह थी कि वे लड़के, जो मुझसे प्रैक्टिकल में सहायता लेते थे, प्रायः मुझको घेरकर खड़े हो जाया
करते थे। उन दिनों कांग्रेस स्कूलों, कॉलिजों के बहिष्कार की माँग कर रही थी । विद्यार्थी वर्ग में भी विचार - मंथन हो
रहा था । लड़के मुझसे पूछते थे, " हमें कॉलिज छोड़ना चाहिए अथवा नहीं ? "
मेरी विचारित राय यह होती थी , " नहीं , सबको पढ़ाई करनी चाहिए । " लड़के विस्मय करते थे। मेरी खद्दर की
पोशाक , निर्भीकता से विद्यार्थियों से बातचीत , देशप्रेम और अंग्रेजी राज्य की समाप्ति के विचारों से यह राय मेल
नहीं खाती थी । मैं यथासंभव उनको बताता था कि प्रत्येक कार्य अपने- अपने समय पर ठीक होता है ।
ऐसा प्रतीत होता था कि कुछ एक विद्यार्थी मेरी मुखबिरी भी करते थे ।
एक दिन भाई प्रेमसिंह ने मुझे अपने कमरे में बुलाकर कमरे का द्वार बंद कर कहा , “ प्रोफेसर डन्नक्लिफ
तुम्हारी बात पर विस्मय करता है । "
" क्या कहता है ? " मैंने पूछा ।
" कहता था , यह गुरुदत्त न समझ में आनेवाली पहेली है । यह लड़कों को कॉलिज छोड़ने को नहीं कहता, परंतु
उन्हें सरकार के विपरीत तैयार करता है । वह कहता है कि अंग्रेजी सरकार को अब यहाँ से जाना चाहिए । "
भाई प्रेमसिंह ने मुझे बताया कि उसने प्रोफेसर से कहा है, " गुरुदत्त एक सही दिमाग का देशभक्त है । परंतु
प्रोफेसर ने कह दिया है कि वह तुम्हें खतरनाक बागी समझता है और तुम्हारी सेवाएँ टर्मिनेट करने के लिए
अधिकारियों को लिख चुका है । "
प्रेमसिंहजी ने मुझे आगे कहा, "मिस्टर गुरुदत्त! मुझे बहुत खेद है कि मैं तुम्हें यह बुरा समाचार सुना रहा हूँ । "
दु: ख तो मुझे भी हुआ था । उस समय मैं दो बच्चों का पिता था । परंतु अपने भाग्य पर भरोसा करते हुए मैंने कह
दिया , " सर! देखा जाएगा । "
भाई प्रेमसिंह की मुझसे अत्यंत सहानुभूति थी । पर मेरा मार्ग विलक्षण था । उसने मुझे कहा, " व्यर्थ में खद्दर
वद्दर के झगड़े में पड़कर तुमने अपना भविष्य बिगाड़ लिया है । "
" प्रोफेसर साहब! मुझे अपने भाग्य पर विश्वास है । " मेरा कहना था ।
बस उस दिन से मेरे जीवन का नया पट खुला ।
भाई प्रेमसिंह की सूचना से कि गवर्नमेंट कॉलिज की मेरी नौकरी समाप्त हो रही है, मुझे चिंता तो लगी थी , परंतु
भविष्य का भय नहीं था ।
मैं कॉलिज लैबोरेटरी से निकल कॉलिज के सामने गोल बाग में जाकर वहाँ रखी बेंच पर बैठ यह विचार कर रहा
था कि किसी स्कूल में टीचर का काम ढूँढ़ना चाहिए । इस समय प्रो. रुचिराम टाउन हॉल की तरफ से हाथ में टैनिस
का बल्ला लिये घुमाते हुए आते दिखाई दिए ।
प्रो . रुचिराम कैमिस्ट्री विभाग में सीनियर प्रोफेसर रह चुके थे। उन दिनों वह रिटायर हो चुके थे । प्रोफेसर साहब
ने मेरी कई प्रकार से सहायता की थी । इस विषय में अपने शिक्षा संबंधी संस्मरणों में मैं लिखूगा ।
प्रोफेसर साहब ने मुझे बेंच पर बैठे देखा तो मेरे सामने आ पूछने लगे, " हैलो गुरुदत्त ! वट आर यू डूइंग हियर ? "
( गुरुदत्त! यहाँ बैठे क्या कर रहे हो ? )
मैंने बताया, " मुझे अभी पता चला है कि मेरी सेवाएँ कॉलिज में समाप्त कर दी गई हैं । "
इस पर प्रोफेसर साहब ने पूछा, “ अब क्या करोगे ?
" सर ! विचार कर रहा हूँ । "
" नोटिस मिल गया है क्या ? "
" जी , अभी नहीं । "
" तो नोटिस आने दो । जब आए तो वह लेकर मेरे पास आ जाना । मैं तुम्हें काम दूंगा । मैं अभी- अभी तुम्हारे विषय
में ही विचार कर रहा था । "
" मैं अवश्य मिलूँगा । "
सरकारी नौकरी से पेंशन लेकर प्रोफेसर रुचिराम कांग्रेस में काम कर रहे थे। वह भी खद्दर पहनने लगे थे ।
इसके कुछ दिन पश्चात् ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियाँ आरंभ हो गई । ट्रिब्यून समाचार -पत्र में दयालसिंह कॉलिज में
कैमिस्ट्री के प्रोफेसर के लिए विज्ञापन निकला था । मैंने अरजी भेज दी । प्रोफेसर रुचिराम दयालसिंह कॉलिज की
मैनेजिंग कमेटी के सदस्य थे। मैं समझा था कि प्रोफेसर साहब इसी काम के विषय में कह रहे थे । इसी कारण मैंने
अरजी कर दी थी ।
परंतु भाग्य में कुछ अन्य लिखा था । अगस्त मास के मध्य में मुझे डायरेक्टर ऑफ एजुकेशन का नोटिस मिला
कि सरकार को मेरी सेवाओं की आवश्यकता नहीं है । उस समय मैं सपरिवार हरिद्वार गया हुआ था । अतः प्रोफेसर
रुचिरामजी की बात स्मरण कर मैं लाहौर आया और प्रोफेसर साहब से मिला ।
उन्होंने मेरा नोटिस देखा तो कहा, " दो अक्तूबर से तुम्हारी नौकरी छूटी है और दो अक्तूबर को प्रात: काल मुझसे
मिलना । तुम्हें काम मिल जाएगा । "
मैं समझा नहीं कि यह दयालसिंह कॉलिज में प्रोफेसरशिप है अथवा कुछ अन्य ।
मैं दो अक्तूबर की प्रातः नौ बजे प्रोफेसर रुचिरामजी से मिला तो उन्होंने मुझे नेशनल कॉलिज के प्रिंसिपल
आचार्य जुगलकिशोर के नाम एक लिफाफा देकर कहा, " यह पत्र आचार्यजी के पास ले जाओ और वहाँ पर काम
करो । "
मैं ब्रैडला हॉल के समीप खुली भूमि पर बनी नई इमारत में जा पहुँचा । वहाँ कांग्रेस द्वारा संचालित नेशनल
कॉलिज के प्रिंसिपल आचार्य जुगलकिशोर के सामने जा खड़ा हुआ ।
आचार्यजी ने पत्र पढ़ा और मुझे अपने समीप बैठाकर बताया , " कांग्रेस की एजुकेशन कमेटी ने बेसिक शिक्षा
प्रणाली पर एक स्कूल खोला है । तुम्हें उसमें हेडमास्टर नियुक्त किया गया है । "
मुझे संतोष इस बात का था कि मैं बेकार एक दिन के लिए भी नहीं हुआ । यह ठीक है कि मैं दयालसिंह कॉलिज
में प्रोफेसर बनने की आशा करता था , इस कारण मुझे कुछ निराशा हुई थी ।
परंतु यह निराशा अधिक काल तक नहीं रही । साथ ही शिक्षा संबंधी उद्देश्यों का प्रथम पाठ मुझे उसी दिन मिला ।
मैं स्कूल की फिट हो रही लैबोरेटरी को देख रहा था कि आचार्य जुगलकिशोर भाई परमानंदजी के साथ लैबोरेटरी
की ओर आते दिखाई दिए । वास्तव में आचार्यजी भाईजी से मेरा परिचय कराने आए थे ।
भाईजी को मैं भलीभाँति पहचानता था । आर्यसमाज के प्लेटफॉर्म पर अनेक बार उनके दर्शन कर चुका था और
उनके मुकदमे, फाँसी, फिर आजन्म कैद का सब वृत्तांत जानता था । मुझे यह भी ज्ञात था कि कैसे पंडित मदनमोहन
मालवीय तथा बाद में श्री सी . एफ . एंड्रज के प्रयत्नों से भाईजी सन् 1920 में छूटे थे और भाईजी अब शिक्षा के क्षेत्र
में काम कर रहे थे।
जुगलकिशोरजी ने मुझे कहा , " आप हैं भाई परमानंदजी ! आपने नाम तो सुना होगा ? "
मेरी हँसी निकल गई । मैंने कहा , " आचार्यजी! आज भारत में भाईजी को कौन नहीं जानता ?
मेरा मतलब था मेरा परिचय कराइए । परंतु आचार्यजी ने मतलब की बात की , “ आप इस स्कूल के मैनेजर हैं ,
अतः आप इनके अधीन हैं । "
अब आचार्यजी ने मेरा परिचय जैसा प्रो. रुचिरामजी के पत्र में लिखा था, करा दिया ।
भाईजी ने आचार्यजी को छोड़कर मुझसे सीधी बातचीत आरंभ कर दी । वह कहने लगे, " गुरुदत्त ! गवर्नमेंट
कॉलिज से क्यों चले आए हो ? "
" जी , मैं छोड़ नहीं आया, निकाल दिया गया हूँ । "
"किस जुर्म के लिए । "
" देशभक्ति के अपराध के कारण । "
" तो लड़कों को कॉलिज का बहिष्कार करने को कह रहे थे? "
" जी नहीं । उनको वहाँ पढ़ते हुए देश से प्रेम करने को कहता था । "
भाईजी के मुख पर मुसकराहट आई और उन्हें मेरे इस उत्तर से संतोष अनुभव हुआ । उन्होंने बात बदलकर पूछ
लिया, “ यहाँ क्या पढ़ाओगे ? "
" मुझे साइंस पढ़ाने के लिए कहा गया है और वह भी हिंदी में । "
" साइंस के टेक्निकल शब्दों का क्या करोगे? "
इस समय तक मैं अपने मस्तिष्क में इस समस्या का सुझाव विचार कर चुका था । मैंने कहा, " भाईजी , वे शब्द
जिनका पर्याय हिंदी में नहीं, उनको विद्यार्थियों के मस्तिष्क में बैठाने के लिए अंग्रेजी अक्षरों में बोर्ड पर लिखकर
हिंदी में उनका उच्चारण लिख दूँगा । फिर लड़कों को कहूँगा कि कॉपी पर लिख लो । जब उस शब्द का बीस-तीस
बार प्रयोग होगा तो वह शब्द हिंदी भाषा का अपना हो जाएगा । शेष पढ़ाई तो ऐसे कराऊँगा जैसे इतिहास, भूगोल
पढ़ाया जाता है । "
मेरी इस सफाई ने भाईजी के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव उत्पन्न किया प्रतीत होता था । वह प्रसन्न प्रतीत होते थे ।
अब वह पूछने लगे कि इस स्कूल और कॉलिज का उद्देश्य क्या समझते हो ?
मैंने कह दिया , " गांधीजी के आंदोलन में स्कूलों- कॉलिजों से निकाले लड़कों को जीवनोपयोगी काम सिखाना । "
" हाँ , कांग्रेसी यही कहते हैं । परंतु मैं समझता हूँ कि हमारा उद्देश्य है शिक्षा से उन्हें बहुत अच्छा इनसान बनाना ।
इतना अच्छा कि सरकार उनको नौकरी देकर अपना कल्याण समझे । शिक्षा का उद्देश्य इनसान बनाना है । जिसको
इनसानों की आवश्यकता होगी, वह इन शिक्षाओं के पीछे भागेगा । यही मैं चाहता हूँ । "
सरकारी कॉलिज में पढ़ते हुए तो मैं निरंतर विचार करता रहता था कि एम . एस - सी. करने पर कहाँ और कैसी
नौकरी मिलेगी । आज पहली बार यह कानों में पड़ा कि वास्तविक शिक्षा वह है, जिसकी सरकार और लोगों को
जरूरत हो ।
मैं भाईजी का मुख देखता रहा । इसके उपरांत भाईजी साइंस के विषय में अन्य पूछताछ करते रहे ।
वास्तव में मेरी राजनीति में नया अध्याय आरंभ हुआ था । गांधीजी की राजनीति तो पहले भी मेरी समझ में नहीं
आती थी । भाईजी की नीति थी कि राज्य का बहिष्कार नहीं, वरन् राज्य में देशभक्तों का घुस जाना । यही मैं गवर्नमेंट
कॉलिज के विद्यार्थियों को कहता था । देशभक्त बनकर सरकारी अफसर बनो ।
यहाँ भाईजी के प्रथम पाठ का अर्थ मैं यह समझा था कि देश में योग्य मानव बनाओ। वे देशभक्त हों तो सरकार
देशीय हो जाएगी । यह जड़ों में क्रांति लाना था । फल स्वत: क्रांति ही होगा ।
ऐसा प्रतीत होता है कि सन् 1922 में भारत इस प्रकार के विचारों के अनुकूल नहीं था । गांधीजी की योजना
असफल हो चुकी थी । कारण कुछ भी मानो, गांधीजी का नाम असफलता का लक्षण होता जा रहा था । नेहरू
( मोतीलाल) का नाम जनता के समक्ष आ रहा था ।
नेहरू नीति किसी प्रकार से भी भाईजी को पसंद नहीं थी । प्रत्यक्ष रूप में नेहरू - परिवार हिंदू विचार का विरोधी था
और भाई परमानंद समझते थे कि देश हिंदू समाज के लिए है और हिंदू समाज ही देश का कल्याण कर सकेगा ।
" परंतु भाईजी! भाईजी के एक शिष्य गोकुलचंद्र ने पूछ लिया, " गांधीजी भी तो अपने को रामभक्त कहते हैं ? "
उन दिनों गांधीजी मोतीलालजी की प्रेरणा से खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर चुके थे। खिलाफत आंदोलन
की असफलता पर मुसलमानों में निराशा का संचार हो चुका था और देश में सबसे भयंकर हिंदू-मुसलमान फसाद
मोपला-विद्रोह के नाम से संपन्न हो चुका था ।
इस प्रकार गोकुलचंद्रजी के कहने पर भाईजी ने आवेश में कहा, " गांधीजी इज आइदर ए फूल और ए नेव ( या
तो गांधीजी मूर्ख हैं या धूर्त हैं ) । "
भाईजी खिलाफत के पद से भारत का संबंध नहीं मानते थे। मुसलमानों के नेता मुहम्मद अलीहिंदुओं को गालियाँ
देते थे और कांग्रेसी कहते फिरते थे, “हिंदू-मुसलमान भाई - भाई! "
यह तो मुझे भाईजी की संगति से ही ज्ञात हुआ था कि देश के लिए त्याग- तपस्या हिंदू ही कर सकता है,
मुसलमान तो दूध पीनेवाले मजनूँ हैं ।
नेशनल स्कूल में काम करते हुए मेरे राजनीतिक विचारों में भारी परिवर्तन हुआ था । गांधीजी की सदैव और सर्वत्र
अहिंसा एक न समझ में आनेवाली बात हो गई थी । साथ ही कांग्रेस का प्रत्येक कीमत पर हिंदू-मुसलिम का ऐक्य
का घोष मूर्खतापूर्ण प्रतीत होने लगा था । पंजाब के युवक सत्याग्रह का विकल्प ढूँढ़ने लगे थे ।
महामना पंडित मदनमोहन मालवीय , बालगंगाधर तिलक उनसे पूर्व स्वामी दयानंद, विवेकानंद इत्यादि का एक
उपाय था , वह था जन - जागृति ।
वीर सावरकर, लाला हरदयाल इत्यादि क्रांतिकारियों का दूसरा उपाय था हिंसात्मक क्रांति ।
इन दोनों उपायों में मुसलमानों की हैसियत से कहीं कोई नहीं था । उत्तर प्रदेश में एक - दो मुसलमान रामप्रसाद
बिस्मिल के साथियों में थे, परंतु वे अपवाद ही कहे जा सकते थे। वस्तुतः ये दोनों आंदोलन हिंदू आंदोलन ही थे ।
यह ज्ञान - वृद्धि भाई परमानंदजी की संगति और सान्निध्य का फल था । भाईजी की विचारधारा की सत्यता का
प्रमाण मोपला-विद्रोह , सहारनपुर दंगा और कोहाट के हिंदू- मुसलमान फसाद ने प्रस्तुत कर दिया था ।
अत : पंजाब में दो आंदोलन चलने लगे । एक तिलक इत्यादि हिंदूविचार के लोगों के पदचिह्नों पर था और दूसरा
सावरकर इत्यादि क्रांतिकारियों की नकल पर था । एक का नाम था आर्य स्वराज्य सभा और दूसरा था नौजवान
भारत सभा ।
इन दोनों आंदोलनों में सक्रिय भाग लेने का अवसर मुझे मिला ।
मैं नेशनल स्कूल का हेडमास्टर ही था । एक दिन स्कूल की छुट्टी के उपरांत मैं घर को जा रहा था कि नेशनल
कॉलिज के दो विद्यार्थी मेरे साथ चल पड़े । एक थे जो पीछे सरदार भगत सिंह के नाम से विख्यात हुए और दूसरे थे
श्री सुखदेव । कुछ दूर तक साथ चलते - चलते भगत सिंह ने कहा, " मास्टरजी! हम आपके साथ चल रहे हैं । "
" वह तो देख रहा हूँ , कुछ काम है ? मैंने पूछा । ।
“ जी ! हम गांधी द्वारा फैलाई भ्रांतियों को जनमानस से मिटाने के लिए एक सभा बनाना चाहते हैं । "
" सभा का क्या नाम रखोगे ? "
" यह अभी विचाराधीन है । "
" गांधीजी की किस भ्रांति को मिटाने का यत्न करना चाहते हो ? "
" सर्वत्र सदा अहिंसा । "
" यह तो नकारात्मक काम हुआ । कुछ सकारात्मक कार्यक्रम होना चाहिए । "
" उसी के लिए तो आपसे राय कर रहे हैं । "
मैंने मुसकराते हुए पूछा, “ सड़क पर चलते- चलते ? "
" नहीं , किसी सुरक्षित स्थान पर चलेंगे। " और फिर मैंने भगत सिंह की भेंट केदारनाथ सहगल से करवाई, जो
बम बनाना जानता था । भेंट करवाते समय मैंने भगत सिंह से कहा, " गुरु दक्षिणा नहीं दोगे शिष्य! "
" कहिए मास्टरजी, क्या देना होगा ? "
" बम का इस्तेमाल कभी किसी निर्दोष की हत्या के लिए नहीं करोगे । "
" ऐसा ही होगा मास्टरजी । "
भगत सिंह ने मुझको दिया हुआ वचन जीवन भर निभाया । असेंबली में भी उस स्थान पर बम फेंका, जहाँ कोई
नहीं था ।